मौद्रिक नीति किसी भी देश का आर्थिक विशेषज्ञों, नीति निर्माताओं और कॉर्पोरेट जगत में व्यापक चर्चा में रहते है. आज के समय वैश्विक अर्थव्यवस्था आपस में जुड़कर एकल अर्थव्यवस्था का रूप ले चुका है. ऐसे में एक देश के मौद्रिक नीति का असर दूसरे देश पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अक्सर हो जाता है. ख़ास बड़े अर्थव्यवस्था वाले देशों के केंद्रीय बैंक द्वारा इस नीति में बदलाव अन्य देशों पर हो जाता है. इसलिए मौद्रिक और वित्तीय जगत में इसकी निगरानी काफी सूक्ष्म तरीके से किया जाता है.
19वीं शताब्दी के अन्त में मौद्रिक नीति के विषय का अधिक विस्तार हुआ. वर्तमान शताब्दी में इसके सैद्धान्ति एवं व्यवहारिक विषयों में विशेषज्ञों का आकर्षण बढ़ता जा रहा है .परम्परागत दृष्टिकोण के अनुसार मौद्रिक नीति का उद्देश्य स्वर्णमान एवं विदेशी विनिमय दर की स्थिरता से सम्बन्धित था . वृहद् रूप से कहा जा सकता है कि केन्द्रीय बैंक की मौद्रिक नीति का अर्थ मांग और पूर्ति को नियंत्रित करके सरकार की आर्थिक नीति के उद्देश्यों को पूर्ण करने के अस्त्र के रूप में है.
यह प्रशासनिक रूप से देश की मुद्रा पूर्ति, जिसमें मुद्रा मांग जमा तथा विदेशी विनिमय दर को व्यवस्थित करना सम्मिलित है . स्वर्णमान का परित्याग हो जाने के पश्चात् तथा सन् 1930 की विश्वव्यापी महामन्दी के समय से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ होने के समय तक मौद्रिक नीति को केवल सस्ती मुद्रा उत्पन्न करने का साधन मात्र समझा जाता था .
परन्तु वर्तमान समय में सभी देशों में मौद्रिक नीति को आर्थिक सुधारों एवं आर्थिक स्थायित्व तथा आर्थिक विकास को संभव बनाने का एक प्रमुख साधन समझा जाता है . इस प्रकार वर्तमान युग में मौद्रिक नीति को संसार के सभी देशों की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने के विभिन्न कारण हैं .
मौद्रिक नीति की परिभाषा
यद्यपि मौद्रिक नीति का शब्द व्यापक रूप से प्रयोग किया गया, फिर भी कुछ ही लोगों ने इसकी परिभाषा दी . पाल एंजिग के अनुसार, “मौद्रिक प्रणाली के अस्तित्व में रहने तथा कार्यशील होने के परिणामस्वरूप उसके लाभो में वृद्धि तथा हानियों को न्यूनतम करने के प्रयत्नों को मौद्रिक नीति कहा जा सकता है.””
हैरी जानसन् के मतानुसार, मौद्रिक नीति अल्पकालीन आर्थिक स्थायित्व से सम्बन्धित है जो व्यापार चक के प्रभाव को कम करती है . आर्थिक स्थिरता का कार्य दो उद्देश्यों से जुड़ा है . मूल्य स्थिरता तथा उच्च रोजगार का स्तर ये दोनों एक दूसरे से सम्बन्धित हैं .”
सामान्य आर्थिक प्रबन्धन में इसकी भूमिका नयी नहीं है . क्रियाशील वित्त के विकास से बहुत पहले इसका सामान्य आर्थिक कार्यों में प्रयोग स्वीकार किया गया. फिर भी यह मुद्रा के मात्रात्मक सिद्धान्त से निकटतम पारिवारिक सम्बन्ध रखता है .
मौद्रिक नीति पर ऐतिहासिक परिघटनाओं का प्रभाव
1. युद्ध तथा युद्धोत्तर काल में प्रायः सभी देशों की मुद्रा के परिमाण में अत्यधिक वृद्धि हो जाने के कारण मुद्रा-स्फीति की दशा विद्यमान हो गयी थी. फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में अनेक भयानक रोग दृष्टिगोचर होने लगे थे जिनके कारण विश्व के सभी देशों की सरकारों का विश्वास मौद्रिक नीति की ओर आकर्षित हुआ .
2. युद्ध के पश्चात् जब विश्व के विकसित देशों की सरकारें केवल अमौद्रिक नीतियों के प्रयोग के द्वारा स्फीति की कठिन समस्या को सुलझाने में असमर्थ सिद्ध हुई, तो मौद्रिक नीति में विश्वास होने लगा तथा स्फीति कारक समस्या का निवारण मौद्रिक नीति द्वारा ही उचित समझा जाने लगा .
