किसी समय वामपंथियों का गढ़ माने जाने वाला पश्चिम बंगाल दशकों से राजनैतिक व सामाजिक हिंसा के लिए कुख्यात रहा हैं. 22 मार्च 2022 में बीरभूम जिले में हुई हिंसा, जिसे बीरभूम नरसंहार भी कहा जाता है, ने राज्य के हिंसक इतिहास को एकबार फिर से ताजा कर दिया था. यह नरसंहार तृणमूल के उपप्रमुख भादु शेख की मृत्यु के बाद रामपुरहाट, बीरभूम, भारत के बक्तई (बगटुई, बोगटुई) गाँव में हुआ था. भादू शेख के ह्त्या का बदला के लिए किये गए हमले में कम से कम चार घरों में आग लगा दी गई. इस आग में 10 लोगों की मौत आग के चपेट में आने से हो गई.
दरअसल, रामपुरहाट नंबर-1 पंचायत समिति के बड़साल ग्राम पंचायत के उप-प्रधान और टीएमसी नेता भादू शेख की कुछ अज्ञात लोगों ने हत्या कर दी थी. उसके बाद कुछ लोगों ने कई घरों में आग लगा दी और इस हमले की वजह से 10 लोगों की जलने से मौत हो गई.
बिहार के बाद सबसे अधिक राजनैतिक हत्या (Most Political Murders after Bihar in Hindi)
चुनाव के वक्त पश्चिम बंगाल में हिंसा आम बात हैं. अगर तीन साल (2018-2020) के आंकड़े (NCRB) देखें जाए तो बिहार के बाद बंगाल में सबसे ज्यादा राजनीतिक हत्याएं हुई हैं. इन तीन साल में बिहार में जहां 31 लोगों की राजनैतिक ह्त्या की गई, वहीं पश्चिम बंगाल में 27 लोगों को अपना जान गंवाना पड़ा.
कुछ ताजा हिंसाएं (Some recent incidents)
- नवंबर 2020 को बंगाल बीजेपी ने आरोप लगाया था कि पिछले दो साल में 120 से अधिक बीजेपी कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई हैं.
- बीरभूमि जिले में ही जुलाई 2000 में सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के संघर्ष में 11 लोगों की मौत हो गई थी.
- इसी तरह साल 2007 में नंदीग्राम में सीपीएम और टीएमसी समर्थकों के संघर्ष में 10 लोग मारे गए थे.
- इसके अलावा साल 1997 में सीपीएम की सरकार में तत्तकाली गृहमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य ने विधानसभा मे जानकारी दी थी कि साल 1977 से 1996 तक पश्चिम बंगाल में 28,000 लोग राजनीतिक हिंसा में मारे गए.
स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही पश्चिम बंगाल हिंसा के लंबे दौर का गवाह रहा है. नवाब सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों को विदेशी के रूप में परिभाषित किया व उन्हें खदेड़ने के लिए युद्ध का सहारा लिया. बंगाल में राजनैतिक हिंसा का बीजारोपण इसी युद्ध को माना जाता है.
इसके बाद बंगाल में राजनीतिक हिंसा एक विरासत बन गई है. विश्लेषकों का मानना है कि हिंसा की औपचारिक शुरुआत स्वतंत्रता-पूर्व राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, ख़ासकर 1905 में अंग्रेजों द्वारा बंगाल विभाजन के फैसले के परिणामस्वरूप लोगों की प्रतिक्रिया से हुई.
बंगभंग आंदोलन, 1905 (Partition Movement, 1905)
1905 में 16 अक्टूबर को भारत के तत्कालीन वॉयसराय लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया. इसके प्रतिक्रिया में पुरे देश में आंदोलन हुआ व बंगाल में कई जगह हिंसा हुई. लोगों में भावनाओं का उफान इतना अधिक था कि पश्चिम बंगाल के नए राज्यपाल की हत्या का प्रयास भी किया गया.
इस विभाजन के कारण 20वीं सदी की शुरुआत में राज्य में एक क्रांतिकारी आंदोलन का जन्म हुआ. अनुशीलन समिति और जुगांतर जैसी गुप्त संस्थाओं ने औपनिवेशिक शासकों के ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोह शुरू किया. राज्य में सांप्रदायिक दंगे भी हुए, जैसे कि 1946 का कलकत्ता दंगा, और 1946-1947 का तेभागा आंदोलन, जो एक हिंसक किसान विद्रोह था.
