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आर्थिक उदारीकरण और इसके प्रभाव

    भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) का शुरुआत वर्ष 1991 से माना जाता है. इसका श्रेय मुख्य तौर पर भारत के नौवें प्रधानमन्त्री पी. वी. नरसिम्हा राव को दिया जाता है. इनके कार्यकाल के दौरान पांच उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी उद्योगों को लाइसेंसिंग के प्रभाव से मुक्त कर दिया गया.

    सरकार के इस प्रयास को उदारीकरण कहा गया. इसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्रों को बढ़ावा मिला और भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण होने लगा. इसलिए पीएम राव के इस कदम को उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के लिए उठाया गया कदम माना जाता है.

    वस्तुतः भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण द्वारा वैश्वीकरण और निजी क्षेत्र को बढ़ावा मिला. इसलिए उदारीकरण के प्रभाव को बेहतर ढंग से समझने के लिए इसके साथ वैश्वीकरण और निजीकरण को समझना भी आवश्यक है. तो आइए हम इन तीनों शब्दों के व्यापकता और भारतीय अर्थव्यवस्था पर इनके प्रभाव को समझते है.

    भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण (Liberalisation of Indian Economy)

    आजादी के बाद भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया, जिसमें सार्वजनिक व निजी क्षेत्रों का सहअस्तित्व था. मुख्य, बड़े और रणनीतिक उद्योगों को सार्वजनिक तथा शेष को निजी क्षेत्रों के लिए आरक्षित किया गया. कुछ ऐसे भी उद्योग थे जिन्हें दोनों क्षेत्रों के लिए खुला रखा गया. इसलिए कहा जा सकता है कि आजादी के बाद से 1991 में नई आर्थिक नीति लागु होने तक भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरुप मुख्यतः समाजवादी था. 1980 के दशक में राजीव गाँधी के कार्यकाल के दौरान अर्थव्यवस्था को मुख्य स्थान दिया जाने लगा. 1984 और 1985 के दौर में नए औद्योगिक नीति से इसे बल मिला.

    आगे चलकर, 1991 के समय खाड़ी संकट और तत्कालीन सोवियत संघ के विघटन ने भारत के लिए भुगतान समस्या उत्पन्न कर दिया. इस संकट ने निपटने के लिए तत्कालीन पीएम नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कार्यरत वित्तमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का रास्ता चुना. इस तरह 24 जुलाई 1991 को भारत में नई आर्थिक नीति अपनाकर आर्थिक उदारीकरण अपना लिया गया. आगे चलकर 2004 से 2014 के दौरान डॉ मनमोहन सिंह दो कार्यकाल के लिए भारत के प्रधानमंत्री भी बने.

    इससे पूर्व भारत में उद्योग स्थापित करने और कारोबार करने के लिए कई तरह के अड़चने थीं. आयात लाइसेंस प्रणाली, उद्योग लाइसेंस प्रणाली, मूल्य और वित्तीय नियंत्रण, विदेशी मुद्रा नियंत्रण और निवेश की सीमा इत्यादि देश में निजी उद्योगों के विकास में बाधक माने जा रहे थे. नए आर्थिक नीति के तहत सिर्फ सिगरेट, शराब, रक्षा उपकरण, औद्योगिक विस्फोटक व खतरनाक रसायनों को सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए आरक्षित रखा गया. साल 2010-11 में सिर्फ परमाणु ऊर्जा और रेल यातायात को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित किया गया, शेष में निजी भागीदारी की अनुमति दे दी गई.

    वित्तीय क्षेत्रों का उदारीकरण (Liberalisation of Financial Sector in Hindi)

    भारत में उदारीकरण के दौरान पूंजी बाजार, बैंकिंग क्षेत्र, विदेशी निवेश और मुद्रा व्यापार के क्षेत्र में कई बदलाव किए गए. इन्हें ‘वित्तीय उदारीकरण’ कहना अधिक उचित है, जिसमें निम्नलिखित सुधार मुख्य है-

    • विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार को सरकार के नियंत्रण से मुक्त किया गया और विदेशी मुद्रा के लिए विनिमय दर को बाजार के बलों के अधीन निर्धारित करने की प्रणाली अपनाई गई.
    • बैंकों को अधिक स्वायत्ता प्रदान किए गए. इनमें निवेश करने, ऋण देने और विदेशी मुद्रा में व्यापार करने की अनुमति शामिल है.
    • पूंजी बाजारों को अधिक पारदर्शी और कुशल बनाने के लिए कई सुधार किए गए. 1992 में सेबी का स्थापना इसी के तहत आता है. अप्रैल 2001 में क्लीयरिंग कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया का स्थापना कर पूंजी बाजार को और भी पारदर्शी बनाया गया.
    • कर प्रणाली को सरल और अधिक न्यायसंगत बनाने के लिए सुधार किए गए. सस्ते और सरल कराधान ने भारतीय वित्तीय प्रणाली को अधिक कुशल और प्रतिस्पर्धी बना दिया. इससे विदेशी निवेश में वृद्धि हुई, जो आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में मददगार साबित हुआ.
    • विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) को नियंत्रित करने वाले नियमों में ढील दी गई, जिससे विदेशी कंपनियों को भारत में अधिक आसानी से निवेश करने की अनुमति मिली. वर्तमान में निम्नलिखित क्षेत्रों को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रों में एफडीआई निवेश की अनुमति है-
      • जुआ और सट्टेबाजी; लॉटरी व्यवसाय (सरकारी/निजी लॉटरी, ऑनलाइन लॉटरी आदि सहित);
      • वे क्षेत्र जो निजी क्षेत्र के निवेश के लिए खुले नहीं हैं (जैसे, परमाणु ऊर्जा/रेलवे);
      • चिटफंड का कारोबार;
      • निधि कंपनी;
      • रियल एस्टेट व्यवसाय या फार्महाउस का निर्माण;
      • हस्तांतरणीय विकास अधिकारों में व्यापार; और,
      • तम्बाकू, सिगार, चेरूट, सिगारिलो, सिगरेट और अन्य तम्बाकू उत्पादों का विनिर्माण इत्यादि.
    • आगे चलकर 2013 व 2019 में कंपनी अधिनियम में सुधार किए गए, जिससे निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए अधिक स्वतंत्रता और लचीला कानून प्रदान किया गया.
    • भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) को अधिक स्वतंत्रता दी गई, जिससे इसे मौद्रिक नीति को अधिक प्रभावी ढंग से संचालित करने का अनुमति मिला.
    • जीएसटी (1 जुलाई 2017 से लागू) के लागु होने से कराधान व्यवस्था भ्रष्टाचार मुक्त व सरल बना. हाल ही में जीएसटी ने अपने 6 वर्ष पुरे कर लिए है.

    विनिवेश और निजीकरण (Disinvestment and Privatisation in Hindi)

    1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ ही सरकार द्वारा सार्वजनिक उद्यमों में विनिवेश का नीति अपना लिया गया. उस वक्त देश की अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए कई आर्थिक सुधारों की घोषणा की गई, जिनमें विनिवेश और निजीकरण भी शामिल थे. इसके साथ ही उद्योगों व व्यवसाय के लिए नीतियां सरल कर दी गई. इससे निजीकरण को काफी बढ़ावा मिला.

    विनिवेश से तात्पर्य किसी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम (PSU) में सरकार की हिस्सेदारी को कम करना या उसे निजी कारोबारियों या कंपनियों को बेचने से है. वहीं, निजीकरण से तात्पर्य किसी पीएसयू को पूरी तरह से निजी क्षेत्र को सौंपना है.

    केंद्र सरकार ने मई 2022 में पूर्णतः सरकारी कम्पनी भारतीय जीवन बिमा निगम में विनिवेश किया था. इस दौरान इसका आईपीओ लाया गया और सरकार ने अपने 3.5 फीसदी हिस्सेदारी बेचकर ₹21,008.48 करोड़ जुटाए थे. इस धनराशि को भारत सरकार के खजाने में जमा कर दिया गया, जिसे सरकार ने राजस्व घाटा कम करने व अन्य विभिन्न प्रयोजनों के लिए उपयोग किया.

