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भारत में ‘सहकारी संघवाद’, स्वरुप और संबंधित निकाय

नमस्कार दोस्तों! हमारा आज का विषय है “भारत में सहकारी संघवाद”. दोस्तों, इस लेख में माध्यम से हम केंद्र और राज्यों के बीच आपसी सहयोग से पनपे संघवाद के सहकारी स्वरुप की चर्चा करेंगे. इससे पहले हम भारत में संघवाद और इसके स्वरुप की चर्चा कर चुके है. लेकिन आज हमारा पूरा फोकस “सहकारी संघवाद” और केंद्र-राज्य में सहयोग के लिए बनाए गए अभिकरणों (Agencies) पर होगा.

सहकारी संघवाद क्या हैं? (What is Co-Oprative Federalism in Hindi)

सहकारी संघवाद का तात्पर्य संघवाद के ऐसे रूप व व्यवहार से है जिसमें केंद्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे की प्रतिद्वंदी न होकर राष्ट्रीय विकास और सामान्य हितों के क्षेत्र में समन्वय और सहयोग की भावना से कार्य करती है.

अमेरिकी विद्वान् बर्च के अनुसार, “सहकारी संघवाद केंद्र और क्षत्रिय सरकारों के मध्य प्रशासनिक सहयोग की प्रक्रिया है. इसमें क्षेत्रीय सरकारें केंद्रे सरकार की वित्तीय सहायता पर आंशिक रूप से निर्भर होती है, लेकिन यह एक ऐसा तथ्य है कि इस वित्तीय सहायता से ऐसे क्षेत्रों का विकास होता है, जो संविधान कि दृष्टि से राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते है.”

भारत में सहकारी संघवाद

राजनैतिक समीक्षकों में भारत की संघात्मक व्यवस्था का स्वरुप सदैव चर्चा का विषय रहा है. के सी व्हीयर ने शक्तिशाली केंद्र के कारण भारत की संघनात्मक व्यवस्था को “अर्धसंघीय” (Quasi-Federal) कहा है. विख्यात समीक्षक ग्रेनविल आस्तीन ने भारत में संघवाद को ‘सहकारी संघवाद’ माना है. उनके शब्दों में, ” भारतीय संघात्मक व्यवस्था एक ऐसी सहकारी संघवादी व्यवस्था है, जिसमें एक शक्तिशाली केंद्र सकरार निहित है. लेकिन इसमें राज्य सरकारें इतनी कमजोर नहीं है कि वे केंद्र की नीतियों के लिए प्रशासनिक अभिकरण मात्र हो.

भारत में सहकारी संघवाद के धारणा को बल उस वक्त मिला जब केंद्रीय मंत्रिपरिषद के प्रस्ताव द्वारा 1 जनवरी 2015 को नीति (NITI – National Institute for Transforming India) आयोग की स्थापना की. नीति आयोग के लिए घोषित 13 उद्देश्यों में से एक उद्देश्य भारत में संस्थागत सहयोग की निरंतर पहल के माध्यम से सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना है. यह पहला अवसर था जब “सहकारी संघवाद” का प्रयोग किसी सरकारी दस्तावेज में किया गया.

इससे पूर्व किसी भी सरकारी दस्तावेज में इसका उल्लेख नहीं मिलता है. लेकिन भारतीय संविधान के अनुच्छेद एक में भारत को, “राज्यों का एक संघ” के रूप में वर्णित किया गया है. इस प्रकार भारतीय संविधान में भारत में संघवाद को स्वीकारा गया है और केंद्र तथा राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन भी किया गया है. लेकिन इसके प्रकार के बारे में कोई चर्चा नहीं है. अतः हम कह सकते है कि वर्तमान नीति-निर्माताओं ने इसके प्रकार के निर्धारण की शुरुआत की है.

