इब्राहिम लोदी (1517-1526) का शासन, राजत्व सिद्धांत और मृत्यु

इब्राहिम लोदी (1480 – 21 अप्रैल 1526) दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान थे. वह अपने पिता सिकंदर खान लोदी की मृत्यु के बाद 1517 में सुल्तान बने. उन्होंने 1526 तक नौ वर्षों तक शासन किया. 1526 में बाबर की हमलावर सेना द्वारा पानीपत की लड़ाई में पराजित हुए और मारे गए, जिससे भारत में मुगल साम्राज्य का उदय हुआ. इब्राहिम लोदी का जीवनकल सत्ता संघर्ष और युद्ध में ही बीत गया. अंततः वह युद्ध में ही मारा गया.

इब्राहिम लोदी का भाई के साथ संघर्ष (Ibrahim Lodi’s fight with Brother)

1517 के अंत में सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद इब्राहिम लोदी ने बिना किसी विरोध के सिंहासन पर कब्जा कर लिया. वह सिकंदर लोदी के सबसे बड़े बेटे थे. अपने शासनकाल की शुरुआत में, इब्राहिम ने अपने भाई जलाल खान को जौनपुर का स्वायत्त राज्यपाल बनाकर सत्ता-साझाकरण व्यवस्था का प्रयास किया. लेकिन जब जलाल ने अपनी स्वतंत्रता का दावा करना शुरू किया, तो इब्राहिम ने वरिष्ठ दरबारियों की सलाह पर अपना फैसला पलट दिया. उन्होंने जलाल को दिल्ली बुलाया.  

उसके इनकार करने पर, इब्राहिम ने गुप्त रूप से प्रांतीय गवर्नरों और प्रमुख रईसों को जलाल के अधिकार को मान्यता न देने का निर्देश दिया, जिससे उसे जौनपुर छोड़ने और कालपी में अपने पूर्व गढ़ में वापस जाने के लिए मजबूर होना पड़ा.

जलाल ने प्रभावशाली रईस आजम हुमायूं सरवानी का समर्थन हासिल किया और जल्दी से अवध पर कब्जा कर लिया. फिर भी, जब इब्राहिम लोदी एक बड़ी सेना के साथ आगे बढ़ा, तो आजम ने दलबदल कर लिया. सुल्तान के प्रति अपनी वफादारी की फिर से प्रतिज्ञा की और जलाल को आगरा की ओर वापस जाने के लिए मजबूर किया. वहां, इब्राहिम के जनरल मलिक आदम ने एक अस्थायी समझौता किया. जलाल स्वतंत्र शासन के किसी भी दावे को त्यागने के बदले में कालपी रख सकता था. यह युद्धविराम अल्पकालिक साबित हुआ.

अपने भाई को हमेशा के लिए खत्म करने का संकल्प करते हुए, इब्राहिम लोदी ने पूरे क्षेत्र में जलाल का पीछा किया. इब्राहिम लोदी ने ग्वालियर की घेराबंदी करने के लिए आज़म हुमायूं सरवानी के नेतृत्व में 30,000 घुड़सवारों और 300 हाथियों के एक अभियान का आदेश दिया. किले के पतन और विक्रमजीत तोमर के आत्मसमर्पण के बाद, इब्राहिम ने मेवाड़ के राणा सांगा के खिलाफ एक और सेना भेजी. लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा. यह उसकी सैन्य प्रतिष्ठा को एक बड़ा झटका था.

भतीजे संग संघर्ष (Fight with Nephew)

जलाल के विद्रोह ने इब्राहिम के अपने अफगान और तुर्की रईसों के प्रति अविश्वास को और भी गहरा कर दिया. उसने अपने वर्चस्व को रेखांकित करने के लिए दरबारी प्रोटोकॉल को कड़ा कर दिया. आज़म हुमायूं सरवानी और मियां भुवाह जैसे प्रमुख लोगों को गिरफ्तार कर लिया. जवाबी कार्रवाई में, आज़म के बेटे इस्लाम खान सरवानी ने अपने पिता की रिहाई की मांग करते हुए प्रमुख लोदी सरदारों के समर्थन से लगभग 40,000 लोगों को इकट्ठा किया. इब्राहिम ने इनकार कर दिया. यहां तक ​​कि एक सम्मानित संत द्वारा की गई मध्यस्थता को भी ठुकरा दिया. खूनी मुठभेड़ में इस विद्रोह को कुचल दिया. इस लड़ाई में लगभग 10,000 लोगों की जान चली गई. इस्लाम खान भी मारा गया.