    सकारात्मक प्रभाव (Positive effects)

    विनिवेश और निजीकरण का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कई तरह का प्रभाव पड़ा. इसके कुछ सकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं:

    • दक्षता में सुधार: विनिवेश और निजीकरण से सार्वजनिक उद्यमों (PSU) में प्रचालनात्मक दक्षता में सुधार हुआ है. निजी क्षेत्र में अधिक प्रतिस्पर्धा होने से सार्वजनिक उद्यमों को अपने उत्पादों और सेवाओं की गुणवत्ता और कीमतों में सुधार करने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
    • राजस्व में वृद्धि: विनिवेश और निजीकरण से सरकार को अचानक बड़ी राशि प्राप्त होती है. इस राशि का उपयोग किसी बड़े प्रयोजन में करके अर्थव्यवस्था को गति प्रदान किया जा सकता है.
    • निवेश में वृद्धि: विनिवेश और निजीकरण के नीति से धन्नासेठ अधिक धन का निवेश कारोबार में करते है, जो आर्थिक गतिविधि में उछाल ला देता है.
    • गुणवत्ता में सुधार: निजी क्षेत्र अपना कारोबार प्रतिस्पर्धा के सिद्धांतों पर चलाते है. इसलिए ये अपने उत्पाद के गुणवत्ता में सुधार करते रहते है. साथ ही, कम कीमत पर बेहतर गुणवत्ता का उत्पाद बेचकर बाजार पर कब्ज़ा करने की कोशिश की जाती है. ये सब कारक ग्राहकों को किफायती दरों पर गुणवत्तापूर्ण उत्पाद उपलब्ध करवाते है.
    • नौकरी व रोजगार सृजन: विनिवेश और निजीकरण से निवेश का परिमाण बढ़ जाता है, जो सम्बंधित उद्योग, रोजगार व नौकरी के विकास में सहायता प्रदान करता है.

    नकारात्मक प्रभाव (Negative effects)

    विनिवेश और निजीकरण का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कुछ नकारात्मक प्रभाव भी पड़े हैं, जो निम्नलिखित हैं:

    • मूल्य वृद्धि: निजीकरण के बाद, कई कंपनियों ने अपने उत्पादों और सेवाओं की कीमतें बढ़ा दी. इससे उपभोक्ताओं पर अतिरिक्त बोझ पड़ा है.
    • बेरोजगारी: निजी क्षेत्र का एक उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना भी होता है. इसलिए कई बार कर्मचारियों की छंटनी भी कर दिया जाता है. इस तरह से हुए छंटनी से बेरोजगारी को बढ़ावा मिला है.
    • वैश्वीकरण: निजीकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण हुआ है. कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में आ गई. कई बार इन विदेशी कंपनियों के उत्पाद स्थानीय उत्पादों से बेहतर होते है. इससे स्वदेशी कंपनियों को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है. विदेशी कंपनियों के प्रतिस्पर्धी उत्पाद न तैयार कर पाने के स्तिथि में स्थानीय उद्योगों में तालाबंदी का भी खतरा उत्पन्न होता है.
    • सामाजिक न्याय: चूँकि निजी क्षेत्र लाभ को अधिकतम करने पर ध्यान केंद्रित करता है, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र सामाजिक हित को ध्यान में रखते हुए कार्य करता है. कुछ लोगों का मानना है कि विनिवेश और निजीकरण से सामाजिक न्याय को खतरा हो सकता है.

    निजीकरण व विनिवेश के कुप्रभावों से बचने के उपाय (Precautionary measures against Privatisation and Disinvestment)

    विनिवेश और निजीकरण के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए सरकार को निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:

    • सरकारी नियमों और विनियमों को मजबूत करना, ताकि उपभोक्ताओं और कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा की जा सके.
    • नई नौकरियों के अवसर पैदा करने के लिए सरकार को अतिरिक्त उपाय करने चाहिए. नव-प्राद्यौगिकी (जैसे नैनो टेक्नोलॉजी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता) पर आधारित खोज को बढ़ावा देना, कृषि का आधुनिकीरण, निर्यातोन्मुख अर्थव्यवस्था का निर्माण इत्यादि इसके कुछ उदाहरण है.
    • सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को मजबूत करने के लिए सरकार को विशेष कदम उठाना चाहिए. जैसे, बेहतर कार्य करने वाले सार्वजनिक निगमों के कर्मियों को पुरस्कृत करना, निजी क्षेत्र के आधार पर सार्वजनिक क्षेत्र का प्रबंधन इत्यादि.