3. विभिन्न देशों की सरकारों एवं अर्थशास्त्रियों द्वारा इस सत्य को भली भांति समझा जाने लगा था कि यद्यपि कर नीति विनियोग मूल्य तथा वेतन सम्बन्धी नियंत्रण का स्फीति को नियंत्रित करने में एक विशेष स्थान होता है, परन्तु इन सबके प्रयोग की निश्चित सीमाएं अन्तर्राष्ट्रीय तथा आन्तरिक राजनैतिक स्थितियों द्वारा निर्धारित होती हैं और इस कारण मौद्रिक नीति के यंत्र का उपयोग किये बिना स्फीति के शक्तिशाली शत्रु पर विजय प्राप्त करना कठिन है .
4. इस मौद्रिक नीति के उपलब्ध सभी हथियारों के प्रयोग के बिना स्फीति के विरूद्ध संघर्ष सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है . मौद्रिक नीति का प्रयोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जैसे आवश्यक हो, राजकोषीय उपाय के रूप में आर्थिक अस्थिरता के दौरान किया जाता है. आधुनिक कल्याणकारी राज्य में जीविका तथा आर्थिक विकास की बढ़ती हुई आवश्यकता के कारण मौद्रिक नीति को आर्थिक नीति के एक औजार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है .
मौद्रिक नीति, मौद्रिक सिद्धान्त तथा मौद्रिक प्रयोग के बीच में स्थित है . मौद्रिक सिद्धान्त अनेक सिद्धान्तों को सम्बन्धित करता है जो कि मौद्रिक नीति की पृष्ठभूमि है और जो इसको प्रमाणित करती है . मौद्रिक प्रयोग प्रायोगिक उपायों से सम्बन्धित है जो मौद्रिक नीति के निर्णय को और इसमें सम्मिलित तकनीकी व्यौरों को प्रभावित करता है . मौद्रिक नीति का विस्तृत प्रयोग या तो सरकारी अधिकारियों द्वारा या केन्द्रीय बैंक के अधिकारियों द्वारा किया जाता है .
भारत के केन्द्रीय बैंक के रूप में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना 1 अप्रैल, 1935 में एवं रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण 1948 में एक्ट द्वारा किया गया था . इसके अनुसार सरकार की नीतियों के कियान्वयन हेतु बैंक को राज्य नियंत्रित संस्थान होना चाहिए. जिससे, सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बैंक के कार्यों पर सरकार की मौद्रिक, आर्थिक एवं वित्तीय नीतियों में समन्वय स्थापित हो सके . ‘इस एक्ट के अनुसार 1949 से रिजर्व बैंक पर सरकार का अधिकार हो गया . बैंक के अंशधारकों को प्रति 100 रू0 के अंश के लिए सरकार ने 118 रू0 10 आने का मुआवजा देकर सभी अंश ले लिए . मुआवजे की रकम प्रति अंश 18 रू0 10 आने के बराबर नगद में दी गयी और शेष 100 रू0 के बदले 3 प्रतिशत ब्याज वाले सरकारी बाण्ड दिये गये . बैंकों के प्रबन्धन के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार द्वारा समय-समय पर दिशा-निर्देश जारी किया जाता है तथा सामान्य निर्देशन एवं निरीक्षण का दायित्व हमेंशा केन्द्रीय निर्देशक एवं वैधानिक बोर्ड को दिया गया. रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण अन्तर्राष्ट्रीय मानकों को ध्यान में रखकर किया गया . फिर भी युद्ध के समय का अनुभव स्वतंत्र व्यक्तिगत प्रबन्धन में कल्पित विश्वास को तोड़ना है. बैंक राष्ट्रीयकरण से पूर्व सरकार का अनुभाग था, इसलिए कोई अतिरिक्त राजनीतिक दबाब रिजर्व बैंक पर नहीं आया, राष्ट्रीयकरण में केवल पुरानी परिस्थितियों को व्यवहारिक एवं वैधानिक चरित्र प्रदान किया. इसके बावजूद भी राष्ट्रीयकरण से एक महत्वपूर्ण उद्देश्य प्राप्त हुआ. संस्था के व्यक्तिगत प्रबन्धन में होने से यह हमेंशा खतरा बना रहता था कि मुद्रा के निर्माण या क्षय में ज्ञान अथवा अज्ञानतावश इसकी नीति किसी के व्यक्तिगत हित में हो सकती थी जो राष्ट्र हित में घातक हो सकता था. सरकार द्वारा व्यवस्थापित रिजर्व बैंक केन्द्रीय बैंक द्वारा लागू की गयी मौद्रिक नीति और सरकार द्वारा चलायी गयी सामान्य आर्थिक नीति के बीच