मानव प्रजाति का वर्गीकरण एक सामाजिक प्राणी के रूप में किया जाता है. इसलिए एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति कुछ नैतिक मर्यादाओं की अपेक्षा की जाती है. इसी मर्यादा को मानव अधिकार कहा जा सकता है. ये अधिकार किसी इंसान के उम्र, जाति, पंथ, लिंग, धर्म, नस्ल, निवास स्थान के आधार पर इंकार नहीं किया जा सकता है. इसे मानवता का स्वतः लागु नैतिक कानून भी कहा जा सकता है.
क्या है मानव अधिकार (What is Human Rights in Hindi)?
प्रत्येक व्यक्ति का गरिमा और महत्व होता है. किसी व्यक्ति के मानव अधिकारों को स्वीकारना और इसका सम्मान करने का तरीका ही उसके गरिमा और महत्व को मान्यता देना है. वास्तव में, मानव अधिकार समस्त मानव प्रजाति को उपलब्ध समानता और निष्पक्षता के सिद्धांतों का समूह है. यह भय, उत्पीड़न और भेदभाव से मुक्ति प्रदान करता है.
साथ ही, सरकार से भी मानव अधिकार के अनुरूप नागरिकों को सुविधाएं उपलब्ध करवाने की अपेक्षा की जाती है. लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा मानव अधिकारों को सुनिश्चित करने में मददगार है.
ये मानवाधिकार हर जगह के सभी लोगों के लिए समान रूप से प्राप्त होते है. पुरुषों और महिलाओं, युवा और बूढ़े, अमीर और गरीब, सवर्ण और शूद्र, गोरा या काला इत्यादि सभी को समान रूप से उपलब्ध होते है.
इसका उलंघन होने पर कोई भी व्यक्ति इसे लागू करने को तत्पर हो जाता है. कई बार इनका वर्णन संविधान में नहीं होता है, फिर भी सभ्य समाज के लोग इसे मानते है. आधुनिक युग में अत्याचार के खिलाफ अधिकार, धन कमाने और संपत्ति रखने का अधिकार, स्वच्छ वातावरण, बुनियादी सुविधा, स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वतंत्र भाषण और आंदोलन का अधिकार इत्यादि इसके कुछ उदाहरण है.
वास्तव में, मानव अधिकार किसी भी इंसान के जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण होते है. साथ ही, लगभग पुरे दुनिया के लोगों में इन अधिकारों के प्रति समझ होती है और इसके उलंघन के खिलाफ एकजुट होते है. वस्तुतः, राजतंत्र के तानाशाही से लेकर लोकतंत्र के परोपकारी शासन तक संघर्ष का इतिहास को, मानव अधिकार को स्वीकार्यता दिलाने का इतिहास है.
इसके सार्वभौमिक स्वीकार्यता के कारण ही संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भी इसे स्वीकार किया गया है. इसे मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूडीएचआर) में निहित किया गया है, जो 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाया गया था.
मानव अधिकार की परिभाषा (Definition of Human Rights in Hindi)?
विभिन्न विद्वानों ने मानव अधिकारों को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है. लेकिन अधिकाँश विद्वान् एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान पर किसी भी प्रकार का अत्याचार, उत्पीड़न और भेदभाव रोकने को मानव अधिकार के रूप में परिभाषित करने को एकमत है. इसे बुनियादी अधिकारों का समूह भी कहा जा सकता है, जो लोगों को मानव होने के कारण सार्वभौमिक रूप में प्राप्त होते है. एक सभ्य नागरिक समाज में इन अधिकारों का अनुपालन किया जाता है.
मानव अधिकार का अर्थ उस अधिकार से है जो इंसानों के जीवन जीने के लिए नैसर्गिक रूप से आवश्यक है. इसका उद्देश्य भेदभाव समाप्त कर समानता स्थापित करना होता है. जाति, धर्म, नस्ल या त्वचा के रंग के आधार पर भेदभाव भी मानव अधिकारों का उलंघन है. सरकारों से मानव अधिकार के रक्षा का उम्मीद किया जाता है. सभ्यता के विकास और कल्याणकारी राज्य के अवधारणा के साथ ही इसका विस्तार होता गया और कई नए पहलु इसमें शामिल किए गए है.
वास्तव में, “मानव अधिकार उन अधिकारों का समूह हैं जो हरेक इंसान को प्राप्त होते है और यह कानून द्वारा लागू न होकर लोगों के पारस्परिक सहमति से लागू होता है. एक इंसान दूसरे के मानव अधिकार का सम्मान करते है और स्वीकार करते है, इस तरह यह स्वतःस्फूर्त लागू हो जाता है. लेकिन एक असभ्य, तानाशाही या क्रूर, शासन या समाज में मानव अधिकार की कोई गारंटी नहीं होती है और इसके उलंघन का खतरा बना रहता है. कई बार इसके विपरीत समाज या शासन में कुछ लोग मानव अधिकारों का उलंघन कर देते है, लेकिन इस स्थिति में पीड़ित को अदालत से उचित प्रक्रिया के अधीन न्याय प्राप्त करने का अधिकार होता है.”
संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार,”मानवाधिकार सभी मनुष्यों में निहित अधिकार हैं, चाहे उनकी जाति, लिंग, राष्ट्रीयता, जातीयता, भाषा, धर्म या कोई अन्य स्थिति कुछ भी हो. मानवाधिकारों में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार, गुलामी और यातना से मुक्ति, राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, काम और शिक्षा का अधिकार और बहुत कुछ शामिल हैं. बिना किसी भेदभाव के हर कोई इन अधिकारों का हकदार है.”
मानवाधिकारों का उद्भव और इतिहास सारांश (Origin and History of Human Rights Summary)
मानव अधिकार कोई नया राजनैतिक संकल्पना नहीं है. इसका उद्भव आदिमानवों में मौजूद नैतिकता से हुआ माना जा सकता है. लेकिन इसे संहिताबद्ध करने का प्रयास उतना पुराना प्रतीत नहीं होता है, जितना आदिमानवों का इतिहास.
करीब 1760 ईसा पूर्व में बेबीलोन में राजा हम्मुराबी ने एक संहिता तैयार की. इतिहास में यह “हम्मूराबी की संहिता” कहा जाता है.यह एक प्रारंभिक कानूनी दस्तावेज है जो ‘राज्य में न्याय का शासन स्थापित करने और लोगों की भलाई को बढ़ावा देने’ का वादा करता है. इस संहिता को किसी शासक द्वारा मानव अधिकार को मान्यता देने का प्रथम उदाहरण कहा जा सकता है.
रोम, ग्रीक, चीन और भारत के प्राचीन सभ्यताओं में भी इसके उदाहरण मिलते है. बौद्ध, ईसाई, कन्फ्यूशियस, इस्लाम और यहूदी शिक्षाओं के केंद्र में भी मानव अधिकार है. नैतिकता, न्याय और गरिमा की अवधारणाएं इन समाजों में भी महत्वपूर्ण थे. कई समाजों के लिखित इतिहास मौजूद नहीं है. लेकिन मौखिक रूप से उनमें ये शिक्षाएं इन समाजों में आज भी प्रचलित है.
1215 में, अंग्रेजी सामंतों ने इंग्लैंड के राजा को मैग्ना कार्टा (महान चार्टर) पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया. इससे सामान्य नागरिकों को काफी कम लाभ प्राप्त हुए. लेकिन यह राजा की पूर्ण शक्ति पर बंदिशें लगाने वाला और प्रजा के प्रति जवाबदेह बनाने वाला पहला दस्तावेज़ था. इसमें नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के कुछ उपाय भी किए गए थे, जैसे की मुक़दमे का अधिकार.
