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भारत में संघवाद, इसके चरण, प्रकार और विशेषताएं

    भारतीय संविधान में संघवाद की पुष्टि नहीं की गई है. हालाँकि, संविधान के भाग एक में वर्णित अनुच्छेद एक में इस ”राज्यों का संघ” के रूप में परिभाषित किया गया है. इससे भारतीय शासन-प्रणाली का संघवाद से प्रेरित होना साबित होता है. संविधान विशेषज्ञों के अनुसार भारतीय संविधान में संघवाद के साथ-साथ एकात्मवाद का भी प्रतिबिम्ब है. ऐसा केंद्रीय सरकार के अत्यधिक ताकतवर होने के कारण है. इसलिए इसे एकात्मीय संघवाद भी कहा जाता है.

    चूँकि भारतीय व्यवस्था केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग की अपेक्षा करता है, इसलिए इसे सहकारी संघवाद से प्रेरित कहना उचित होगा. साथ ही, केंद्र और राज्यों के बीच परस्पर सम्बन्ध, आर्थिक हितों के वजह से अधिक प्रगाढ़ है. इसलिए हम भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रशासन को सहकारी संघवाद पर टिका और राजनैतिक व्यवस्था का एकात्मीय संघवाद पर टिका मान सकते है. निति आयोग द्वारा सहकारी संघवाद पुरे देश के निति निर्माण कर राज्यों का सहयोग करना, सहकारी संघवाद का श्रेष्ठ उदाहरण है. तो आइये जानते है संघवाद से जुड़े महत्वपूर्ण तत्व:

    क्या है संघवाद (What is Federalism in Hindi)?

    संघवाद का जन्म लैटिन शब्द “फोएडस(foedus)” से हुई है, जिसका हिंदी में शाब्दिक अर्थ संधि या समझौता है. संघवाद में सत्ता का एक केंद्रीय स्वरुप और इसमें समाहित कई छोटे-छोटे अन्य इकाइयां होती है. पुरे देश के लिए उत्तरदायी एक केंद्रीय सरकार होती है और देश में कई अन्य प्रान्त और राज्य होते है. भारत में एक तीसरा स्तर, स्थानीय सरकार है, जिसे 20 लाख से अधिक आबादी वाले राज्यों में लागु किया गया है.

    सरकार के सभी स्तरों के क्षेत्राधिकार और उत्तरदायित्व स्पष्ट होते है. केंद्रीय सरकार के पास सामान्य राष्ट्रीय हित के विषय पर निर्णय लेने का अधिकार होता है, जैसे विदेश निति व अंतर्राष्ट्रीय संबंध, रक्षा व संचार इत्यादि. वहीं, राज्यों या स्थानीय सरकार को सामान्यतः स्थानीय महत्व के मामले दिए जाते है, जैसे पुलिस व कानून व्यवस्था, जमीन से जुड़े मामले, वन, जनकल्याण और घरेलु नीतियों व योजनाओं का किर्यान्वयन.

    भारतीय संघवाद को त्रिस्तरीय कहा जा सकता है. ऐसे केंद्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर तीन अलग-अलग सरकार के उपस्तिथि के कारण है.

    ख़ास बात है कि आधुनिक समय में संघवाद शासन प्रणाली में, केंद्रीय और स्थानीय सरकार के बीच कोई समझौता नहीं होता है, बल्कि संविधान के द्वारा दोनों के बीच सम्बन्ध तय और संतुलित होती है. अतः, यह एक नई नीति है, जो बड़े राज्यों के सुदूर इलाकों को केंद्रीय नेतृत्व में समाहित रख राज्य का सुचारु संचालन में सहायक है.

    संघवाद के प्रकार (Types of Federalism in Hindi)

    आसान भाषा में समझने के लिए संघवाद को आर्थिक व शासन प्रणाली के आधार पर विभाजित किया जा सकता है.