मतभेद की संभावना को दूर करता है. रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया बैंकिंग अधिनियम 1949 के द्वारा अनुषंगी बैंकों के वृहद अधिकार का स्पष्टीकरण प्रदान करता है फिर भी रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया सरकार के दिन-प्रतिदिन के कार्यों से निरपेक्ष रहते हुए एक स्वतंत्र निकाय के रूप में कार्य करता है. रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट 1934 की प्रस्तावना के अनुसार “रिजर्व बैंक का प्रमुख कार्य भारत में मौद्रिक स्थिरता स्थापित करने तथा देश के हित में मुद्रा एवं साख प्रणाली का संचालन करने के उद्देश्य से नोटों के निर्गमन का नियमन करना तथा सुरक्षित कोषों को रखना है .”” देश का केन्द्रीय बैंक होने के नाते रिजर्व बैंक को केन्द्रीय बैंक के सभी कार्य करने पड़ते हैं . इसके साथ-साथ देश की परिस्थितियों के अनुसार रिजर्व बैंक को कुछ अन्य प्रकार के कार्य भी करने पड़ते हैं . देश के आर्थिक विकास के कार्य में उचित मौद्रिक तथा बैकिंग नीतियों द्वारा सहयोग देना रिजर्व बैंक का एक महत्वपूर्ण कार्य हो गया है . |
मौद्रिक नीति के उद्देश्य
मौद्रिक नीति एक ऐसा तंत्र है जिसके माध्यम से किसी अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति और मांग को विनियमित किया जाता है. मौद्रिक नीति के उद्देश्य (maudrik niti ke uddeshy) को पूरा करने के लिए मुद्रा की आपूर्ति और मांग पर इस तरह के नियमों की अपेक्षा की जाती है.
आपको ध्यान देना चाहिए कि मौद्रिक नीति के उद्देश्यों और लक्ष्यों में अंतर है. मौद्रिक नीति के उद्देश्य उस दिशा को इंगित करते हैं जिसमें नीति चर का उद्देश्य होना चाहिए, अर्थात, मुद्रास्फीति को कम करना, पूर्ण रोजगार प्राप्त करना, उच्च आर्थिक संवृद्धि प्राप्त करना.
दूसरी ओर, मौद्रिक नीति के लक्ष्य मौद्रिक नीति के उपस्करों के माध्यम से मुद्रा आपूर्ति, बैंक ऋण, और अल्पकालिक ब्याज दरों जैसे लक्ष्य हैं.
एक केंद्रीय बैंक का एक ही उद्देश्य या कई उद्देश्य हो सकते हैं. आज अधिकांश केंद्रीय बैंकों का प्राथमिक उद्देश्य कीमत स्थिरता है. कीमत स्थिरता का मतलब यह नहीं है कि अर्थव्यवस्था में कोई कीमत वृद्धि नहीं होनी चाहिए. बल्कि इसका उद्देश्य मध्यम मुद्रास्फीति है. बहुत बार, कई देशों, मौद्रिक नीति ने मुद्रास्फीति दर को लक्षित किया है. भारत में भी इस तरह के मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण का पालन किया जाता है .
1990 में पहली बार न्यूजीलडैं में मुद्रास्फीति का लक्ष्य रखा गया था. इसके बाद कनाडा, यूनाइटेड Çकगडम, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया, चिली, पोलैंड आदि जैसे कई देशों ने 1990 के दशक के दौरान मौद्रिक नीति के उद्देश्य के रूप में मुद्रास्फीति को लक्षित किया. भारत ने औपचारिक रूप से भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम को बदल कर 2016 में मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण को अपनाया. तदानुसार, भारत में मौद्रिक नीति के लिए लक्ष्य चर 4 प्रतिशत की मुद्रास्फीति दर है. भारतीय रिज़र्व बैंक इस तरह से मौद्रिक नीति बनाता है कि मुद्रास्फीति की दर 2 प्रतिशत से 4 प्रतिशत प्रति वर्ष की सीमा में रहे.
2016 से पहले, 1998 से, भारत ने मौद्रिक नीति के उद्देश्यों के रूप में कई संकेतक (indicators) अपनाएये. इस –ष्टिकोण के तहत भारतीय रिजर्व बैंक ने मुद्रा, ऋण, उत्पादन, व्यापार, पूंजी प्रवाह, राजकोषीय घाटा, मुद्रास्फीति दर और विनिमय दर जैसे कई लक्ष्य चरों पर विचार किया. हम किसी अर्थव्यवस्था के कुछ प्रमुख लक्ष्यों के बारे में विस्तार से बताते हैं, ताकि आपको उनके महत्व का अंदाजा हो जाए.