मध्य काल के पुनर्जागरण और ज्ञानोदय ने मानव अधिकार के सोच को आकार देने में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वहन किया. इस सोच में इसे ‘प्राकृतिक कानून’ माना गया, जो शासकों के कानून से ऊपर था. इसका मतलब यह था कि व्यक्तियों के पास कुछ अधिकार सिर्फ इसलिए थे क्योंकि वे इंसान थे.
आधुनिक मानव अधिकारों के सोच का सबसे महत्वपूर्ण विकास सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में हुए क्रांति ने निभाया. इसकी शुरुआत अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा (1776) से होती है. इसमें कुछ अधिकार, जैसे ‘जीवन, स्वतंत्रता और खुशी की खोज’, सभी लोगों के लिए मौलिक थे. इसी प्रकार, मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की फ्रांसीसी घोषणा (1789) ने अभिजात वर्ग के अधिकार को चुनौती दी और व्यक्तियों की ‘स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे’ को मान्यता दी.
इन आचरणों को संयुक्त राज्य अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स (1791) में भी प्रतिध्वनित किया गया, जिसने भाषण, धर्म और प्रेस की स्वतंत्रता के साथ-साथ ‘शांतिपूर्ण’ सभा, निजी संपत्ति और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को मान्यता दी गई.
भारतीय परिपेक्ष्य में बौद्ध धर्म के शिक्षाएं मानव अधिकार का वकालत करती है. अपने इसी खासियत के वजह से बौद्ध धर्म भारतीय उपमहाद्वीप में प्रसिद्ध हो गया. यहाँ से यह चीन, श्रीलंका, म्यांमार समेत लगभग पुरे एशिया में फ़ैल गया. यह बौद्ध धर्म के व्यावहारिक नैतिक शिक्षाएं ही थे, जिन्हें आम से आम जनता भी समझ सकते थे और वे इसे सहर्ष स्वीकार करते गए. प्राचीन भारत में नैतिकता पर आधारित बौद्ध शिक्षाओं का संग्रह अतुलनीय है. इसी कारण गौतम बुद्ध को ‘एशिया का प्रकाश’ भी कहा जाता है.
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की शुरुआत में सामाजिक प्रगति में निरंतर प्रगति देखी गई. उदाहरण के लिए, गुलामी का उन्मूलन, शिक्षा का व्यापक प्रावधान और राजनीतिक अधिकारों का विस्तार इत्यादि प्रयास मानव अधिकार के शुरूआती प्रयास थे. इन प्रगतियों के बावजूद, मानव अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय गतिविधि कमजोर रही. सामान्यतः राज्यों को अपने सीमाओं के भीतर कुछ भी करना का खुला छूट था. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय मानव अधिकारों का उलंघन होने पर न तो हस्तक्षेप कर सकता था और न ही आलोचना या चिंता व्यक्त कर सकता था.
वस्तुतः सभी राज्य एक-दूसरे के सम्प्रभुता का सम्मान करते थे. सम्प्रभुता का आशय एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य के आंतरिक या बाहरी मामलों में हस्तक्षेप के निषेध से था. लगभग सभी देश परस्पर सम्प्रभुता को मान्यता देने को राजी थे. यूएन जैसे संस्थानों और तीव्र संचार सुविधाओं के अभाव में अत्याचार पर बंदिशों का अभाव था.
लेकिन, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बड़े पैमाने पर हुए अत्याचारों और मानवाधिकारों के उल्लंघन ने दुनिया भर में जनमत को प्रभावित किया. इसी वीभत्व कार्रवाई ने मानव अधिकारों को एक सार्वभौमिक चिंता (Universal Concern) का विषय बना दिया.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद (After World War II)
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लाखों सैनिक और नागरिक मारे गए या अपंग हो गए. जर्मनी में नाजी शासन ने कुछ समूहों के लिए यातना गृह बनाए. इन यातना गृहों में यहूदी, कम्युनिस्ट, समलैंगिक और राजनीतिक प्रतिद्वंदियों पर तरह-तरह के जुल्म किए गए. इनमें से कुछ लोगों को दास श्रमिक के रूप में इस्तेमाल किया गया था. कई अत्याचार सहन नहीं कर पाए और मृत्यु को प्राप्त हो गए. वहीं लाखों अन्य लोगों का सामूहिक हत्या कर दिया गया.
चीन और अन्य एशियाई देशों पर जापान ने कब्ज़ा किया था. जापानी सेना ने भी स्थानीय लोगों पर अमानवीय जुल्म किए थे. अपर्याप्त उपचार और भोजन के हजारों युद्धबंदियों को गुलाम श्रमिक के रूप में इस्तेमाल किया गया. इसलिए मानव अधिकारों का प्रचार और संरक्षण मित्र शक्तियों का मूल उद्देश्य बन गया. 1941 में, अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने दुनिया के लिए ‘चार स्वतंत्रताओं’ की घोषणा की.
युद्ध 1945 में समाप्त हुआ. इस युद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु हथियारों के हमले ने लाखों लोगों को मार दिया था. कई अपंग भी हुए और कई जेनेटिक बिमारी का शिकार बन गए, जो पीढ़ी दर पीढ़ी अब भी कायम है. युद्ध से कई देश तबाह हो गए. लाखों लोग मारे गए या बेघर शरणार्थी बन गए.
इसलिए युद्ध समाप्त होने के तुरंत बाद विजिट राष्ट्रों ने एक नया संगठन बनाने का निर्णय लिया, जो आगे संघर्ष को रोकेगा और दुनिया में शांति कायम कर रहने के बेहतर स्थान बनाने में मदद करेगा. इसलिए 1945 में अंतरार्ष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए एक नया संगठन, संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) का स्थापना किया गया.
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना चार प्रमुख उद्देश्यों को पूरा करने के लिए की गई थी:
- शांति और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए
- आर्थिक विकास को बढ़ावा देना
- अंतर्राष्ट्रीय कानून के विकास को बढ़ावा देना
- मानवाधिकारों का पालन सुनिश्चित करना
संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक दस्तावेज़ चार्टर में सदस्य देशों ने कहा कि वे कृतसंकल्पित है:
‘…मौलिक मानवाधिकारों में, मानव व्यक्ति की गरिमा और मूल्य में, पुरुषों और महिलाओं और बड़े और छोटे देशों के समान अधिकारों में विश्वास की पुष्टि करने के लिए… और बड़ी स्वतंत्रता में सामाजिक प्रगति और जीवन के बेहतर मानकों को बढ़ावा देने के लिए…’
मानव अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के इस मजबूती ने इसे पिछले अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से बिलकुल अलग रूप दिया. संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का मानना था कि मानवाधिकारों की सुरक्षा से भविष्य में सभी के लिए स्वतंत्रता, न्याय और शांति सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी.
