भारत की प्रमुख जनजातियां, वितरण, आबादी, जीवन-शैली व समस्याएं

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में जनजातियों की कुल जनसंख्या 10,42,81,034 है. जो भारत की कुल जनसंख्या का 8.6% हैं. जिसमे ग्रामीण जनसंख्या 11.3% जबकि शहरी जनसंख्या 2.8% हैं. भारत में जनजातियों का लिंगानुपात 990 हैं. जिस में सर्वाधिक लिंगानुपात गोवा (1046) तथा सबसे कम जम्मू कश्मीर (924) का है. दिल्ली, चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा एवं पुडुचेरी में कोई भी अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe -ST) नहीं पाई जाती है या इनकी संख्या नगण्य है.

इस लेख में हम जानेंगे

जनजाति क्या है?

जनजाति एक ऐसा सामाजिक समूह है जो एक क्षेत्र विशेष से जुड़ा होता है और अपने इस समूह में विवाह करता है. लिंग पर आधारित श्रम विभाजन के अतिरिक्त अन्य श्रम विभाजन नहीं करता तथा वंशानुगत अथवा अन्य प्रकार की जनजाति समूहों से प्रभावित होता है. इसके प्रत्येक समूह की अलग-अलग भाषा होती है.

जनजाति समूह अपनी संस्कृति एवं क्षेत्रीय संगठनों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं. भारत के संविधान में इन्हें अनुसूचित जनजाति कहा गया है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366 (25) के अनुसार, अनुसूचित जनजातियां “ऐसी जनजातियां या आदिवासी समुदाय या ऐसी जनजातियों या जनजातीय समुदायों के हिस्से या समूह हैं जिन्हें संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद 342 के तहत अनुसूचित जनजाति माना जाता है.”

जनजाति समूह कौन हैं? (Who are Tribes)

जनजाति समूह मानव सभ्यता की प्रारम्भिक सामाजिक संरचना के रूप में विकसित हुए. आदिम मानव अपनी आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण पर निर्भर था. मौसम के अनुसार खाद्य उपलब्धता बदलने के कारण वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे, किंतु समय के साथ किसी विशेष भूभाग पर बस जाने से उनका उससे भावनात्मक जुड़ाव गहरा हो गया और समूह बनना अपरिहार्य हो गया. यही समूहिक जीवन धीरे-धीरे जनजातीय संरचना में परिवर्तित हुआ.

मानव विज्ञान में जनजाति को प्रायः ऐसे समाज के रूप में देखा गया है जो अपेक्षाकृत पिछड़े, दुर्गम स्थानों में रहते थे और लेखन कला से अपरिचित थे. उन्हें नस्लीय रूप से अलग-थलग समझा गया, जबकि वास्तविकता यह है कि भारतीय जनजातियों के अन्य सामाजिक समूहों से निरंतर संबंध रहे हैं और उनकी सांस्कृतिक विरासत साझा रही है.

आंद्रे बीटिले ने अपनी पुस्तक जनजाति, जाति और धर्म में जनजाति को राजनीतिक, भाषायी और सांस्कृतिक रूप से सीमाबद्ध समाज बताया है, जहाँ नातेदारी पर आधारित सामाजिक संगठन होता है, परंतु स्तरीकरण या वर्ग-भेद नगण्य होता है. उन्होंने यह भी माना कि यह परिभाषा आदर्श रूप है, जबकि वास्तविकता में जनजातीय समाज भी ऐतिहासिक प्रक्रिया से बदलते रहे हैं.

भारत में “अनुसूचित जनजाति” शब्द का प्रयोग एक प्रशासनिक और राजनीतिक अवधारणा के रूप में हुआ है. इसे उन समुदायों के लिए प्रयुक्त किया गया है जो वनों और पहाड़ों जैसे सुदूरवर्ती क्षेत्रों में रहते आए हैं और विकास के सूचकों पर अपेक्षाकृत पिछड़े हैं. अनुसूचित जनजाति की पहचान दो प्रमुख मापदंडों – सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन और भौगोलिक एकांत – के आधार पर की गई है.

भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण द्वारा “पीपुल ऑफ इंडिया प्रोजेक्ट” के अंतर्गत किए गए सर्वेक्षण में देश में 461 जनजातीय समुदायों की पहचान की गई, जिनमें से 174 उपसमूह हैं. इससे स्पष्ट होता है कि भारत की जनजातीय संरचना अत्यंत विविध और जटिल है. नाम और भाषा की भिन्नता के कारण कई बार जनजातियों की सटीक पहचान कठिन हो जाती है. उदाहरण के लिए, एक ही जनजाति का नाम अलग-अलग राज्यों में भिन्न रूप से प्रयुक्त होता है या फिर अलग-अलग समूह एक ही नाम से जाने जाते हैं.

जनजातियों को लेकर राज्यों के दृष्टिकोण में भी भिन्नता देखी जाती है. जैसे – हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में गुर्जर मुस्लिम अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता प्राप्त हैं, लेकिन पंजाब में वे अनुसूचित जनजाति नहीं हैं. महाराष्ट्र में कमार अनुसूचित जनजाति है, किंतु पश्चिम बंगाल में उन्हें हिंदू जाति के रूप में माना जाता है. आंध्र प्रदेश में माने डोरा अनुसूचित जनजाति है, जबकि ओडिशा में वही समूह गैर-अनुसूचित हिंदू गिने जाते हैं. इस प्रकार, जनजातीय वर्गीकरण का कोई एकसमान स्वरूप नहीं है.

अजाजुद्दीन अहमद ने अपनी पुस्तक सोशल ज्योग्राफी में बताया है कि जनजातीय समुदायों को अलग-अलग संदर्भों में अनुसूचित किया गया, जिसके कारण कई बार गंभीर अस्पष्टता उत्पन्न होती है. कई राज्य अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को परस्पर बदलने योग्य श्रेणियों के रूप में देखते हैं.

स्पष्ट है कि भारत में जनजाति समूह केवल एकसमान सामाजिक इकाई नहीं हैं, बल्कि वे ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं से भरे समुदाय हैं. इन्हें समझने के लिए उनके स्थानीय संदर्भों, परंपराओं और अन्य सामाजिक समूहों से उनके संबंधों पर ध्यान देना आवश्यक है.

वितरण

भारत में जनजातीय समूहों का वितरण मुख्यतः उन क्षेत्रों में है जो पहाड़ी, वनीय या दुर्गम हैं और जहाँ स्थायी कृषि की संभावनाएँ सीमित रही हैं. समय के साथ कृषक समूहों द्वारा इन जनजातियों को ऐसे इलाकों में धकेला गया. उनकी जीवनशैली और अर्थव्यवस्था उनके पारिस्थितिकीय परिवेश से गहराई से जुड़ी हुई है. पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली और पुडुचेरी को छोड़कर जनजातियाँ लगभग पूरे देश में फैली हुई हैं. जनसंख्या और सांस्कृतिक विविधता के आधार पर भारत को सात प्रमुख जनजातीय क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है:

(1) उत्तरी क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और बिहार की जनजातियाँ शामिल हैं. खासा, थारू, भोक्सा, भोटिया, गुज्जर और जौनसारी इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं. खासा में बहुपतित्व प्रचलित है, भोटिया चटाइयाँ व कालीन बनाने और चीन सीमा व्यापार से जुड़े हैं, जबकि गुज्जर मुख्यतः पशुपालक हैं. गरीबी, शिक्षा का अभाव और दुर्गम स्थलाकृति उनकी मुख्य समस्याएँ हैं.

