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बिहार की जातिगत सर्वेक्षण

    बिहार में जातिगत सर्वेक्षण या जातीय जनगणना अपने आखिरी पड़ाव पर है. यह एक ऐसा मुद्दा है जिसने राज्य को कई प्रकार से प्रभावित किया है. राज्य विधानमंडल में जातिगत सर्वेक्षण करवाने का फैसला पहली बार फ़रवरी 2019 में सर्वसम्मति से लिया गया था. उस वक्त राज्य विधानमंडल में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया गया. फिर, 2 जून 2022 को इस संकल्प को विधानमंडल में दोहराया गया और 6 जून 2022 को इस संबंध में अधिसूचना जारी किया गया.

    बिहार सरकार के जातिगत सर्वेक्षण करवाने के उपरोक्त फैसले का कई लोगों ने स्वागत किया, लेकिन कई लोगों ने इसका विरोध भी किया. इसके बाद यह मामला निचली अदालत, उच्च न्यायालय से होते हुए सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच गया.

    बिहार जातिगत सर्वेक्षण पर अब तक की कहानी (Bihar Caste Survey: Story till date)

    सुप्रीम कोर्ट 18 अगस्त को बिहार सरकार के चल रहे जाति सर्वेक्षण को बरकरार रखने वाले पटना उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की. इससे पहले जस्टिस संजय खन्ना और एसवीएन भट्टी की खंडपीठ ने 14 अगस्त को विवादास्पद सर्वेक्षण पर रोक लगाने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया था.

    यह मामला पटना उच्च न्यायालय के जातिगत जनगणना पर रोक लगाने से इंकार के बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है. 1 अगस्त को, पटना उच्च न्यायालय ने राज्य की जातिगत सर्वेक्षण की कार्रवाई पूरी तरह से वैध पाया था और इसे जारी रखने की अनुमति दे दी.

    उपरोक्त फैसला 4 मई को हाई कोर्ट द्वारा सर्वे पर अंतरिम रोक के खिलाफ है. 4 मई के फैसले के बाद राज्य सरकार ने मामले की जल्द सुनवाई की मांग करते हुए एक याचिका दायर की, जिसे अंततः उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया. इसके बाद, राज्य सरकार ने रोक हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन 18 मई को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए राहत देने से इनकार कर दिया कि हाई कोर्ट ने मामले को 3 जुलाई को सुनवाई के लिए रखा है.

    3 जुलाई से 7 जुलाई तक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के.वी. चंद्रन की बेंच में लगातार सुनवाई हुई और फैसला 1 अगस्त के लिए सुरक्षित रखा गया था.

    बिहार का जातिगत जनगणना क्या है (What is Caste Census of Bihar in Hindi)?

    बिहार में 7 जनवरी 2023 को दो चरणों में जातिगत सर्वेक्षण शुरू किया गया. इसका उद्देश्य राज्य के लोगों के सामाजिक-आर्थिक जानकारी का विस्तृत आंकड़ा जुटाकर वंचित समूहों के लिए बेहतर सरकारी नीतियां बनाना है. बिहार सरकार ने 2 जून, 2022 को राज्य कैबिनेट के फैसले के बाद इस आशय की एक अधिसूचना 6 जून 2022 को जारी की.

    इस सर्वेक्षण में आम लोगों के जाति के साथ-साथ परिवारों की आर्थिक स्थिति को भी दर्ज किया जा रहा है. इसमें बिहार के 38 जिलों में 12.70 करोड़ आबादी के सामाजिक-आर्थिक डेटा एकत्र करने का अनुमान है. सर्वेक्षण का पहला चरण 7 जनवरी से 12 जनवरी तक चला, जिसमें मकानों का पंजीकरण किया गया.

    दुसरा चरण 15 अप्रैल को शुरू किया गया. इसे 15 मई तक पूरा होना था. लेकिन 4 मई को हाई कोर्ट की रोक के बाद जातिगत सर्वेक्षण का काम रोक दिया गया. स्थगन आदेश के बाद, बिहार सरकार ने संकेत दिया कि सर्वेक्षण को ‘किसी भी कीमत पर’ पूरा करने के लिए विधायी मार्ग अपनाया जा सकता है.

    आगे 1 अगस्त को उच्च न्यायालय के फैसले में राज्य सरकार के इस इस कदम का विरोध करने वाली सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया गया. इसके बाद सरकार ने 2 अगस्त को सर्वेक्षण के दूसरे चरण पर काम फिर से शुरू किया. दूसरे चरण में सभी लोगों की जाति से संबंधित डेटा एकत्र किया जाना है. अंतिम सर्वेक्षण रिपोर्ट सितंबर, 2023 तक आने की उम्मीद की जा रही है.