1. उच्च आर्थिक संवृद्धि
अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य अधिकतम संभव आर्थिक संवृद्धि को प्राप्त करना है. आर्थिक संवृद्धि से प्रति व्यक्ति आय अधिक होती है और लोगों के जीवन स्तर में सुधर होता है है. जैसा कि पहले बताया गया था, आर्थिक संवृद्धि को गति देने के लिए उच्च निवेश महत्वपूर्ण है. यदि देश के संसाधनों का अल्प प्रयोग हो रहा हो, तो एक विस्तारवादी मौद्रिक नीति अपनाई जा सकती है.
2. पूर्ण रोजगार स्तर
अर्थव्यवस्था का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य लोगों को रोजगार देने का प्रावधान है. हम मानते हैं कि मानव संसामुद्रा सहित संसामुद्राों की बेरोजगारी अर्थव्यवस्था में मौजूद है. आगे, मंदी की अवधि के दौरान बेरोजगारी का स्तर बढ़ता है. इस प्रकार उन नीतियों को तैयार करने की आवश्यकता है जो रोजगार पैदा करती हैं और देश को पूर्ण रोजगार की ओर ले जाती हैं. उत्पादन या संभावित उत्पादन के पूर्ण रोजगार स्तर पर, उत्पादन के सभी कारक (श्रम सहित) पूरी तरह से नियोजित होते हैं. इस तरह के उत्पादन को पूर्ण क्षमता रोजगार भी कहते है. मौद्रिक नीति समग्र मांग को प्रभावित करके पूर्ण क्षमता वाले उत्पादन को साकार करने में मदद कर सकती है.
3. कीमत स्थिरता
कीमत स्थिरता, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, इसका मतलब यह नहीं है कि कीमतों को पूरी तरह स्थिर रहना चाहिए; इसका मतलब है कि कीमत वृद्धि मध्यम होनी चाहिए.
कीमत स्थिरता के उद्देश्य को आर्थिक संवृद्धि और पूर्ण रोजगार जैसे अन्य उद्देश्यों के साथ टकराव हो सकती है. पूर्ण क्षमता उत्पादन से परे एक विस्तारवादी मौद्रिक नीति के माध्यम से कुल मांग में वृद्धि से मुद्रास्फीति में वृद्धि हो सकता है. अगर कुल मांग में कमी होती है, तो अर्थव्यवस्था में अपस्फीति की प्रवृत्ति हो सकती है. मौद्रिक नीति का उद्देश्य मुद्रास्फीति और अपस्फीति दोनों स्थितियों से बचना होता है.
4. विनिमय दर स्थिरता
मौद्रिक नीति किसी अर्थव्यवस्था के भुगतान संतुलन को प्रभावित कर सकती है. ब्याज दर अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. यदि ब्याज दर में गिरावट होती है, तो इसका परिणाम पूंजी के बहिर्वाह में हो सकता है. नतीजतन, विदेशी मुद्रा की मांग बढ़ जाती है और इसके परिणामस्वरूप घरेलू मुद्रा का कीमत ह्रास होता है.
मुद्रा के कीमत ह्रास के कई परिणाम हो सकते हैं – (विदेशी मुद्रा के संदर्भ में घरेलू मुद्रा के कीमत में गिरावट;) विदेशी माल अधिक महंगा हो जाता है; और कच्चे माल जैसी आवश्यक वस्तुओं के आयात में गिरावट हो सकती है जिसके परिणामस्वरूप GDP में कमी आती है. जैसा कि घरेलू सामान और सेवाएं विदेशी मुद्रा (कीमतहृास के कारण) के मामले में सस्ती हो जाती हैं. देश का निर्यात बढ़ सकता है जो भुगतान की स्थिति के संतुलन में सुधार करता है. हालांकि अंतिम परिणाम कई कारकों पर निर्भर करता है जैसे कि आयात और निर्यात की लोच, और वैश्विक आर्थिक वातावरण (मंदी, युद्ध, वैश्विक कीमत स्तर, आदि).
मौद्रिक नीति के साधन
साख (credit) को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक नीति के उपस्करों (instruments) को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है, परिमाणात्मक (quantitative) और गुणात्मक (qualitative). परिमाणात्मक उपस्कर प्रकृति में गैर-भेदभावपूर्ण हैं, उदाहरण के लिए, जब मौद्रिक नीति किसी देश के केंद्रीय बैंक द्वारा एक निश्चित ब्याज दर निर्धारित की जाती है, तो यह दर पूरे देश की बैंकिंग प्रणाली पर लागू होती है. इसके विपरीत, गुणात्मक / चयनात्मक उपाय समाज के एक वर्ग से दूसरे तक भिन्न होते हैं.