    A. आर्थिक आधार पर (On Economic Basis):

    I. सहकारी संघवाद (Co-operative Federalism in Hindi)

    इसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकारें नागरिक जीवन को उन्नत बनाने के लिए एकसाथ मिलकर काम करती है. भारत में समवर्ती सूचि पर केंद्र व राज्यों का सहयोग इसका सबसे बेहतर उदाहरण है. कई बार राज्य के खस्ता शिक्षा, स्वास्थ्य व बुनियादी सुविधाओं में सुधार के लिए केंद्र सहयोग प्रदान करती है; वहीं कई बार केंद्र की योजना को लागु करने के लिए राज्य के मशीनरी का सहयोग लिया जाता है. ये पारस्परिक सहयोग ही सहकारी संघवाद है.

    II. प्रतिस्पर्धी संघवाद (Competitive Federalism in Hindi)

    किसी ‘संघ’ में विभिन्न राज्यों द्वारा नागरिक जीवन के उत्थान हेतु कानून, प्रशासन एवं वित्त जैसे क्षेत्र में एक-दुसरे से की गई स्वस्थ प्रतिस्पर्धा ‘प्रतिस्पर्धी संघवाद’ है.

    इस तरह के संघवाद की सबसे बड़ी खासियत स्वायत नीति निर्माण है, जहाँ राज्य सरकारें अपने नागरिकों के जीवन स्तर, राज्य के भौगोलिक, आर्थिक व अन्य कारकों के आधार पर स्वयं निर्णय लेती है. केंद्रीय नेतृत्व राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा के लिए नियम बनाती है ताकि राज्यों के बीच टकराव न हो और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का सफल संचालन हो सके. इसका सबसे बेहतर उदाहरण अमेरिका है, जहाँ केंद्रीय सरकार राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा के मानक तय करते हुए नियम बनाती है और किसी भी टकराव को घटित होने से रोकती है.

    भारत में योजना आयोग को नीति आयोग में बदलने के पीछे का मकसद यही है. राज्य सरकारों को सशक्त करने तथा ‘विकास’ में राज्यों की भूमिका बढ़ाने हेतु प्रतिबद्ध है. नीति आयोग ने राज्यों के जीवन स्तर को मापने के लिए अंक आधारित कई सूचकांक भी जारी किये है, जो राज्यों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने वाला कदम है. ज्ञात हो कि भारत के मूल संविधान में प्रतिस्पर्धी संघ का कहीं भी उल्लेख नहीं है.

    उदाहरण के बिहार में शिक्षा का स्तर काफी कम तो तमिलनाडु में काफी अधिक है. इसलिए दोनों के लिए सामान नीति नहीं बन सकती. ऐसे में बिहार में शैक्षणिक उत्थान की काफी संभावनाए है और बिहार राज्य को लक्षित करके बनाए गए नीति से संभवतः कभी बिहार भी शिक्षा के मामले में तमिलनाडु के समकक्ष खड़ा हो सके. लेकिन, शिक्षा का विषय केंद्र के पास होने से यह अपने लिए अनुकूल नीति नहीं बना सकेगा. इसलिये प्रस्पर्धी संघवाद का स्वस्थ रूप जरुरी है.

    III. स्वार्थ (सौदेबाजी) पर आधारित संघवाद (Federalism Based on Bargaining)

    इस व्यवस्था में केंद्रीय स्तर पर कुछ दल तो राज्य स्तर पर कुछ दल एकजुट हो जाते है. इस तरह द्वी-स्तरीय राजनैतिक दल वाली व्यवस्था का शुरुआत हो जाता है. फिर दोनों गुटों के बीच सौदेबाजी का दौर आरम्भ हो जाता है. ऐसा केंद्र व राज्यों के बीच अलग-अलग विषयों का बंटवारा हो जाने से होता है. मौरिस जॉनसन ने भारत के संघीय स्वरुप में केंद्र व राज्यों के बीच इस संबंध को ही “सौदेबाजी का संघवाद” कहा है.

    बकौल मौरिस जॉनसन, “भारतीय संघवाद का सदैव यही स्वरुप रहा है जहाँ संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच अलग-अलग क्षेत्र निर्धारित किए गए है, वहां व्यवहार में दोनों के बीच सहकारी सौदेबाजी का सम्बन्ध है.”