(2) पूर्वोत्तर क्षेत्र में सातों पूर्वोत्तर राज्य आते हैं. नागा, खासी, गारो, मिशिंग, मिरी, कर्वी और अपातानी प्रमुख जनजातियाँ हैं. ये मंगोलॉयड नस्ल से जुड़ी हुई हैं, औपनिवेशिक शासनकाल की मिशनरी गतिविधियों से ईसाई धर्म से प्रभावित हुईं और उच्च साक्षरता प्राप्त की. झूम खेती से पर्यावरणीय क्षय और संचार साधनों की कमी उनकी मुख्य चुनौतियाँ हैं.

(3) मध्य क्षेत्र में दक्षिणी मध्य प्रदेश से लेकर दक्षिणी बिहार और उत्तरी ओडिशा तक का क्षेत्र शामिल है. यह सबसे अधिक जनजातीय संकेंद्रण वाला क्षेत्र है. संथाल, मुंडा, हो, बैगा, बिरहोर और मुरिया प्रमुख जनजातियाँ हैं. संथालों ने अपनी लिपि ओले चीकी विकसित की. बैगा झूम खेती करते हैं जबकि बिरहोर अत्यधिक पिछड़ेपन के कारण विलुप्ति के कगार पर हैं. भूमि अन्याक्रमण, ऋणग्रस्तता और शोषण यहाँ की गंभीर समस्याएँ हैं.

(4) दक्षिणी क्षेत्र में नीलगिरि और उससे जुड़े कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र आते हैं. टोडा, कोया, चेंचू और अल्लार प्रमुख जनजातियाँ हैं. टोडा पशुपालन में संलग्न हैं, चेंचू आखेट पर आधारित हैं और अल्लार गुफाओं व पेड़ों पर निवास करते हैं. इस क्षेत्र की समस्याओं में आर्थिक पिछड़ापन, झूम कृषि और भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा शामिल है.

(5) पूर्वी क्षेत्र में पश्चिम बंगाल और ओडिशा के भाग आते हैं. पारजा, खोंड, भूमिज, बोंडा, गदाबा, साओरा और भुइयाँ प्रमुख जनजातियाँ हैं. खोंड मानव बलि की कुप्रथा के लिए कुख्यात थे, जिसे ब्रिटिश शासन ने बंद कराया. साओरा अपनी जादू विद्या के लिए प्रसिद्ध हैं. विस्थापन, आर्थिक पिछड़ापन, शोषण और बीमारियाँ इस क्षेत्र की समस्याएँ हैं.

(6) पश्चिमी क्षेत्र में राजस्थान और गुजरात आते हैं. भील, गरेशिया और मीणा यहाँ की प्रमुख जनजातियाँ हैं. भील अच्छे तीरंदाज माने जाते हैं और महाराणा प्रताप की सेना से जुड़े थे. मीणा अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित और प्रगतिशील माने जाते हैं.

(7) द्वीप समूह क्षेत्र में अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप और दमन-दीव आते हैं. यहाँ की कई जनजातियाँ अत्यंत पिछड़ी हैं और पत्थर युगीन जीवनशैली से उबरने की कोशिश कर रही हैं. कई को गौण जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिन पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है. बीमारियाँ, कुपोषण और जीविका संकट यहाँ की प्रमुख समस्याएँ हैं.

अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या

वर्ष 2011 के जनगणना अनुसार, अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 104.3 मिलियन (10,42,81,034) हो गई है. जिसमें 93.8 मिलियन (9,38,19,162) ग्रामीण क्षेत्रों से और 10.5 मिलियन (1,04,61,872) शहरी क्षेत्रों में है. यदि अनुपात की बात करें तो, अनुसूचित जनजाति की संख्या कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है जो 2001 की जनगणना में 8.2 प्रतिशत थी. इस प्रकार अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या में विगत् दशक के दौरान 0.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. अनुसूचित जनजाति का अधिकतम अनुपात लक्षद्वीप में (94.8 प्रतिशत) और निम्नतम अनुपात (0.6 प्रतिशत) उत्तर प्रदेश में दर्ज किया गया है.

अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या में 20.0 मिलियन तक की निरपेक्ष बढ़ोतरी हुई है. यह 23.7 प्रतिशत की दशकीय वृद्धि बनती है. अनुसूचित जनजाति की सर्वाधिक जनसंख्या मध्यप्रदेश में (15.3 मिलियन) और निम्नतम संख्या दमन एवं दीव में (15,363) दर्ज की गई है.

लिंग संरचना के लिहाज से, पुरुष अनुसूचित जनजाति की संख्या 52.4 मिलियन है (ग्रामीण-47.1 मिलियन और शहरी-5.3 मिलियन) महिला जनजाति की संख्या 51.9 मिलियन (ग्रामीण-46.7 मिलियन और शहरी-5.2 मिलियन) हो गई है.

भारत की प्रमुख जनजातियां व उनकी जीवन-शैली

  • शीर्ष अनुसूचित जनजाति जनसंख्या वाले राज्य क्रमशः मध्य प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात.
  • प्रतिशत की दृष्टि से शीर्ष अनुसूचित जनजाति वाले राज्य/केंद्र शासित प्रदेश क्रमशः मिजोरम (94.4%), लक्षदीप (94%), नागालैंड (86.5%), मेघालय (86.1%), अरुणाचल प्रदेश.

खासी

98 प्रतिशत खासी जनजाति मुख्यतः मेघालय, असम व त्रिपुरा में पाई जाती है. मुख्यतः मेघालय की खासी और जयतियां पहाड़ियों में रहने वाली आदिम जाति के लोग खासी कहलाते हैं. इनमें समाज में कई वर्ग होते हैं. यद्यपि इन सामाजिक वर्गों में ऊचे-नीचे स्तर होते हैं, फिर भी इनमें परस्पर संबंध हो सकते हैं. इसमें निम्न चार प्रमुख सामाजिक श्रेणियां (social Classes) शामिल हैं:-

  1. की-साऐम (Kie-Siem), ये राजवंशी होते हैं.
  2. की-लिंगोह (Kie-Lingoh), पुजारियों के वंशज.
  3. मंत्री वंशज.
  4. प्रजा वंशज.

खासी जाति का पेशा सीढ़ीदार खेतों में कृषि करना है. इसके अतिरिक्त खासी लोग झूम कृषि करते हैं. शताब्दियों से पहाड़ी मोटे अनाज, जैसे-कोदों, चौलाई,फाफड़ा, कोटू इत्यादि झूम कृषि द्वारा ही उत्पन्न किये जाते रहे हैं.

खासी जाति में मातृसत्ताप्रधान सामाजिक संगठन होता है. इसमें सबसे छोटी पुत्री का स्थान बहुत महत्वपूर्ण होता है. परिवार की सम्पति की वही उत्तराधिकारी होती है और वही धार्मिक पूजाएं करती है. इनमें एक पति व पत्नी की ही प्रथा है. विवाह के बाद तलाक या पुनर्विवाह भी होते हैं.

