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टीपू सुल्तान: ‘मैसूर के शेर’ का जीवनी

    उत्तर भारत के अनेक स्वतंत्रता सेनानियों का नाम आपने सुना होगा. लेकिन, दक्षिण में काफी कम ऐसे व्यक्तित्व हुए है, जिन्होंने आजादी के आंदोलन में अपना छाप छोड़ा हो. टीपू सुल्तान, दक्षिण भारत के एक ऐसे ही महान शख्सियत है. इनका पूरा नाम “सुल्तान फतेह अली साहब टीपू” था. टीपू सुल्तान के वीरता के कारण; उन्हें “मैसूर का शेर” के उपनाम से सम्बोधित किया जाता है. वे दक्षिण भारतीय राज्य मैसूर रियासत के शासक थे.

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    जन्म और पालन-पोषण (Birth and Upbringing in Hindi)

    टीपू सुल्तान का जन्म 1 दिसंबर 1751 को देवनहल्ली नामक गांव में हुआ था. यह स्थान कर्नाटक की राजधानी बंगलौर से 33 किलोमीटर उत्तर में ग्रामीण इलाके में स्थित है. टीपू सुल्तान का जन्मतिथि हाल ही में हुए अनुसन्धान के बाद पुनर्निर्धारित किया गया है. इससे पहले इनका जन्मदिन 20 नवंबर 1750 माना जाता था.

    इनका नामकरण अरकोट के संत टीपू मस्तान औलिया के नाम पर किया गया था. टीपू सुल्तान के पिता हैदर अली मैसूर के शासक थे. टीपू सुल्तान के मां का नाम फातिमा फखर-उन-निसा था. टीपू सुल्तान की मां कडपा के किले के गवर्नर मीर मुइन-उद-दीन की बेटी थी. आगे चलकर टीपू सुल्तान को उत्तराधिकार में मैसूर की गद्दी मिली.

    अशिक्षित हैदर अली शिक्षा के महत्व से भलीभांति वाकिफ थे. इसलिए उन्होंने अपने बड़े बेटे टीपू सुल्तान को उस वक्त की सबसे बेहतरीन शिक्षा दिलवाई. टीपू सुल्तान ने किशोरावस्था के आते-आते कई भाषाओं, युद्ध-कलाओं, धार्मिक व महत्वपूर्ण विषयों पर पकड़ बना ली.

    अरबी, उर्दू, फारसी और कन्नड़ भाषाओं के साथ; कुरान, इस्लामी न्यायशास्त्र, शूटिंग, तलवारबाजी और घुड़सवारी में टीपू सुल्तान ने महारत हाशिल किया. टीपू सुल्तान को सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए फ़्रांसिसी शिक्षकों को भी नियुक्त किया गया था.

    हैदर अली अपने बेटे को व्यावहारिक शिक्षा भी देना चाहते थे. इसलिए, 17 साल की उम्र में, टीपू सुल्तान को महत्वपूर्ण राजनयिक और सैन्य मिशनों का स्वतंत्र प्रभार दिया गया था. टीपू सुल्तान ने अपने पिता के दाहिने हाथ की भाँती साथ दिया. इस वजह से हैदर अली दक्षिण भारत के महत्वपूर्ण शासक बन पाएं. दक्षिण भारत के कई छोटे राज्यों को जीतने व दूसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इस वक्त तक हैदर अली ही राज्य के शासक थे.

    टीपू सुल्तान का राज्यारोहण (Access to the throne of Tipu Sultan in Hindi)

    1782 में द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान हैदर अली की मृत्यु हो गई. इसके बाद टीपू सुल्तान मैसूर के नए शासक बने. 22 दिसंबर, 1782 को एक साधारण राज्याभिषेक समारोह में टीपू सुल्तान को ताज पहनाया गया.

    शुरुआत में टीपू सुल्तान ने अपने पिता के भांति, फ़्रांसिसी और मराठाओं से दोस्ती व अंग्रेजों से दुश्मनी, के निति का अनुसरण किया. टीपू सुल्तान ने मराठाओं व मुगलों के साथ मिलकर अंग्रेजों का सामना करने की निति अपनाया. लेकिन, जल्द ही टीपू सुल्तान ने मराठाओं से दोस्ती खत्म कर लिया. इसके कारण मराठा-मैसूर साम्राज्य के बीच कई लड़ाइयां हुई.

    टीपू सुल्तान के पिता का परिचय (Introduction to the father of tipu sultan in Hindi)

    Father Haidar Ali and Son Tipu Sultan of Mysore Kingdom in Hindi.
    हैदर अली (पिता) और टीपू सुल्तान (पुत्र) (बाएं से दाएं)

    हैदर अली के पूर्वज दिल्ली के मूलनिवासी थे. बाद में इनका परिवार दक्षिण की ओर पलायन कर गए. हैदर अली का जन्म 1721 में कर्नाटक के बुढीकोटा में हुआ था. हैदर के अल्पायु में ही 1728 में इनके पिता का देहांत हो गया. इस वजह से हैदर अली को कठिनाइयों से गुजरना पड़ा और वे अशिक्षित रह गए.

    इनके पिता फ़तेह मोहम्मद मैसूर की सेना में फौजदार थे. यह पैरवी हैदर अली के काम आयी और वे 1755 में डिंडीगुल के फौजदार (सैन्य कमांडर) बना दिए गए. यहाँ इन्होंने फ्रांसीसियों के सहायता से शस्त्रागार स्थापित किया व सैनिकों को पश्चिमी पद्धति से प्रशिक्षित करवाया.

    हैदर अली कैसे बने शासक (How Haider Ali became ruler in Hindi)

    मैसूर आधुनिक कर्नाटक के आसपास का इलाका है. यहाँ 1612 में, वोडेयारों ने एक हिंदू राज्य की स्थापना की. 1734 से 1766 तक चिक्का कृष्णराज वोडेयार द्वितीय ने शासन किया. लेकिन, वास्तविक शासन नंजराज और देवराज के हाथ में था.

