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मौलिक अधिकार और इसका इतिहास

आधुनिक शासन पद्धति का सबसे प्रमुख अवयव मौलिक अधिकार है. किसी समय सिर्फ राजा या निरंकुश शासक को असीमित अधिकार प्राप्त होते थे, जनता को न के बराबर अधिकार मिलते थे. लेकिन पुनर्जागरण के दौर में शासक द्वारा जनता को कई अधिकार प्राप्त हुए. यहीं से मौलिक अधिकार के संकल्पना का विकास आरम्भ हुआ.

आज के समय में सभी देशों के संविधान में जनता को प्राप्त अधिकारों की एक सूचि होती है, इसे ही मूल या मौलिक अधिकार कहा जाता है. यह राज्य की सार्वभौमिक सत्ता से जनता की रक्षा की संकल्पना पर आधारित है.

मौलिक अधिकार किसे कहते है? (Definition of Fundamental Rights in Hindi)

वे अधिकार जो जीवन जीने के लिए अति-आवश्यक होते है, उसे मूल या मौलिक अधिकार नाम दिया गया है. अभी के समय में, लगभग दुनिया के सभी देशों के लिखित या अलिखित संविधान में इसका वर्णन है.

इसका एक उदाहरण है- “राज्य अपने जनता के बीच परस्पर विभेद नहीं करेगा.”

मौलिक अधिकार का इतिहास (History of fundamental Rights in Hindi)

मूल अधिकारों का सर्वप्रथम विकास ब्रिटेन में 1215 में हुआ. ब्रिटिश सामंतो के भारी दवाब के कारण ब्रिटेन के सम्राट जॉन को प्राचीन स्वतंत्रताओं को मान्यता प्रदान करेने हेतु “मैग्ना कार्टा” पर हस्ताक्षर करना पड़ा था. इस तरह मौलिक आधार के संकल्पना का विकास हुआ.

वास्तव में, ये अधिकार प्राचीन समय में सभी को स्वतः मिले हुए थे. लेकिन, राजा के निरंकुशता तले इनका लोप होता चला गया. फिर ब्रिटेन के अमीरों व जनता ने बगावत कर ‘मैग्नाकार्टा’ हासिल किया. उसके बाद स्वतंत्र हुए औपनिवेशिक राज्यों ने इसे लागु करना आरम्भ कर दिया. आज दुनिया के सभी लोकतान्त्रिक देशों के संविधान का यह हिस्सा है.

ब्रिटेन ने 1688 के गौरवपूर्ण क्रांति के बाद अधिकारों का कानून पारित किया था. लेकिन, यह राजतन्त्र द्वारा मध्यकाल में पारित एक कानून माना जाता है. इसी कानून के तहत ब्रिटिश पार्लियामेंट अस्तित्व में आया. आज ब्रिटेन में राजतंत्र के अधीन लोकतंत्र कायम है.

इससे पहले, ब्रिटेन में सन् 1838 और 1848 के बीच राजनीतिक सुधारों के लिये श्रमिक वर्ग द्वारा आन्दोलन किया गया था. इसे चार्टर आन्दोलन (Chartism) कहा जाता है. दरअसल, 1814 में नेपोलियन के पराजय के बाद ब्रिटेन मजदूरों व गरीबों के प्रति क्रूर होता चला गया था. इसके बाद मजदूरों व गरीबों ने बड़े पैमाने पर आंदोलन किये थे.

आधुनिक युग में सबसे पहले जनता को मौलिक अधिकार अमेरिकी संविधान द्वारा प्रदान किया गया है. ब्रिटेन से आजादी के बाद 25 सितम्बर 1789 में अमरीकी कांग्रेस से पारित किया गया. फिर 15 दिसंबर 1791 से इसे लागु किया गया. इसे जेम्ज़ मैडिसन द्वारा तैयार किया गया था. जेम्ज़ मेडिसन को अधिकारों के विधेयक का प्रथम सृजनकर्ता भी कहा जाता है.

अमेरिका के बाद जर्मनी के व्हीमर संविधान में साल 1919 में इसे अपनाया गया. फिर, आयरलैंड और रूस ने क्रमशः 1922 और 1936 में इन्हें स्वीकार किया.

मौलिक अधिकार की विशेताएं (Features of Fundamental Rights in Hindi)

दुनिया के विभिन्न देशों ने अपने परिस्तिथियों के अनुसार मौलिक अधिकार बनाए है. ये अधिकार प्रकृति में न्यायसंगत होते है. इनके माध्यम से जनता को सरकार से सुरक्षा कवच प्राप्त होता है. इसके बिना सरकार के निरंकुश व तानाशाह हो जाने का डर रहता है. भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार की भी कुछ ख़ास विशेषताएं है, जो इस प्रकार है:

