समय-समय पर स्वामीनाथन आयोग के रिपोर्ट के आधार पर कृषि उत्पादों का मूल्य तय करने का मांग उठते रहते है. कई किसान संगठन स्वामीनाथन आयोग के रिपोर्ट के अनुसार कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय न करने का आरोप लगाते रहते है. एक बार फिर से किसानों ने सरकार द्वारा एमएसपी का एमएस स्वामीनाथन आयोग के रिपोर्ट के अनुसार तय नहीं करने का आरोप लगाया गया है. इसके बाद किसानों ने जी-20 सम्मेलन के समानांतर आंदोलन का चेतावनी दिया है. इस वजह से एमएसपी और स्वामीनाथन रिपोर्ट एक बार फिर से चर्चा में है.
किसानों और सरकार में एमएसपी और स्वामीनाथन आयोग का रिपोर्ट लागू करवाने को लेकर अकसर टकराव होते रहते है. 2020-21 में भी देशभर के किसानों ने तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने और स्वामीनाथन आयोग के रिपोर्ट के अनुसार एमएसपी लाग करने के लिए आंदोलन किया था. तो आइये हम एमएसपी, एमएस स्वामीनाथन और स्वामिथान आयोग के सिफारिशें और कृषि उत्पाद खरीद प्रक्रिया से जुड़े प्रतियोगी परीक्षा के लिए जरूरी तथ्यों को जानते है.
एमएसपी क्या है (What is MSP in Hindi)?
मिनिमम सप्पोर्ट प्राइस (Minimum Support Price), जिसे संक्षेप में एमएसपी भी कहा जाता है. एमएसपी वह न्यूनतम मूल्य है जिस भाव पर सरकार किसानों से उनका फसल खरीदने का वादा करती है. इस मूल्य से कम कीमत पर फसल को नहीं ख़रीदा जा सकता है. सरकार कम से कम एमएसपी पर फसलों को एपीएमसी मंडी के माध्यम से खरीदती है.
खरीफ फसलों में तिल, धान और जोवार के दो किस्मों का एमएसपी घोषित किया जाता है. साथ ही, खरीफ फसल ‘गन्ना’ का उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) अलग से तय किया जाता है. इस तरह फसलों के 24 किस्मों का एमएसपी सरकार द्वारा तय किया जाता है.
2023-24 के लिए भी केंद्र सरकार द्वारा 22 गारंटीड फसलों के लिए घोषित एमएसपी, स्वामीनाथन आयोग के रिपोर्ट के प्रणाली के अनुसार प्रतीत होता है, जो नीचे सारणी में दिए गए है.
विपणन सीजन 2023-24 के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP for Market Season 2023-24)
कृषि उत्पाद | किस्म | 2022-2023 के लिए एमएसपी (रुपये प्रति क्विंटल) | 2023-2024 के लिए एमएसपी (रुपये प्रति क्विंटल) | पिछले वर्ष की तुलना में वृद्धि (रुपये प्रति क्विंटल) |
विपणन सीजन 2023-24 के लिए ख़रीफ़ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य | ||||
धान का खेत | सामान्य | 2040 | 2183 | 143 |
ग्रेड ए’ | 2060 | 2203 | 143 | |
ज्वार | हाइब्रिड | 2970 | 3180 | 210 |
मालदांडी | 2990 | 3225 | 235 | |
बाजरे | 2350 | 2500 | 150 | |
मक्का | 1962 | 2090 | 128 | |
रागी | 3578 | 3846 | 268 | |
अरहर (तूर) | 6600 | 7000 | 400 | |
मूंग | 7755 | 8558 | 803 | |
उड़द | 6600 | 6950 | 350 | |
कपास | मध्यम रेशा* | 6080 | 6620 | 540 |
लंबा रेशा** | 6380 | 7020 | 640 | |