    1759 के मराठा आक्रमण से हैदर अली ने मैसूर को बचाया. इससे खुश होकर नंदराज ने इन्हें मुख्य सेनापति बना दिया. नंदराज के साथ त्रिचीलापल्ली में अंग्रेजों की घेराबंदी से इन्हें काफी हथियार प्राप्त हुए. इससे हैदर अली के ताकत में काफी वृद्धि हुई.

    फिर, 1760 में हैदर अली ने नंदराज की हत्या कर दी व 1761 में मैसूर का वास्तविक शासक बन गए. इसके बाद अगले 40 वर्षों तक इनका व इनके बेटे टीपू सुल्तान का मैसूर पर आधिपत्य रहा. चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान के मौत के बाद यह साम्राज्य अंग्रेजों के अधीन आ गया.

    टीपू सुलतान के शासनात्मक कार्य और उपलब्धियां (Achievements and Reforms by Tipu Sultan in Hindi)

    अपने शासनकाल में टीपू सुलतान ने कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की. भले ही अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध व साम्राज्य विस्तार के लिए टीपू सुल्तान को जाना जाता है. लेकिन, तुलनात्मक रूप से इनका शासन-प्रणाली समकालीन इतिहास के दुनिया में करीब सबसे बढ़िया थी.

    द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के पश्चात्, टीपू सुलतान ने मराठाओं से संधि तोड़ दी. इसके बाद उसने दक्षिण के कई छोटे राज्यों को अपने अधीन कर लिया. यह अंततः टीपू के भारतीय राजाओं से दुश्मनी का कारण बनी.

    मैसूर राज्य को कृषि, व्यापर व सैन्य बल के आधार पर विकसित करने की कोशिश टीपू ने किया था. सूती कपड़ों के व्यापर से अंग्रेज भी चिंतित थे. बड़ी इलाइची, सुपारी, चन्दन, कालीमिर्च, सोने व चांदी का व्यापर सीधा राज्य के नियंत्रण में था. टीपू सुल्तान ने व्यापारिक बोर्ड का भी गठन किया था.

    लालबाग परियोजना, राज्य के विकास के लिए हैदर अली द्वारा बनाई गई एक महत्वपूर्ण योजना थी. टीपू सुल्तान ने इसे पूरा किया. कावेरी नदी पर बाँध बनाकर सिंचाई के लिए जल उपलब्ध करवाना भी टीपू सुल्तान की एक बड़ी उपलब्धि थी. इस बाँध को कन्नमबाड़ी बांध कहा गया. आज यहाँ राजा कृष्ण सागर बाँध बना हुआ है.

    टीपू सुल्तान को एक नैतिक प्रशासक माना जाता है. उसके शराब के सेवन और वेश्यावृत्ति पर पूरी तरह से रोक लगा दिया था. साइकेडेलिक्स (Psychedelics), जैसे कि गांजा व भांग (Cannibis) मादकों, का सेवन और खेती पर प्रतिबंध था.

    डॉडवेल के अनुसार, “टीपू सुल्तान पहला भारतीय शासक था जिसने पाश्चात्य शासन-प्रणाली को भारतियों पर लागु करने का प्रयास किया.”

    राज्य के किसानों को प्रोत्साहित किया जाता था और मेहनत करने वालों को इनाम भी दिया जाता था.

    आर्थिक उन्नति (Economic Growth of Mysore in Hindi)

    18वीं सदी के अंत तक टीपू सुल्तान के नेतृत्व में एक बड़ा आर्थिक ताकत बन गया. टीपू सुल्तान ने मैसूर की समृद्धि और राजस्व को बढ़ाने के लिए अपने पिता हैदर अली के साथ मिलकर कई महत्वाकांक्षी आर्थिक विकास कार्यक्रम शुरू किया. सुधार की कड़ी में, टीपू सुल्तान ने एक नई सिक्का प्रणाली और मौलूदी चंद्र-सौर कैलेंडर भी चलाया था.

    इन प्रयासों से राज्य के कृषि उपज में काफी वृद्धि हुई. कपड़ा निर्माण उद्योग का भी काफी विस्तार हुआ. इसके कारण राज्य के आय व राजस्व में काफी वृद्धि हुई. इससे मैसूर ने भारत के सबसे अमिर सूबा बंगाल को आर्थिक मामले में पीछे छोड़ दिया. बंगाल नदियों के जाल में बसा उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी वाला इलाका था. इसे पीछे छोड़ना वाकई एक बड़ी उपलब्धि थी.

    इस तरह, टीपू सुलतान के बदौलत, मैसूर दुनिया में सबसे अधिक वास्तविक आय और, ऊँचे जीवन-स्तर का राज्य बन गया. यह आर्थिक मामले में ब्रिटेन से भी अधिक उन्नत था. इस समय, मैसूर के लोगों की औसत आमदानी निर्वाह स्तर की तुलना में पाँच गुना थी.

    राज्य में एक नई भू-राजस्व प्रणाली विकसित की गई. इससे मैसूर रेशम उद्योग के विकास को मदद मिली. इस तरह उद्योगों और कृषि के विकास ने मैसूर के अर्थव्यवस्था में चार चाँद लगा दिए.

    सैन्य-व्यवस्था और राकेट का उपयोग (Military System and use of Rocket in Hindi)

    टीपू सुल्तान ने जल्द ही सभी दक्षिणी छोटे राज्यों को जीतकर मैसूर में मिला लिया. भारतीय शासकों में कुछेक के पास ही अंग्रेजों से लोहा लेने का दमखम था. इनमें टीपू सुल्तान और इनके पिता हैदर अली भी शामिल थे. यह सब सेना के आधुनिकीकरण और ;आधुनिक व नवीनतम हथियारों के प्रयोग से सम्भव हो पाया था. उस वक्त भी मैसूर के हथियारखाने में राकेट और तोप जैसे हथियार शामिल थे. रॉकेट जैसा हथियार उसवक्त ब्रिटिश सेना के पास भी नहीं थे.

