बौद्धकालीन भारत के राज्य, शासन-प्रणाली, अर्थव्यवस्था व समाज

बौद्धकालीन भारत: भारतीय इतिहास में बुद्ध का आगमन एक क्रान्तिकारी घटना है. उनका जन्म छठी शताब्दी ई.पू. में हुआ था. भारतीय इतिहास में यह काल बुद्ध युग के नाम से विख्यात है. 600 ई.पू. से लेकर 400 ई.पू. तक का काल-खण्ड भारतीय इतिहास का महत्त्वपूर्ण काल-खण्ड है. इस काल-खण्ड में भारत के इतिहास-गगन पर युग प्रवर्त्तनकारी घटनाएँ घटित हुई. इन घटनाओं ने भारत के राजनैतिक एवं धार्मिक जीवन को नए आयाम दिए.

राजनैतिक दृष्टि से इस काल-खण्ड में सशक्त केन्द्रीय राजनैतिक शक्ति का अभाव था और समस्त देश छोटे-बड़े अनेक राज्यों में विभक्त था. इन राज्यों में षोडस महाजनपद (सोलह महाजनपद) सुविख्यात हैं. अंग, मगध, काशी, कोशल, वज्जि, मल्ल, चेदी, वत्स, कुरू, पांचाल, मत्स्य, सूरसेन, अस्सक, अवन्ति कम्बोज तथा गान्धार, ये सोलह महाजनपद थे.

इन महाजनपदों में कुछ में राजतंत्रात्मक व्यवस्था थी तो कुछ में प्रजातंत्रात्मक. राजनैतिक एकता के अभाव में ये महाजन पद आपस में लड़ते रहते थे और शक्तिशाली महाजनपद अशक्त राज्यों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता था. इन महाजनपदों के अतिरिक्त दस गणराज्य थे. ये इस प्रकार थे-कपिल वस्तु के शाक्य, अल्लकय बुली, केसपुत्र के कालाम, रामग्राम के कोलिय, सुसभागिरि के भाग, पावा के भल्ल, कुशी नारा के मल्ल, यिप्पलिवन के मोरिय, मिथिला के विदेइ तथा वैशाली के लिच्छवि.

यह काल-खण्ड धार्मिक दृष्टि से भारत के दो प्रभावकारी धर्मों के अभ्युदय का युग है. ये धर्म हैं- जैन धर्म और बौद्ध धर्म. ये दोनों धर्म पारम्परिक वैदिक धर्म की मान्यताओं यथा कर्मकाण्ड यज्ञ आदि के विरुद्ध थे. जैन धर्म के प्रवर्त्तक ऋषभदेव थे जो प्रथम तीर्थंकर थे. जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए हैं जिन्होंने जैन धर्म का प्रचार प्रसार किया.

बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक महान गौतम बुद्ध थे जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व का न केवल भारतवासियों पर प्रभाव पड़ा प्रत्युत भारत के बाहर भी उसका व्यापक प्रसार हुआ. आज भी भारत के बाहर अनेक देशों यथा चीन, तिब्बत, कोरिया, श्रीलंका, जापान आदि देशों में इस महान् विभूति के समर्थकों और अनुयायियों की विशाल जनसंख्या है. आज भी भारत में गौतम बुद्ध के जन्म और जीवन से जुड़े अनेक पवित्र स्थल भारतीयों और श्रद्धालुओं की आस्था के पावन स्थल के रूप में प्रतिष्ठापित है.

इसे भी पढ़ें – 16 महाजनपद, उनकी राजधानी, शासन-प्रणाली और क्षेत्र

बुद्ध के समय 10 गणतंत्र

बुद्धकाल में सोलह जनपदों के अलावा गंगाघाटी में कई गणतंत्रों केअस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं. बुद्ध के समय में 10 गणतंत्र थे, जो इस प्रकार हैं-

  • कपिलवस्तु के शाक्य
  • सुमसुमारा के भग्ग (कुछ अन्य स्रोतों में इसका नाम सुसुभारगिरि एवं सुमसुमगिरि भी मिलता है.)
  • अलकप्प के बुली
  • केसपुत्त के कलाम (बुद्ध के गुरु अलार कलाम इसी से संबद्ध थे.)
  • रामग्राम के कोलिय
  • कुशीनारा के मल्ल
  • पावा के मल्ल
  • पिप्पलिवन के मोरिय
  • वैशाली के लिच्छवि (सर्वाधिक शक्तिशाली गणराज्य)
  • मिथिला के विदेह

कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य

शाक्य गणराज्य प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक नहीं था. यह एक छोटा गणराज्य (एक प्रकार का गैर-राजशाही राज्य) था जो वर्तमान नेपाल के तराई क्षेत्र और भारत के उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में स्थित था. इसकी राजधानी कपिलवस्तु थी. शाक्य कुल के लोग एक क्षत्रिय जाति से संबंधित थे. उनकी पहचान उनके स्वायत्त और स्वतंत्र स्वभाव से होती थी.

शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु थी, जिसे अक्सर वर्तमान नेपाल के तिलौराकोट या भारत के पिपरहवा से जोड़ा जाता है. बौद्ध ग्रंथों में कपिलवस्तु के अलावा कई अन्य नगरों का उल्लेख मिलता है जो इस गणराज्य का हिस्सा थे, जैसे चातुमा, सामगाम, खोमदुस्स, सिलावती, नगरक और देवदह.

शाक्य लोग अपनी जाति की शुद्धता बनाए रखने के लिए बहुत कठोर थे. वे अपनी ही जाति के अंदर विवाह करते थे, जिसे सगोत्रीय विवाह कहते हैं. इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण स्वयं बुद्ध के माता-पिता हैं. बुद्ध की माता, महामाया, शाक्य गणराज्य के देवदह नामक नगर से थीं, जो शाक्य वंश की ही एक शाखा थी. इस विवाह प्रथा के कारण वे अपने कुलीन वंश को संरक्षित रखते थे.

शाक्य गणराज्य का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि गौतम बुद्ध का जन्म इसी गणराज्य में हुआ था. बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था, और उनके पिता राजा शुद्धोधन शाक्य गणराज्य के मुखिया थे. शुद्धोधन को अक्सर राजा कहा जाता है. लेकिन वे वास्तव में एक निर्वाचित प्रमुख या ‘गणपति’ थे, जो गणराज्य की सभा द्वारा चुने जाते थे. बुद्ध का जन्म लुम्बिनी में हुआ था, जो कपिलवस्तु के पास ही स्थित था.

शाक्य गणराज्य का अंत दुखद था. इसका विनाश कोशल नरेश विडूडभ द्वारा किया गया था. विडूडभ, जो कोशल के राजा प्रसेनजित का पुत्र था, शाक्य लोगों से अपनी माँ के अपमान का बदला लेना चाहता था. उसकी माँ एक शाक्य दासी की बेटी थी, और शाक्यों ने यह झूठ बोला था कि वह एक राजकुमारी है. जब विडूडभ को यह सच्चाई पता चली, तो उसने क्रोध में आकर शाक्य गणराज्य पर हमला किया और उन्हें पूरी तरह से नष्ट कर दिया. यह घटना बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और दुखद अध्याय है.

सुमसुमारा के भग्ग गणराज्य

ऐसा माना जाता है कि भग्ग ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लिखित भर्ग वंश से संबंधित थे. ‘भर्ग’ का शाब्दिक अर्थ ‘सूर्य का प्रकाश’ या ‘भाग्यशाली’ होता है. सुमसुमारा के भग्ग एक छोटा गणराज्य था जो प्राचीन भारत में गंगा नदी के तट पर स्थित था. बौद्ध ग्रंथों के अनुसार, यह मगध के पास था. विद्वानों का मानना है कि यह गणराज्य आधुनिक चुनार (मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश) के आसपास के क्षेत्र में स्थित था.

यह एक गणराज्य था, जिसका मतलब है कि यहाँ शासन एक निर्वाचित प्रमुख या ‘गणपति’ द्वारा किया जाता था, न कि किसी राजा द्वारा. बौद्ध धर्म के ग्रंथों में, विशेष रूप से महापरिनिब्बान सुत्त में, बुद्ध और उनके शिष्यों द्वारा यहाँ की यात्रा का उल्लेख मिलता है. यह भी बताया गया है कि बुद्ध ने सुमसुमारा में भिक्षाटन किया था.

यह गणराज्य उस समय के अन्य शक्तिशाली महाजनपदों, जैसे मगध और कोशल, के प्रभाव में था. हालाँकि, इसकी भौगोलिक स्थिति और राजनीतिक स्वायत्तता के कारण इसे एक विशिष्ट पहचान मिली हुई थी.

अलकप्प के बुली गणराज्य

अलकप्प के बुली एक प्राचीन भारतीय गणराज्य था जो बौद्ध काल में अस्तित्व में था. इसकी राजधानी वेठद्वीप थी, जिसे अक्सर बेतिया के रूप में पहचाना जाता है. आधुनिक स्थानों की दृष्टि से, यह राज्य वर्तमान बिहार के शाहाबाद, आरा और मुज़फ्फरपुर जिलों के बीच स्थित था.

बुली लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे. बुद्ध के महापरिनिब्बान (अंतिम निर्वाण) के बाद, बुद्ध के अवशेषों को प्राप्त करने वाले आठ गणराज्यों में से एक बुली भी था. उन्होंने इन अवशेषों पर एक स्तूप (बौद्ध स्मारक) का निर्माण किया.