खोल में मूंगफली | 5850 | 6377 | 527 | |
सूरजमुखी के बीज | 6400 | 6760 | 360 | |
सोयाबीन | पीला | 4300 | 4600 | 300 |
तिल (Sesamum) | – | 7830 | 8635 | 805 |
काला तिल (Niger Seed) | – | 7287 | 7734 | 447 |
रबी फसलें (रबी विपणन मौसम (आरएमएस) 2023-24) | ||||
गेहूँ | 2015 | 2125 | 110 | |
जौ | 1635 | 1735 | 100 | |
ग्राम | 5230 | 5335 | 105 | |
मसूर (दाल) | 5500 | 6000 | 500 | |
सफेद सरसों और सरसों | 5050 | 5450 | 400 | |
कुसुंभ | 5441 | 5650 | 209 | |
टोरिया | 5050 | 5450 | 400 | |
अन्य फसलें | ||||
खोपरा (2022 फसल मौसम) | पिसाई | 10,335 | 10,590 | 255 |
गेंद | 10,600 | 11,000 | 400 | |
छिलका रहित नारियल (2022 फसल मौसम) | 2800 | 2860 | 60 | |
कच्चा जूट (2023-24 सीज़न के लिए) | 4750 | 5050 | 300 | |
गन्ना $ (चीनी सीजन 2023-24 के लिए) | 315 | – | ||
* रेशा लंबाई (मिमी) 24.5 -25.5 और माइक्रोनेयर मान 4.3 -5.1 | ||||
** रेशा लंबाई (मिमी) 29.5 -30.5 और माइक्रोनेयर मान 3.5 -4.3 | ||||
$ उचित एवं लाभकारी मूल्य |
एमएसपी का जरूरत क्यों है (Why MSP is Important)?
भारत में कृषि से जीविकोपार्जन करने वालों को कई प्रकार के जोखिमों का सामना करना पड़ता है. इनमें शामिल हैं:
- मौसम की अनिश्चितता
- कृषि उत्पादों का व्यापक आयात
- कृषि सब्सिडी में कमी
- कृषि के लिए आसान ऋण का अभाव
- कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश में कमी
- कृषि भूमि का वैकल्पिक उपयोगों के लिए रूपान्तरण
- भारतीय किसानों का अशिक्षित एवं निर्धन होना
- कृषि का मानसून पर निर्भर होना
- कृषि में आधुनिक कृषि तकनीकों का बहुत कम प्रयोग
- कृषि पर जनसंख्या का अधिक दबाव
- घटता कृषि भूमि क्षेत्र
- खेतों का छोटा आकार
- कृषि उत्पादों का उचित मूल्य न मिलना
कृषि में जोखिम के सबसे आम स्रोत मौसम, जलवायु, बीमारियाँ, प्राकृतिक आपदाएँ और बाज़ार और पर्यावरणीय झटके हैं. इस वजह कई बार फसल के उत्पादन में आश्चर्यजनक कमी हो जाती है. आसान ऋण सुविधा के अभाव में किसानों का कर्ज में डूबने का खतरा बना रहा रहता है. भारत में किसान आत्महत्या का ऊँचा दर होने का एक मुख्य कारण यह भी है. उपरोक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए एमएसपी और भारतीय कृषि के लिए अन्य संरक्षणवादी सिद्धांत किसानों के हित में प्रतीत होते है.
एमएसपी कैसे तय होता है (How MSP is decided)?
गारंटीड कृषि उपज का कीमत का केंद्र सरकार को सिफारिश कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) करता है, जो भारत सरकार का एक वैधानिक निकाय है. CACP को 1965 में कृषि मूल्य आयोग के नाम से गठित किया और और 1985 में इसे वर्तमान नाम दिया गया. यह कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के कृषि, सहकारिता और किसान कल्याण विभाग के तहत काम करता है. इसका गठन एक अध्यक्ष, सदस्य सचिव, एक सरकारी सदस्य और दो गैर-सरकारी सदस्य द्वारा होता है.
