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जैन धर्म का इतिहास, प्रसार, दर्शन, सम्प्रदाय और सिद्धांत

जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है. यह अहिंसा और आत्म-संयम के माध्यम से आध्यात्मिक शुद्धता और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सिखाता है. जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भगवान महावीर के के समस्य हुए. भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे. प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ थे.

जैन धर्म का परिचय (Introduction to Jainism in Hindi)

“जैन” शब्द का अर्थ ‘विजेता’ है. जैन धर्म के अनुसार विजेता वो है जिसने अपने भीतर आत्मज्ञान प्राप्त कर अपनी इच्छाओं और मन पर विजय प्राप्त कर ली है. भगवान् महावीर समेत सभी जैन तीर्थंकरों को जिन भी कहा जाता है. इसलिए इनके अनुयुयि जैन कहलाते है और इस धर्म को जैन धर्म का संज्ञा दिया जाता है.

जैन धर्म में ‘तीर्थंकर’ का अर्थ है वह व्यक्ति जो संसार रूपी सागर को पार करने के लिए धर्म का मार्ग (सेतु) बनाता है. तीर्थंकरों वे है जिसने राग-द्वेष को जीतकर अहिंसा, संयम और तप द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया हो और जीवनभर इस ज्ञान का लोगों में प्रचार-प्रसार किया हो. तीर्थंकरों के लिए ‘अरिहंत’ शब्द का भी प्रयोग होता है, जिसका अर्थ है ‘कर्मों का नाश करने वाला’.

जैन धर्म की उत्पत्ति (Origin of Jainism)

जैन श्रुतियों के अनुसार, जैन धर्म का विकास 24 तीर्थंकरों के मार्गदर्शन में हुआ. महावीर स्वामी अंतिम और 24वें तीर्थंकर थे, जिनके काल में जैन धर्म का व्यापक प्रचार हुआ. कुछ अनुयायी ऋषभदेव को जैन धर्म का संस्थापक मानते हैं, जिनका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है. महावीर से पहले 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे.

दृष्टि आईएएस वेबपोर्टल के अनुसार, “जैन धर्म की उत्पत्ति का कारण उस समय के कठोर और जटिल हिंदू धर्म के कर्मकांडों और ब्राह्मणों के प्रभुत्व के प्रति क्षत्रिय वर्ग की प्रतिक्रिया थी. समाज में वर्ण व्यवस्था के कारण दो उच्च वर्गों को विशेषाधिकार प्राप्त थे. इस पृष्ठभूमि में, जैन धर्म ने सरल और अहिंसक जीवनशैली, आत्म-संयम और कर्म के महत्व को महत्व दिया. लोहे के औज़ारों के उपयोग से उत्तर-पूर्वी भारत में नई कृषि अर्थव्यवस्था का भी प्रसार हुआ, जिसने समाज को नए विचारों की ओर प्रेरित किया.”

आधुनिक समय में कई इतिहासज्ञ जैन और बौद्ध धर्म को समानांतर मानते है. लेकिन इस काम में हिन्दू धर्म या वर्ण-व्यवस्था के अस्तित्व से इंकार करते है. इनका ये मानना है कि इस दौर में हिन्दू या ब्राह्मण धर्म या वर्ण-व्यवस्था का कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिला है. इसलिए हिन्दू धर्म के कर्मकांडो से बचाव के लिए जैन व बौद्ध धर्म के उद्भव का सिद्धांत सही नहीं है.

इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जैन और बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव समाज में नैतिकता और सदाचरण के प्रचार-प्रसार के मकसद से किया गया. इनके उदय से समाज में अपराध कम हुए होंगे, इसलिए राजसत्ता ने इन्हें आश्रय दिया होगा.

जैन धर्म के तीर्थंकर (Preachers of Jainism in Hindi)

जैन ग्रंथों में 24 तीर्थंकरों का जीवन-चरित्र और उनकी शिक्षाएँ विस्तार से मिलती हैं. परन्तु इनमें पहले 22 की ऐतिहासिकता संदिग्ध है. जैनियों के 24 तीर्थंकर है-

जैन तीर्थंकर का नामतीर्थंकर के नाम का अर्थतीर्थंकर का प्रतिक चिन्ह
ऋषभनाथ या आदिनाथीलॉर्ड बुल या लॉर्ड फर्स्टसांड
अजितअपराजेयहाथी
शाम्भवशुभघोड़ा
अभिनंदनपूजा करनाअनुकरण करना
सुमतिढंगबगला
पद्मप्रभाकमल-उज्ज्वलकमल फूल
सुपार्श्वअच्छा पक्षीयस्वस्तिक
चंद्रप्रभाचाँद-उज्ज्वलचांद
सुविधा / पुष्पदंतधार्मिक कर्तव्य या खिलना-दांतेदारडॉल्फिन या सी ड्रैगन
शीतला देवीठंडकश्रीवत्स:
श्रेयंशाअच्छागैंडा
वासुपूज्यसंपत्ति चढ़ाकर पूजा करेंभैंस
विमलासाफ़सूअर
अनंतअनंतहॉक / भालू
धर्मकर्तव्यवज्र
शांतिशांतिमृग या हिरण
कुंथुगहनों का ढेरबकरी
आरासमय का विभाजननंद्यावर्त या मछली
मल्लिकपहलवानसुराही
सुव्रत या मुनिसुव्रत:शुभ वचनों काकछुआ
नामी/निमिनझुकना या आँख झपकनानीला कमल
नेमी/अरिष्टनेमीजिसके पहिए का किनारा चोटिल नहीं हैशंख
पार्श्वनाथभगवान नागसाँप
वर्धमान महावीरसमृद्ध महान नायकशेर
जैन धर्म के 24 तीर्थंकर

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव

भगवान ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर और संस्थापक माने जाते हैं, जिनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, जैसे कि ऋग्वेद. ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में राजा नाभिराज और रानी मरूदेवी के यहां हुआ था, और उन्हें वृषभनाथ तथा आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है. जैन धर्म का प्रारंभ इन्हीं से माना जाता है.

