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जलवायु शरणार्थी और इनकी समस्याएं

    जलवायु शरणार्थी (Climate Refugees) वे लोग हैं जिन्हें जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों के कारण अपने घरों और समुदायों को छोड़ना पड़ता है. जलवायु शरणार्थी आप्रवासियों के एक बड़े समूह से संबंधित हैं जिन्हें पर्यावरण शरणार्थी के रूप में जाना जाता है. 

    कौन है जलवायु शरणार्थी (Who are Climate Refugees in Hindi)

    जलवायु शरणार्थी आप्रवासियों के एक बड़े समूह से संबंधित हैं जिन्हें पर्यावरण शरणार्थी के रूप में जाना जाता है. पर्यावरणीय शरणार्थियों में ज्वालामुखी और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण भागने को मजबूर आप्रवासी शामिल हैं.

    अंतर्राष्ट्रीय रेड क्रॉस का अनुमान है कि युद्धों और अन्य संघर्षों से भागने वाले राजनीतिक शरणार्थियों की तुलना में पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या अधिक है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) का कहना है कि 2009 में प्राकृतिक आपदाओं से 36 मिलियन लोग विस्थापित हुए थे.

    2021 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु संकट के कारण 2050 तक 20 करोड़ से अधिक लोगों को अपना मूल स्थान छोड़ना पड़ सकता है. 2020 में इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस ऐसे लोगों की संख्या एक अरब से अधिक बताया है.

    जलवायु शरणार्थी का कारण (Factors behind Climate Refugees)

    अरबों वर्ष पहले पृथ्वी के निर्माण के बाद से जलवायु परिवर्तन कई बार हुआ है. इसके कारण जीवों के स्वरूपों में बदलाव आया और अनुकूल जलवायु के खोज में पलायन भी हुआ. ग्लोबल वार्मिंग जलवायु परिवर्तन का सबसे ताज़ा दौर है. वर्तमान दौर में जलवायु शरणार्थी समस्या के कुछ मुख्य कारण है-

    प्राकृतिक आपदाएं (Natural Disasters)

    जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक घटनाओं, जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, भूकंप और चक्रवात के कारण भी लोगों का विस्थापन होता है. कई बार ये आपदाएं मानव वास और स्थलीय आकृति में आमूलचूल बदलाव ला देती है. इससे वह स्थान इंसानों के रहने योग्य नहीं रह जाता है.

    मानवीय कारण  (Man-Made Reasons)

    जलवायु शरणार्थी समस्या का जन्म का एक कारण मानवीय गतिविधियां भी है. जीवाश्म ईंधन जलाने और जंगलों को काटने जैसी मानवीय गतिविधियाँ ग्लोबल वार्मिंग में योगदान करती हैं क्योंकि वे ग्रीनहाउस गैसें छोड़ती हैं. ग्रीनहाउस गैसें वातावरण में गर्मी को रोकती हैं.

    ग्लोबल वार्मिंग से जुड़े बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियर और बर्फ की चोटियाँ पिघल रही हैं. इससे बाढ़ आ सकती है और समुद्र का स्तर बढ़ सकता है. बढ़ते तापमान से सूखा और मरुस्थलीकरण भी होता है.  

    इनमें से कुछ प्रभाव, जैसे कि समुद्र के स्तर में वृद्धि से जमीन जलमग्न हो सकते है. इस तरह जल में डूबे ये स्थल वास योग्य नहीं रह जाते है. अन्य प्रभाव, जैसे कि सूखा कृषि को असंभव बनाकर जीविका का साधन नष्ट कर देता है.

    समुद्र तल में वृद्धि (Rise in Sea Level)

    जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) का अनुमान है कि 1990 और 2100 के बीच समुद्र का स्तर कुल मिलाकर 0.18 से 0.6 मीटर (सात इंच से दो फीट) बढ़ जाएगा. समुद्र का बढ़ता स्तर पहले से ही दुनिया के निचले तटीय क्षेत्रों में समस्याएं पैदा कर रहा है.

    उदाहरण के लिए, बांग्लादेश की लगभग आधी आबादी समुद्र तल से पाँच मीटर (16.5 फीट) से भी कम ऊंचाई पर रहती है. 1995 में, बांग्लादेश का भोला द्वीप समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण आधा डूब गया था, जिससे 500,000 लोग बेघर हो गए थे. 

    वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली बाढ़ के कारण बांग्लादेश 2050 तक अपनी 17 प्रतिशत भूमि खो देगा. भूमि के नुकसान के कारण बांग्लादेश से लगभग 20 मिलियन जलवायु शरणार्थी पैदा हो सकते हैं.