  • अनुच्छेद 15, 16, 19, 29 और 30 केवल भारतीय नागरिकों को उपलब्ध है.
  • मौलिक अधिकार (एफआर) निरपेक्ष नहीं बल्कि योग्य होते हैं. मौलिक अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं. इस तरह के प्रतिबंधों की तर्कसंगतता (Relevancy) सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय की जाती है.
  • मौलिक अधिकार व्यक्ति के अधिकारों और समग्र रूप से समाज के अधिकारों के बीच, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक नियंत्रण के बीच संतुलन बनाते हैं.
  • अधिकांश मौलिक अधिकार राज्य के कार्यों के विरुद्ध उपलब्ध हैं. लेकिन कुछ निजी व्यक्तियों के कार्यों के विरुद्ध भी उपलब्ध हैं.
  • कुछ मौलिक अधिकार चरित्र में नकारात्मक होते हैं ,जबकि अन्य सकारात्मक. नकारात्मक अधिकार सरकार पर अंकुश लगाते हैं, जबकि सकारात्मक अधिकार सरकार पर अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए दवाब डालते है.
  • हमारा संविधान मौलिक अधिकार के बचाव का गारंटी देता है. पीड़ित पक्ष किसी भी उल्लंघन के लिए सीधे उच्चतम न्यायालय में मामला दर्ज कर सकता है.
  • संसद संवैधानिक संशोधन अधिनियम के माध्यम से मौलिक अधिकार के प्रावधानों में तब तक संशोधन कर सकती है, जब तक कि वे भारतीय संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं करते हैं.
  • भारतीय मौलिक अधिकार में संसोधन सिर्फ संविधान संसोधन द्वारा सम्भव है. साधारण विधेयक की तरह इसे पारित नहीं किया जा सकता.मौलिक अधिकार का दायरा अनुच्छेद 31A, 31B और 31C द्वारा सीमित है.
  • संसद सशस्त्र बलों, अर्धसैनिक बलों, पुलिस बलों, खुफिया एजेंसियों और इसी तरह की सेवाओं के मामले में मौलिक अधिकार को प्रतिबंधित या निरस्त कर सकती है.
  • मार्शल लॉ लागू होने पर इसे प्रतिबंधित किया जा सकता है.
  • मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के लिए केवल संसद ही कानून बना सकती है.

आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकार (Status of Fundamental Rights during Emergency in Hindi)

यद्यपि हमारे मौलिक अध्किार न्यायसंगत हैं, फिर भी आपातकाल की स्थिति में उन्हें स्थगित किया जा सकता है..
अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत युद्ध अथवा आन्तरिक सशस्त्रा विद्रोह के बाद आपातकाल घोषित होते ही अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत दी गई सभी स्वतंत्राताएं स्वतः ही स्थगित हो जाती हैं.

आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर अन्य मौलिक अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 19 को केवल युद्ध या बाहरी आक्रमण के आधार पर घोषित आपातकाल के दौरान निलंबित किया जा सकता है.

अनुच्छेद 359 संसद को आपातकाल के दौरान संवैधनिक उपचारों के अधिकार तक को स्थगित करने हेतु अलग से आदेश जारी करने के लिए प्राधिकृत करता है. इस दौरान मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में उपचार के लिए कोई भी अदालत नहीं जा सकता और इस प्रकार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्राता के अधिकार के अलावा सभी मौलिक अधिकार स्थगित रहते हैं.

भारतीय मौलिक अधिकार (Fundamental Rights of India in Hindi)

6 Fundamental Rights of Indian Constitution in Hindi
6 मौलिक अधिकार

मौलिक अधिकार को “भारत के संविधान का मैग्नार्टा” नाम से भी सम्बोधित किया जाता है. भारत का मौलिक अधिकार अमेरिकी संविधान से लिया गया है.

भारतीय स्वंतंत्रता संग्राम के दौरान भी इसकी जरूरत महसूस की गई थी. फिर पंडित जवाहरलाल नेहरू के अध्यक्षता में एक कमिटी का गठन किया गया. 1928 में नेहरू कमेटी के प्रस्तावित बिल को कांग्रेस ने पारित किया. भारत के आजादी के बाद इनमें से कुछ को संविधान में भी शामिल किया गया.

भारतीय संविधान के भाग-III में मौलिक अधिकारों का वर्णन है. इस भाग को भारतीय संविधान का मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी गई है. यह अनुच्छेद 12 से 35 में वर्णित है. ये संख्या में 6 है, जो इस प्रकार है-

  • समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18)
  • स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22)
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 और 24)
  • धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28)
  • संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30)
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32 से 35)

अनुच्छेद 12 में राज्य को परिभाषित किया गया है. वहीं, अनुच्छेद 13 में संसद या राज्य विधानमंडल को मौलिक अधिकार का अनादर करने वाले कानून बनाने से निषेध किया गया है.

इस लेख में हम जानेंगे

राज्य की परिभाषा- अनुच्छेद 12 (Definition of State – Article 12 in Hindi)

यह राज्य और इसके तहत काम करने वाले सभी प्राधिकरणों को परिभाषित करता है, चाहे वे राज्य की सीमा के भीतर हो या राज्य के बाहर. अनुच्छेद 12 में शामिल प्राधिकरण और उपकरण हैं:

  • भारत की सरकार और संसद (लोकसभा और राज्य सभा),
  • राज्य सरकार और प्रत्येक राज्य की विधायिका (लेजिस्लेचर) (विधानसभा और विधान परिषद),
  • सभी स्थानीय प्राधिकरण (नगर पालिकाओं (म्युनिसिपालिटी), जिला बोर्ड, पंचायत, सुधार (इंप्रूवमेंट) ट्रस्ट, पोर्ट ट्रस्ट, खनन निपटान (माइनिंग सेटलमेंट) बोर्ड आदि), और
  • भारत के क्षेत्र के अंदर या भारत सरकार के नियंत्रण (कंट्रोल) में अन्य प्राधिकरण.

अनुच्छेद 13: मौलिक अधिकारों का अनादर करने वाले कानून शून्य होंगे (Laws Inconsistent with or in derogation of Fundamental Rights will be zero – Article 13 in Hindi)

इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में लागू सभी कानून, जहां तक ​​वे इस भाग के प्रावधानों के साथ असंगत हैं, ऐसी असंगति की सीमा तक शून्य/अमान्य होंगे (समाप्त माना जाएगा.).