अपने दृष्टिकोण को नरम करने के बजाय, इब्राहिम और अधिक क्रूर हो गया. उसने मियां भुवाह को मार डाला और आजम हुमायूं की रहस्यमय परिस्थितियों में कैद में ही मृत्यु हो गई.

अन्य संघर्ष (Other Fights)

मियां हुसैन फरमुली की इब्राहिम के एजेंटों ने चंदेरी में हत्या कर दी. पूर्वी प्रांतों में चिंतित रईसों ने अपनी स्थिति मजबूत करनी शुरू कर दी: दरिया खान लोहानी की मृत्यु पर, उनके बेटे बहार खान ने स्वतंत्रता की घोषणा की और उनके नाम पर खुतबा पढ़ा, जिसमें नासिर खान लोहानी, फतह खान और शेर खान सूर (बाद में शेर शाह) शामिल हुए. इस बीच, पंजाब के गवर्नर दौलत खान लोदी ने बाबर के साथ गुप्त रूप से बातचीत की.

इब्राहिम लोदी के बुलावे से बचने के लिए 1524 में दौलत खान और बाबर ने लाहौर पर कब्ज़ा कर लिया. इन्होंने बहार खान लोदी के अधीन इब्राहिम लोदी की सेनाओं को खदेड़ दिया और पंजाब पर नियंत्रण कर लिया.

राजत्व सिद्धांत स्थापित करने में इब्राहिम की असफलता

1489 में सिकंदर लोदी की मृत्यु होते ही अफगान अमीर अफगान राजत्व के सिद्धांत को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील हो गए. किन्तु इब्राहिम लोदी ने भी अपने पिता सिकंदर लोदी की ही भांति अमीरों के दमन की नीति अपनाई और उसने भी राजत्व के सिद्धांत को तुर्कों तथा हिन्दुओं के राजत्व के दैविक सिद्धांत के अनुरूप ढालना चाहा. वह पूर्ण निरंकुश शासक बनने के लिए कटिबद्ध था.

इब्राहिम लोदी ने सुल्तान बलबन की भांति यह घोषित किया कि सुल्तान का कोई सम्बन्धी नहीं होता. उसने अफगानी परंपरा को समाप्त कर अपने अमीरों को दरबार में हाथ बांधकर और सर झुककर खड़े रहने के लिए बाध्य किया. बहलोली अमीरों के और सिकंदरी अमीरों ने नवयुवक सुल्तान की दमनकारी नीतियों का विरोध किया.

इब्राहिम लोदी ने आज़म हुमायूँ शेरवानी को इसलिए क़ैद करवाया क्योंकि उसने सिकंदर लोदी की मृत्यु के उपरांत उठे उत्तराधिकार के विवाद पर जलाल खान का पक्ष लिया था. जेल में ही आज़म हुमायूँ शेरवानी की मृत्यु हो गयी थी.

आज़म हुमायूँ शेरवानी के पुत्र इस्लाम खान ने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया जिसने कि युद्ध का रूप ले लिया. इब्राहिम लोदी ने इस्लाम खान के विद्रोह का दमन तो कर दिया किन्तु इस से वह स्वातंत्र्यप्रिय अफगान अमीरों की निष्ठा तथा स्वामिभक्ति प्राप्त नहीं कर सका.

बिहार के सूबेदार, मियां हुसेन फ़र्मूली, मियां मुआर (सिकंदर लोदी का वजीर), पंजाब के सूबेदार दौलत खान लोदी तथा उसके पुत्र दिलावर खान के साथ इब्राहिम लोदी ने अत्यंत कठोर व्यवहार किया. सुल्तान अमीरों के दिल में अपने कोप का भय स्थापित कर उनकी विद्रोह करने हिम्मत तोड़ना चाहता था. लेकिन ज्यों-ज्यों सुल्तान ने शक्ति के केन्द्रीकरण के प्रयासों को गति प्रदान की और ज्यों-ज्यों उसने अफगान अमीरों की स्वच्छंदता का दमन करने का प्रयास किया. उसकी पकड़ अपनी सल्तनत पर से तथा अपने अमीरों पर से कमज़ोर होती चली गयी.