    अमेरिकी राज्य लुइसियाना हर साल समुद्र में लगभग 65 वर्ग किलोमीटर (25 वर्ग मील) खो देता है. यहाँ मिसिसिपी डेल्टा के पास अधिकांश भूमि का कटाव हो रहा है.

    समुद्र के स्तर में वृद्धि से डेल्टा के आसपास की आर्द्रभूमि जलमग्न हो गई है. इससे मत्स्य पालन और उत्पादन खतरे में पड़ गया है. अधिक खारे पानी के आगमन से आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो जाएगा. इससे मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए तट से दूर जाना होगा. आर्द्रभूमियों के नष्ट होने से कैटरीना जैसे तूफ़ानों से क्षति की संभावना भी अधिक हो जाती है.

    ग्लोबल वार्मिंग से जहां समुद्र के स्तर में वृद्धि हो रहा है. वहीं ध्रुवों का मीठा पानी समुद्र का खारापन कम कर रहा है. इससे समुद्र के नमकीन पानी में रहने वाले जीवों पर भी नकारात्मक असर हो रहा है. यह समुद्री मछलियों के संख्या में कमी या विलुप्ति का कारण बन सकता है, जो मानव खाद्य श्रृंखला को भी प्रभावित करेगा. इससे समुद्री शिकार पर निर्भर मछुवारों को नया रोजगार तलाशना पड़ सकता है, जो नए तरह के जलवायु शरणार्थी का कारण बनेगा. 

    मालदीव का संकट (Crisis of Maldives)

    मालदीव हिंद महासागर में स्थित एक द्वीपीय राष्ट्र है. मालदीव को समुद्र के स्तर में वृद्धि से सबसे अधिक खतरे वाला देश माना जाता है. मालदीव का उच्चतम बिंदु समुद्र तल से केवल 2.4 मीटर (आठ फीट) ऊपर है. समुद्र के स्तर में वृद्धि से मालदीव जलमग्न हो जाएगा. इससे यहाँ की अर्थव्यवस्था और निवास स्थान नष्ट हो जाएगी और वैश्विक जलवायु शरणार्थी समस्या उत्पन्न हो जाएगी.

    पर्यटन मालदीव की अर्थव्यवस्था में 25 प्रतिशत से अधिक का योगदान करती है. समुद्र का जलस्तर बढ़ने से मालदीव के सभी 1,200 द्वीप डूब सकते हैं.  इसके समुद्री तटों के डूबने के साथ ही तटीय इलाके का पर्यटन और होटल कारोबार प्रभावित होंगे. 

    मालदीव ने ऑस्ट्रेलिया, भारत और श्रीलंका के नेताओं के साथ काम किया है ताकि मालदीव के निर्जन होने की स्थिति में निकासी कार्यक्रम की योजना बनाई जा सके.

    वेनिस (Venis)

    इटली के वेनिस के शहरी क्षेत्र को भी समुद्र के स्तर में वृद्धि से खतरा है. वेनिस एड्रियाटिक सागर के तट पर एक लैगून में द्वीपों की श्रृंखला पर बसा एक प्राचीन शहर है. शहर को हमेशा तूफान और चक्रवात का ख़तरा रहता है.

    वेनिस की मुख्य “सड़कें” वास्तव में नहरें और छोटे जलमार्ग हैं. जैसे ही ज्वार आता है, पूरे चौक, या शहर के चौराहे, कई सेंटीमीटर पानी में डूब जाते हैं. पिछले दशकों में शहर में कई बार बाढ़ आए है. साल 1900 में, शहर का मुख्य चौराहा सात बार पानी में समा गया. 1996 में 99 बार यह बाढ़ के चपेट में आया था.

    मालदीव की तरह ही वेनिस भी अपनी अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए पर्यटन पर निर्भर है. जैसे-जैसे शहर में बाढ़ आएगी, पर्यटकों की संख्या कम होते जाएगा और पर्यटन संरचनाओं को बचाना भी मुश्किल होगा. बाढ़ और फफूंद से सेंट मार्क बेसिलिका और डोगे पैलेस जैसे लोकप्रिय पर्यटक स्थलों को खतरा होगा. अपने शहर और अर्थव्यवस्था के डूबने के कारण वेनेशियन लोग पलायन करने के लिए मजबूर हो सकते हैं.

    दुनिया भर में कई अन्य तटीय शहर निचले इलाकों में स्थित हैं जो समुद्र के स्तर में वृद्धि के प्रति संवेदनशील हैं. इनमें मुख्य है- संयुक्त राज्य अमेरिका का मैनहट्टन और न्यूयॉर्क, इंग्लैंड का लंदन, चीन का शंघाई, जर्मनी का हैमबर्ग, थाईलैंड का बैंकॉक, इंडोनेशिया का जकार्ता, भारत का मुंबई, फिलीपींस का मनीला और अर्जेंटीना का ब्यूनस आयर्स.