1. परिमाणात्मक उपस्कर
मौद्रिक नीति के महत्वपूर्ण परिमाणात्मक साख नियंत्रण उपस्कर इस प्रकार हैं:
- रेपो दर (Repo Rate)
- बैंक दर (Bank Rate)
- खुले बाजार की प्रक्रियाएं (Open Market Actions)
- न्यूनतम रिजर्व निचय अनुपात में बदलाव
- तरलता अनुपात में परिवर्तन (Change is Liquidity Ratio)
क) रेपो रेट – मौद्रिक नीति का सबसे अधिक देखा गया और महत्वपूर्ण उपस्कर रेपो दर है. यह वह दर है जिस पर वाणिज्यिक बैंक प्रतिभूति जैसे संपार्श्विक जमा करने पर भारतीय रिजर्व बैंक से मुद्रा उधार लेते हैं. इसी प्रकार, वाणिज्यिक बैंक केंद्रीय बैंक में अपने अतिरिक्त भंडार जमा कर सकते हैं, जिसके लिए ‘रिवर्स रेपो दर’ लागू है. रेपो दर समय-समय पर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा तय की जाती है. अन्य दरें, जैसे रिवर्स रेपो दर, बैंक दर और सीमांत स्थायी सुविधा ( marginalstanding facility – MSF) दर स्वचालित रूप से रेपो दर से ऊपर एक निश्चित प्रतिशत के रूप में समायोजित हो जाती हैं.
RBI मुद्रास्फीति, आर्थिक संवृद्धि और भुगतान संतुलन के प्रबंधन के लिए रेपो दर का उपयोग करता है. जब मुद्रास्फीति की दर अधिक होती है, तो RBI रेपो दर को बढ़ा सकता है ताकि ब्याज दरों में वृद्धि हो, जिससे सकल मांग में गिरावट आए. दूसरी ओर, आर्थिक वृद्धि में सुस्ती होने पर भारतीय रिजर्व बैंक रेपो दर में कमी कर सकता है.
बैंकों को तरलता समायोजन सुविधा (liquidityadjustment facility – LAF) के तहत रेपो दर पर भारतीय रिज़र्व बैंक से उधार लेने की अनुमति है. भारतीय रिज़र्व बैंक के साथ अतिरिक्त तरलता का जमा भी LAF के तहत किया जाता है. यह व्यवस्था बैंक को तरलता दबाव का प्रबंधन करने और अल्पकालिक नकदी की कमी को हल करने में मदद करती है.
तरलता समायोजन सुविधा के अलावा, भारतीय रिजर्व बैंक के पास ‘सीमांत स्थायी सुविधा’ है, जो वाणिज्यिक बैंकों को रातोंरात ऋण देने का प्रावधान करती है. इसका उद्देश्य ग्राहकों द्वारा बड़े पैमाने पर नकदी की निकासी जैसे अप्रत्याशित झटके को पूरा करना है. एमएसएफ इस प्रकार रेपो दर से ऊपर एक दंडात्मक ब्याज दर प्राप्त करता है.
ख) बैंक दर – बैंक दर ब्याज की वह दर है जिस पर केंद्रीय बैंक वाणिज्यिक बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को ऋण प्रदान करता है. बैंक दर में वृद्धि से अर्थव्यवस्था में ब्याज दर बढ़ने का प्रभाव पड़ता है. इसी तरह, बैंक दर में कमी अर्थव्यवस्था में ब्याज की दर को कम करती है. उच्च बैंक दर अर्थव्यवस्था में साख निर्माण की सीमा को कम करती है जिससे सकल मांग में गिरावट होती है और इसलिए कीमतें कम होती हैं. दूसरी ओर, मंदी के चरण में कम बैंक दर का सुझाव दिया जाता है.
बैंक उधार पर बैंक दर में परिवर्तन के प्रभाव की भविष्यवाणी करना मुश्किल है. ऐसा इसलिए है क्योंकि बैंक दर स्वयं प्रमुख उधार दर नहीं है, हालांकि यह विभिन्न प्रकार के अग्रिमों के लिए RBI की उधार दरों की बहुलता का आधार है. बैंक की उधारी पर बैंक दर में परिवर्तन का प्रभाव विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है. जैसे (क) उधार के भंडार पर बैंक की निर्भरता की मात्रा, (ख) उधार दरों के लिए बैंकों की मांग की संवेदनशीलता उनकी उधार दरों और उधार लेने के बीच के अंतर पर दरें (ग) किस हद तक ब्याज की अन्य दरें पहले से ही बदल गई हैं या बाद में बदल गई हैं (घ) ऋण की मांग की स्थिति और अन्य स्रोतों से मुद्रा की आपूर्ति, आदि.