ऋषभदेव ने अपने शासनकाल में लोगों के लिए छह प्रकार के जीवन यापन के साधनों (असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और शिल्प) की व्यवस्था की. उन्होंने समाज में वर्ण व्यवस्था का भी निर्धारण किया, जिसमें कर्म के आधार पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्गों की व्यवस्था की. इस कारण उन्हें प्रजापति कहा गया. उनकी दो पत्नियाँ, सुनंदा और नंदा थीं, जिनसे उनके प्रमुख संतानें भरत, ब्राह्मी, बाहुबली और सुंदरी थीं. ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों को अंक और अक्षर विद्या का ज्ञान देकर विभिन्न कलाओं में निपुण बनाया. ब्राह्मी लिपि का आरंभ भी इसी समय से माना जाता है, जिसे बाद में नागरी लिपि का रूप दिया गया.

राजमहल में नर्तकी नीलांजना की आकस्मिक मृत्यु के बाद ऋषभदेव को वैराग्य हो गया. उन्होंने अपने पुत्र भरत को राज्य सौंपा और तपस्या के लिए वन चले गए, जहां उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई. अपनी साधना और विकारों पर विजय पाने के कारण उन्हें ‘जिन’ की उपाधि मिली, और उनके अनुयायी जैन कहलाए. यही जैन धर्म की शुरुआत मानी जाती है, जो बाद में मानवता के धर्म के रूप में विकसित हुआ.

ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, और सामवेद में ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है. डॉ. सागरमल जैन ने भी अपने लेख में यह पुष्टि की है कि ऋग्वेद में वृषभ के रूप में ऋषभदेव का जिक्र बार-बार किया गया है.

भगवान शीतलनाथ

भगवान शीतलनाथ जैन धर्म के दसवें तीर्थंकर हैं. जब नौवें तीर्थंकर के समय के बाद धर्म का विच्छेद हो गया था, तो असंख्य वर्षों बाद भरत क्षेत्र के भद्रिलापुरी में उनका जन्म हुआ. उनके पिता का नाम दशरथ और माता का नाम सुनंदा था. माघ कृष्ण द्वादशी के दिन, पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में, उनका जन्म हुआ. उनके जन्म से नौ करोड़ सागर काल पहले तीर्थंकर पुष्पदंत स्वामी मोक्ष को प्राप्त हो चुके थे. भगवान शीतलनाथ की आयु एक लाख पूर्व थी और उनका शरीर 90 धनुष ऊंचा, स्वर्ण के समान पीले रंग का था. पौष चतुर्दशी के दिन उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई.

इन्द्र के आदेश पर कुबेर ने उनके लिए समवशरण का निर्माण किया, जहाँ भगवान शीतलनाथ ने संसार और मोक्ष के स्वरूप का उपदेश दिया. उनके उपदेश से लोगों के हृदयों में धर्म की भावना पुनः जागृत हो गई, जैसे सूर्य के उदय से अंधकार मिटता है. उनके समवशरण में 81 गणधर थे, जो ऋद्धि और मनः पर्यय ज्ञान के धारक थे. अपने अंतिम समय में वे श्री सम्मेद शिखर पर गए, जहाँ एक महीने का योग-निरोध करके, अश्विन शुक्ल अष्टमी के दिन अपने अधाति कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया.

पाश्र्वर्ननाथ

23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ का जन्म बनारस के राजा अश्वसेन और रानी वामा के पुत्र के रूप में हुआ. उनका समय महावीर स्वामी से लगभग 250 वर्ष पहले माना जाता है. उन्होंने 30 वर्ष की आयु में राजपाट त्यागकर संन्यास धारण किया और 83 दिनों की तपस्या के बाद ज्ञान प्राप्त किया. पाश्र्वनाथ ने 70 वर्षों तक धर्म का प्रचार किया और पदार्थ की अनंतता में विश्वास करते थे. उनके अनुयायी निर्ग्रंथ कहलाते थे, और उनका संप्रदाय सुसंगठित था, जिसमें चार गण, प्रत्येक गणधर के अधीन, संगठित थे.

पाश्र्वनाथ ने वैदिक कर्मकांड और देववाद की आलोचना की और जाति प्रथा का विरोध किया. उनके अनुसार मोक्ष का अधिकार सभी को है, चाहे व्यक्ति किसी भी जाति का हो. उन्होंने नारियों को भी धर्म में प्रवेश दिया. उनकी मूल शिक्षाएं थीं: अहिंसा, सत्य बोलना, चोरी न करना, और संपत्ति का त्याग. महावीर स्वामी के माता-पिता पाश्र्वनाथ के अनुयायी थे.

भगवान् महावीर

महावीर स्वामी का मूल नाम वर्धमान था. इनका का जन्म 540 ईसा पूर्व वैशाली के पास कुंडीग्राम में हुआ. वे ज्ञानत्रिक वंश के थे और मगध के शाही परिवार से संबंध रखते थे. उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञानत्रिक क्षत्रिय वंश के मुखिया थे और माता त्रिशला वैशाली के राजा चेतक की बहन थीं. महावीर का प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में विलासिताओं से भरा था. उनकी पत्नी का नाम यशोदा और पुत्री का नाम प्रियदर्शनी था.

30 वर्ष की आयु में माता-पिता की मृत्यु के बाद, महावीर गृहस्थ जीवन से विमुख हो गए और घर छोड़ने का निर्णय लिया. इसे परिवार ने स्वीकार कर लिया. उन्होंने अपने भाई नंदीवर्धन की अनुमति से संन्यास लिया. उन्होंने पहले वस्त्र धारण किया. लेकिन, तेरह महीने बाद वस्त्र भी त्याग दिया, और नग्न भिक्षु के रूप में तपस्या में लग गए.

12 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद, 42 वर्ष की आयु में बिहार के जृंभिका गांव में ऋजुपालिका नदी के तट पर उन्हें कैवल्य (ज्ञान) की प्राप्ति हुई. इस ज्ञान के बाद वे “महावीर” और “जिन” (विजयी) कहलाए.