मृतक का दाह संस्कार होता है. परंतु चेचक, हैजा, आदि रोगों से मृत्यु होने पर शव को भूमि में गाड़ दिया जाता है. भारत में अंग्रेजी राज्य के समय से ईसाई मत के प्रचारकों ने बहुत-से खासी आदिवासियों को ईसाई बना दिया है. खासी जनजाति आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की मोन-खमेर भाषा बोलती है.

इनके राजव्यवस्था में राजनीतिक संगठन का भी निर्माण किया जाता है. यह संगठन इनके मुखिया और उसकी मत्रिपरिषद् द्वारा बनता है. पूरे राज्य की जनजाति के अध्यक्ष को सियम कहा जाता है. लेकिन उसकी शक्तियां बेहद सीमित हैं. वह स्वतंत्र रूप से कोई कार्य नहीं कर सकता और उसे अपनी कार्यकारी परिषद् पर निर्भर रहना पड़ता है.

भील जनजाति

भील शब्द का अर्थ ‘धनुष’ होता है जिसकी उत्पत्ति द्रविड़ के ‘बील’ से हुआ है.  अनुमान है कि, भील शब्द का अर्थ तमिल भाषा के विल्लवर शब्द से निकला है, जिसका अर्थ धनुर्धारी (Bowman) होता है. कुछ मानव शास्त्रियों का मत है कि भील जाति भारत की प्राक् द्रविड़ जातियों में से है. शारीरिक बनावट की दृष्टि से ये प्रोटो ऑस्ट्रेलॉयड हैं. इनका कद छोटा व मध्यम, बाल रूखे, आंखें लाल व जबड़ा बाहर निकला होता है.

यह भारत की सबसे बड़ी जनजाति है. ये मुख्यता राजस्थान, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं त्रिपुरा राज्य में निवासरत है. भीलवाड़ा क्षेत्र भील निवास का संकेतक है. ये इण्डो-आर्यन परिवार की भाषा बोलते हैं. भाषा की दृष्टि से इनके तीन मुख्य समूह हैं- भिलाली, भिलोदी और कोहना/कोकनी या कूकना.

जातीयता

भील जनजाति में राजपूत रक्त का मिश्रण है- दूवल, बूंदी, परमार व चौहान इसकी उप-जातियां हैं. इनके एक गांव में 20 से 30 परिवार होते हैं. छोटे गांव को फला और बड़े ग्राम को पाल कहते हैं. पाल का नेता ग्रामपति या मुखिया होता है. इनमें सामुदायिक भावना पायी जाती है. संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित है. स्त्रियों को बहुत कम अधिकार प्राप्त हैं. बहुविवाह की प्रथा भी पायी जाती है.

जीवन-शैली

ये सामान्यतया निर्धन हैं. कई भील अपराधी हैं. कई लघु स्तरीय कृषक हैं व जहां भूमि का अभाव है वहां ये पशुपालन करते हैं. इनका मुख्य भोजन मक्का, चावल, सांवा-रोटी, दूध, मांस, मछली व शराब है. भील स्त्रियां लंहगा-चोली, कांचली व ओढ़नी पहनती हैं. पोतियावाल भील धोती पहनते हैं जबकि लंगोटिया भील लंगोटी धारण करते हैं.

गोंड जनजाति

यह प्राक् द्रविड़ जनजाति है. इनकी त्वचा का रंग काला, बाल काले व आंखे, नाक फैली, होंठ मोटे, शारीरिक गठन संतुलित पर सुंदर नहीं होते. इनकी भाषा गोंडी है. गोंड भारत की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है जो भारत के लगभग 13 राज्यों में निवास करती है. यह जनजातियां मुख्य रूप से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में निवास करती है.  यह जनजाति मुख्यतः बस्तर पठार, नर्मदा, गोदावरी व महानदी की ऊपरी पहाड़ियों में निवास करती है. ये मध्य भारत के आठ राज्यों के 181 जिलों में फैले हैं.

1981 की जनगणना के अनुसार यह जनजाति मध्यप्रदेश, ओडीशा, महाराष्ट्र और कर्नाटक के सभी जिलों में, आंध्र प्रदेश के 21 जिलों में, बिहार के 29 जिलों में, गुजरात के 13 जिलों, पश्चिम बंगाल के 15 जिलों में पाई जाती है. मध्य प्रदेश के बस्तर पठार में इनके मुख्य वर्ग- मरिया, मुरिया, परजा, भटरा, गडाबा, हालबा तया ढाकर हैं. आंध्र प्रदेश के गंजाम और विशाखापट्टनम जिलों में साओरा वर्ग, कुरुश (Kurush) और केवट वर्ग के गॉड रहते हैं.

इनकी भाषा गोंडी हैं. इनके मुख देवता बुढादेव, दूल्हादेव, बुड्डापेन हैं. इन जनजातियों का भूत प्रेत और जादू टोना में अत्यधिक विश्वास होता है. ये लोग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने हेतु पशु बलि देते हैं. इनका विश्वास है कि बलि देने से खेती की उपज कई गुना बढ़ेगी अन्यथा देवताओं के नाराज होने पर फसल बिल्कुल नष्ट हो जाएगी.

अर्थव्यवस्था व जीवन-शैली

गौंड जनजाति नगले अर्थात् पल्ली और छोटे-छोटे गांवों में निवास करती है. ये लोग आत्मनिर्भर होते हैं और निम्न प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में संलग्न हैं.

  1. दिप्पा कृषि: यह स्थानांतरणशील कृषि का एक प्रकार है, जिसमें एक भूमि पर दो-चार वर्ष कृषि करने के बाद उस भूमि को छोड़ देते हैं और दूसरी भूमि पर कृषि करते हैं.
  2. पैण्डा कृषि: बस्तर के पहाड़ी भागों में, जहां ढालों पर वन खड़े हैं- पैण्डा कृषि की जाती है, जिसमें सीढ़ीदार खेतों पर कृषि होती है.
  3. मत्स्य कर्म: केवट, कुरुख (Kurukh) और धीमर लोग मछली पकड़ने का कार्य करते हैं और अनाज के बदले ये मारिया लोगों की मछलियां देते हैं.
  4. पशुचारण: रावत वर्ग गौंड जाति का एक उपवर्ग है. इसका प्रमुख पेशा पशुपालन है.
  5. लघु एवं कुटीर उद्योग: अध्रिप्रदेश में गंजम और विशाखापट्टनम् जिलों में सावरा (sawra) वर्ग के बहुत-से गौंड परिवार छोटे कुटीर उद्योग में लगे रहते हैं, जैसे-अरीसी (Arisi) वर्ग के लोग हथकरघों से कपड़ा बुनते हैं. कुन्डाल वर्ग के लोग टोकरियां बनाते हैं और बहुत-से परिवार लोहार हैं.

इनके औजार साधारण किस्म के होते हैं. स्थानीय लोहार ही हलों के फल, खुरपे, फावड़े, दरांती, हसिए, कुल्हाड़ी, तीर, हल की लकड़ी आदि बनाते हैं. ये लोग मजदूरी कार्य में भी लगे हैं. साधारणतः मजदूरी के बदले रुपए व अनाज दिया जाता है. कभी-कभी खेतिहर मजदूर दास भी बनाये जाते हैं.

