बिहार में चाय की खेती तेजी से बढ़ रहा है. यह मुख्य रूप से किशनगंज जिले में केंद्रित है. इसके अलावा पूर्णिया, कटिहार और अररिया में भी इसे बढ़ावा दिया जा रहा हैं. हिमालय के तलहटी में बसे इन इलाकों का भूगोल और मौसम इसके विकास का मुख्य कारण हैं. बिहार चाय उत्पादन के मामले में देश के राज्यों में पांचवें स्थान पर हैं. आइए हम इस नोट में बिहार में चाय की खेती से जुड़े अन्य जानकारी प्राप्त करें.
बिहार में चाय की खेती का शुरुआत
बिहार में चाय की खेती 1992 में शुरू हुई थी. इसका श्रेय स्थानीय कपड़ा व्यापारी राज करण दफ्तरी को जाता हैं. उन्होंने किशनगंज के पोठीया क्षेत्र में पहला चाय बागान स्थापित किया. इस पहल की प्रेरणा असम के एक चाय बागान में रात बिताने से मिली. उन्होंने सोचा कि बिहार के तराई क्षेत्र भी पश्चिम बंगाल के चाय बागानों से सटे हुए हैं और समान जलवायु रखते हैं. इसलिए यहाँ भी चाय की खेती संभव है. शुरू में, इस क्षेत्र को चाय के लिए अनुपयुक्त माना गया क्योंकि यह सपाट था. लेकिन समय के साथ यह सफल साबित हुआ.
भौगोलिक विस्तार और उत्पादन
वर्तमान में, किशनगंज जिला बिहार में चाय की खेती का मुख्य केंद्र है. यह क्षेत्र “मिनी दार्जिलिंग” के रूप में जाना जाता है. किशनगंज और बिहार में स्थित इसके पड़ोसी जिलों में लगभग 25,000 एकड़ भूमि पर चाय उगाई जाती है.
हाल के आंकड़ों के अनुसार, किशनगंज सालाना लगभग 20,000 टन चाय का उत्पादन करता है. 70 मिलियन किलो हरी चाय की पत्तियां भी उत्पादित होती हैं. यह इस क्षेत्र की मजबूत उत्पादन क्षमता को दर्शाता है. इसके अलावा, हाल के वर्षों में पूर्णिया, अररिया और कटिहार जिले में भी चाय की खेती शुरू हुई है. यह बिहार में चाय की खेती के विस्तार को दर्शाता है.
जलवायु और मिट्टी की उपयुक्तता
चाय की खेती के लिए बिहार, विशेष रूप से किशनगंज, की जलवायु अनुकूल है. चाय के लिए आदर्श तापमान 20°-30°C है. बारिश की वार्षिक मात्रा अच्छी तरह से वितरित और 150-300 सेमी होनी चाहिए. मिट्टी थोड़ी अम्लीय (pH 4.5-5.5) होनी चाहिए. जमीन जल निकास के लिए उपयुक्त होना चाहिए.
किशनगंज की जलवायु और मिट्टी इन शर्तों को पूरा करती है, जिससे यह चाय की खेती के लिए उपयुक्त बनती है. मिट्टी की तैयारी में 30-45 सेमी की गहराई तक जुताई और समतलीकरण शामिल है, ताकि कटाव रोका जा सके.
आर्थिक और सामाजिक प्रभाव
चाय की खेती ने किशनगंज और आसपास के क्षेत्रों में आर्थिक सुधार लाया है. यह उद्योग मुख्य रूप से ओराओ आदिवासियों को रोजगार देता है. यह आदिवासी समूह बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड और असम में रहते हैं और पारंपरिक रूप से कुड़ुख भाषा बोलते हैं.
यह क्षेत्र औद्योगिक व अन्य क्षेत्रों में काफी पिछड़ा हुआ हैं. इसलिए यहाँ से पलायन आम हैं. चाय की खेती ने स्थानीय लोगों को स्थिर आय प्रदान की है. साथ ही, रोजगार, लोजिस्टिक्स और व्यापार का विकास हुआ हैं. यह न केवल किसानों व मजदूरों के जीवन स्तर में सुधार ला रहा है, बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में भी योगदान दे रहा है.
हालांकि, असम और पश्चिम बंगाल की भांति ही बिहार में चाय की खेती से कुछ विवाद जुड़ गए हैं. श्रमिकों के लिए रहने की व्यवस्था मुख्य रूप से कच्चे घर हैं. बागान मालिकों के तुलना में उनके जीवन में काफी कम बदलाव आया हैं. वहीं, बागान मालिक राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (NREGA) जैसे योजनाओं से खुद को प्रभावित बताते हैं.
वर्तमान विकास और भविष्य की संभावनाएं
हाल के समय में, किशनगंज चाय कारखाने का पुनरुद्धार हुआ है. इसे महानंदा किसान उत्पादक कंपनी द्वारा संचालित किया जा रहा है. इसके अलावा, बिहार से उत्पादित चाय, जैसे लोचन टी, ने अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं. यह इलाके के चाय की गुणवत्ता को दर्शाता है. चाय बाजार की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं, क्योंकि वैश्विक मांग बढ़ रही है. भारत पहले से ही एक बड़ा चाय निर्यातक है. इससे बिहार के चाय उत्पादकों को भी लाभ मिलेगा.
चाय की खेती की लागत बिहार में अन्य चाय उत्पादक राज्यों की तुलना में कम है. इससे बिहार में चाय की खेती अधिक आकर्षक बन जाता है.
तालिका: बिहार में चाय की खेती के प्रमुख पहलू
पहलू | विवरण |
स्थान | मुख्य रूप से किशनगंज, हाल में पूर्णिया, अररिया और कटिहार में भी शुरू हुआ. |
शुरुआत | 1992, राज करण दफ्तरी द्वारा. |
क्षेत्र | लगभग 25,000 एकड़. |
वार्षिक उत्पादन | लगभग 20,000 टन चाय, 70 मिलियन किलो हरी पत्तियां (अनुमानित). |
रोजगार | मुख्य रूप से ओराओं आदिवासियों को, आर्थिक सुधार में योगदान. |
चुनौतियां | श्रमिकों की रहने की स्थिति, मालिकों की आलोचना (“चाय माफिया”), NREGA का प्रभाव. |
हाल के विकास | किशनगंज चाय फैक्टरी का पुनरुद्धार, स्थानीय ब्रांड को अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार. |
निष्कर्ष
बिहार में चाय की खेती एक उभरता हुआ क्षेत्र है. यह आर्थिक और सामाजिक लाभ प्रदान करता है. लेकिन कुछ चुनौतियां भी हैं. भविष्य में, यदि इन मुद्दों को संबोधित किया जाता है, तो यह क्षेत्र और अधिक विकास कर सकता है. इसकी खेती विशेष रूप से किशनगंज और आसपास के क्षेत्रों के लिए फायदेमंद होगा.