व्यापार चक्र किसी अर्थव्यवस्था में समय के साथ आर्थिक गतिविधियों में होने वाले उतार-चढ़ाव को दर्शाता है. इसमें चढ़ाव के दौरान उच्च राष्ट्रीय आय, अधिक उत्पादन, अधिक रोजगार और ऊँची कीमतें होती हैं, जिसे समृद्धि काल कहा जाता है. इसके विपरीत, उतार के समय कम राष्ट्रीय आय, कम उत्पादन, कम रोजगार और नीची कीमतें पाई जाती हैं, जिसे मन्दी काल कहा जाता है. सरल शब्दों में, व्यापार चक्र अर्थव्यवस्था में मन्दी और तेजी के परिवर्तन को दर्शाता है.
व्यापार चक्र का अर्थ व परिभाषा (Meaning and Definition of Business Cycle)
व्यापार चक्र का अर्थ है उन परिवर्तनों का समूह जो एक अर्थव्यवस्था में आर्थिक गतिविधियों के विस्तार, सुस्ती, मन्दी और पुनरुत्थान को दर्शाता है.
एनातोल मुराद के अनुसार, व्यापार चक्र की सबसे सरल परिभाषा तेजी और मन्दी के बार-बार उत्पन्न होने की स्थिति है. केन्ज के अनुसार, यह अच्छी और खराब व्यापार अवधि का योग है, जिसमें अच्छी अवधि में कीमतों में वृद्धि और बेरोजगारी में गिरावट होती है, जबकि खराब अवधि में कीमतों में गिरावट और बेरोजगारी में वृद्धि होती है.
व्यापार चक्र के प्रकार (Types of Business Cycle in Hindi)
व्यापार चक्र के तीन प्रकार निम्नलिखित हैं:
- आर्थिक चक्र: यह अर्थव्यवस्था में वृद्धि और संकुचन का समग्र पैटर्न है, जिसमें जीडीपी, बेरोजगारी, मुद्रास्फीति और अन्य प्रमुख आर्थिक संकेतकों में परिवर्तन शामिल हैं. यह चक्र आमतौर पर 5-10 वर्षों का होता है और उपभोक्ता खर्च, निवेश गतिविधि, सरकारी नीति और वैश्विक प्रभावों से संचालित होता है. विस्तार की अवधि में उच्च उत्पादन से श्रमिकों के लिए वेतन बढ़ता है, जिससे खपत और निवेश में वृद्धि होती है, लेकिन अंततः बाजार संतृप्ति मंदी का कारण बनती है.
- व्यापार चक्र: यह आर्थिक चक्र के विभिन्न चरणों के दौरान होने वाली व्यावसायिक गतिविधियों में उतार-चढ़ाव को दर्शाता है. इसमें चार मुख्य चरण होते हैं:
- रिकवरी (व्यवसायों का पुनः निवेश)
- समृद्धि (मुनाफे में वृद्धि)
- मंदी (निवेश में कमी)अवसाद (मुनाफे में गिरावट).
- अंतर्निहित कारण के आधार पर चक्र की लंबाई, गहराई और गंभीरता विभिन्न कारणों पर निर्भर करती है.
- वित्तीय चक्र: यह वित्तीय बाजारों में होने वाले परिवर्तनों को दर्शाता है, जैसे स्टॉक की कीमतें, बॉन्ड यील्ड और विदेशी मुद्रा दरें. यह आमतौर पर कई वर्षों तक चलता है और व्यापक मैक्रोइकॉनोमिक रुझानों के साथ-साथ भू-राजनीतिक घटनाओं और वित्तीय नियमों में बदलाव से भी प्रभावित होता है.
व्यापार चक्र की अवस्थाएं
व्यापार चक्र की अवस्थाएं तेजी और मन्दी के चक्र के अंतर्गत होती हैं, जिसमें मूल्य और रोजगार लगातार बढ़ते या घटते रहते हैं. चूंकि व्यापार चक्र का कोई निश्चित प्रारंभ बिन्दु नहीं होता, अध्ययन की सुविधा के लिए इसे एक प्रारंभिक बिन्दु से समझा जाता है, जिसे मूल्य का अधिकतम उतार माना जाता है.
जब मूल्य निम्नतम स्तर पर पहुँचते हैं और बेरोजगारी उच्चतम स्तर पर होती है, तो इसे मन्दी (Depression) कहा जाता है. इसके बाद व्यापार चक्र की चार अवस्थाएं होती हैं: पुनरुद्वार (Recovery), पूर्ण रोजगार (Full Employment), तेजी (Boom), और अवरोध (Recession).
व्यापार चक्र की विभिन्न अवस्थाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नवत् है:
- पुनरुद्वार (Recovery),
- पूर्ण रोजगार (Full Employment),
- तेजी (Boom) और
- अवरोध (Recession)
1. मन्दी की अवस्था
मन्दी की अवस्था व्यापार चक्र की पहली अवस्था है, जिसमें व्यवसायिक क्रियाएं सामान्य स्तर से नीचे गिर जाती हैं. इस दौरान उत्पादन और रोजगार में भारी गिरावट होती है, जिससे श्रमिक और अन्य संसाधन बेकार हो जाते हैं और मजदूरी में कमी आती है.