ये सूती वस्त्रों का प्रयोग करते हैं, स्त्रियां मूंगे, नकली मोतियों के आभूषण, कौड़ियों की माला, बालों को संवारने के लिए सफेद बांस या पशुओं के सीगों के कघों का प्रयोग करती हैं.

नोट: वीरांगना रानी दुर्गावती का संबंद्ध गोंड जनजाति से हैं.

संथाल जनजाति

संथाल भारत की सबसे बड़ी आदिम जाति है. ये मुख्यतः राजमहल पहाड़ी व छोटानागपुर पठार क्षेत्रों में पायी जाती है. संथाल जनजाति झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल एवं असम राज्य में फैले हुए हैं. इनके दो मुख्य क्षेत्र हैं- एक संथाल परगना (झारखंड) व दूसरा मयूरभंज (ओडीशा). संथाल बांग्लादेश में (लगभग 70,000) और नेपाल में (लगभग 10,000 हजार) रहते हैं.

ये ऑस्ट्रेलॉयड और द्रविड़ प्रजाति के लोग हैं. इनकी त्वचा का रंग भूरा व काला, बाल घने व सीधे, नाक लम्बी तथा उठी हुयी व मुंह फैला या चौड़ा, होंठ पतले परंतु उभरे हुए व कद छोटा होता है. इनकी पहचान योग्य विशेषता नाटे कद एवं चौड़ी और चपटी नाक है.

संथाल के 12 कुल हैं जिसे परीज कहा जाता है. इसमें से प्रत्येक को कई उप-प्रभागों में बांटा जाता है जिसका आघार भी वंश होता है और जो पितृसत्तात्मक होता है. प्रत्येक परी या कुल उप-कुलों या उप-समूहों में विभाजित होता है, जिसे खुट कहा जाता है. विभिन्न परीज में खुटों की संख्या 13 से 28 के बीच होती है. इसमें एकल विवाह प्रचलित है. हालांकि बहुविवाह की अनुमति है, लेकिन व्यवहार में दुर्लभ है. उनकी भाषा संथाली है, बोली खेरवारी है. यह मुंडा आस्ट्रिक परिवार की भाषा के साथ संबंध रखती है.

इनके राजव्यवस्था में भजही संथाल ग्राम का मुखिया होता है. सभी लोगों को उसके निर्देशों का पालन करना होता है. परम्परागत रूप से, उसे पूरे गांव द्वारा चुना जाता है. वह गांव के बाहरी एवं आंतरिक दोनों मामलों का प्रतिनिधि होता है. न्यायिक मामलों के लिए संथाल के पास ऑतिम अपीलीय न्यायालय भी है.

संथाल जनजाति के लोग कुशल कृषक एवं उत्तम शिकारी होते हैं. यह भारत में पाई जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी जनजाति है. पहले, संथाल मुख्य रूप से आखेट पर निर्भर रहते थे. लेकिन अब उन्होंने चाय बागानों और खदानों में भी काम करना शुरू कर दिया है.

पुरुष एवं महिला दोनों ही कृषि कार्य करते हैं. वनों की सफाई या जुताई या मिट्टी के बांध बनाने जैसे भारी काम पुरुषों द्वारा किए जाते हैं. सुअर, बकरी, गाय, भैंस, भेड़, कबूतर, मुर्गी इत्यादि जैसे घरेलू जानवरों की देख-रेख एवं कार्य परिवार के सभी सदस्यों की संयुक्त जिम्मेदारी समझी जाती है.

मुंडा जनजाति

मुंडा जनजाति मुख्य रूप से झारखंड या छोटानागपुर का पठार में निवास करती है. लेकिन इसका कुछ हिस्सा बिहार पश्चिम बंगाल एवं उड़ीसा आदि राज्यों में भी निवास करते है. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक ये लोग वन में प्रायः झोंपड़ियों के समूहों में रहते थे, परंतु बाद में ये उरांव, आदि अन्य जनजातियों की तरह छोटे-छोटे गांवों की बस्तियों में रहने लगे और खाद्य-संग्रह तथा स्थानांतरण कृषि के साथ-साथ स्थायी कृषि भी करने लगे हैं.

इनकी भाषा ‘मुंडा’ हैं. यह भाषा ऑस्ट्रिक परिवार की भाषा है. जिसमें वन, पर्वत, पशुपालन संबंधित शब्द अत्यधिक होते हैं. यह भाषा प्रोटो-इण्डिका वर्ग की है, जो गोंडवाना की जनजातियों की भाषा का तथा दक्षिणी बिहारी भाषा का मिश्रण है.

अर्थव्यवस्था

मुण्डा जनजाति की लगभग दो-तिहाई जनसंख्या तो अब अपने वन प्रदेशीय गांवों में स्थायी कृषि करती है, यद्यपि प्राचीन परम्परा के अनुसार वनों से खाद्य-संग्रह और कन्द-मूल-फल भी एकत्रित करते हैं. अब मत्स्यपालन और कुक्कुटपालन पर भी बल दिया जा रहा है. लगभग एक-तिहाई मुण्डा जनसंख्या, झरिया, रानीगंज, बोकारो, कर्णपुरा, गिरडीह की कोयला खानों में, सिंहभूम की पसिराबुरू, बड़ाबुर और गुआ की लौह-खानों में, मानभूमि और नोआमुण्डी की लौह खानों में तथा मैंगनीज, बॉक्साइट और अभ्रक की खानों में खनिजों और अन्य श्रमिकों का कार्य करते हैं.

सामाजिक व्यवस्था

मुण्डा जनजाति हिन्दू समाज की मुख्य प्रथाओं में से लगभग सभी को अपना चुकी है. ये लोग अपने गोत्र और कुल के नाम को धारण करते हैं. परिवार एक प्रमुख संस्था होती है, जो व्यक्ति के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का समुचित प्रबंध करती है. इनके परिवार पितृसत्तात्मक होते हैं. गोत्र पितृवंशीय होते हैं. विवाह के पश्चात् लड़की का गोत्र बदल कर वही हो जाता है, जो पति का होता है. गोत्रों के नाम प्रायः ऋषियों, नदियों, पक्षियों, जंतओं, वृक्षों या फलों के नाम से मितते हैं.

मुण्डा लोग एक ईश्वर को मानने के साथ-साथ देवी-देवताओं को भी मानते हैं. देवी-देवताओं के पूजन के लिए प्रत्येक दो-तीन महीनों में सामूहिक मेले लगते हैं. इन सामूहिक मेलों में सामूहिक गान-वाद्य-नृत्य होते हैं. नृत्य कई प्रकार के होते हैं. शिकार की नकल प्रदर्शित करने के नृत्य को जापी कहते हैं; परन्तु सर्वप्रमुख कृषि नृत्य होता है, जिसमे भूमि जोतने, बोने निराई करने, फसल काटने आदि क्रियाओं की नकल प्रदर्शित की जाती है.

गांव में पंचायत का बड़ा महत्व होता है. सार्वजनिक कार्यों का प्रबंध ग्राम पंचायत द्वारा ही किया जाता है. मुंडा जनजाति का प्रमुख त्योहार ‘सरहुल’ है. इनमें मौखिक साहित्य को परम्परा द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चालू रखा जाता है.