    मैसूर में रॉकेट के उपयोग का विस्तार टीपू सुल्तान के पिता द्वारा किया गया था. उन्होंने स्वयं रॉकेट और उनके उपयोग, दोनों में महत्वपूर्ण नवाचार किए थे. अपनी सेना में, उन्होंने रॉकेट लांचरों को नियंत्रित करने के लिए 1,200 विशेष सैनिकों को तैनात किया. पहली बार तीसरे और फिर चौथे एंग्लो-मैसूर युद्धों के दौरान, इन रॉकेटों का इस्तेमाल किया गया.

    Tipu Sultan''s Khanjar
    टीपू सुलतान का खंजर

    इसके साथ ही बंदूकों का इस्तेमाल भी बड़े पैमाने पर मैसूर की सेना करती थी. इनके नौसेना में 40 युद्धपोत भी थे. इनमे आधे 62 और आधे 72 तोपों से लैस थी. इन्होंने मैंगलोर, वाजेदाबाद और मोलिदाबाद में तीन डॉकयार्ड स्थापित किये थे.

    तत्कालीन फ्रांसिस कमांडर-इन-चीफ नेपोलियन महान ने टीपू सुल्तान से अंग्रेजों के खिलाफ गठबंधन में फ़्रांस के साथ शामिल होने का अनुरोध किया था. इस गठबंधन के कारण मराठों, सिरा और मालाबार, कोडागु, बेदनोर, कर्नाटक और त्रावणकोर को जीतने में मैसूर को मदद मिली. इन लड़ाइयों में फ्राँसिसयों द्वारा प्रशिक्षित सेना का इस्तेमाल किया गया था. बाद में नेपोलियन फ़्रांस के सम्राट बने थे.

    आंग्ल-मैसूर युद्ध (Anglo-Mysore War in Hindi)

    टीपू सुल्तान और उनके पिता हैदर अली द्वारा चार युद्ध अंग्रेजों के खिलाफ लड़े गए थे. ये लड़ाइयां आंग्ल-मैसूर युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है. ये है-

    प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध, 1766-1769 (First Anglo-Mysore War in Hindi)

    हैदर अली की निकटता फ्रांसीसियों से थी. फ्रांसीसियों के सहायता से दक्षिण भारत के कई इलाकों को जीत लिया. इसलिए मैसूर व मालाबार के तटीय इलाकों में अंग्रेजों के राजनैतिक व व्यापारिक हित खतरे में पड़ गए. अंग्रेज इस इलाके को ललचाई नजर से देख रहे थे. बक्सर की लड़ाई में बंगाल के नवाब को हराने के बाद, अंग्रेजों ने दक्षिण में ध्यान देना शुरू किया. अंग्रेज भारत में विस्तार के लिए मैसूर को एक महत्वपूर्ण खतरा मान रहे थे.

    अंग्रेजों ने 1766 में मैसूर पर धावा बोल दिया. इस लड़ाई में शुरुआत में तो मराठा और निजाम ने हैदर अली का साथ दिया. 1967 में तिरुवन्नमलाई, संगम में निजाम और हैदर को अंग्रेज से हारना पड़ा. अंग्रजों के बढ़त को भांपकर निजाम ने पाला बदल लिया और 1768 में अंग्रेजों से जा मिले.

    इस लड़ाई के वक्त टीपू सुल्तान महज 15 साल के थे. शायद युद्ध को देखते हुए टीपू सुल्तान को भी कुछ महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गई. फिर, 1967 में ही टीपू सुल्तान ने कर्नाटिक लड़ाई जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हैदर ने भी मंगलौर पर आक्रमण कर बम्बई से आई, पश्चिमी तरीके से प्रशिक्षित, अंग्रेजी सेना को पराजित कर दिया. इसके बाद मामला करीब-करीब बराबरी का हो गया.

    यह लड़ाई अनिर्णीत रहा. दोनों पक्ष एक-दूसरे द्वारा विजित इलाके छोड़ने को राजी हुए. साथ ही एक-दूसरे पर आक्रमण की स्थिति में सहायता का शर्त तय हुआ. इस तरह मद्रास की संधि द्वारा 4 अप्रैल 1769 को यह युद्ध समाप्त हो गया.

    द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध, 1780–1784 (Second Anglo-Mysore War in Hindi)

    इस लड़ाई के शुरू होने से पहले ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ, अमेरिकी स्वतंत्रता का क्रन्तिकारी संघर्ष चल रहा था. अमेरिका को फ़्रांसिसी और डचों का समर्थन प्राप्त था. इस दुश्मनी का प्रभाव भारत तक हुआ; जहाँ अंग्रेज और फ़्रांसिसी एक-दूसरे के स्वार्थपूर्ति के खिलाफ डटे हुए थे.

    हैदर अली ने फ्रांसीसियों द्वारा आयातित बंदूकों, शोरा एवं सीसा का बड़े पैमाने पर खरीद किया. यह आयात फ़्रांसिसी बस्ती माहे के बंदरगाह से की गई. मैसूर व फ़्रांस के बीच बढ़ती दोस्ती से अंग्रेज चिंतित थे. साथ ही, 1771 के मराठा आक्रमण के समय अंग्रेजों ने मैसूर का साथ नहीं दिया. यह प्रथम मद्रास की संधि का उलंघन था. इन सभी घटनाओं ने दुश्मनी को काफी बढ़ा दिया था.

    फ़्रांसिसी भारत में थोड़े से इलाके में ही थे. इसलिए, अंग्रेजों ने फ्राँसिसयों को भारत से पूरी तरह खदेड़ने की निति पर काम शुरू किया. अंग्रेजों ने 1779 में फ्रांसीसी-नियंत्रित बंदरगाह माहे के पर कब्जा कर लिया. अंग्रेजों को पहले ही बता दिया गया था कि यह बंदरगाह मैसूर के संरक्षण में है. इसकी सुरक्षा के लिए टीपू सुल्तान ने सैनिक भी नियुक्त कर रखे थे.