उच्च बैंक दर के समय बैंकों को उधारी लेने से हतोत्साहित नही किया जाता, यदि बाजार की ब्याज दरें अधिक होती हैं तो बैंक दर के दर पर उधार लेकर भी व्यावसायिक बैंक उधार दी गई मुद्राराशि से अधिक लाभ की उम्मीद करते हैं.
रेपो दर और बैंक दर के बीच एक सूक्ष्म अंतर है. वित्तीय संस्थान किसी भी संपार्श्विक को प्रस्तुत किए बिना बैंक दर पर भारतीय रिज़र्व बैंक से उधार ले सकते हैं. दूसरी ओर आरबीआई द्वारा जारी प्रतिभूतियों की फिर से खरीद के लिए रेपो रेट लिया जाता है. इसके अलावा, बैंक दर रेपो रेट से अधिक है.
ग) खुले बाजार की प्रक्रियाएं – केंद्रीय बैंक सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री और खरीद के माध्यम से मुद्रा आपूर्ति पर नियंत्रण रखता है. ‘खुले बाजार की प्रक्रिया’ (open market operations) शब्द केंद्रीय बैंक द्वारा जनता और अन्य बैंकों को सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री/खरीद को से संदर्भित है. जबकि खुले बाजार में सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद उच्च शक्ति वाले मुद्रा (H) को बढ़ाती है, सरकारी प्रतिभूतियों की खुले बाजार में बिक्री से H की राशि घट जाती है.
‘H’ में परिवर्तन के बाद, सामान्य प्रक्रिया से मुद्रा की आपूर्ति (ड) में परिवर्तन होता है. मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए केंद्रीय बैंक एक संकुचनकारी मौद्रिक नीति के रूप में लिए, प्रतिभूतियों को बेचकर मुद्रा की आपूर्ति कम कर देता है. गिरती कीमतों की स्थिति में, केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति बढ़ाने के लिए प्रतिभूतियां खरीदता है. इस तरह की विस्तारवादी मौद्रिक नीति सकल मांग को बढ़ाने और अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने में मदद करती है.
खुले बाजार की ये प्रक्रियाएं लचीली और प्रतिवर्ती होती है. इसलिए, इन्हें मौद्रिक नियंत्रण का एक कुशल सामुद्रा माना जाता है. इसके अलावा, बैंक दर और आरक्षित आवश्यकताओं के विपरीत, यह ‘घोषणा प्रभाव’ से मुक्त है क्योंकि इन कार्यों के संचालन के लिए कोई पूर्व सार्वजनिक घोषणा नहीं की जानी चाहिए. H पर प्रत्यक्ष प्रभाव तत्काल है और निर्मित या नष्ट हुई H की मात्रा सटीक रूप से ज्ञात रहती है. ब्याज दर में बदलाव जैसे अप्रत्यक्ष प्रभाव भी होते ही हैं.
केंद्रीय बैंक या मौद्रिक प्राधिकरण द्वारा खुले बाजार में प्रतिभूितयों की खरीद आरै बिक्री को खुले बाजार के संचालन के रूप में जाना जाता है. अर्थव्यवस्था में साख को कम करने के लिए, केंद्रीय बकैं खुले बाजार में प्रतिभूतियां बेचता है. इससे कुल मांग में गिरावट और कीमत स्तर में कमी आती है. जब साख का विस्तार करना होता है, तो खुले बाजार में केंद्रीय बैंक द्वारा प्रतिभूतियों की खरीद की जाती है. इससे अर्थव्यवस्था में सकल मांग और उत्पादन स्तर में वृद्धि होती है.
घ) नकद आरक्षित अनुपात की नीति – कुल परिसंपत्तियों का एक निश्चित अंश हमेशा बैंकों द्वारा नकदी के रूप में आंशिक रूप से सांविधिक आरक्षित आवश्यकताओं का पालन करने के लिए और आंशिक रूप से दिन-प्रतिदिन नकद भुगतानों को पूरा करने के लिए रखा जाता है.
नकद को ‘हाथ में नगदी’ के रूप में और ‘केंद्रीय बैंक के साथ नकद शेष’ के रूप में आयोजित किया जाता है. इन्हें बैंकों के नकदी भंडार के रूप में जाना जाता है, जिन्हें ‘आवश्यक भंडार’ (required reserves) और ‘अतिरिक्त भंडार’ (excess reserves) के रूप में वगÊकृत किया जाता है.
