चंद्रगुप्त मौर्य ने सबसे पहले अखिल भारतीय साम्राज्य का स्थापना किया था. इसे मौर्य साम्राज्य के नाम से जाना जाता है. चंद्रगुप्त मौर्य ने लगभग 321 से 297 ईसा पूर्व तक मगध के विशाल साम्राज्य पर राज किया था. कथित तौर पर अपने गुरु और बाद में चंद्रगुप्त के मंत्री बने चाणक्य या कौटिल्य (लगभग चौथी शताब्दी ईसा पूर्व) की सहायता से, उन्होंने एक विशाल केंद्रीकृत साम्राज्य की स्थापना की.
चाणक्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र में मौर्य सामार्ज्य के कामकाज, समाज, सेना और अर्थव्यवस्था का विवरण मिलता है. आधुनिक विद्वानों में चाणक्य के अस्तित्व पर विवाद है. ऐसा चाणक्य के बारे में कोई भी पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध न होने के कारण है. किसी भी समकालीन विदेशी यात्रियों या लेखकों द्वारा भी चाणक्य का वर्णन नहीं किया गया है. मेगस्थनीज द्वारा लिखित पुस्तक इंडिका, समकालीन शिलालेख व यात्रियों के विवरणों से भी मौर्य साम्राज्य के बारे में काफी जानकारी प्राप्त होता है.
चंद्रगुप्त मौर्य का समकालीन भारत (Contemporary India during Chandragupta Maurya)
चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास भारत कई राज्यों और गणराज्यों में विभाजित था. उनमें से सबसे प्रमुख पूर्वी भारत में स्थित मगध साम्राज्य था. मगध के शासक राजा बिम्बिसार (543-492 ईसा पूर्व) ने साम्राज्य विस्तार पर काफी ध्यान दिया था. इस कारण से मगध की सीमाएँ समय के साथ काफी विस्तारित हो गई थीं. मगध में मध्य, पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत का एक अच्छा-खासा हिस्सा शामिल था.
सिकंदर महान (356-323 ईसा पूर्व) ने 326 ईसा पूर्व में भारत पर आक्रमण किया था. परिणामस्वरूप, उत्तर-पश्चिमी भारत का अधिकांश भाग उथल-पुथल और राजनीतिक अराजकता का शिकार हो गया. इस समय मगध का शासक नंद वंश का धनानंद (329-322/321 ईसा पूर्व) था.
रोमन इतिहासकार कर्टियस (Curtius) (लगभग पहली शताब्दी) के अनुसार, धनानंद के पास विशाल खजाना था. मगध के पास 20,000 घुड़सवार सेना, 2,00,000 पैदल सेना, 2,000 रथ और 3,000 हाथियों की सेना थी. यूनानियों में घनानंद को ज़ैंड्राम्स या एग्राम्स के नाम से जाना जाता है.
भारत के उत्तर-पश्चिम में आक्रमण से पहले ही सिकंदर के सेना थक गए थे. जब मैसेडोनियाई सेना को मगध की शक्ति का ज्ञान हुआ, तो इनमें निराशा का भाव बढ़ने लगा. इसके अलावा कई अन्य समस्याओं का सामना सिकंदर के सेना को करना पड़ रहा था. इसलिए, सिकंदर को अपना विजय अभियान रोककर वापस लौटना पड़ा.
चंद्रगुप्त मौर्य का कुल और व्यक्तित्व (Chandragupta Maurya’s Family and Personality)
चंद्रगुप्त मौर्य का अधिकांश जीवन और उत्पत्ति अभी भी एक रहस्य है. उनके बारे में जो कुछ भी ज्ञात है, वह वास्तविक ऐतिहासिक स्रोतों के बजाय किंवदंतियों और लोककथाओं से अधिक आता है. चंद्रगुप्त का एकमात्र निश्चित शिलालेखीय संदर्भ दूसरी शताब्दी ई.पू. के जूनागढ़ शिलालेख में मिलता है.
मौर्यों द्वारा नंदों का दमन किन परिस्तिथियों में किया गया, इस सम्बन्ध में कोई भी समकालीन लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं है. ऐसे में हमें स्थानीय कथाकारों और इतिहासकारों के कहानियों व किंवदंतियों के तरफ रुख करना पड़ता है. अलग-अलग लेखकों द्वारा चंद्रगुप्त के जीवन के सम्बन्ध में अलग-अलग कहानियां लिखी गई है. इसलिए चंद्रगुप्त को जानना भूसे के ढेर से छोटी सी सुई खोजने जैसा है.
चंद्रगुप्त की सामाजिक स्थिति, विशेषकर उनकी जाति पर अभी भी बहस होती है. बौद्ध, जैन और प्राचीन साहित्यिक कृतियाँ सभी अलग-अलग जानकारी देती हैं. इन्हें क्षत्रिय मोरिया कबीले से सम्बन्धित होने के रूप में भी उल्लेखित किया गया है. कहा जाता है कि यह कबीला वर्तमान भारत-नेपाल सीमा पर पिप्पलिवाहन पर शासन करता था.
यह जनजाति मोर का शिकार करता था. साथ ही, चंद्रगुप्त के माता का नाम मुरा बताया जाता है. इसके अलावा कहा जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य दूर से नंदों से सम्बन्धित था. लेकिन उसे धनानंद द्वारा भगा दिया गया, क्योंकि वह चंद्रगुप्त के प्रतिभा से भयभीत था.
कई इतिहासकार चंद्रगुप्त मौर्य के सामान्य परिवार से सम्बन्धित होने का दावा करते है. वहीँ कई इनके मोरिय या मौर्य वंश से सम्बंधित होना व्यक्त करते है. इनके अनुसार, चौथी शताब्दी में मौर्य वंश कष्टों में घिर गया था. इसलिए मोर पकड़ने का काम करने लगा.
चंद्रगुप्त मौर्य एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था. वह समाज में ऊँची हैसियत यहां तक की ताज पाने के तरीकों और साधनों के तलाश में था. उसकी यह इच्छा परिस्थितियों के अनुसार सही भी था. वह अपने वंश की गिरी हुई किस्मत को बहाल करना चाहता था. साथ ही, खुद को शासक के रूप में स्थापित करना चाहता था.
यदि चंद्रगुप्त मौर्य का धनानंद से संबंधित होने की बात को स्वीकार कर लिया जाए, तो निश्चित रूप से चंद्रगुप्त के मन में ऐसी मंशा ने जड़ें जमा ली होंगी. वह राजकुमार के रूप में अपना उचित हिस्सा चाहता होगा.
चंद्रगुप्त मौर्य भले ही सामान्य परिवार से था. लेकिन इससे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वास्तव ने युवा चंद्रगुप्त ने खुद को अपने महत्वकांक्षाओं के पूर्ति के लिए तैयार कर लिया था.