अगर प्रावधान वर्तमान कानूनी ढाँचे के साथ आंशिक या पूरी तरह से विरोधाभासी हैं तो उन्हें अप्रभावी समझा जाएगा, जब तक की उनमे संशोधन न किया जाए. इसी प्रकार, संविधान लागू होने के बाद कानूनों को उनकी अनुकूलता को साबित करना होगा कि वे विरोध में नही हैं; अन्यथा उन्हें भी शून्य माना जाएगा.

राज्य कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा जनता को प्रदत्त मौलिक अधिकारों को छीनता है या कम करता है और इस खंड के उल्लंघन में बनाया गया कोई भी कानून- उल्लंघन की सीमा तक अमान्य/शून्य होगा.

अनुच्छेद 13 के तहत, ‘विधि’ का अर्थ है कोई भी अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, कस्टम या व्यवहार जिसे कानून की शक्ति प्राप्त हो इसमें शामिल हैं.

इस अनुच्छेद के द्वारा न्यायिक समीक्षा के दायरे का विस्तार किया गया है. भारतीय न्यायपालिका के पास सिर्फ प्रशासनिक कार्रवाई में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिये ही नहीं पहुँचा जा सकता है; अपितु विधायी सक्षमता के सवाल पर भी मदद ली जा सकती है; जहाँ मुख्य रूप से केंद्र-राज्य संबंधों के संदर्भ में प्राधिकार का प्रश्न उठता हो.

”प्रवृत्त विधि” के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा इस संविधान के प्रारंभ से पहले पारित या बनाई गई विधि है जो पहले ही निरसित नहीं कर दी गई है, चाहे ऐसी कोई विधि या उसका कोई भाग उस समय पूर्णतया या विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवर्तन में नहीं है.
इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए इस संविधान के किसी संशोधन को लागू नहीं होगी.

समानता का अधिकार (Right of Equality in Hindi)

समता का अधिकरों का वर्णन संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 में किया गया है. ये इस प्रकार हैं-

अनुच्छेद 14 (Article 14 in Hindi)

इसमें दो प्रकार की समानता की बात की गई है-

a. विधि के समक्ष समानता
b. विधियों का समान संरक्षण

इसके अनुसार, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा.

मतलब कानून या सरकार के समक्ष सभी समान होंगे. लेकिन, उस स्थिति में जब एक आमिर या वर्चस्वशाली व्यक्ति के सामने गरीब या कमजोर में मतभेद हो, तो दोनों वादियों के बीच खाई को सरकार दूर करेगी. जैसे- गरीबों को मुफ्त में सरकारी वकील मुहैया करवाना.

यह भारतियों के साथ-साथ विदेशी नागरिकों को भी प्राप्त है. इसके व्यक्ति शब्द में विधिक व्यक्ति अर्थात् संवैधानिक निगम, कंपनियाँ, पंजीकृत समितियाँ या किसी भी अन्य प्रकार का विधिक व्यक्ति भी सम्मिलित है.

अपवाद: अनुच्छेद 361 के तहत भारत के राष्ट्रपति एवं राज्यपालों को मिली विशेष शक्तियाँ इसका अपवाद है. इसके अनुसार, राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने कार्यकाल में किये गए किसी कार्य या निर्णय के लिए देश के किसी भी न्यायालय में जवाबदेह नहीं होंगे. इनके विरुद्ध जारी कार्यकाल के दौरान किसी न्यायालय में किसी भी प्रकार की दंडात्मक कार्यवाही प्रारंभ या चालू नहीं की जा सकती है.

अनुच्छेद 361-A के अनुसार, कोई भी व्यक्ति यदि संसद या राज्य विधानसभा के दोनों सदनों या दोनों में से किसी एक की सत्य कार्यवाही से संबंधित विषय-वस्तु का प्रकाशन समाचार-पत्र में करता है तो उस पर किसी भी प्रकार का दीवानी या फौजदारी मुकदमा देश के किसी भी न्यायालय में नहीं चलाया जा सकता ह, जब तक यह साबित नहीं कर दिया जाता है कि प्रकाशन विद्वेषपूर्वक किया गया है.

अनुच्छेद 105 के अनुसार, संसद या उसकी किसी समिति में किसी सांसद द्वारा कही गई किसी बात या दिये गए किसी मत के संबंध में न्यायालय में उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी.
अनुच्छेद 194 के अनुसार, राज्य के विधानमंडल में या उसकी किसी समिति में किसी विधायक द्वारा कही गई किसी बात या दिये गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी.
विदेशी संप्रभु (शासक), राजदूत एवं कूटनीतिज्ञ; दीवानी एवं फौजदारी मुकदमों से मुक्त होंगे.

भेदभाव पर रोक: अनुच्छेद 15 (Prohibition on Discrimination: Article 15 in Hindi)

इस अनुच्छेद में राज्य द्वारा किसी नागरिक के प्रति धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध किया गया है. इसमें सार्वजनिक स्थानों पर विभेद से भी निषेध किया गया है.

अपवाद: महिलाओं, बच्चों, सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों या अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों के उत्थान के लिये कुछ प्रावधान किये जा सकते हैं. जैसे- आरक्षण और मुफ्त शिक्षा तक पहुँच.

अवसर की समानता -अनुच्छेद 16 (Equality of Opportunity – Article 16 in Hindi)

अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक नियोजन में प्रत्येक नागरिक के लिए अवसर की समानता का प्रावधान किया गया है. परंतु सरकार नियुक्ति में उन पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकती है, जिनका राज्य की सेवा में प्रतिनिधित्व कम है. जैसे: नियुक्ति में आरक्षण.