मन्दी के दौरान कीमतें तेजी के समय की तुलना में बहुत गिर जाती हैं, जिससे वस्तुओं की संरचना अस्त-व्यस्त हो जाती है. तैयार माल की कीमतें श्रम के पुरस्कारों से कम हो जाती हैं, और रोजगार में लगे व्यक्तियों की वास्तविक आय घटती है, जबकि राष्ट्रीय लाभांश में विषमता बढ़ जाती है.
कच्चे माल और कृषि उपजों की कीमतें भी गिर जाती हैं, जिससे किसानों को नुकसान होता है. निर्माण उद्योग, विशेषकर निर्माण, विद्युत उपकरण और मशीन निर्माण, मन्दी से अधिक प्रभावित होते हैं, जबकि उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योग पर कम असर होता है.
संक्षेप में, मन्दी की प्रमुख विशेषताएं हैं:
- निम्न विनियोग और उत्पादन
- बड़े पैमाने पर बेरोजगारी
- न्यून मजदूरी, आय, कीमतें और लाभ
- कम अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार
- कम ब्याज दर
- निराशाजनक आर्थिक माहौल
2. पुनरुद्वार (Recovery)
पुनरुद्वार (Recovery) की अवस्था मन्दी के निम्नतम बिंदु के बाद की स्थिति है, जब व्यवसायिक क्रियाएं बढ़ने लगती हैं. इस अवस्था में अर्थव्यवस्था की स्थिति मन्दी की तुलना में अधिक संतोषजनक होती है.
प्रारंभ में व्यवसायिक गतिविधियों में थोड़ा सुधार होता है, और उद्यमियों को आर्थिक स्थिति में सुधार का अनुभव होता है. औद्योगिक उत्पादन और रोजगार बढ़ने लगते हैं, और कीमतों में धीरे-धीरे वृद्धि होती है. लाभ और मजदूरी भी बढ़ते हैं, हालांकि मजदूरी की वृद्धि कीमतों के अनुरूप नहीं होती.
बढ़ते लाभ को देखकर निदेशक पूंजीगत वस्त्र उद्योगों में नए निवेश करने लगते हैं, और बैंक साख का विस्तार होता है. इस प्रकार, मन्दी के निराशाजनक माहौल के स्थान पर आशावादिता की स्थिति उत्पन्न होती है.
पुनरुद्वार की प्रक्रिया लगातार तेज होती है, लेकिन इसकी एक सीमा होती है, जो पूर्ण रोजगार द्वारा निर्धारित होती है. पुनरुद्वार की प्रक्रिया प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हो सकते हैं: नवीन विधियों की खोज, नए बाजारों का पता लगाना, नए निवेश के रूपों की पहचान, और नवीन उत्पादों का चलन.
3. पूर्ण रोजगार की अवस्था
पूर्ण रोजगार की अवस्था व्यापार चक्र की तीसरी अवस्था है, जिसे सम्पन्नता (Prosperity) भी कहा जाता है. यह सभी देशों की राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों का एक प्रमुख लक्ष्य होता है. इस अवस्था में सभी उत्पादन साधन कार्य में लगे होते हैं, और कोई भी व्यक्ति जो उत्पादन में शामिल होना चाहता है, ऐसा कर सकता है.
लेकिन, पूर्ण रोजगार का मतलब यह नहीं है कि बेरोजगारी पूरी तरह समाप्त हो जाती है, क्योंकि श्रमिक काम बदलने के दौरान अस्थायी रूप से बेकार हो सकते हैं.
संक्षेप में, पूर्ण रोजगार की अवस्था में:
- आर्थिक गतिविधियां अनुकूलतम स्तर पर पहुँच जाती हैं.
- काम करने की इच्छा रखने वाला कोई व्यक्ति बेकार नहीं रहता.
- उत्पादन, मजदूरी, कीमतें और आय में स्थिरता आती है.
4. तेजी की अवस्था
तेजी की अवस्था पुनरुद्वार के बाद की स्थिति का ही विस्तार है. इस चक्र में अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार पर पहुँचने के बाद भी बढ़ती रहती है. जब व्यय बढ़ता है, तो निम्नलिखित लक्षण प्रकट होते हैं:
- पूर्ण रोजगार की स्थिति के बावजूद वास्तविक उत्पादन में वृद्धि नहीं होती, क्योंकि संसाधनों का पूरा उपयोग हो चुका होता है, लेकिन कीमतें बढ़ने लगती हैं.
- उद्योगों में अत्यधिक निवेश होता है, जिससे पहले से कार्यरत संसाधनों पर दबाव बढ़ जाता है.
- सभी क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ता है, नई इमारतें और कारखाने स्थापित होते हैं, जिससे ‘अत्यधिक रोजगार’ (Hyper Employment) की स्थिति बनती है.