आरंभिक जीवन और परिचय (Early Life and Introduction in Hindi)
नाम | चंद्रगुप्त मौर्य |
पुरा नाम | चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य |
यूनानी नाम | सेंड्रोकॉटोस |
जन्म | 340 ईसा पूर्व |
जन्म – स्थान | पाटलिपुत्र ( बिहार ) |
पिता का नाम | चन्द्रवर्धन मौर्य |
माता का नाम | मुरा |
पत्नी | दुर्धरा, चंद्र नंदिनी और हेलेना |
पुत्र | बिन्दुसार मौर्य |
उपलब्धि | मगध में मौर्य साम्राज्य स्थापित कर एकीकृत भारत के निर्माण का शुरुआत |
मार्गदर्शक व गुरु | विष्णुगुप्त या कौटिल्य या चाणक्य |
मृत्यु | 298 ईसा पूर्व |
मृत्यु स्थान | चंद्रगिरि पहाड़ी, श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) |
मृत्त्यु का कारण | जैन भिक्षु के समान उपवास (सल्लेखना या समाधि या सथारां) कर प्राण त्यागने से |
चंद्रगुप्त मौर्य सत्ता के लिए युद्ध का महत्व जानते थे. इसलिए उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण और अनुभव प्राप्त करने का निर्णय लिया. किंवदंतियों के अनुसार, चन्द्रगुप्त ने सिकंदर से मिलकर उनके सेना में शामिल होने का अनुमति प्राप्त किया था. ताकि युद्ध के मैसेडोनियाई तरीके को सीख सकें. इसका एक उद्देश्य नए युद्ध कौशल का इस्तेमाल प्राचीन भारतीय युद्ध रणनीति के खिलाफ कैसे इस्तेमाल किया जाए, सीखना था.
जस्टिन और ग्रीको-रोमन इतिहासकार प्लूटार्क (लगभग 46-120 ई.) ने सिकंदर के साथ मुलाकात का उल्लेख किया है. हालाँकि, यह मुलाक़ात सुखद नहीं रहा और चंद्रगुप्त को अपने जीवन बचाने के लिए भागने के लिए मजबूर होना पड़ा.
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि चंद्रगुप्त मगध साम्राज्य में रहते थे. इसलिए अलेक्जेंडर से मिलने के लिए उत्तर-पश्चिम तक जाना संभव नहीं था. इसके बजाय, वह धनानंद से मिले और उनकी सेना में सेवा मांगी. उनका मानना है कि जस्टिन ने गलती से धनानंद की जगह अलेक्जेंडर का जिक्र कर दिया. हालाँकि ऐसा दृष्टिकोण सभी इतिहासकारों द्वारा स्वीकार नहीं किया गया है.
लेकिन अधिकांश इतिहासकार कौटिल्य के साथ चंद्रगुप्त मौर्य के रिश्ते को लेकर आश्वस्त लगते है. विष्णुगुप्त कौटिल्य या चाणक्य उनका सबसे अच्छा सहयोगी, संरक्षक और मार्गदर्शक था. चाणक्य ने न सिर्फ सत्ता प्राप्त करने बल्कि चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य का रुपरेखा भी तय किया.
कौटिल्य ने भारतीय राजनीति के पुनर्निर्माण और पुनर्रचना में अग्रणी भूमिका निभाने का निर्णय लिया था. वे मगध से होने के बावजूद तक्षशिला में शिक्षा प्राप्त करने गए व वहीं के शिक्षक बने. इसलिए उत्तर-पश्चिम भारत में मैसेडोनियाई आक्रमण से पैदा हुई राजनीतिक उथल-पुथल और अराजकता से भलीभांति अवगत थे. इससे उन्हें एक केंद्रीकृत अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना का प्रेरणा मिला, जो भारत को आक्रमणकारियों से बचाकर व्यवस्था बनाए रखे.
इस वक्त भारत में कई राज्यों और गणराज्यों का अस्तित्व था. ये एकताबद्ध नहीं थे और आपस में युद्ध करते रहते थे. ऐसे में अखिल भारतीय राज्य स्थापित करना संभव नहीं था.
मगध एकमात्र क्षेत्रीय इकाई थी, जो अराजकता के बीच व्यवस्था प्रदान कर सकती थी. इसलिए चाणक्य ने तत्कालीन शक्तिशाली मगध साम्राज्य को अखिल भारतीय साम्राज्य निर्माण के लिए उपयुक्त माना. लेकिन उन्हें अपने प्रस्ताव के लिए धनानंद से तिरस्कार और अपमान का सामना करना पड़ा. फिर नाराज चाणक्य ने मौजूदा राजा को हटाने का दृढ़ संकल्प लिया.
वस्तुतः मगध की सैन्य स्थिति बेजोड़ थी. यह चाणक्य के रुपरेखा वाले साम्राज्य के अस्तित्व के लिए सटीक था. अपनी विशाल सेना द्वारा संरक्षित मगध में स्थिरता था, जो अन्य साम्राज्य नहीं कर सके. इस प्रकार कौटिल्य ने मगध को अपनी योजना का केंद्रबिंदु बनाने के लिए दृढ़ संकल्प ले लिया. चाहे वह नंदों के अधीन हो या किसी और के अधीन, इससे उन्हें कोई वास्ता नहीं था.
इस प्रकार उन्होंने धनानंद के स्थान पर एक बेहतर और अधिक सक्षम शासक को नियुक्त करने का निर्णय लिया. इसके लिए उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य का चयन किया. कौटिल्य ने चन्द्रगुप्त को अपने भूमिका के लिए तैयार करने के लिए सलाह देने के साथ ही मगध और उसके साथ जुड़ी सभी चीजों पर कब्ज़ा करने की तैयारी की. इस प्रकार युद्ध, कूटनीति और गुप्त अभियानों के मामले में चंद्रगुप्त के क्षमता में वृद्धि किया गया.
कौटिल्य और चंद्रगुप्त मौर्य का मुलाकात (Meeting of Kautilya and Chandragupta Maurya)
चंद्रगुप्त मौर्य और कौटिल्य के मिलने का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है. लोककथाओं के अनुसार धनानंद के दरबार से लौटने के क्रम में धनानंद ने एक गांव में बालक चन्द्रगुप्त को देखा. इस बालक में राजा बनने के गुण चाणक्य को नजर आए. इसलिए, चाणक्य ने उसे अपना छात्र बनाने का निर्णय लिया. ग्राम प्रधान और चन्द्रगुप्त की मां ‘मुरा’ से इस विषय में उन्होंने अनुमति माँगा. फिर वह चन्द्रगुप्त को उत्तर-पश्चिम भारत ले आए. यहाँ शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त कर चंद्रगुप्त मौर्य एक शासक के गुणों से लैस हो गया.
इन कहानियों को तथ्य के रूप में स्वीकार नहीं करने की पूरी संभावना बनती है. इसका मतलब यह होगा कि जब चंद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठे, तब तक चाणक्य और धनानंद दोनों ही वृद्ध हो चुके थे. लेकिन ऐतिहासिक रूप से यह सच नहीं है. इसलिए कहा जा सकता है कि अपने महत्वाकांक्षा के प्राप्ति में चंद्रगुप्त ने कौटिल्य से मिलकर मदद माँगा.
वहीं, चंद्रगुप्त मौर्य का लालन-पालन विनम्र तरीके से हुआ था. इसमें राजनैतिक नेतृत व कुटिलता का अभाव था. ये परिस्थितियां राजा के रूप में इनके विकास के लिए बाधक था. इसलिए परिस्थितियों इसकी ओर इशारा करते हैं- वे कैसे उनके विकास के लिए उपयुक्त नहीं थे. इसलिए चंद्रगुप्त को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बाहर जाना पड़ा. और, शिक्षा के साथ ही कुशलता भी प्राप्त करना पड़ा.