यह गणराज्य अन्य बड़े गणराज्यों और साम्राज्यों के बीच एक महत्वपूर्ण स्थान रखता था और बौद्ध धर्म के प्रसार में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी.

यहाँ दी गई जानकारी में कुछ तथ्य सही हैं, जबकि कुछ को और अधिक स्पष्टता और संदर्भ की केसपुत्त के कलाम

केसपुत्त के कलाम एक गणराज्य थे जो बौद्ध काल में अस्तित्व में थे. इनका उल्लेख मुख्य रूप से बौद्ध ग्रंथों में मिलता है. वैदिक साहित्य से यह पता चलता है कि कलामों का संबंध पांचाल जनपद के केशियों के साथ था. यह उनके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों को दर्शाता है. इस गणराज्य का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह है कि आचार्य अलार कलाम इसी राज्य से संबंधित थे.

महात्मा बुद्ध ने गृह त्याग के बाद सबसे पहले आचार्य अलार कलाम से ही शिक्षा ली थी. उन्होंने अलार कलाम से सांख्य दर्शन और योग की शिक्षा प्राप्त की. हालांकि, बुद्ध को इससे पूर्ण संतुष्टि नहीं मिली और उन्होंने सत्य की खोज जारी रखी.

रामग्राम के कोलिय

कोलियों की राजधानी रामग्राम थी. इसका संबंध आधुनिक गोरखपुर ज़िले में स्थित रामगढ़ ताल से जोड़ा गया है. कोलिय गण के लोग अपनी पुलिस शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे. वे अपनी सुरक्षा और कानून व्यवस्था को लेकर बहुत जागरूक थे.

कोलिय गण भी शाक्य गण के समान ही एक क्षत्रिय जाति से संबंधित था. बुद्ध की माता, रानी महामाया, और उनकी पत्नी, यशोधरा, दोनों शाक्य और कोलिय गणराज्यों से थीं, जिससे इन दोनों कुलों के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित हुए थे. बुद्ध के महापरिनिब्बान के बाद, कोलियों को बुद्ध के अस्थि अवशेषों का हिस्सा मिला, जिस पर उन्होंने एक स्तूप का निर्माण किया.

कुशीनारा और पावा के मल्ल

मल्ल गणराज्य दो प्रमुख शाखाओं में विभाजित था, जिनकी राजधानियाँ क्रमशः कुशीनारा और पावा थीं. कुशीनारा के मल्ल का संबंध वाल्मीकि रामायण से जोड़ा जाता है, जिसमें उन्हें लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतुमल्ल का वंशज कहा गया है. हालांकि, यह किंवदंतियों पर आधारित है.

पावा की पहचान आधुनिक कुशीनगर ज़िले में स्थित पडरौना से की गई है. मल्ल लोग अपनी सैनिक प्रवृत्ति के लिए जाने जाते थे. वे युद्धप्रिय और शक्तिशाली थे. बुद्ध को अंतिम भोजन पावा के चुंद नामक लोहार ने दिया था. इसी स्थान पर वे गंभीर रूप से बीमार हो गए. बुद्ध का महापरिनिब्बान कुशीनारा में ही हुआ था. मल्ल लोगों को उनके अस्थि अवशेषों का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त हुआ था, जिस पर उन्होंने एक विशाल स्तूप का निर्माण किया.

पिप्पलिवन के मोरिय

यह माना जाता है कि मोरों के प्रदेश (पीपलिवन का शाब्दिक अर्थ ‘पीपल का जंगल’ है, लेकिन यहाँ मोरों की बहुतायत थी) में निवास करने के कारण इन लोगों को मोरिय कहा गया. मोरियशब्द से ही मौर्यशब्द की उत्पत्ति हुई है, जो बाद में एक विशाल साम्राज्य का नाम बना.

इस वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक चंद्रगुप्त मौर्य था, जिसने बाद में नंद वंश को हराकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की. हालांकि, चंद्रगुप्त का संबंध मोरिय गणराज्य से था, यह अभी भी ऐतिहासिक बहस का विषय है, लेकिन बौद्ध और जैन ग्रंथ इसे स्वीकार करते हैं.

वैशाली के लिच्छवि

वैशाली के लिच्छवि प्राचीन भारत के सबसे शक्तिशाली और प्रसिद्ध गणराज्यों में से एक थे. यह वज्जि संघ में सबसे प्रमुख था, जो कि आठ कुलों का एक महासंघ था. लिच्छवियों को उनके लोकतांत्रिक मूल्यों, समृद्धि और बुद्ध तथा महावीर दोनों के साथ घनिष्ठ संबंधों के लिए जाना जाता है. लिच्छवियों की राजधानी वैशाली थी, जिसकी पहचान वर्तमान बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ़ नामक स्थान से की जाती है.