    यह बंदरगाह रणनीतिक रूप से मैसूर के लिए काफी महत्वपूर्ण था. यहीं से फ़्रांसिसी मैसूर के लिए आधुनिक हथियार का आयात करते थे. इसलिए मैसूर ने जवाबी कार्रवाई का निर्णय लिया. इस तरह माहे पर अंग्रजों की कार्रवाई, लड़ाई का कारण बन गई. जवाब में, अंग्रेजों को मद्रास से बाहर निकालने के उद्देश्य से, हैदर अली ने कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया. इस लड़ाई के बाद 1780 में अरकोट पर हैदर का कब्जा हो गया.

    हैदर अली ने सितंबर 1780 में कर्नल बैली और सर हेक्टर मुनरो के टुकड़ी को एकसाथ शामिल होने से रोकने के लिए 10,000 सैनिकों को 18 तोपों के साथ टीपू सुल्तान को भेजा. टीपू सुल्तान ने पोलिलूर की लड़ाई में बेली को निर्णायक रूप से हरा दिया. आगे, टीपू ने दिसंबर 1781 में चित्तूर को अंग्रेजों से सफलतापूर्वक वापस प्राप्त किया.

    फिर, टीपू सुल्तान ने 18 फरवरी 1782 को तंजौर के निकट अन्नागुडी में कर्नल ब्रेथवेट को हराया. लड़ाई के बीच में ही, 7 दिसंबर, 1782 को चित्तूर में हैदर अली की मृत्यु हो गई. अब तक टीपू सुल्तान ने पर्याप्त सैन्य अनुभव हासिल कर लिया था. लड़ाई जारी रही.

    युद्ध की समाप्ति (End of War in Hindi)

    लम्बा खिंचा युद्ध में कोई भी पक्ष जीत नहीं रहा था. अंततः, 1784 में हस्ताक्षरित ‘मैंगलोर की संधि‘ से द्वितीय मैसूर युद्ध को समाप्त किया गया. इस संधि में दोनों प्रतिद्वंदियों ने एक-दूसरे का विजित इलाका वापस कर दिया.

    बंगलौर स्थित टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन महल
    बंगलौर स्थित टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन महल

    इस लड़ाई के शुरुआत में अंग्रेजों को मैसूर पर बढ़त हासिल थी. लेकिन, समय बीतने के साथ ही मैसूर हावी होते चला गया. मैसूर को सिर्फ नवंबर 1781 में पोर्टोनोवो (वर्तमान- परगनीपेटाई, तमिलनाडु) में केवल एक बार पराजय का सामना करना पड़ा.

    लेकिन, इस लड़ाई में टीपू सुलतान को समझ आ गया कि अंग्रेज भारत के लिए एक नया खतरा है. साथ ही, नौसेना का महत्व भी मैसूर को समझ आ गया. वे समझ गए कि मजबूत नौसेना के कारण ही अंग्रेज बाहर से आसानी से मदद मंगा पा रहे है.

    Note: इस युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारत का गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स था.

    तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध, 1790-92 (Third Anglo-Mysore War in Hindi)

    अंग्रेजों के साथ-साथ टीपू सुल्तान भी दक्कन पर अपना नियंत्रण चाहते थे. इसलिए मंगलोर की संधि इनके लिए एक ठहराव मात्र था. टीपू सुल्तान ने मंगलौर की संधि को ठुकराते हुए अंग्रेज युद्धबंदियों को लौटाने से इंकार कर दिया. आगे चलकर, त्रावणकोर ने कोचीन राज्य में स्थित दो कीलें डचों से खरीद लिए. ये जलकोट्टल एवं कन्नानोर थे. ये टीपू सुल्तान की जागीरदारी थी. इसलिए वह इस खरीद को अपनी सम्प्रभुता का उलंघन मान रहा था.

    इसके बाद टीपू सुलतान ने 28 दिसंबर 1789 को त्रावणकोर पर हमला कर दिया. इस तरह तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध का शुरुआत हो गया. त्रावणकोर अंग्रेजों के संरक्षण में था और अंग्रेजों के काली मिर्च प्राप्त करने का एकमात्र स्थान था. साथ ही, मराठा भी मैसूर से विद्वेष रखते थे. इस वजह से अंग्रेजों और मराठों ने भी मैसूर से युद्ध छेड़ दिया.

    युद्ध की व्यापकता (Enormity of War in Hindi)

    1790 में टीपू सुलतान ने जनरल मीडोज़ के नेतृत्व वाली अंग्रेज सेना को हरा दिया. इसके बाद, लॉर्ड कॉर्नवालिस ने टीपू को हराने के लिए कंपनी और ब्रिटिश सैन्य शक्तियों के साथ-साथ मराठों और हैदराबाद के निजाम के साथ गठबंधन बनाकर जवाब दिया. निजाम को मैसूर से उनका इलाका वापस दिलाने का भरोसा अंग्रेज पहले ही दे चुके थे.

    1791 में अंग्रजों की नेतृत्व वाली सेना वेल्लोर होते हुए बंगलौर और फिर श्रीरंगपटनम पहुँच गई. इस तरह दूसरी बार, अंग्रेजों से टीपू सुलतान का सामना हुआ. लेकिन, इस बार अंग्रेज गठबंधन सेना के साथ पहुंचे थे. लिहाजा टीपू सुलतान की हार हो गई.

    टीपू सुल्तान ने ब्रिटिश आपूर्ति और संचार लाइनों को ध्वस्त करने की कोशिश की थी. लेकिन, अंग्रेजों को बम्बई और बंगलौर से अच्छी मदद मिल रही थी. हालाँकि, टीपू कोयंबटूर वापस पाने में सफल रहा. लेकिन, अंत में स्थिति को भांपते हुए टीपू सुल्तान ने संधि के प्रयास शुरू कर दिए. इस बार श्रीरंगपटनम की संधि के साथ युद्ध समाप्त हुआ.

    युद्ध का परिणाम (Result of the war in Hindi)

    टीपू सुल्तान को अपने दो पुत्रों को अंग्रजों के यहाँ बंधक बनाना पड़ा. साथ ही, तीन करोड़ रूपये का युद्ध हर्जाना टीपू सुल्तान को देना पड़ा. युद्ध की शर्तों को पूरा करने पर, टीपू को उसके पुत्र लौटा दिए गए.