इस प्रकार कौटिल्य के साथ उनकी मुलाकात तब हुई होगी जब अपमानित कौटिल्य पाटलिपुत्र से लौट रहे थे और चंद्रगुप्त के सत्ता हासिल करने के शुरुआती प्रयास असफल रहे थे. दोनों ने खुद को हारा हुआ पाया और दोनों ने आपस में बहुत कुछ समान पाया. वास्तव में, ये दोनों एक दूसरे के पूरक नजर आए होंगे. इसलिए एक साथ आकर अपने लक्ष्य पूर्ति में लग गए. इस लक्ष्य ने इन्हें भाड़े की सेना में भर्ती करने के लिए प्रेरित किया.
चंद्रगुप्त मौर्य का उदय और उपलब्धियां (Rise and Achievements of Chandragupta Maurya)
एक योद्धा और रणनीतिकार के रूप में चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत के राजनीतिक एकीकरण के कल्पना को बिल्कुल वास्तविक बना दिया. लगभग संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप उसके नियंत्रण में था. उनका साम्राज्य की सीमा पूर्व में मगध और बंगाल से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक, उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण भारत तक विस्तृत था. चंद्रगुप्त मौर्य के उत्थान और सफलता को 5 प्रकरणों में विभाजित किया जा सकता है:
- नंद वंश शासन के विरुद्ध असफल प्रयास,
- उत्तर-पश्चिम भारत में यूनानी शासन के विरुद्ध युद्ध और विजय,
- मगध पर आधिपत्य,
- सेल्यूकस निकेटर-I के साथ युद्ध और 305 ई.पू. की संधि,
- पश्चिम और दक्षिण भारत में विजय.
1. नंदों के खिलाफ असफल प्रयास (Unsuccessful Attempt against Nandas)
चंद्रगुप्त मौर्य ने अपना सबसे पहला अभियान मगध के नन्द वंश के खिलाफ किया था. लेकिन वह इस प्रयास में असफल रहा और नंद राजा से हार गया. दरअसल, चंद्रगुप्त ने नंदों के राजधानी पर सीधा आक्रमण कर दिया था, जहाँ सैन्य सुरक्षा और किलेबंदी काफी मजबूत था. साथ ही, वह पूरी तरह से तैयार नहीं था. वह नंद सेना से आगे निकल गया और घिर गया. इसलिए उसे युद्ध का मैदान छोड़कर भागना पड़ा. पराजय के सदमे ने उसे पुरी तैयारी और उचित मार्ग से हमला करने को प्रेरित किया.
2. उत्तर-पश्चिम भारत का अभियान (Mission to North-West India)
नन्दो से हारने के बाद चंद्रगुप्त मौर्य कुछ समय तक विंध्य क्षेत्र के जंगल में छिपा रहा. यहाँ रहते हुए उसने पंजाब की लड़ाकू जनजातियों से एक सेना बनाया. इन जनजातियों ने पहले सिकंदर का वीरतापूर्ण प्रतिरोध किया था. पराजित होने पर इन्होंने अनिच्छा से मैसेडोनियाई शासन का अधीनता स्वीकार किया था. चंद्रगुप्त ने यूनानी शासन के खिलाफ भारतीय अशांति की बढ़ती लहर को पहचान लिया था. उसने इसे अपने नेतृत्व में सेना गठन और विजय अभियान के लिए किया.
पंजाब से मैसेडोनियन शासक से जीतना चंद्रगुप्त मौर्य के लिए आसान नहीं था. लेकिन, यूनानी सेनापति के हाथों राजा पोरस की मृत्यु ने पंजाब में मेसेडोनियन शासन के खिलाफ जनमत तैयार कर दिया था. इसलिए चंद्रगुप्त को स्थानीय सहयोग मिला और उसका संघर्ष आसान हो गया.
यूनानियों के खिलाफ चंद्रगुप्त की जीत ने हाइडेस्पेस की लड़ाई में सिकंदर की जीत के प्रभावों को मिटा दिया. चंद्रगुप्त ने सिंधु नदी तक सिंध और पूर्वी पंजाब को यूनानी शासन से मुक्त करवा दिया. इस तरह साधारण चंद्रगुप्त अब शासक बन गया और अपने विजयी अभियान को जारी रखा.
3. मगध पर आधिपत्य (Domination over Magadha)
चंद्रगुप्त मौर्य ने उत्तर-पश्चिम में मैसिडोनियाई शासन को उखाड़ फेंकने के बाद अपना पुरा ध्यान अपने दूसरे उद्देश्य, ‘मगध‘ विजय पर केंद्रित किया. इसका मकसद धनानंद को सत्ता से हटाकर मगध के सिंहासन पर कब्ज़ा करना था. धनानंद अपनी प्रजा के बीच अलोकप्रिय थे. फिर भी वे एक बहुत ही शक्तिशाली राजा थे. उसकी सेना की ताकत ने सिकंदर जैसे विश्वविजयी योद्धाओं के हृदय में भी भय पैदा कर दिया था.
कौटिल्य ये बात जानता था कि मगध के साथ संघर्ष में सफलता सिर्फ शक्तिशाली सेना से प्राप्त नहीं किया जा सकता है. इसलिए कौटिल्य ने अन्य तरीकों से युद्ध की रणनीति अपनाई. इनमें घनान्द के प्रमुख सहयोगियों, वफादारों और समर्थकों को तोड़कर अपने पाले में करना था. इनमें धनानंद के मुख्यमंत्री राक्षस को तोडना एक बड़ी सफलता थी. इसके साथ ही नंदों के खिलाफ बहुत सारी जासूसी और अन्य साज़िशें रची गई. 4थी से 8वीं शताब्दी (संभवतः 5वीं शताब्दी) के बीच विशाखदत्त द्वारा लिखित संस्कृत नाटक मुद्राराक्षस में इसका स्पष्ट विवरण है.
चंद्रगुप्त मौर्य अपने पिछले गलतियों से सबक लेते हुए मगध पर दूसरा आक्रमण शुरू किया. नंद सेना और चंद्रगुप्त मौर्य के सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ. नंद साम्राज्य की सेना का नेतृत्व उसके सेनापति भद्दसाल ने किया था.
अंततः, सैन्य और गैर-सैन्य दोनों तरीकों को नियोजित करके, चंद्रगुप्त विरोधियों पर विजयी हुए और नंद सेना के खिलाफ जीत हासिल की. चन्द्रगुप्त ने पाटलिपुत्र पर घेरा डाला और संभवतः धनानन्द भाग गए या हत्या कर दी गई.
इस जीत ने चंद्रगुप्त मौर्य को नंदों के मगध साम्राज्य का स्वामी बना दिया. नव विजित मगध साम्राज्य में यूनानियों से जीते गए पंजाब और सिंध के क्षेत्रों को जोड़ दिया गया.