अस्पृश्यता का निषेध -अनुच्छेद 17 (Prohibition of untouchability – Article 17 in Hindi)

इस अनुच्छेद के द्वारा अस्पृश्यता का अंत किया गया है. कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से किसी भी स्थान पर अस्पृश्यता के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता है. इसका किसी भी रूप में प्रचार-प्रसार भी निषिद्ध किया गया है.

इसमें दुकान, होटल, सार्वजनिक पूजा स्थल और मनोरंजन के स्थान, अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों या छात्रावासों जैसे स्थानों पर अस्पृश्यता का निषेध किया गया है. पारंपरिक, धार्मिक, दार्शनिक या अन्य आधारों पर अस्पृश्यता का पालन भी इसके माध्यम से रोक दिया गया है. साथ ही, अनुसूचित जाति या जनजाति के खिलाफ अस्पृश्यता को भी रोका गया है.

उपाधियों का अंत – अनुच्छेद 18 (Abolition of titles – Article 18 in Hindi)

इसके तहत अंग्रेजों के समय के सभी उपाधियों का अंत कर दिया गया. सिर्फ शिक्षा (अकादमिक) एवं रक्षा में उपाधि देने की परंपरा रही. इस अनुच्छेद के अनुसार, भारत का कोई भी नागरिक राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना किसी अन्य देश से किसी भी प्रकार की उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है. इसके तहत, भारत सरकार के अधीन कार्यरत कोई भी विदेशी किसी अन्य सरकार बिना अनुमति के उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है.

स्‍वतंत्रता का अधिकार (Right of Freedom in Hindi)

इसका वर्णन अनुच्छेद 19 से 22 में किया गया है. यह इस प्रकार है-

अनुच्छेद 19 (Article 19 in Hindi)

इसमें जनता को 6 अधिकार दिए गए है. किसी भी लोकतंत्र के संचालन के लिए ये अधिकार काफी जरुरी समझे जाते है. ये है-

अनुच्छेद 19 (a) : इसके तहत विचार व अभिव्यक्ति की स्वंतंत्र दी गई है. प्रेस की स्वतंत्रता और सूचना पाने की इसी अनुच्छेद में निहित है. इसके तहत, प्रत्येक नागरिक को भाषण द्वारा लेखन, मुद्रण, चित्र या किसी अन्य तरीके से अपने विचार या विश्वास व्यक्त करने का अधिकार दिया गया है.

अनुच्छेद 19 (b) : सार्वजनिक स्थानों पर शांति पूर्वक बिना हथियारों के विरोध-प्रदर्शन और सभा करने की स्वतंत्रता का अधिकार का प्रावधान इस अनुच्छेद में है. इसमें सार्वजनिक बैठकों में भाग लेने का अधिकार भी शामिल है.

अनुच्छेद 19 (c) : इस अनुच्छेद में किसी भी प्रकार के संघ या निगम बनाने की स्वतंत्रता का वर्णन है. इसमें राजनीतिक दल, कंपनी, साझा फर्म, समितियाँ, क्लब, संगठन, व्यापार संगठन या लोगों की अन्य इकाई बनाने का अधिकार शामिल है. हालाँकि, इनका उद्देश्य कानून-सम्मत होना चाहिए, नहीं तो सरकार इन्हें प्रतिबंधित भी कर सकती है. जैसे- सिमी पर प्रतिबन्ध.

अनुच्छेद 19 (d) : देश के किसी भी भू-भाग में आबाध आवागमन की स्वतंत्रता का अधिकार इसमें वर्णित है.

अनुच्छेद 19 (e) : भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बसने की स्वतंत्रता का प्रावधान इस अनुच्छेद में है. हालाँकि, जनजातीय क्षेत्रों में उनकी संस्कृति भाषा एवं रिवाज के आधार पर बाहरी लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित किया जा सकता है. इसके तहत, देश के कई भागों में जनजातियों को अपनी संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु नियम-कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है.

अनुच्छेद 19 (f) : आजीविका का कोई भी साधन अपनाने की स्वतंत्र का उल्लेख इस अनुच्छेद में है. हालाँकि, अनैतिक आजीविका का इसमें निषेध किया गया है. जैसे, बाल मजदूरी, महिलाओं का दुरूपयोग से कारोबार, मादक व विस्फोटक का अवैध कारोबार इत्यादि.

अपराध के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण – अनुच्छेद 20 (Protection in respect of conviction for an offense – Article 20 in Hindi)

(1) इस अनुच्छेद के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को अपराध करते समय प्रभावी कानून के उल्लघंन के अतिरिक्त
किसी अन्य अपराध में आरोपित नहीं किया जा सकता और न ही इस अपराध के लिए निश्चित दण्ड से अधिक दण्डित किया जा सकता है. मतलब, दोषी व्यक्ति को उस कानून के अनुसार सजा दी जाएगी जो अपराध करते वक्त लागु थी.

(2) किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा.

(3) किसी अपराध के लिए अभियुक्त को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा.

प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण : अनुच्छेद 21 (Protection of life and personal liberty: Article 21 in Hindi)

इस अनुच्छेद के अनुसार, किसी व्यक्ति को प्राण व दैहिक स्वतंत्रता से सिर्फ विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा ही वंचित किया जा सकेगा. अन्यथा व्यक्ति को प्राण व दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार हमेशा प्राप्त होगी. यह प्रावधान भारतीय के साथ-साथ विदेशी नागरिकों को भी प्राप्त है.