    B. शासन प्रणाली के आधार पर (Based on Administrative Structure)

    I. एकात्मक संघवाद (Unitary Federalism in Hindi)

    एकात्मकमक शासन प्रणाली, संघीय प्रणाली से ठीक विपरीत होती है. एकात्मक प्रणाली में सरकार सत्ता का एकमात्र स्वरुप केंद्रीय स्तर पर होती है. विश्व के अधिकांश देशों ने इसी शासन प्रणाली को अपनाया है.

    जब संघीय प्रणाली में केंद्रीय सरकार अधिक शक्तिशाली हो तो इसे एकात्मीय संघवाद के नाम से जाना जाता है. भारत इसका एक उदाहरण है.

    II. सहकारी संघवाद (Co-operative Federalism)

    इसमें देश के सत्ता संचालन के लिए राज्य और केंद्र परस्पर सहयोग करते है. जैसे राज्य को आपदा या उपद्रव के समय राहतकर्मियों या सुरक्षाकर्मियों के माध्यम से मिलने वाला मदद. यह लगभग ऊपर आर्थिक आधार पर सहकारी संघवाद के समान ही परिभाषित होता है.

    चीन, फ्रांस, इटली, जापान. रूस. संयुक्त अरब अमीरात और यूनाइटेड किंगडम एकात्मवाद सत्ता वाले देश है, जबकि ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, ब्राजील, कनाडा, जर्मनी, भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका ने संघवाद को अपनाया है.

    संघवाद की विशेषताएं (Characteristics of Federalism in Hindi)

    1. संघीय व्यवस्था में लिखित व विस्तृत संविधान होता है, जो सर्वोच्च व कठोर होता है. इसी के अनुरूप संघवाद के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सभी स्तर की सरकारें काम करती है. इसमें सभी मामलों और उनके निपटान के तरीका का भी कई बार वर्णन होता है, जो विवादों को हल कर सुचारु शासन की स्थापना करती है.
    2. प्रत्येक स्तर के क्षेत्राधिकार और अस्तित्व सुस्पष्ट तौर पर संविधान में गारण्टित होती है. इस प्रकार जवाबदेही का भी विभाजन हो जाता है, जो सरकार पर अतिरिक्त दवाब को कम करती है.
    3. स्थानीय महत्व के विषय प्रांतो या स्थानीय निकाय के पास होते है, जहाँ तक जनता की पहुँच सुलभ होती है.
    4. वित्तीय स्वायत्ता को बरकरार रखने के लिए सभी स्तरों के लिए आय और कर का स्पष्ट विभाजन होता है.
    5. संविधान के मौलिक प्रावधानों को बदलने के लिए सरकार के दोनों स्तरों (केंद्र व राज्य) की सहमति की आवश्यकता होती है.
    6. न्यायालयों को संविधान द्वारा संविधान की व्याख्या करने और राज्यों व केंद्र या दो राज्यों के बीच विवाद को हल करने की शक्ति होती है.
    7. स्थानीय सरकार के उपस्तिथि से जनता में सरकार से जुड़ाव का भावना विकसित होता है.

    इस प्रकार संघवाद राष्ट्रिय एकता और अखंडता को बरकरार रखती है.

    भारत के लिए संघवाद का महत्त्व (Importance of Federalism for India in Hindi)

    भारत भौगोलिक व सामाजिक तौर पर विविधताओं से भरा देश है. यहाँ अनेक धर्म, जाति, पंथ व संस्कृति के लोग रहते है. ऐसे में इन्हें एक सूत्र में पिरोकर राष्ट्रिय एकता कायम करना एक बड़ी चुनौती है. संघवाद इस समस्या का समाधान सरलता से कर देती है.

    भारत के संघीय प्रणाली में सत्ता का विभाजन तीन स्तरों- केंद्र, राज्य व स्थानीय निकाय- में किया गया है. इससे सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो जाता है और स्थानीय लोगों की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती है. यह भागीदारी शासन व जनता के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण का निर्माण करती है.