अगले 30 वर्षों तक महावीर स्वामी ने कोसल,  मिथिला, चंपा, मगध और अन्य पूर्वी क्षेत्रों में अपने विचारों का प्रचार किया. वह प्रतिवर्ष आठ महीने भ्रमण करते और वर्षा के चार महीने किसी नगर में व्यतीत करते. उनके अनुयायियों में उनकी पत्नी यशोदा, पुत्री प्रियदर्शनी, जमाता जमाली, वैशाली के शासक चेटक, अवंति के प्रद्योत, और मगध नरेश बिम्बिसार सहित कई शासक परिवार भी शामिल थे.

लोहे के औज़ारों के प्रयोग से उत्तर-पूर्वी भारत में नई कृषि अर्थव्यवस्था का प्रसार ने जैन धर्म को फलने-फूलने में मदद की.

महावीर का निधन बिहार के पावापुरी में 468 ई.पू. 72 वर्ष की आयु में हो गया. इसके बाद इनके शिष्यों ने जैन धर्म का संचालन जारी रखा. लेकिन, ये आखिरी तीर्थंकर हुए. इसलिए जैन धर्म आज भी इनके विचारों और शिक्षाओं पर केंद्रित है.

जैन धर्म का प्रचार-प्रसार (Expansion of Jainism)

महावीर स्वामी ने पुरुषों और महिलाओं दोनों के अनुयायियों के संघ का गठन करके जैन धर्म का प्रसार किया. जैन सिद्धांतों के प्रचार के लिए जनसामान्य में प्रचलित प्राकृत भाषा का उपयोग किया गया. इसलिए संवाद और सुचना सम्प्रेषण सरलता से प्रसारित हुआ.

महावीर स्वामी ने अपने संघ को ग्यारह गणों में विभाजित किया. इन्होंने पावा में चार-स्तरीय संघ की स्थापना की. उनके प्रमुख ग्यारह शिष्य “गन्धर्व” कहलाते थे. गन्धर्व ‘आर्य सुघर्मा’ महावीर की मृत्यु के बाद भी जीवित रहे और जैन धर्म के पहले मुख्य उपदेशक बने.

राजा नंद के समय में जैन धर्म का संचालन सम्भूताविजय और भद्रबाहू जैसे आचार्यों द्वारा किया गया. छठे आचार्य भद्रबाहू मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन थे.

महावीर के अनुयायी देशभर में फैल गए और जैन धर्म को शाही संरक्षण भी मिला. जैन मान्यताओं के अनुसार, अजातशत्रु के उत्तराधिकारी उदयन जैन धर्म के अनुयायी थे. सिकंदर के भारत आने पर जैन भिक्षुक सिंधु नदी के किनारे पाए गए थे.

महावीर की मृत्यु के 200 वर्षों बाद, सम्राट चन्द्रगुप्त के समय में मगध में भीषण अकाल पड़ा. इसके कारण कई जैन दक्षिण की ओर चले गए. इनका नेतृत्व भद्रबाहु ने किया. अकाल के 12 वर्षों तक वे दक्षिण में ही रहे. वे कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में कटवप्र नाम के पहाड़ी पर रूक गये. उन्होंने संघ को चोल और पांड्य राज्यों में कुछ का निर्देश दिया. इस कारण दक्षिण भारत में भी जैन धर्म का प्रसार हुआ.

चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन का आखिरी वर्ष एक जैन भिक्खु के रूप में कर्नाटक में बिताया था. इससे भी कर्नाटक में जैन धर्म का प्रसार में मदद मिला. चन्द्रगुप्त भी भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत में प्रस्थान कर गए थे. मुनि चन्द्रगुप्त ने भी उसी स्थान पर तपस्या की जहां भद्रबाहु रुके थे. इसके कारण इस पहाड़ी का नाम चन्द्रगिरि पड़ गया. इस स्थान से छठी शताब्दी का एक लेख प्राप्त हुआ है, जिसके आधार पर विद्वानों ने चन्द्रगुप्त को जैन मुनि होना निर्विवाद रूप से स्वीकार किया गया है.

चौथी शताब्दी ईसा पूर्व तक जैन धर्म ओडिशा में भी फैल गया, जहां इसे कलिंग राजा खारवेल का समर्थन मिला. इसके बाद, मालवा, गुजरात और राजस्थान में भी जैन धर्म फैला. इन क्षेत्रों में आज भी बड़ी संख्या में जैन धर्मावलम्बी व्यापार और वाणिज्य में सक्रिय हैं. हालांकि जैन धर्म को जनसामान्य में बौद्ध धर्म जितना समर्थन नहीं मिला. फिर भी यह उन क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाए रखने में सफल रहा जहां इसका प्रसार हुआ.

जैन धर्म की दो सभाएं

मगध में 12 वर्षीय अकाल के समय भद्रबाहू और उनके शिष्य कर्नाटक राज्य में श्रावणबेलगोला चले गए. अन्य जैन मुनि स्थूलबाहुभद्र के नेतृत्व में मगध में ही रह गए. पाटलीपुत्र में 300 ई० पू० के आस-पास जैन सभा का आयोजन का श्रेय स्थूलभद्र को ही दिया जाता है. इस सभा में महावीर स्वामी की पवित्रा शिक्षाओं को 12 अंगों में विभाजित किया गया.

दूसरी जैन सभा का आयोजन 512 ई० में गुजरात में वल्लभी नामक स्थान पर देवर्धिमणी क्षमा श्रमण की अध्यक्षता में किया गया. इसका मुख्य उदेश्य जैन शास्त्रों को एकत्रित कर इन्हें पुन: क्रम से संकलित करना था. किन्तु प्रथम सभा के संकलित बारहवां अंग इस समय खो गया था. शेष बचे हुए अंगो की अर्धमगधी में लिखा गया.

इन साहित्यों ने जैन धर्म का एकरूपता कायम रखने में काफी मदद की.

जैन धर्म का विभाजन (Division in Jainism)

भद्रबाहु के दक्षिण जाने के बाद उत्तर में स्थूलभद्र ने मुनियों का एक संघ बना कर नेतृत्व किया. लेकिन अकाल के दौरान उन्होंने आगम के अनुसार कठोर आचार-विचार को बनाए रखने में असफल रहे. इसके परिणामस्वरूप मुनियों ने वस्त्र, पात्र और अन्य सामग्री का उपयोग करना शुरू कर दिया. आचार्य स्थूलभद्र ने उन्हें अपने कुत्सित आचरण को छोड़कर सही आचार ग्रहण करने की सलाह दी, लेकिन वे पूर्व के शिष्टाचार को पुनः स्थापित करने में असफल रहे.