मानव अधिकार के विकास का कालक्रम (Timeline of Human Rights’ Development)
मानव अधिकार की पीढ़ियां (Generations of Human Rights)
1979 में स्ट्रासबर्ग में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थान में चेक न्यायविद कारेल वासाक ( Czech jurist Karel Vasak) ने मानव अधिकारों को तीन पीढ़ियों में विभाजित करने का प्रस्ताव दिया था. मानव अधिकार के पीढ़ी शब्द का इस्तेमाल उनहोंने नवंबर 1977 की शुरुआत में किया था. संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रथम दो पीढ़ियों को ही मानवधिकार के रूप में मान्यता दिया था. नए विभाजन के अवधारणा में उन्होंने तीसरे आयाम को जोड़ा. तकनीकी विकास के कारण आजकल चौथी पीढ़ी का भी वकालत किया जा रहा है. ये पीढ़ियां इस प्रकार है-
A. पहली पीढ़ी के अधिकार (First Generation Rights)
मानवाधिकारों की पहली पीढ़ी को नागरिक और राजनीतिक अधिकार के नाम से भी जाना जाता है. इसका विकास पश्चिमी समाज में 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान हुआ. यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राजनैतिक भागीदारी पर केंद्रित है. इन्हें नीला अधिकार (Blue Rights) भी कहा जाता है. पहली पीढ़ी के अधिकारों में शामिल प्रमुख तत्व इस प्रकार है:
- जीवन का अधिकार: जीवन का अधिकार सभी मानवाधिकारों में सबसे मौलिक है. इसका तात्पर्य यह है कि किसी को भी मनमाने ढंग से उसके जीवन से वंचित नहीं किया जाएगा.
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: यह अधिकार व्यक्तियों को सेंसरशिप या सरकारी प्रतिशोध के डर के बिना अपने सोच, विचारों और राय को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने की अनुमति देता है.
- धर्म की स्वतंत्रता: इसका अर्थ लोगों को बिना किसी भेदभाव या उत्पीड़न के अपनी पसंद के किसी भी धर्म या पंथ का पालन करने का अधिकार से है.
- निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार: यदि किसी अपराध का आरोप लगाया जाता है तो वह निष्पक्ष सुनवाई का हकदार होता है. इसमें कानूनी प्रतिनिधित्व का अधिकार और दोषी साबित होने तक निर्दोष होने का अधिकार शामिल है.
- सभा और संघ बनाने की स्वतंत्रता: लोगों को सरकारी हस्तक्षेप के बिना शांतिपूर्वक इकट्ठा होने और दूसरों के साथ मिलकर संगठन और समूह बनाने का अधिकार है.
इसके अलावा सम्पत्ति रखने का अधिकार और कानून के समक्ष समानता का अधिकार भी प्रथम पीढ़ी के अधिकार माने जाते है. इन मानवाधिकारों का उद्भव मैग्ना कार्टा के लागू होने के साथ हुआ. यह पुनर्जागरण काल के दौरान और भी विकसित हुआ. अमेरिकी-फ्रांसीसी क्रांतियों के बाद इसे लागू किया लगा और विश्व समुदाय में इसका प्रसार हो गया. इसके कारण राजाओं और सरकारों की शक्तियां सिमित हो गई और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया गया था.
B. दूसरी पीढ़ी के अधिकार (Second Generation Rights)
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सरकारों द्वारा मानवाधिकारों का पहचान किया गया और उन्हें लागू किया जाने लगा. दूसरी पीढ़ी के अधिकारों को आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के रूप में भी जाना जाता है, ये व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार और कल्याण पर ध्यान केंद्रित करते हैं. इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी को आवश्यक संसाधनों और सेवाओं तक पहुंच प्राप्त हो. दूसरी पीढ़ी के अधिकारों के प्रमुख तत्वों में शामिल हैं.
- शिक्षा का अधिकार: इसका आशय हर किसी को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देकर बौद्धिक और व्यक्तिगत विकास को बढ़ावा देने से है.
- स्वास्थ्य का अधिकार: स्वास्थ्य के अधिकार में जनता तक स्वास्थ्य सेवाओं, स्वच्छ पानी और स्वच्छता तक पहुंच सुनिश्चित कर समग्र कल्याण को वास्तविक बनाना शामिल है.
- काम का अधिकार: आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने हेतु व्यक्तियों को रोजगार और आजीविका कमाने का अधिकार इसमें शामिल है. रोजगार न्याय और मानवीय श्रम कानूनों पर आधारित होना चाहिए. जैसे काम के 8 घंटे और साप्ताहिक अवकाश, नियमित व सुचारु वेतन, सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन इत्यादि इसमें शामिल है.
- आवास का अधिकार: हर किसी के पास आधुनिक सुविधाओं से लेस निजी आवास हो, जिससे वह सभ्य जीवन जी सकें.
- सामाजिक सुरक्षा का अधिकार: व्यक्तियों के पास सामाजिक सुरक्षा जाल का जाल हो, जो उन्हें शोषण, भेदभाव और उत्पीड़न से बचा सके. यह उन्हें गरीबी और अभाव से बचाता है.
दूसरी पीढ़ी के अधिकार अक्सर 20वीं सदी के दौरान कई देशों में विकसित सामाजिक कल्याण के अवधारणा से जुड़े है. ये आर्थिक और सामाजिक असमानताओं को दूर करने की दिशा में बदलाव को दर्शाते हैं. कई बार इन्हें लाल अधिकार भी कहा जाता है, जो इस अवधारणा पर टिका है कि संसाधनों पर सरकार का कब्जा होता है और सरकार को लोक-कल्याण से जुड़े कार्य करना चाहिए.
C. तीसरी पीढ़ी के अधिकार (Third Generation Rights)
तीसरी पीढ़ी के अधिकारों की अवधारणा 20वीं सदी के उत्तरार्ध में उभरी है. इन अधिकारों को सामूहिक या एकजुटता अधिकारों के रूप में भी जाना जाता है और सामूहिक व सामुदायिक कल्याण पर जोर इसकी विशेषता है. तीसरी पीढ़ी के अधिकारों के प्रमुख तत्वों में शामिल हैं:
- आत्मनिर्णय का अधिकार: यह अधिकार समुदायों और लोगों को अपने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को निर्धारित करने की अनुमति देता है.
- स्वस्थ वातावरण का अधिकार: व्यक्तियों और समुदायों को ऐसे वातावरण में रहने का अधिकार है जो उनके स्वास्थ्य के अनुकूल हो. स्वच्छ पर्यावरण और समुदायिक स्वास्थ्य इसका उदाहरण है.
- शांति का अधिकार: यह अधिकार शांतिपूर्ण तरीकों से विवादों को सुलझाने पर जोर देने के साथ शांति के महत्व और संघर्षों की रोकथाम पर जोर देता है.
- सांस्कृतिक पहचान का अधिकार: समुदायों को अपनी सांस्कृतिक, भाषाई और जातीय पहचान को संरक्षित करने और बढ़ावा देने का अधिकार है. इसी के तहत लोग अपने विरासत को संरक्षित करते है और उनका विरासत तक पहुँच सुनिश्चित किया जाता है.
- संचार का अधिकार: इसके तहत बिना किसी रोक के निर्बाध संचार और संपर्क का वकालत किया जाता है. इसी अधिकार के तहत मीडिया जगत पुरे विश्व में पत्रकारिता कर पाते है. इंटरनेट और अंतर्राष्ट्रीय फ़ोन कॉल की सुविधा भी इसी के तहत आता है.
तीसरी पीढ़ी के अधिकार अक्सर व्यापक वैश्विक संदर्भ से जुड़े हैं. यह उन मुद्दों को संबोधित करते हैं जो राष्ट्रीय सीमाओं को पार करते हैं. इसलिए इसे लागु करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता होती है.
