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पेरिस जलवायु समझौता और ग्लोबल वार्मिंग

    पेरिस जलवायु समझौता पर्यावरण परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (United Nations Framework Convention on Climate Change-UNFCCC) के इक्कीसवें पेरिस सम्मलेन (Conference of Parties (COP-21) में हुए सहमति का परिणाम है. 1992 में स्थापित यूएनएफसीसीसी एक वैश्विक संधि है, जिसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों को संबोधित करना है. संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण परिवर्तन विषय पर स्थापित इस इकाई का मुख्यालय जर्मनी के बॉन शहर में है. यह 1996 से प्रभावी हुआ और 198 देशों ने कन्वेंशन की पुष्टि की है.

    यूएनएफसीसीसी का प्राथमिक लक्ष्य वातावरण में ग्रीनहाउस गैस सांद्रता को स्थिर करना है. संक्षेप में, यह जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का एक मंच है. इसी के तहत समय समय पर सम्मेलन आयोजित किए जाते है और वर्तमान चुनौतियों व पुराने उपलब्धियों पर चर्चा कर आगे की रणनीति तय की जाती है. 12 दिसंबर 2015 को इसी के तहत आयोजित सम्मलेन में पेरिस जलवायु समझौता पर सहमति बनी थी.

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    पेरिस जलवायु समझौता क्या है (What is Paris Climate Agreement in Hindi)?

    साल 2015 संपन्न पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी मुद्दों पर, देशों के लिये, क़ानूनी रूप से बाध्यकारी एक अन्तरराष्ट्रीय सन्धि है. ये समझौता संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक जलवायु सम्मेलन (कॉप-21) के दौरान, 196 पक्षों की ओर 12 दिसम्बर को पारित किया गया और 4 नवम्बर 2016 को लागू हो गया था. इस सम्मलेन में 30 नवंबर से लेकर 11 दिसंबर, 2015 तक भाग ले रहे 196 देशों के सरकारों ने चर्चा कर मसौदे को अंतिम रूप दिया था. गौतलब रहे कि पेरिस जलवायु समझौता 1997 में जापान के क्योटो सम्मलेन में हुए मूल संधि का विस्तार मात्र है.

    यूनाइटेड नेशंस के एक रिपोर्ट के अनुसार, पेरिस जलवायु समझौते का उद्देश्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाना है, जिससे सदी के अंत तक तापमान वृद्धि को पूर्वऔद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सके. साथ ही वार्मिंग को 1.5oC तक सीमित करने का लक्ष्य है. यह समझौता पांच साल के चक्र पर काम करता है.

    समझौते में शामिल देशों को प्रत्येक 5 साल में राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) से जुड़े जानकारी यूएनएफसीसी सचिवालय को सौंपना होता है. वहीं, विकसित देशों को विकासशील देशों को जलवायु परवर्तन और ग्रीन हाउस गैसों से जुड़े मदद मुहैया करवाना होता है.

    इस समझौते में माना गया है कि विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन का दंश विकाशशील व अल्प विकसित देशों को झेलना होता है. इसलिए विकसित देश इसमें आर्थिक योगदान देते है, ताकि अन्य देश अपने यहाँ पर्यावरण सुधारों की योजनाओं को लागु कर सके. विकसित देशों से प्राप्त सहायता का एक बड़ा हिस्सा भारत को भी प्राप्त होता रहा है.

    क्योटो प्रोटोकॉल में विकसित देशों के लिए उत्सर्जन में कटौती बाध्यकारी था. साथ ही, कटौती का कोटा भी निर्धारित किया जाता था. लेकिन ये दोनों शर्तें पेरिस जलवायु समझौते से हटा दिए गए है. अब सभी देश अपने कटौती के लक्ष्यों को खुद ही निर्धारित करते है. साथ ही इसमें किसी भी प्रकार के दंड का प्रावधान नहीं है.

    पेरिस समझौते के मुख्य पहलू (Main Points of Paris Agreement in Hindi)

    पृथ्वी के जलवायु परिवर्तन के प्रति पेरिस समझौते ने न केवल जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में एक नई दिशा देने का काम किया है, बल्कि यह वैश्विक सहयोग और साझा प्रयास की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है. इस समझौते के महत्वपूर्ण बिंदु है-

    ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती

    पेरिस समझौते के माध्यम से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती का संकल्प लिया गया है. इसका उद्देश्य, पृथ्वी के तापमान को बढ़ने से रोकने के लिए गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है, जिससे जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना किया जा सके.