    स्थानीय व राज्य सरकार को लोगों के समस्याओं के संबंध में पूरी जानकारी होती है और वे त्वरित व सुचारु ढंग से काम करते है. वे जानते है कि किस मद में खर्च बढ़ने या घटाने की जरूरत है. इस तरह संघीय व्यवस्था से लोगों का हित पूरा होता है और उनमें लोकतंत्र के प्रति भरोसा जगता है. इस तरह, स्थानीय सरकारों की स्थापना स्व.शासन के लोकतांत्रिक सिद्धांत को वास्तविक बनाने का सबसे अच्छा तरीका है.

    उदाहरण के लिए, जजनकल्याण से जुड़े त्वरित कार्रवाही वाले मामले, जैसे स्वच्छता, जलापूर्ति, शहर योजना, चारागाह, जमीन के मामले व कानून-व्यवस्था इत्यादि स्थानीय या राज्य सरकार को सौंपे गए है, जो जनजीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करती है.

    संवैधानिक प्रावधान- केंद्र और राज्य संबंध (Constitutional Provisions for Centre-State Relation in Hindi)

    भारतीय संघवाद का स्वरुप संविधान के भाग XI और XII में वर्णित प्रावधानों से होता है, जो केंद्र-राज्य संबंध के बारे में प्रावधान करती है. भाग XI में वर्णित अनुच्छेद 245 से 263 केंद्र-राज्य संबंध व भाग XII में वर्णित अनुच्छेद 264 से 300A वित्त, सम्पत्ति, संविदा व वाद के सम्बन्ध में प्रावधान से जुडी है. इसके अलावा भाग XIII के अनुच्छेद 301 से 307 में भारत में व्यापार, वाणिज्य समागम का वर्णन है. साथ ही, भाग XIV के अनुच्छेद 308 से 323 में केंद्र व राज्यों के अधीन सेवाओं का वर्णन है.

    विधायी संबंध (Legislative Relation in Hindi)

    किसी राज्यों को कानून बनाने की शक्तियां, विधायी शक्ति कहलाती है. भारत में केंद्र व राज्य दोनों को यह शक्ति प्राप्त है, जो दोनों को अपने विषय में निर्णय लेने के लिए संविधान सम्मत स्वायत्ता प्रदान करती है.

    केंद्र व राज्यों उन्ही विषयों पर कानून बना सकती है, जो संविधान के सातवीं अनुसूची में अनुच्छेद 246 द्वारा उन्हें आवंटित किए गए है. यहाँ केंद्रीय व राज्य सूचि के अलावा, एक समवर्ती सूचि भी है, जिसपर केंद्र व राज्य दोनों सरकारें कानून बना सकती है. हालाँकि, केंद्र व राज्य के बीच समवर्ती सूचि के किसी विषय के कानून पर टकराव की स्तिथि में केंद्र द्वारा बनाए गए कानून मान्य होते है.

    • केंद्रीय सूचि में 100, राज्य सूचि में 61 व समवर्ती सूचि में 52 विषयों का प्रावधान है. इसके अलावा वे विषय जो किसी को आवंटित नहीं हुए है, अवशिष्ट शक्तियों के रूप में केंद्र को सौंपे गए है.
    • राष्ट्रिय व अंतर्राष्ट्रीय महत्व के विषय, जैसे रक्षा, रेलवे, संचार, आयकर, कस्टम ड्यूटी, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध आदि केंद्रीय सूचि में शामिल है.
    • राज्य सूची में राज्यों के मध्य व्यापार, पुलिस, मत्स्य पालन, वन, स्थानीय सरकारें, थिएटर, उद्योग आदि जैसे विषय शामिल है.
    • समवर्ती सूची में स्टाम्प ड्यूटी, ड्रग्स एवं ज़हर, बिजली, समाचार पत्र, आपराधिक कानून, श्रम कल्याण जैसे विषय शामिल हैं.