संक्षेप में, मानवाधिकारों की तीन पीढ़ियों की अवधारणा समय के साथ मानवाधिकार सिद्धांतों के विकास का प्रतिनिधित्व करती है. जबकि पहली पीढ़ी के अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर ध्यान केंद्रित करते हैं. दूसरी पीढ़ी के अधिकार सामाजिक और आर्थिक कल्याण को संबोधित करते हैं. वहीं तीसरी पीढ़ी के अधिकार सामूहिक और वैश्विक मुद्दों पर जोर देते हैं.
ये अधिकार सामूहिक रूप से दुनिया भर में सभी व्यक्तियों और समुदायों के अधिकारों और सम्मान को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने के लिए एक रूपरेखा बनाते हैं. पहली पीढ़ी के अधिकार पूर्ण होने पर लोग दूसरे पीढ़ी के अधिकार का मांग करते है. वहीं दूसरे पीढ़ी के अधिकार प्राप्त हो जाने पर लोगों का प्रयत्न तीसरी पीढ़ी के अधिकार पर होता है.
बदलते परिवेश में कुछ लोग चौथे पीढ़ी के अधिकार का मांग भी कर रहे है. लेकिन इस पीढ़ी के अधिकारों में स्पष्टता का अभाव है. वस्तुतः ये अधिकार इंटरनेट क्रांति से जुड़े अधिकार प्रतीत होते है. इनमें डिजिटल पहुँच, निजी डिजिटल डाटा तक पहुँच और उसकी सुरक्षा जैसे मुद्दे शामिल है.
मानव अधिकारों का वर्गीकरण (Classification of Human Rights in Hindi)
अध्ययन की दृष्टि से नीचे मानव अधिकारों का वर्गीकरण चार प्रकार में किया गया है-
1. ‘शास्त्रीय’ और ‘सामाजिक’ अधिकार (Classical and Social Rights)
यह वर्गीकरण ‘शास्त्रीय’ और ‘सामाजिक’ अधिकारों के बीच अंतर का प्रयास है. ‘शास्त्रीय’ अधिकारों को अक्सर राज्य के गैर-हस्तक्षेप (नकारात्मक दायित्व) की आवश्यकता के रूप में देखा जाता है, जबकि ‘सामाजिक अधिकारों’ को राज्य के सक्रिय हस्तक्षेप (सकारात्मक दायित्वों) की आवश्यकता के रूप में देखा जाता है. दूसरे शब्दों में, शास्त्रीय अधिकार राज्य को कुछ कार्यों को करने से रोकती हैं, जबकि सामाजिक अधिकार सरकार को कुछ गारंटी प्रदान करने के लिए बाध्य करते हैं.
शास्त्रीय अधिकार को नकारात्मक अधिकारों के रूप में भी जाना जाता है. इसके उदाहरणों में बोलने की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता और निजी संपत्ति का अधिकार शामिल हैं. सरकार द्वारा इसमें हस्तक्षेप नहीं करने की उम्मीद की जाती है. दूसरी ओर, सामाजिक अधिकार ऐसे अधिकार हैं जो व्यक्तियों के लिए कुछ लाभ या सुरक्षा की गारंटी देते हैं. ये अधिकार अक्सर सरकार द्वारा प्रदान किए जाते है. मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल का अधिकार और न्यूनतम जीवन स्तर का अधिकार सामाजिक अधिकारों के उदाहरण है.
इस तरह, शास्त्रीय अधिकार का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वायत्तता की रक्षा करना होता है. जबकि सामाजिक अधिकार व्यक्तियों के पास सम्मानजनक जीवन जीने के लिए सरकारी उपायों पर केंद्रित है. दोनों प्रकार के अधिकारों को महत्वपूर्ण माना जाता है. लेकिन इनकी सापेक्ष प्राथमिकता और कार्यान्वयन राजनीतिक और सामाजिक संदर्भ के आधार पर भिन्न हो सकते हैं.
संक्षेप में, ‘सामाजिक’ और ‘शास्त्रीय’ अधिकारों में विभाजनकारी अंतर अधिकारों के प्रत्येक सेट के तहत दायित्वों की प्रकृति को प्रतिबिंबित नहीं करता है.
2. नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार
(i) नागरिक आधिकार (Civil Rights)
‘नागरिक अधिकार’ का उल्लेख मानव अधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा (UNDHR) के पहले अठारह अनुच्छेदों में किया गया है. लगभग ये सभी “सिविल एंव राजनैतिक अधिकारों की अन्तराष्ट्रीय प्रसंविदा (ICCPR), 1966” में बाध्यकारी संधि मानदंडों के रूप में भी शामिल किए गए है.
ये अधिकार किसी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता और सुरक्षा के अधिकार से संबंधित है. इसके माध्यम से व्यक्ति के खिलाफ शारीरिक हिंसा, यातना और अमानवीय व्यवहार, मनमानी गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास किया गया है. इसमें अवैध हिरासत, निर्वासन, गुलामी और दासता, किसी की निजता और स्वामित्व के अधिकार में हस्तक्षेप, किसी की आवाजाही की स्वतंत्रता और विचार, विवेक और धर्म की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध का निषेध किया गया है.
‘बुनियादी अधिकार’ में आर्थिक और सामाजिक अधिकार शामिल हैं. लेकिन गोपनीयता और स्वामित्व की सुरक्षा जैसे अधिकार शामिल नहीं हैं. अखंडता का अधिकार और बुनियादी अधिकार में यही अंतर है. हालाँकि यह पूरी तरह से अखंडता का अधिकार से जुड़ा नहीं है. लेकिन कानून में समान व्यवहार और सुरक्षा का अधिकार निश्चित रूप से एक नागरिक अधिकार है. नागरिक अधिकार आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की प्राप्ति में आवश्यक है.
नागरिक अधिकारों के एक अन्य समूह को सामूहिक शब्द ‘उचित प्रक्रिया अधिकार’ के अंतर्गत संदर्भित किया जाता है. ये अन्य बातों के अलावा, एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायाधिकरण द्वारा सार्वजनिक सुनवाई के अधिकार, ‘दोषी सिद्ध होने तक निर्दोषिता की धारणा’, दोहरे सजा से मुक्ति का सिद्धांत (ne bis in idem theory) और कानूनी सहायता तक पहुँच का अधिकार शामिल है.
(ii) राजनीतिक अधिकार (Political Rights)
राजनीतिक अधिकारों का वर्णन यूडीएचआर के अनुच्छेद 19 से 21 में है. यह आईसीसीपीआर में भी संहिताबद्ध हैं. इनमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संघ और सभा की स्वतंत्रता, अपने देश की सरकार में भाग लेने का अधिकार और गुप्त मतदान द्वारा होने वाले वास्तविक आवधिक चुनावों में वोट देने और चुनाव में खड़े होने का अधिकार शामिल है.
(iii) आर्थिक एवं सामाजिक अधिकार (Economic and social rights)
आर्थिक और सामाजिक अधिकार यूडीएचआर के अनुच्छेद 22 से 26 में सूचीबद्ध हैं. इसे विकसित रुपए में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (ICESCR), 1966 के अनुच्छेद 6 से 14 में बाध्यकारी संधि मानदंडों के रूप में स्थापित किया गया है. ये अधिकार समृद्धि और खुशहाली के लिए आवश्यक शर्तों से लैस है.