    योगदान की समीक्षा और महत्व

    पेरिस समझौते के अनुसार, प्रत्येक पाँच वर्षों में हर देश के योगदान की समीक्षा की जाती है ताकि समझौते के लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायता मिल सके. यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि सभी देश अपने उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए सशक्त नीतियों का पालन करते हुए आपसी सहयोग बरकरार रखे.

    सहयोग का सूत्रपात

    पेरिस समझौते के तहत विभिन्न देशों के बीच पर्यावरण अनुकूल तकनीक और नवाचार का प्रसार किया जाता है. इससे विकसित देशों के तकनीक उन अल्पविकसित देशों को आसानी से मिल जाते है जो ऊर्जा के नवीकरण की दिशा में कदम उठा रहे हैं.

    संघर्ष और समाधान

    पेरिस समझौते के अंतर्गत सरकारों, व्यवसायों, नागरिक समाज, शैक्षणिक संस्थानों और यूनियनों को साथ लाने की आवश्यकता है. इन सभी हिस्सेदारों को मिलकर काम करने से ही हम जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम का समाधान निकाल सकते हैं.

    समझौते में माना गया है कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और हरित भविष्य तैयार करने के लिए सिर्फ सरकार का प्रयास नाकाफी होगा. इसलिए हम समझौते का मुख्य सन्देश, हम साथ मिलकर एक सुरक्षित, स्वस्थ, और सुस्तीपूर्ण भविष्य बना सकते हैं, मान सकते है.

    पेरिस जलवायु समझौता और दुनिया: एक नजर

    ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में चीन 30 फीसदी, अमेरिका 13.5 और भारत का 6.8 फीसदी योगदान है. अमेरिका को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2025 तक 26-28 फीसद तक कम करना था. लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प ने साल 2020 में ही इससे अलग होने का फैसला ले लिया. इससे पहले ग्रीन क्लाइमेट फंड में अमेरिका की सर्वाधिक भागीदारी थी. समझौते में विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए इस कोष में 100 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता देनी थी. यह लक्ष्य अमेरिका के समझौते से अलग होने के बाद मुश्किल हो गया था.

    अमेरिका के इस समझौते से अलग होने से इसकी प्रासंगिकता पर भी सवाल उठने लगा. लेकिन 20 जनवरी 2021 को अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पेरिस जलवायु समझौता में फिर से शामिल होने की घोषणा कर दी. उनके इस घोषणा का पर्यवरणीदों ने स्वागत किया और पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पुनः प्राप्त करने की संभावना कायम हुई.

    पेरिस जलवायु समझौता वक्त का तकाज़ा क्यों (Why is Paris Climate Agreement important in Hindi)?

    हमारी दुनिया भुखमरी, असमानता, प्राकृतिक आपदाओं समेत कई समस्याओं से गुजर रही है. इन्हीं समस्याओं में एक ग्लोबल वार्मिंग भी है. पेरिस जलवायु समझौता इसी समस्या के समाधान के लिए किया गया है, जो प्रदूषक उत्सर्जन खासकर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में में कटौती कर स्वच्छ पर्यावरण का वकालत करता है.

    वैज्ञानिक शोध पर के लिए समर्पित ‘जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल’ (आईपीसीसी) का मानना है कि कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और मीथेन जैसे गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि के कारण ही तापमान में अनियमित बढ़ोतरी हो रही है. इसके कारण पृथ्वी में आकस्मिक परवरणीय बदलाव यथा, सूखा व बाढ़, वनाग्नि, लू, अनियमित बरसात और तूफान, की बारम्बारता पहले के तुलना में कई गुना बढ़ गई है.

    पेरिस जलवायु समझौता वक्त का तकाज़ा क्यों? (Why is Paris Climate Agreement important in Hindi)

    तापमान में वृद्धि के कारण ग्लीसियर तेजी से पिघल रहे है, जो समुद्र के जलस्तर को बढ़ा रहा है. इससे दुनिया के गहरे स्थलों के डूबने का खतरा उत्पन्न हुआ है. नासा के अनुसार, 1993 से 2002 के तुलना में 2013 से 2022 के बीच समुद्र का जलस्तर दोगुने रफ्तार से बढ़ा है (नोट: ऊपर के चित्र में इसी बात को दर्शाया गया है.).

    समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी से धरती के नीचले इलाकों का डूबने का खतरा है. दक्षिण प्रशांत महासागर में हवाई और ऑस्ट्रेलिया के बीच में स्थित 11 हजार की आबादी वाला तुवालु ऐसा ही एक द्वीपसमूह राष्ट्र है, जो समुद्री जलस्तर में बदलाव का प्रकोप का सामना कर रहा है (इसे पहले एलिस द्वीप समूह के नाम से जाना जाता था). यहां के भूमि पर समुद्री जल के अतिक्रमण के कारण, यहाँ की सरकार लोगों को क्रमबद्ध तरीके से अन्य देशों में बसा रही है.

    मौसम में बदलाव से इकोसिस्टम पर भी असर हुआ है. हिटवेव के कारण दुनियाभर में मौतों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, साथ ही अस्थमा और प्रदुषणजनित अन्य बीमारियों में भी इजाफा दर्ज किया गया है.

    बरसात के क्रम में बदलाव से जल के गुणवत्ता में भी बदलाव आया है. इसे धरती के जलस्त्रोतों में प्रदूषकों के सांद्रता में वृद्धि हुई है. इससे जहाँ जलजनित बीमारी बढ़े है, वहीं कृषि पर भी नकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है. इस तरह ग्लोबल वार्मिंग खाद्य सुरक्षा के दृष्टि से भी नुकसानदायक है.

    एक नजर कोरोना काल और जलवायु पर (Climate during Covid-19 Era in Hindi)

    कोरोना महामारी ने बेशक दुनिया के अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है. लेकिन इसने पर्यावरण का काफी फायदा किया है. अब कोरोना काल में वातावरण को मिली संजीवनी से दुनिया हतप्रत है. आंकड़े जहाँ आर्थिक बदहाली दिखलाती है, वहीं पर्यावरण में हुआ सुधार को ग्लोबल लॉकडाउन का उपलब्धि बताया जा रहा है. इस दौरान ग्लोबल कार्बन उत्सर्जन में काफी कमी आई. इन सब बातों से पर्यावरणविद दशक के अंत तक ग्लोबल तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस तक कम करने के लिए उत्साहित है.

    पर्यावरण और जलवायु विशेषज्ञों के एक समूह के अनुसार वर्ष 2020 में सार्वभौमिक गर्माहट (ग्लोबल वार्मिंग) को संचालित करने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में रिकॉर्ड गिरावट आई. इस साल दिसंबर माह तक दुनिया भर में जीवाश्म ईंधन दहन से कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में 7 फीसदी की कमी हुआ था. पुरे साल 34 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में उत्सर्जित हुआ, जिसे एक बड़ा उपलब्धि माना जा रहा है.

    इससे सदी के अंत तक धरती का तामपान में दो फीसदी से अधिक की वृद्धि न होने की संभावना जताई जा रही है. अभी तक माना जा रहा था कि इस साल के अंत तक तापमान तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा.

    साल 2020 में कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में 2019 के तुलना में 2.4 अरब टन की कमी आई है. इससे तापमान में 0.01 फीसदी तक की ही कमी आएगी. इसलिए इसे विशेषज्ञ बड़ी उपलब्ध नहीं मान रहे है. लेकिन हमे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इक्कीसवी सदी में यह पहला मौका है जब पिछले साल की तुलना में कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी आई. वहीं, लॉकडाउन के खुलते ही प्रदुषण के स्तर में जोरदार वृद्धि भी चिंतनीय है.

    2020 : पर्यावरण के लिए एक असाधारण वर्ष (2020: Momentous Year for Environment)

    साल 2020 पर्यावरण के लिए एक असाधारण वर्ष रहा है. इस वर्ष अमेरिकी राज्य कैलिफोर्निया स्थित डेथ वैली में तापमान 54.4 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया. इस तापमान ने पिछले 80 साल के रिकॉर्ड को तोड़कर एक नई रिकॉर्ड कायम की. इसके साथ ही इस साल साइबेरियन आर्कटिक के तापमान में 5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी दर्ज की गई. इसका असर ये हुआ कि यहाँ जबसे बर्फ की मात्रा रिकॉर्ड करनी शुरू की गई है, यानी 42 साल में पहली बार सबसे कम बर्फ रिकॉर्ड किया गया.