    वैश्वीकरण (Globalisation in Hindi)

    दुनिया के विभिन्न हिस्सों का आपस में जुड़ना वैश्वीकरण कहलाता है. अर्थशास्त्र में, वैश्वीकरण को उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें व्यवसाय, संगठन और देश, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम करना शुरू करते देते हैं.

    वैश्वीकरण का प्रयोग अक्सर आर्थिक संदर्भ में किया जाता है. लेकिन यह राजनीति और संस्कृति को भी प्रभावित करता है और उससे प्रभावित भी होता है. सामान्य तौर पर, वैश्वीकरण से विकासशील देशों में जीवन स्तर में वृद्धि देखी गई है. लेकिन कुछ विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि वैश्वीकरण का स्थानीय या उभरती अर्थव्यवस्थाओं तथा व्यक्तिगत श्रमिकों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.

    विश्व व्यापर संघठन (WTO) का स्थापना 1 जनवरी 1995 को हुआ था. यह वैश्विक व्यापर संचालन के लिए वैश्विक समझौतों संचालित व नियमित करता है. 164 देश या समकक्ष प्रदेश इसके सदस्य है. 30 अक्टूबर 1947 को 30 देशों द्वारा हताक्षरित गेट (General Agreement on Trade and Tariff) का स्थान WTO ने लिया है. WTO के तत्वाधान में दुनिया भर में कई व्यापारिक अनुबंध लागु हुए है, जिससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि हुई है. भारत भी इसका संस्थापक सदस्य है.
    WTO का वैश्वीकरण और उदारीकरण में योगदान

    वैश्वीकरण का ऐतिहासिक सन्दर्भ (Historical reference of Globalisation in Hindi)

    वैश्वीकरण कोई नई चीज नहीं है. सभ्यता की शुरुआत से ही लोग धरती के अलग-अलग हिस्सों में वस्तुओं का व्यापार करते रहे हैं. सिंधु घाटी, मेसोपोटामिया और सुमेरियन सभ्यता में ऐसे व्यापारिक रिश्तों के पुरातात्विक साक्ष्य तक मिले है. व्यापारिक मार्ग, जलमार्ग व तकनीक के विकास के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार काफी दूर-दूर तक फ़ैल गए. सिल्क रोड, यूरोप, उत्तरी अफ्रीका, पूर्वी अफ्रीका, मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और सुदूर पूर्व के बीच उपयोग किए जाने वाले व्यापार मार्गों का एक प्राचीन नेटवर्क है; जो प्रारंभिक वैश्वीकरण का एक उदाहरण है.

    1,500 से अधिक वर्षों तक यूरोपीय लोगों ने कांच और अन्य उत्पादित वस्तुओं के बदले और चीनी रेशम और मसालों का आयात किया. इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था के निर्माण में मदद मिला, जिससे यूरोप और एशिया दोनों महाद्वीपों के लोग दूर से सामान के आदी हो गए.

    यूरोप द्वारा नई दुनिया के खोज के बाद वैश्वीकरण का विस्तार तेजी से हुआ. इस दौरान पौधों, जानवरों, खाद्य पदार्थों, संस्कृतियों और विचारों के व्यापक हस्तांतरण हुए, जिसे कोलंबियन एक्सचेंज कहा गया. यूरोप के उभार के साथ ही, त्रिकोणीय व्यापार नेटवर्क का विकास हुआ, जिसमें जहाज द्वारा निर्मित माल को यूरोप से अफ्रीका ले जाते थे, अफ्रीकियों को गुलाम बनाकर अमेरिका ले जाते थे और कच्चा माल वापस यूरोप ले जाते थे.

    इस तरह फैले गुलामी से पता चलता है कि वैश्वीकरण लोगों को उतनी ही आसानी से चोट पहुँचा सकता है जितनी आसानी से यह लोगों को जोड़ सकता है.