वास्तव में लोदियों के अधीन दिल्ली सल्तनत, विभिन्न जागीरों और प्रान्तों के ढीले-ढाले, काम चलाऊ संघ से अधिक कुछ नहीं थी. बढ़ते हुए राजपूत प्रतिरोध तथा उत्तर पश्चिम से निरंतर हो रहे आक्रमणों के वातावरण में अफगान राजत्व के सिद्धांत में आमूल परिवर्तन करने का प्रयास नितांत अव्यवहारिक था.

इब्राहिम लोदी को अपनी अव्यवहारिक नीति का मूल्य चुकाना पड़ा. उसका राज्य विघटित होने लगा. अनेक अमीर उसके विरुद्ध हो गए. इब्राहिम लोदी से कुपित पंजाब के सूबेदार दौलत खान लोदी ने तो बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित भी कर दिया.

इस प्रकार सिकंदर लोदी तथा इब्राहिम लोदी ने अफगान राजत्व के सिद्धांत में परिवर्तन करने के प्रयास में लोदी राज्य वंश के पतन के द्वार खोल दिए. जो अफगान अमीर, बिरादरी, क़बीले और कुनबे की खातिर बहलोल लोदी का साथ देने आए थे. उन्होंने और उनके परवर्ती अमीरों ने सिकंदर लोदी तथा इब्राहिम लोदी की अफगान राजत्व के सिद्धांत को आमूल रूप से परिवर्तित करने के प्रयास के विरुद्ध विद्रोह कर दिया.

मृत्यु (Death)

1526 की शुरुआत में बाबर ने उत्तरी भारत पर बड़े पैमाने पर आक्रमण किया. 20 अप्रैल 1526 को, पानीपत की पहली लड़ाई में, इब्राहिम लोदी की बड़ी सेना बाबर की नवीन रणनीति और बेहतर घुड़सवार सेना द्वारा निर्णायक रूप से पराजित हुई. इस यद्ध में इब्राहिम की मैदान में ही मृत्यु हो गई और दिल्ली में लोदी शासन का अंत हो गया.

इब्राहिम लोदी को उसके सलाहकारों ने युद्ध के मैदान से भागने की सलाह दी. लेकिन कायरता के बदनामी से बचने के लिए वह युद्ध के मैदान में टिका रहा. इस तरह वह दिल्ली का पहला सुल्तान बन गया, जो युद्ध में मारा गया था.

इस अंत के साथ ही दिल्ली में 320 साल (1206 से 1526 ईस्वी) पुराने दिल्ली सल्तनत का अंत हुआ और मुगल वंश का शासन आरंभ हुआ. बाबर ने इब्राहिम लोदी के बेटे को अपने कब्जे में ले लिया. लोदी की बेटी भागकर शरण लेने बंगाल पहुँच गई, जहाँ नसीरुद्दीन नसरत शाह ने उससे विवाह कर लिया.

मकबरा (Tomb)

उनके मकबरे को अक्सर दिल्ली के लोदी गार्डन के भीतर शीश गुंबद समझ लिया जाता है. बल्कि इब्राहिम खान लोदी का मकबरा वास्तव में पानीपत में तहसील कार्यालय के पास, सूफी संत बू अली शाह कलंदर की दरगाह के करीब स्थित है. यह एक ऊँचे मंच पर एक साधारण आयताकार संरचना है, जिस तक सीढ़ियों की एक उड़ान से पहुँचा जा सकता है.

1866 में, ब्रिटिशों ने ग्रैंड ट्रंक रोड के निर्माण के दौरान मकबरे को स्थानांतरित कर दिया और पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम खान लोदी की मृत्यु को उजागर करने वाले एक शिलालेख के साथ इसका जीर्णोद्धार किया. उन्होंने 1522 में सोनीपत में ख्वाजा खिज्र का मकबरा भी बनवाया.

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