बौद्ध और जैन ग्रंथों में वैशाली का उल्लेख एक बहुत ही धनी, समृद्धशाली और घनी आबादी वाले नगर के रूप में किया गया है. यहाँ कई विशाल भवन, पार्क और तालाब थे, जो इसकी समृद्धि का प्रमाण थे.

लिच्छवि लोग महात्मा बुद्ध के उत्साही अनुयायी थे. उन्होंने बुद्ध का बहुत सम्मान किया और उनके लिए कई सुविधाओं का निर्माण करवाया. लिच्छवियों ने महात्मा बुद्ध के निवास के लिए महावन में प्रसिद्ध कूटाग्रशाला (Kutagarasala) का निर्माण करवाया था. बुद्ध ने यहाँ रहकर कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए.

लिच्छवि एक गणराज्य था, जहाँ राजा के बजाय ‘गणपति’ (प्रमुख) शासन करते थे. हालाँकि, प्रमुख लिच्छवि नेता का नाम अक्सर राजा के रूप में संदर्भित किया जाता है. चेटक इस गणराज्य के एक प्रमुख और शक्तिशाली नेता थे.

चेटक की पुत्री चेलना (छलना) का विवाह मगध के शक्तिशाली शासक बिंबिसार के साथ हुआ था. यह वैवाहिक संबंध लिच्छवियों और मगध के बीच राजनीतिक गठबंधन का एक महत्वपूर्ण उदाहरण था. जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर की माता, त्रिशला, चेटक की बहन थीं. इस संबंध ने जैन धर्म और लिच्छवि गणराज्य के बीच एक मजबूत बंधन स्थापित किया, और वैशाली जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया.

मिथिला का विदेह

महात्मा बुद्ध के काल में, मिथिला विदेह क्षेत्र एक प्रमुख गणराज्य (रिपब्लिक) था. यह उस समय के 16 महाजनपदों में से एक था. यहाँ की शासन व्यवस्था राजशाही से बदलकर लोकतांत्रिक हो गई थी, जिसे गणराज्य या संघ कहते थे. इस व्यवस्था में राजा का चुनाव लोगों द्वारा होता था और राज्य से जुड़े महत्वपूर्ण निर्णय एक परिषद लेती थी.

यहाँ की शासन व्यवस्था से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मिथिला के लोग अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्ति के लिए जाने जाते थे. बुद्ध काल में, कई विदेह राजकुमार और विद्वान बुद्ध के अनुयायी बन गए थे.

बुद्ध काल में, विदेह के राजा और उनके परिवार के सदस्य, जैसे कि राजा जनक, बुद्ध के विचारों से काफी प्रभावित थे. विदेह के कई स्थानों पर बौद्ध मठों का विकास हुआ, जहाँ भिक्षु और भिक्षुणियां रहते थे और शिक्षा देते थे. बुद्ध कई बार अपने शिष्यों के साथ विदेह आए और धर्म का प्रचार किया.

संक्षेप में, बुद्ध काल में मिथिला (विदेह) सिर्फ एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं था, बल्कि बौद्ध धर्म और शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी था.

बौद्धकालीन अर्थव्यवस्था

700 ई.पू. के आस-पास उत्तर प्रदेश एवं बिहार की जनता की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए. पाणिनी की अष्टध्यायी और सुतनिपात के अनुसार, खेत की दो या तीन बार जुताई होती थी. धान की रोपाई और लोहे के उपकरणों के ज्ञान ने कृषि उत्पादन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया. चावल उत्पादक मध्य गंगा घाटी में, गेहूँ उत्पादक ऊपरी गंगा घाटी की तुलना में अधिक उत्पादन होता था. उत्पादन अधिशेष से जनसंख्या वृद्धि संभव हुई.

इसके अतिरिक्त उत्पादन में यज्ञ पर खर्च करने की प्रवृत्ति कम हो गई. सांख्यान गृह सूत्र में बैल द्वारा खेती करने, हल चलाने एवं मंत्रों के साथ समस्त कृषि प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का उल्लेख है. पाणिनी के समय खेतों का सर्वेक्षण करने वाले अधिकारी को क्षेत्रकार कहा जाता था. बौधायन के अनुसार, छ: निवर्तन भूमि की उपज से एक परिवार का भरण-पोषण होता था. अत: इससे ज्ञात होता है कि भूमि-माप की इकाई निवर्तन कहलाती थी और एक निवर्तन डेढ़ एकड़ के बराबर होती थी.

फसल- सूत्र ग्रंथों में दो प्रकार के जौ- यव और यवानी, पाँच प्रकार के चावलों (कृष्ण ब्रिही, महाब्रीही, हायन, यवक और पष्टिक) का उल्लेख है. बौद्ध ग्रन्थों में ईख की खेती की चर्चा की गई है. प्राचीन बौद्ध एवं जैन साहित्य में शलिल (चावल) के 4 किस्मों की चर्चा की गई है (रक्त शलि, कालम शलि, गंधशलि, महाशलि).

