नमस्कार दोस्तों! इस लेख के माध्यम से हम संक्षिप्त में केंद्र-राज्य संबंधों की प्रकृति और विस्तार से केंद्र-राज्य संबंधों के लिए स्थापित विभिन्न आयोगों या समितियों के संस्तुतियों को जानेंगे.
केंद्र-राज्य सम्बन्ध की प्रकृति
केंद्र-राज्य संबंध भारतीय संघवाद की बुनियाद हैं और राष्ट्रीय एकता तथा विकास को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के संबंधों पर विस्तृत प्रावधान किए गए है. इन प्रावधानों के आधार पर हम केंद्र-राज्य संबंध को तीन प्रकार में वर्गीकृत कर सकते है:
विधायी संबंध: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 से 255 के अंतर्गत आते हैं. यह केंद्रीय और राज्य विधान की क्षेत्रीय सीमा, विधायी विषयों का वितरण, राज्य क्षेत्र में संसदीय कानून, और राज्य विधायिका पर केंद्र का नियंत्रण शामिल है.
प्रशासनिक संबंध: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 256 से 263 के अंतर्गत आते हैं. इसमें कार्यकारी शक्तियों का वितरण, राज्यों और केंद्र का दायित्व, और एकीकृत न्यायिक प्रणाली शामिल है.
वित्तीय संबंध: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 268 से 293 के अंतर्गत आते हैं. इसमें कर लगाने की शक्ति का आवंटन, कर राजस्व का वितरण, गैर-कर राजस्व का वितरण, और राज्यों को सहायता अनुदान शामिल है.
केंद्र-राज्य सम्बन्ध पर विभिन्न आयोग व समितियां
भारत के संघीय व्यवस्था में केंद्र-राज्य संबंधों में कई जटिलताएँ है. इन जटिलताओं से उठने वाले विवादों को जांचने के लिए समय-समय पर कई आयोग या समितियों की स्थापना की गई है. ये आयोग और इनके सुझाव इस प्रकार है:
प्रशानिक सुधार आयोग (Administrative Reforms Commission, 1966-1969)
इसका गठन मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में 5 जनवरी, 1966 को किया गया था. कुछ समय बाद ही मोरारजी केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल हो गए. इसके कारण के. हनुमंतैया को इस आयोग का दूसरा अध्यक्ष नियुक्त किया गया. इस आयोग ने अपनी पहली रिपोर्ट 20 अक्तूबर, 1966 को और दूसरी रिपोर्ट 30 जून, 1970 को पेश की. आयोग ने कुल 578 सुझाव दिए गए थे, जिनमें केंद्र-राज्य सम्बन्ध पर मुख्य संस्तुतियां इस प्रकार है:
(1) आयोग ने राष्ट्रिय एकता की आवश्यकता को ध्यान में यह माना कि संविधान में केंद्र को प्राप्त शक्तियां आवश्यक है. प्रशासनिक स्तर पर शक्तियों का विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए.
(2) केंद्र-राज्य संबंधों में सुधार के लिए संविधान में किसी बदलाव की आवश्यकता नहीं है. संविधान के प्रावधान इस सम्बन्ध में उचित और पर्याप्त है.
(3) राज्यों के योजनागत कार्यक्रमों के लिए ऋण तभी देने चाहिए जब वे कार्यक्रम उत्पादक प्रकृति के हों तथा ऐसे ऋणों की वसूली एक समय सीमा में की जानी चाहिए. गैर-उत्पादक कार्यक्रमों के लिए केंद्रीय सहायता पूंजीगत अनुदान के रूप में दिए जाने चाहिए.
(4) राज्यों को दिए जाने वाले विभिन्न केंद्रीय अनुदानों के सम्बन्ध में वित्त आयोग एवं योजना आयोग में समन्वय स्थापित करने के लिए वित्त आयोग में योजना आयोग के कतिपय सदस्य नियुक्त किए जाने चाहिए.
(5) राजयपाल के रूप में ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति की जानी चाहिए जिनको सार्वजनिक जीवन और प्रशासन का लम्बा अनुभव हो और जो दलीय राजनीति से ऊपर उठकर निष्पक्ष रूप से कार्य कर सकें.
(6) केंद्र-राज्य विवादों को निपटारा आपसी मशवरें और गोपनीय तरीके से किया जाना चाहिए.