    18 अगस्त को माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष राज्य के तरफ से उपस्थित अधिवक्ता ने बताया कि जातिगत सर्वेक्षण के दूसरे चरण से जुड़े पूरी प्रक्रिया 6 अगस्त तक पूरी कर ली गई और अपलोडिंग आदि 12 अगस्त तक कर ली गई है.

    अब इस मामले पर अगली सुनवाई 21 अगस्त को नियत की गई है.

    भारत में जातिगत जनगणना और इसका इतिहास (Caste Census in India and its history in Hindi)

    हमारे देश में प्रथम बार जनगणना 1872 में लार्ड मेयो के कार्यकाल में संपन्न की गई. तदोपरांत, 1881 से हरेक 10 वर्ष पर नियमित जनगणना की जाती रही. आजादी से ठीक पहले 1941 में यह सम्पन्न हुआ था. इस साल जाति से जुड़े आंकड़े जरूर जुटाए गए, लेकिन इन्हें प्रकाशित नहीं किया गया.

    इससे पहले ब्रिटिश भारत में साल 1931 में हुए जनगणना में जाति सम्बन्धी आंकड़े जुटाए और प्रकाशित किए गए थे. आजादी के बाद जब मंडल आयोग के रिपोर्ट के आधार पर पिछड़ा वर्ग आरक्षण लागु किया गया, तो 1931 के आंकड़ों को ही आधार माना गया. इसका कारण था, पिछड़े वर्ग से जुड़े समकालीन आंकड़ों का उपलब्ध न होना.

    मंडल कमीशन ने 1931 के जनगणना के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का आबादी 52 फीसदी माना. लेकिन, यह पांच दशक पुराने आंकड़ों पर आधारित था. इसलिए इसका वैज्ञानिक व वास्तविक होने पर सवाल भी उठता रहता है.

    ओबीसी समुदाय के सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर आधुनिक आंकड़े उपलब्ध नहीं है. इसे निति निर्माण में बाधा मानकर इससे जुड़े आंकड़े जातिगत जनगणना के द्वारा एकत्रित करने के मांग उठते रहे है. इसके पक्ष में दलील दी जाती है कि इससे समाज में विभिन्न समुदायों से जुड़े ताजा और वैज्ञानिक आंकड़े प्राप्त होंगे, जो नीति और योजनाओं को बनाने व लागु करने के लिए महत्वपूर्ण होंगे. वहीं, कुछ लोग जाति के आंकड़े को जुटाना निजता पर हमला मान रहे है. इसी के आधार पर बिहार सरकार के फैसले को चुनौती दी गई है.

    बहरहाल, ये भी एक तथ्य है कि 1951 और उसके बाद हुए सभी जनगणना में अनुसूचित जाति और जनजातियों का आंकड़ा तो जुटाया गया, लेकिन अन्य जातियों से जुड़े आंकड़े नहीं जुटाएं गए. इस दौरान धर्म से जुड़े आंकड़े भी जुटाएं जाते रहे. लेकिन पिछड़े व अन्य जातियों के आंकड़ों पर जनगणना मौन रहा.

    इस दिशा में साल 2011 में प्रयास हुए. लेकिन यह आंकड़ा कई विसंगतियों का हवाला देकर प्रकाशित नहीं किया गया. साल 2011 में हुए इस जनगणना को ग्रामीण इलाकों में भारत सकरार के ग्रामीण विकास विभाग और शहरी इलाकों में आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय द्वारा आयोजित किया गया, जिसे सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना 2011 (SECC) नाम दिया गया.

    अन्य राज्यों में हुए जातिगत सर्वेक्षण (Caste Surveys of Other States in Hindi)

    1. केरल का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण 1968: 1968 में केरल सरकार ने जातिगत असमानताओं का आकलन करने के लिए केरल राज्य में प्रत्येक निवासी के सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का आदेश दिया. 2011 की जनगणना तक, यह सर्वेक्षण स्वतंत्रता के बाद भारत में आयोजित एकमात्र जाति-आधारित जनगणना थी. हालाँकि, इसमें जुटाएं गए आंकड़ों में काफी खामियां थी. लेकिन इससे उच्च जातियों के पास अधिक जमीन पाई गई. इनका औसत आय भी अन्य समुदायों से बेहतर पाया गया.
    2. तेलंगाना का समग्र कुटुम्ब सर्वेक्षण 2014 (2022 में प्रकाशित): इस रिपोर्ट में तेलंगाना की आबादी लगभग 3.69 करोड़ पाई गई है. इनमें अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) क्रमशः जनसंख्या का लगभग 18.48% और 11.74% हैं. राज्य की आबादी का 53.58% भाग पिछड़ी जातियों से सम्बंधित है. धार्मिक अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 10.65% और अन्य जातियाँ लगभग 16.03% हैं.
    3. कर्नाटक जाति जनगणना 2015: कर्नाटक में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण को सूचित करने के लिए 2014 में कर्णाटक सरकार द्वारा सामाजिक और शैक्षिक सर्वेक्षण करवाने का फैसला किया. लेकिन यह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है. पिछड़ा वर्ग आयोग के इस सर्वेक्षण में 1.6 लाख सरकारी कर्मचारी शामिल थे. इसमें लगभग 1.3 करोड़ घरों को शामिल किया गया, जिसका बजट 169 करोड़ रुपये था.
    4. इसके अलावा उत्तराखंड और उड़ीसा में भी जातिगत जनगणना से जुड़े सर्वेक्षण किए जा रहे है. इनसे जुड़े आंकड़े फिलहाल प्रकाशित नहीं हुए है.