प्राचीन बौद्ध साहित्य में खेत पति, खेत स्वामी या वथूपति की चर्चा की गई है. इसका अर्थ है-भूमि के अलग-अलग स्वामी होते थे. इससे यह संकेत मिलता है, भू व्यक्तिगत स्वामित्व की भावना विकसित हो. चुकी थी. कृषि में भी बड़े-बड़े फामों का विकास हुआ. माना जाता है कि 500 हलों से खेती की जाती थी. अब बौद्ध ग्रंथों के अनुसार कृषि में दासों, कर्मकारों एवं पस्सों को लगाया जाता था.

गृहपति- वैदिक युग में याजक (यज्ञ करने वाला) और पशुचारक थे किन्तु छठी सदी ई.पू. में वे पहली बार विशाल पितृसत्तात्मक परिवार का मुखिया बन गए. उन्हें धन के कारण सम्मान प्राप्त हुआ. गृहपति मेंडक राज्य की सेना को वेतन देता था और बुद्ध संघ की सेवा के लिए उसने 1250 गौ सेवकों को नियुक्त किया था. उसी तरह अनाथपिंडक संपन्न गृहपति था.

शिल्प- इस काल में राजगृह में 18 प्रकार के शिल्पों की चर्चा की गयी है. शिल्पों का केवल विशिष्टीकरण हुआ शिल्पों का क्षेत्रीयकारण भी हुआ. वैशाली के सदलपट में कुंभकार की 500 दुकाने थीं. जिलाहों की भी अलग-अलग बस्तियां थीं जुलाहों का वार्ड तंतु बायधान कहलाता था. हठी दांत का काम करने वाले दंतकारवीथि कहलाते थे. रंगरेजों का कार्य करने वाले रंगरेजकार विथि कहलाते थे. यह काल उत्तरी काले पॉलिशदार मृदभांड चरण से जुड़ा हुआ था.

इसी काल में 300 ई.पू. के आस-पास घेरेदार कुएं एवं पक्के ईंटों का प्रयोग होने लगा. धातु के आहत सिक्के का प्रथम प्रयोग 500 ई.पू. के आस-पास हुआ. आरंभ में आहत सिक्के चांदी के बनाये जाते थे किन्तु तांबे के भी होते थे. पंचमार्क सिक्के में धातु के टुकड़ों पर हाथी, मछली, सांड, अर्द्धचद्र की आकृतियाँ बनाई जाती थीं. ये पूर्वी उत्तर प्रदेश, मगध और तक्षशिला में विशेष रूप से पाए गए हैं.

कुछ अन्य सिक्कों की भी चर्चा हुई है यथा कर्षापण, पाद, माशक, काकणिक, सुर्वण (निष्क). बिम्बिसार और अजातशत्रु के काल में राजगृह में पाँच मास एक पाद के बराबर होता था. पाणिनी के काल में निम्नलिखित सिक्के चलते थे-निष्क, पण, पाद, मास, शान (तांबा का एक सिक्का).

व्यवसायिक संगठन- श्रेणियों के पदाधिकारियों को चौधरी (प्रमुख) और जेठक (ज्येष्ठक) और भाण्डागारिक कहा जाता था. बिना श्रेणियों के संगठित उद्योगों का संचालन ज्येष्ठक करते थे. व्यापार प्रमुख या मुखिया ‘महासेठी’ कहलाता था. कारवाँ (व्यापारियों का काफिला) सितारों और कौए की सहायता से थलनिय्याम के नेतृत्व में चलता था.

बुद्ध काल में आर्थिक संघों को बहुत स्वायत्तता प्राप्त थी. वे वस्तुओं के मूल्य निश्चित करते थे. निजी सदस्यों पर गहरी पकड़ थी और इसके लिए उन्हें राज्य की ओर से भी मान्यता प्रदान की गई थी. वे भ्रष्ट सदस्यों का निष्कासन कर सकते थे. किसी भी स्त्री को बौद्ध संघ की सदस्यता के लिए, अपने पति के अतिरिक्त पति के संघ की अनुमति भी लेनी पड़ती थी. प्रारंभिक धर्म सूत्रों में ऋणों पर ब्याज 1¼ प्रतिशत प्रतिमास (15 प्रतिशत वार्षिक) था.

वाणिज्य व्यापार विकसित अवस्था में था. एक मार्ग ताम्रलिप्ति से पाटलिपुत्र एवं श्रावस्ती के माध्यम से उज्जैन होते हुए भड़ौंच से जुड़ता था. दूसरा मार्ग मथुरा-राजस्थान-तक्षशिला से जुड़ा था. व्यापार की वृद्धि के लिए पांडय सिद्धि संस्कार किया जाता था. इसमें सोम की पूजा की जाती थी.