भारत में सहकारी संघवाद के अभिकरण

Co Operation

हमारे संविधान में केंद्र और राज्यों के मध्य विधायी, वित्तीय और प्रशासनिक शक्तियों का विभाजन स्पष्ट रूप से किया गया है. लेकिन कई क्षेत्र दोनों को सौंपे गए है. इस प्रकार केंद्र-राज्य में सहयोग की पर्याप्त गुंजाईश है. इसमें निम्नलिखित अभिकरणों का महत्वपूर्ण भूमिका है:-

1. क्षेत्रीय परिषद (Regional Councils)

भारत में क्षेत्रीय परिषदों के गठन का प्रस्ताव सबसे पहले देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के द्वारा दिया गया था. राज्य पुनर्गठन आयोग, 1956 पर संसद में चर्चा के समय यह प्रस्ताव दिया था. ये वो दौर था जब भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मांग जोरों पर थी. इस्सके क्षेत्रीयता के भावना अत्यधिक प्रबल हो गई थी, जो राष्ट्रिय एकता के लिए खतरा के समान था.

ऐसे में क्षेत्रीय परिषद् का विचार दिया गया. इसे एक ऐसे मंच के रूप में प्रस्तुत किया गया जो एक क्षत्र विशेष के राज्यों की आपसी समस्याओं का समाधान कर सकें तथा इनका संतुलित सामाजिक और आर्थिक विकास कर सकें. इसका एक मुख्य उद्देश्य, ‘राज्यों के मध्य सहयोगात्मक तरीके से कार्य करने की परंपरा का विकास करना’ भी था.

क्षेत्रीय परिषदें मूल रूप से सलाहकारी संस्थाएं है. पंडित नेहरू के विचार को स्वीकार करते हुए 1956 में पारित राज्य पुनर्गठन अधिनियम में इसके गठन और कार्यों सम्बन्धी प्रावधान समाहित कर दिए गए.

गठन (Foundation)

वर्तमान में क्षेत्रीय परिषद विधिक निकाय (संवैधानिक नहीं) है. राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 की धारा 15 के अनुसार भारत को पांच क्षेत्रों में बांटा गया है. प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक परिषद की स्थापना की गई है. ये परिषदें हैं:

  1. उत्तरी क्षेत्रीय परिषद: इसमें हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान राज्य, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और संघ राज्य क्षेत्र चंडीगढ़, जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख शामिल हैं.
  2. मध्य क्षेत्रीय परिषद: इसमें छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्य शामिल हैं.
  3. पूर्वी क्षेत्रीय परिषद: इसमें बिहार, झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल राज्य शामिल हैं.
  4. पश्चिमी क्षेत्रीय परिषद: इसमें गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र राज्य और संघ राज्य क्षेत्र दमन-दीव तथा दादरा एवं नगर हवेली शामिल है.
  5. दक्षिणी क्षेत्रीय परिषद: इसमें आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, राज्य और संघ राज्य क्षेत्र पुद्दुचेरी शामिल हैं.

उल्लेखनीय है कि राज्य पुनर्गठन आयोग, 1956 में उत्तर-पूर्वी राज्यों को क्षेत्रीय परिषद में शामिल नहीं किया गया था. बाद में उत्तर-पूर्वी परिषद अधिनियम, 1971 द्वारा उत्तर-पूर्वी परिषद का गठन किया गया. फिर इन राज्यों को साल 1972 में इनमें शामिल किया गया. ये राज्य है- सम, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय और त्रिपुरा. साल 2002 में सिक्किम को भी इसमें शामिल किया गया.