CACP का उद्देश्य न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSPs) का निर्धारण कर केंद्र को सिफारिश भेजना है. फिर, प्रधानमंत्री के अध्यक्षता वाले आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) द्वारा रिपोर्ट के अध्ययन और और अन्य नियमों व कारकों को ध्यान में रखकर इसे लागू किया जाता है. यह विभिन्न कारकों को ध्यान में रखकर MSPs की सिफारिश करता है, जो इस प्रकार है-
एमएसपी निर्धारधन से पूर्व CACP द्वारा फसल के मांग व आपूर्ति का स्थिति, घरेलु और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मूल्य प्रवृत्तियाँ (Patterns), मुद्रास्फीति, उपज द्वारा पर्यावरणीय प्रभाव और कृषि एवं गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच व्यापार की शर्तों जैसे कारकों पर विचार किया जाता है. राज्य और अखिल भारतीय स्तरों पर प्रत्येक फसल के लिये तीन अलग-अलग प्रकार से उत्पादन लागतों को अनुमानित किया जाता है.
- ‘A2’ – इसमें कृषि के लिए उपयोग के गए बीज, उर्वरक, कीटनाशक, श्रमिक लागत, पट्टे पर ली गई भूमि का किराया, ईंधन, सिंचाई इत्यादि मदों में किए गए प्रत्यक्ष व्यय को शामिल किया जाता है.
- ‘A2+FL’- इसमें ‘A2’ के साथ-साथ किसान व किसान के परिजनों या अन्य सहयोगियों द्वारा किए गए अवैतनिक पारिवारिक श्रम का अनुमानित मूल्य भी शामिल किया जाता है.
- ‘C2’ – लागत का यह स्वरुप अधिक व्यापक है, जो उद्योगों के उत्पादन के तर्ज पर फसलों के कीमत का निर्धारण करता है. इसमें ‘A2+FL’ में कृषक के स्वामित्व वाले भूमि और अन्य अचल संपत्ति के किराए, तथा ब्याज को भी शामिल किया जाता है.
एमएसपी तय करते समय CACP द्वारा ‘A2+FL’ और ‘C2’ दोनों लागतों का गणना किया जाता है. CACP द्वारा ‘A2+FL’ लागत की ही गणना प्रतिफल के लिये की जाती है. जबकि ‘C2’ लागत का उपयोग मुख्य रूप से बेंचमार्क लागत के रूप में किया जाता है, यह देखने के लिये कि क्या उनके द्वारा अनुशंसित MSP कम-से-कम फसल के कुछ प्रमुख उत्पादक राज्यों में इन लागतों को तो कवर करते हैं.
वर्तमान समय में एमएसपी को वैधानिक समर्थन नहीं क्योंकि इसे लागू करने के लिए कोई वैधानिक कानून नहीं है. सरकार के दावों के विपरीत अकसर मीडिया में एमएसपी को स्वामीनाथन आयोग के सिफारिशों के तुलना में कम होने का आरोप लगते रहते है. बताते चले कि स्वामीनाथन आयोग का औपचारिक नाम राष्ट्रीय किसान आयोग है.
एपीएमसी मंडी (APMC Mandis)
आजादी से पूर्व भी कुछ कृषि वस्तुओं के बिक्री के लिए मंडी स्थापित करने और कपास जैसे फसलों के लिए एमएसपी लागू करने के प्रयास हुए थे. लेकिन, औपनिवेशिक सरकार के नाकाम प्रयासों से यह धरताल पर नहीं उतर पाया.
आजादी के बाद 1960 व 70 के दशक में कई राज्यों ने अपने यहाँ कृषि उत्पाद विपणन अधिनियम लागू कर दिया. कृषि उत्पाद क्रय के इस पद्धति में कृषि उत्पाद विपणन समिति के तहत जिलास्तर पर सभी राज्यों ने मंडी स्थापित किए, जहाँ आढ़तिये अपने कमीशन और मंडी शुल्क वसूलकर तय कीमत पर कृषि उत्पाद खरीदने लगे. कृषि उत्पाद और पशुधन के बिक्री के लिए यहीं स्थान तय कर दिया गया.