इसी अनुच्छेद के तहत अनुच्छेद 21(a) को 86 वा संविधान संशोधन, 2002 द्वारा लागु किया गया है. इसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है. इससे पहले इसका वर्णन संविधान में भाग IV, निति-निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 45 में था.

गिरफ्तारी और हिरासत से संरक्षण – अनुच्छेद 22 (Protection from Arrest and Detention -Article 22 in Hindi)

किसी व्यक्ति को दो प्रकार से हिरासत में लिया जा सकता है. दोषसिद्धि के आधार पर और निवारक हिरासत, जिसमें बिना दोषसिद्धि के हिरासत में लिया जाता है. अनुच्छेद 22 में गिरफ़्तारी या हिरासत के सम्बन्ध में प्रक्रियाओं व कानून का वर्णन है.

दोषसिद्धि के आधार पर हिरासत व गिरफ़्तारी के सम्बन्ध में निम्न प्रावधान है-

  • गिरफ्तार करने के आधार पर सूचना देने का अधिकार,
  • विधि व्यवसायी से परामर्श और प्रतिरक्षा करने का अधिकार,
  • दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) के सम्मुख 24 घंटे के अंदर, यात्रा के समय को मिलाकर, पेश होने का अधिकार, और
  • दंडाधिकारी द्वारा बिना अतिरिक्त निरोध के 24 घंटे में रिहा करने का अधिकार.

निवारक हिरासत के सम्बन्ध में निम्न प्रावधान है-

  • हिरासत अवधि तीन महीने से अधिक बढ़ाने पर रोक, जब तक कि सलाहकार बोर्ड (उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश) इसका उचित कारण न बताएँ.
  • ऐसे निरोध का आधार संबंधित व्यक्ति को प्रेषित किया जाना चाहिये.
  • निरोधित व्यक्ति निरोध के आदेश के विरुद्ध अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत कर सकता है.

इन अधिकारों को बंदी-संरक्षण अधिकार भी कहा जाता है, जो विदेशियों को भी प्राप्त है.

शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right against Exploitation in Hindi)

अनुच्छेद 23 (Article 23 in Hindi)

इस अनुच्छेद में मानव दुर्व्‍यापार और बलात्श्रम का निषेध किया गया है. जैसे- मानव तस्करी, बेगार, वेश्यावृत्ति,
देवदासी व दास इत्यादि. हालाँकि, सरकार को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने का अधिकार है. लेकिन ऐसा करते वक्त केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग के आधार पर भेदभाव से निषेध किया गया है.

अनुच्छेद 24 (Article 24 in Hindi)

इस अनुच्छेद में बालश्रम का निषेध (Prohibition of Child Labour in Hindi) किया गया है. इसके अनुसार 14 वर्ष के कम उम्र के बच्चों को काम पर नहीं रखा जा सकता है. 14 से 18 वर्ष के किशोरों को ‘खतरनाक व्यवसायों’ (Hazardous Occupations) के काम पर रखने से निषेध किया गया है. हालाँकि, बच्चों को माता-पिता के काम में सहयोग की छूट दी गई है.

धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion in Hindi)

अनुच्छेद 25 (Article 25 in Hindi)

इसके तहत जनता को कोई भी धर्म मानने व इसके प्रचार-प्रसार की स्वंतंत्र का प्रावधान है. ये विदेशियों को भी प्राप्त है. हालाँकि, ये अधिकार सार्वजनिक आदर्श, नैतिकता, स्वास्थ्य व मौलिक अधिकारों के अन्य प्रावधानों के अधीन है.

अनुच्छेद 26 (Article 26 in Hindi)

इस अनुच्छेद के द्वारा धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता प्रदान की गई है. इसके तहत धार्मिक संस्थाओं की स्थापना और पोषण, धर्म विषयक कार्यों का प्रबंधन, जंगम और स्थावर संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व और ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने; का अधिकार प्रदत्त है.

अनुच्छेद 27 (Article 27 in Hindi)

इसके तहत किसी विशेष धर्म के प्रचार के लिए करों के भुगतान के रूप में स्वतंत्रता को उल्लेखित किया गया है.
इसके अनुसार, किसी भी व्यक्ति को किसी भी ऐसे कर का भुगतान करने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा, जो आय विशेष रूप से किसी विशेष धर्म या धर्म संप्रदाय के प्रचार या रखरखाव में खर्च की जाती है.

अनुच्छेद 28 (Article 28 in Hindi)

संविधान इस अनुच्छेद का वर्णन कुछ इस प्रकार है-

28(1): राज्य-निधि से पूर्णतः पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी.

28(2): खंड (1) की कोई बात ऐसी शिक्षा संस्था को लागू नहीं होगी जिसका प्रशासन राज्य करता है किंतु जो किसी ऐसे विन्यास या न्यास के अधीन स्थापित हुई है जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है.

28(3): राज्य से मान्यताप्राप्त या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए या ऐसी संस्था में या उससे संलग्न स्थान में की जाने वाली धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए तब तक बाध्य नहीं किया जाएगा, जब तक कि उस व्यक्ति ने, या यदि वह अवयस्क है तो उसके संरक्षक ने, इसके लिए अपनी सहमति नहीं दे दी है.

मतलब सार्वजानिक शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा का निषेध इस अनुच्छेद में किया गया है. लेकिन, विशेष न्यास द्वारा धार्मिक शिक्षा के लिए स्थापित केंद्र इसके अपवाद होंगे.

संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (Right to Culture and Education in Hindi)

अनुच्छेद 29 (Article 29 in Hindi)

इस अनुच्छेद में इस प्रकार से अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण किया गया है-
29(1): भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा.