नगरों का विकास- बुद्ध काल को द्वितीय नगरीकरण का काल भी कहा जाता है. प्रथम नगरीकरण सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान हुआ था. तैतरीय अरण्यक में पहली बार नगर की चर्चा की गई है. उस काल में कुल 60 नगर थे जिनमें श्रावस्ती जैसे 20 नगर थे. बुद्ध काल में 6 बड़े नगर या महानगर थे यथा, राजगृह, चंपा, काशी, श्रावस्ती, साकेत, कौशांबी.

बौद्धकालीन समाज

बौद्धकालीन समाज की जानकारी मुख्य रूप से पालि साहित्य (पाली भाषा में लिखे गए बौद्ध ग्रंथ) और जातक कथाओं से मिलती है. ये ग्रंथ उस समय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को दर्शाते हैं, जो छठी शताब्दी ईसा पूर्व से शुरू हुआ था. इस काल में समाज में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखे गए.

वर्ण व्यवस्था और सामाजिक संरचना

बौद्ध काल में, समाज चार मुख्य वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में विभाजित था. विभिन ग्रंथों में इसपर अलग-अलग मत हैं. लेकिन बुद्ध ने जन्म-आधारित जाति व्यवस्था का विरोध किया. उनका मानना था कि किसी व्यक्ति की पहचान उसके जन्म से नहीं, बल्कि उसके कर्मों से होती है. उन्होंने बार-बार ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की धारणा को चुनौती दी. बुद्ध ने जाति-गौरव के दंभ की आलोचना की थी और सुत्तपिटक में ब्राह्मण शब्द का प्रयोग जन्म से नहीं बल्कि आचरण से श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए किया.

  • ब्राह्मण: इस काल में भी ब्राह्मणों को समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था. हालाँकि, बुद्ध के सिद्धांतों ने उनकी धार्मिक और सामाजिक सत्ता पर सवाल उठाए.
  • क्षत्रिय: क्षत्रिय वर्ग को उस समय सबसे ऊँचा माना जाता था, क्योंकि बुद्ध और महावीर जैसे प्रमुख धार्मिक नेता इसी वर्ग से थे.
  • वैश्य: कृषि और व्यापार के विकास के कारण वैश्य वर्ग की आर्थिक स्थिति काफी मजबूत हुई. बड़े-बड़े व्यापारी और गृहपति (जमींदार) इस काल में उभरे, जो संघों को दान देते थे.
  • शूद्र: शूद्रों की स्थिति में सुधार हुआ. बौद्ध धर्म ने उन्हें समाज में सम्मान और मुक्ति का मार्ग दिया, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था में संभव नहीं था.

इस काल में कई हीन जातियों (निम्न जातियाँ) का भी उल्लेख मिलता है, जैसे चंडाल, निषाद, वेण, रथकार और पुक्कुस. ये आमतौर पर ऐसे काम करते थे जिन्हें अशुद्ध माना जाता था.

स्त्रियों की स्थिति

बौद्ध काल में स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ. उन्हें भिक्खुणी (महिला भिक्षुणी) बनने की स्वतंत्रता थी और वे संघ में प्रवेश कर सकती थीं. यह एक क्रांतिकारी कदम था, क्योंकि उस समय अन्य धार्मिक परंपराओं में यह अधिकार नहीं था. इसके बावजूद, पितृसत्तात्मक समाज के कारण उन्हें पुरुषों के अधीन ही रहना पड़ता था. हालाँकि, कुछ बौद्ध ग्रंथों में ऐसी कहानियाँ भी हैं जहाँ महिलाएँ स्वतंत्र और आत्मनिर्भर दिखाई देती हैं.

परिवार और दास व्यवस्था

परिवार की संरचना पितृसत्तात्मक थी, जिसमें पिता या सबसे बड़ा पुरुष सदस्य मुखिया होता था. संपत्ति का अधिकार आमतौर पर पुरुषों को था.

दास प्रथा भी प्रचलित थी. बौद्ध ग्रंथों में कई प्रकार के दासों का उल्लेख है:

  • जन्मजात दास: जो दास-दासी के यहाँ पैदा हुए.
  • युद्ध बंदी: जो युद्ध में हारने के बाद दास बनाए गए.
  • खरीदे गए दास: जिन्हें पैसे देकर खरीदा गया था.

दिलचस्प बात यह है कि बौद्ध धर्म ने दासों को भी मुक्ति का मार्ग दिखाया. यदि कोई दास भिक्खु बनना चाहता था, तो उसे स्वतंत्रता दी जाती थी.

जैन और बौद्ध धर्म का प्रभाव

बुद्ध और महावीर, दोनों ने जाति व्यवस्था का विरोध किया. उन्होंने जन्म के बजाय कर्म के आधार पर व्यक्ति के महत्व को स्वीकार किया. जैन ग्रंथ ‘पन्नवणा’ में आर्यों को देश, जाति, कुल, कर्म, भाषा और शिल्प के आधार पर पाँच श्रेणियों में बांटा गया है. इससे पता चलता है कि उस समय कर्म को अधिक महत्व दिया जाता था.