तेभागा आंदोलन (Tebhaga Movement in Hindi)
पश्चिम बंगाल के दिनाजपुर में शुरू हुआ ये आंदोलन धीरे-धीरे पुरे राज्य में फ़ैल गया व हिंसक बन गया. 1946-48 में बटाईदार किसानों ने उपज का दो-तिहाई हिस्सा दिए जाने की मांग मालिक किसानों से की. समय बीतने के साथ ही बटाईदारों और जमीन मालिकों के बीच खूनी टकराव होने लगा. कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस ने भी हिंसक कार्रवाई की और कई लोगों को गिरफ्तार किया गया.
इस आंदोलन से कम्युनिस्टों को भूमिहीन किसानों (बटाईदारों) के बीच अपनी पैठ बनाने में मदद मिली. बाद में इसकी परिणीति कम्मुनिस्टों के सत्ता-प्राप्ति के रूप में सामने आई.
एक पैसा आंदोलन: स्वतंत्रता के बाद, 1953 में कोलकाता के ट्राम सेवा का किराया एक पैसा बढ़ा दिया गया. इस फैसले के विरोध में हिंसा भड़क उठी व शहर में दंगे भड़क गए. सार्वजनिक संपत्तियों को नष्ट किया गया, ट्राम जलाए गए, पटरियां उखाड़ दी गईं, बम फेंके गए, पत्थरबाजी हुई. प्रतिक्रिया में पुलिस ने गोलियां चलाईं और कई लोग मारे गए. पुलिस ने 4,000 लोगों को गिरफ्तार भी किया था.
इन दंगों में अधिकांश बेरोजगार छात्रों ने भाग लिया था. सत्तारूढ़ कांग्रेस इस आंदोलन से जहाँ कमजोर हुई, वहीँ कम्युनिस्ट पार्टी ने गरीब तबकों में अपना पैठ बना लिया.
नक्सल विद्रोह: 1967 में नक्सलबाड़ी विद्रोह हुआ, जो राज्य प्रशासन को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसावादी कम्युनिस्ट समर्थकों द्वारा किया गया एक प्रयास था. इसमें विद्रोहियों द्वारा की गई हिंसा और पुलिस द्वारा अपनाई गई दमनात्मक कार्रवाईयों के कारण कई लोगों की जानें गईं. माओ-त्से-तुंग के विचार “सत्ता बंदूक की नली से निकलती है” से ये आंदोलनकारी प्रभावित थे.
भारत विभाजन (Partition of India)
विभाजन के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे पर बंगाल में भारी हिंसा होती रही है. साल 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है.
नोआखाली दंगों की कहानी (Noakhali Riots)
जब भारत देश आजाद होने के जश्न की तैयारी कर रहा था, उस वक्त दूसरी ओर भारत का एक हिस्सा हिंदू-मुस्लिम दंगों से जूझ रहा था. ये दंगे ऐसे थे कि सड़कें सुनी और लाल हो गई थी. चारों तरफ खौंफ का माहौल था. दरअसल ये कहानी हैं नोआखाली दंगों की… जब बंगाल की सड़कें खून से लाल हो गई थीं.
72 घंटे में 6 हजार लोगों की जान चली गईं. 20 हजार से अधिक घायल हो गए थे. 1 लाख से अधिक बेघर हो गए थे. इसे ग्रेट कलकत्ता किलिंग भी कहा जाता है. इसी दंगे के वजह से जब देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ तो महात्मा गांधी आजादी के जश्न में शरीक नहीं हो पाए थे. वे उस वक्त इलाके में दंगों को शांत करवाने में जुटे हुए थे.
क्यों भड़का था दंगा?
इसका कारण भारत-पाकिस्तान विभाजन था. मोहम्मद अली जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन’ डे की घोषणा कर दी. इसके बाद दंगे भड़कने शुरू हो गए. इन दंगों में हिन्दू और इस्लाम धर्म के कट्टरपंथियों ने हिस्सा लिया. इनके कतलेवाम से सामान्य जनता को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा. विनाश के भयावहता के कारण इसे सुनियोजित भी कहा जाता है. महिलाओं पर इस दौरान अत्याचार आम हो गए, जिसे दंगाइयों ने अंजाम दिया था.