29(2): राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा.

अनुच्छेद 30 (Article 30 in Hindi)

इस अनुच्छेद में अल्पसंख्यक वर्गों को शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार दिया गया है. इसमें इस आधार पर अनुदान देने में भेदभाव करने से निषेध किया गया है. इसके अनुसार,

30(1): धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक-वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा.

30(1क): खंड (1) में निर्दिष्ट किसी अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा स्थापित और प्रशासित शिक्षा संस्था की संपत्ति के अनिवार्य अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधि बनाते समय, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसी संपत्ति के अर्जन के लिए ऐसी विधि द्वारा नियत या उसके अधीन अवधारित रकम इतनी हो कि उस खंड के अधीन प्रत्याभूत अधिकार निर्बन्धित या निराकृत न हो जाए . इसे 44वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 की धारा 4 द्वारा (20-06-1979 से) अंतःस्थापित किया गया है.

30(2): शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरुद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक-वर्ग के प्रबंधन में है.

अनुच्छेद 31 (Article 31 in Hindi)

इस अनुच्छेद में “संपत्ति का अधिकार” का वर्णन था. इसे संविधान के 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा हटा दिया गया है. इसे अनुच्छेद 300क में एक संवैधानिक अधिकार के रूप में स्थानांतरित कर दिया गया है. आजादी के बाद यह अनुच्छेद सबसे अधिक विवादित रहा था. अंततः इसे समाप्त कर दिया गया.

संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies in Hindi)

डॉ भीमराव आंबेडकर को “भारत का संविधान निर्माता” कहा जाता है. उनके अनुसार, संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32-35), ‘संविधान का हृदय और आत्मा’ है. इसमें मौलिक अधिकरों के संरक्षण का प्रावधान है. इसके तहत उच्च व सर्वोच्च न्यायालय को पांच प्रकार के रिट जारी करने का अधिकार है-

बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus): इसके द्वारा किसी भी गिरफ़्तार व्यक्ति को न्यायालय के सामने प्रस्तुत किये जाने का आदेश जारी किया जाता है. यदि गिरफ़्तारी का तरीका या कारण, कानूनी या संतोषजनक, न हो तो न्यायालय व्यक्ति को छोड़ने का आदेश जारी कर सकता है.

परमादेश (Mandamus): जब न्यायालय को लगता है कि कोई सार्वजनिक पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है और इससे किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है, तो यह रिट जारी किया जाता है.

निषेधाज्ञा या प्रतिषेध लेख (Prohibition): जब कोई निचली अदालत अपने अधिकार क्षेत्र को अतिक्रमित कर किसी मुक़दमें की सुनवाई करती है तो ऊपर की अदालतें उसे ऐसा करने से रोकने के लिए ‘निषेधाज्ञा या प्रतिषेध लेख’ नाम का रिट जारी करती हैं.

अधिकार पृच्छा (Quo-warranto): जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है, जिस पर उसका कोई कानूनी अधिकार नहीं है. इस स्थिति में न्यायालय ‘अधिकार पृच्छा आदेश’ जारी कर व्यक्ति को उस पद पर कार्य करने से रोक देता है. इससे पहले न्यायालय इस लेख के माध्यम से उस व्यक्ति से पूछता है कि किस अधिकार से अमुक कार्य कर रहा है.

उत्प्रेषण (Centiorari): जब कोई निचली अदालत या सरकारी अधिकारी बिना अधिकार के कोई कार्य करता है तो न्यायालय उसके समक्ष विचाराधीन मामले को उससे लेकर उत्प्रेषण द्वारा उसे ऊपर की अदालत या सक्षम अधिकारी को हस्तांतरित कर देता है. इसे उत्प्रेषण रिट कहते है.

अनुच्छेद 33, 34 और 35 (Article 33, 34 and 35 in Hindi)

इन तीनों अनुच्छेद में मौलिक अधिकार के सम्बन्ध में सरकार को कुछ अधिकार प्रदान किए गए है.

अनुच्छेद-33 (Article 33 in Hindi)

यह अनुच्छेद संसद को सशस्त्र बलों, अर्द्धसैनिक बलों, पुलिस बलों, खुफिया एजेंसियों और इसी तरह के अन्य एजेंसियों के मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने का अधिकार देता है. इन एजेंसियों में काम करने वाले सिविल कर्मियों, जैसे नाई, बढ़ई, मैकेनिक, बावर्ची, चौकीदार, बूट बनाने वाला, दर्जी आदि पर भी यह लागु होता है. इस संबंध में कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद को है, राज्य विधानमंडल को कोई अधिकार नहीं है. कर्तव्यों का उचित निर्वहन और अनुशासन इस प्रावधान का मूल उद्देश्य है.

अनुच्छेद 34 (Article 34 in Hindi)

मार्शल लॉ‘ की स्थिति में इस अनुच्छेद का प्रयोग कर संसद मौलिक अधिकार को निलंबित कर सकती है. इस दौरान किसी भी सरकारी कर्मी के उत्तरदायित्वों को बरकरार या पुनर्निर्मित किया जा सकता है. इस निलंबन से हुए नुकसान को न्यायालय में चुनौती नहीं दिया जा सकता है.

भारतीय संविधान में मार्शल लॉ का वर्णन नहीं है. यह ब्रिटेन के संविधान से लिया गया है. इसे सैन्य शासन के रूप में परिभाषित किया गया है. युद्ध, अशांति, दंगा या कानून का उल्लंघन के स्थिति में इसे लागु किया जा सकता है.