संरचना और सदस्यता

राज्य पुनर्गठन आयोग के धारा 16 में इसके सदस्यों, उपाध्यक्ष और अध्यक्ष का वर्णन है. इसके अनुसार:

  1. अध्यक्ष: प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद का अध्यक्ष एक केंद्रीय मंत्री होता है, जो राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है. व्यवहार में राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय गृह मंत्री को ही सभी क्षेत्रीय परिषद का अध्यक्ष नामित किया जाता है.
  2. उपाध्यक्ष: प्रत्येक परिषद का एक उपाध्यक्ष होता है. परिषद में शामिल राज्यों के मुख्यमंत्री चक्रानुसार एक साल के लिए उपाध्यक्ष का पद सँभालते है.
  3. सदस्य: राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश के मुख़्यमंत्रीय अपने क्षेत्रीय परिषद के पदेन सदस्य होते है. इसके अतिरिक्त राजयपाल द्वारा दो मंत्रियों को सदस्य के रूप में नामित किया जाता है. जिस केंद्रशासित प्रदेश में मुख्यमंत्री नहीं होते है, वहाँ से राष्ट्रपति द्वारा तीन सदस्यों को नामित किया जाता है. मुख्यमंत्री वाले केंद्रशासित प्रदेशों से केवल दो सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है.
  4. सलाहकार: प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद में विशेषज्ञ तथा प्रशासनिक अधिकारी सलाहकार के रूप में नियुक्त किए जाते है. प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद में योजना आयोग द्वारा एक सलाहकार नियुक्त किया जाता है. प्रत्येक राज्य के मुख्य सचिव तथा विकास आयुक्त या न्य अधिकारी सम्बंधित राज्यों द्वारा सलाहकार के रूप में नामित किया जाता है.

क्षेत्रीय परिषद का कार्य (Functions of Regional Council in Hindi)

राज्य पुनर्गठन आयोग के धारा 21 के अनुसार क्षेत्रीय परिषद एक सलाहकार परिषद होंगी, जो सदस्य राज्यों के साझा हित के मुद्दों पर विचार-विमर्श करेंगी. सम्बंधित केंद्र या राज्य सरकारों को इस सम्बन्ध में सुझाव देना भी इस्का काम है. ये परिषद मुख्यतः निम्न मुद्दों पर अपना संस्तुतियां प्रस्तुत करती है:

  • आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में साझा हित का कोई मामला,
  • अंतर-राज्य यातायात, राज्यों के मध्य सीमा सम्बन्धी विवाद तथा भाषाई अल्पसंख्यक के मामले,
  • वे सभी मामले जो राज्यों के पनर्गठन से उत्पन्न हुए हो.

क्षेत्रीय परिषद का महत्व

ये केंद्र और राज्यों अथवा विभिन्न राज्यों के मध्य उठने वाले तनावों पर विचार-विमर्श हेतु एक महत्वपूर्ण मंच है. इनका स्वरुप सलाहकारी संस्था का है, इसलिए इनकी बैठकों में विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की जा सकती है. राज्य पुनर्गठन आयोग की धारा 17 (1) में इसके बैठकों का व्यवस्था है. यद्यपि केंद्र-राज्य सहयोग के लिए अन्य मंच (जैसे राष्ट्रिय विकास परिषद, अंतर-राज्य परिषद, राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन आदि भी है. लेकिन क्षेत्रीय परिषद अपने कार्य और प्रकृति में इन सबसे भिन्न है.

ये परिषद क्षेत्रीय मंच के रूप में उन राज्यों के मध्य सहयोगात्मक प्रवृत्ति का विकास करती है, जो एक-दूसरे के साथ आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक रूप से जुड़े है. क्षेत्रीय प्रकृति के होने के कारण ये परिषद राष्ट्रिय दृष्टिकोण अपनाते हुए किसी क्षेत्र विशेष के विशिष्ट मामलों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकती है.

2. अंतर-राज्य परिषद (Inter-State Council or ISC)

भारतीय संविधान के भाग 11 के अनुच्छेद 263 में अंतर-राज्य परिषद के गठन का प्रावधान है. अनुच्छेद 263 के इस प्रावधान का आधार भारत सरकार अधिनियम, 1935 का धारा 135 है. इसी अधिनियम में अंतर्राजीय परिषद के गठन का व्यवस्था किया गया था. इसे वे कार्य ही दिए गए थे जो वर्तमान में अंतर-राज्य परिषद को दी गई है. इसका उद्देश्य राज्यों के मध्य समन्वय स्थापित करना है.