(7) कानून व्यवस्था प्रशासन में राज्यों की मदद हेतु केंद्रीय बलों की तैनाती राज्य सरकारों के अनुरोध अथवा केंद्र द्वारा स्वयं के निर्णय से भी की जा सकती है. लेकिन स्वयं निर्णय से ऐसी तैनाती में केंद्र सरकार को विवेकसम्मति तरीके से कार्य करना चाहिए. अनुच्छेद 256 के अंतर्गत राज्यों को प्रशासनिक निर्देश देने के पूर्व केंद्र सरकार को इस सम्बन्ध में उठने वाले विवादस्पद बिंदुओं पर विचार करना चाहिए.
(8) अंतर-राज्य परिषद को दिशानिर्देश तैयार करना चाहिये कि राज्यपालों को विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग किस प्रकार करना चाहिए.
15 मार्च 1975 को केंद्र सरकार ने केंद्र-राज्य सम्बन्ध के लिए संविधान संसोधन न करने का प्रस्ताव और केंद्र का संवैधानिक शक्ति बरकरार रखने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.
राजमन्नार समिति (Rajamannar Committee in Hindi)
केन्र-राज्य संबंधों में टकराव के कारण किसी राज्य द्वारा निर्मित यह पहली समिति थी, जो केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा करती थी. इस समिति की स्थापना 1969 में तमिलनाडु सरकार द्वारा किया गया था. इसके तीन सदस्य थे और डॉ. वी. पी. राजमन्नार इसके अध्यक्ष थे. लक्षमस्वमी मुदलियार और पी. सी. चंद्र रेड्डी इसके दो अन्य सदस्य थे. इस समिति ने अपना रिपोर्ट 1971 में तमिलनाडु सरकार को सौंपा था.
वास्तव में प्रशासनिक सुधार आयोग की विफलता के खीज से तमिलनाडु सरकार ने इस आयोग का स्थापना किया था. इस दौर में ही क्षेत्रीय दलों का उभार आरम्भ हो गया था, जबकि केंद्र में राष्ट्रिय दलों का प्रभाव था. इसने केंद्र-राज्य टकराव की स्थिति को जन्म दिया था. इस स्थिति को संघवाद लेख में पढ़ सकते है.
- एक अंतर- राज्यीय परिषद का गठन हो. वे सभी निर्णय इस परिषद के सुझाव के बिना नहीं लिया जाए, जिससे राज्य के हित प्रभावित होते हो.
- योजना आयोग के जगह एक संवैधानिक निकाय स्थापित हो.
- वित्त आयोग को एक स्थायी निकाय बनाया जाए.
- राज्यपाल के प्रसादपर्यंत राज्य मंत्रिपरिषद के पद धारित करने का जो प्रावधान है, उसे समाप्त कर दिया जाये.
- संघ सूची एवं समवर्ती सूची के कुछ विषयों को राज्य सूची में हस्तांतरित कर दिया जाये.
- राज्यों को अवशेषीय शक्तियां प्रदान की जायें.
- अखिल भारतीय सेवाओं (I.A.S., I.P.S., I.F.S.) को समाप्त कर दिया जाये; तथा
- अनुच्छेद 356, 357 एवं 365 (राज्यों में राष्ट्रपति शासन से संबंधित) को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाए.
चूँकि यह समिति एक राज्य सरकार द्वारा स्थापित की गई थी. इसलिए सरकार ने इस समिति की सिफारिशों को नहीं स्वीकार किया. बाद में पंजाब और पश्चिम बंगाल सरकार ने भी केंद्र-राज्य सम्बन्ध पर समिति का स्थापना किया था. यह केंद्र-राज्य के मध्य बढ़ते टकराव का परिणाम था.