थारू जनजाति

थारू जनजाति का निवास क्षेत्र उत्तर प्रदेश (उत्तराखण्ड सहित) में तराई और भावर की संकीर्ण पट्टी का प्रदेश है, जो कुछ पूर्व के बिहार के उत्तरी भाग में फैला हुआ है. ये मूलतः उत्तर प्रदेश के सीमा से लगे नेपाल तथा उत्तराखंड के उधम सिंह नगर क्षेत्र में प्रवास करते है. थारू जनजाति हिंदू धर्म को मानते हैं तथा हिंदुओं के सभी त्योहार को मानते हैं. थारू जनजाति दीपावली को शोक पर्व के रूप में मानते थे. लेकिन वर्तमान में दीपावली को शोक पर्व के रूप में नहीं मानते हैं.

थारू शब्द की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों के कई मत हैं. एक मत के अनुसार ये अथर्ववेद से संबंधित हैं. पहले इनका नाम अथरू था, बाद में थारू हो गया. थारू शब्द का अर्थ है- ठहरे हुए. मलेरिया और मच्छरों की भावर-तराई पेटी में भी ये लोग अपने जीविका निर्वाह और निवास के लिए कठिनाइयों का सामना करते हुए ठहरे रहे हैं. इसलिए इनका नाम थारू हो गया.

अर्थव्यवस्था

थारू जनजाति का मुख्य व्यवसाय कृषि है. थारू लोग चावल उत्पादन में बड़े निपुण हैं. यद्यपि अपरदन (erosian) द्वारा मिट्टी कटकर बहती है, फिर भी ये लोग खेतों की मेढ़ें बनाकर अपरदन रोकते हैं और गोबर की खाद से भूमि की उर्वरता को बनाये रखते हैं.

खेतों को जीतने का काम पुरुष करते हैं. निराई (weeding), कटाई (harvesting) आदि कार्य स्त्रियां करती हैं. धान की रोपाई के लिए स्त्रियों को जल से भरे या कीचड़युक्त खेतों में प्रायः दिनभर रहना पड़ता है, जिसके कारण उनके पैरों की उंगलियां गल सी जाती हैं. हाथों की उंगलियों के नाखून भी गले हुये से हो जाते हैं.

सामाजिक व्यवस्था

थारू जनजाति की प्राथमिक सामाजिक इकाई या संगठन परिवार है. परिवारों से मिलकर कुरी (कुल) बनता है और कुल उच्च अंश और निम्न अंश बनाने के लिए दो समूहों में इकट्ठा होते हैं जिससे अंतिम रूप से जनजाति का निर्माण होता है. उच्च अंश में बाथा, बरीटिया, बदवैत, दाहेत, और महातुम आते हैं जबकि निम्न अंश में रावत, बुक्सा, खुका, रजिया, सांसा, जुगिया और डांगरा आते हैं.

थारू जनजाति जड़ात्मवाद, जादू-टोना और पूर्वजों की पूजा करते हैं. ये अपने पूर्वजों की आत्मा को शांत करते हैं जिसे बुद्धि बाबू या निराधार के रूप में जाना जाता है. ये ऐसी आत्माओं को अपने घर में रखते हैं, क्योंकि ये विश्वास करते हैं कि ये आत्माएं घर के लोगों की रक्षा करेंगी. थारू लोगों का मानना है कि बेमिया देवी नवजात शिशु को बुरी आत्मा के प्रभाव से बचाती है.

खरिया

खरिया लोग ओडीशा में मयूरभंज की पहाड़ियों के और बिहार में ढाल भूमि (सिंहभूम) तथा बड़ाभस (मानभूमि) की पहाड़ियों के निवासी हैं. ये पहाड़ियां छोटी-छोटी नदियों, संजाई, करकाह और बूरावलडीग नदियों के बेसिन में स्थित हैं.

समाज

खरिया समाज पितृसत्तात्मक होता है. यहां एकल परिवार व्यवस्था के साथ एकल विवाह व्यवस्था है. खरिया लोगों का मुख्य खान-पान चावल, सब्जी, मांस, मछली और वनोत्पाद हैं. खरिया जनजाति की चार से बारह झोंपड़ियों की बेहद छोटी बस्ती होती है. दुध और देकी खरिया प्रजाति किसी नदी या सहायक नदी के किनारे पर बसती है और इसमें 40-50 परिवार होते हैं.

आर्थिक-क्रियाकलाप

इन लोगों के मुख्य उद्यम हैं- (i) झूम कृषि, (ii) जंगल की वस्तुएं इकट्ठा करना, (iii) आखेट, तथा; (iv) मछली पकड़ना. वर्तमान समय में लोहे की खानों में तथा समीपवर्ती क्षेत्रों के कारखानों, जैसे- राउरकेला, जमशेदपुर, रांची, धनबाद, हीराकुंड आदि, में मजदूरी करने से खरिया लोगों का सम्पर्क शिक्षित और कारीगर लोगों से होता रहा है, इसके फलस्वरूप इनमें शिक्षा का प्रचार हुआ है.

कबीलाई व्यवस्था

खरिया ग्राम पंचायत में प्रभावी और गांव के वरिष्ठ सदस्य होते हैं. जैसाकि उनके गांव में कुछ खास संख्या में जनजाति से बाहर के लोग भी होते हैं, सभी समूहों को पंचायत में प्रतिनिधित्व मिलता है. पंचायत के निर्णयों को प्रायः बिना किसी विरोध के मान लिया जाता है.

गांव का मुखिया सभी धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक कार्यों का भी मुखिया होता है. वह कई नामों–कालो, देहुरी या पाहन, से जाना जाता है. गांव के पुजारी का प्रतीक सामु (पवित्र टोकरी) है जिसमें कुछ अरुआ (कच्चे चावल) रखे होते हैं जिसे गांव के देवताओं एवं आत्माओं की पूजा में प्रयोग किया जाता है. कालो पुजारी के रूप में सामूहिक पूजन समारोह में कार्य करता है और वह ग्राम देवताओं को पूजा और बलि अर्पित करता है.

नागा जनजाति

नागा जनजाति भारत के नागालैंड राज्य में मुख्य रूप से निवास करती है इसके अतिरिक्त पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों – मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल और असम – में भी निवास करती हैं.  नागालैंड के पर्वतीयप्रदेश के उत्तर-पूर्व में पटकोई पहाड़ियां तथा दक्षिण में मणिपुर और अराकान योमा पर्वत श्रेणियां हैं. समस्त भाग ऊबड़-खाबड़ है तथा जंगलों से आच्छादित है.

यहां पर उष्ण, आर्द्र व शुष्क जलवायु रहती है. दो हजार छः सौ पचास मीटर से अधिक ऊंचे भागों में ठण्डी शुष्क जलवायु रहती है, जबकि निचले ढालों पर वर्षा-ऋतु में मलेरिया का प्रकोप रहता है. इसलिए, नागाओं की बस्ती मुख्यतः 1650 से 2550 मी. की ऊंचाई पर रहती है.