आर्थिक अधिकार में संपत्ति का अधिकार, काम करने का अधिकार, उचित वेतन का अधिकार, काम के घंटों की उचित सीमा और ट्रेड यूनियन अधिकार को संदर्भित किया गया है. सामाजिक अधिकार वे अधिकार हैं जो पर्याप्त जीवन स्तर के लिए आवश्यक है. इनमें स्वास्थ्य, आश्रय, भोजन, सामाजिक देखभाल और शिक्षा का अधिकार शामिल हैं.
(iv) सांस्कृतिक अधिकार (Cultural Rights)
यूडीएचआर के अनुच्छेद 27 और 28 में सांस्कृतिक अधिकारों को सूचीबद्ध किया गया है. इसमें समुदाय के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में स्वतंत्र रूप से भाग लेने का अधिकार, वैज्ञानिक उन्नति में हिस्सा लेने का अधिकार और किसी भी वैज्ञानिक, साहित्यिक या कलात्मक उत्पादन से उत्पन्न नैतिक और भौतिक हितों की सुरक्षा का अधिकार शामिल है. यह आईसीईएससीआर के अनुच्छेद 15 और आईसीसीपीआर के अनुच्छेद 27 में भी वर्णित है.
3. मौलिक एवं बुनियादी अधिकार (Fundamental and Basic Rights)
मौलिक अधिकारों का अर्थ जीवन के अधिकार और व्यक्ति की अनुल्लंघनीयता जैसे अधिकारों से है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा इससे सम्बद्ध व्यापक मानक विकसित किए गए हैं. ये मानक विशेष रूप से 1960 के दशक से कई सम्मेलनों, घोषणाओं और प्रस्तावों में निर्धारित किए गए हैं. ये पहले से ही मान्यता प्राप्त अधिकारों को नए नीति के माध्यम से मानव विकास के उद्देश्य की पूर्ति में मदद करते है.
लेकिन मानवाधिकारों की व्यापक परिभाषा से ‘मानवाधिकारों के उल्लंघन’ की धारणा को बढ़ावा मिल सकता है. इसलिए मानव अधिकारों को विभिन्न प्रकार में वर्गीकृत किया गया, जैसे- ‘प्राथमिक’, ‘आवश्यक’, ‘मूल’ और ‘मौलिक’ मानवाधिकार इत्यादि.
इस वर्गीकरण का एक अन्य दृष्टिकोण कई ‘बुनियादी अधिकारों’ को अलग करना है, जिन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय नीति में पूर्ण प्राथमिकता दी जानी चाहिए. इनमें वे सभी अधिकार शामिल हैं जो लोगों की प्राथमिक भौतिक और गैर-भौतिक आवश्यकताओं से संबंधित हैं. इनके बिना इंसानों के सम्मानजनक जीवन की कल्पना नहीं किया जा सकता है.
बुनियादी अधिकारों में -जीवन का अधिकार, न्यूनतम स्तर की सुरक्षा का अधिकार, व्यक्ति की अनुल्लंघनीयता, गुलामी, दासता और यातना से मुक्ति, स्वतंत्रता से गैरकानूनी वंचन पर रोक, भेदभाव और अन्य कार्य जो मानव गरिमा पर आघात करते हैं इत्यादि- शामिल हैं. इनमें विचार, विवेक और धर्म की स्वतंत्रता के साथ-साथ उपयुक्त पोषण, कपड़े, आश्रय और चिकित्सा देखभाल और शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण अन्य आवश्यक चीजों का अधिकार भी शामिल है.
इसमें ‘भागीदारी अधिकार’ का भी उल्लेख किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, चुनाव के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में भाग लेने का अधिकार (जो एक राजनीतिक अधिकार भी है) या सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार इत्यादि. कई लोकतान्त्रिक राज्यों में भागीदारी अधिकारों को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है. ये अधिकार सभी प्रकार के बुनियादी मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक पूर्व शर्तें है.
अधिकाँश देशों के संविधान में मौलिक मानव अधिकारों का गारंटी दिया गया है. सैद्धांतिक रूप से मौलिक अधिकारों को संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से सुरक्षित माना जाता है. इसका अभिव्यक्ति कई राज्यों की घोषणाओं में भी है. 1776 की वर्जीनिया घोषणा में कहा गया कि पुरुष स्वतंत्र और मुक्त हैं और उनके पास कुछ अंतर्निहित अधिकार हैं. मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की फ्रांसीसी घोषणा, 1789 में प्रावधान किपत्रकारिताया गया कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा होते हैं और उन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं. भारतीय संविधान भी देश के नागरिकों को छह मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है.
4. अन्य वर्गीकरण (Other Classifications)
(i) एकजुटता अधिकार (Solidarity Rights)
मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा, 1948 के अनुच्छेद 28 के मुताबिक, प्रत्येक व्यक्ति ऐसी सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का हकदार है जिसमें उसे सभी अधिकार और स्वतंत्रताएं पूरी तरह से उपलब्ध हो. इस श्रेणी में सत्ता का अधिकार, धन के न्यायपूर्ण वितरण का अधिकार, आर्थिक और सामाजिक विकास का अधिकार, विकास की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार और शांति का अधिकार शामिल हैं.
(ii) प्राकृतिक अधिकार (Natural Rights)
मानव अधिकारों का इतिहास प्राचीन काल के प्राकृतिक कानून की दार्शनिक अवधारणाओं में निहित है. इसलिए इसे प्राकृतिक अधिकार भी कहा जाता है. प्लेटो मानक नैतिक आचार संहिता देने वाले पहले लेखकों में से एक थे. वहीं सिकंदर महान के गुरु अरस्तू का मानना था कि समय-समय पर समाज के सामने आने वाली विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों के अनुसार अधिकार बदलते रहते हैं.
चूँकि मानवाधिकार विश्व के प्रत्येक व्यक्ति पर सार्वभौमिक रूप से लागू होते हैं. इसलिए यह प्राकृतिक अधिकारों के समान है. प्राकृतिक अधिकार प्राकृतिक कानून से प्राप्त हुए हैं. इस सिद्धांत के अनुसार, कानून को नैतिक तर्क को प्रतिबिंब होना चाहिए. इसे व्यापक समाज द्वारा निर्धारित नैतिकता से मेल खाना चाहिए. दूसरी ओर, प्रत्यक्षवाद कहता है कि मानवाधिकार कानून द्वारा क़ानूनों और आदेशों के अधिनियमन का परिणाम हैं जो इसके साथ जुड़े विभिन्न प्रतिबंधों के साथ आते हैं.
(iii) नैतिक अधिकार (Moral Rights)
ये अधिकार किसी व्यक्ति के व्यावहारिक और नैतिक आचरण को निर्धारित करते हैं. ये नैतिक महत्वों को जाहिर करते है, जिन्हें संस्थागत अधिकारों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है. एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति नैतिकता का भाव इसके मूल में है. यह दो व्यक्तियों और समुदाय में सम्मान, भाईचारा, धर्मनिरपेक्षता, जीवन की सुरक्षा, समाज में शांति आदि जैसे नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देते हैं.
मानवाधिकार के सिद्धांत और घोषणाएं राज्य और लोगों पर नैतिक दायित्व भी डालते हैं कि वे अन्य लोगों के अधिकारों का उल्लंघन न करें. यदि ऐसा किया तो निर्धारित कानून के प्रावधानों के अनुसार दंडित किया जाएगा. यह प्रक्रिया समाज में नैतिकता को बढ़ावा देता है.