अनुच्छेद 263 के अनुसार, जब भी राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि जनहित में ऐसे परिषद का स्थापना आवश्यक है, तो वह अपने आदेश से अन्तर्राज्य परिषद का गठन कर सकता है. इसके कार्य, प्रकृति, संगठन और प्रक्रिया का निर्धारण की शक्ति भी राष्ट्रपति को दी गई है.

अंतर्राज्यीय परिषद के कार्य

अनुच्छेद 263 के अनुसार अंतर्राज्यीय परिषद के निम्न कार्य है:

  • राज्यों के मध्य उठने वाले किसी विवाद की जांच करना तथा उस सम्बन्ध में अपनी सलाह देना.
  • राज्यों के अथवा केंद्र अथवा राज्य के सामान्य महत्व के मसलों पर चर्चा करना और उसका जांच-पड़ताल करना.
  • सामान्य हित के ऐसे विषयों में निति और किर्यान्वयन के सम्बन्ध में समन्वय स्थापित करने के लिए संस्तुति प्रदान करना.

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि अंतर्राजीय परिषद भी एक सलाहकारी संस्था है. अतः यह केंद्र-राज्य सम्बन्ध के लिए स्थायी संवैधानिक संस्था नहीं है.

अंतर्राज्यीय परिषद की वास्तविक स्थिति

अनुच्छेद 263 के प्रावधानों का पहला इस्तेमाल राष्ट्रपति द्वारा 9 अगस्त 1952 को किया गया था. इसके तहत एक अधिसूचना जारी की गई, जिसमें केंद्रीय स्वास्थ्य परिषद का गठन किया गया था. फिर, सितम्बर 1954 को स्थानीय सरकार और शहरी विकास के लिए केंद्रीय परिषद की स्थापना की गई.

कई बार इस प्रकार के परिषदों की स्थापना अनुच्छेद 263 के बाहर भी की गई है. उदाहरण के लिए, योजना आयोग की संस्तुति पर सरकार द्वारा कार्यकारी आदेश जारी कर 6 अगस्त, 1952 को राष्ट्रिय विकास परिषद का गठन किया गया.

इसी प्रकार, 1962 में राष्ट्रिय एकीकरण परिषद का स्थापना में भी अनुच्छेद 263 के प्रावधानों का इस्तेमाल नहीं हुआ. इसी प्रकार प्रतिवर्ष राज्यों के मुख्यमंत्रियों, वित्त मंत्रियों और खाद्यमंत्रियों के सम्मलेन भी केंद्र सरकार द्वारा बुलाए जाते है. इन्हें भी अनुच्छेद 263 के तहत आहूत नहीं किया जाता है. इनका उद्देश्य भी केंद्र-राज्य के मध्य नीतिगत क्रियान्वयन के क्षेत्र में समन्वय स्थापित करना है.

औपचारिक गठन और पृष्ठभूमि

प्रशासनिक सुधार आयोग, 1969 ने केंद्र और राज्य के मध्य समन्वय के लिए एक ही स्थायी संस्था का प्रस्ताव दिया था. इसमें अनु. 263 के तहत अंतर-राज्य परिषद का स्थापना मुख्य बिंदु था. केंद्र-राज्य सम्बन्ध पर ही स्थापित सरकारिया आयोग ने अनुच्छेद 263 के तहत परिषद का सिफारिश किया.

अंततः इसे स्वीकार करते हुए 28 मई, 1990 को पहली बार अंतर-राज्य परिषद का स्थापना हेतु अधिसूचना जारी किया गया. इस अधिसूचना के अनुसार इनके निम्न सदस्य होंगे:

  • भारत का प्रधानमंत्री-अध्यक्ष
  • सभी राज्यों के मुख्यमंत्री-सदस्य
  • केंद्रशासित राज्यों के मुख्यमंत्री (जहां विधानसभा है)- सदस्य
  • पीएम द्वारा मनोनीत केंद्र के 6 कैबिनेट मंत्री- सदस्य
  • जहाँ राष्ट्रपति शासन हो, वहाँ के राज्यपाल- सदस्य
  • पीएम 6 अन्य केंद्रीय मंत्रियों को भी इसका सदस्य मनोनीत कर सकते है, जो इसके बैठक में भाग ले सकते है.