इसके विपरीत, दक्षिण के भिक्षु जैन धर्म के नियमों और आचरण का पालन करते रहे. जब दक्षिण का संघ वापस आया तो उन्होंने उत्तर के संघ में कई नए आचरण पाए. इस स्थिति के कारण जैन संघ दो भागों में बंट गया. एक संघ, जो मूल आगम के अनुसार आचार करता था, “मूल आम्नाय” कहलाया, जबकि दूसरा संघ, जो शिथिलाचारी साधुओं का था, “श्वेताम्बर संघ” के नाम से जाना गया.

प्रारंभ में, शिथिलाचारी साधुओं ने अपनी नग्नता छिपाने के लिए केवल एक खंड वस्त्र रखा, जिसे वे कलाई पर लटका लेते थे, और इसलिए उन्हें “अर्द्धफलक” कहा गया. समय के साथ, वस्त्र को कटि में बांधने और लंगोट पहनने की प्रथा विकसित हुई. फिर वस्त्रों के साथ अन्य उपकरणों का भी विधान किया गया.

इस प्रकार, वस्त्रधारी साधुओं को “श्वेताम्बर” और निर्वस्त्र साधुओं को “दिगंबर” कहा जाने लगा. दक्षिण संघ के अधकांश लोग दिगंबर पंथ में शामिल हुए जबकि उत्तर के अधिकाँश लोग श्वेताम्बर पंथ को अपना लिए. इस विभाजन का मुख्य कारण साधुओं के वस्त्र परिधान का था. जो लोग साधुओं की नग्नता के पक्ष में थे और महावीर के मूल आचारों को मानते थे, वे “दिगंबर” कहलाए, जबकि वस्त्र और पात्र का समर्थन करने वाले “श्वेताम्बर” के रूप में पहचाने गए.

श्वेताम्बर और दिगंबर में अंतर (Difference Between Shwetambar and Digambar)

इन दोनों विभक्त सम्प्रदायों में निम्न अंतर थे –

दिगंबरश्वेतांबर
दिगंबर का मतलब आसमान से ढका होता है. दिगंबर ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए नग्नता को पूर्ण शर्त के रूप में बल दिया.श्वेतांबर का अर्थ होता है श्वेत वस्त्र. श्वेतांबर का बचाव है कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए पूर्ण नग्नता की आवश्यकता नहीं है.
संप्रदाय जैनों का प्रतिनिधित्व करता है जो महावीर की मृत्यु के 200 साल बाद मगध में महान अकाल के समय भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण में स्थानांतरित हो गए थे.संप्रदाय जैनों का प्रतिनिधित्व करता है जो मगध में महान अकाल पड़ने पर स्थूलबाहु के नेतृत्व में वापस मगध में रहे.
दिगंबर संप्रदाय की परंपरा के अनुसार, ज्ञान प्राप्त करने में, एक सर्वज्ञ व्यक्ति को भूख, प्यास, नींद, रोग या भय का सामना नहीं करना पड़ता है.श्वेतांबर संप्रदाय की परंपरा के अनुसार, एक सर्वज्ञ या सर्वज्ञ व्यक्ति को भोजन की आवश्यकता होती है.
दिगंबर संप्रदाय का मानना है कि एक महिला के पास मुक्ति पाने के लिए आवश्यक शरीर और इच्छा शक्ति नहीं है और इस तरह की प्राप्ति के लिए उसे एक पुरुष के रूप में फिर से जन्म लेना होगा. 

इसलिए, जैन धर्म (Jainism in Hindi) का यह स्कूल 19वें तीर्थंकर को एक महिला के रूप में स्वीकार करने से इनकार करता है, बल्कि एक पुरुष के रूप में मल्लिनाथ को स्वीकार करता है.
श्वेतांबर संप्रदाय का मानना है कि एक महिला में पुरुषों के समान आध्यात्मिक सिद्धियां प्राप्त करने की क्षमता होती है. जैन धर्म (Jainism in Hindi) का यह मत 19वें तीर्थंकर को माली (एकमात्र महिला तीर्थंकर) नाम की महिला के रूप में स्वीकार करता है.
दिगंबर परंपरा का मानना है कि भगवान महावीर ने कभी शादी नहीं की और उन्होंने अपने माता-पिता के जीवित रहते हुए भी दुनिया को त्याग दिया.महावीर ने विवाह किया और 30 वर्ष की आयु तक एक गृहस्थ का सामान्य जीवन व्यतीत किया और वह अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद ही एक तपस्वी बन गए.
दिगंबर परंपरा एक तीर्थंकर की छवि को नग्न, सरल और ध्यान के मूड में नीची आंखों के साथ दर्शाती है.श्वेतांबर परंपरा एक तीर्थंकर की छवि का प्रतिनिधित्व करती है, जो एक लंगोटी पहने हुए, रत्नों से अलंकृत और संगमरमर में लगी कांच की आंखों के साथ है.
दिगंबर लोग जीवनी के लिए “पुराण” शब्द का प्रयोग करते हैं.श्वेतांबर इस उद्देश्य के लिए “चरित” शब्द का प्रयोग करते हैं.
दिगंबर संप्रदाय के एक तपस्वी को कपड़े सहित अपने सभी सामान को छोड़ देना चाहिए और राजोहरना (कीड़ों को दूर करने के लिए मोर पंख से बना झाड़ू) और कमंडल (शौचालय की स्वच्छता के लिए लकड़ी से बना पानी का बर्तन) रखने की अनुमति है.श्वेतांबर संप्रदाय के एक तपस्वी को एक लंगोटी, कंधे का कपड़ा आदि सहित चौदह संपत्ति रखने की अनुमति है.
दिगंबरों ने आचार्य शुतुलीभद्र के नेतृत्व में प्रथम परिषद की उपलब्धियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और अंगो के पुनर्लेखन को स्वीकार कर लिया.श्वेतांबर 12 अंग और सूत्र वाले विहित साहित्य की वैधता और पवित्रता में विश्वास करते थे.
श्वेताम्बर और दिगंबर में अंतर

श्वेताम्बर सम्प्रदाय के शाखाएं

जैन धर्म समय के साथ कई शाखाओं में विभक्त हो गया. इसी क्रम में श्वेताम्बर समूह तीन अन्य शाखाओं में विभक्त हो गया. ये थे, चैत्यवासी या मूर्तिपूजक, स्थानक वासी और तेरापंथी संप्रदाय.