(iv) कानूनी अधिकार (Legal Rights)
ये अधिकार किसी देश की कानूनी व्यवस्था द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं. इन अधिकारों के दो आवश्यक तत्व हैं:
- अधिकार का धारक, और
- कर्तव्य से बंधा हुआ व्यक्ति.
यहाँ अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे से सहसंबद्ध है. किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति द्वारा कर्तव्य निर्वहन के बिना कोई अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता है. कर्तव्य से बंधे व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी अन्य व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन न करे. वास्तव में नागरिकों के मानवधिकारों का रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है.
मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 2 में कहा गया है कि विभिन्न उपायों और विधायी प्रावधानों के माध्यम से सभी मानवाधिकारों को बढ़ावा देना, सुरक्षा करना और लागू करना राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है. इसमें किसी भी राज्य की सरकार को ऐसे किसी भी कानून को पारित नहीं करने को कहा गया है जो लोगों के अधिकारों का उल्लंघन करता हो.
मानवाधिकार के महत्व व विशेषताएं (Importance and Characteristics of HR)
- मानवाधिकार प्रकृति में सार्वभौमिक हैं. मतलब ये प्रत्येक व्यक्ति को उसकी जाति, पंथ, नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता और जन्म स्थान से परे समान रूप से प्राप्त है.
- ये अविभाज्य अधिकार हैं. ये प्राकृतिक अधिकार के विशेषता से लैस है, इसलिए किसी को इससे वंचित नहीं किया जा सकता है.
- ये अविभाज्य और अन्योन्याश्रित अधिकार हैं. यदि कोई सरकार एक अधिकार देती है तो उसे अपने नागरिकों के अन्य अधिकारों की रक्षा भी करनी होगी. उदाहरण के लिए, अपने नागरिकों के जीवन के अधिकार की रक्षा के लिए निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की रक्षा करना और उन्हें भोजन, आश्रय और स्वच्छ वातावरण प्रदान करना सरकार का कर्तव्य है.
- वे प्रत्येक व्यक्ति में अंतर्निहित हैं और जन्म से ही उपलब्ध हैं.
- यदि मनुष्य अपने मानव अधिकारों से परिचित नहीं है या वह अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं करता है तो भी ये नष्ट नहीं होते हैं. उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति को वकील से परामर्श लेने के अपने अधिकार के बारे में जानकारी नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसका अधिकार समाप्त हो गया है. इस परिस्तिथि में अधिकारियों का कर्तव्य है कि वे उसे मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करें या उसे उसके अधिकार बताएं.
- जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, मनमानी गिरफ्तारी और सजा के खिलाफ अधिकार आदि जैसे अधिकार व्यक्ति की गरिमा और व्यक्तित्व की रक्षा करते हैं.
मानवाधिकार के स्रोत (Sources of Human Rights in Hindi)
अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (International Treaties)
दो या दो से अधिक राष्ट्रों के बीच बाध्यकारी संधियां मानव अधिकार के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं. मानव अधिकार पर यूरोपीय कन्वेंशन, अमेरिकी कन्वेंशन, अफ्रीकी चार्टर और लोगों के अधिकार इसके कुछ उदाहरण है.
अंतर्राष्ट्रीय रीति-रिवाज (International customs)
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कई रिवाज बार-बार दोहराए गए. इसके कारण इन रीती-रिवाजों ने प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून का दर्जा प्राप्त कर लिया है. इस प्रकार कूटनीतिक सहमति के बावजूद ये सभी राज्यों पर बाध्यकारी हैं. इनमें से कई अधिकार प्रथागत अंतरराष्ट्रीय कानून का हिस्सा हैं और इस प्रकार उन्हें मानव अधिकारों के स्रोत के रूप में जाना जाता है.
अंतर्राष्ट्रीय उपकरण (International Instruments)
मानव अधिकारों से संबंधित कई घोषणाएं, संकल्प और सिफारिशों को संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव अधिकारों के स्रोत के रूप में अपनाया गया है. मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (1948), तेहरान सम्मेलन (1968) और वियना सम्मेलन (1993) में अपनाई गई घोषणाएँ इनमें से कुछ उदाहरण है.
न्यायायिक निर्णय (Judicial Decisions)
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय मानव अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित विभिन्न विवादों और मुकदमों में निर्णय पारित कर क़ानूनी मिसालें स्थापित करती है. ये निर्णय मानव अधिकारों के एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में कार्य करते है.
आधिकारिक दस्तावेज़ (Official Documents)
ह्यूमन राइट्स लॉ जर्नल, ह्यूमन राइट्स रिव्यू, यूरोपियन लॉ रिव्यू जैसे दस्तावेज़ और पत्रिकाएँ और संयुक्त राष्ट्र के तहत अन्य सामूहिक आधिकारिक कार्य मानवाधिकारों के स्रोत के रूप में काम करते हैं.
संयुक्त राष्ट्र और मानव अधिकार (United Nations and Human Rights)
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वर्ष 1948 में संरा के सदस्य देशों में सार्वभौमिक मानवाधिकारों की व्यापक सूची पर सहमति बनी. इसी साल 10 दिसंबर को महासभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (UHDR) को अपना लिया. वर्तमान में इसमें 30 अनुच्छेद है. संक्षिप्त में इनका वर्णन इस प्रकार है-
- अनुच्छेद 1 – समानता का अधिकार
- अनुच्छेद 2 – भेदभाव से मुक्ति
- अनुच्छेद 3 – जीवन, स्वतंत्रता, व्यक्तिगत सुरक्षा का अधिकार
- अनुच्छेद 4 – गुलामी से मुक्ति
- अनुच्छेद 5 – यातना और अपमानजनक व्यवहार से मुक्ति
- अनुच्छेद 6 – कानून के समक्ष एक व्यक्ति के रूप में मान्यता का अधिकार
- अनुच्छेद 7 – कानून के समक्ष समानता का अधिकार
- अनुच्छेद 8 – सक्षम न्यायाधिकरण द्वारा उपचार का अधिकार
- अनुच्छेद 9 – मनमाने ढंग से गिरफ्तारी और निर्वासन से मुक्ति
- अनुच्छेद 10 – निष्पक्ष सार्वजनिक सुनवाई का अधिकार
- अनुच्छेद 11 – दोषी साबित होने तक निर्दोष माने जाने का अधिकार
- अनुच्छेद 12 – गोपनीयता, परिवार, घर और पत्राचार में हस्तक्षेप से मुक्ति
- अनुच्छेद 13 – देश के अंदर और बाहर स्वतंत्र आवागमन का अधिकार
- अनुच्छेद 14 – उत्पीड़न से बचने के लिए अन्य देशों में शरण का अधिकार
- अनुच्छेद 15 – राष्ट्रीयता का अधिकार और इसे बदलने की स्वतंत्रता
- अनुच्छेद 16 – विवाह और परिवार का अधिकार
- अनुच्छेद 17 – संपत्ति का स्वामित्व का अधिकार
- अनुच्छेद 18 – विश्वास और धर्म की स्वतंत्रता
- अनुच्छेद 19 – राय और सूचना की स्वतंत्रता
- अनुच्छेद 20 – शांतिपूर्ण सभा और संघ का अधिकार
- अनुच्छेद 21 – सरकार और स्वतंत्र चुनावों में भाग लेने का अधिकार
- अनुच्छेद 22 – सामाजिक सुरक्षा का अधिकार
- अनुच्छेद 23 – वांछनीय कार्य और ट्रेड यूनियनों में शामिल होने का अधिकार
- अनुच्छेद 24 – आराम और आराम का अधिकार
- अनुच्छेद 25 – पर्याप्त जीवन स्तर का अधिकार
- अनुच्छेद 26 – शिक्षा का अधिकार
- अनुच्छेद 27 – समुदाय के सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार
- अनुच्छेद 28 – सामाजिक व्यवस्था का अधिकार जो इस दस्तावेज़ को स्पष्ट करता है
- अनुच्छेद 29 – स्वतंत्र और पूर्ण विकास के लिए आवश्यक सामुदायिक कर्तव्य
- अनुच्छेद 30 – उपरोक्त अधिकारों में राज्य या व्यक्तिगत हस्तक्षेप से मुक्ति
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (United Nations Human Rights Council – UNHRC) का मुख्यालय जेनेवा में है. यह संरा महासभा के अधीन काम करता है. 10 दिसंबर 1948 को यूएन द्वारा मानवाधिकारों का सार्वभौमिक अपनाए जाने के उपलक्ष में, हरेक साल 10 दिसंबर को दुनिया ‘मानव अधिकार दिवस’ के रूप में मनाती है.