गांधी पहुंचे और रुक गई हिंसा
इन दंगो के बाद, चार महीनों तक गांधी जी नोआखाली के गांवों का दौरा दिया. जेबी कृपलानी, सुचेता कृपलानी, डॉक्टर राममनोहर लोहिया और सरोजनी नायडू ने भी मदद की. कई तरह के उपाय अपनाकर हिंसा को समाप्त करने की कोशिश की गई. कुछ समय बाद हिंसा शांत हो गई थी.
कई परिवार जो इलाके से पलायन कर गए थे, शांति के बाद वापस लौट आए.
मारीचजापी हिंसा (Marichjhapi Violence in Hindi)
पश्चिम बंगाल के दलदली सुंदरबन डेल्टा में मारीचजापी नामक एक द्वीप पर लगभग बांग्लादेश से आए 40,000 शरणार्थी बेस हुए थे. मुख्य रूप से दलित समूह, महालेपन का एक छोटा सा हिस्सा था, जिसमें उत्पीड़ित हिंदुओं का एक समूह भारत में आ गया था और बांग्लादेश के गठन के बाद से विभिन्न स्थानों पर बस गया था.
कम्युनिस्टों ने पश्चिम बंगाल में अपने राजनीतिक इलाके की वकालत और मजबूती की, सत्ता में आने के बाद, इन दलित शरणार्थियों के प्रति वाम सरकार का रवैया लापरवाही से क्रूरता की ओर चला गया. शरणार्थियों को पश्चिम बंगाल आने से रोका गया.
इसी क्रम में वन कानूनों का हवाला देते हुए मारीचजपी में बसे शरणाथी दलितों को भगाने का दुष्चक्र हुआ. 26 जनवरी को मारीचजपी में धारा 144 लगाई गई थी. तब द्वीप एक सौ मोटरबोट से घिरा हुआ था. दवा और खाद्यान्न सहित सभी वस्तुओं की आपूर्ति बाधित कर दी गई. पांच दिन बाद, 31 जनवरी, 1979 को, पुलिस ने शरणार्थियों की निर्मम हत्या कर दी.
चूंकि लगभग 30,000 शरणार्थी अभी भी मारीचजपी में रह रहे थे, इसलिए मई में भारी पुलिस टीम उन्हें डराने के लिए फिर से आई. करीब तीन दिन तक हिंसा का नंगा नाच हुआ. सरकारी आंकड़ों में सिर्फ दो मौतों को दर्शाया गया हैं, वहीं अन्य स्त्रोत एक हजार से अधिक लोगों की ह्त्या का आंकड़ा देते हैं.
दीप हलधर ने अपनी किताब ‘ब्लड आईलैंड’ में इस घटना का बहुत ही दर्दनाक ब्योरा दिया है. हिंसा के बाद शेष शरणार्थियों को जबरन ट्रकों में लाद कर दुधकुंडी कैंप भेज दिया गया. बासुदेव भट्टाचार्य सभा में पहुंचे और विजयघोषा ने घोषणा की कि “मारीचजापी को शरणार्थियों से मुक्त कर दिया गया है.” वे बाद में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने.
ऐसे कई और नए अध्याय जुड़े (Many more such new chapters added)
दरअसल, साठ के दशक में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा को एक नया आयाम दिया था. किसानों के शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने उस दौरान पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं.
1971 में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक हत्याओं का एक खौंफनाक दौड़ शुरू हो गया. सत्ता में पकड़ बनाए रखने के नियत से शुरू की गई हिंसक आंदोलन ही सिद्धार्थ शंकर रे के सरकार के पतन का कारण बनी. इसके बाद सीपीएम द्वारा वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा होती रही है.