हालांकि, इस अवस्था में मजदूरी बढ़ती है, लेकिन कीमतों में वृद्धि और तेजी से होती है, जिससे वास्तविक मजदूरी घट जाती है. लाभ में लगातार वृद्धि होती है, जो ‘लाभ प्रसार’ (Profit Inflation) का कारण बनती है, और यह तेजी को और बढ़ाती है.
5. अवरोध की अवस्था
अवरोध की अवस्था तेजी और पूर्ण रोजगार की अवस्थाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है, जिसमें अत्यधिक रोजगार, बढ़ते लाभ, पूंजीगत निवेश, और कीमतों में वृद्धि जैसी स्थितियाँ अनावश्यक आशावादिता फैला देती हैं. यह आशावादिता अंततः स्व-विनाश (Self-destruction) की ओर ले जाती है, जिससे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं.
उत्पादन साधन दुर्लभ हो जाते हैं, और उनकी कीमतें और बढ़ जाती हैं. व्यवसायियों की लागत गणनाओं में गड़बड़ी होने लगती है, जिससे जल्दी स्थापित की गई नई फर्में असफल हो जाती हैं. नतीजतन, व्यवसायी अधिक सावधान हो जाते हैं, नई परियोजनाओं से दूर रहते हैं, और वर्तमान इकाइयों का विस्तार करने से हिचकिचाते हैं.
इस प्रकार, अवरोध की अवस्था का आधार तैयार हो जाता है, और तेजी के बाद मन्दी का पुनरागमन होता है. व्यवसायियों में पहले की आशावादिता के बजाय निराशावाद फैल जाता है. कुछ व्यवसायों की असफलता के कारण वे आतंकित हो जाते हैं, जिससे बैंक भी ऋण लौटाने की मांग करने लगते हैं. इससे अधिक व्यवसाय विफल हो जाते हैं, कीमतें गिरने लगती हैं, और व्यवसायियों का विश्वास टूट जाता है.
निर्माण क्रिया मन्द पड़ जाती है, और बेरोजगारी की स्थिति अन्य क्षेत्रों में भी फैल जाती है, जिससे आय, व्यय, कीमतें, और लाभ की दरों में कमी आती है.
अवरोध या प्रतिसार (Recession) का संचयी प्रभाव होता है; एक बार अवरोध प्रारम्भ होने पर उसका प्रभाव बढ़ता चला जाता है और यह मन्दी का रूप धारण कर लेता है. इस प्रकार, मन्दी व्यापार चक्र की शुरुआत और पूर्णता का आधार बनती है.
यह ध्यान देने योग्य है कि व्यापार चक्र की ये पाँच अवस्थाएँ हर चक्र में इसी क्रम से नहीं होती हैं, और समयावधि के मामले में भी निश्चितता नहीं होती.
व्यापार चक्र के सिद्धांत
व्यापार चक्र के सिद्धांत पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की जटिल समस्या को समझने का प्रयास करते हैं. व्यापार चक्र क्यों आते हैं और नियमित अंतराल पर क्यों होते हैं, इन प्रश्नों के उत्तर विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने दिए हैं, जिन्हें मोटे तौर पर दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
A. मौद्रिक सिद्धांत: इस वर्ग के समर्थक मानते हैं कि आर्थिक उतार-चढ़ाव का कारण मौद्रिक घटक हैं. प्रमुख अर्थशास्त्री इस वर्ग में लूडविग, हेयक, हाट्रे, और हिक्स शामिल हैं.
B. अमौद्रिक सिद्धांत: इस वर्ग के अनुसार, व्यापार चक्रों का कारण अमौद्रिक घटक होते हैं. इसमें स्टैनली, जेवन्स, विक्सेल, और पीगू जैसे अर्थशास्त्री शामिल हैं.
अमौद्रिक सिद्धांतों में शामिल हैं:
- जलवायु सिद्धांत
- मनोवैज्ञानिक सिद्धांत
- अधिक उत्पादन का सिद्धांत
- अधिक बचत का सिद्धांत
- नवप्रवर्तन सिद्धांत
मौद्रिक सिद्धांतों में शामिल हैं:
- हेयक का अधि-विनियोग सिद्धांत
- हिक्स का व्यापार चक्र सिद्धांत
- कीन्स का व्यापार चक्र सिद्धांत
इन सिद्धांतों का उद्देश्य व्यापार चक्रों के कारणों और उनके प्रभावों को समझाना है.
A. व्यापार चक्र के अमौद्रिक सिद्धांत
1. जलवायु सिद्धांत
जलवायु सिद्धांत व्यापार चक्र का प्राचीनतम सिद्धांत है, जिसे डब्लू स्टेनले जेवन्स ने प्रतिपादित किया. उन्होंने अपने ‘सूर्य चिन्ह सिद्धांत’ (Sunspot Theory) में व्यापार चक्र को सूर्य में उत्पन्न होने वाले चिन्हों से जोड़ा, जो लगभग हर 10 वर्ष में प्रकट होते हैं.