4. सेल्यूकस-I और चंद्रगुप्त मौर्य का संघर्ष
सेल्यूकस निकेटर प्रथम, महान सिकंदर के साम्राज्य के पूर्वी हिस्सा का सेनापति और सबसे शक्तिशाली उत्तराधिकारी था. सेल्यूकस अपने मालिक के खोए हुए क्षेत्र को पुनः प्राप्त करना चाहता था. इसलिए उसने चंद्रगुप्त मौर्य से युद्ध करने का विचार किया. इस तरह चंद्रगुप्त और सेल्यूकस प्रथम के मध्य युद्ध छिड़ गया. यह युद्ध 305 और 303 ई.पू के मध्य चला और 301 ईसा पूर्व में संधि के साथ आधिकारिक तौर पर समाप्त हो गया.
इस युद्ध से चंद्रगुप्त मौर्य को काफी लाभ प्राप्त हुआ. चंद्रगुप्त ने अराकोसिया (वर्तमान अफगानिस्तान में कंधार क्षेत्र), गेड्रोसिया (वर्तमान पाकिस्तान में दक्षिणी बलूचिस्तान) और पारोपमिसदाई (अफगानिस्तान और भारतीय उपमहाद्वीप के बीच का क्षेत्र) के क्षेत्र प्राप्त किए. बदले में सेल्यूकस को 500 युद्ध हाथी मिले. इन हाथियों ने सेल्यूकस को भविष्य के अभियानों में विजयी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.
किंवदंती है कि सेल्यूकस ने अपनी बेटी हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य के साथ कर दिया था. लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य इसका समर्थन नहीं करते हैं.
समझौते में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में एक यूनानी राजदूत नियुक्त करने का निर्णय भी लिया गया. परिणामस्वरूप, मेगस्थनीज को पाटलिपुत्र के मौर्य दरबार में स्थान मिला. मेगास्थनीज ने ‘इंडिका‘ नामक ग्रन्थ में मौर्य प्रशासन के बारे में काफी कुछ लिखा है. यद्यपि इंडिका का मूल रूप अब मौजूद नहीं है. लेकिन इसके उद्धरण बाद के कई यूनानी लेखकों के कृतियों में मिलता है.
5. पश्चिम और दक्षिण भारत में विजय
शाही गद्दी पर कब्ज़ा करने के बाद चंद्रगुप्त मौर्य ने अपना ध्यान अपने साम्राज्य के विस्तार में लगया. मौर्य सेनाएँ भारत के पश्चिमी तट और दक्षिणी भारत, विशेषकर वर्तमान कर्नाटक राज्य तक पहुँच गईं.
प्लूटार्क के कथनानुसार, उसने 6,00,000 की सेना के साथ पूरे देश पर कब्ज़ा कर लिया. इस समय मौर्य साम्राज्य में वर्तमान बिहार, उड़ीसा के अलावा बंगाल का एक बड़ा हिस्सा शामिल था. इस साम्राज्य में पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भारत और दक्कन भी शामिल थे. उत्तर-पश्चिम में कुछ ऐसे क्षेत्रों पर भी मौर्यों का अधिकार था, जो ब्रिटिश साम्राज्य में भी शामिल नहीं थे. सुदूर दक्षिण और उत्तर-पूर्व भारत मौर्य साम्राज्य का हिस्सा नहीं थे.
रुद्रदामन के शिलालेख के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के अधीन प्रान्तीय शासक पुष्यगुप्त ने सौराष्ट्र में प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण कराया था. यह सौराष्ट्र पर विजय के उपलक्ष में बनाया गया था. इस जीत के साथ ही मालवा व उज्जैन भी मौर्यों के अधीन आ गए थे.
आधुनिक मुम्बई के सोपारा नामक स्थान से सम्राट अशोक का शिलालेख प्राप्त हुआ है. यह शिलालेख सोपारा के चन्द्रगुप्त के अधीन रहने का सबूत है. वहीं, मुद्राराक्षस, चन्द्रगिरि अभिलेख, जैन ग्रन्थ तथा प्लूटार्क के विवरण से मौर्य साम्राज्य के दक्षिण तक फैले होने का सबूत प्राप्त होता है.
शासक के रूप में चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupta Maurya as a ruler)
चंद्रगुप्त मौर्य जनकल्याण के प्रति काफी सजग थे और इस सम्बन्ध में वह हमेशा तत्पर रहे. वह दरबार में रहते थे और मामलों की सुनवाई कर फैसला भी सुनते थे. एक राजा के रूप में वह अपने लोगों के कल्याण के लिए निरंतर सक्रीय रहे.
ऐसा नहीं है कि वह राजा के एकरस दायित्वों में उलझे थे. ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि वे सार्वजनिक मनोरंजन और सामुदायिक समारोह में भी भाग लिया करते थे. वह सिमित मात्रा में शराब का सेवन भी करते थे. चन्द्रगुप्त को बैल, मेढ़े, गैंडे और हाथियों जैसे जंगली जानवरों के बीच खेल, प्रतियोगिताएं और लड़ाई देखना पसंद था. घोड़ों और बैलों की मिश्रित टीमों द्वारा खींचे जाने वाले रथों की दौड़ का का भी आयोजन करवाया जाता था.
चंद्रगुप्त मौर्य का प्रशासनिक व्यवस्था (Administrative System of Chandragupta Maurya)
चंद्रगुप्त मौर्य के प्रशासनिक ढांचे में संघीय स्वरुप का समावेश मिलता है. इसमें शासन के मुख्यतः दो स्तर मिलते है, पहला केंद्रीय और दूसरा प्रांतीय. प्रांतीय शासन के अधीन स्थानीय प्रशासन और उसके अधीन ग्रामीण इकाई का उल्लेख भी मिलता है. साथ ही, पाटलिपुत्र में नगर प्रशासन का उल्लेख भी मिलता है. इसके आधार पर स्थानीय प्रशासन ग्रामीण और शहरी में विभक्त होना स्वीकार किया जा सकता है. अन्य नगरों के प्रशासन का जानकारी अनुपलब्ध है, संभवतः पाटलिपुत्र के समान ही अन्य नगरों का प्रशासनिक प्रबंधन किया जाता था.
चंद्रगुप्त मौर्य के प्रशासनिक व्यवस्था को निम्लिखिलत 8 भागों में विभाजित किया जा सकता है:
- केंद्रीय प्रशासन (Central Administration)
- प्रांतीय शासन (Provincial Administration)
- स्थानीय प्रशासन (Local Administration)
- 3.1. नगर प्रशासन (City Administration)
- 3.2 ग्रामीण प्रशासन (Rural Administration)
- पुलिस और गुप्तचर (Police and Espionage)
- न्याय प्रणाली (Judicial System)
- राजस्व प्रणाली (Revenue System)
- सैन्य व्यवस्था (Military System)
- लोकहित कार्य (Public Welfare Works)
उपरोक्त व्यवस्था में सम्राट अशोक द्वारा कई सुधार किए गए. इनमें अधिकांश बौद्ध धर्म से प्रेरित थे.
1. केंद्रीय प्रशासन (Central Administration)
चंद्रगुप्त मौर्य के केंद्रीय प्रशासन को तीन हिस्सों में विभाजित किया जाता है. पहला राजा, दूसरा मंत्रिपरिषद और तीसरा नौकरशाही. ये तीनों अंग मिलकर राज्य संचालन का कार्य करते थे.