    जातिगत सर्वेक्षण की जटिलताएँ (Complications of Caste Survey in Hindi)

    बिहार सरकार के जातिगत सर्वेक्षण पर रोक की मांग करने वाले याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि संविधान के सातवीं अनुसूची की संघ सूची की प्रविष्टि 69, जनगणना अधिनियम, 1948; और जनगणना नियम, 1990 के तहत केंद्र सरकार संविधान के तहत जनगणना करने के लिए विशेष रूप से अधिकृत है. इनका ये भी तर्क है कि राज्य सरकार के पास केंद्र सरकार द्वारा जारी जनगणना अधिनियम, 1948 की धारा 3 के तहत किसी अधिसूचना के बिना डेटा संग्रह के लिये ज़िला मजिस्ट्रेट और स्थानीय अधिकारियों को नियुक्त करने की कानूनी क्षमता का अभाव है.

    इससे पहले पटना उच्च न्यायालय ने इंद्रा साहनी वाद (Indra Sawhney Case) के फैसले को आधार मानते हुए कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत सामाजिक पिछड़ेपन को सुधारने के लिये जाति की पहचान करना गलत नहीं है. गौरतलब है कि इस अनुच्छेद के तहत जहां केंद्र सरकार आरक्षण का प्रावधान करती है, वहीं बिहार सरकार के नौकरियों में भी इसके तहत आरक्षण का प्रावधान है.

    संभावित फायदे और नुकसान (Potential Advantages and Disadvantages)

    जातिगत सर्वेक्षण के लिए बिहार सरकार ने ₹1,000 करोड़ का बजट आवंटित किया है. जातिगत सर्वेक्षण का बिहार पर कई तरह का प्रभाव पड़ सकता है, जिनमें सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व शैक्षणिक प्रभाव शामिल है. इससे जातिगत भेदभाव को कम करने में मदद कर सकता है. सर्वेक्षण से कि राज्य में विभिन्न जातियों की आबादी और विभिन्न पहलुओं पर उनके पिछड़ेपन का पता चल सकेगा. इससे राज्य के समुदायों के शैक्षणिक, आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन का समकालीन व वैज्ञानिक आंकड़ा प्राप्त होगा, जो सरकार को वंचित समूहों के लिए बेहतर नीतियां और योजनाएं बनाने में मददगार होगी.

    दूसरी संभावना यह है कि यह जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देगा. जातिगत सर्वेक्षण से जातिगत पहचान पर अधिक ध्यान केंद्रित करने में मदद मिल सकती है, और इससे जातिगत आधार पर संघर्ष बढ़ सकता है. इसका एक प्रभाव राज्य की राजनीति पर भी हो सकता है और जातिगत सर्वेक्षण के परिणामों से राजनीतिक दलों को अपने चुनावी रणनीति में बदलाव करने की आवश्यकता पड़ सकती है.

    कई समाजशास्त्रियों और राजनीतिक विशेषज्ञों की राय है कि भारत में जाति भेदभाव से लड़ने में जातिगत सर्वेक्षण महत्वपूर्ण है और ‘जातिगत अंधापन’ जाति पदानुक्रम को कायम रखता है. यह भी दावा किया गया कि ‘जाति’ वाक्यांश ऐतिहासिक रूप से केवल निचली जातियों जैसे कि एससी और ओबीसी के साथ जुड़ा हुआ है, जबकि ऊंची जातियों को हमेशा ‘जातिविहीन’ माना जाता रहा है. तदनुसार, जाति सर्वेक्षण एक मौलिक समतावादी समाज के निर्माण और सामाजिक-आर्थिक अभावों का पता लगाने में मदद करता है.

    इस तरह हम कह सकते है कि जातिगत सर्वेक्षण सदैव एक जटिल और विवादास्पद मुद्दा है. इसका बिहार के समाज और राजनीति पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है. अनुमान है कि जातिगत सर्वेक्षण के सफल होने के बाद केंद्रीय स्तर पर सम्पूर्ण देश के लिए एकल जातिगत जनगणना का मांग उठ सकता है.

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