1. चैत्यवासी सम्प्रदाय

जैन धर्म का चैत्यवासी सम्प्रदाय लगभग संवत् 850 में स्थापित हुआ. इस सम्प्रदाय के कुछ शिथिलाचारी मुनियों ने विहार को छोड़कर मंदिरों में रहना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे इनकीसंख्या बढ़ने लगी. ये मुनि शास्त्र संग्रह के लिए धन भी रखने लगे. इस धन के उपयोग से इन्होंने निगम नामक शास्त्रों की रचना की.

हरिचन्द्र सूरी ने अपने ग्रंथ “प्रबोध प्रसंकरण” में इन चैत्यवासी साधुओं की आलोचना की है. समय-समय पर चैत्यवासी और अन्य साधुओं के बीच शास्त्रार्थ एवं विवादों के उल्लेख मिलते हैं. चैत्यवासी साधु 45 आगमों को स्वीकार करते हैं. श्वेताम्बरों में “जाति” या “श्री पूज्य” कहलाने वाले लोग मठवासी या चैत्यवासी शाखा के अंग हैं, जबकि “संवेगी मुनि” वनवासी शाखा के सदस्य माने जाते हैं.

2. स्थानक वासी सम्प्रदाय

स्थानक वासी सम्प्रदाय की स्थापना पंद्रहवीं शताब्दी में अहमदाबाद के मुनि ज्ञान श्री के शिष्य लोकाशाह द्वारा की गई थी. इस सम्प्रदाय के अनुयायियों ने मूर्ति पूजा और साधु समाज में प्रचलित आचार-विचार को आगम के खिलाफ मानकर इसका विरोध किया. उन्होंने इसे “लोकागच्छ” का नाम दिया.

इस दर्शन को मानने वाले सभी अनुयायी लोकागच्छ सम्प्रदाय में सम्मिलित हो गए. वे अपने धार्मिक क्रियाकर्म मंदिरों में करने के बजाय अपने गुरु के निवास स्थान पर करते थे. इसलिए इन्हें स्थानकवासी कहा गया. इस सम्प्रदाय को साधुमार्गी सम्प्रदाय भी कहते हैं. स्थानकवासी साधु श्वेत वस्त्र पहनते हैं और मुख पर पट्टी बांधते हैं. इस सम्प्रदाय में 32 आगमों की मान्यता है.

3. तेरापंथी संप्रदाय

समय के साथ स्थानक सम्प्रदाय में शिथिलता आने लगा. इसके परिणामस्वरूप भिक्षुओं के प्रति श्रद्धा में कमी आने लगी. इसलिए कुछ जैन सन्यासियों ने विक्रम संवत् 1817 के चैत्र शुक्ल नवमी को एक पृथक संघ की स्थापना की. इसके संस्थापक आचार्य “भिक्षु” थे, जिनका जन्म 1783 में कटालियाँ, जोधपुर में हुआ था. संघ के स्थापना के समय उनके साथ तेरह साधु और तेरह श्रावक थे, जिसके आधार पर इस सम्प्रदाय का नाम “तेरापंथ” पड़ा. इस प्रकार तेरापंथी संप्रदाय का उदय हुआ.

इस सम्प्रदाय में भी 32 आगमों का उल्लेख किया गया है. इसमें केवल एक ही आचार्य होते हैं. इनका निर्णय अंतिम रूप में स्वीकार किया जाता है और सर्वमान्य होता है.

दिगंबर परम्परा के सम्प्रदाय

इस सम्प्रदाय में मूलतः चार सम्प्रदाय थे:

1. मूल या मुला संघ

ये जैन धर्म के उन अनुयायियों का वह समूह है जो महावीर स्वामी द्वारा स्थापित आचारों और शिक्षाओं का पालन करते हैं. यह संघ उस समय बना जब जैन समुदाय में विभिन्न आचारों और परंपराओं के पालन में भिन्नता आ गई थी. जैसा कि नाम से ज्ञात होता है, यह महावीर के समय से चली आ रही परम्पराओं, शिक्षाओं और आचारों को मानने वाले सन्यासियों का समूह था.

2. तेरह पंथ और 3. बीस पंथ

आरम्भ में दिगंबर परंपरा के लोग वनों में निवास कर मूल पंथ को मानते रहे. लेकिन कालान्तर में ये भी शहरी जीवन के तरफ आकृष्ट होने लगे और जैन मठों में रहने लगे. लेकिन ये दिगम्बर भट्टारक नग्न रूप को पूज्य मानते थे और दिगम्बर मूर्तियों का ही निर्माण कराते थे. साथ ही दिगम्बर मुद्रा भी धारण करते थे. ये मठाधीश बनकर रहते थे तथा वहीं से तीर्थों एवं मठों की समस्त गतिविधियों का संचालन करते थे.

भट्टारक युग में ही दिगम्बर संप्रदाय में एक नया पंथ विकसित हुआ जिसे तेरह पंथ कहा गया. इसका उदय विक्रम की सत्रहवीं सदी में पं. बनारसी दास जी द्वारा आगरा में हुआ. जब तेरह पंथ का नाम प्रचलित हुआ, तब भट्टारकों का पुराना पंथ बीस पंथ कहलाने लगा.

नामकरण का कारण:

पं. जगमोहन लाल जी के अनुसार, उस समय देश में भट्टारक की बीस प्रमुख गद्दियाँ थीं. ये गद्दियाँ अपने-अपने गुरुओं का अनुसरण करने वाले अनुयायियों को बीस पंथी कहलाने लगीं. वहीं, जो तेरह प्रकार के चरित्र का पालन करने वाले शुद्धचारी मुनियों के उपासक थे, उन्हें तेरहपंथी कहा गया.