A. राजा (king): मौर्य साम्राज्य का स्वरूप “राजशाही (Monarchy)” पर आधारित था. इसलिए सत्ता का प्रधान राजा होता था और राज्य के सभी प्रमुख अधिकार राजा के हाथ में ही केंद्रित था. राजा के तीन मुख्य कर्तव्य थे- शासन संबंधी, न्याय सम्बन्धी और सेना संबंधी.
राजा कार्यकारिणी का भी प्रधान था. इसलिए राज्य के मंत्रियों और नौकरशाहों की नियुक्ति भी राजा के द्वारा ही किया जाता था. राज्य का सर्वोच्च न्याय अधिकारी के हैसियत से चंद्रगुप्त मौर्य अपने दरबार में निचली अदालतों से आए मामलों का सुनवाई भी करता था. प्रजा से सीधे आवेदन-पत्र भी स्वीकार किए जाते थे. अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि राजा को कानून बनाने का अधिकार भी था.
युद्ध के मैदान में राजा सर्वोच्च सैन्य कमांडर का भूमिका निभाता था. युद्ध में सैन्य संचालन के कार्य भी राजा द्वारा ही किए जाते थे. इसके अलावा अर्थ विभाग की निगरानी, विदेशी राजदूतों से विचार-विमर्श, अपने राजदूत को अन्य राज्यों में भेजना, गुप्तचरों से सुचना प्राप्त करना और राज्य के अधिकारीयों व जनता के लिए पत्र जारी करना जैसे कार्य भी राजा द्वारा किए जाते थे.
मौर्य साम्राज्य में राजा के हाथ में लगभग सारे शक्तियां थी. लेकिन, मौर्य राजतंत्र कभी भी निरंकुश नहीं बना. इस राजवंश ने सदैव लोकहित व कल्याण के कार्य किए व तदनुरूप निर्णय भी लिए गए.
B. मंत्रिपरिषद: मौर्य प्रशासन में मंत्रिपरिषद का महत्व चाणक्य के अर्थशास्त्र में लिखे इस कथन से ज्ञात होता है.- “राजरूपी रथ एक पहिये (राजा) के द्वारा नहीं चल सकता, अतएव दूसरे पहिये के रूप में उसे मंत्रिपरिषद की आवश्यकता होती है.” वास्तव में मगध जैसे अखिल भारतीय राज्य को अकेले राजा द्वारा चलना संभव नहीं था. इसलिए राजा को सलाह देने के लिए मंत्रियों का नियुक्ति किया गया था.
इन मंत्रियों का काम राजा का सहयोग करना और सलाह देना था. लेकिन राजा इनके सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं था. हालाँकि, मंत्रियों के सलाह के अनुकूल ही कार्य किए जाते थे.
अर्थशास्त्र के अनुसार, मंत्रियों का एक छोटा परिषद् भी होता था. इसमें तीन से चार सदस्य होते थे. इस समूह को मांतिमंडल कहा जाता था. जहाँ मंत्रिपरिषद के सदस्यों को 12 हजार पण मासिक वेतन मिलता था, वहीं मंत्रिमंडल के सदस्यों के लिए यह 48 था.
मंत्रिपरिषद के सदस्यों का संख्या आवश्यकता के अनुसार तय किए जाते थे. इनकी संख्या 12 से 20 होती थी. ये विपत्तिकाल में, राजकाज के लिए, कार्य के लिए श्रम और धन के निर्धारण में राजकीय कार्य के लिए साधन जुटाने में राजा का मदद करते थे. वह स्थान जहाँ इनकी बैठक होती थी, मन्त्र-भूमि कहलाता था.
C. नौकरशाही (Bureaucracy): चंद्रगुप्त मौर्य के राजशाही में राजा और मंत्रिमंडल द्वारा कानून, नीतियों और योजनाओं का निर्माण किया जाता था. इन्हें धरातल पर लागु करने का काम नौकरशाही द्वारा किया जाता था. मौर्यकालीन नौकरशाही अत्यधिक सुसंगठित और सुव्यवस्थित थी तथा विशाल साम्राज्य के कार्यों को सुगमतापूर्वक करती थी.
चंद्रगुप्त मौर्य का प्रशासन अत्यधिक केंद्रित था और 18 विभागों में बांटा गया था. इसके शीर्ष अधिकारी तीर्थ या अमात्य या महामात्य कहलाते थे. इसके अलावा विभिन्न कार्यों के लिए अध्यक्ष भी नियुक्त किए जाते थे. इनकी संख्या 26 से 30 थी. कई जगह ये कहा गया है कि अध्यक्ष अपने विभागाध्यक्ष के अधीन कार्य करते थे.
इन वरिष्ठ अधिकारीयों के अधीन उपाध्यक्ष व अन्य निम्न अधिकारीयों का नियुक्ति किया जाता था. मंत्री से लेकर अन्य सभी कर्मियों का नियुक्ति खुले प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से होता था. श्रेष्ठ लोगों को ही काम पर रखा जाता था. नौकरशाही पिरामिड के भांति था, जिसके शीर्ष व मंत्री व उसके नीचे अन्य कर्मी होते थे.
चंद्रगुप्त मौर्य के प्रशासनिक विभाग और उनके प्रमुख
- युवराज: राजा का उत्तराधिकारी
- सेनापति: युद्ध विभाग का प्रमुख
- मंत्रिपरिक्षाध्यक्ष: मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष
- समाहर्ता: राजस्व विभाग का प्रधान (बिहार में आज भी प्रचलित)
- प्रशास्ता अधिकारी: राजकीय आज्ञाओं को लिखने वाले विभाग का प्रमुख
- सन्निधाता: राजकीय कोषाध्यक्ष
- नायक: नगर रक्षक और सैन्य संचालक
- प्रदेष्टा: फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश या कमिश्नर
- दण्डपाल: सैन्य सामग्री और रसद जुटाने वाले मुख्य अधिकारी
- व्यावहारिक: दीवानी न्यायालय का प्रमुख न्यायाधीश
- कर्मान्तिक: उद्योग और कारखाने का प्रधान निरीक्षक
- पुरोहित: मुख्य पुजारी
- नागरक: नगर प्रमुख या कोतवाल
- अन्तपाल: सीमावर्ती दुर्ग व सीमा का रक्षक
- दुर्गपाल: राजकीय दुर्गों का अध्यक्ष
- आटविक: वन विभाग का प्रधान
- दौवारिक: राजमहल देखभाल का प्रधान
- आंतवेशिक: सम्राट का प्रधान अंगरक्षक
मौर्य प्रशासन के प्रमुख अध्यक्ष
- पण्याध्यक्ष: वाणिज्य का अध्यक्ष
- पोतवाध्यक्ष: मैप-तौल का अध्यक्ष
- सुराध्यक्ष: शराब और मंदिरों का अध्यक्ष
- सुनाध्यक्ष: बूचड़खाने का अध्यक्ष
- कुप्याध्यक्ष: वन और वन सम्पदा का अध्यक्ष
- सूत्राध्यक्ष: कताई-बुनाई का अध्यक्ष
- लोहाध्यक्ष: धातु विभाग का अध्यक्ष
- लक्षणाध्यक्ष: टकसाल का अध्यक्ष
- मुद्राध्यक्ष: पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष
- नवाध्यक्ष: जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष
- वीवीताध्यक्ष: चारागाह का अध्यक्ष
- अक्षपटालाध्यक्ष: महालेखाकार
- पत्तनाध्यक्ष: बंदरगाहों का अध्यक्ष
- शुल्काध्यक्ष: चुंगी विभाग का अध्यक्ष
- देवताध्यक्ष: धार्मिक संस्थान का अध्यक्ष
2. चंद्रगुप्त मौर्य का प्रांतीय शासन (Chandragupta Maurya’ Provincial Administration)
शासन के संचालन में सुगमता के लिए मौर्य साम्राज्यों को इकाइयों में विभाजित किया गया था. इसमें सबसे बड़ी इकाई प्रांत थी. चंद्रगुप्त मौर्य के समय प्रांतों का स्पष्ट विवरण नहीं मिलता है. लेकिन सम्राट अशोक के समय 6 प्रांतों का वर्णन शिलालेखों में मिलता है.