एपीएमसी मंडी के स्थापना का कारण किसानों को सूदखोर साहूकारों द्वारा औनेपौने दामों पर फसल खरीद से मुक्ति मिल गया. आगे चलकर एपीएमसी मंडियों में एकरूपता लाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने ‘मॉडल एपीएमसी एक्ट, 2003’ प्रस्तुत किया.
2003 के अधिनियम में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को मान्यता दिया गया. साथ ही, इस कानून में सूचित उत्पाद के एपीएमसी मंडी में बेचे जाने की बाध्यता समाप्त कर दी गई.
एमएस स्वामीनाथन कौन है और क्या है स्वामीनाथन आयोग (MS Swaminathan and his report)?
7 अगस्त 1925, कुम्भकोणम, तमिलनाडु में जन्मे एमएस स्वामीनाथन की चर्चा हरित क्रांति के अगुवा होने के अलावा उनके द्वारा कृषि और किसान पर पेश की गई रिपोर्ट के कारण भी होती हैं. 18 नवंबर 2004 में उनकी अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग ( ( National Commission on Farmers (NCF)) बना था. दो सालों में इस कमेटी ने पांच रिपोर्ट तैयार की. इसे ही स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट कहा जाता हैं.
प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन जेनेटिक विज्ञान के एक वैज्ञानिक थे. उन्होंने वर्ष 1966 में देशी बीजों के साथ विदेशी बीजों का संकर करवाकर गेहूं समेत कई फसलों का संवर्धित बीज तैयार किया था. इस कारण से देश में अनाजों के पैदावार में बम्पर वृद्धि हुई और भारत खाद्दान्नों के मामले में आत्मनिर्भर हो गया. इसी कारण से उन्हें “भारत में हरित क्रांति का जनक” भी कहा जाता हैं.
स्वामीनाथन मूलतः मेक्सिको के कृषि वैज्ञानिक नार्मन बोरलॉग के शिष्य थे. बोरलॉग ने ही बीजों को जेनेटिकली मोडिफाई करने की खोज की थी. स्वामीनाथन ने उनके फॉर्मूले को भारत में अमलीजामा पहनाया था.
वर्ष 2004 में केंद्र सरकार ने कृषि में सुधर के लिए दो मकसद निर्धारित किए. ये हैं- अन्न की आपूर्ति को भरोसेमंद बनाना और किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करना. इन दो मकसदों को लेकर 2004 में केंद्र सरकार ने एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स का गठन किया. इसे ही स्वामीनाथन आयोग भी कहा जाता हैं.
कृषि से संबंधित स्वामीनाथन आयोग ने दो वर्षों तक तमाम स्टेकहोल्डर्स से बात करने के बाद, अपनी आखिरी रिपोर्ट 4 अक्टूबर 2006 को केंद्र सरकार को सौंप दी थी. इस रिपोर्ट में खेती में सुधार के लिए तमाम बातें कही गई थीं. इनमें प्रमुख था- “कृषि उपज के लागत से 50 फीसदी बढाकर कीमत अदा करना (C2+50)”. उनका यही सिफारिश अकसर चर्चा के केंद्र में होता हैं और सरकारों पर इसे न लागू करने का आरोप लगाया जाता रहा है.
स्वामीनाथन आयोग की प्रमुख सिफारिशें (Recommendations of Swaminathan Commission)
किसानों के लिए स्वामीनाथन आयोग ने निम्न सिफारिशें मुख्य तौर पर की थी:-
- फ़सल उत्पादन लागत से पचास प्रतिशत ज़्यादा दाम दिए जाएं.
- अच्छी पैदावार के लिए बेहतर क्वालिटी के बीज कम कीमत में मुहैया कराए जाएं.
- पैदावार बढ़ाने से जुड़ी ज़रूरी ज्ञान को किसानों तक पहुँचाने हेतु गांवों में ज्ञान चौपाल (Village Knowledge Centre) का निर्माण किया जाए.
- महिलाओं को खेती के लिए प्रोत्साहित करने के लिए किसान क्रेडिट कार्ड की सुविधा मिले.