केंद्रीय बैंक के साथ नकदी संतुलन रखने के लिए बैंकों को वैधानिक रूप से आवश्यक है. भारत में, RBI के पास वैधानिक रूप से नकद आरक्षित अनुपात (Cash Reserve Ratio – CRR) लगाने की शक्ति है, जो कि शुद्ध माँग और समय देनदारियों के 3-15 प्रतिशत के बीच कहÈ भी हो सकती है. एक उच्च CRR का अर्थ प्रणाली में कम तरलता है. इस प्रकार जब केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में तरलता बढा़ने की योजना बनाता है, तो यह CRR और इसके विपरीत घट जाती है.
नकद आरक्षित अनुपात देशों में भिन्न होता है. उदाहरण के लिए, 2019 में, यह ब्राजील में 45 प्रतिशत और यूरोपीय संघ में 1 प्रतिशत से कम है. भारत में, अप्रैल 2019 तक, CRR 4 प्रतिशत था. इसके अलावा, आर्थिक वातावरण के आधार पर, CRR उसी देश के लिए समय के साथ बदलता रहता है.
बैंक आवश्यक भंडार के अलावा, अतिरिक्त भंडार भी रखते हैं. ये आवश्यक भंडार से अधिक में आयोजित किए जाते हैं. इन अतिरिक्त भंडारों का उपयोग मुद्रा निकासी के लिए किया जाता है, अर्थात, जमाकर्ताओं द्वारा मुद्रा की शुद्ध निकासी, और चेक भुगतान करने के लिए किया जाता हैं अतिरिक्त भंडार का बड़ा हिस्सा नकदी के रूप में हाथ में रखा जाता है, शेष छोटे हिस्से को RBI के साथ अतिरिक्त शेष के रूप में रखा जाता है.
रिजर्व आवश्यकताओं को अलग करके, आरबीआई सीआरआर का उपयोग मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करने के उपकरण के रूप में करता है. जब सीआरआर में वृद्धि किया जाता है, तो बैंक आरबीआई के पास बड़ा कैश बैलेंस रखते हैं. चूँकि भंडार ‘H* या उच्च शक्ति वाले मुद्रा का एक हिस्सा है, इसका अनिवार्य रूप से मतलब है कि भ् का एक हिस्सा जनता से हटाए गए अतिरिक्त भंडार की मात्रा के बराबर है.
दूसरी ओर, सीआरआर की मात्रा घटकर एच में आभासी वृद्धि हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप मुद्रा की आपूर्ति में वृद्धि होती है. इस तरीके से, सीआरआर मौद्रिक नियंत्रण के सामुद्रा के रूप में कार्य करता है. मुद्रास्फीति के मामले में, सीआरआर बढ़ जाता है, इस प्रकार बैंकों की ऋण देने की क्षमता कम हो जाती है. वैकल्पिक रूप से, सीआरआर को कम करने से बैंकों द्वारा ऋण का विस्तार बढ़ता है.
ड) वैधानिक तरलता अनुपात – सीआरआर के अलावा, बैंकों को वैधानिक तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio . SLR) आवश्यकताओं को पूरा करना भी आवश्यक है. आरबीआई अधिनियम यह कहता है कि बैंकों को अपनी मांग और समय देनदारियों का एक निश्चित अंश तरल संपत्ति के रूप में अपनी तिजोरी में रखना आवश्यक है. इसे “वैधानिक तरलता अनुपात” (SLR) कहा जाता है.
तरल संपत्ति में नकदी, सोना और अनुमोदित प्रतिभूतियां (मुख्य रूप से सरकारी प्रतिभूतियां) शामिल हैं. बैंक सरकारी प्रतिभूतियों को पसंद करते हैं क्योंकि वे ब्याज आय अर्जित करती हैं. केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति पर नियत्रंण के लिऐस्त् का उपयोग करता है.
2. गुणात्मक उपस्कर
गुणात्मक उपस्कर से अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन आवश्यक नहीं होता. ये पॉलिसी नीति सामुद्रा के विभिन्न उपयोगों के बीच भेदभाव करने के लिए उपयोग किए जाते हैं.
इस प्रकार इन उपस्करों का उपयोग विशिष्ट उद्देश्यों के लिए ऋण को विनियमित करने के लिए किया जाता है. कुछ उपस्कर इस प्रकार हैं:
क) चयनात्मक साख नियंत्रण – चयनात्मक साख नियंत्रण केंद्रीय बैंकों द्वारा साख नियंत्रण की गुणात्मक विधि से संबंधित है. केंद्रीय बैंक प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में ऋण को प्रवाहित करने के लिए कदम उठा सकता है. इसी तरह, यह कुछ क्षेत्रों के लिए साख पर प्रतिबंधात्मक उपाय लागू कर सकता है.