    प्रशासनिक संबंध (Administrative Relationship in Hindi)

    केंद्र और राज्यों के बीच प्रशासनिक संबंध का तात्पर्य कार्यपालिका के बीच सम्बन्ध और समन्वय से है, ताकि केंद्र व राज्यों के नीतियों व कानूनों को सुचारु रूप से लागु लागू किया जा सके. संविधान के अनुच्छेद 256-263 तक केंद्र तथा राज्यों के प्रशासनिक संबंधों की चर्चा की गई है. इसमें केंद्र सरकार को निम्नलिखित शक्तियां दी गई हैं:

    • राज्यों को निर्देश देना
    • अंतर-राज्यीय नदी विवादों पर फैसला करना
    • अखिल भारतीय सेवाओं का निर्माण और उन्हें राज्यों में नियुक्त करना

    अखिल भारतीय सेवाओं का निर्माण एक महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो भारतीय संघवाद को मजबूत करता है. अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक कड़ी के रूप में काम करते हैं. वे केंद्र सरकार के नीतियों को राज्य सरकारों तक पहुंचाते हैं और राज्य सरकारों के कार्यों को केंद्र सरकार के साथ समन्वित करते हैं. अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच विश्वास और समझ को बढ़ाते हैं.

    अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी केंद्र सरकार द्वारा भर्ती किए जाते हैं, लेकिन उन्हें केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों में भी नियुक्त किया जाता है. इस सेवा के अधिकारीयों का आदान-प्रदान केंद्र व राज्यों के बीच होते रहता है. यह व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के प्रति निष्ठावान व जवाबदेह हों.

    वित्तीय संबंध (Financial Relation in Hindi)

    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 268-293 में केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों को परिभाषित किया गया है. दोनों को कर लगाने के लिए स्वतंत्र स्त्रोत प्रदान किए गए है. यह प्रणाली भारत सरकार अधिनियम, 1935 से ली गई है.

    संविधान के अनुसार, केंद्र सरकार के पास संघ सूची में शामिल विषयों पर कर लगाने का अधिकार है, जबकि राज्य सरकारों के पास राज्य सूची में शामिल विषयों पर कर लगाने का अधिकार है. समवर्ती सूची में वर्णित विषयों पर दोनों केंद्र और राज्य सरकारें कर लगा सकती हैं. संसद के पास अवशिष्ट विषयों से संबंधित मामलों पर भी कर लगाने का अधिकार है.

    संविधान ने केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय संबंधों को विनियमित करने के लिए एक वित्त आयोग की भी स्थापना की है. वित्त आयोग का गठन हर पांच साल में किया जाता है और इसका कार्य केंद्र और राज्य सरकारों के बीच राजस्व के वितरण का सुझाव देना है. वित्त आयोग के सुझावों को केंद्र सरकार द्वारा लागू किया जाता है.

    भारत में संघवाद के समक्ष चुनौतियाँ (Challenges before Indian Federalism in Hindi)

    भारत एक संघीय गणराज्य है, जिसका अर्थ है कि शक्तियों को केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच विभाजित किया गया है. हालांकि, भारत में संघवाद के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं, जिनमें शामिल हैं:

    क्षेत्रवाद (Regionalism in Hindi):

    भारत एक विशाल देश है, जिसमें विभिन्न क्षेत्रीय संस्कृतियों और पहचानों का समूह है. यह क्षेत्रवाद को जन्म देता है, जो संघवाद के लिए एक चुनौती है. क्षेत्रवाद तब होता है जब एक क्षेत्र या क्षेत्र के लोग यह महसूस करते हैं कि वे केंद्र सरकार से अलग हैं और उनके हितों को पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है. यह क्षेत्रीय विद्रोह और हिंसा का कारण बन सकता है.

    केंद्रीकरण (Centralisation in Hindi):

    केंद्र सरकार में शक्तियों का केंद्रीकरण संघवाद के लिए एक और चुनौती है. भारतीय संविधान में केंद्र सरकार को कई शक्तियां दी गई हैं, जिनमें से कुछ राज्य सरकारों को भी दी जा सकती हैं. केंद्र द्वारा राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति के माध्यम से भी हस्तक्षेप किया जाता रहा है. भारत में संविधान संशोधन की शक्ति अनुच्छेद 368 और अन्य प्रावधानों के तहत केंद्र के ही पास है. यह राज्य सरकारों की स्वतंत्रता को कम कर संघवाद को कमजोर करता है.