अनुच्छेद 35 (Article 35 in Hindi)

संविधान के इस भाग के अनुबंधों के संबंध में कानून बनाने के विधान का वर्णन इस अनुच्छेद में किया गया है. यह अधिकार सिर्फ संसद को प्राप्त है, राज्य विधानमंडल को नहीं. इसके उलंघन पर दंड का प्रावधान के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार भी संसद को प्राप्त है.

  • किसी राज्य/केंद्रशासित प्रदेश/स्थानीय या अन्य प्राधिकरण में किसी रोज़गार या नियुक्ति के लिये निवास की व्यवस्था,
  • मौलिक अधिकारों के क्रियान्वयन के लिये निर्देश, आदेश, रिट जारी करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को सशक्त बनाना,
  • सशस्त्र बलों, पुलिस बलों आदि के सदस्यों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध, और
  • किसी सरकारी कर्मचारी या अन्य व्यक्ति को किसी क्षेत्र में मार्शल लॉ के दौरान किये गए किसी भी कृत्य हेतु क्षतिपूर्ति देना.

मौलिक अधिकार से जुड़े महत्वपूर्ण विवाद

समय-समय पर मौलिक अधिकार के सम्बन्ध में कई विवाद हुए जिसपर अदालत ने फैसले दिए. इन फैसलों के आधार पर संविधान की व्याख्या में काफी मदद मिली. भारतीय मौलिक अधिकार से जुड़े कुछ ऐसे वाद है-

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (Kesavananda Bharati vs State of Kerala in Hindi)

1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की पीठ ने फैसला सुनाया था. इसके माध्यम से कहा गया कि संसोधन के द्वारा संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए. इस तरह यह फैसला संसद को जल्दबाजी में गलत निर्णय करने से रोकती है.

इस मामले की 68 दिन तक सुनवाई हुई थी, जो 31 अक्टूबर 1972 से 23 मार्च 1973 तक चली थी. फैसला 24 अप्रैल 1973 को, चीफ जस्टिस सीकरी और उच्चतम न्यायालय के 12 अन्य न्यायाधीशों द्वारा दिया गया था. इससे पहले अनुच्छेद 368 द्वारा संसोधन करने पर कोई अंकुश नहीं था. 703 पृष्ठ का यह फैसला 7:6 के मामूली बहुमत से पारित किया गया था.

फैसले से ये तय किया गया कि संविधान सरंचना के कुछ प्रमुख मूलभूत तत्व जिनमे अनुछेद 368 के तहत संसोधन नही किया जा सकता है. ये है-

  1. संविधान की सर्वोच्चता
  2. विधायिका,कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्ति का बंटवारा
  3. गणराज्यात्मक एवं लोकतांत्रिक स्वरूप वाली सरकार
  4. संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
  5. राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता
  6. संसदीय प्रणाली
  7. व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा
  8. मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच सौहार्द और संतुलन
  9. न्याय तक प्रभावकारी पहुँच
  10. एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का जनादेश

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ,1980 (Minerva Mills Vs Union of India, 1980 in Hindi)

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 368 का खंड (4) अमान्य करार दिया था. यह हिस्सा न्यायिक पुनर्विलोकन को समाप्त करता था, जो संविधान का आधारभूत लक्षण है. इसलिए 42वां संविधान संसोधन अधिनियम, 1976 के इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया.

वामन राव बनाम भारत संघ (1981) (Vamana Rao Vs Union of India case in Hindi)

इस वाद में न्यायलय ने यह स्पष्ट किया कि आधारभूत लक्षण का सिद्धान्त केशवानंद भारती के निर्णय सुनाये जाने की तिथि, के बाद पारित होने वाले संविधान संशोधन अधिनियमों पर लागू होगा.

42वें संशोधन और वादों का परिणाम यह हुआ कि –

(1) मूल अधिकारों का संशोधन किया जा सकता है.
(2) प्रत्येक मामले में न्यायालय यह विचार करेगा कि क्या मूल अधिकारों के संशोधन से संविधान के किसी आधारभूत लक्षण का निराकरण या विनाश या क्षय हो रहा है? यदि इसका उत्तर हाँ में है तो संशोधन उस विस्तार तक अविधिसंगत (invalid) होगा.
(3) आधारभूत लक्षणों के आधार पर उन्हीं अधिनियमों को अविधिमान्य किया जा सकेगा जो 24-4-1973 (केशवानंद फैसले) के बाद पारित किये गए हैं.

इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम केंद्र सरकार, 1992 (Indira Sawhney & Ors Vs Union of India Case in Hindi)

यह पिछड़े वर्गों (मुख्यतः हिन्दू धर्म के शूद्रों) को दिए गए आरक्षण पर फैसला था. इसे इंदिरा साहनी या मंडल जजमेंट के नाम से भी जाना जाता है. इस फैसले में पिछड़े वर्ग को दी गई आरक्षण को विधिसम्मत thahraya गया था. लेकिन, इसपर कई अंकुश लगा दिए गए.

इस फैसले में जाति-आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की गई. अदालत ने ये ही कहा कि आरक्षण केवल प्रारंभिक नियुक्तियों पर ही लागू होगा न कि पदोन्नति पर. फैसले में क्रीमी लेयर की अवधारणा दी गई. क्रीमी लेयर के अनुसार, पिछड़े वर्गों में सामाजिक रूप से उन्नत लोगों को आरक्षण से बाहर रखा गया. इसी फैसले में, सामाजिक पिछड़ेपन के पहचान के लिए 11 संकेतक निर्धारित किए गए.