दिसंबर 1966 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार को मजबूती प्रदान करने वाला दो अंतर्राष्ट्रीय संधियों को अपनाया:
- आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (ICESCR) जिसकी निगरानी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की समिति द्वारा की जाती है.
- नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (ICCPR ICCPR) जिसकी निगरानी मानवाधिकार समिति द्वारा की जाती है.
इन्हें अक्सर “अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध” के रूप में जाना जाता है. UDHR और इन दोनों प्रसंविदाओं को एक साथ मानवाधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय विधेयक के रूप में जाना जाता है.
मानवाधिकारों से संबंधित अन्य संधियाँ (Other Treaties related to Human Rights)
- अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी कानून (IHL) और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून अंतर्राष्ट्रीय कानून के पूरक निकाय हैं. ये कुछ समान उद्देश्यों को साझा करते हैं. यह कानून मानवीय कारणों से सशस्त्र संघर्ष के प्रभावों को सीमित करने की मांग करता है. यह उन लोगों की रक्षा करता है जो शत्रुता में शामिल नहीं होते हैं और युद्ध के साधनों एवं तरीकों को प्रतिबंधित करते हैं. इस कानून को युद्ध के कानून या सशस्त्र संघर्ष के कानून के रूप में भी जाना जाता है.
- नरसंहार के अपराध की रोकथाम और सज़ा पर कन्वेंशन (वर्ष 1948)
- नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर कन्वेंशन (वर्ष 1965)
- महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर अभिसमय (वर्ष 1979)
- अत्याचार और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सज़ा के खिलाफ कन्वेंशन (वर्ष 1984)
- बाल अधिकारों पर कन्वेंशन (वर्ष 1989)
- सभी प्रवासी श्रमिकों और उनके परिवारों के सदस्यों के अधिकारों के संरक्षण पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (वर्ष 1999)
- जबरन अगुआ करने से सभी व्यक्तियों की सुरक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (वर्ष 2006)
- विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर कन्वेंशन (2006)
- वर्ष 2011 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) ने व्यापार और मानवाधिकारों पर मार्गदर्शक सिद्धांतों को अपनाया है.
भारत में मानव अधिकार (Human Rights in India)
भारतीय संविधान के भाग-III में वर्णित मौलिक अधिकार आधुनिक मानव अधिकारों के काफी करीब है. भारत ने आजादी के तुरंत बाद लागु संविधान के साथ ही इनका प्रावधान किया था. इनके उलंघन पर अदालत का शरण भी लिया जा सकता है. भारतीय नागरिक मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय और अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय जा सकते हैं. इसके अलावा अनुच्छेद 36 से 51 तक में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्त्व भारत को एक लोककल्याणकारी राज्य बनता है.
इसके अलावा 1990 के दशक में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने भारत पर मानव अधिकार संगठन स्थापित करने का दवाब बनाया. भारतीय जनमत भी इसके पक्ष में खड़ी होने लगी. विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखकर साल 1993 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (NHRC) का स्थापना किया था.
मानव अधिकार आयोग द्वारा मामले का शिकायत दर्ज किया जाता है, उनपर जांच कर फैसला भी दिया जाता है. इसका पहला मकसद पीड़ित को त्वरित राहत पहुँचाना होता है. आयोग अपने निर्देशों के नाफरमानी के दशा में उच्च या सर्वोच्च न्यायालय भी जा सकता है.
भारत मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा का हस्ताक्षरकर्त्ता है. साथ ही, भारत द्वारा ICESCR एवं ICCPR का पुष्टि किया गया है. भारत ने नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय, महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर अभिसमय, बाल अधिकारों पर अभिसमय और विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर अभिसमय का पुष्टि भी किया है.
देश के कई अन्य सरकारी संस्थाएं भी मानव अधिकार के रक्षा में मददगार है-
क्रमांक | निकाय का नाम | दायरा | वस्तुनिष्ठ | विषयवस्तु |
राष्ट्रीय महिला आयोग | राष्ट्रीय | महिलाओं के अधिकारों के उल्लंघन के बारे में चिंताओं को संबोधित करना और महिलाओं के संबंध में नीति पर सरकार को सिफारिशें प्रदान करना. | महिलाओं के अधिकार | |
2. | राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग | राष्ट्रीय | सामान्य नीति का विकास और अल्पसंख्यक आबादी के लिए विधायी ढांचे और विकास कार्यक्रमों की योजना, समन्वय, मूल्यांकन और समीक्षा करना. | अल्पसंख्यकों के अधिकार |
3. | राष्ट्रीय अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आयोग | राष्ट्रीय | अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और एंग्लो-इंडियन अल्पसंख्यकों को उनके सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हितों के विकास और संरक्षण के लिए शोषण से संरक्षण प्रदान करना. | अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के अधिकार |
4. | राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग | राष्ट्रीय | बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा, विशेष रूप से बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अनुबंध, 1989 में निहित है, जिस पर भारत ने 1992 में हस्ताक्षर किए थे. | बाल अधिकार |
5. | विकलांग व्यक्तियों के लिए मुख्य आयुक्त | राष्ट्रीय | विकलांग व्यक्तियों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक हितों का राष्ट्रीय संरक्षण और प्रचार करना. | विकलांग व्यक्तियों के अधिकार |
मानव अधिकार की चुनौतियाँ (Threats to Human Rights in Hindi)
भारतीय संविधान द्वारा बाध्यकारी ढंग से लागू मौलिक अधिकार प्रकृति में राजनीतिक और नागरिक प्रकार के हैं. ये सरकार को नागरिकों के स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने से रोकता है. इसलिए इन्हें नकारात्मक अधिकार का रूप माना जाता है. संविधान में आर्थिक और सामाजिक प्रकृति के अधिकारों का वर्णन निति-निर्देशक तत्व में किया गया है, जो न्यायपालिका के परिधि से बाहर रखा गया है. ये सकारात्मक व्याख्या है और लोक-कल्याण के लिए अहम् है, जो आधुनिक मानव अधिकारों का हिस्सा है.