आंकड़ें नहीं होते दर्ज, पुलिस भी नाकाम (Data is not recorded, police also failed)
बंगाल में पुलिस और पार्टी में फर्क काफी पहले मिट गया था. वाम मोर्चे के समय ही. पुलिस थाने पार्टी की मर्जी से चलते थे. ऐसे पुलिस अधिकारियों के उदाहरण दुर्लभ हैं जिन्होंने पार्टी से स्वतंत्र अपना दायित्व निभाया हो. ऐसा 2002 में गुजरात दंगों में भी नहीं हुआ था. वहां ऐसे अधिकारी थे, जिन्होंने संवैधानिक कर्तव्य का निर्वाह किया. कीमत भले चुकानी पड़ी उसकी. बंगाल में जो पुलिस पहले सीपीएम की थी, वह अब तृणमूल की है.
ऐसा आरोप भी लगता हैं कि ढेरों घटनाएं ऐसी हैं जो कभी दर्ज ही नहीं हुईं. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, लोकसभा चुनाव 2014 के विभिन्न चरणों में दौरान 15 राजनीतिक हत्याएं हुईं. प्रदेश भर में राजनीतिक हिंसा की 1100 घटनाएं पुलिस ने दर्ज की. गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2013 से लेकर मई 2014 के काल में पश्चिम बंगाल में 23 से अधिक राजनीतिक हत्याएं वहां पर हुईं.
आंकड़ों मुताबिक साल 2016 में बंगाल में राजनीतिक कारणों से 91 घटनाएं हुईं, जिसमें 205 लोगों की मौत हुई थी. साल 2015 में कुल 131 वारदात हुई थी, जिसमें 184 लोगों की मौत हुई थी. ममता बनर्जी के सत्ता संभालने के दो साल बाद 2013 में भी बंगाल में राजनीतिक वजहों से 26 लोगों की हत्या हुई थी और ये हिंसा देश के किसी भी राज्य से कहीं ज्यादा थी. जब 2018 में सिर्फ और सिर्फ पंचायत के चुनाव हुए तो एक दिन में 18 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
पश्चिम बंगाल में 2018 पंचायत चुनावों के दौरान हुई व्यापक हिंसा को लेकर बीजेपी ने दावा किया था कि चुनाव के दौरान पार्टी के 52 कार्यकर्ताओं की हत्या टीएमसी ने कराई जबकि टीएमसी ने दावा किया था कि उसके 14 कार्यकर्ता मारे गए थे.
फिलहाल राज्य में तृणमूल की सरकार हैं. जो कांग्रेस और वामदलों के राजनैतिक हिंसा के विरासत को आगे बढ़ाते दिख रही हैं.
हिंसा के कारण (Reasons of Violence)
पश्चिम बंगाल विभाजन, सामाजिक असमानता और वर्चस्व की लड़ाई से पनपी हिंसा से कई दशक बीतने के बाद भी समाप्त नहीं कर पा रहा है. हिंसा किसी खानदानी झगड़े की तरह एक पीढ़ी से दूसरी और दूसरी से तीसरी या फिर एक दल से दूसरे दल में विरासत की तरह पल रही है.
पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ दल को जब भी किसी विपक्षी पार्टी से कड़ी चुनौती मिलती है तो हिंसा की घटनाएं तेज हो जाती हैं. यह सिलसिला वाममोर्चा और उससे पहले कांग्रेस की सरकार के दौर में जारी रहा है. इसी कड़ी में अब तृणमूल कांग्रेस को बीजेपी की तरफ से मिलने रही चुनौती और वर्चस्व की लड़ाई के कारण हिंसा की घटनाएं हो रही हैं.
राजनीतिक हिंसा का दौर (Political Violence Era)
लेफ्ट के सत्ता में आने के बाद कोई एक दशक तक राजनीतिक हिंसा का दौर चलता रहा था. बाद में विपक्षी कांग्रेस के कमजोर पड़ने की वजह से टकराव धीरे-धीरे कम हो गया था. लेकिन वर्ष 1998 में ममता बनर्जी की ओर से तृणमूल कांग्रेस के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया. उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई. उसके बाद राज्य के विभिन्न इलाकों में जमीन अधिग्रहण समेत विभिन्न मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों और माओवादियों की बढ़ती सक्रियता की वजह से भी हिंसा को बढ़ावा मिला.