    तुवालू फिजी, मार्शल द्वीप, वानुआतु, नाउरू, माइक्रोनेशिया जैसे दक्षिण प्रशांत महासागर के द्वीपीय देश भी समुद्र के बढ़ते जलस्तर से संकट में घिर गए है. इनके बचाव के लिए जलवायु परिवर्तन का रोकथाम जरुरी हो गया है.

    सूखा (Drought)

    सुंदर के बढ़ते जलस्तर से जहाँ तटीय क्षेत्रों को खतरा है, वहीं सूखे से अंतर्देशीय जलवायु शरणार्थी का समस्या उत्पन्न हो सकता है. जब जमीन कृषि योग्य नहीं रह जाता है, तो जीवित रहने के लिए पलायन कर जाते है. उदाहरण के लिए, चीन का गोबी रेगिस्तान हर साल 3,600 वर्ग किलोमीटर (1,390 वर्ग मील) से अधिक फैलता है. गोबी के आसपास के क्षेत्र के किसान और व्यापारी चीन के भीड़-भाड़ वाले शहरी इलाकों की ओर पलायन कर रहे हैं. घास के मैदानों पर रेगिस्तान का विस्तार होना इसका मुख्य कारण है.

    मोरक्को, ट्यूनीशिया और लीबिया में भी मरुस्थलीकरण के कारण प्रतिवर्ष 1,000 वर्ग किलोमीटर (386 वर्ग मील) से अधिक कृषि भूमि नष्ट हो जाती है. सहारा रेगिस्तान के किनारे के ये निवासी उत्तर पश्चिम अफ्रीका के क्षेत्र माघरेब के शहरों में जा सकते हैं. वे यूरोप के अधिक विकसित देशों में जाने का विकल्प भी चुन सकते हैं. इससे in क्षेत्रों में आबादी का दवाब बढ़ेगा.

    हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका के निकट के निवासी विशेष रूप से सूखे और मरुस्थलीकरण के प्रति संवेदनशील हैं. सोमालिया, इथियोपिया और इरिट्रिया के अधिकांश ग्रामीण निवासी निर्वाह कृषि में संलग्न हैं. निर्वाह कृषि का अर्थ है कि किसान अपने, अपने परिवार और समुदायों के लिए पर्याप्त फसलें पैदा करते हैं. वे अपनी उपज राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में नहीं बेचते हैं. कई निर्वाह किसान अपने पशुओं को खिलाने के लिए अपनी फसलों पर निर्भर हैं. वर्षों का भयंकर सूखा फसलों पैदावार पर असर डालता है, जिससे पशुधन को पालने में भी बाधा आती है.

    भुखमरी और गरीबी से परेशान हजारों सोमालियाई और इथियोपियाई पहले ही केन्या के शरणार्थी शिविरों में भाग चुके हैं. जिन शिविरों को 90,000 लोगों को अस्थायी आश्रय प्रदान करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, अब वहां इससे दोगुनी संख्या में लोग रह रहे हैं.

    शरणार्थी का दर्जा (Status of Refugees)

    पर्यावरणीय या जलवायु शरणार्थी अंतर्राष्ट्रीय कानूनों द्वारा संरक्षित नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (यूएनएचसीआर) के अनुसार, शरणार्थी वे लोग है जो युद्ध, हिंसा, संघर्ष या उत्पीड़न से भाग गए हैं और दूसरे देश में सुरक्षा पाने के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा पार कर गए हैं. 

    वैश्विक 1951 शरणार्थी कन्वेंशन ने शरणार्थी को इस प्रकार परिभाषित किया है, “ऐसा व्यक्ति जो जाति, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता, या राजनितिक राय के कारण सताए जाने के उचित भय के कारण अपने मूल देश में लौटने में असमर्थ या अनिच्छुक है.” इन परिभाषाओं के आधार पर, यूएनएचसीआर का अनुमान है कि 2017 के अंत में दुनिया भर में 25.4 मिलियन पंजीकृत शरणार्थी थे.

    हालाँकि, ये परिभाषाएँ उन लोगों पर विचार नहीं करती हैं जिन्हें बाढ़, सूखे, बढ़ते समुद्र स्तर, मरुस्थलीकरण या मिट्टी में बढ़ते खारापन के कारण भागना पड़ता है. ये सभी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव हैं. यह अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत जलवायु परिवर्तन से विस्थापित लोगों को शरणार्थी का दर्जा देने से इंकार करने के समान है. 