जेवन्स के अनुसार, सूर्य की सतह पर धब्बों का प्रकट होना और गायब होना मौसम पर प्रभाव डालता है. जब सूर्य में धब्बे होते हैं, तो वह पृथ्वी को पर्याप्त गर्मी नहीं पहुँचाता, जिससे मानसून खराब होता है. इसका असर फसलों पर पड़ता है, जिससे मानवता के लिए मन्दी या अवसाद की स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं.
इसके विपरीत, जब सूर्य पर धब्बे नहीं होते, तो अच्छी वर्षा और फसलें होती हैं, जिससे कृषि और उद्योगों में समृद्धि आती है. अच्छी फसलें यातायात और अन्य उद्योगों की मांग बढ़ाती हैं, जिससे सम्पूर्ण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में समृद्धि का संचार होता है.
इस प्रकार, जलवायु में ये परिवर्तन समय के साथ नियमित रूप से होते हैं, जिससे देशों में मन्दी और तेजी की अवस्थाएँ भी समयबद्ध और नियमित रूप से फैलती हैं.
2. मनोवैज्ञानिक सिद्धांत
मनोवैज्ञानिक सिद्धांत व्यापार चक्रों की व्याख्या नियोजकों की मनोवृत्तियों के आधार पर करता है, जिसमें प्रमुख समर्थक प्रो. पीगू हैं. इस सिद्धांत के अनुसार, व्यवसायियों और उद्योगपतियों की आशावादिता और निराशावादिता के मनोभाव व्यापारिक गतिविधियों को प्रभावित करते हैं.
यह सिद्धांत बताता है कि मनुष्य में “भेड़-चाल” की प्रवृत्ति होती है, जहाँ लोग दूसरों के व्यवहार की नकल करने लगते हैं, भले ही वे न समझें कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं. जब व्यापारिक क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण घटना होती है, तो इसका प्रभाव तेजी से फैलता है, और लोग एक-दूसरे की गतिविधियों को अपनाने लगते हैं.
आशावादिता के समय, बड़े व्यवसायी अच्छा समय होने का अनुभव करते हैं, जिससे छोटे व्यापारी भी आशावादी हो जाते हैं. इससे नये निवेश की प्रक्रिया शुरू होती है, और तेजी की अवस्था आती है. लेकिन जब निराशावाद का माहौल बनता है, तो बड़े व्यवसायी अपनी निराशा को छोटे व्यवसायियों में फैलाते हैं. इससे समूचा व्यवसायी वर्ग निवेश बंद कर देता है और उत्पादन में कटौती करता है, जिससे मन्दी की शुरुआत होती है.
इस प्रकार, मन्दी और तेजी का संबंध निवेशकों में उठने वाले निराशावाद और आशावाद के मनोभावों से होता है.
3. प्रतियोगिता सिद्धांत
अधिक उत्पादन का सिद्धांत या प्रतियोगिता सिद्धांत में यह बताया गया है कि अति-उत्पादन (Overproduction) ही इस चक्र का मुख्य कारण है. यह सिद्धांत समाजवादी प्रवृत्ति के अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत किया गया है.
इस सिद्धांत के अनुसार, एक स्वतंत्र और प्रतियोगी अर्थव्यवस्था में अनेक फर्में समान वस्तुओं का उत्पादन करती हैं और एक ही बाजार में उन्हें बेचती हैं. इस प्रतिस्पर्धा के कारण फर्में इतना अधिक उत्पादन कर लेती हैं कि उसे बेचना कठिन हो जाता है, जिससे बाजार में माल की बाढ़ आ जाती है.
जब वस्तुओं का अति-उत्पादन होता है, तो उनकी कीमतें गिरने लगती हैं, जबकि उत्पादन लागत बढ़ती है. यह स्थिति कच्चे माल और उत्पाद साधनों की कमी के कारण होती है, जिससे उत्पादकों को अधिक कीमतें चुकानी पड़ती हैं. इस प्रकार, कीमतें गिरती हैं और लागतें बढ़ती हैं, जिससे लाभ की मात्रा कम हो जाती है और उत्पादक उत्पादन घटाने के लिए मजबूर होते हैं.
कुछ सीमांत फर्में धराशायी हो जाती हैं, जिससे अन्य फर्मों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और अंततः समग्र अर्थव्यवस्था मन्दी की चपेट में आ जाती है.
4. अल्प उपयोग सिद्धांत
अधिक बचत का सिद्धांत या अल्प उपयोग सिद्धांत (Under Consumption Theory) का प्रतिपादन हॉबसन (Hobson) ने किया है. इस सिद्धांत के अनुसार, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में आय असमानताएँ व्यापार चक्र का मूल कारण हैं.