    2020 में जनवरी से अक्टूबर तक जलवायु सम्बंधित ये तथ्य सामने आएं हैं कि आर्कटिक महासागर में गर्मी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है और हमारे नील ग्रह के लगभग 80% लोगों ने पिछले वर्ष में कम से एक समुद्री हीटवेव का अनुभव किया है.

    इस तरह देखे तो साल 2020 मौसम परिवर्तन का मानव जीवन पर काफी नकारात्मक असर हुआ है. दूसरी तरफ कार्बन उत्सर्जन में कमी देखी गई. यह विरोधाभास हमें पर्यावरण के सम्बन्ध में नए तरिके से सोचने के लिए मजबूर करती है.

    साल के शुरूआती दौर में ही ग्लोबल लॉकडाउन का दौर शुरू हो गया था. लेकिन पुरे साल में हुए मौसम सम्बन्धी परिवर्तन चौंकाने वाले है.

    2022 में छिपा पेरिस जलवायु समझौता का विफलता (Failure of Paris Climate Agreement hidden in Year 2022)

    पिछले साल यानि 2022 भी पिछले पांच वर्षों के भांति भीषण गर्मी का साल रहा. नासा के अनुसार साल 2022 पांचवां सबसे गर्म वर्ष है, जो 1880-1920 की अवधि से 1.16 डिग्री सेल्सियस (2.09°F) अधिक है. यह अवधि पूर्व-औद्योगिक समय के तापमान को मापने के लिए आदर्श माना जाता है.

    साल 2022 में धरती का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक समय से 1.15 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया. इसी साल 28 देशों में सबसे गर्म साल दर्ज किए गए. यूके में तापमान 40°C रिकॉर्ड किया गया. इसका असर वहां के आधारभूत संरचना पर भी दिखा. कई जगह प्लास्टिक के ट्रैफिक लैम्प पिछलते देखे गए. यूके के साथ ही पुरे पश्चिमी यूरोप को भयंकर गर्मी से गुजरना पड़ा. वहाँ 500 सालों का सबसे भीषण सूखा भी दर्ज किया गया.

    Global Temperature Map 2022

    इन्फोग्राफिक्स: क्या आपको धरती के किसी भी हिस्से में तापमान में कमी होते दिख रहा है?

    ये जानना भी दिलचस्प है कि 2015 में पेरिस जलवायु समझौता होने से लेकर 2022 तक दुनिया के सबसे गर्म वर्ष रहे है. पिछले तीन साल ला नीना का प्रभाव देखा गया. इसके शीतलन प्रभाव से विश्व के औसत तापमान में गिरावट देखी गई. यदि ला नीना की घटना न हुई होती तो औसत तापमान में और भी बढ़ोतरी होती और पर्यावरण से सम्बंधित कई आकस्मिक आपदाएं देखने को मिलते. इसलिए, साल 2023 या 2024 में अल नीनो के कारण यह रिकॉर्ड टूटने की संभावना जताई जा रही है.

    कुछ ही महीनों बाद पेरिस जलवायु समझौता का एक दशक पुरा होने को है. लेकिन अभी तक इसका पर्यावरण पर उम्मीद के मुताबिक़ सकारात्मक प्रभाव नहीं हुआ है. इसलिए ये कहा जा सकता है कि सफलता का धीमा ग्राफ इसे विफल बना रहा है.

    भारत और जलवायु परिवर्तन (India and Climate Change in Hindi)

    पेरिस जलवायु समझौता किसी भी देश के लिए बाध्यकारी नहीं है. यानि यह सदस्य देशों की इक्षा पर निर्भर करता है कि आप इसका पालन करना चाहते है या नहीं. लेकिन इस सम्बन्ध में भारत का अब तक का ट्रैक रिकॉर्ड काफी बेहतर रहा है.