भारत में, इस तरह के नियंत्रणों का इस्तेमाल खाद्यान्न जैसी आवश्यक वस्तुओं की सट्टा/जमाखोरी को रोकने के लिए किया गया है ताकि उनकी कीमत नियंत्रित रहे. जब ऐसे भडं ारों को खरीदने और रखने के लिए ऋण प्रवाह प्रतिबंधित होता है, तो व्यापारी इन वस्तुओं की बाजार आपूर्ति बढा़ ते हैं और उनकी कीमतें उतनी नहीं बढत़ ी हैं. इसलिए, चयनात्मक ऋण नियंत्रण मुद्रास्फीति को कम करने में मदद करता है. आपको भारतीय मामले में चयनात्मक ऋण नियत्रं ण के कई उदाहरण मिलेंगे. कृषि क्षेत्र आरै लघु उद्योगों के लिए ऋण सुलमता चयनात्मक ऋण नियंत्रण के उदाहरण हैं.
ख) अंतर आवश्यकताएँ – अंतर ऋण राशि के उस हिस्से को संदर्भित करता है जो बैंक वित्त नहीं करता है. उदाहरण के लिए, यदि आप घर खरीदने के लिए ऋण देने के लिए बैंक से संपर्क करते हैं, तो बैंक पूरी राशि के लिए ऋण प्रदान नहीं करेगा – यह खरीद कीमत के लगभग 80 से 85 प्रतिशत के लिए ऋण प्रदान कर सकता है.
उपरोक्त का एक निहितार्थ यह है कि खरीद कीमत का 15 से 20 प्रतिशत स्वयं के मुद्रा से वित्तपोषित किया जाना चाहिए. ऋण पर एक उच्च अंतर उधार लेने को हतोत्साहित करता है. अंतर आवश्यकताओं को बदलकर, केंद्रीय बैंक कुछ क्षेत्रों में साख प्रवाह को प्रोत्साहित कर सकता है जबकि इसे दूसरों के लिए सीमित कर सकता है. उदाहरण के लिए, कुछ क्षेत्रों को प्राथमिकता देने के लिए सरकार अंतर आवश्यकताओं को कम कर सकती है.
ग) साख राशनिगं मौद्रिक नीति – कुछ क्षेत्रों के लिए ऋण को सीमित करने के लिए, केंद्रीय बैंक उस राशि पर कुछ सीमा लगाकर राशन साख कर सकता है जो बैंक विशेष क्षेत्र या समाज के अनुभाग को उधार दे सकता है. साख के नियंत्रण के माध्यम से, केंद्रीय बैंक निम्नलिखित कार्य कर सकता है:
यह किसी विशेष वाणिज्यिक बैंक को ऋण देना अस्वीकार कर सकता है
यह वाणिज्यिक बैंकों को कृषि या छोटे पैमाने के उद्यमों जैसे प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के लिए निश्चित प्रतिशत साख का विस्तार करने के लिए कह सकता है.
घ) नैतिक सुझाव – केंद्रीय बैंक अन्य बैंकों को चर्चा, पत्र और भाषणों के माध्यम से अपनी नीति के अनुपालन के लिए राजी करता है. इसे नैतिक सुझाव के रूप में जाना जाता है. नैतिक सुझावों को गुणात्मक और परिमाणात्मक ऋण नियंत्रण दोनों के लिए नियोजित किया जा सकता है. RBI सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में बैंकों से अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा रखने का आग्रह कर सकता है. यह मुद्रास्फीति की अवधि के दौरान अत्यधिक उधार लेने से बैंकों को हतोत्साहित कर सकता है. ये उपाय मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करने में मदद करते हैं. बैंक ऋण के वितरण को नियंत्रित करने के लिए भी नैतिक सुझावों का उपयोग किया जाता है.
च) प्रत्यक्ष कार्रवाई – कभी-कभी, RBI सीधे ऐसे बैंक के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है जो उसके निर्देशों का पालन नहीं कर रहा है और व्यापक मौद्रिक नीति लक्ष्यों का उल्लंघन कर रहा हो है. उदाहरण के लिए, RBI ऐसे बैंकों को पुनर्खरीद की सुविधाओं से इंकार कर सकता है या वह बैंक दर से अधिक और दंड दर वसूल सकता है.
केंद्रीय बैंक मौद्रिक नियंत्रण के लिए विभिन्न उपकरणों के मिश्रण का उपयोग करते हैं. बैंक दर, आरक्षित आवश्यकताएं, खुले बाजार संचालन और चयनात्मक साख नियंत्रण उपायों को एक साथ अपनाया जाना चाहिए.