    जलवायु कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से विस्थापित लोगों को शरणार्थी कहा जाए. लेकिन इस मांग का अत्यधिक राजनीतिकरण हो गया है. दुनिया भर की सरकारों को डर है कि समस्या पर कानूनी रूप से संहिताबद्ध करने से उन्हें इस नए मानवीय संकट के लिए जिम्मेदार ठहराया जाएगा. लेकिन इसके कारण जलवायु शरणार्थी की समस्या और भी गंभीर होते जा रहा है.

    जलवायु शरणार्थी अन्य शरणार्थियों की तुलना में अधिक राजनीतिक जोखिमों का सामना करते है, जो संघर्ष या राजनीतिक उत्पीड़न के कारण विस्थापित होते है. पारंपरिक शरणार्थियों के विपरीत, जलवायु शरणार्थियों को उनकी तबाह हुई मातृभूमि में वापस भेजा जा सकता है या शरणार्थी शिविर में मजबूर किया जा सकता है.

    अधिकांश जलवायु शरणार्थी आंतरिक प्रवासी होते है. आंतरिक प्रवासन लोगों के अपने ही देश में अन्यत्र जाने की प्रक्रिया है. अक्सर, जलवायु शरणार्थी ग्रामीण और तटीय निवासी होते हैं जो शहरी क्षेत्रों में पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं. 

    इन जलवायु शरणार्थियों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है. पशुपालन और खेती जैसे कौशल शहरी क्षेत्रों में प्रासंगिक नहीं होते है. ग्रामीण किसान अक्सर शहरी निवासियों की तुलना में अधिक आत्मनिर्भर होते हैं. वे रोजगार के लिए किसी निगम या अन्य लोगों पर निर्भर रहने से परिचित नहीं हो सकते हैं. 

    साथ ही जलवायु शरणार्थी अन्य शरणार्थियों के भाँती विभिन्न कानूनों, भाषाओं और संस्कृतियों के साथ तालमेल बिठाने के समस्या का सामना करते है. जलवायु शरणार्थी को मूल निवासियों के साथ संघर्ष का सामना करना भी पड़ सकता है. स्थानीय शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य आधारभूत संरचना बढ़ती आबादी के अनुरूप समायोजित होना चाहिए. 

    जलवायु परिवर्तन से पारंपरिक शरणार्थियों की संख्या भी बढ़ सकती है. शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त एंटोनियो गुटेरेस के मुताबिक, “जलवायु परिवर्तन संसाधनों – पानी, भोजन, चारागाह भूमि – के लिए प्रतिस्पर्धा को बढ़ा सकता है और यह प्रतिस्पर्धा संघर्ष को जन्म दे सकती है.”

    जलवायु शरणार्थी की संख्या (Number of Climate Refugees)

    संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) द्वारा जारी ग्लोबल अपील रिपोर्ट-2022 के अनुसार, 2021 में विश्व में 2.37 करोड़ जलवायु शरणार्थी दर्ज किए गए है. इसी अवधि में भारत में भारत में 50 लाख लोगों को जलवायु शरणार्थी के रूप में पलायन करना पड़ा. सबसे अधिक जलवायु शरणार्थी चीन (60 लाख) और फिलीपींस (57 लाख) में दर्ज किए गए. इनके बाद भारत तीसरे स्थान पर है.

    जलवायु शरणार्थी से जुड़े कुछ तथ्य (Some Facts about Climate Refugees)

    द्वीपीय राष्ट्र तुवालु ने न्यूजीलैंड के साथ एक समझौता किया है. इसके अनुसार समुद्र का जलस्तर बढ़ने की स्थिति में न्यूजीलैंड अपने यहाँ तुवालु के 11,600 नागरिकों को स्वीकार करेगा. तुवालु आठ छोटे मूंगा एटोल से बना है, जिसका कुल भूमि क्षेत्र केवल 26 वर्ग किलोमीटर (10 वर्ग मील) है. तुवालु में उच्चतम बिंदु समुद्र तल से केवल 4.5 मीटर (14.7 फीट) ऊपर है.

    बांग्लादेश में, जलवायु-प्रेरित बाढ़ देश की अधिकांश भूमि को निगल रहा है. इसलिए गैर-लाभकारी संगठन शिधुलाई स्वनिर्वर संगठन नावों पर स्कूल बना रहा है. समूह ने कंप्यूटर और पुस्तकालयों से युक्त 40 से अधिक स्कूल-नावें बनाई हैं. सोलर लैंप पुरे दिन चार्ज होने पर छात्रों को रात में पढ़ाई करने में प्रकाश मुहैया करवाता है.

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