    हाल के वर्षों में संचार और परिवहन में तेजी से हुई प्रगति हुआ है. इसके परिणामस्वरूप वैश्वीकरण की दर में भी वृद्धि हुई है. इंटरनेट ने सूचनाओं के साथ-साथ मौद्रिक भुगतान को भी तेज और सरल बना दिया है. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समझौते और अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक संगठनों के कारण भी वैश्वीकरण सुगम हुआ है.

    राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता से भी अंतर्राष्ट्रीय आवागमन और व्यापार के वैश्वीकरण को बल मिला है. उदाहरण के तौर पर, अफ्रीका और मध्य-पूर्व में राजनैतिक अस्थिरता के कारण अक्सर आर्थिक अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है. इस कारण अफ्रीका और मध्य पूर्व के तुलना में लैटिन अमेरिका और एशिया को वैश्वीकरण का अधिक लाभ मिला है.

    वैश्वीकरण का विभाजन (Classification of Globalisation in Hindi)

    हम वैश्वीकरण को तीन भागों में विभाजित कर सकते है-

    1. प्रथम वैश्वीकरण 1.0, 1492 से 1800 तक– वैश्वीकरण 1.0 में, वैश्विक विस्तार पर राष्ट्रों का प्रभुत्व रहा. उदाहरण के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी पर ब्रिटिश क्राउन का पकड़ बना रहा.
    2. दूसरा 2.0 1800 से 2000 तक– वैश्वीकरण 2.0 में, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आगे बढ़ीं और वैश्विक विकास को आगे बढ़ाया. इसी दौरान आधुनिक युग के कई कंपनियां बनी, जैसे टाटा, फोर्ड इत्यादि.
    3. तीसरा 3.0 2000 से वर्तमान तक– आज, प्रौद्योगिकी वैश्वीकरण 3.0 को संचालित करती है. इस युग में अमेज़ॉन, एप्पल, इनफ़ोसिस जैसे कंपनियों का बोलबाला है.

    वैश्वीकरण के लाभ (Benefits of Globalisation)

    वैश्वीकरण (भूमंडलीकरण) से सस्ते कच्चे माल का व्यापार सुगम हो गया है, जो व्यवसाय को प्रतिस्पर्धी बनाने में मदद करता है. वैश्वीकरण से निजी सामंजस्य व समझ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. इससे विकसित देशों से विकासशील देशों को प्राद्यौगिकी का हस्तांतरण आसान हुआ है. विकासशील देश इन प्रौद्यौगिकी और सस्ते श्रम के बल पर टिकाऊ व सस्ते उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन कर अपने अर्थव्यवस्था को मजबूती दे सकते है.

    इसके बदौलत किसी उत्पाद के विभिन्न हिस्से दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में बनाए जा सकते हैं. उदाहरण के लिए, ऑटोमोटिव उद्योग द्वारा लंबे समय से वैश्वीकरण का उपयोग किया जाता रहा है, जहां कार के विभिन्न हिस्सों का निर्माण विभिन्न देशों में किया जा सकता है.

    सस्ते श्रम के उपलब्धता के कारण कई विकसित देशों के कारोबारी विकासशील व अल्पविकसित देशों से वस्तुएं तैयार करवाकर अपने देश में आयात कर लेते है. कपड़ा, लेदर, जूते व मानव श्रम के आवश्यकता वाले अन्य उद्योग इसके उदाहरण है. एप्पल इंक द्वारा अपने उत्पाद के विभिन्न कलपुर्जों का उत्पादन कई देशों में आउटसोर्स करना इसका बेहतरीन उदाहरण है.

    संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित कई व्यवसायों ने अपने कॉल सेंटर या सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं को भारत के कंपनियों को आउटसोर्स कर दिया है. उत्तरी अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौते (नाफ्टा) के सहभागी के रूप में, अमेरिकी ऑटोमोबाइल कंपनियों ने अपने परिचालन को मैक्सिको में स्थानांतरित कर दिया, जहां श्रम लागत कम है. चीन भी एक ऐसे देश का प्रमुख उदाहरण है, जिसे वैश्वीकरण से अत्यधिक लाभ हुआ है. एक अन्य उदाहरण वियतनाम है, जहां वैश्वीकरण के कारण किसानों को चावल का बेहतर कीमत मिलने लगा. इससे इन देशों के अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ और सेवा व निर्माण क्षेत्र में रोजगार की भी वृद्धि हुई.