    मैसूर का आधा हिस्सा गठबंधन को दिया गया. बारामहल, डिंडीगुल एवं मालाबार अंग्रेज़ों को, तुंगभद्रा एवं उसकी सहायक नदियों के आसपास के क्षेत्र मैराथन को और कृष्णा नदी से लेकर पेन्नार से आगे तक के क्षेत्र निजाम के नियंत्रण में आ गए. इस तरह तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध से टीपू सुल्तान को काफी नुकसान हुआ.

    यदि कॉर्नवालिस चाहता तो इस युद्ध में टीपू सुल्तान को पूरी तरह बर्बाद कर सकता था. लेकिन, उसने ऐसा नहीं किया. इसका कारण ये माना जाता है कि ऐसा कर्नाटक की मराठाओं से रक्षा के लिए किया गया था. यदि मैसूर को पूरी तरह समाप्त किया जाता, तो मराठाओं और कर्नाटक के बीच कोई बफर राज्य न बचता. युद्ध के बाद तत्कालीन गवर्नर जनरल कॉर्नवालिस ने लिखा, “हमने अपने शत्रु को प्रभावशाली ढंग से पंगु बना दिया है और अपने साथियों को भी शक्तिशाली नहीं बनने दिया.”

    चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (Fourth Anglo-mysore war in Hindi)

    तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद मैसूर राज्य का सिकुड़ना
    तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद मैसूर राज्य का सिकुड़ना

    तीसरे और चौथे युद्ध के बीच, अंग्रेज और टीपू सुलतान, अपने ताकत बढ़ाने और क्षतिपूर्ति में लगे रहे. भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी विस्तार के लिए एक विशेष निति का पालन कर रहे थे. यह निति थी, “पहले युद्ध करों, फिर शांतिकाल का उपयोग युद्ध की तैयारी के लिए करों”. मैसूर राज्य भी अंत में इस निति का शिकार हुआ.

    इस युद्ध में निजाम व मराठों ने अंग्रेजों का साथ दिया. त्रावणकोर के शासकों ने भी अंग्रेजों का साथ दिया था. इस तरह चार शक्तियों के सम्मिलित ताकत ने मिलकर टीपू सुल्तान का खत्म किया था.

    युद्ध की पृष्ठभूमि और कारण (Background and Causes of the War in Hindi)

    1796 में वाडेयार वंश के हिन्दू शासक की मृत्यु हो गई. इसके बाद टीपू सुलतान ने खुद को सुल्तान घोषित कर दिया और मैसूर का पूर्ण शासक बन गया. वर्ष 1798 में लॉर्ड वेलेजली को सर जॉन शोर के जगह भारत का नया गवर्नर जनरल बनाया गया. वेलेजली घोर साम्राज्य्वादी था और मैसूर-फ़्रांस मैत्री को नापसंद करता था.

    वेलेजली ने टीपू सुल्तान से सहायक संधि प्रणाली में शामिल होने को कहा गया. टीपू सुल्तान ने इंकार कर दिया. फिर, वेलेजली ने अपने जासूसों को अरब, अफगानिस्तान और फ्राँसीसी द्वीप (मॉरीशस) भेजा. इनके रिपोर्ट के आधार पर टीपू सुल्तान पर अंग्रेजों के खिलाफ षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया गया. साथ ही, मैसूर के फ़्रांस के साथ दोस्ती से वेलेजली चिंतित था. ये सभी कारण चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध का कारण बने.

    1798 में नेपोलियन मिस्त्र आ पहुंचा था. उसका अगला पड़ाव भारत था. वह लाल सागर को पारकर भारत से ब्रिटिश सत्ता को नष्ट कर देना चाहता था. मैसूर भारत में फ्रांसीसियों का एक बड़ा गढ़ था. इसलिए, अंग्रेज फ्रांसीसियों और टीपू सुल्तान के बीच किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं देखना चाहते थे. अंग्रेजों ने इसके लिए कोशिश भी की, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली.

    टीपू सुल्तान को लिखे गए एक पत्र में नेपोलियन ने लिखा, “आपको इंग्लैंड के लौह जुंगल से रिहा कराने की इच्छा से, एक असंख्य और अजेय सेना के साथ, लाल सागर की सीमाओं पर मेरे आगमन के बारे में आपको पहले से ही सूचित किया जाता है.” यह 1798 की बात है.

    चौथे युद्ध का आगाज (Inception of the Fourth War in Hindi)

    अंग्रेजों और मैसूर के बीच चौथा युद्ध 17 अप्रैल, 1799 को युद्ध शुरू हुआ और 4 मई, 1799 को टीपू सुल्तान के मौत के साथ समाप्त हो गया.

    ब्रिटिश सेना में 60 हजार से अधिक सैनिक थे, जबकि टीपू सुलतान के पास मात्र 30 हजार सैनिक थे. टीपू सुल्तान का प्रधानमंत्री और कुछ अन्य मुख्य सहयोगी भी अंग्रेजों से जा मिले थे. इन धोखेबाजों ने किले में प्रवेश के लिए दीवारों में रास्ता बनाने का काम किया था.

    टीपू पहले कुर्ग से आए ब्रिटिश जनरल स्टुअर्ट से और फिर कर्नाटक से आए जनरल हैरिस से पराजित हुआ. लॉर्ड वेलेजली के भाई आर्थर वेलेजली ने भी इस युद्ध में भाग लिया था. वेलेजली खुद भी मद्रास आ गया था. दक्षिण से कर्नल रीड व कर्नल ब्राउन ने श्रीरंगपटनम की तरफ बढ़ना शुरू किया.

    चारों तरफ से मैसूर को घेरकर, जीतने की योजना अंग्रेजों की थी. किसी भी भारतीय शासकों ने टीपू की मदद नहीं की. टीपू ने सीमावर्ती दुर्गों को अग्रिम रक्षा पंक्ति बनाया था. लेकिन, अंग्रेजों के तोपों के सामने ये टिक नहीं पाए.