बैठकें और इसकी प्रक्रिया

इसके बैठकों का स्थान व समय अध्यक्ष द्वारा तय किया जाता है. इसका एक स्थायी सचिवालय भी है, जिसे 1991 में स्थापित किया गया था. इसका नेतृत्व भारत सरकार द्वारा नियुक्त एक सचिव द्वारा किया जाता है. वर्ष 2011 से यह क्षेत्रीय परिषदों के सचिवालय के रूप में भी कार्य कर रहा है.

सचिव प्रशासनिक अधिकारी के रूप में इसका मुखिया होता है. अध्यक्ष के अनुमति से सचिव ही इसके बैठकों का एजेंडा तैयार करता है और परिषद के निर्णय के किर्यान्वयन की निगरानी भी करता है. इसकी साल में अधिकतम तीन बैठकें आयोजित की जा सकती है. कोरम के लिए 10 सदस्यों की उपस्तिथि अनिवार्य है. इसकी बैठकें गोपनीय होती है और इसकी कार्रवाही को प्रकाशित नहीं किया जा सकता.

इसकी पहली बैठक 10 अक्टूबर 1990 को ग्यारवीं बैठक 16 जुलाई 2016 को संपन्न हुई थी. 2016 तक सम्पन्न इसके बैठकों की सूचि इस प्रकार है:

  • 10 अक्टूबर, 1990
  • 15 अक्टूबर, 1996
  • 17 जुलाई, 1997
  • 28 नवंबर, 1997
  • 22 जनवरी, 1999
  • 20 मई, 2000
  • 16 नवंबर, 2001
  • 27–28 अगस्त, 2003
  • 28 जून, 2005
  • 9 दिसंबर, 2006
  • 16 जुलाई, 2016

3. नीति आयोग (NITI Aayog)

इसका गठन 01 जनवरी 2015 को केंद्रीय कैबिनेट के एक प्रस्ताव द्वारा किया गया. इसने योजना आयोग और राष्ट्रिय विकास परिषद का स्थान लिया. योजना आयोग का स्थापना 15 मार्च 1950 को केंद्रीय कैबिनेट के एक प्रस्ताव द्वारा किया गया था. इन दोनों संस्थाओं ने साल 2014 तक योजना निर्माण और केंद्र तथा राज्यों के बीच योजनागत समन्वय में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किए और देश को नए मुकाम तक लाया.

नीति आयोग विकास योजनाए तैयार नहीं करती है. इसे विकास पर राष्ट्रिय रणनीति पर सुझाव देना इसका काम है. नए नीति के अनुसार विकास योजनाएं केंद्र-राज्य के निरंतर आपसी विचार-विमर्श और सहयोग से तैयार किए जाएंगे.

भारत के प्रधानमंत्री नीति आयोग के पदेन अध्यक्ष हैं. कपटाय विशेषज्ञ सदस्य, केंद्रीय मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री इसके सदस्य होंगे. अब नीति आयोग का मुख्य लक्ष्य निरंतर प्रयासों से सहकारी संघवाद को मजबूत बनाना है.

Video Source: Prasar Bharati Yuva

4. वित्त आयोग (Finance Commission)

वित्त आयोग एक अर्ध-न्यायिक और संवैधानिक निकाय है. यह केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय संसाधनों के वितरण के लिए जिम्मेदार है. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 280 में एक वित्त आयोग के गठन का प्रावधान है. इसका गठन भारत के राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है.