    वैश्वीकरण से सस्ते श्रम का सदुपयोग हो जाता है, जो विनिर्माण के लागत को कम कर देता है. इससे उपभोक्ताओं को सस्ता उत्पाद प्राप्त करने में मदद मिलता है. वैश्विक व्यापार के सुगम होने से पोषणयुक्त आहार का आयात-निर्यात भी आसान हुआ है, जो खाद्य सुरक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक है.

    वैश्वीकरण की खामियां (Defects of Globalisation)

    जैसे किसी भी बदलाव के फायदों के साथ-साथ नुकसान होते है. ठीक उसी तरह वैश्वीकरण के जहां फायदे है, वहीं नुकसान भी है. वैश्वीकरण के कारण विकसित देशों से अल्पविकसित व विकासशील देशों में रोजगार का स्थानांतरण होता है. इससे विकसित देशों में बेकारी उत्पन्न होता है. ऐसे स्थिति में अधिक श्रम लागत वाले विकसित देशों को सस्ते श्रम वाले देशों से प्रतिस्पर्धा करना पड़ता है.

    विकासशील देशों में कई बार लागत कम रखने के कोशिश में बहुत से समझौते किए जाते है. ऐसे ही कारणों से साल 2013 में बांग्लादेश का एक कपड़ा फैक्ट्री गिर गया था, जिसमें करीब 1300 लोग मारे गए.

    आलोचकों का यह भी सुझाव है कि गरीब देशों में बच्चों के लिए रोजगार के अवसर बाल श्रम के नकारात्मक प्रभावों को बढ़ा सकते हैं और गरीब परिवारों के बच्चों को स्कूल से दूर कर सकते हैं.

    सामान्य तौर पर, ऐसे आलोचक वैश्वीकरण के दबाव को दोषी मानते हैं जो विकासशील देशों में श्रमिकों का शोषण करता है और पर्याप्त सुरक्षा प्रदान नहीं करते हैं.

    अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि वैश्वीकरण किसी समाज के अधिक शिक्षित और कम शिक्षित सदस्यों के बीच आय विषमता और असमानता की खाई को चौड़ा कर सकता है. इसका मतलब यह है कि अकुशल श्रमिक मजदूरी में गिरावट का कारण हो सकते हैं, जो वैश्वीकरण से उपजे प्रतिस्पर्धा के दबाव में होता हैं.

    भारत पर उदारीकरण का प्रभाव (Effects of Liberalisation on India)