नागा जनजाति के लोग इण्डो-मंगोलॉयड प्रजाति के हैं. इनकी त्वचा हल्की, बाल सीधे व नाक चपटी होती है. अरुणाचली व असमी नागाओं के पांच बड़े वर्ग हैं:

  1. उत्तर में रंगपण और कोन्यक
  2. पश्चिम में रेंगमा, सेमा और अंगामी
  3. मध्य में आओ लोहता, फोम, चग, सन्यम और थिम्स्तमुंगर
  4. दक्षिण में कचा और काबई, तथा
  5. पूर्वी क्षेत्रों में तेलुल और काल्पो-केंगु.

नागाओं के मुख्य व्यवसाय- आखेट, मछली पकड़ना कृषि व कुटीर उद्योग हैं. नागाओं में संयुक्त परिवार व्यवस्था प्रचलित है. आखेट केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है. कृषि स्त्री-पुरुष दोनों द्वारा की जाती है, गांव के मुखिया का महत्वपूर्ण स्थान है. विवाह में लड़के के परिवार की ओर से लड़की के परिवार को दहेज या धन दिया जाता है व विवाह के समय पशुबलि भी दी जाती है.

जादू टोना भी नागाओं में प्रचलित है. किंतु अब ईसाई धर्म के प्रभाव से इसका प्रयोग कम हो गया है. चावल, बकरी, गाय, बैल, सांप, मेंढक आदि का मांस खाया जाता है व चावल की शराब जू का भी सेवन किया जाता है. विभिन्न नागा वर्गों में भिन्न-भिन्न वेशभूषाएं प्रचलित हैं, चित्र गुदवाने व सिर पर पंख बांधना प्रचलित है.

नागा लोग कुशल योद्धा होते हैं एवं भाला उनका प्रमुख अस्त्र है. इनका प्रमुख त्यौहार मिथन हैं. नागा जनजाति ने नागिनी सिनेमा की एक अलग भाषा का विकास किया है, जो विभिन्न नागा एवं असमिया भाषा का मिश्रित रूप है.

टोडा जनजाति

टोडा जाति के लोग नीलगिरि की पहाड़ियों में निवास करते हैं, नीलगिरि पहाड़ियों पर निवास करने वाली अन्य आदिम जातियों-बडागा, कोटा, इख्ता औद कुरुम्बा हैं. इनमें टोडा लोग सबसे प्राचीन निवासी हैं. टोडा नर-नारी सुंदर आकृति के, सुगठित शरीर वाले व्यक्ति होते हैं. इनका कद प्रायः लम्बा होता है. नाक पतली और लम्बी (aquiline), जबड़ा बड़ा और नेत्र बड़े होते हैं. ये दक्षिण भारत की अन्य आदिम जातियों में बिल्कुल भिन्न दिखलायी देते हैं.

जीवन-शैली

येशाकाहारी होते हैं. केवल पूजा, उत्सवों त्योहारों, आदि के समय देवताओं को प्रसन्न करने के लिए दी गयी पशुबलि के पश्चात् कर्मकाण्ड (ritual) के रूप में मांस भक्षण करते हैं. इनका मुख्य भोजन मैंस का दूध, दही, कन्द-मूल-फल और शाक-सब्जियां हैं.

ये लोग धोती बांधते हैं और कंधों से लेकर नीचे तक एक सूती चोगा पहनते हैं, जो गर्दन से पैरों तक शरीर को ढके होता है, इसमें से दोनों हाथ बाहर निकले होते हैं. इस चोगे की शैली रोमन चोगे से मिलती-जुलती होती है. पुरुष और स्त्रियां सभी इस प्रकार के लम्बे चोगे पहनते रहते हैं, सभी के सिर नंगे होते हैं. स्वतंत्रता के पश्चात्, दूसरे प्रदेशों के लोगों के सम्पर्क में आने से स्त्रियां लम्बी धोती बांधने लगी हैं तथा छोटी चोली भी पहनने लगी हैं.

जीविका निर्वाह का मुख्य साधन पशुचारण तथा जंगल से कन्दमूल, शहद, गोंद इत्यादि इकट्ठा करना है. कुछ लोग शाक-सब्जियां उत्पन्न कर लेते हैं, परंतु मुख्य व्यवसाय भैंस पालना है.

सामाजिक व्यवस्था

टोडा लोगों में सम्मिलित बहु-पत्नी प्रथा (Polyandry) है, जिसके अनुसार एक परिवार में दो या अधिक भाइयों की एक पत्नी अथवा एक से अधिक पत्नियां सम्मिलित प्रकार से होती हैं. जनसंख्या में पुरुष-स्त्री संख्या के अनुपात में पुरुष अधिक हैं. प्रत्येक गांव का एक ग्राम देवता होता है.

दूसरे लोगों से बातचीत करते समय टोडा लोग तमिल और कन्नड़ मिश्रित भाषा बोलते हैं. परंतु वे आपस में अपनी आदिम भाषा बोलते हैं. टोडा जनजाति में मुख्य प्रचलित भाषा ‘टोडा’ है. ये लोग समूह में निवास करते हैं.

बोडो जनजाति

• बोडो जनजाति मूल रूप से भारत के असम राज्य में निवास करती है. यह लोग बोडो भाषा बोलते हैं जो तिब्बत-वर्मा भाषा परिवार की ही एक शाखा है.

• बोडो जनजाति समूह कछारी, गारो, मेच, डिमसा आदि कई जनजातियों से मिलकर बना है. बोडो जनजाति को भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत रखा गया है.

मीणा जनजाति

• मीणा जनजाति राजस्थान में जनसंख्या की दृष्टि से प्रथम स्थान है.  यह राजस्थान के लगभग सभी जिलों में निवास करती है.

• मीणा शब्द की उत्पत्ति ‘मीन’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ ‘मछली’ होता है. मीणा जाति अपनी उत्पत्ति विष्णु के 10 वें अवतार से मानती है.

भोटिया जनजाति

• भोटिया जनजाति के अधिकांश लोग पर्वतीय स्थानों पर निवास करते हैं इनका सकेंद्र उत्तरी क्षेत्र मुख्यता हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड तथा सी किन राज्यों में है.

• भूटिया जनजाति आर्थिक शैक्षणिक एवं सामाजिक रूप से आने जनजातियों की अपेक्षा पिछड़ी हुई है. भूटिया जनजाति ऋतु प्रवास हेतु प्रसिद्ध है .