इस सिद्धांत के अनुसार, समाज में अमीरों और गरीबों के बीच व्यापक आय असमानताएँ उत्पन्न होती हैं, जिससे ‘अधिक बचत’ और ‘न्यून उपयोग’ की स्थिति बनती है. धनी लोगों की आय इतनी अधिक होती है कि वे उसका पूरा उपभोग नहीं कर पाते और उसकी एक बड़ी मात्रा बचा लेते हैं. यह बचत उत्पादक कार्यों में लगाई जाती है, जिससे अधिक उत्पादन होता है, जो निर्धन वर्ग के उपभोग की क्षमता से अधिक होता है.
इससे माल की पूर्ति उसकी खपत से अधिक हो जाती है, और मन्दी का काल शुरू हो जाता है. जब मूल्यों में गिरावट आती है, तब अतिरिक्त उत्पादन की बिक्री शुरू होती है, और धनवानों की बचत और निवेश जारी रहता है, जिससे उत्पादन फिर से बढ़ने लगता है.
अंततः, बार-बार के आर्थिक संकटों से बचने के लिए आवश्यक है कि उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति उत्पादन की कुल लागत के बराबर हो, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता. इसका कारण यह है कि राष्ट्रीय आय का अधिकांश भाग धनी वर्ग के पास चला जाता है, जबकि श्रमिकों के पास बहुत कम पहुंचता है. इसका परिणाम यह होता है कि कुल उपभोक्ताओं के पास इतनी क्रय शक्ति नहीं होती कि वे उत्पादन की लागत को पूरा कर सकें.
5. नवप्रवर्तन सिद्धांत
नवप्रवर्तन सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरिकी अर्थशास्त्री जोसेफ शुम्पीटर ने किया. इस सिद्धांत के अनुसार, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में नवप्रवर्तन व्यापार चक्र की शुरुआत करते हैं. नवप्रवर्तन का अर्थ है उत्पादन की वर्तमान तकनीकों में उद्यमियों द्वारा बदलाव करना, जैसे नए यांत्रिक आविष्कार, उत्पादन विधियों का विकास, नए बाजारों का निर्माण, और व्यवसायिक संगठन के नए रूप.
शुम्पीटर नवप्रवर्तन और आविष्कार में भेद करते हैं. नवप्रवर्तन को व्यवहार में लागू किया जाता है जबकि आविष्कार केवल नई चीजों की खोज होती है. नवप्रवर्तन दो प्रकार के होते हैं:
- लघु लहरें: ये दीर्घकालिक व्यापार चक्र उत्पन्न करती हैं.
- छोटी लहरें: ये अल्पकालिक व्यापार चक्र उत्पन्न करती हैं.
जब कोई नवप्रवर्तन होता है, तो यह आर्थिक प्रणाली में असंतुलन उत्पन्न करता है. इस असंतुलन का समाधान तब होता है जब अर्थव्यवस्था में सभी आर्थिक शक्तियों का पुनः समायोजन होता है.
नवप्रवर्तन के कारण श्रमिकों के पास अधिक क्रय शक्ति आती है, जिससे उनकी मांग बढ़ती है. हालाँकि, उत्पादन साधनों की कमी के कारण, पुरानी उद्योगों की उत्पादन लागत बढ़ती है और उत्पादन कम होता है.
इस प्रक्रिया से कीमतों और लाभ में वृद्धि होती है, जिससे पुरानी उद्योगों का विस्तार होता है. धीरे-धीरे, जब नए उत्पाद बाजार में आते हैं, तो वे पुराने उत्पादों की मांग को कम करते हैं. इस प्रकार, मांग में कमी से मंदी की स्थिति उत्पन्न होती है, और अंततः अर्थव्यवस्था व्यापार चक्र के मंदी काल में प्रवेश कर जाती है.
B. व्यापार चक्र के मौद्रिक सिद्धांत
1. हाट्रे का शुद्ध मौद्रिक सिद्धांत
हाट्रे का शुद्ध मौद्रिक सिद्धांत एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसके अनुसार व्यापार चक्र की उत्पत्ति और गति केवल मौद्रिक कारकों पर निर्भर करती है. हाट्रे का मानना है कि गैर-मौद्रिक घटक, जैसे युद्ध, भूकंप, और हड़ताल, आंशिक और अस्थायी मंदी उत्पन्न कर सकते हैं, लेकिन वे स्थायी और व्यापक मंदी का कारण नहीं बन सकते.
मुख्य अवलोकन:
- मौद्रिक समस्या: हाट्रे के अनुसार, व्यापार चक्र का मूल कारण मुद्रा आपूर्ति में परिवर्तन है. यदि मुद्रा की आपूर्ति बढ़ती है, तो अर्थव्यवस्था में समृद्धि का दौर शुरू होता है, जबकि मुद्रा की कमी से मंदी का दौर उत्पन्न होता है.
- मुद्रा प्रवाह: हाट्रे का यह भी कहना है कि मुद्रा का प्रवाह, उसके संचलन वेग के साथ मिलकर, आर्थिक गतिविधियों में उतार-चढ़ाव लाता है. जब बैंक साख का विस्तार होता है और मुद्रा की आपूर्ति बढ़ती है, तो उपभोक्ताओं का खर्च और निवेश बढ़ जाता है, जिससे समृद्धि का माहौल बनता है.