इन प्रांतों को चक्र कहा जाता था. इसके प्रमुख “राष्ट्रपाल” कहलाते थे. प्रान्त प्रमुखों का चयन राज परिवार के सदस्यों, खासकर राजा के संतानों के बीच से किया जाता था, जिन्हें कुमार कहा जाता था. भविष्य में राजा बनने के लिए प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से इन्हें प्रान्त का शासन सौंपा जाता था. ये सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे और उनके निर्देशों के अनुरूप कार्य करते थे.
प्रांत | राजधानी | क्षेत्र |
प्राशी | पाटलिपुत्र | मगध और समस्त उत्तर भारत. |
उत्तरापथ | तक्षशिला | पंजाब, कश्मीर, गांधार और सिंध इत्यादि. |
अवन्ति | उज्जैन | काठियावाड़, गुजरात, मालवा और राजपुताना. |
कलिंग | तोशली | आधुनिक मध्य प्रदेश के कुछ हिस्से, अधिकांश ओडिशा, उत्तरी तेलंगाना और पूर्वोत्तर आंध्र प्रदेश |
दक्षिणापथ | सुवर्णगिरी | विंध्याचल के दक्षिण का समस्त प्रदेश, मुख्यतः कर्नाटक. |
सौराष्ट्र अर्धस्वतंत्र प्रांत | गिरनार | गुजरात राज्य का एक उपक्षेत्र. |
इतिहासकार हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार, प्राशी, अवन्ति, उत्तरापथ, सौराष्ट्र और अंतिम प्रदेश (पूर्वी प्रदेश) सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय भी मौजूद था. केंद्रीय प्रशासन द्वारा प्रांतों पर कड़ी निगरानी रखा जाता था. दूरस्थ या सीमावर्ती क्षेत्रों का प्रशासन भी राजकुमारों के अधीन रहता था. ऐसा संभावित आक्रमण को टालने के लिए किया जाता था. संभवतः सौराष्ट्र और कम्बोज स्वायत प्रांत थे.
प्रांतो को कई मंडलों में विभाजित किया गया था, जिनका शासन महामात्य को सौंपा गया था. मंडल को कई जनपदों में बांटा गया था, जिसके प्रधान समाहर्ता होते थे. प्रत्येक जनपद की छोटी इकाई नगर होता था. जनपद का सबसे छोटा इकाई ग्राम था. 10 ग्राम का समूह संग्रहण, 200 ग्रामों का समूह खार्वटिक, 400 ग्रामो का समूह द्रोणमुख और 800 ग्रामो के समूहों को स्थानीय कहा जाता था.
3. स्थानीय प्रशासन (Lacal Administration)
प्रांतो को कई मंडलों में विभाजित किया गया था, जिनका शासन महामात्य को सौंपा गया था. मंडल को कई जनपदों में बांटा गया था, जिसके प्रधान समाहर्ता होते थे. प्रत्येक जनपद की छोटी इकाई नगर होता था. जनपद का सबसे छोटा इकाई ग्राम था. 10 ग्राम का समूह संग्रहण, 200 ग्रामों का समूह खार्वटिक, 400 ग्रामो का समूह द्रोणमुख और 800 ग्रामो के समूहों को स्थानीय कहा जाता था.
3.1 नगर प्रशासन (Urban Administration)
मौर्यकालीन नगर प्रशासन का उल्लेख मेगस्थनीज के इंडिका और चाणक्य के अर्थशास्त्र में मिलता है. हालाँकि, मेगस्थनीज द्वारा सिर्फ पटना के व्यवस्था का जिक्र है, लेकिन अन्य नगरों के प्रशासनिक व्यवस्था भी इसके समान होने का अनुमान है.
नगर कानून में गृह निर्माण, सफाई, आग की आपदा से नियंत्रण, सड़कों की स्थिति, भूमिगत मार्ग और जल-व्यवस्था से जुड़े प्रावधान थे. गंदगी फैलते हुए पाए जाने पर दंड का प्रावधान था. पड़ोस में आग लगने पर सहयोग करना अनिवार्य था, अन्यथा पडोसी दंड के भागी होते थे.
मेगस्थनीज के अनुसार, पाटलिपुत्र के प्रशासन के लिए 30 सदस्यों की एक सभा थी. यह 5 सदस्यों वाले 6 समिति में विभक्त था. बोर्ड के सदस्यों को एसटीनोमोई (Astynomoi) कहा जाता था. सभी समिति को अलग-अलग कार्य सौंपे गए थे. ये सभा सामूहिक रूप से सरकारी भवनों का मरम्मत, बाजार में मुनाफाखोरी व मूल्य नियंत्रण, देवालयों, बाजारों व बंदरगाहों के देखरेख का काम भी करती थी. सभी समितियों के मुख्य काम इस प्रकार थे:
- शिल्पकला समिति: शैलियों और कारीगरों की निगरानी, उचित पारिश्रमिक दिलवाना.
- वैदेशिक समिति: विदेशियों का देखरेख, आवास का प्रभंधन व सुरक्षा, चिकित्सा इत्यादि. विदेशियों के मृत्यु पर अंत्येष्टि, उनके सम्पत्ति को उचित उत्तराधिकार तक पहुँचाना भी इसी समिति का काम होता था.
- जनसंख्या समिति: नगर में जन्म-मृत्यु का ब्यौरा रखना.
- वाणिज्यिक समिति: व्यापार, बाजार और मापतौल का निगरानी.
- औद्य़ोगिक समिति: कारीगरों द्वारा तैयार माल का देखभाल और बिक्री का प्रबंध करना.
- कर समिति: मूल्य का दसवां हिस्सा बिक्री-कर के रूप में वसूलना.
3.2 ग्रामीण प्रशासन (Rural Administration):
गांव के प्रशासन का प्रमुख अधिकारी को ग्रामिक कहा जाता था. यह राजा द्वारा नियुक्त होता था या ग्रामीणों द्वारा चुना था, स्पष्ट नहीं है. लेकिन ग्रामिक गांव के बुजुर्गों के सहयोग के शासन चलाता था. यह बात स्पष्ट है.
ग्रामिक का काम स्थानीय समस्यायों का समाधान, राजस्व वसूलना और अपराधियों को दंड देना था. यातायात प्रबंधन, सिंचाई व्यवस्था का प्रबंध करना और गांव के विकास के लिए योजनाएं बनाना भी इसी का काम था. ग्रामिकों को राजकोष से वेतन भी मिलता था.