    पोल्लिलूर की लड़ाई में टीपू सुल्तान के विजय को दर्शाती पेंटिंग
    पोल्लिलूर की लड़ाई में टीपू सुल्तान के विजय को दर्शाती पेंटिंग

    1799 में सेसदारी की लड़ाई में टीपू को हार का सामना करना पड़ा. फिर, वह श्रीरंगपटनम के किले में आ गया. यहाँ टीपू से अपमानजनक संधि पर हताक्षर करने को कहा. लेकिन, टीपू ने ये कहते हुए इंकार कर दिया कि, ‘काफिरों का दयनीय दास बनकर और उनके पेंशन प्राप्त नवाबों कि सूचि में शामिल होकर जीने से अच्छा एक योद्धा की भांति युद्ध में मर जाना हैं.”

    अंग्रेजों के किले में घुसने पर, फ्रांसीसियों ने टीपू सुल्तान को भागकर दूसरे किले से लड़ाई जारी रखने को कहा. लेकिन, टीपू सुलतान नहीं माना और मारा गया.

    अंग्रेजों ने इस बार फिर से भारतीय शासकों में फुट डालने में सफलता पाई. मराठों और निजाम ने फीर से अंग्रेज़ों की सहायता की. अंग्रेजों ने मराठों को टीपू के राज्य का आधा भाग देने का वादा किया गया था. सहायक संधि के कारण निजाम को अंग्रजों का साथ देना पड़ा.

    युद्ध का परिणाम (Result of the War in Hindi)

    ब्रिटिश जनरल हेर्रिस ने युद्ध के बाद कहा, “अब भारत हमारा है.” पी. ई. रॉबर्ट्स ने कहा. “भारत की प्रमुख शक्ति का पतन हो गया, जो सदैव ब्रिटिश शक्ति के विनाश के लिए प्रयत्न करते रही थी.” यह वेलेजली की कूटनीति थी, जिसके कारण भारत में अंग्रजों के कट्टर दुश्मन को नष्ट कर दिया गया. इसलिए युद्ध के बाद वेलेजली को “मार्किंग्स” की उपाधि दी गई. वास्तव में, तीसरे युद्ध के बाद ही मैसूर का इलाका सिकुड़ गया था और यह राज्य काफी कमजोर हो गया था.

    अंग्रेजों ने लड़ाई एक बाद टीपू सुल्तान के सभी खजाने जब्त कर लिए. वाइयर वंश के कृष्णराज तृतीय को फिर से शासक बनाया गया. लेकिन, इनपर सहायक संधि थोप दिया गया. अंग्रेजों को मैसूर को अपने अधीन करने में सबसे आधी, 32 साल लगे थे. इसके साथ ही, दक्कन क्षेत्र में अंग्रेजों को फ्रांसीसियों से खतरा टल गया.

    वास्तव में, टीपू सुल्तान को भी अंग्रेजों के संसाधनों का ज्ञान था. इसलिए उनहोंने कहा था, “मैं अंग्रेजों के स्थल संसाधनों को तो नष्ट कर सकता हूँ, लेकिन समुद्र को सूखा नहीं सकता.” दरअसल, समुद्री रास्तों से ब्रिटेन से अंग्रेजों को भारी मदद मिल रही थी.

    टीपू सुल्तान की कब्र (Tipu Sultan’s Tomb in Hindi)

    मैसूर टाइगर टीपू सुल्तान श्रीरंगपटनम के होआली (डिड्डी) गेटवे पर मारा गया था. इनका शव सैनिकों के बीच पाया गया था. उनकी मौत गोली लगने से हुई थी. इसलिए उन्हें किसने मारा, ज्ञात नहीं है. शव की पहचान करने के बाद उसे दफनाने का निर्णय लिया गया. उसकी कब्र उसके पिता के बगल में बनाई गई और उसे सम्मानपूर्वक दफना दिया गया.

    ब्रिटेन में अंग्रेजों की इस उपलब्धि का जश्न मनाने के लिए एक दिन का अवकाश घोषित किया गया. पुरे ब्रिटेन में चित्रकारी, लेखन व अन्य तरीकों से जश्न मनाया गया.

    टीपू सुल्तान की तलवार का इतिहास (History of Tipu Sultan’s Sword in Hindi)

    टीपू सुल्तान का प्रसिद्ध तलवार
    टीपू सुल्तान का प्रसिद्ध तलवार

    मैसूर के बाघ, टीपू सुल्तान की तलवार को दुनिया की दुर्लभ कलाकृतियों में से एक माना जाता है. घुमावदार ब्लेड के साथ महीन स्टील से बनी प्रसिद्ध एकल-धार वाली तलवार 18वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों की है.

    साल 1789 में त्रावणकोर के नायरों के खिलाफ नेदुमकोट्टा की लड़ाई के दौरान टीपू सुल्तान ने अपनी तलवार खो दी थी. श्रीरंगपट्टनम में टीपू द्वारा इस्तेमाल की गई आखिरी तलवार और अंगूठी भी अंत में ब्रिटिश साम्राज्य के कब्जे में आ गई.

    1789 के तलवार को महाराजा, धर्म राजा ने इस तलवार को अर्कोट के नवाब को दी. अर्कोट पर कब्जा कर अंग्रेजों ने यह तलवार जबरन छीन लिया और लंदन भेज दिया.

    अप्रैल 2004 तक, यह तलवार को ब्रिटिश संग्रहालय लंदन में था. इसे मेजर जनरल ऑगस्टस डब्ल्यू.एच. मायरिक और नैन्सी डोवेगर ने तोहफे के रूप में म्यूजियम को दिया था. फिर, जनरल बेयर्ड के वंशजों ने इसे सितम्बर, 2004 में नीलाम करने का निर्णय लिया. इसे भारत के शराब कारोबारी विजय माल्या ने 1.5 करोड़ में बोली जीतकर खरीद लिया.