- बैंकिंग प्रणाली की भूमिका: हाट्रे के सिद्धांत में यह स्पष्ट है कि बैंकिंग प्रणाली व्यापार चक्र की क्रियाशीलता के लिए जिम्मेदार होती है. बैंक जब साख का विस्तार करते हैं, तो ब्याज दरें कम होती हैं, जिससे व्यवसायी अधिक ऋण लेते हैं और उत्पादन बढ़ाते हैं. इससे रोजगार और मांग में वृद्धि होती है.
- मंदी का आरंभ: जब बैंक अपनी साख का विस्तार अचानक रोक देते हैं—जैसे जब नकद की मांग बढ़ जाती है—तो यह बाजार में डर और अनिश्चितता का माहौल बनाता है. व्यवसायी अपने स्टॉक बेचने के लिए मजबूर होते हैं, जिससे कीमतें गिरने लगती हैं और मंदी की शुरुआत होती है.
- चक्रीय मंदी: हाट्रे के अनुसार, एक बार मंदी शुरू होने पर, यह प्रक्रिया लगातार बढ़ती जाती है. उत्पादन में कमी और उपभोक्ता मांग में गिरावट के कारण अर्थव्यवस्था निराशा की स्थिति में चली जाती है.
हाट्रे का शुद्ध मौद्रिक सिद्धांत यह बताता है कि व्यापार चक्र केवल मौद्रिक कारकों से संचालित होता है, और इसकी प्रमुखता अर्थव्यवस्था की स्थिरता को समझने में महत्वपूर्ण है. इस सिद्धांत के अनुसार, तेजी और मंदी की अवधियां मौद्रिक नीतियों के प्रभावों से प्रभावित होती हैं, जो बैंकिंग प्रणाली की साख विस्तार और संकुचन पर निर्भर करती हैं.
2. अधि–विनियोग सिद्धांत
हेयक का अधि–विनियोग सिद्धांत आस्ट्रियन अर्थशास्त्री एफ. ए. वान हेयक द्वारा प्रस्तुत किया गया है. इस सिद्धांत के अनुसार, व्यापार चक्र की मुख्य क्रियाशीलता कृत्रिम रूप से निम्न ब्याज दरों पर बैंक साख के अति निर्गमन से उत्पन्न होती है. जब ब्याज की बाजार दर प्राकृतिक दर से कम होती है, तब अर्थव्यवस्था में असंतुलन उत्पन्न होता है.
मुख्य विचार:
- ब्याज दर का अंतर: जब ब्याज की बाजार दर प्राकृतिक दर से कम होती है, तब विनियोग कोषों की मांग बचतों की उपलब्ध पूर्ति से अधिक हो जाती है. इस स्थिति में बैंक साख का विस्तार किया जाता है, जिससे मुद्रा की आपूर्ति बढ़ती है और कीमतों में वृद्धि होती है, जो स्फीति का कारण बनता है.
- उत्पादन की ओर झुकाव: सस्ती ब्याज दरों के कारण व्यावसायिक फर्में अधिक ऋण लेती हैं और अतिरिक्त धन का उपयोग उत्पादन साधनों में वृद्धि के लिए करती हैं. इसका परिणाम यह होता है कि उपभोग वस्तुओं का उत्पादन कम होने लगता है, जिससे उनकी कीमतें बढ़ जाती हैं.
- Forced Saving: उपभोग वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि होने पर लोग अपनी आय से कम मात्रा में उपभोग करते हैं (Forced Saving). इससे उपभोग वस्तु उद्योगों में संकुचन आता है और संसाधन पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन की ओर मुड़ने लगते हैं.
- चालू व्यापार चक्र: तेजी के दौरान, ब्याज दर प्राकृतिक दर से कम रहती है और संसाधन उच्चतर चरणों की ओर बढ़ते हैं. लेकिन जब बैंक महसूस करते हैं कि साख का विस्तार बहुत बढ़ चुका है, वे साख का संकुचन करने लगते हैं. इससे उत्पादन में कमी आती है और अवनति का दौर शुरू होता है.
- अवसाद की प्रक्रिया: जब अवनति आती है, तब बेरोजगारी बढ़ने लगती है. बैंक अपने ऋण वापस मांगने लगते हैं और लोग मुद्रा संचय करने की प्रवृत्ति में चले जाते हैं. अवसाद तब तक जारी रहता है जब तक बैंक अपनी नीति नहीं बदलते.
- उत्साह का पुनरुत्थान: अवसाद के लंबे समय बाद, जब बैंक अपनी साख देने की नीति को बदलते हैं और ब्याज दरें कम करते हैं, तो व्यापारियों में आशा जागती है. इससे फिर से ऋण लेने की प्रक्रिया शुरू होती है और अर्थव्यवस्था में तेजी का दौर लौट आता है.