पिछड़ा वर्ग आरक्षण द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के सिफारिश के आधार पर की गई थी. इस आयोग की स्थापना 1 जनवरी 1979 को सांसद बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बीपी मंडल) के अध्यक्षता में की गई थी.

निजता का अधिकार (Right to Privacy in Hindi)

24 अगस्त 2017 को दिए गए एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने निजता के अधिकार को एक मौलिक अधिकार माना है. फैसले में, निजता का अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीने के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा माना गया.. इस फैसले को 9 जजों के संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से पारित किया था.

इस बेंच में मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर, जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस एस.ए. बोबडे, जस्टिस आर.के. अग्रवाल, जस्टिस आर.एफ़. नरीमन, जस्टिस ए.एम. सप्रे, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर शामिल थे.

इस पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के उन दो पुराने फ़ैसलों को ख़ारिज कर दिया, जिनमें निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना गया था. इससे पहले, 1954 में एमपी शर्मा मामले में छह जजों की पीठ ने और 1962 में खड़ग सिंह केस में आठ जजों की पीठ ने निजता पर फ़ैसला सुनाया था.

इंटरनेट का अधिकार (Right to Access Internet in Hindi)

फहीमा शिरिन बनाम केरल राज्य के मामले में ‘इंटरनेट’ की सुविधा को एक मौलिक अधिकार माना गया है. अदालत द्वारा, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आने वाले निजता के अधिकार और शिक्षा के अधिकार के साथ ही इसे शामिल किया गया है.

अदालत ने अपने फैसले में कहा कि, “संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने भी इंटरनेट के प्रयोग को मौलिक आजादी माना है. ऐसे में विद्यार्थियों के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले किसी नियम और दिशानिर्देश को कानूनी तौर पर मंजूरी नहीं दी जा सकती है.”

मामले के अनुसार, फाहिमा शरीन को शाम के वक्त मोबाइल फ़ोन वार्डन के पास जमा नहीं करने का दोषी पाया गया था. इसके बाद फाहिमा को छात्रावास (Hostel) से निकल दिया गया था. फाहिमा ने ये भी आरोप लगाया कि उसके साथ लिंग के आधार पर भेदभाव किया गया है. लड़कों से शाम के वक्त मोबाइल नहीं लिया जाता था.

वर्तमान युग में सुचना तक पहुँचने के लिए इंटरनेट एक जरुरी साधन बन गया है. दूर-दराज, ख़ास ग्रामीण इलाकों के लोग इंटरनेट के माध्यम से आसानी से सुचना प्राप्त कर सकते है. इसलिए इंटरनेट को दुनिया के कई देशों में जनाधिकार माना गया है.

इंटरनेट जहाँ सुचना प्राप्त करने का मुख्य जरिया है, वहीं यह सुचना सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति का भी जरिया है. यह अधिकार पहले से मौलिक अधिकार है. साथ ही जीवन जीने की स्वतंत्रता के अधिकार में भी इंटरनेट का अधिकार समाहित है.

मौलिक अधिकार व मौलिक कर्तव्य

हमारे संविधान में आरम्भ में सिर्फ मौलिक अधिकार का वर्णन था. मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन नहीं किया गया है. इसे स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर 1976 के 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से आंतरिक आपातकाल (1975-77) के दौरान शािमल किया गया था.

आरम्भ में कुल 10 मूल कर्तव्य थे. 2002 के 86वां संविधान संशोधन एक और मौलिक कर्तव्य को जोड़ा गया. संविधान के भाग 4ए के अनुच्छेद 51-क में इसका वर्णन है.

मौलिक अधिकार व मौलिक कर्तव्य में अंतर (Difference Between Fundamental Rights and Duties in Hindi)

किसी देश के नागरिकों को प्राप्त बुनियादी मानव अधिकार, मौलिक अधिकार कहलाते है. ये अदालत के समक्ष लागू करने योग्य हैं. दूसरी ओर मौलिक कर्तव्य देश के प्रति नागरिकों का नैतिक दायित्व हैं और ये अदालत के समक्ष लागू करने योग्य नहीं हैं. इस तरह, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की तरह, मौलिक कर्तव्य भी प्रकृति में गैर-न्यायिक हैं.

मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों के कई बार एक-दूसरे के विरोधभासी तो कई बार एक दूसरे के पूरक होते है. प्रत्येक अधिकार के लिए एक समान कर्तव्य होता है. एक व्यक्ति का अधिकार, दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य माना जाता है. यदि लोग अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं, तो दूसरों के अधिकार प्रभावित होते हैं.

11 मूल कर्तव्य (11 Fundamental Duties in Hindi)

  1. संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रीय गान का आदर करें.
  2. स्वतंत्रता के लिये राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोये रखें और उनका पालन करें.
  3. भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें तथा उसे अक्षुण्ण रखें.
  4. देश की रक्षा करें और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करें.
  5. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा व प्रदेश या वर्ग आधारित सभी प्रकार के भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं.
  6. हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्त्व समझें और उसका परिरक्षण करें.
  7. प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्यजीव आते हैं, की रक्षा और संवर्द्धन करें तथा प्राणीमात्र के लिये दया भाव रखें.
  8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें.
  9. सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें.
  10. व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करें जिससे राष्ट्र प्रगति की और निरंतर बढ़ते हुए उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को प्राप्त किया जा सके.
  11. छह से चौदह वर्ष की आयु के बीच के अपने बच्चे बच्चों को शिक्षा के अवसर प्रदान करना (86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा शामिल किया गया).
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