अंतर:

सिवाय पूजा पद्धति के ‘तेरह पंथ और बीस पंथ’ के बीच कोई बड़ा भेद नहीं है. बीस पंथी भगवान की पूजा में हरे फल-फूल आदि, जबकि तेरह पंथी सूखे पदार्थ, जैसे चावल आदि, चढ़ाते हैं. यह पंथ मुख्य रूप से उत्तर भारत में विकसित हुआ.

4. तारण पंथ

इस पंथ का उदय मुस्लिम आक्रान्ताओं के आक्रमण के समय हुआ. इस आक्रमण के दौर में जैन मूर्तिकला और स्थापत्य को भारी क्षति पहुँची. इसी समय एक व्यक्ति, तारण तरण, संत तारण स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुआ. यह पंथ मूर्तिपूजा के विरोध में स्थापित हुआ और संत तारण तरण के योगदान के कारण इसे तारण तरण पंथ के नाम से जाना गया.

विशेषताएँ:

  • संत तारण तरण ने चौदह ग्रंथों की रचना की. उनके अनुयायी मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते.
  • वे अपने चौत्यालयों में शास्त्रों की पूजा करते हैं, जिसमें संत तारण तरण द्वारा रचित ग्रंथों के साथ-साथ दिगम्बर जैनाचार्यों के ग्रंथों को भी मान्यता प्राप्त है.
  • दिगम्बर मुनियों को वे अपने आदर्श गुरु मानते हैं.

प्रसार

संत तारण तरण का प्रभाव मुख्य रूप से मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों तक सीमित रहा है. दिगम्बर पंथों में विभिन्नता होने के बावजूद इनमें कोई विद्वेष नहीं है. सभी आपस में घुले-मिले हैं. उनकी आचार परंपरा भी लगभग समान है. सभी दिगम्बर प्रतिमाओं तथा तीर्थों को आदर्श मानते हैं.

दिगंबर जैन समुदाय के दो लघु उप-संप्रदाय के नाम गुमानपंथ और तोतापंथ है. इनके प्रमुख स्थल मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, और गुजरात में स्थित हैं.

जैन धर्म के दर्शन, शिक्षाएं और ज्ञान

जैन धर्म में 18 पाप (वर्जित कार्य) बताए गए हैं. ये है- हिंसा, झूठ, चोरी, असंयमित कुशील (मैथुन), परिग्रह (अकारण धन संचय और इसके प्रति मोह), क्रोध, मान (घमंड), माया (कपटपूर्ण आचरण), लोभ, मोह (राग), द्वेष, कलह, दोषारोपड़, चुगली, मनोज्ञ वस्तु पर प्रसन्न होना और अमनोज्ञ वस्तु पर नाराज होना, पर – परिपाद (निंदा करना), कपट सहित झूठ बोलना और मिथ्या दर्शन (असाधु को साधु समझना, कुदेव, कुगुरु कुधर्म पर श्रद्धा रखना).

इन पापों से बचने और मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने के लिए त्रिरत्न सिद्धांत का पालन जरुरी बताया गया है.

जैन धर्म का त्रिरत्न सिद्धांत (Three Jewels of Jainism)

  • सत्य विश्वास – स्वयं और जैन तीर्थंकरों पर सच्चा विश्वास होना चाहिए.
  • सत्य ज्ञान – ज्ञान सत्य की खोज पर आधारित होना चाहिए, न कि मिथ्या पर.
  • सत्य कर्म – कर्म महाव्रतों पर आधारित होने चाहिए; वह किसी के लिए ऐसा कुछ न करे जो वह स्वयं के लिए नहीं चाहता.

जैन दर्शन में मोक्ष को सर्वोच्च सुख माना गया है, और इन त्रिरत्नों का पालन मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है.

जैन धर्म के पांच महाव्रत या अणुवृत

जैन दर्शन के अनुसार, संसार में दुःख ही दुःख है और शाश्वत सुख केवल मोक्ष में है. इसे पाने के लिए मुनि अवस्था को धारण करना आवश्यक है. जैन धर्म में मुनियों के लिए अट्ठाईस मूल गुणों का वर्णन किया गया है, जिनमें से पांच महाव्रत महत्वपूर्ण हैं. यदि इनमें से एक भी गुण का पालन नहीं किया जाता है, तो उस व्यक्ति को मुनि नहीं माना जा सकता.

ये पांच महाव्रत है:

  1. अहिंसा: यह जैन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो मन, वचन और कर्म से संबंधित है. जैन धर्म में सभी जीवन को समान माना गया है. इस सिद्धांत के अनुसार किसी जीव को हानि पहुँचाने का विचार भी हिंसा है.
  2. अमृषा (सत्य वचन): मनुष्य के वचन सदैव सत्य और मधुर होने चाहिए. सत्य बोलने से आत्मा शुद्ध होती है. क्रोध या मोह की स्थिति में मौन रहना चाहिए.
  3. अस्तेयेय (चोरी न करना): चोरी करना पाप है और असत्य भी. बिना अनुमति के किसी की वस्तुएँ लेना अनुचित है. इससे मोह-माया बढ़ता है, और यह हिंसा के समान है.
  4. अपरिग्रह (संग्रह न करना): जैन धर्म भौतिक वस्तुओं का त्याग और संपत्ति का संग्रह न करने पर बल देता है.
  5. ब्रह्मचर्य: जैन धर्म में संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करना और भोग-वासनाओं से दूर रहना आवश्यक है.

ये महाव्रत जैन धर्म के अनुयायियों को एक संयमित और सिद्धांतों पर आधारित जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं.