- प्राकृतिक आपदाओं के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान से बचाने के लिए ‘कृषि ज़ोखिम फंड’ बनाया जाए.
- सरप्लस और इस्तेमाल नहीं हो रही ज़मीन के टुकड़ों को भूमिहीनों में बांटा जाए व आदिवासी क्षेत्रों में इनपर पशु चराने का हक हो.
- कृषि योग्य व जंगल की भूमि को कॉरपोरेट आदि काम के लिए नहीं दिया जाए.
- हर फ़सल के लिए फ़सल बीमा की सुविधा सुलभ हो.
- खेती में मदद करने के लिए सरकार की तरफ से कर्ज़ की व्यवस्था की जाए और ब्याज दर कम करके चार फीसदी किया जाए.
- किसान की आत्महत्या की समस्या का समाधान हो.
- प्राकृतिक आपदा या संकट से जूझ रहे इलाकों में हालात सामान्य होने तक कर्ज वापसी में राहत होनी चाहिए.
- देश में ग़रीबी रेखा से नीचे रह रहे परिवारों के लिए खाद्य सुरक्षा का इंतज़ाम किए जाए.
- साथ ही, स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में राज्य स्तरीय किसान कमीशन बनाने और किसानों के लिए वित्त-बीमा की स्थिति पुख्ता बनाने पर विशेष जोर दिया गया है.
- सभी को पानी की सही मात्रा मिले. रेन वाटर हार्वेस्टिंग व वाटर शेड परियोजनाओं को बढ़ावा देने के साथ ही रिपोर्ट में योजनाओं में इस मद में ज्यादा धन आवंटन की सिफारिश की गई है.
रिपोर्ट का क्या हुआ(Status of Report)?
स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को 11 सितंबर 2007 को केंद्र सरकार को प्रस्तुत कर दिया गया. लेकिन, इस रिपोर्ट के अधिकांश सिफारिशें लागू नहीं की जा सकी है. इनमे से दो मांग पूरा होना माना जा सकता है. एक, एमएसपी को लागु करना और दूसरा खाद्य सुरक्षा कानून लाकर सभी गरीबों तक खाद्यान्न का पहुँच सुनिश्चित करना.
कृषि क्षेत्र में स्वामीनाथन आयोग रिपोर्ट के संभावित प्रभाव
खेती व किसानों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए ये आवश्यक हैं कि किसानों को उनकी फसल का उचित कीमत मिले. स्वामीनाथन आयोग के संस्तुतियां कृषि व कृषकों के स्थिति में सुधार लाने में सक्षम है. इससे जहां किसानों का आय बढ़ेगा, वहीं भूमिहीनों को कृषि के लिए जमीन प्राप्त हो जाएगा. खेतों पर भूमिहीनों के हक़ से वे जहां आत्मनिर्भर बनेंगे, वहीं खाद्य सुरक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी यह मददगार है. इस तरह बढ़ती आबादी को “भोजन का अधिकार” सुनिश्चित करने में भी यह सहायक हैं.
किसानों को उचित कीमत मिलने से उनका खरीद क्षमता बढ़ेगा और ग्रामीण जीवन स्तर में सुधार आएगा. किसान अतिरिक्त धन का सदुपयोग आधुनिक कृषि अपनाने में भी कर सकते है, जो कृषि उत्पादकता में अतिरिक्त वृद्धि कर हरित क्रांति को दोहराने की क्षमता रखता है.
स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागु होने से किसानों को क्या होंगे फायदे
जानकारों का मानना हैं कि आजादी के बाद जहाँ नौकरी करने वालों की आय 150 गुना बढ़ गई हैं, वहीं किसानों की आय मात्र 21 गुना बढ़ी हैं. यदि ये तर्क सत्य है तो स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागु करना काफी जरुरी हो जाता हैं. इस रिपोर्ट के लागु होने से किसानों खासकर छोटे और भूमिहीन किसानों के आय में बड़ा उछाल आ सकता है.