राष्ट्रपति एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्यों का नियुक्ति करते हैं. अध्यक्ष को सार्वजनिक मामलों में अनुभव होना चाहिए. सदस्य विभिन्न क्षेत्रों में विशेष ज्ञान और अनुभव रखते हैं. सदस्य पुनर्नियुक्ति के लिए पात्र होते हैं. इसका गठन पांच वर्षों के में एकबार किया जाता है. इस समय में राष्ट्रपति के अनुमति से बदलाव भी हो सकता है. यह पांच वर्ष या राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित अवधि के लिए अपना रिपोर्ट पेश करता है.

वित्त आयोग के कार्य

  • संघ और राज्यों के बीच करों के शुद्ध आय के वितरण के लिए सिफारिशें करना. यह राजस्व बंटवारे, अनुदान और अन्य वित्तीय मामलों पर अपनी सिफारिशें केंद्र सरकार को प्रस्तुत करता है.
  • केंद्रीय करों और केंद्रीय सहायता के वितरण के सिद्धांतों को निर्धारित करना भी इसी का काम है.
  • राज्यों के राजस्व में सहायता अनुदान के सिद्धांत निर्धारित करना.
  • पंचायतों और नगरपालिकाओं के संसाधनों की अनुपूर्ति के उपाय सुझाना.
  • राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट अन्य वित्तीय विषयों पर सिफारिशें करना.

वित्त आयोग का महत्व:

इसका कार्य महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राज्यों को वित्तीय संसाधनों की उचित आवंटन में मदद करता है, जिससे राष्ट्रीय विकास की गति को संतुलित और तेज किया जा सके. इससे न केवल राज्यों के आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलता है बल्कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता भी मजबूत होती है.

वित्त आयोग केंद्र और राज्यों के मध्य संसाधनों को लेकर किसी भी प्रकार के झड़प को समाप्त करता है. इस प्रकार यह सहकारी संघवाद में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है.

सभी वित्त आयोग, उनके अध्यक्ष और अवधि की सूचि

वित्त आयोगअध्यक्षसंचालन अवधि
प्रथमके.सी. नियोगी1952–57
द्वितीयके. संथानम1957–62
तीसराअशोक कुमार चंदा1962–66
चौथापी.बी. राजकुमार1966–69
पांचवामहावीर त्यागी1969–74
छठाके. ब्रह्मानंद रेड्डी1974–79
सातवाजे.एम. सालेट1979–84
आठवाँवाई.वी. चाहवाण1984–89
नौवांएन.के.पी. साल्वे1989–95
दसवाँके.सी. पन्त1995–2000
ग्यारहवाँए.एम. ख़ुसरो2000–2005
बारहवाँसी. रंगराजन2005–2010
तेरहवाँडॉ. विजय एल. केलकर2010–2015
चौदहवाँवाई.वी. रेड्डी2015–2020
पन्द्रहवांएन. के. सिंह2020-25
सोलहवांप्रो. डॉ. अरविंद पनगढ़िया 1 अप्रैल, 2026 से आगामी 5 वर्ष की अवधि के लिए

सोलहवां वित्त आयोग के कार्य (Functions of 16th Finance Commission)

16वें वित्त आयोग को निम्नलिखित कार्य सौंपे गए है, जो वित्त आयोग के कार्यप्रणाली को समझने के दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं:

(i) संघ और राज्यों के बीच करों की निवल आय का वितरण, जो संविधान के अध्याय I, भाग XII के अधीन उनके बीच विभाजित किया जाना है या किया जा सकता है और ऐसी आय के संबंधित शेयरों के राज्यों के बीच आबंटन;

(ii) वे सिद्धांत जो भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्व के सहायता अनुदान को नियंत्रित करें और संविधान के अनुच्छेद 275 के अधीन राज्यों को उनके राजस्व के सहायता अनुदान के रूप में उस अनुच्छेद के खंड (1) के प्रावधानों में विनिर्दिष्ट प्रयोजनों के अलावा अन्य प्रयोजनों के लिए भुगतान की जाने वाली राशि; और

(iii) राज्य के वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर राज्य में पंचायतों और नगरपालिकाओं के संसाधनों को संपूरित करने के लिए राज्य की संचित निधि में वृद्धि करने के लिए आवश्यक उपाय.