जैन धर्म के सात शील व्रत

सात शील (शील) व्रत-जैन धर्म में सात शील व्रतों का उल्लेख है. ये शील व्रत इस प्रकार हैं-

  1. दिग्व्रत- अपनी क्रियाओं को विशेष परिस्थिति में नियंत्रित रखना.
  2. देशव्रत- अपने कार्य कुछ विशिष्ट प्रदेशों तक सीमित रखना.
  3. अनर्थ दण्ड व्रत- बिना कारण अपराध न करना.
  4. सामयिक- चिन्तन के लिए कुछ समय निश्चित करना.
  5. प्रोषधोपवास- मानसिक एवं कायिक शुद्धि के लिए उपवास करना.
  6. उपभोग-प्रतिभोग परिणाम- जीवन में प्रतिदिन काम में आने वाली वस्तुओं व पदार्थों को नियंत्रित करना.
  7. अतिथि संविभाग- अतिथि को भोजन कराने के उपरान्त भोजन करना.

दस लक्षण

जैन धर्म में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं. ये इस प्रकार हैं-

  1. उत्तम क्रमा अर्थात् क्रोधहीनता.
  2. उत्तम मार्दव अर्थात् अहंकार का अभाव.
  3. उत्तम मार्जव अर्थात् सरलता एवं कुटिलता का अभाव.
  4. उत्तम सोच अर्थात् सांसारिक बंधनों से आत्मा को परे रखने की सोच.
  5. उत्तम सत्य अर्थात् सत्य से गम्भीर अनुरक्ति.
  6. उत्तम संयम अर्थात् सदा संयमित जीवन यापन.
  7. उत्तम तप अर्थात् जीव को अजीव से मुक्त करने के लिए कठोर तयश्चर्या.
  8. उत्तम अकिचन अर्थात् आत्मा के स्वाभाविक गुणों में आस्था.
  9. उत्तम ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य व्रत का कड़ाई से अनुपालन.
  10. उत्तम त्याग अर्थात् त्याग की भावना को सर्वोपरि रखना.

जैन धर्म में ईश्वर की अवधारणा

जैन धर्म के अनुसार ब्रह्मांड और उसमें मौजूद सभी पदार्थ या संस्थाएँ शाश्वत हैं. समय के संदर्भ में इसका न तो कोई आरंभ है और न ही अंत. ब्रह्मांड अपने भीतर के नियमों के अनुसार संचालित होता है. सभी पदार्थ निरंतर अपने रूपों को बदलते रहते हैं. ब्रह्मांड में कुछ भी नष्ट या निर्मित नहीं किया जा सकता है.

जैन धर्म कहता है कि ब्रह्मांड के कार्यों को संचालित करने के लिए किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है. इसलिए, जैन धर्म में ईश्वर को ब्रह्मांड के निर्माता, उत्तरजीवी, या संहारक के रूप में नहीं देखा जाता. जैन धर्म ईश्वर को एक पूर्ण प्राणी के रूप में मानता है, न कि एक सृजनकर्ता के रूप में.

जब कोई व्यक्ति अपने सभी कर्मों को नष्ट कर लेता है, तो वह एक मुक्त आत्मा में परिवर्तित हो जाता है. आत्मा मोक्ष की स्थिति में स्थायी रूप से आनंदित रहता है. एक मुक्त आत्मा में अनंत ज्ञान, अनंत दृष्टि, अनंत शक्ति, और अनंत आनंद होता है; और यही जीव जैन धर्म का देवता है.

हर जीव में ईश्वर बनने की क्षमता होती है. इसलिए, जैन धर्म में एक ही ईश्वर नहीं है; बल्कि, जैन देवताओं की संख्या असंख्य है और यह लगातार बढ़ रही है क्योंकि अधिक जीव मुक्ति प्राप्त कर रहे हैं.

जैन धर्म के सिद्धांत

1. अनेकांतवाद

जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसका अर्थ है किसी वस्तु के पूर्ण स्वरूप को समझने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों का उपयोग करना. यह मानता है कि प्रत्येक वस्तु के अनंत गुण होते हैं और उन्हें विभिन्न नजरियों से देखा जा सकता है.

हर व्यक्ति वस्तु के कुछ गुणों को ही पहचानता है, जिससे सत्य का एक ही दृष्टिकोण नहीं होता. इस सिद्धांत के अनुसार, वस्तुओं की प्रकृति लगातार बदलती रहती है, और हर वस्तु के विभिन्न पहलू सत्य हैं.

इस सिद्धांत में किसी भी वस्तु के तीन पहलु बताए गए है: द्रव्य, गुण, और पर्याय। द्रव्य विभिन्न गुणों का आधार होता है. ये गुण निरंतर परिवर्तनशील होते हैं. इसलिए, किसी भी इकाई में स्थायी और परिवर्तनशील दोनों प्रकार की प्रकृति मौजूद होती है.

2. स्यादवाद

वर्धमान महावीर का दर्शन में प्रमुख योगदान ‘स्यादवाद का सिद्धांत‘ है. इसका मतलब है कि हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष होता है. इसलिए हमें अपने ज्ञान को निरपेक्ष सत्य मानने की बजाय इसे एक सीमित दृष्टिकोण के रूप में स्वीकार करना चाहिए.

स्यादवाद का मूल अर्थ “संभवतः” या “सापेक्षतः” है. यह बताता है कि हम जिस भी विषय को समझते हैं, उसके बारे में हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य नहीं हो सकता. इस सिद्धांत को समझाने के लिए एक कथा का उपयोग होता है, जिसमें छह अंधे एक हाथी के अलग-अलग हिस्सों को छूकर उसे अपनी समझ से अलग-अलग परिभाषित करते हैं. यह बताता है कि सीमित ज्ञान के आधार पर संपूर्ण सत्य का दावा करना गलत है.

आज के समय में स्यादवाद का सिद्धांत सांप्रदायिकता, जातिवाद, आतंकवाद आदि समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकता है. जब हम यह मानेंगे कि हमारा दृष्टिकोण केवल एक संभावना है, तब हम दूसरों की बातों को भी समझने का प्रयास करेंगे. यह सिद्धांत संवाद और सहिष्णुता को बढ़ावा देता है.

यह सभी के विचारों को सिमित सत्य बताता है. इसी अवधारणा के तहत विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं के बीच समन्वय संभव हो सकता है. इस प्रकार, स्यादवाद दुनिया में शांति और सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त करने का सिद्धांत है.