    आर्थिक असमानता (Economic Inequality in Hindi):

    भारत में आर्थिक असमानता एक बड़ी समस्या है. यह संघवाद के लिए एक चुनौती है क्योंकि यह राज्यों के बीच तनाव पैदा कर सकता है. संपन्न राज्य गरीब राज्यों के ऊपर हावी हो सकते है. गरीब राज्यों से पलायन से ब्रेन ड्रेन की समस्या गरीब राज्य को और भी खराब स्तिथि में ला देती है. यह संघवाद के मूल सिद्धांतों के खिलाफ जाता है, जो सभी राज्यों के समान अधिकारों को मान्यता देता है.

    भाषाई विविधता (Linguistic Diversity in Hindi):

    भारत एक बहुभाषी देश है. इसमें 22 संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषाएँ हैं और कई अन्य भाषाएँ भी बोली जाती हैं. यह भाषाई विविधता संघवाद के लिए एक चुनौती है क्योंकि यह संचार और समझ में बाधा उत्पन्न कर सकती है. यह संघीय संस्थानों के लिए भी चुनौती है क्योंकि उन्हें विभिन्न भाषाई समूह तक तक सुचना सम्प्रेषण में कठिनियों का सामना करना पड़ता है. संवादहीनता के स्थिति में लोकतान्त्रिक संघवाद का उद्देश्य पुरा नहीं हो पाता है. साथ ही केंद्र द्वारा किसी भाषा को राजभाषा के रूप में लागू करने का प्रयास भी कई राज्यों द्वारा अपने भाषा पर हमले के तौर पर देखा जाता है.

    ये भारत में संघवाद के समक्ष कुछ चुनौतियाँ हैं. इन चुनौतियों को दूर करने के लिए, केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को मिलकर काम करना होगा. उन्हें संघवाद के मूल सिद्धांतों को बनाए रखना होगा और सभी राज्यों के समान अधिकारों को सुनिश्चित करना होगा.

    साथ ही, सभी दलों को जनकल्याण के उद्देश्य से एकजुट होकर सहकारी संघवाद को अमलीजामा भी पहनाना होगा. केंद्र में मजबूत सरकार के वर्तमान में ऐसा करना अधिक सम्भव है. इन्हीं उपायों के बदौलत अशिक्षा, भुखमरी व आर्थिक-सामाजिक असमानता के खाई को पाटते हुए २०२४-25 तक पांच ट्रिलियन डॉलर एक अर्थव्यवस्था का सपना साकार हो सकता है.

    भारत में संघवाद: आजादी से अबतक (History of Federalism in India in Hindi)

    आजादी के बाद भारत ने बैल्जियम की भांति दो स्तर का संघवाद अपनाया था, एक केंद्रीय और दूसरी राज्य स्तर पर. लेकिन 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के बाद भारत के संघीय ढांचे में तीसरा स्तर यानि स्थानीय ग्राम पंचायत (73वें संसोशन) या शहरी निकायों (74वें संशोधन) को जोड़ा गया. इस तरह कनाडा या अमेरिका के आदर्श संघवाद के उलट, भारत में सहकारी एकात्मीय संघवाद का विकास हुआ. इससे पहले भारतीय संघवाद को केंद्रीयकृत संघवाद के नाम से जाना जाता था, जिसमें केंद्र की स्तिथि राज्यों के तुलना अत्यधिक शक्तिशाली थी.

    भारतीय संघवाद के सफर के कालक्रम को निम्न चार भागो में विभाजित किया जा सकता है-

    एक दलीय संघवाद (Unipolar Party Federalism in Hindi) (1952-1967):

    आजादी बाद 1967 तक केंद्र और अधिकाँश राज्यों की सत्ता पर कांग्रेस का प्रभुत्व था. राजनैतिक विज्ञानी ने इसे ‘कांग्रेस व्यवस्था’ कहा है. इस दौर में केंद्र-राज्य के बीच विवाद को कांग्रेस अपने तरीके से सुलझा लेती थी.