हेयक का अधि-विनियोग सिद्धांत यह दर्शाता है कि ब्याज दरों में कृत्रिम रूप से बदलाव व्यापार चक्र की गतिविधियों को प्रभावित करता है. जब बैंक साख का अति निर्गमन होता है, तो यह तेजी का कारण बनता है, जबकि साख के संकुचन से अवनति का दौर आता है. इस प्रक्रिया में बैंकिंग प्रणाली और बाजार की धारणा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
3. कीन्स का व्यापार चक्र सिद्धांत
कीन्स का व्यापार चक्र सिद्धांत में आय, उत्पादन और रोजगार के उतार-चढ़ाव की व्याख्या की गई है. कीन्स ने व्यापार चक्र का कोई विशेष सिद्धांत नहीं दिया, लेकिन उनकी व्याख्या से आर्थिक उतार-चढ़ाव का पता चलता है.
मुख्य बिंदु:
- कुल रोजगार: कुल रोजगार प्रभावपूर्ण मांग (कुल व्यय) पर निर्भर करता है, जिसमें उपभोग और विनियोग शामिल हैं.
- विनियोग: विनियोग की मात्रा दो तत्वों—(i) ब्याज की दर और (ii) पूंजी की सीमान्त उत्पादकता—पर निर्भर करती है.
- सीमान्त उत्पादकता: विनियोग तब होता है जब पूंजी की सीमान्त उत्पादकता ब्याज की दर के बराबर हो जाती है.
- ब्याज की दर: ब्याज की दर आमतौर पर स्थिर रहती है, इसलिए इसका व्यापार चक्र पर कम प्रभाव होता है.
- भावी आय: पूंजी की सीमान्त उत्पादकता का निर्धारण भावी आय की संभावनाओं पर होता है, जिससे विनियोग में उतार-चढ़ाव होता है.
- चक्र का शिखर: जब व्यापार शिखर पर पहुँचता है, तो पूंजी की सीमान्त उत्पादकता घटने लगती है, जिससे विनियोग के अपेक्षित लाभ में कमी आती है.
- मन्दी का कारण: सीमान्त उत्पादकता में अचानक गिरावट से व्यापार मन्दी की ओर बढ़ता है.
- गुणक का प्रभाव: विनियोग की कमी से आय में तेजी से गिरावट आती है, जिससे मन्दी की स्थिति बनती है.
- पुनरुद्धार: पूंजी की सीमान्त उत्पादकता में बढ़ोतरी व्यापार के पुनरुद्धार का कारण बनती है.
इस प्रकार, कीन्स के अनुसार व्यापार चक्र की क्रियाशीलता का मुख्य कारण पूंजी की सीमान्त उत्पादकता में उतार-चढ़ाव है.
व्यापार चक्र का नियंत्रण (Regulation of Business Cycle)
व्यापार चक्र, जो आर्थिक क्रियाओं में चक्रीय उतार-चढ़ाव का कारण बनता है, किसी भी समाज के लिए लाभप्रद नहीं है. यह समाज की प्रगति को ठेस पहुंचाता है. इसलिए आवश्यक है कि व्यापार चक्र की क्रियाशीलता को नियंत्रित करने के प्रयास किए जाएं.
- मौद्रिक नीति (Monetary Policy): यह नीति मुद्रा और साख की मात्रा में बदलाव करके आर्थिक स्थिति में सुधार लाती है. केंद्रीय बैंक विभिन्न उपकरणों का उपयोग करके साख को नियंत्रित करता है, जैसे कि बैंक दर में परिवर्तन, खुले बाजार की क्रियाएं, नकद कोष अनुपात में परिवर्तन, और नैतिक प्रभाव.
- राजकोषीय नीति (Fiscal Policy): यह सरकारी खर्च और कर नीतियों के माध्यम से अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है.
- स्वचालित स्थायीकारक (Automatic Stabilizers): ये उपाय आर्थिक संकट के दौरान स्वतः कार्य करते हैं, जैसे कि बेरोजगारी भत्ते.
मौद्रिक तत्व व्यापार चक्र को तेज कर सकते हैं. जब अर्थव्यवस्था में उच्चावचनों की स्थिति होती है, तो मौद्रिक स्फीति से कीमतें बढ़ती हैं, जिससे व्यवसायियों में आशावाद बढ़ता है. इसके विपरीत, मन्दी के समय में अवस्फीति से निराशावाद फैलता है.
इसलिए, केंद्रीय बैंक को बाजार में संतुलन बनाए रखने के लिए समय-समय पर साख-विस्तार को नियंत्रित करना चाहिए, जिससे आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित हो सके.
1. मौद्रिक नीति
मौद्रिक नीति का उद्देश्य आर्थिक स्थिति में वांछित परिवर्तन लाने के लिए मुद्रा और साख की मात्रा में परिवर्तन करना है. यह उन उपायों को शामिल करता है जिनके माध्यम से केंद्रीय बैंक साख नियंत्रण के उपकरणों को प्रभावी बनाता है.
