मूल्य निर्धारण का अर्थ किसी वस्तु या सेवा में मौद्रिक मूल्य निर्धारित करने से है. किन्तु विस्तृत अर्थ में, मूल्य निर्धारण वह कार्य एवं प्रक्रिया है. जिसे वस्तु के विक्रय से पूर्व निर्धारित किया जाता है एवं जिसके अन्तर्गत मूल्य निर्धारण के उद्देश्यों, मूल्य को प्रभावित करने वाले घटकों, वस्तु का मौद्रिक मूल्य, मूल्य नीतियों एवं व्यूह रचनाओं का निर्धारण किया जाता है.
प्रो. कोरी के अनुसार- ‘‘किसी समय विशेष पर ग्राहकों के लिए उत्पाद के मूल्य को परिमाणात्मक रूप में (रूपयों में) परिवर्तित करने की कला कीमत निर्धारण है.’’ इस प्रकार मूल्य निर्धारण एक प्रबन्धकीय कार्य एवं प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत लाभप्रद विक्रय हेतु मूल्यों के उद्देश्यों, उपलब्ध मूल्य लोचशीलता, मूल्यों को प्रभावित करने वाले घटकों, वस्तु का मौद्रिक मूल्य, मूल्य नीतियों एवं व्यूह रचनाओं का निर्धारण, क्रियान्वयन एवं नियंत्रण सम्मिलित है.
मूल्य निर्धारण की मुख्य विशेषताएँ
- इसमें वस्तु या सेवा का मौद्रिक मूल्य निर्धारण किया जाता है.
- मूल्य निर्धारण का कार्य वस्तु एवं सेवा की बिक्री से पूर्व किया जाता है.
- यह एक प्रक्रिया है क्योंकि वस्तुओं का मूल्य निर्धारण करने के लिए एक निश्चित क्रम का उपयोग किया जाता है. जेसे- मूल्य निर्धारण के उद्देश्यों, मूल्य को प्रभावित करने वाले घटकों, वस्तु का मौद्रिक मूल्य, मूल्य नीतियों एवं व्यूह रचनाओं का निर्धारण, मूल्य निर्धारित करना एवं अनुगमन करना आदि.
- यह किसी वस्तु के मूल्य को परिमाणात्मक रूप से (रुपयों में) परिवर्तित करने की कला है.
- यह एक प्रबन्धकीय कार्य भी है क्योंकि इसमें मूल्य निर्धारण की योजना बनाने से लेकर उसका क्रियान्वयन एवं नियंत्रण किया जाता है.
मूल्य निर्धारण के उद्देश्य
अधिकांश निर्माताओं का मूल्य निर्धारण का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है. इसे अल्पकाल एवं दीर्घकाल दोनों में ही कमाया जा सकता है. अत: निर्माता को यह निर्णय भी करना पड़ता है कि यह लाभ अल्पकाल में कमाना है या दीर्घकाल में.
मूल्य निर्धारण के मुख्य उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित सहायक एवं अन्य उद्देश्य हैं –
1. मूल्यों में स्थिरता – ऐसे उद्योग जहाँ उतार-चढ़ाव अधिक मात्रा में आते हैं, वहाँ पर निर्माता मूल्यों में स्थिरता लाना चाहते हैं. ऐसी संस्थाएँ जो सामाजिक उत्तरदायित्व एवं सेवा की भावना को महत्व देती है, वे अधिकतम ऐसा करती है. सभी उद्योग आपस में संयोजित होकर माँग एवं पूर्ति में सन्तुलन करने का प्रयास करते हैं. इसके अलावा बढ़ते हुए मूल्यों के समय अपने विज्ञापनों में फुटकर मूल्य घोषित करती है जिससे उपभोक्ता भ्रम में नहीं रहता है.
2. विनियोगों पर निर्धारित प्रतिफल – प्रत्येक निर्माता मूल्यों का निर्धारण इस प्रकार करता है कि उसे अपने विनियोगों पर लाभ एक निश्चित दर के रूप में अवश्य मिल जाये. ऐसा उद्देश्य अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन हो सकता है. वह यह भी निर्धारित करता है कि अपनी पूंजी पर कितना प्रत्यय प्राप्त करना चाहता है. ऐसी नीति उन संस्थानों द्वारा अपनायी जाती है जो वस्तुओं को ऐसे क्षेत्रों में विक्रय करते हैं, जहाँ उनको संरक्षण प्राप्त है.
3. बाजार की मलाई उतारना – मूल्य निर्धारण के इस उद्देश्य के अन्तर्गत वस्तु को बहुत ऊँचे मूल्य पर बाजार में प्रस्तुत किया जाता है ताकि बहुत अधिक लाभों के रूप में बाजार की मलाई उतारी जा सके. किन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि वस्तु नई हो, उसकी प्रतिस्पर्धी वस्तुएँ बाजार में उपलब्ध न हो, क्रेता अधिक मूल्यों से प्रभावित न होते हो. इनके अभाव में मूल्यों में परिवर्तन किया जाता है.