    साल 2016 में भारत पेरिस जलवायु समझौते में शामिल हुआ था. इसके बाद ये फैसला लिया गया कि भारत 2005 की तुलना में 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 प्रतिशत की कटौती करेगा. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत ने साल 2022 तक 175 गीगावाट पवन ऊर्जा उत्पन्न करने का लक्ष्य बनाया. साथ ही 2030 तक 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य बनाया गया है.

    नए संकल्पना की जरुरत (Need for New Concept)

    जब भी प्रदुषण की बात होती है तो वायु प्रदुषण पर ख़ास ध्यान दिया जाता है. लेकिन जल, मृदा और ध्वनि जैसे अन्य पहलुओं को लगभग दरकिनार कर दिया जाता है. पर्यवरण में आ रहे बदलावों का पैटर्न कहीं न कही इस तरफ इशारा कर रहा है कि वायु, जल और मृदा प्रदुषण का मामला आपस में जुड़े हुए है.

    दुनिया में अनाजों के उत्पादन के तरीके में बदलाव आए है. कीटनाशकों का व्यापक इस्तेमाल हो रहा है. साथ ही औद्योगिक कचरों को नदियों में बहा दिया जाना आम है. वायु प्रदुषण के अलावा अन्य किसी भी पहलु पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया जा रहा है. पेरिस जलवायु समझौता भी इसका अपवाद नहीं है. ऐसे में यह निहायत जरुरी है कि हम तेजी से जलवायु सुधार की तरफ बढे व धरती के भविष्य को सुरक्षित करें.

    जलवायु परिवर्तन से मौसम में आते बदलाव (weather changes due to climate change in Hindi)

    बड़े शहरों में सामान्य दिनों में भी प्रदुषण से बचने के लिए मास्क पहनना आम हो चला है. वायु प्रदुषण के कारण ही फेफड़े व श्वास सम्बन्धी बिमारियों में उझाल आ गया है. औद्योगीकरण के कारण पूंजीपति तो दिनोदिन मालामाल हो रहे है, लेकिन इसका भुगतान आम जनता को करना पड़ता है.

    औद्योगीकरण और नए मशीनों ने मानव जीवन को काफी सुगम बना दिया है. लेकिन इसका एक दुष्परिणाम भी देखने को मिला है. यह है प्रदुषण. जैसे-जैसे औद्योगिकीकरण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी वृद्धि हो रही है. फलस्वरूप वैश्विक तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है.

    जलवायु परिवर्तन के कारण मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियाँ और अधिक बढ़ेंगी तथा इन्हें नियंत्रित करना मुश्किल होगा. ऋतु परिवर्तन चक्र में बदलाव, तापमान वृद्धि, समुद्र स्तर में वृद्धि, फसल उत्पादन में परिवर्तन आदि ग्लोबल वार्मिंग का दुष्परिणाम है.

    भूस्खलन, सूनामी, महामारी, पलायन एवं स्वास्थ्य के लिये बड़ी आपदायें हैं. जलवायु परिवर्तन के साथ ही इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है. यह भारत के साथ ही पुरे दुनिया में ताजे पानी, कृषि योग्य भूमि और तटीय व समुद्री संसाधन जैसे भारत के प्राकृतिक संसाधनों के वितरण और गुणवत्ता को परिवर्तित कर सकता है. कृषि, जल और वानिकी जैसे अपने प्राकृतिक संसाधन आधार और जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों से निकट रूप से जुड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश भारत को जलवायु में अनुमानित परिवर्तनों के कारण गंभीर संकटों का सामना करना पड़ सकता है.

    संयुक्त राष्ट्र पैनल की एक रिपोर्ट ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा असर हमारे जल संसाधनों पर पड़ सकता है. ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु नदी प्रणालियां हिमस्खलन में कमी के कारण विशेष रूप से प्रभावित हो सकती हैं. नर्मदा और ताप्ती को छोड़कर सभी नदी घाटियों के लिए कुल बहाव में कमी आ सकती है.

    वैश्विक तापमान उम्मीद से अधिक तेज गति से बढ़ रहा है. कार्बन उत्सर्जन में समय रहते कटौती के लिए कदम नहीं उठाए जाते तो इसका विनाशकारी प्रभाव हो सकता है, जो समय-समय पर दिखता भी है.