कृषि के लिए मुक्त बाजार घातक?
यह हकीकत हैं कि 1990 के बाद से देश में कॉर्पोरेट और मुक्त बाजार की वकालत जोरों से की जा रही हैं. लेकिन,वास्तविकता यह हैं कि अमेरिका जैसे विकसित अर्थव्यवस्था में भी कृषि को संरक्षण दिया जाता हैं. इस देश की मात्र एक फीसदी आबादी ही कृषि पर निर्भर हैं. लेकिन, यहाँ न सिर्फ अतिरिक्त फसलों का उत्पादन ही होता हैं, बल्कि उसका कई अन्य देशों में निर्यात भी किया जाता हैं.
हमें इस बात को समझना होगा कि एक किसान न तो मैनेजमेंट का छात्र ही होता हैं और न ही उन्हें पूंजीपतियों द्वारा की जानेवाली “समझौते” का ही समझ होता हैं. आप इस बात से भी भलीभांति वाकिफ है कि दुनिया का अर्थशास्त्र विज्ञान, उद्योग द्वारा उत्पादन किए जाने वाले सिद्धांतों का अध्ययन मात्र है. कृषि उत्पादन पर दुनिया का आधे से अधिक आबादी निर्भर है, लेकिन इसकी अर्थव्यवस्था और विकास के लिए सिद्धांतों का नितांत अभाव है. साथ ही किसानों में शिक्षा का अभाव भी पाया जाता है. ऐसे में निजी कॉर्पोरेट घरों के सामने किसानों का टिकना सहज प्रतीत नहीं होता है.
इन परिस्तिथियों में कृषि का कोर्पोरटिजेशन किसानों से अधिक निजी उद्योगपतियों को लाभ पहुंचता प्रतीत होता है. इसलिए स्थानीय सरकार का कृषि को संरक्षण आवश्यक प्रतीत होता है. देश की बढ़ती आबादी को ‘खाद्द सुरक्षा’ मुहैया करवाने के लिए भी कृषि क्षेत्र को संरक्षण का आवश्यकता है. उद्योगों के लिए जिस तरह आधारभूत संरचना का विकास किया जा रहा है, तदनुरूप कृषि क्षेत्र में निवेश कर इसे भी आधुनिक उद्योगों के भाँती लाभदायक बनाया जा सकता है.
भारत के मुख्य किसान आंदोलन (Major Farmer Movements of India)
- रामोसी किसानों का विद्रोह (1822): ब्रिटिश प्रशासन के नए पैटर्न के खिलाफ चित्तौड़ सिंह के नेतृत्व में.
- नील विद्रोह (1859-62): बंगाल में नील की खेती न करने के लिये आंदोलन.
- पाबना आंदोलन (1870-80): पूर्वी बंगाल में लगान और कर के जबरन वसूली के खिलाफ.
- दक्कन विद्रोह (1875): मारवाड़ी और गुजराती साहूकारों की ज़्यादतियों के खिलाफ.
- बिजोलिया किसान आंदोलन (1897-1941): क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में निरंकुश नौकरशाही एवं स्वेच्छाचारी सामंतों के खिलाफ.
- ताना भगत आंदोलन (1914): बिहार में लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध.
- चंपारण सत्याग्रह (1917): नील के खेती के लिए लागू तीन कठिया सिद्धांत के खिलाफ (अंग्रेजों ने जमीन के 3 /20 हिस्से पर नील का खेती करना अनिवार्य कर दिया था.).
- खेड़ा सत्याग्रह (1918): गुजरात के खेड़ा ज़िले में फसलें नष्ट होने पर वर्ष का भू-राजस्व वसूली समाप्त करवाने के लिए
- मोपला विद्रोह (1921): जबरन वसूली के कारण जमींदारों और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ.
- बारदोली सत्याग्रह (1928): गुजरात के बारदोली ज़िले में भू-राजस्व में 30% की वृद्धि के खिलाफ.
- वर्ष 1936: अखिल भारतीय किसान सभा का गठन