बौद्ध काल में राजनीतिक व्यवस्था और प्रशासन

बौद्ध काल (लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व) भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण संक्रमण का समय था. इस दौरान छोटे जनपदों का स्थान शक्तिशाली महाजनपदों ने ले लिया, और राजतंत्र तथा प्रशासन के स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन हुए.

राजत्व और राज्य की अवधारणा

इस काल में राजत्व के सिद्धांत में बड़ा बदलाव आया. अब राजा केवल एक कबीले का प्रमुख नहीं रहा, बल्कि एक विशाल क्षेत्र और विभिन्न गैर-आर्य जनजातियों पर शासन करने वाला एक शक्तिशाली शासक बन गया. इससे राजा की शक्ति में भारी वृद्धि हुई. राजाओं ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए स्थायी सेना का गठन किया, जो पहले के कबीलाई समाजों में नहीं होती थी.

बिम्बिसार जैसे शासकों ने स्थायी सेना का गठन किया. बिम्बिसार द्वारा खुद को क्षेत्रीय बिम्बिसार” कहने का अर्थ ‘सेना का बिम्बिसार’ था, जो उसकी सैन्य शक्ति का प्रतीक था. कोशल का शासक भी खुद को अधिकारमदमर्त्त” कहता था, जो उसकी शक्ति और अधिकार को दर्शाता था.

राजाओं की बढ़ती शक्ति के कारण उन्हें अब भूमि अनुदान देने के लिए समुदाय की अनुमति की आवश्यकता नहीं थी. वे अपनी इच्छा से ब्राह्मणों और सेठी (व्यापारियों) को भूमि दान दे सकते थे.

कराधान प्रणाली और अधिकारी

राजस्व संग्रह इस काल में राज्य की स्थिरता का एक महत्वपूर्ण आधार बन गया. कर प्रणाली को अधिक व्यवस्थित किया गया.

  • प्रमुख कर: बलि, शुल्क और भाग जैसे कर पूरी तरह स्थापित हो गए.
  • अधिकारियों की भूमिका: कराधान से जुड़े अधिकारियों की संख्या में वृद्धि हुई.
  • बलिसाधक: बलि नामक कर वसूल करने वाला अधिकारी.
  • शौल्किक: शुल्काध्यक्ष, जिसका कार्य शुल्क (टोल टैक्स) वसूलना था.
  • रज्जुग्राहक: भूमि की माप करने वाला अधिकारी.
  • द्रोणमापक: अनाज के तौल का निरीक्षण करने वाला अधिकारी.
  • दंडात्मक कार्यवाही: जातक कथाओं से पता चलता है कि तुन्दिया और अकाशिया जैसे अधिकारी बलपूर्वक कर वसूली करते थे, जो प्रशासन में कठोरता को दर्शाता है.

नौकरशाही और प्रशासनिक इकाइयाँ

बौद्धकालीन भारत में एक स्थायी और रक्त संबंध से पृथक नौकरशाही का उदय हुआ. यह कबीलाई व्यवस्था से एक बड़ा विचलन था. नए अधिकारियों, जैसे आयुक्त और महामात्र, की नियुक्ति की गई. हालाँकि, अधिकांश अधिकारी अभी भी पुरोहित वर्ग से चुने जाते थे. राजकीय मुहर और राजकीय दस्तावेजों का उपयोग इसी युग में शुरू हुआ. अक्षपटलाधिकृत नामक अधिकारी दस्तावेजों और अभिलेखों का प्रबंधन करता था.

  • ग्राम से नगर तक: प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल (परिवार) की जगह ग्राम ने ले ली.
    • ग्राम: सबसे छोटी इकाई.
    • खरवटक: 200 ग्रामों का समूह.
    • द्रोणमुख: 400 ग्रामों का समूह.
    • पतन: व्यापार या खानों का केंद्र.
    • मंतभ: दस हजार ग्रामों और दुर्गों का समूह.
    • निगम: व्यापारियों की बस्ती.
    • नगर: शहरी केंद्र.
    • राजधानी: राज्य का केंद्रीय शहर.

कानून और समाज

कानून और अदालतों का व्यवस्थित विकास इसी युग में हुआ. लेखन कला के विकास से प्रशासन में दक्षता आई. जैसे-जैसे समाज जाति-आधारित होता गया, पुराने समतावादी कबीलाई कानून अप्रासंगिक हो गए और उनका स्थान जाति कानूनों ने ले लिया. इस काल में पहली बार निवास की भूमि और कृषि की भूमि को अलग-अलग देखा गया, जो कृषि और शहरी विकास के बीच के बढ़ते अंतर को दर्शाता है.