व्यापार चक्र का कारण चाहे जो भी हो, मौद्रिक तत्व इसके प्रभाव को बढ़ा देते हैं. मौद्रिक स्फीति से कीमतें और लाभ बढ़ते हैं, जिससे व्यवसायियों में आशावाद बढ़ता है और चक्रीय तेजी को बल मिलता है. इसके विपरीत, मौद्रिक अवस्फीति से कीमतें गिरती हैं और निराशावाद फैलता है, जिससे चक्रीय मंदी तेज होती है.
इसलिए, मौद्रिक तत्वों को नियंत्रित करने के लिए एक प्रभावी मौद्रिक नीति आवश्यक है. इसके लिए, सरकार को चाहिए कि वह मुद्रा के अनुचित विस्तार को रोके और नोट निर्गमन के पीछे पर्याप्त प्रतिभूति की व्यवस्था करे.
केंद्रीय बैंक को भी अपने विभिन्न उपकरणों का उपयोग करके साख विस्तार को नियंत्रित करना चाहिए, जैसे:
- बैंक दर में परिवर्तन
- खुले बाजार की क्रियाएँ
- नकद कोष अनुपात में बदलाव
- नैतिक प्रभाव
अत्यधिक विस्तार की स्थिति में, केंद्रीय बैंक को साख विस्तार को रोकना चाहिए, जबकि मंदी की स्थिति में इसे प्रोत्साहित करना चाहिए. इस प्रकार, मौद्रिक नीति व्यापार चक्र की उच्चावचनों की रोकथाम और आर्थिक स्थिरता को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है.
2. राजकोषीय नीति
राजकोषीय नीति का उद्देश्य मौद्रिक नीति के साथ मिलकर व्यापार चक्र को नियंत्रित करना है. इसके तीन प्रमुख उपकरण हैं: करारोपण, सार्वजनिक व्यय, और सार्वजनिक ऋण.
जब व्यवसायिक गतिविधियों में मंदी के संकेत दिखाई देते हैं, तो सरकार को तुरंत इन तीनों उपकरणों का उपयोग करना चाहिए. इस समय, सरकार को नए कर लगाने से बचना चाहिए और मौजूदा करों में कटौती करनी चाहिए, ताकि लोगों के पास अधिक क्रय शक्ति हो.
सरकार को एक महत्वाकांक्षी सार्वजनिक व्यय कार्यक्रम लागू करना चाहिए, जैसे कि निर्माण परियोजनाएँ, ताकि बेरोजगार लोगों को रोजगार मिले और उनकी क्रय शक्ति बढ़े. इससे प्रभावी मांग में सुधार होगा.
सरकार को सार्वजनिक निर्माण कार्यों के वित्तपोषण के लिए कागजी मुद्रा छापने या बैंकों से ऋण लेने की नीति अपनानी चाहिए. हीनार्थ प्रबंधन (Deficit financing) के माध्यम से सरकारी खर्चों में वृद्धि हो सकती है, जो मंदी और बेरोजगारी से निपटने में मदद करती है.
जब आर्थिक पुनरुद्धार शुरू होता है, तो सरकार को विपरीत नीति अपनाते हुए कर बढ़ाने और सार्वजनिक व्यय में कटौती करनी चाहिए. इससे मुद्रा की आपूर्ति कम होगी.
इस प्रकार, प्रभावी राजकोषीय नीति के माध्यम से सरकार अर्थव्यवस्था में स्थिरता स्थापित कर सकती है और आर्थिक उतार-चढ़ाव को कम कर सकती है.
3. स्वचालित स्थायीकारक
स्वचालित स्थायीकारक (Automatic Stabilizers) ऐसे आर्थिक उपाय हैं जो सरकारी हस्तक्षेप के बिना व्यापार चक्र के उतार-चढ़ाव को स्वतः संतुलित करते हैं. ये तीन प्रकार के होते हैं: मौद्रित स्थायीकारक, राजकोषीय स्थायीकारक, और प्रावैगिक स्थायीकारक.
- मौद्रित स्थायीकारक: मंदी के दौरान, जब लाभ और निवेश घटते हैं, बैंक ब्याज दरें कम कर देते हैं, जिससे ऋण लेना आसान और सस्ता हो जाता है. इससे निवेश में वृद्धि होती है और आर्थिक विस्तार फिर से शुरू होता है.
- राजकोषीय स्थायीकारक: करों और व्ययों का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है कि वे आर्थिक स्थिरता को स्वतः सुनिश्चित करते हैं. आयकर, व्ययकर, और सामाजिक सुरक्षा योजनाएं ऐसे कदम हैं जो आर्थिक गतिविधियों में लचीलापन लाते हैं.
- प्रावैगिक स्थायीकारक: ये आर्थिक प्रवृत्तियों में बदलाव लाते हैं, जैसे कि लाभ में बदलाव या आय का स्थानांतरण.
इन सभी स्थायीकारकों का मुख्य उद्देश्य व्यापार चक्र के उतार-चढ़ाव को कम करना है. निष्कर्षतः, व्यापार चक्र को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक नीति, राजकोषीय नीति, और स्वचालित स्थायीकारकों का एक समन्वित प्रयास आवश्यक है.