भारत की जनजातियां एवं निवास क्षेत्र

  • बिहार – थारू, उरांव, खरवार, संथाल, गोंड, बिरहोर, कोल, कोरबा, कोरा, हो, जनजातियां
  • उत्तर प्रदेश – जौनसारी, थारू, गोंडा, सहरिया, खरवार, बुक्सा, पतरी
  • आंध्र प्रदेश – बंजारा, लबांडा, सुगली, कुबी, बगात, सवारा, चेंचू, बकला
  • छत्तीसगढ़ – गोंड, अगरिया, मुंडिया, बैंगा, कोरकू, परजा, परधान, सहरिया
  • मध्य प्रदेश – भील, गोंड, अगरिया, बिंझवार, परेशान, खरवार, कोल, कोरकू, सहरिया, ओझा, बैगा जनजातियां
  • राजस्थान – मीणा, भील, कोकना, गर्सिया, थारी, पटेलिया, सहरिया जनजातियां
  • झारखंड संथाल, मुंडा, हो, उरांव, बिरहोर, कोरवा, बैगा, नागेसिया, असुर
  • हिमाचल प्रदेश – गद्दी, गुज्जर, भोटिया, बेदा, लंबा, खंपा, डोंबा, गारा, किन्नौर
  • गुजरात – भील, बरदा, कोली, डबरा, खारी, चारण, रथवा जनजातियां
  • अरुणाचल प्रदेश – अबोर, दफला, अपातामी, खोवा, गालो, मोंबा, मिस्मी
  • उड़ीसा – खोंड, कोल्हा, गोंड, मुंडा, बोंडा, महाली, संथाल, मुआंग, खरिया, डोंगरिया, कोंध, मुन्डुप्पतू
  • पश्चिम बंगाल – संथाल, उरांव, भूमजी, मुंडा, लोधा
  • केरल – पनियान, मवियान,नायर, दाफर, उराली, चेंचु, मोपला, सुमली, इरुला
  • उत्तराखंड – जौनपुरी, थारू, बुस्का, भोटिया, राजी
  • अंडमान एवं निकोबार – अंडमानी, सेंटलिज, जरवा, जारण, बैकडा, शोम्पेन, येरे, कोरा, ताबु
  • सिक्किम – भोटिया, लिम्बु, लेपचा, तमांग
  • नागालैंड – नागा, कोन्याक, अंगामी
  • असम – बोरो, मिरी, कर्बी, राभा, कछारी, सोनवाल, लुसाई जनजातियां
  • मणिपुर – कुकी, तांगखुल, थाडो, नागा, मैठी
  • मेघालय – गारो, खासी, जयंतियां, भोई, मिकिर
  • मिजोरम – मिजो, पावी, लाखर, चकमा
  • त्रिपुरा – रियांग, त्रिपुरी, जमातिया, चकमा
  • पुदुच्चेरी – इरुलुर
  • लक्षदीप – वासी जनजातियां

भारत में जनजातियों की प्रमुख समस्याएं (Major Problems of Indian Tribes)

सामान्य रूप में जनजातियों की समस्याओं को निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत विवेचित किया जा सकता है:-

प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की समाप्ति

ब्रिटिश शासन के आगमन से पूर्व जनजातियां प्राकृतिक संसाधनों (भूमि, जंगल, वन्य जीवन, जल, मिट्टी, मत्स्य इत्यादि) के ऊपर स्वामित्व एवं प्रबंधन के निर्वाघ अधिकारों का उपभोग करती थीं. औपनिवेशिक शासन के अधीन अधिकाधिक जनजातीय क्षेत्रों को शामिल किया गया है.

भारत में औद्योगीकरण की शुरूआत तथा खनिजों की खोज ने जनजातीय क्षेत्रों को बाहरीजगत के लिए खोल दिया. जनजातीय नियंत्रण का स्थान राजकीय नियंत्रण द्वारा ले लिया गया. इस प्रकार जनजातियों की कभी न खत्म होने वाली विपन्नता का दौर शुरू हुआ. स्वतंत्रता के बाद विकास प्रक्रिया के साधनों के रूप में भूमि एवं वनों पर दबाव बढ़ता गया. इसका परिणाम भूमि पर से स्वामित्व अधिकारों की समाप्ति के रूप में सामने आया.

इसने बेमियादी ऋणग्रस्तता भूस्वामी, महाजन, ठेकेदार तथा अधिकारी जैसे शोषणकर्ता वर्गों को जन्म दिया. संरक्षित एवं वनों एवं राष्ट्रीय पाक की अवधारणाओं ने जनजातियों में अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटने का भाव उत्पन्न किया और वे अपनी आजीविका के सुरक्षित साधनों से वंचित होते गये.

शिक्षा का अभाव

2011 की जनगणना के अनुसार, जनजातियों की कुल जनसंख्या का 41 प्रतिशत भाग निरक्षर है. उच्च व तकनीकी शिक्षा के मामले में इनकी स्तिथि अत्यधिक दयनीय है. जनजातीय अंधविश्वास व पूर्वाग्रह, अत्यधिक गरीबी, कुछ शिक्षकों व अन्य सुविधाओं की कमी आदि ऐसे कारक हैं, जो जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा के विस्तार को बाधित करते हैं. शिक्षा के प्रसार के द्वारा ही जनजातियों को विकास प्रक्रिया में सच्चा भागीदार बनाया जा सकता है.

विस्थापन एवं पुनर्वास

स्वतंत्रता के पश्चात् विकास प्रक्रिया का केंद्र बिंदु भारी उद्योगों एवं कोर सेक्टर का विकास रहा है. इसके परिणामतः विशाल इस्पात संयंत्र, शक्ति परियोजनाएं एवं बड़े बांध अस्तित्व में आये, जिन्हें अधिकतर जनजातीय रिहाइश वाले क्षेत्रों में स्थापित किया गया. इन क्षेत्रों में खनन सम्बंधी गतिविधियां भी तीव्र होती गयीं. इन परियोजनाओं हेतु सरकार द्वारा जनजातीय क्षेत्रों की भूमि का विशाल पैमाने पर अधिग्रहण किया गया, जिससे जनजातीय लोगों के विस्थापन की समस्याएं पैदा हुई.

छोटा नागपुर, ओडीशा, प. बंगाल, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश के जनजातीय संकेंद्रण वाले क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हुए. सरकार द्वारा प्रदान की गयी नकद क्षतिपूर्ति की राशि व्यर्थ के कार्यों में अपव्यय हो गयी. औद्योगिक क्षेत्रों में विस्थापित जनजातियों को बसाने के समुचित प्रयासों के अभाव में ये जनजातियां या तो निकट की मलिन बस्तियों में रहने लगीं या अकुशल श्रमिकों के रूप में निकटवर्ती प्रदेशों में प्रवास कर गयीं.

शहरी क्षेत्रों में इन्हें जटिल मनोवैज्ञानिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, क्योंकि ये गहरी जीवन शैली एवं मूल्यों के साथ सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ नहीं हो पाती हैं.

स्वास्थ्य एवं कुपोषण की समस्याएं

आर्थिक पिछड़ेपन एवं असुरक्षित आजीविका के साधनों के कारण जनजातियों की कई स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. जनजातीय क्षेत्रों में मलेरिया, क्षय रोग, पीलिया, हैजा तथा अतिसार जैसी बीमारियां व्याप्त रहती हैं. लौह तत्व की कमी, रक्ताल्पता, उच्च शिशु मृत्यु दर एवं जीवन प्रत्याशा का निम्न स्तर आदि समस्याएं कुपोषण से जुड़ी हुई हैं.

लैंगिक मुद्दे

प्राकृतिक पर्यावरण के क्षय, विशेषतः वनों के विनाश व संसाधनों की घटती मात्रा के कारण, ने जनजातीय महिलाओं की स्थिति पर गहरा प्रभाव डाला है. खनन व उद्योग हेतु जनजातीय क्षेत्रों का खुलना तथा उनका व्यवसायीकरण होना जनजातियों के स्त्री-पुरुषों को बाजार अर्थव्यवस्था के हथकंडों का शिकार बनाने में सहायक सिद्ध हुआ है. इससे उपभोक्तावाद तथा महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझने की अवधारणाओं को मजबूती मिली है.