बौद्धकालीन भारत में राजत्व के संविदात्मक सिद्धांत

यह विवरण मुख्य रूप से राजत्व के संविदात्मक सिद्धांत पर केंद्रित है, जिसे बौद्ध विचारकों द्वारा प्रतिपादित किया गया था और जिसकी नींव बौद्ध ग्रंथ दीघ निकाय में रखी गई थी. इस सिद्धांत के अनुसार, राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं माना जाता था, बल्कि लोगों द्वारा अराजकता को समाप्त करने और शांति स्थापित करने के लिए चुना गया एक व्यक्ति माना जाता था.

यह एक सामाजिक अनुबंध था जिसमें राजा ने लोगों की रक्षा करने का वचन दिया और बदले में लोगों ने उसे करों का भुगतान किया. यह व्यवस्था तत्कालीन राजत्व के दैवीय सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत थी.

राजतंत्र के अलावा, उस युग में गणराज्य भी व्यापक रूप से मौजूद थे, जिन्हें गण या संघ कहा जाता था. इन गणराज्यों में सत्ता किसी एक व्यक्ति के हाथों में न होकर एक चुनी हुई परिषद या कबिलाई अल्पतंत्र में निहित थी.

शाक्य और लिच्छवि जैसे गणराज्यों में, शासक वर्ग एक ही गोत्र और वर्ण के होते थे, और उनकी सभाओं में हजारों सदस्य हो सकते थे, जैसा कि वैशाली के लिच्छवियों की सभा में देखने को मिलता था. हालांकि, इन गणराज्यों में नागरिकता सभी को प्राप्त नहीं थी; उदाहरण के लिए, लिच्छवियों की सभा में ब्राह्मणों को शामिल नहीं किया गया था, जबकि मौर्योत्तर काल के मालव और क्षुद्रक गणराज्यों में ब्राह्मणों और क्षत्रियों को नागरिकता प्राप्त थी.

प्रशासनिक दृष्टि से, शाक्य और लिच्छवि जैसे गणराज्यों में राजा, उपराजा, सेनापति और राजकोषाध्यक्ष (भाण्डागरिक) जैसे पद होते थे. ग्रीक लेखकों ने कुछ विशिष्ट और अनूठी शासन प्रणालियों का भी उल्लेख किया है, जैसे कि पाताल में युद्ध के समय दो राजाओं का शासन और शांति के समय वृद्धजनों की परिषद द्वारा शासन का संचालन.

इसी तरह, सौभूति और अम्बष्ठ जैसे गणराज्यों में बच्चों के पालन-पोषण का जिम्मा राज्य स्वयं उठाता था, और मूषिकवंश नामक राज्य में दास प्रथा का अस्तित्व नहीं था. ये सभी विवरण यह दर्शाते हैं कि बौद्ध काल में भारत की राजनीतिक संरचना अत्यंत विविधतापूर्ण और जटिल थी, जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों में शासन के विभिन्न मॉडल विकसित हुए थे.

खास तथ्य:

  • बौद्धकालीन समाज की जानकारी ब्राह्मण साहित्य से नहीं, बल्कि बौद्ध पालि साहित्य से मिलती है.
  • सूत्र और स्मृति साहित्य बौद्ध धर्म का मुकाबला करने के लिए नहीं, बल्कि वैदिक धर्म को व्यवस्थित करने के लिए लिखे गए थे. यह बौद्ध धर्म के बाद की अवधि में हुआ.
  • सती प्रथा का पहला साहित्यिक साक्ष्य महाभारत में मिलता है, लेकिन इसका प्रचलन बाद के काल में हुआ. ग्रीक लेखक का उल्लेख सही है, लेकिन इसका संबंध बौद्ध काल से नहीं है.
  • ईरानी और सिकंदर के आक्रमण का बौद्धकालीन समाज से कोई सीधा संबंध नहीं है. ये ऐतिहासिक घटनाएँ हैं, लेकिन इन्हें सामाजिक संरचना के साथ इस तरह से नहीं जोड़ा जा सकता.
  • महात्मा बुद्ध द्वारा ब्राह्मणों के पाँच वर्गों में विभाजन का कोई प्रामाणिक संदर्भ नहीं है. बौद्ध ग्रंथों में इस तरह के विभाजन का कोई उल्लेख नहीं मिलता है.
  • विवाह के प्रकारों और उत्तराधिकार संबंधी नियम सूत्र साहित्य के हैं, जो बौद्ध काल के बाद लिखे गए थे. ये बौद्ध समाज के नियम नहीं हैं.
  • शूद्रों के अंत्येष्टि संस्कार में भाग लेने का उल्लेख सूत्र साहित्य के नियम हैं. बौद्ध धर्म में ये नियम लागू नहीं होते थे.
Spread the love!
मुख्य बिंदु
Scroll to Top