सरकारिया आयोग
केंद्र-राज्य के मध्य बढ़ते तनाव और विवाद के कारण सरकार को एक बार फिर से केंद्र-राज्य संबंधों के समीक्षा की जरुरत पड़ी. इसलिए 24 मार्च 1983 को इस विषय के अध्ययन के लिए एक राष्ट्रिय आयोग की स्थापना की गई. इसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति रंजीत सिंह सरकारिया थे. इनके के नाम पर यह आयोग सरकारिया आयोग के नाम से जाना गया. इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 30 जनवरी 1988 को प्रकाशित की. इस आयोग ने पहली बार केंद्र-राज्य संबंधों पर एक विस्तृत अध्ययन किया और अपने सुझाव दिए. इस आयोग ने निम्नलिखित सिफारिशें की:
(1) इस आयोग ने अनुच्छेद 356 में संसोधन की मांग को खारिज कर दिया. इसमें राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की व्यवस्था है. लेकिन आयोग ने सुझाव दिया कि राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के आधार अधिसूचना में ही सार्वजानिक कर दिया जाए. राज्य विधानसभा को तबतक न भांग करने को कहा गया जबतक संसद द्वारा राष्ट्रपति शासन को अनुमोदित न कर दिया जाए.
(2) आयोग ने देश के प्रशासन में एकता बनाए रखने के लिए अखिल भारतीय सेवाओं की भूमिका को रेखांकित किया तथा उनकी समाप्ति की मांग को स्वीकार नहीं किया. आयोग ने अखिल भारतीय सेवाओं को मजबूत करने तथा उनके चयन व प्रशिक्षण में समुचित सुधार की सिफारिश की.
(3) आयोग ने अनुच्छेद 263 के अंतर्गत अन्तर्राज्य परिषद् के गठन की पैरवी की. आयोग ने कहा कि इसकी एक स्थायी समिति भी होना चाहिए, जिसमें प्रधानमंत्री तथा प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद् से एक मुख्यमंत्री को शामिल किया जाना चाहिए. यह स्थायी समिति केंद्र और राज्यों के समान हित के मुद्दों पर नियमित रूप से विचार करेगी.
(4) राज्यों के मध्य नदियों के जल-बंटवारे को विवाद के हल के लिए अन्तर्राज्य नदी विवाद अधिनियम संशोधित करने को कहा गया. विवाद को एक साल के अंदर सुल्हाने के लिए न्यायाधिकरण के स्थापना का सुझाव भी दिया गया. लेकिन इस न्यायाधिकरण का फैसला सम्बन्धित पक्षों पर बाध्यकारी न हो. न्यायाधिकरण का फैसला इसके गठन के पांच साल के अंदर प्रभाव में आ जाना चाहिए. राज्यों के लिए यह बाध्यकारी होगा कि वह न्यायाधिकरण को आवश्यक जानकारी उपलब्ध करवाया जाए.
पुंछी आयोग
सरकारिया आयोग ने 1988 में केंद्र-राज्य संबंधों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी. हालांकि, समय के साथ परिस्थितियों में बदलाव होने के कारण इन सिफारिशों पर पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस हुई. इसलिए साल 2007 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन मोहन पुंछी के अध्यक्षता में गठित की गई. आयोग ने मार्च 2010 में भारत के तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम को सात खंडो की अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी.
पुंछी आयोग की सिफारिशें भारत के संघीय ढांचे को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. आयोग ने केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन को फिर से परिभाषित करने का प्रयास किया. इसने भारत के संघीय ढांचे को और अधिक मजबूत बनाने के उपाय सुझाए. आयोग ने राज्यों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें अधिक स्वायत्तता प्रदान करने पर जोर दिया. केंद्र-राज्य सम्बन्ध पर इसके मुख्य सिफारिश इस प्रकार है:
- संविधान के अनुच्छेद 356 में संशोधन: इस अनुच्छेद का उपयोग राज्यपाल शासन लगाने के लिए किया जाता है. आयोग ने इस अनुच्छेद में संशोधन का सुझाव दिया ताकि इसका दुरुपयोग रोका जा सके.
- राज्यपाल की भूमिका: आयोग ने राज्यपाल की भूमिका को स्पष्ट करने और उसकी शक्तियों को परिभाषित करने का सुझाव दिया.
- वित्त आयोग: आयोग ने वित्त आयोग की भूमिका को मजबूत करने और केंद्र से राज्यों को होने वाले वित्तीय हस्तांतरण में पारदर्शिता लाने का सुझाव दिया.
- राज्य सूची और समवर्ती सूची में संशोधन: आयोग ने राज्य सूची और समवर्ती सूची में संशोधन का सुझाव दिया ताकि राज्यों को अधिक शक्तियां प्रदान की जा सकें.