पहले ममता के मजबूत होने की वजह से जो हालात पैदा हुए थे वही हालात अब बीते पांच वर्षों में बंगाल में बीजेपी की मजबूती की वजह से बने हैं. अब कांग्रेस और सीपीएम के राजनीति के हाशिए पर पहुंचने की वजह से वो तो इससे थोड़े अलग हैं लेकिन तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच वर्चस्व की बढ़ती लड़ाई राजनीतिक हिंसा की आग में लगातार घी डाल रही है.
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की प्रकृति और शक्ति संबंधों को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि यह अन्य राज्यों की तुलना में थोड़ा अलग है. इसका वजह इसकी प्रकृति राजनैतिक से अधिक आर्थिक व राजनैतिक होना हैं. बंगाल की ये ‘विशिष्टता’ निम्नलिखित कारणों पर आधारित है:
1) दलगत हित
मुख्य तौर पर बंगाल में होने वाली हिंसक घटनाएं दलगत हितों से प्रेरित हैं. यह राज्य की सत्ता पर कब्ज़ा जमाने और विरोधियों पर पूर्ण राजनीतिक अधिपत्य स्थापित करने के मकसद से अंजाम दी जाती हैं. जीतने लंबे समय से यह संस्कृति कायम रही है. उसकी मिसाल भारत में कहीं और नहीं मिलती. इसकी शुरुआत आज़ादी से पहले से हुई और तब से लेकर अब तक पिछले सात दशकों से यह संस्कृति अस्तित्व में है.
दरअसल, सत्तर के दशक में वामदलों की सरकार ने कई सुधारात्मक कदम उठाएं. जहाँ कांग्रेस को जमींदारों का समर्थन था, वहीं वामदलों को छोटे किसान व मजदूरों का व्यापक समर्थन हासिल था. काफी मजदूर व किसान भी कांग्रेस के समर्थक थे.
कैडर आधारित क्लब सिस्टम
हालाँकि वाम मोर्चा की कोशिश अपने समर्थन को अधिक से अधिक फायदा पहुंचाने की थी. इसके लिए उन्होंने ग्राम स्तर पर कैडर आधारित क्लब सिस्टम की शुरुआत की. ये क्लब इतने मजबूत हो गए की कोई भी काम, चाहे वह सरकारी हो निजी, इनके अनुमति के बिना नहीं किया जा सकता था. मतलब सरकारी से लेकर निजी संस्थानों तक, इन क्लबों का कब्जा था.
विरोधी इन क्लबों के आर्थिक व राजनैतिक कलबों के ताकत से काफी परिचित थे. इसलिए इनकी कोशिश ये रहीं की किसी तरह इन क्लबों पर कब्जा किया जाएं, जो राजनैतिक सत्ता प्राप्ति के बिना संभव न था. इस वर्चस्व की जंग ने राज्य में हिंसा का माहौल तैयार करने का काम किया.
फिलहाल राज्य में तृणमूल की सरकार हैं, लेकिन राज्य में अब भी क्लब सिस्टम कायम हैं. सिर्फ सीपीएम के कैडर का स्थान तृणमूल के कार्यकर्ताओं ने ले लिए हैं.
2) विचारधारा (Ideology)
हिंसा की वैचारिकी के संदर्भ में यह अन्य राज्यों से बिल्कुल अलग है. केरल में, आरएसएस या बीजेपी और वामपंथ के बीच राजनीतिक संघर्ष बड़े पैमाने पर राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित है. राज्य में भाजपा का प्रभाव काफी सीमित होने के बावजूद यह कई दशकों से जारी है. जबकि पश्चिम बंगाल में हालात इसके ठीक उलट हैं.
इस राज्य में, विचारधारा के स्तर पर गतिशीलता दिखाई देती है, क्योंकि सीपीआई(एम) का एक बहुत बड़ा धड़ा टीएमसी और अंत में बीजेपी में शामिल हुआ है. यहां तक कि टीएमसी के बड़े नेताओं का बीजेपी में जाना, और हाल ही में बीजेपी नेताओं का टीएमसी में शामिल होना, बंगाल की राजनीति की वैचारिक गतिशीलता को प्रकट करता है.
3) सामाजिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रह (Social-Cultural Prejudice)
यूपी, बिहार, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में स्थानीय सामाजिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों और सांप्रदायिक तनावों के कारण राजनीतिक हिंसा होती है. जबकि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति ने जन्म लिया है, जिसके आगे सामाजिक-सांस्कृतिक, वैचारिक और आर्थिक कारक जैसे मुद्दे द्वितीयक रह जाते हैं.