    ग्लोबल वार्मिंग (जलवायु परिवर्तन) यानी सरल शब्दों में कहें तो हमारी धरती के तापमान में लगातार बढ़ोतरी होना. ग्लोबल वार्मिंग जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन में वृद्धि के कारण पृथ्वी के वायुमंडल के तापमान में वृद्धि को दर्शाता है. जलवायु परिवर्तन के बारे में बदलते जलवायु रुझान को दर्शाता है. दूसरे शब्दों में कहें तो ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन होता है. पेरिस जलवायु समझौता इसे रोकने के लिए एक कारगर योजना है. लेकिन अभी तक इसका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं दिखा है.

    पर्यावरण के लिए आगे चुनौतियाँ (Ahead Challenges for Environment in Hindi)

    बढ़ती आबादी के आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तकनीक जरुरी है. लेकिन हमें प्रकृति से खिलवाड़ की बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ रही है. अब ये स्पष्ट हो चुका है कि विश्व को साल 2015 में किए गए पेरिस जलवायु समझौते को पूरा करने के लिए कार्बन उत्सर्जन में सलाना दो अरब टन या इससे अधिक कमी करना होगा. इसके लिए सभी देशों को नवीन व अक्षय ऊर्जा की तरफ भी बढ़ना होगा.

    पेरिस जलवायु समझौते को पूरा करने के लिए इस दशक के अंत तक ग्लोबल कार्बन उत्सर्जन में 25 फीसदी की कटौती जरुरी है. यह लक्ष्य पूरा होने पर ही ग्लोबल तापनान को दो डिग्री सेल्सियस तक कम किया जा सकता है.
    बढ़ती आबादी, जीवाश्म ईंधन पर बढ़ती निर्भरता और बढ़ते औद्योगिकीकरण से पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करना काफी मुश्किल होता जा रहा है.

    2020 के दशक में कोरोना महामारी के उपजे हालातों के कारण उत्सर्जन के लक्ष्यों को पाने में काफी मदद की थी. लेकिन लॉकडाउन के हट्टे ही यह उपलब्धि शून्य हो गई और उत्सर्जन महामारी से पहले के स्तर से भी अधिक हो गया. इसलिए, पर्यावरण संतुलन के लिए नए संभावनाओं का खोज जरुरी है.

    इसलिए सभी देशों को पर पेरिस जलवायु समझौता का कड़ाई से पालन करना जरूरी है. अधिक उत्सर्जन करने वाले संपन्न विकसित देशों के लिए समझौते को बाध्यकारी बनाना भी एक उपाय हो सकता है. साथ ही कृत्रिम ईंधन के उपभोग को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है.

    अभी तक हुए COPs और उनके परिणाम (COPs till date and its results in Hindi)

    वर्ष 1995 से हरेक साल यूएनएफसीसी के तत्वाधान में साल के अंत में एक सम्मलेन आयोजित होता है. इसे ही कॉनफेरेन्स ऑफ़ पार्टीज (COP) कहा जाता है. इसका अध्यक्षता यूएन के पाँच क्षेत्रीय समूहों एशिया, अफ्रीका, मध्य एवं पूर्वी यूरोप, लैटिन अमेरिका और कैरिबियन, तथा पश्चिमी यूरोप व अन्य के बीच चक्रीय रूप से घूमता है. अध्यक्षता आमतौर पर अध्यक्ष देश के पर्यावरण मंत्री द्वारा की जाती है. पेरिस जलवायु समझौता COP-21 का उपज है.