गोप द्वारा ग्रामिकों पर नजर रखा जाता था. एक गोप के अधीन 10 गांव होते थे. यूनानी लेखकों द्वारा मौर्य कालीन ग्राम प्रशासन का प्रशंशा किया गया है. संकटकाल में या नए गांव बसाने के दौरान राजा ग्रामिकों को कर से मुक्त कर देता था.
4. पुलिस और गुप्तचर (Police and Espionage)
मौर्य काल में शांति व सुरक्षा बनाए रखने के लिए आरक्षा के व्यवथा भी थे.आरक्षा (पुलिस) विभाग के कर्मी रक्षित कहलाते थे. शांति व सुरक्षा का दायित्व नगर अध्यक्ष पर होता था. पुलिस विभाग के प्रधान को दण्डपाल कहा जाता था. पुलिस या आरक्षी विभाग का काम अपराधियों को पकड़ना और राजकीय नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना था. इसके लिए गुप्तचर भी इनका मदद करते थे.
गुप्तचरों को चर कहा जाता था. यूनानी लेखकों ने इन्हें ओवरसियर या इंस्पेक्टर कहा है. स्त्री व पुरुष दोनों को जासूस के रूप में बहाल किया जाता था. स्त्रियों में वैश्याओं, भिक्खुनी, दासी व शिल्पकारी को जासूसी का काम दिया जाता था. वहीं, पुरुष जासूस छद्मभेष धारण कर अपने काम को अंजाम देते थे. इन जासूसों का काम अपराधी का पता लगाना, राज्य के कर्मियों के बारे में जानकारी जुटाना, आंतरिक व बाह्य शत्रुओं व उनके शक्तियों का पता लगाना जैसे कार्य इनके द्वारा किए जाते थे.
इन गुप्तचरों को युवराजों पर भी निगरानी रखने को कहा जाता था. ये हरेक छोटी सी छोटी सुचना को सम्राट तक पहुंचाते थे. इन गुप्तचरों का जासूसी भी किया जाता था. इस तरह मौर्य काल में दोहरी जासूसी प्रथा लागु था.
गुप्तचरों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था. पहली संस्था, जिसके सदस्य एक ही जगह पर स्थिर रहकर संस्थागत तौर पर काम करते थे. दूसरा श्रेणी संचार कहलाता था. ये विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करके जानकारी इकठ्ठा करते थे. गुप्तचरों को गूढ़ पुरुष भी कहा जाता था. स्मिथ ने मौर्य साम्राज्य के गुप्तचर व्यवस्था का तुलना आधुनिक जर्मनी के व्यवस्था से की है.
5. न्याय प्रणाली (Judicial System)
चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में न्याय का प्रधान सम्राट होता था. इसके अलावा विभिन्न स्तरों पर कई न्यायालय स्थापित किए गए थे. न्याय प्रणाली के सबसे नीचले स्तर पर ग्राम न्यायालय होते थे, जहां ग्रामिक अपने ग्राम-सभा के सहायता से फैसले दिया करते थे. इसके ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख, स्थानीय व जनपद न्यायालय होते थे. राजा को अपने अधीनस्थ न्यायालयों के फैसलों को रद्द करने का अधिकार था. दंड में बदलाव भी किए जाने का वर्णन मिलता है.
ग्राम व राजा के अदालत को छोड़कर अन्य सभी अदालत दो हिस्सों में विभाजित थे, पहला धर्मस्थीय व दूसरा कंटकशोधीय अदालत.
धर्मस्थीय न्यायालय: ये मूलतः दीवानी अदालतें थी. यहाँ तीन धर्मस्थ (व्यावहारिक) नियुक्त होते थे. विवाह व मोक्ष, दायभाग (उत्तराधिकार), वास्तु (गृह सम्बन्धी मामले), वास्तु विक्रय, खेत, ऋण, सिंचाई का पानी, चरागाह, सड़क, पथ, क्रय-विक्रय, धरोहर, मानहानि और हिंसा से जुड़े मामले इन अदालतों में सुलझाए जाते थे.
कंटकशोधीय अदालत: यह फौजदारी प्रकार का अदालत था. यहाँ तीन की संख्या में अध्यक्ष नियुक्त किया जाता था, जिन्हें प्रदेष्टा कहा गया है. इनका उद्देश्य कृषि, व्यापार व उद्योगों के लिए बने नियमों की निगरानी करना था. ये अपकृत अधिकारीयों को नियम के विपरीत व्यवहार करने से रोकते थे और नए नियमों का सुचारु पालन सुनिश्चित करते थे. इन कार्यों को प्रोत्साहित करने और अधिकारीयों पर बंधन लागु करने के उद्देश्य के साथ इन अदालतों का स्थापना किया गया था.
दंड व्यवस्था: मौर्य काल में दंड का विधान काफी कठोर था. मेगस्थनीज के अनुसार राज्य में चोरी न के बराबर होती थी. लेकिन, अपराधियों को अंगभंग, मृत्यु दंड या आर्थिक दंड देने का प्रावधान था. अर्थशास्त्र के अनुसार, छोटे अपराध के लिए अर्थ दंड ही दिया जाता था. गंभीर अपराधों के लिए ही अंगभंग या मृत्यु दंड का प्रावधान था. लेकिन इन्हें भी आर्थिक दंड से बदलने का प्रावधान था. दंड के कठोरता के कारण मौर्य साम्राज्य में अपराध न के बराबर होता था. इसलिए मौर्यकालीन समाज को सभ्य और शालीन सभ्यता कहा जा सकता है.
6. राजस्व प्रणाली (Revenue System)
राजस्व विभाग का प्रधान अधिकारी समाहर्ता था. इनके अंतर्गत शुल्काध्यक्ष, सूत्राध्यक्ष व मुद्राध्यक्ष जैसे अनेक अधिकारी काम करते थे. विभाग के अधिकारीयों का विभाजन अध्यक्ष, उपाध्यक्ष व गोप में किया गया था.
अर्थशास्त्र में आय के अनेक स्त्रोतों का वर्णन किया गया है. आय का मुख्य स्त्रोत भूमि कर था. चंद्रगुप्त मौर्य के समय राज्य के अधीन भूमि से प्राप्त राजस्व को ‘सीता’ और अन्य भूमि से प्राप्त राजस्व को ‘भाग’ कहा जाता था. किसानों को सामान्यतः अपने उपज का चौथा या छठा हिस्सा कर के रूप में देना होता था.
दुर्ग से चुंगी, जेलखाना, शराब, वस्त्र उद्योग, जुर्माना, वैश्य, कारीगर और अचल सम्पत्ति पर कर का उगाही किया जाता था. जनपदों से प्राप्त आय ‘राष्ट्र’ कहलाते थे. इसमें भूमिकर, बंदरगाह, सड़क और चारागाह से प्राप्त कर शामिल थे.