    हालाँकि, केंद्र के हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के विरोध में भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की मांग मानने के बाद, कांग्रेस के दबदबे को धक्का लगा. लेकिन, 1959 में केरल के कम्युनिस्ट सरकार की बर्खास्तगी कांग्रेस के दबदबे का कायम रहना साबित करती है, जो 1967 तक जारी रही. सिर्फ एक पार्टी कांग्रेस के संघ के दोनों स्तरों (केंद्र और राज्य) को देखते हुए, इसे एकदलीय संघवाद कहा जा सकता है.

    अभिव्यक्तिवादी संघवाद (Expressionist Federalism in Hindi)(1967-1989)

    1967 के बाद भारतीय राजनीति में दूसरे दौर का संघवाद का आरम्भ हुआ. इस वक्त क्षेत्रीय दल मजबूत होते चले गए. कई राज्यों में गैर-कोंग्रेसी सरकार की स्थापना हुई. साथ ही, नेतृत्व को लेकर कांग्रेस में हुए दोफाड़ के बाद कांग्रेस का संगठन भी कमजोर हो गया. इंदिरा गाँधी के दौर में कांग्रेस हाईकमान के नेतृत्व वाली अर्द्ध-तानाशाही की तरफ चली गई.

    इंदिरा गाँधी के दौर में क्षेत्रीय नेतृत्व व स्थानीय नेताओं की स्वायत्ता हाईकमान के हाथों में खिसकती चली गई. ऐसा कांग्रेस में विभाजन के कारण भी हुआ. स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ताओं का अभाव था. ऐसे में इंदिरा गाँधी ने कई राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया.

    इस दौर में भले राज्यों की सत्ता और संगठनात्मक तौर पर कांग्रेस कमजोर होते गई, लेकिन 1977 से 80 के दौर को छोड़कर केंद्र सत्ता में कांग्रेस ही काबिज रही. इस अभिव्यक्ति के खिलाफ 1977 में सत्ता में आते ही जनता पार्टी ने विपक्ष शासित राज्यों को अस्थिर करने का दौर जारी रखा.

    जम्मू और कश्मीर, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में क्षेत्रीय दलों में मजबूत नेतृत्व पैदा होने से केंद्र से टकराव बढ़ने लगा. सभी खुलकर अपनी अभिव्यक्ति और प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे. असम, पंजाब और मिज़ोरम में पहचान की राजनीति से निपटने के लिए राजीव सरकार को समझौते का सहारा लेना पड़ा. कुलमिलाकर क्षेत्रीय स्तर पर कांग्रेस के ढहने और सांगठिक तौर पर कमजोर होने से अन्य वर्गों के मांगों ने उभार लेना शुरू कर दिया और कई बार केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस को झुकना भी पड़ा. इस तरह अभिव्यक्ति की भावना ने संघवाद को लोकतंत्रवाद की तरफ मोड़ दिया.

    इसी दौर में पिछड़ों की राजनीति ने उभार लेना शुरू किया. मंडल कमीशन के रिपोर्ट ने पिछडो की क्षेत्रीय दलों की तरफ रुख करने को विवश किया. इससे कई राज्यों में पिछड़े नेताओं का उभार होने लगा. सभी अपने मुद्दे खुलकर व्यक्त करने लगे. जितने तरह के विचार उभरे, उतने तरह के दलों का भी आगाज होने लगा. 90 के दशक में पिछड़ा वर्ग आरक्षण के लागु होने के बाद कई राज्यों में पिछड़ों के नेतृत्व में भी सत्ता कायम हुई. इसका असर 1989 से 2014 तक के काल में दिखा, जब केंद्र से लेकर राज्यों तक गठबंधन सरकार सत्ता में आने लगी.

    बहुदलीय संघवाद (Multi-party Federalism in Hindi) (1989-2014)

    इस अवधि में जहां कांग्रेस कमजोर हुई, वहीँ क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ. स्पष्ट बहुमत न होने के कारण, कई क्षेत्रीय दलों के गठजोड़ ने केंद्र की सत्ता हासिल की. केंद्र की सत्ता का इस तरह विकेन्द्रीकरण को बहुदलवाद कहना उचित होगा.