संवैधानिक प्रावधानों से इतर भारतीय समाज में कई प्रकार के कारक है, जो मानव अधिकारों के लक्ष्य प्राप्ति में बाधक है. ये इस प्रकार है-
1. आर्थिक कारक (Economic Factors)
भारतीय जनता में गरीबी एक बड़ी समस्या है. धन और भूमि का संकेंद्रण, सामंतवाद और उपनिवेशवाद आदि इसके ऐतिहासिक कारण है. भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण और उदारीकरण ने अमीरी और गरीबी में खाई को और भी चौड़ा कर दिया है. सरकार का स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे कल्याणकारी उपायों से पीछे हटने का प्रयास इसे और भी बढ़ावा दे रहा है. कमजोर वर्गों के साथ भेदभाव, अशिक्षा, भूख और कुपोषण, लाचारों पर रोजमर्रा की हिंसा आर्थिक असमानता को पाटने में एक बड़ी बाधा है.
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 भारत के दयनीय स्थिति को बयां करते है. ऐसे विधायी उपायों को पारित करने के पीछे का उद्देश्य अत्यधिक गरीब और हाशिए पर रहने वाले लोगों को सहायता प्रदान करना होता है.
2. सामाजिक परिस्थिति (Social Factors)
भारत एक जाति प्रधान देश है और जाति-व्यवस्था का जन्म हिंदू धर्म के अमानवीय पुस्तक मनुस्मृति में वर्णित चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से हुआ है. इस व्यवस्था के कारण सदियों तक शूद्रों और दलितों को शिक्षा और संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया. इन्हें कई अन्य अधिकारों, मंदिर जाने और द्विजों के कार्यक्रम में शामिल होने से निषेध कर दिया गया. इसके कारण भारत में शूद्रों और दलितों का सामजिक विकास थम सा गया. इसका आर्थिक प्रभाव भी हुआ.
जाति व्यवस्था में सबसे खराब स्थिति अछूतों (दलितों) का हुआ है. कई लोग इनके छाया को भी अपवित्र मानते थे. इसके कारण शूद्र और दलित वर्गों के उत्थान पर ऐतिहासिक रूप से नकारात्मक प्रभाव हुए. हालाँकि, भारतीय संविधान में कई प्रावधानों को शामिल कर जाति-व्यवथा के कुप्रभावों को जड़ से समाप्त करने का प्रयास किया गया है. लेकिन, समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी जाति-व्यवस्था और जातीय उत्पीड़न का नकारात्मक प्रभाव झेल रहा है. इन प्रभावों को समाप्त किए बिना मानव अधिकारों का गारंटी एक छलावा मात्रा है.
3. राजनीतिक कारक (Political Factors)
भारत में शूद्र और दलित जातियां बहुसंख्यक है. लेकिन ये जातियां संसाधन के अभाव में सत्ता के शीर्ष से कोसों दूर है. राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी राजनैतिक नेतृत्व के अभाव में इस समूह की बातें संसद की दहलीज पर नहीं पहुँच पाती है.
4. शिक्षा का स्तर (Level of Education)
भारत की एक बड़ी आबादी अशिक्षित या गुणवत्ताहीन शिक्षा से लैस हैं. अशिक्षितों को अक्सर अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं होता है. ऐसे में यह शोषण को बढ़ावा देता है और मानव अधिकारों के प्राप्ति में बाधा बन जाता है. हालाँकि भारत ने 6 से 14 वर्ष के उम्र के बच्चों के लिए शिक्षा को मुफ्त और अनिवार्य बनाकर मौलिक अधिकार में शामिल किया है. लेकिन, सरकारी विद्यालयों में दी जा रही शिक्षा निजी विद्यालयों के तुलना में काफी गुणवत्ताहीन है. इससे सरकारी विद्यालयों के अधिकाँश छात्र आधुनिक दौड़ के प्रतियोगिता से बाहर रह जाते है.
5. राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security)
राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरे के आशंका में कई बार मानवाधिकारों से समझौता किया जाता है. भारत में नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन और अमेरिका का मैकार्थीवाद इस्त्यादी इसके उदाहरण है.
6. मुठभेड़ में हत्याएं (Murder in Encounter)
भारत के कश्मीर और उत्तर-पूर्वी राज्यों में भारी मात्रा मेंआंदोलन होते रहते है. इन स्थितियों में मदद के लिए पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों को बुलाया जाता है. विभिन्न पुलिस और सुरक्षा बलों पर मानवाधिकारों का उल्लंघन और फर्जी मुठभेड़ का आरोप लग्न मानव अधिकारों के उलंघन के श्रेणी में आता है. कई बार ये आरोप सही भी पाए गए है, जो चिंतनीय है.
आगे की राह (Conclusion)
संयक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित सार्वभौमिक मानव अधिकारों को कई देशों ने अपने संविधान में शामिल किया है. साथ ही सभी देशों ने अपने यहाँ मानवाधिकार आयोग का स्थापना किया है. इन्हें कोई भी व्यक्ति, संस्था या राज्य तोड़ नहीं सकता है. लेकिन यूएन का यह घोषणा मानव अधिकारों के लिए आदर्श संहिता मात्र है. जरुरत, समय व स्थान के अनुसार इसे और भी विस्तारित किया जा सकता है.
यूएन को विश्व का सबसे शक्तिशाली संगठन कहा जाता है. लेकिन यह दुनिया के कई मामलों को निपटने में विफल रहा है. जब भी कोई अतिशक्तिशाली राष्ट्र निर्बल राष्ट्रों पर जुल्म करता है तो, यूएन की शक्तियां बेबस नजर आती है. बात चाहे यूक्रेन पर रूस द्वारा आक्रमण का हो, अमेरिका द्वारा इराक़ पर हमला हो या फिर यहूदी बहुल इजराइल द्वारा फिलिस्तीन के मूलनिवासी अरबियों का नरसंहार हो, इन सभी मामलों में यूएन शांति कायम करने में नाकाम रहा है.
इससे पहले भी सदस्य राष्ट्रों द्वारा मानवाधिकार के व्यापक उलंघन के मामले सामने आए है. लेकिन यूएन शक्तिशाली या सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के ताकत के सामने बेबस नजर आता है. इसलिए सुरक्षा परिषद् के व्यवस्था में सुधार किया जाना चाहिए. युद्ध के दौरान शांति कायम के लिए यूएन की सुरक्षा परिषद पर समाप्त किया जा सकता है. साथ ही, महासभा को स्थायी सुरक्षा परिषद से अधिक शक्तियां प्रदान कर भी युद्ध काल की त्रासदी को सिमित किया जा सकता है.
साथ ही, विभिन्न देशों में फैले भ्रष्टाचार, पूंजीवाद और तानाशाही शासन ने भी मानव अधिकारों के प्रावधानों को कमजोर किया है. इसलिए यूएन समेत तमाम क्षेत्रों में निरंतर सुधार का जरूरत है. पुराने कानूनों और प्रावधानों को परिस्थितियों की नवीनतम मांग के अनुसार संरेखित किया जाना चाहिए. साथ ही, प्रौद्योगिकी और विज्ञान में प्रगति के साथ नए परिवर्तनों को पूरा करने के लिए इन अधिकारों को संशोधित और परिष्कृत करने की आवश्यकता है.
मानव अधिकार आधुनिक युग में एक व्यापक अवधारणा है. आज के समय में इंटरनेट और डिजिटल पहुँच का अधिकार, मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य का अधिकार जैसे मामलों को सरकार द्वारा हल किए जाने की उम्मीद की जाती है. वस्तुतः राज्य का स्वरुप लोक-कल्याणकारी होना जरुरी है.