राजनीतिक हिंसा की संस्कृति राजनीतिक दल के प्रति निष्ठा या वैमनस्यता से संचालित होती है. इस प्रकार की हिंसा बंगाल को अन्य राज्यों से अलग कतार में लाकर खड़ा कर देती है.
4) राजनीतिक संस्कृति (Political Culture)
राजनीतिक हिंसा राज्य की राजनीतिक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं. यह अब केवल चुनावी खींचतान और दबावों तक सीमित नहीं है. जबकि अन्य राज्यों में हिंसा की छिटपुट या फिर किसी विशेष समयावधि के दौरान वारदातें होती हैं; वहीं पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की प्रकृति ‘रोजम़र्रा’ होने वाली हिंसक वारदातों की है. राजनीतिक दल और समाज का गठजोड़ ऐसी हिंसा का वातावरण तैयार करता है; जिसका प्रमाण राज्य में रोजाना घटती हिंसक वारदातें हैं.
रोजम़र्रा की हिंसक गतिविधियों को व्यवस्थित ढंग से अंजाम दिया जाता है, जिसमें राज्य संस्थानों की मौन सहभागिता और राजनीतिक संगठनों की सक्रिय भागीदारी होती है. राज्य में रोजम़र्रा की हिंसक गतिविधियां और सत्तारूढ़ दल का विरोध करने वालों का व्यवस्थित बहिष्कार पश्चिम बंगाल को जोहान गाल्टुंग द्वारा प्रतिपादित किए गए ‘संरचनात्मक हिंसा’ के विमर्श के उदाहरण के तौर पर सामने रखता है.
5) राजनीतिक दल (Political Parties)
राजनीतिक दल अक्सर दूसरे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं पर हमला करने और डराने के लिए बेरोज़गार युवाओं का इस्तेमाल करते हैं. अपनी सुरक्षा और भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए राजनीतिक दलों के ग्रामीण कार्यकर्ताओं को प्रतिद्वंदी दल के कार्यकर्ता को दबाना पड़ता है, जिसके लिए वे अक्सर हिंसा का सहारा लेते हैं.
इसलिए बंगाल में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति को असाधारण कहा जा सकता है. राज्य में हिंसा के स्वरूप और उसकी तीव्रता की पूरे भारत में दूसरी कोई मिसाल दिखाई नहीं देती. इस तरह की स्थानिक हिंसा का राज्य की अर्थव्यवस्था, समावेशिता और संसाधनों के पुनर्वितरण से जुड़ी नीतियों, शासन प्रणालियों और कानून के शासन पर व्यापक रूप से प्रभाव दिखाई पड़ता है. संसाधनों का असमान वितरण इन आन्दोलनों का एक बड़ा कारण माना जाता हैं.
राजनीतिक हिंसा के इस सर्वव्यापी और व्यवस्थात्मक स्वरूप ने राजनीतिक भागीदारी और राजनीतिक समानता जैसी लोकतांत्रिक गतिविधियों के आगे बाधाएं खड़ी की हैं. बंगाल में राजनीतिक हिंसा के मौजूदा स्तर और उसके स्वरूप में सुधार लाने के लिए संस्थागत सुरक्षा उपायों, कानूनी सुरक्षा, चुनावी व्यवहार और राजनीतिक संस्कृति में किस तरह के बदलावों की आवश्यकता है, इस पर बहस की ज़रूरत है.
दिलचस्प बात यह है कि हिंसा के लिए तमाम दल अपनी कमीज को दूसरों से सफेद बताते हुए उसे कठघरे में खड़ा करते रहे हैं. इस मामले में मौजूदा मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी भी अपवाद नहीं हैं. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बंगाल में सत्ता का रास्ता ग्रामीण इलाकों से ही निकलता है. ऐसे में जमीनी पकड़ बनाए रखने के लिए असामाजिक तत्वों को संरक्षण देना राजनीतिक नेतृत्व की मजबूरी है. जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर कोई भी राजनीतिक पार्टी इस मामले में पीछे नहीं है.