    • उदारीकरण से भारतीय उद्योग प्रतिस्पर्धी हुए है. भारत का 2047 तक मध्यम आय वाले देश के श्रेणी में शामिल होने का संभावना है.
    • भारत का 65 प्रतिशत आबादी कामकाजी वर्ग का है. इसके वर्ष 2055-56 तक बने रहने का अनुमान है.
    • उदारीकरण से आर्थिक विकास दर तेजी से बढ़ा है. जहाँ वित्तवर्ष 1990-91 में यह मात्र 1.1 फीसदी था, वहीं 2022-23 में बढ़कर 7.2 फीसदी हो गया. लेकिन, इस दौरान कृषि का जीडीपी में योगदान 29.02 फीसदी से घटकर 18.3% रह गया.
    • उदारीकरण से कृषि आधारित उद्योगों का भी विकास हुआ है. खाद्य प्रसंकरण उद्योग व व्यावसायिक फसलों पर आधारित उद्योगों ने कृषि उत्पादों के लिए सहज बाजार उपलब्ध करवाया है.
    • उदारीकरण से शहरों में रोजगार की वृद्धि हुई है. इसके कारण गांवो से शहरों के तरफ पलायन को बढ़ावा दिया है. इससे शहरी आबादी बढ़ी है और शहरीकरण का विकास भी तेज हुआ है.
    • शहरियों के क्रय क्षमता में वृद्धि से डेयरी व महंगे कृषि उत्पादों का खपत बढ़ा है. इससे शहर के आसपास ग्रामीण इलाकों में कृषि भी आय का मुख्य स्त्रोत बन गया है.
    • उदारीकरण के बदौलत भारत ने खुद का पहचान आउटसोर्सिंग हब के रूप में बनाया है. सॉफ्टवेयर व कॉल सेंटर से जुड़े कारोबार ने शिक्षित भारतीय युवाओं को रोजगार उपलब्ध करवाए है.
    • वैश्विक जुड़ाव से भारतीय पर्यटन व इससे सम्बन्धित कारोबार में तेजी आता है.
    • भारत में उदारीकरण से सेवा क्षेत्र व कारोबारी या कारोबार से जुड़े लोग ही अधिक लाभान्वित हुए है. उदारीकरण के बाद इन्होंने, किसानों व मजदूरों के तुलना में अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त किए है.
    • उदारीकरण ने इंस्पेक्टर राज समाप्त कर सभी को व्यापार का सरल नियम दिया. लेकिन यह आर्थिक असमानता को पाटने में विफल रहा है.
    • ऑक्सफैम (Oxfam) की वार्षिक असमानता रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है.
    • इसी रिपोर्ट के अनुसार, भारत के सबसे कम आय वाले 50 फीसदी लोगों के पास मात्र 3 फीसदी धन है.
    • भारत में जहां 2020 में अरबपतियों की संख्या 102 थी, वहीं 2022 में यह आंकड़ा 166 पर पहुंच गया है. यह अमीर को और भी अमीर बनाने का उदाहरण है.
    • ‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट’ शीर्षक नाम से 16 जनवरी, 2023 को स्विट्जरलैंड के दावोस में हो रहे वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (WEF) में प्रस्तुत की गई थी.
    • वस्तुतः, भारत में उदारीकरण ने अमीर को और अधिक अमीर व गरीबों को और अधिक गरीब बनाया है. उदारीकरण ने समाजवाद और आर्थिक न्याय के सिद्धांतों को समाहित करने में विफल रहा है.

    भारत में उदारीकरण के चुनौतियाँ

    • कृषि क्षेत्र में सुधार: भारतीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी कृषि पर आधारित है. लेकिन उदारीकरण के लाभों से यह क्षेत्र वंचित है. कृषि आज भी काफी पिछड़ा हुआ है. इसलिए कृषि क्षेत्र में सुधार करने के लिए सरकारी निवेश और नवाचार की आवश्यकता है.
    • प्रौद्योगिकी में सुधार: भारत को नई प्रौद्योगिकियों का लगातार खोज व पुराने प्रोद्यौगिकियों में सुधार करने की जरूरत है, ताकि देश वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धी बना रहे.
    • आर्थिक असमानता: उदारीकरण ने भारत में आर्थिक असमानता को बढ़ा दिया है. इससे उपजा जन-असंतोष लोकतंत्र के लिए सही नहीं कहा जा सकता है. इसलिए, इस असमानता को कम करने के लिए उदारीकरण के तर्ज पर नए नीतियों को लागू करने की आवश्यकता है.
    • पर्यावरणीय प्रभाव: उदारीकरण से भारत में कई उद्योग पनपे है. इन उद्योगों का लाभ मुट्ठीभर लोगों ने ही उठा पाया है. लेकिन इससे पैदा हुए प्रदुषण ने सभी को प्रभावित किया है. इसलिए, पर्यावरणीय संरक्षण व वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रमों में निवेश बढ़ाने की जरूरत है.
    • भारत का एक बड़ा हिस्सा अशिक्षित और अकुशल है. इन्हें शिक्षित व प्रशिक्षित करने पर उदारीकरण से मिलने वाले लाभ के दायरे में नए लोग जुड़ जाएंगे.
    • छोटे कारोबारियों के लिए लोन का महंगा होना और लोन न मिलना भी एक समस्या है. इससे इनके विकास का मार्ग अवरुद्ध होता है और बड़े उद्योगों के अनुपात में अपना विकास नहीं कर पाते है.
    • समाजवाद व सामाजिक न्याय: देश के वंचित समूहों तक उदारीकरण का लाभ पहुंचाकर एक हद तक समाजवाद और सामाजिक न्याय का लक्ष्य पाया जा सकता है.

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