    टीपू के तलवार तलवार में एक गोलाकार डिस्क पोमेल, अंडाकार पकड़, छोटे नक्कल गार्ड, छोटी क्विलिंग और छोटे लंगेट है. इसपर फूलों के डिजाइन बने है जिन्हें सोने में डुबाया गया है. इसका स्टील का ब्लेड खुदा हुआ है और टीपू सुल्तान और उसकी राजधानी श्रीरंगपट्टनम के नाम के साथ पवित्र कुरान के छंद लिखे गए हैं. लकड़ी का म्यान को मैरून वेलवेट से ढका हैं.

    यह तलवार 7 किलो 400 ग्राम वजनी है. तलवार का हत्था (पकड़) भी रत्नजड़ित बाघ के निशान से लैस है.

    श्रीरंगपटनम में टीपू सुल्तान ने बाघ की आकृति वाला सिंहासन का निर्माण भी करवाया था. उसकी सेना के पहचान में भी बाघ था. उसका पसंदीदा खिलौना मैकेनिकल टाइगर था, जिसमें बाघ ब्रिटिश अधिकारी के पीछे भाग रहा हैं. अब ये खिलौना ब्रिटेन के विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम में हैं.

    अंग्रेज-मराठा-निजाम और मैसूर (The English, Marathas, Nizam and Mysore in Hindi)

    प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध से ठीक पहले, अंग्रेजों ने सबसे पहले संधि के माध्यम से हैदराबाद के निजाम, आसफ जाह II, से उत्तरी सरकार का इलाका हड़प लिया. बदले में हैदर से सुरक्षा की गारंटी दी गई. लेकिन जल्दी ही, हैदर ने मराठाओं और निजाम को अपने ओर मिला लिया. इसके बाद

    मराठों और हैदर अली में पहले से ही दुश्मनी चली आ रही थी. इस वजह से, हैदराबाद के निजाम, मराठा और अंग्रेज; हैदर अली के खिलाफ एक साथ आ गए. हैदर ने मराठों को तटस्थ रखने की निति अपना ली. फिर, निजाम को भी अपने सहयोगी में बदल लिया. इसके बाद, आर्कोट के नवाब के खिलाफ लड़ाई में निजाम ने हैदर का साथ दिया था.

    मैसूर के खिलाफ आगे भी अधिकाँश समय मराठाओं और निजाम ने अंग्रेजों का साथ दिया. अंग्रजों ने इन्हें विजित इलाके उपहार स्वरुप दिया. इस वजह से टीपू को कोई भी बाहरी मदद नहीं मिली और अंत में मैसूर अंग्रजों के कब्जे में चला गया.

    शेरे-ए-मैसूर उपनाम का कारण (Why is Tipu Sultan called Tiger of Mysore in Hindi)

    वीर योद्धा टीपू सुल्तान को “शेर-ए-मैसूर” इसलिए कहा जाता हैं, क्योंकि उन्होनें महज 15 साल की छोटी उम्र से ही अपने पिता के साथ जंग में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया था. किशोरावस्था में ही टीपू ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया था. हैदर अली द्वारा टीपू के शिक्षा और सैन्य प्रशिक्षण के लिए की गई व्यवस्था भी इसका कारण था.

    युद्ध के दौरान टीपू काफी फुर्ती और तेजी से लड़ता था. वास्तव में वह एक भयानक योद्धा राजा था. दुश्मनों को लगता था कि वह एक ही समय में कई मोर्चों पर लड़ रहा है.

    बाघ टीपू सुल्तान का राज्य चिन्ह भी था. इसका इस्तेमाल हथियारों और वर्दी पर भी किया गया था. साथ ही साथ महलों को भी बाघ के प्रतीक के साथ सजाया गया था.

    मांड्यम आयंगर ब्राह्मणों का नरसंहार (Carnage of Iyenger Brahmins in Hindi)

    बेंगलूरू से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मेलकोट नामक गांव में 800 आयंगर ब्राह्मणों के हत्या का आरोप टीपू सुल्तान पर लगाया जाता है. इस कथित आरोप का अभी तक कोई ऐतिहासिक साक्ष्य बरामद नहीं हुआ है. यह सिर्फ मौखिक आरोप है जिसे इस गांव में दिवाली न मनाने का कारण माना जाता है.

    साथ ही, टीपू सुल्तान ने दुश्मन राज्यों और अंग्रेजों से घिरा होने के बाद भी कभी हार न मानी. यह एक अत्यधिक साहसिक कदम था.

    क्या मंदिर विनाशक था टीपू सुल्तान (Was Tipu Sultan Temple Destroyer in Hindi)

    टीपू सुल्तान के ग्रीष्मकालीन राजधानी, बंगलौर किले में भगवन विष्णु का एक भव्य मंदिर स्थापित था. इस किले के दिल्ली गेट के पास भी भगवन गणेश का एक मंदिर है. टीपू सुल्तान द्वारा कई मंदिरों के पुनर्निर्माण और उन्हें सहायता की जानकारी भी ऐतिहासिक साक्ष्यों में मिलती है. इसलिए, ये कहा जा सकता है कि टीपू सुल्तान ने राज्य और शासन की सुरक्षा को ध्यान में रखकर निर्णय लिए होंगे.

    टीपू सुल्तान ने कुर्गो और नायरों जैसे हिन्दुओं के साथ ही, मोपला मुस्लिमों का भी दमन किया. उसने अपने शासन के महत्वपूर्ण पदों पर कई हिन्दुओं की नियुक्ति कर रखी थी. साथ ही, वह भारतीय शासकों से सहायता तो पा नहीं सका, लेकिन अंग्रेजों की सहायता से कभी भी भारतीय राज्यों पर आक्रमण नहीं किया था. फ़्रांसिसी इसके एक अपवाद हैं.

    1791 में श्रृंगेरी के शारदा मंदिर को मराठा घुड़सवारों ने लूटकर नष्ट कर दिया था. इसके पुनर्स्थापना में टीपू सुल्तान ने मदद की थी.

    श्रीरंगपत्तनम किले के परिसर के निकट स्थित रंगनाथ नरसिंह व गंगाधरेश्वर मंदिर भी टीपू सुल्तान से सुरक्षित रहे थे. ये सभी तथ्य बतलाते है कि टीपू सुल्तान सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था.