सोलहवां वित्त आयोग आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 (2005 का 53) के तहत गठित निधियों के संदर्भ में आपदा प्रबंधन पहलों के वित्तपोषण पर वर्तमान व्यवस्था की समीक्षा कर सकता है और उन पर उचित सिफारिशें कर सकता है.

सोलहवें वित्त आयोग से अनुरोध किया गया है कि वह 1 अप्रैल, 2026 से शुरू होने वाले पांच वर्षों की अवधि को कवर करते हुए 31 अक्टूबर, 2025 तक अपनी रिपोर्ट उपलब्ध कराए.

(Source : PIB Hindi)

5. केंद्र-राज्य सहयोग व समन्वय हेतु अन्य मंच

उपरोक्त एजेंसियों के अतिरिक्त केंद्र-राज्य में संवाद, समन्वय और सहयोग हेतु कुछ अन्य मंच भी है. इनके माध्यम से दोनों के मध्य नियमित वार्ता होती है. ये मंच इस प्रकार है:

(1) राज्यपालों का सम्मलेन (Conference of Governors)

इस राष्ट्रपति द्वारा नियमित आधार पर बुलाया जाता है. इसमें राष्ट्रपति के अतिरिक्त राज्यों के राज्यपाल, प्रधानमंत्री, केंद्रीय गृहमंत्री तथा अन्य आमंत्रित मंत्री भाग लेते है. भारतीय संविधान में राज्यों के शासन में राजपाल की भूमिका महत्वपूर्ण है. इसलिए इस प्रकार का संवाद केंद्र-राज्य के बीच महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में काम करता है.

(2) मुख्यमंत्रियों का वार्षिक सम्मलेन (Annual Conference of Chief Ministers)

आजादी के बाद से ही प्रधानमंत्री द्वारा विभिन्न मुद्दों पर मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन बुलाए जाते रहे है. लेकिन इसकी कोई नियमित व्यवस्था नहीं है. साल 2009 में इसे प्रतिवर्ष नियमित तौर पर बुलाने का निर्णय लिया गया. इस नियमित सम्मलेन का नोडल एजेंसी केंद्रीय गृह मंत्रालय को नियुक्त किया गया है. ऐसा पहला सम्मलेन 2009 में संपन्न हुआ था. मुख्यमंत्री किसी राज्य का वास्तविक प्रधान होता है. ऐसे में इस सम्मलेन की अहमियत भी काफी महत्वपूर्ण हो जाती है.

(3) राज्य के मुख्य सचिवों का वार्षिक सम्मलेन

राज्यों के मुख्य सचिवों के वार्षिक सम्मलेन की शुरुआत साल 2010 में हुई थी. यद्यपि इसके पूर्व भी कई बार इस प्रकार के सम्मेलन केंद्र सरकार द्वारा बुलाए जाते रहे है. 2010 इसे वार्षिक आधार पर नियमित कर दिया गया. मुख्य सचिव किसी राज्य के प्रशासन का मुखिया होता है. इसलिए इस प्रकार के सम्मेलन से केंद्र और राज्यों के बीच विभिन्न मामलों में प्रशासनिक समन्वय मजबूत होता है. यह मंच राज्यों के विभिन्न मामलों में राष्ट्रिय दृष्टिकोण और महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्तियों को समझने में सहायक है.

इसके अलावा भी केंद्र सरकार विशेष नीतियों के तहत केंद्र और राज्य में समन्वय हेतु विभिन्न स्तर के अधिकारीयों का सम्मेलन करवाती है. इसमें वरिष्ठ पुलिस अधिकारीयों, स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों और राज्यों के विभागीय मंत्रियों की सम्मलेन उल्लेखनीय है. इस प्रकार परस्पर संवाद और सहयोग से केंद्र-राज्य के मध्य सहकारी संघवाद का विकास होता है.

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