    1. बर्लिन, जर्मनी (1995): अंतर्राष्ट्रीय जलवायु कार्रवाई में पहला संयुक्त उपाय, “संयुक्त रूप से कार्यान्वित गतिविधियों” पर सहमति.
    2. जिनेवा, स्विट्जरलैंड (1996): मंत्रिस्तरीय घोषणा.
    3. क्योटो, जापान (1997): विकसित देशों को उत्सर्जन की बाध्यता-क्योटो प्रोटोकॉल.
    4. ब्यूनस आयर्स, अर्जेंटीना(1998): क्योटो प्रोटोकॉल अपनाने के लिए द्विवर्षीय योजना.
    5. बॉन, जर्मनी (1999)
    6. हेग, नीदरलैंड (2000): उत्सर्जन कटौती पर विवाद और बेनतीजा.
    7. माराकेच, मोरक्को(2001): क्योटो प्रोटोकॉल अगस्त–सितम्बर 2002 तक टाला गया.
    8. नई दिल्ली, भारत (2002): प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की आवश्यकता पर केंद्रित, अमेरिका और रूस के हाथ के कारण क्योटो प्रोटोकॉल टला.
    9. मिलान, इटली (2003): अविकसित देशों को पर्यावरण परिवर्तन से लड़ने के लिए आर्थिक मदद पर सहमति.
    10. ब्यूनस आयर्स, अर्जेंटीना (2004): उत्सर्जन कटौती पर कार्य योजना स्वीकृत. बाध्यकारी कटौती के 2012 में समाप्ति के बाद के योजना पर चर्चा.
    11. मॉट्रियल, कनाडा (2005): मॉन्ट्रियल एक्शन प्लान “क्योटो प्रोटोकॉल के जीवन को 2012 की समाप्ति तिथि से आगे बढ़ाने और ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन में गहरी कटौती पर बातचीत करने” के लिए एक समझौता था. कनाडा का सबसे बड़ा समारोह बना, जिसमें 10,000 प्रतिनिधियों ने शिरकत की.
    12. नैरोबी, केन्या (2006): विकासशील देशों के लिए समर्थन के क्षेत्र और स्वच्छ विकास प्रणाली. अगले पांच वर्षों की कार्य योजना पर सहमति.
    13. बाली, इंडोनेशिया (2007): बाली रोडमैप और कार्ययोजना के तहत साझा दृष्टि, शमन, अनुकूलन, प्रौद्योगिकी और वित्तपोषण पर सहमति.
    14. पॉज़्नान, पोलैंड (2008): वन संरक्षण पर सहमति और क्योटो प्रोटोकॉल के बाद के योजना पर विचार.
    15. कोपेनहेगन, डेनमार्क (2009): अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और अन्य नेताओं ने जलवायु परिवर्तन समझौते तक पहुँचने के कठिन कार्य को टालने का निर्णय लिया.
    16. कैनकुन, मेक्सिको (2010): प्रति वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर का “हरित जलवायु कोष“, और एक “जलवायु प्रौद्योगिकी केंद्र” और नेटवर्क का समझौता किया गया.
    17. डरबन, दक्षिण अफ़्रीका (2011): साल 2015 से 2020 तक व इससे आगे के लिए जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के लिए प्रतिबद्धता पर सहमति बनी. इसके परिणामस्वरूप 2015 का पेरिस जलवायु समझौता हुआ.
    18. दोहा, कतर (2012): ‘दोहा जलवायु गेटवे‘ नामक विस्तृत दस्तावेज पारित.
    19. वारसॉ, पोलैंड (2013)
    20. लीमा, पेरू (2014)
    21. पेरिस, फ्रांस (2015): 2020 के बाद जलवायु समस्याओं को सम्बोधित करने होते पेरिस जलवायु समझौता पर हस्ताक्षर. समझौते ने COP 17 में अपनाए गए डरबन प्लेटफार्म को प्रतिस्थापित किया.
    22. माराकेश, मोरक्को (2016): वैश्विक अर्थव्यवथा को कम उत्सर्जन वाला अर्थव्यवस्था बनाने पर जोर. जलवायु से सम्बंधित मारकेश साझेदारी आरम्भ. पेरिस समझौते के नियम का काम आगे बढ़ा. अफ्रीका के जल समस्या पर चर्चा.
    23. बॉन, जर्मनी (2017): यह एक छोटे द्वीपीय विकासशील देश, फिजी, द्वारा आयोजित पहला COP था. इस सम्मलेन से पहले अमेरिका ने समझौते से अलग होने का घोषणा कर दिया था.
    24. काटोवाइस, पोलैंड (2018): पेरिस जलवायु समझौता लागु करने के लिए ‘नियम पुस्तिका’ को अंतिम रूप दिया गया. इसी नियम में एनडीसी का प्रस्ताव दिया गया.
    25. मैड्रिड, स्पेन (2019)
    26. ग्लासगो, स्कॉटलैंड (2020)
    27. शर्म अल शेख, मिस्र (2021)
    28. दुबई, यूएई (2023): 2023 संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2023 तक एक्सपो सिटी, दुबई, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में आयोजित किया जाएगा.

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