    महत्वपूर्ण जानकारियां (Important Facts in Hindi)

    उत्तरी सरकार इलाका कहाँ है? (Northern Circar Area in Hindi)

    आंध्रप्रदेश के तटीय इलाकों को उत्तरी सरकार कहा जाता है. इसके उत्तर में उत्कल मैदान और बंगाल का मैदान स्थित है. यहां नदियों की गति मंद हो जाती है और डेल्टा का निर्माण करती हैं. इसी इलाके के ओडिशा में खारे पानी की सबसे बड़ी झील, चिल्का स्थित है.

    सहायक संधि (Subsidiary Treaty System in Hindi)

    चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान वर्ष 1798 में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने भारत में सहायक संधि प्रणाली की शुरुआत की. इसके तहत संधि करने वाले राजाओं की किसी भी प्रकार के खतरे से सुरक्षा की गारंटी अंग्रेज देते थे. आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप की निति अपनाई गई. लेकिन, संधि के बाद अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए इस तरह की संधि का इस्तेमाल किया. मजबूत व ताकतवर राज्यों को अपनी सेना रखने की छूट दी गई. लेकिन, ये सेना ब्रिटिश सेनापति के तहत नियंत्रित होते थे.

    संधि की शर्तों के अनुसार, इसे मानने वाला शासक अंग्रेजों की सहमति के बिना किसी राज्य के खिलाफ युद्ध की घोषणा नहीं कर सकता था. इस तरह संधि करने वाले राजाओं के विस्तार के आकांक्षाओं को कुंद किया गया.

    इस संधि के बदले में सेना के रखरखाव के लिए ब्रिटिश भारी रकम स्थानीय शासक से लेते थे. कई बार भारतीय राजा धन के बदले अपना इलाका अंग्रेजों को दे देते थे और खुद को कमजोर कर लेते थे. मनमाने ढंग से निर्धारित एवं भारी-भरकम आर्थिक भुगतान ने राज्यों को निर्धन बना दिया. लोग गरीब हो गए. इससे राज्य की अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई.

    दूसरी तरफ, अंग्रेज अब भारतीय शासकों के खर्चे पर एक बड़ी सेना रख सकते थे. स्थानीय राज्यों के रक्षा और विदेशी मामलों पर भी इनका नियंत्रण था. अंग्रेज इन शासकों की धरती पर विशाल सैनिक तैनात करते रहे. इस संधि को मानने वाला पहला शासक हैदराबाद का निजाम था.

    टीपू सुल्तान से जुड़ी 10 खास बातें (10 Facts about Tipu Sultan in Hindi)

    1. टीपू सुल्तान को दुनिया का पहला मिसाइल मैन माना जाता है. लंदन के मशहूर साइंस म्यूजियम वूलविच में टीपू सुल्तान के दो रॉकेट रखे हुए हैं. इन रॉकेटों को 18वीं सदी के अंत में अंग्रेज अपने साथ ले गए थे.
    2. अंग्रेज लड़ाई के बाद टीपू सुलतान के पुस्तकालय में मौजूद 2000 से अधिक पुस्तकें और पांडुलिपियां अपने साथ ब्रिटेन ले गए. इससे ज्ञात होता है कि टीपू सुल्तान की पाश्चात्य शिक्षा, राजनितिक दर्शन, गणित, सैन्य विज्ञान, इतिहास व औषधि विज्ञान में रूचि थी.
    3. टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था. यह अंग्रेजों से मैसूर की दूसरी लड़ाई की विजय थी. शासक के रूप में, टीपू जटिल चरित्र वाला और नविन विचारों को ढूंढ निकालने वाला था.
    4. ‘पालक्काड कि‍ला’ को ‘टीपू का कि‍ला’ उपनाम से प्रसिद्ध है. यह पालक्काड शहर के मध्य में स्थित है, जिसका निर्माण 1766 में किया गया था. अब यह भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण का संरक्षित स्मारक है.
    5. जैकोबिन क्लब की स्थापना टीपू सुल्तान ने 1796 में फ्रांसीसियों के साथ मिलकर किया था. टीपू को इसकी प्रेरणा नेपोलियन महान से मिली थी. टीपू को लोकतंत्र की प्रेरणा भी फ्रांसीसियों से मिली थी. क्लब की स्थापना के बाद, टीपू सुल्तान खुद को नागरिक टीपू कहा जाना पसंद करता था.
    6. जैकोबिन क्लब की स्थापना के बाद टीपू सुल्तान ने राजधानी श्रीरंगपत्तनम में स्वतंत्रता का वृक्ष लगवाया. वह खुद भी इस क्लब का सदस्य बना. टीपू फ़्रांसिसी क्रांति से काफी प्रभावित था.
    7. टीपू के शासन को मद्रास के गवर्नर टॉमस मुनरो ने, “दुनिया में सबसे सरल और निरंकुश राजशाही” के रूप में वर्णित किया है. मुनरो के अनुसार, “नवीनता की आविभ्रांत भावना तथा प्रत्येक वस्तु के स्वयं से ही प्रस्तुत होने की रक्षा उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी.”
    8. टीपू सुलतान ने कहा था, “भेड़ की तरह लम्बी जिंदगी जीने से अच्छा शेर की तरह एक दिन जीना है.” टीपू सुल्तान ने श्रीरंगपटनम के किले में 6 बाघ भी पाल रखे थे, जिन्हें अंग्रेजों ने किले में घुसने के बाद मार डाला.
    9. कुछ अंग्रेज लेखकों ने टीपू सुल्तान को, “सीधा-साधा दैत्य व धार्मिक उन्मादी” कहा है. ऐसा टीपू के छवि को बदनाम करने की नियत से की गई है.
    10. टीपू सुल्तान के बाद झाँसी की रानी ही एक मात्र भारतीय शासक रही, जिनकी प्रशंसा अंग्रेजों ने खुले मन से की थी. रंजीत सिंह भी टीपू सुलतान के भाँती अंग्रेजों के कट्टर दुश्मन थे. इन सभी से अंग्रेज काफी भयभीत रहें.

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