अनेकांतवाद और स्यादवाद के बीच मुख्य अंतर

अनेकांतवाद बहुआयामिता और विभिन्न दृष्टिकोणों के सह-अस्तित्व पर बल देता है. यह बताता है कि कोई भी सत्य एक से अधिक तरीकों से देखा जा सकता है. वहीं, स्यादवाद सापेक्षता की भाषा है. यह हमें अपने दृष्टिकोण को सीमित और सापेक्ष रूप में व्यक्त करना सिखाता है, जिससे यह दूसरों के लिए भी स्वीकार्य हो.

सारांश में, अनेकांतवाद वास्तविकता की बहुआयामिता को स्वीकार करता है, जबकि स्यादवाद उस बहुआयामिता को स्वीकारने की विधि और विनम्रता का मार्ग सुझाता है.

जैन धर्म और बौद्ध धर्म किस प्रकार से भिन्न है?

जैन धर्म और बौद्ध धर्म में कई महत्वपूर्ण अंतर हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

  1. ईश्वर का अस्तित्व: जैन धर्म में देवताओं का अस्तित्व स्वीकारा जाता है, जबकि बौद्ध धर्म में ईश्वर के अस्तित्व को नहीं माना जाता.
  2. वर्ण व्यवस्था: जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था की आलोचना नहीं की जाती, जबकि बौद्ध धर्म इसका विरोध करता है.
  3. आत्मा और पुनर्जन्म: जैन धर्म में आत्मा के अस्तित्व और पुनर्जन्म को स्वीकारा जाता है, जबकि बौद्ध धर्म में आत्मा की निरंतरता की अवधारणा नहीं है.
  4. धर्म का आखिरी लक्ष्य: जैन धर्म के सिद्धांतों का आखिरी लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, किन्तु बौद्ध धम्म अपने शिक्षाओं का आखिरी लक्ष्य महापरिनिर्वाण को मानता है.
  5. मोक्ष का मार्ग: जैन धर्म मोक्ष के लिए कठोर तप का समर्थन करता है, जबकि बौद्ध धर्म महापरिनिर्वाण के लिए मध्यम मार्ग अपनाने पर बल देता है.
  6. तप और आत्मा की अवधारणा: जैन धर्म में कठोर तप और शाश्वत आत्मा में विश्वास है, जबकि बौद्ध धर्म कठोर तप का विरोध करता है और शाश्वत आत्मा की अवधारणा पर बल नहीं देता.
  7. आयु: जैन और बौद्ध मतावलम्बी अपने 24 उपदेशक होने का दावा करते है. लेकिन आधुनिक विद्वान् इस बात पर एकमत है कि जैन धर्म वास्तव में बौद्ध धर्म से पुराना है. माना जाता है कि जैन धर्म की उत्पत्ति छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हुई थी.

जैन साहित्य (Jain Literatures)

जैन साहित्य को दो प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है:

1. आगम साहित्य (Agam Literature)

यह भगवान महावीर की शिक्षाओं का संग्रह है, जिसे उनके अनुयायियों ने विभिन्न ग्रंथों में संकलित किया. इसे जैन धर्म का पवित्र ग्रंथ माना जाता है. आगम साहित्य को दो समूहों में विभाजित किया गया है:

  • अंग-अगम: ये वे ग्रंथ हैं जिनमें भगवान महावीर के प्रत्यक्ष उपदेश शामिल हैं, जिन्हें उनके तत्काल शिष्य गणधर ने संकलित किया था. गणधर के पास संपूर्ण ज्ञान था और उन्होंने महावीर के उपदेशों को बारह मुख्य ग्रंथों में संकलित किया.
  • अंग-बह्य-आगम: ये अंग-अगम के विस्तार वाले ग्रंथ हैं, जिन्हें श्रुतकेवलिन ने लिखा. श्रुतकेवलिन वे तपस्वी थे जिनके पास कम से कम दस पूर्वाओं का ज्ञान था. उन्होंने अंग-अगम में दिए गए विषय का विस्तार करते हुए कई ग्रंथों की रचना की. बारहवें अंग-अगम को द्रस्तिवद कहा जाता है. इनमें चौदह पूर्व ग्रंथ शामिल हैं, जिन्हें पूर्वागम कहा जाता है. सभी अंग-अगम प्राकृत भाषा में लिखे गए थे.

2. गैर-आगम साहित्य (Non-agam Literature)

  • इसमें आगम साहित्य की टिप्पणियां और व्याख्याएं शामिल हैं, जो बड़े भिक्षुओं, भिक्षुणियों और विद्वानों द्वारा संकलित की गई हैं.
  • ये विभिन्न भाषाओं में लिखे गए हैं, जैसे प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिंदी, जर्मन, और अंग्रेजी आदि.

इस प्रकार, जैन साहित्य की समृद्धि और विविधता जैन धर्म को एक महत्वपूर्ण धार्मिक और दार्शनिक स्रोत बनाती है.

जैन वास्तुकला (Jain Architecture)

जैन वास्तुकला की अपनी कोई शैली नहीं है, बल्कि यह हिंदू और बौद्ध शैलियों की एक मिश्रित शाखा थी. जैन वास्तुकला के विभिन्न प्रकार नीचे दिए गए हैं.

गुम्फा / लयाना (गुफाएं) (Gumphas / Layana (Caves)

  • एलोरा गुफाएं- महाराष्ट्र
  • मांगी तुंगी गुफा- महाराष्ट्र
  • गजपंथा गुफा- महाराष्ट्र
  • उदयगिरि-खंडगिरी गुफाएं- उड़ीसा
  • हाथी-गुम्फा गुफा- उड़ीसा
  • सिट्टानवासल गुफा- तमिलनाडु

मूर्तियां (Statues)

  • श्रवणबेलगोला, कर्नाटक में गोमतेश्वर/बाहुबली की मूर्ति
  • महाराष्ट्र के मांगी-तुंगी पहाड़ियों में अहिंसा (ऋषभनाथ) की मूर्ति

जिनालयस (Jinalayas)

  • माउंट आबू, राजस्थान में दिलवाड़ा जैन मंदिर
  • गुजरात में गिरनार और पलिताना मंदिर
  • महाराष्ट्र में मुक्तागिरी मंदिर

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