4. प्रतिस्पर्धा का सामना करना या रोकना – कई कम्पनियाँ इस उद्देश्य से भी मूल्य निर्धारित करती है. ऐसे उद्योगों में जहाँ कीमत नेता विद्यमान हो और वस्तु उच्च प्रमापीकृत हो तो अधिकांश कम्पनियाँ नेता का अनुकरण नीति अपनाती है. इसमें कीमत नेता के बराबर ही अन्य कम्पनियाँ अपने उत्पाद का मूल्य निर्धारण करके मूल्य प्रतिस्पर्धा का सामना करती है. इसके विपरीत कुछ कम्पनियाँ प्रतिस्पर्धा को रोकने के उद्देश्य से भी मूल्य निर्धारित करती है.
5. लाभों को अधिकतम करना – मूल्य निर्धारण के अन्य सभी उद्देश्यों की तुलना में लाभों को अधिकतम करने के उद्देश्य को अधिकांश कम्पनियों द्वारा अपनाया जाता है. यदि यह दीर्घकालीन हो तो कम्पनी एवं समाज दोनों के लिए हितकर होता है क्योंकि इससे साधनों का उचित बँटवारा होता है.
6. अस्तित्व की रक्षा – कई कम्पनियाँ परिस्थितियों को देखकर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए मूल्य निर्धारण करती है. उदाहरण के तौर पर, तीव्र प्रतिस्पर्धा, उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं में परिवर्तन अथवा अत्यधिक क्षमता, वस्तु के अप्रचलित होने का भय आदि.
7. बाजार प्रवेशक – कुछ संस्थाएँ बाजार प्रवेश की दृष्टि से भी मूल्य निर्धारण करती है. इसलिए उनके द्वारा वस्तुओं का मूल्य कम रखा जाता है. लेकिन ऐसा उसी दशा में सम्भव हो सकता है, जब बाजार का बहुत ही मूल्य सचेतक हो, वस्तु की प्रति इकाई से लागत कम हो. वस्तुओं के मूल्यों में कमी किये जाने पर प्रतियोगी फर्मे निरूत्साहित हो और नई वस्तु को लोगों द्वारा अपने दैनिक जीवन का एक अंग बना लेने की सम्भावना हो.
8. उत्पाद-रेखा सवंर्द्धन – कुछ संस्थाएँ मूल्य निर्धारण उत्पाद रेखा संवर्द्धन करने के उद्देश्य से भी करती है. इसमें लोकप्रिय वस्तु का मूलय रखा जाता है. लेकिन उस वस्तु के क्रेता को एक ओर वस्तु क्रय करने के लिए बाध्य होना पड़ता है, जिसका निर्यात एवं विक्रय यह संस्था कर रही है तथा जो लोकप्रिय नहीं है. परिणामस्वरूप कम लोकप्रिय वस्तु भी बाजार में आ जाती है एवं कुल विक्रय बढ़ने से लाभों में भी वृद्धि हो जाती है.
9. अन्य उद्देश्य –
- समाज कल्याण का उद्देश्य,
- विकलांगों की सेवा,
- बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों की सहायता आदि.
मांग-आपूर्ति का मूल्य निर्धारण से सम्बन्ध
किसी भी बाज़ार में आपूर्ति किए जाने वाले वस्तुओं और सेवाओं की मात्रा नियत होती है. लेकिन, कई बार इनके मांग में बढ़ोतरी हो जाती है. ऐसे में विक्रेता अधिक मांग वाले उत्पाद या सेवा का कीमत बढ़ा देता है. इसके विपरीत, जब किसी वस्तु या सेवा के मांग में कमी होने लगती है, तो विक्रेता अपने उत्पाद या सेवा का कीमत कम कर देता है. इस तरह मांग और आपूर्ति का अनुपात मूल्य निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.
मांग की लोच (Elasticity of Demand) यह मापती है कि किसी उत्पाद की कीमत के साथ उसकी मांग में कितना परिवर्तन होता है. यदि कीमत बढ़ने पर मांग में बमुश्किल बदलाव होता है, तो इसे बेलोचदार माना जाता है.
मांग वक्र (Demand Curve) एक ग्राफ है जो दर्शाता है कि जैसे-जैसे कीमतें बढ़ती हैं, मांग घटती है, और जैसे-जैसे कीमतें घटती हैं, मांग बढ़ती है.
आपूर्ति वक्र (Supply Curve) दर्शाता है कि जैसे-जैसे कीमतें बढ़ती हैं, उत्पादक अधिक आपूर्ति करने के लिए प्रेरित होते हैं.
संतुलन बिंदु (Equilibrium Point) वह जगह है जहां मांग और आपूर्ति वक्र प्रतिच्छेद करते हैं, जो उस कीमत को दर्शाता है जिस पर उपभोक्ता जितनी मात्रा खरीदना चाहते हैं, उतनी मात्रा उत्पादक बेचने को तैयार हैं.