खनिज व इससे जुड़े कारखानों से खनि कर वसूला जाता था. बगीचे से सेतु, मवेशियों से व्रज, स्थल और जलमार्ग से वणिक्पथ इत्यादि कर वसूले जाते थे. तटकर और बिक्री कर (Sales Tax) से भी राज्य को आय प्राप्त होता था. साथ ही आयात व निर्यात (Import and Export) से भी करों की वसूली होती थी, जिन्हें क्रमशः प्रवेश्य और निष्क्रम्य कहा जाता था. साथ ही, अर्थदंड और निजी उद्योगों से भी आय का एक हिस्सा प्राप्त होता था. बेगारी लेकर भी सरकारी खर्च को नियंत्रित रखा जाता था.
प्रत्येक विभाग से तय कर वसूला जाता था. परन्तु आपातकाल में इन करों को बढ़ाया भी जा सकता था. राजस्व का एक बड़ा हिस्सा राजपरिवार के सदस्यों और राजकर्मियों पर खर्च किया जाता था. राजकर्मियों को कई सुविधाएं भी इन्हीं राजस्व से प्रदान किया जाता था. इसके अतिरिक्त राजस्व से प्राप्त धन का उपयोग जनकल्याण के कार्यों, जैसे अस्पताल, राजमार्ग, शिक्षा, वृति, भत्ते, दान, रक्षा, सिंचाई, भवन निर्माण व अन्य लोकोपकारी कार्यों में किया जाता था.
राजस्व का गबन करने वालों के खिलाफ कठोर दंड का प्रावधान था. इन्हें प्राणदंड भी दिया जाता था.
7. सैन्य व्यवस्था (Military System)
चंद्रगुप्त मौर्य के समय दो साम्राज्यों में युद्ध सामान्य थे. इसलिए चंद्रगुप्त मौर्य ने विशाल और सुव्यवस्थित सेना कायम किया था. इसी सेना के बदौलत उसने नंदों के सेना को परास्त किया था. साथ ही, सेल्यूकस निकेटर के सेना को परास्त करने में भी चंद्रगुप्त मौर्य का साथ इसी विशाल सेना ने दिया था. इससे चंद्रगुप्त मौर्य के सेना के शक्ति का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.
मेगस्थनीज और चाणक्य दोनों में चन्द्रगुप्त मौर्य के सेना का वर्णन किया है. प्लिनी के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के सेना में 6 लाख पैदल सैनिक, 30 हजार घुड़सवार, 9 हजार हाथी और 8 हजार रथ थे. सैन्य विभाग को 6 मंडलों में विभक्त किया गया था. प्रत्येक में पांच सदस्य होते थे. ये विभाग थे-
- पैदल सेना,
- नौसेना,
- अश्व सेना,
- रथ सेना,
- गज सेना,
- सैनिक सेवा (सैन्य यातायात एवं युद्ध का आवश्यक सामग्री का विभाग)
सीमांतों के रक्षा के लिए दुर्ग बनाए गए थे. इसकी रक्षा दुर्गपाल और अन्तपाल करते थे. इन दुर्गो के भी पांच प्रकार थे- स्थल, जल, वन, गिरि और मरु.
चंद्रगुप्त मौर्य का सेना विविध प्रकार के हथियारों से लैस था. इनमें तलवारें, भाला, धनुष-बाण, कटार और कुल्हाड़ी इत्यादि मौर्य सेना मुख्य शस्त्र थे. इसके अलावा बहुमुख, अर्धबाहु, उर्द्धबाहु और जामदग्न्य जैसे यंत्रों का भी इस्तेमाल होता था. सर्वतोभ्रद्र यंत्र से दुश्मन सेना पर पत्थर बरसाए जाते थे. अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण के लिए कई कारखाने भी स्थापित किए गए थे.
सैन्य कर्मियों को नियमित वेतन और भत्ते दिए जाते थे. घायलों के इलाज के लिए उचित संख्या में चिकित्सक व सहायक कर्मी तैनात किए गए थे. चाणक्य के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य का सेना चतुरंगिणी था, जिसमें पैदल, घोड़े, रथ और हाथी के सैन्य टुकड़ियां शामिल थी. युद्ध के दौरान व्यूह रचना भी किया जाता था. साथ ही, सेना को खड़ी फसल से गुजरने का अनुमति नहीं था.
8. लोकहित कार्य (Public Welfare Works)
मौर्यों द्वारा अपने प्रजा के कल्याण के लिए कई कार्य करवाए गए थे. मेगस्थनीज के अनुसार राज्य में सिंचाई की समुचित व्यवस्था थी और खेतों को राजकीय व्यवस्था से सींचा जाता था. वस्तुतः, मौर्य काल में कृषि और पशुपालन ही आजीविका का मुख्य स्त्रोत था. इसलिए भूमि के उर्वरता और उपज बढ़ाने के लिए राज्य द्वारा कई प्रबंध किए गए थे.
राज्य के विभिन्न स्थानों को स्थल मार्ग द्वारा जोड़ा गया था. सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगाए गए, प्याऊ का व्यवस्था किया गया और विश्राम गृह (धर्मशाला) भी बनाए गए.
महामारी और रोग नियंत्रण के भी समुचित व्यवस्था किए गए थे. इसके लिए सफाई पर समुचित ध्यान दिया जाता था. साथ ही, कई चिकित्सालयों के माध्यम से मरीजों का इलाज भी किया जाता था. राज्य द्वारा औषधि भी मुफ्त में उपलब्ध करवाया जाता था.
शिक्षकों और विद्यालयों को समय-समय पर अनुदान देकर शिक्षा को भी प्रोत्साहित किया जाता था. आकस्मिक संकटों, जैसे आग, महामारी, सूखा, बाढ़ व अकाल के दौरान भी मदद मुहैया करवाए जाते थे. साथ ही, अनाथ बच्चे, वृद्ध, रोगी व विपत्तिग्रस्त लोगों का पोषण भी राजकोष से किया जाता था.
निष्कर्ष (Conclusion)
उपयुक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त मौर्य एक कुशल रणनीतिकार था, जिसने मौर्य साम्राज्य को सभी प्रकार से सुसंगठित और सुनियोजित बनाया. बेशक, इसमें उसके सहयोगियों ने भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया था. लेकिन, राजा के हाथ में सभी शक्तियां केंद्रित था. इसलिए एक कुशल और समझदार राजा के नेतृत्व के बिना इस मुकाम को हासिल करना मौर्य साम्राज्य के लिए नामुमकिन था.
आगे चलकर मौर्य प्रशासन में अशोक ने कई सुधार किए. इसके कारण राज्य के दक्षता में कई गुना वृद्धि हो गई. साथ ही, राज्य का मुख्य मकसद जनकल्याण बन गया. इसी कारण से मौर्य साम्राज्य का प्रसंशा कई विदेशी लेखकों ने भी किया है. चन्द्रगुप्त मौर्य के महल के भग्नावशेष आज भी पटना के कुम्हरार में देखे जा सकते है. ये समकालीन महलों में सर्वश्रेष्ठ पाए गए है.
हम कह सकते है कि मौर्य साम्राज्य का गठन आधुनिक राजशाही के अनुरूप उस वक्त हुआ था, जब दुनिया के अधिकांश देश इससे अनभिज्ञ थे. इसलिए बाद के समय में भारत में कई शासकों ने चंद्रगुप्त नाम धारण किया. यह प्रथम चंद्रगुप्त चंद्रगुप्त मौर्य के महानता को दर्शाता है.
Shravan Kumar