    इसी दौर में माननीय सर्वोच्च अदालत ने एस. आर. बोम्बई बनाम भारत सरकार, 1994 के फैसले में केंद्र के आपातकालीन शक्तियों पर काफी हद तक लगाम लगा दिया. साथ ही, केंद्र की सत्ता पर कई क्षेत्रीय दल काबिज थी. आगे चलकर यूपीए व एनडीए के रूप में दो गठजोड़ ने क्षेत्रवाद से पनपने वाले झटकों का लगभग अवशोषण कर लिया. इस तरह जहाँ भारतीय संघवाद का दूसरा दौर केंद्र-राज्य टकराव का था, वहीं तीसरा दौर सुलह-समझौते का रहा.

    स्थानीय निकाय, उदारीकरण और पिछड़ा वर्ग आरक्षण ने भारत में समाहित केंद्रकृत व तानाशाही राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक संघवाद को चुनौती दी. इससे सरकारी या निजी क्षेत्रों में सत्ता के नए केंद्र का उदय हुआ, जो सत्ता के विकेन्द्रीकरण के साथ ही आदर्श संघवाद के तरफ बढ़ते रुख को दर्शाता है.

    एकदलीय प्रभुत्व वाले संघवाद की वापसी (2014 से अब तक) (Return to single-party dominated federalism (2014–present):

    बहु संघवाद के दौर में भ्रष्टाचार के कई मुद्दे उछाले गए. इनमें टूजी, कोम्मोंवेल्थ, आदर्श सोसाइटी हाउसिंग, कफ़न व चारा घोटाला जैसे कई विवाद शामिल है. इन सबका आरोप केंद्र में कई दलों से मिलकर बनी सरकार के कमजोरी को दिया गया. इसी समय, प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया का तेजी से उभार हुआ, जिसने इन सभी मुद्दों के सकुशल सम्प्रेषण में महत्पूर्ण भूमिका निभाई और देश के बहु-वैचारिक स्थिति में बदलाव लाकर एकरूपता कायम कर दी.

    इसके बाद 2014 के लोकसभा आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता मिली, जो 2019 के चुनाव तक कायम रही. इस तरह आजादी के दो दशकों बाद तक कायम रही एकदलीय संघवाद ने बहुदलीय संघवाद को प्रतिस्थापित कर दिया.

    इस एकदलीय संघवाद के आरंभिक दौर में केंद्र-राज्य सम्बन्ध मजबूत दिखे और भारतीय संघवाद का सौहार्दपूर्ण रूप कायम रहा. इसी दौर में GST क़ानून पारित करने, नीति आयोग और GST परिषद के गठन, फंड में राज्यों की भागीदारी बढ़ाने की वित्त आयोग की सिफ़ारिश को स्वीकारने जैसे मुद्दों पर सत्ता के दोनों स्तरों पर सहमति दिखी.

    दूसरी तरफ, नागरिकता संशोधन कानून (CAA), कृषि क़ानून, BSF के अधिकार क्षेत्र, जीएसटी / कोविड-19 महामारी से सम्बंधित मुवावजे, इत्यादि विषयों विपक्ष शासित राज्यों व केंद का टकराव देखने को मिला है. साथ ही, केंद्र के सत्ता पर आसीन भाजपा पर विपक्षी राज्यों के सत्ता को अस्थिर करने के आरोप भी लगे है. यह आरोप ठीक वैसा ही है, जैसा आजादी के बाद सत्तासीन कांग्रेस पर लगते थे.

    इस तरह हम ये कह सकते है भारत में क्षेत्रीय विविधता के कारण कई प्रकार के विचार व क्षेत्रवाद की भावना पनपते रहती है. लेकिन मजबूत केंद्र वाले संघवाद ने भारत को जोड़ रखा है. हालाँकि, केंद्र और राज्य में अलग-अलग सरकार होने पर वैचारिक टकराव होना स्वाभाविक है, लेकिन केंद्र व राज्य को एक-दूसरे के सहयोग की जरुरत से यह टकराव भी शिथिल हो जाता है. उपरोक्त ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में एक मजबूत संघवाद कायम है जो देश के समावेशी विकास को गति देने में सक्षम है.

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