पहचान का क्षय

जनजातियों की परंपरागत संस्थाओं एवं कानूनों का आधुनिक संस्थाओं के साथ टकराव होने से जनजातियों में पहचान के संकट की आशंकाएं पैदा हई हैं. जनजातीय भाषाओं व उपभाषाओं की विलुप्ति भी एक विचार का विषय है, क्योंकि यह सुनिश्चित क्षेत्रों में जनजातीय पहचान के क्षरण का संकेतक है.

अनुसूचित जनजातियों का विकास

भारत में अनुसूचित जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक दशा को सुधारने के लिए कई उपाय किए गए हैं. अनुसूचित जनजाति के विकास के लिए जनजाति उपयोजना का आरंभ पंचवर्षीय योजना की शुरुआत में वर्ष 1974-75 में किया गया. इसके तहत् अनुसूचित जनजाति की बड़ी आबादी वाले 21 राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों को शामिल किया गया. इस विशेष रणनीति का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि केंद्र और राज्य स्तर पर चलाई जा रही विकास योजनाओं का उचित हिस्सा अनुसूचित जनजाति के लोगों तक पहुंचे. इसमें राज्य योजना की धनराशि ही नहीं बल्कि सभी केंद्रीय मंत्रालय/विभागों की धनराशि का लाभ भी अनुसूचित जनजाति को मिलना सुनिश्चित करने की बात की गई.

भारत सरकार ने जनजातीय उपयोजना के समर्थन में 1974 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में एससीए योजना लागू की है. इसका उद्देश्य पारिवारिक आय बढ़ाने के कार्यक्रमों में अंतर को दूर करना है. नतीजतन, सभी विकास कार्यक्रमों के तहत् अनुसूचित जनजातियों को अधिक लाभ पहुंचाने के लिए उनके विकास हेतु नौवीं पंचवर्षीय योजना में उपलब्ध धनराशि में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई.

जनजातीय मामलों का मंत्रालय जनजातीय उपयोजना के तहत् विशेष केंद्रीय सहायता, 21 जनजातीय राज्यों की सरकारों और दो केंद्रशासित प्रदेशों को उपलब्ध कराता है. इन राज्यों में पूर्वोत्तर राज्य-असम, मणिपुर और त्रिपुरा शामिल हैं लेकिन वर्ष 2003-04 से केंद्रशासित प्रदेशों के लिए जनजातीय उपयोजना को विशेष केन्द्रीय सहायता के तहत धनराशि गृह मंत्रालय उपलब्ध करा रहा है.

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 275 (1) के तहत् अनुसूचित जनजातियों के कल्याण को बढ़ावा देने और अनुसूचित क्षेत्रों में प्रबंधन के स्तर को बढ़ाकर, राज्य के अन्य क्षेत्रों के समान करने के लिए सुनिश्चित विशेष वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया.

दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान जंगल बाहुल्य गांवों का विकास जनजाति विकास के क्षेत्र में एक अहम हिस्सा है. योजना आयोग ने प्रति गांव ₹ 15 लाख के औसत आबंटन के हिसाब से जंगल बाहुल्य गांवों के विकास के लिए जनजातीय मामलों के मंत्रालयको ₹ 450 करोड़ आबंटित किए हैं. 12 राज्यों में लगभग 2474 ऐसे जंगल बाहुल्यगांव हैं जिन्हें अभी भी राज्य का वन विभाग देखता है. ऐसा अनुमान है कि इन गांवों में लगभग 2.5 लाख आदिवासी परिवार रहते हैं.

वर्ष 1998-99 में इन समूहों के समूचे विकास के लिए केंद्रीय क्षेत्र की योजना शुरू की गई. इस योजना के तहत् अन्य किसी योजना में शामिल नहीं की गई परियोजनाएं/गतिविधियां शुरू करने के लिए समन्वित जनजातीय विकास परियोजनाओं, जनजातीय शोभा संस्थानों और गैर सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है.

लघु वनोत्पादों के लिए सहायता अनुदान कार्यक्रम केंद्रीय क्षेत्र की योजना है. इसके तहत् राज्य जनजातीय विकास सहकारी निगमों, वन विकास निगमों और लघु वन उत्पाद (व्यापार और विकास) परिसंघों को लघु वन उत्पादक कार्यक्रम शुरू करने के लिए शत-प्रतिशत अनुदान दिया जाता है.

अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक विकास की गति को तेज करने और उस पर ध्यान केंद्रित करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वित्त और विकास निगम को विभाजित कर, अप्रैल, 2001 में जनजातीय मामले के मंत्रालय के तहत् राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति वित्त और विकास निगम की स्थापना की गई. इसे कंपनी अधिनियम की धारा 25 (ऐसी कंपनी जो लाभ के लिए नहीं है) के तहत् लाइसेंस दिया गया.

बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम, 1984 के तहत् राष्ट्रीय स्तर के शीर्षस्थ निकाय के रूप में वर्ष 1987 में ट्राइफेड की स्थापना की गई.

बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम, 2007 के अधिनियमित होने के बाद ट्राइफेड को इस अधिनियम में पंजीकृत कर इसे राष्ट्रीय सहकारी समिति के रूप में अधिनियम की दूसरी अनुसूची में अधिसूचित किया गया.

नए बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम,2002 (इसे बहुराज्यीय सहकारी समिति के नियम 2002 के साथ पढ़ा जाए) से सुसंगत बनाने के लिए अप्रैल, 2003 में ट्राइफेड की नियमावली में परिवर्तन किया गया. इसके अनुसार, ट्राइफेड ने जनजातियों से लघु वनोत्पाद और अधिशेष कृषि उत्पादों की खरीद बंद कर दी है. यह खरीद अब राज्य स्तर की जनजातीय सहकारी/समिति फेडरेशन द्वारा की जाती है. ट्राइफेड अब जनजातीय उत्पादों के लिए बाजार का विकास करने वाले और सदस्य फेडरेशनों को सेवा प्रदान करने वाली इकाई के रूप में कार्य कर रहा है.

राष्ट्रीय जनजाति नीति

भारत में, जनजातीय आबादी के उत्थान और उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए, जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने एक राष्ट्रीय जनजाति नीति तैयार की है. इस नीति का मुख्य उद्देश्य जनजातीय समुदायों की विशिष्ट पहचान, संस्कृति और जीवनशैली को बनाए रखते हुए उन्हें मुख्यधारा के विकास में शामिल करना है. यह नीति विकास और सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित करने पर केंद्रित है.

इस नीति में जनजाति भूमि का पृथक्करण,  प्रतिस्थापन, पुनर्वास और जनजातियों की बसावट, जनजाति क्षेत्र में आवश्यक अवसंरचनात्मक विकास, संकटग्रस्त जनजाति समूहों का पुननिर्माण और विकास, जनजातियों का सशक्तिकरण और लिंग समानता का सुनिश्चितीकरण; जनजाति क्षेत्रों का प्रशासन, इत्यादि जैसे मामले शामिल हैं. पाँचवी और छठी अनुसूची के प्रावधानों पर भी इस नीति के तहत फोकस किया गया है.

भारत की प्रमुख जनजातियां ट्रिक

नीचे दिए गए Video पर Click कर भारत की प्रमुख जनजातियां ट्रिक, major tribes of India trick आसानी से समझ सकते हैं.

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