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रॉबर्ट क्लाइव: एक क्लर्क जिसने भारत में ब्रिटिशराज स्थापित किया

    ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में कई ब्रिटिश भारत काम करने आए थे. इन्हीं में एक रॉबर्ट क्लाइव थे, जिन्हें कलकत्ता में एक राइटर (क्लर्क) के तौर पर काम करने के लिए भेजा गया. मिस्टर क्लाइव को हथियार चलाने का अधिकार भी दिया गया था.

    जून 1744 में रॉबर्ट क्लाइव भारत पहुंचे थे. लेकिन, 19 वर्षीय रॉबर्ट क्लाइव कलकत्ता में नहीं, बल्कि कंपनी की सबसे पुरानी बस्ती, फोर्ट सेंट जॉर्ज, जो आधुनिक चेन्नई में स्तिथ हैं, पहुँच गए. यहां उन्होंने अगले दो साल बिताए.

    वे एक ऊँचे डेस्क पर कंपनी के खातों के साथ व्यापारियों के साथ बातचीत करने में मशगूल रहते थे. बोरियत से राहत पाने के लिए वे खाली समय गवर्नर की लाइब्रेरी में बिताया करते थे. शायद उनकी कोशिश अपने युवावस्था में न पढ़ पाने की कमी को दूर करना था.

    क्लाइव उस समय भारत में आये, जब मुग़ल साम्राज्य कमजोर पड़ रहा था. फ़्रांस और ब्रिटेन इस ‘डूबता जहाज’ को अपने कब्जे में करने के लिए संघर्ष कर रहे थे.

    छह शक्तिशाली मुगल सम्राटों में से एक औरंगजेब ने अपना अधिकांश जीवन डेक्कन और दक्षिणी भारत में अभियान पर बिताया था. एक सख्त मुसलमान, उसकी धार्मिक नीतियों ने उसके साम्राज्य के लोगों को विभाजित कर दिया था. यह साम्राज्य 1707 में उसकी मृत्यु के बाद ढहा शुरू हो गया था.

    इस बीच 1739 में फारस के शासक नादिर शाह ने भारत पर आक्रमण कर दिल्ली को तहस-नहस कर दिया. वह सम्राट शाह के लिए बनाए गए शानदार मोर सिंहासन को अपने साथ ले गया.

    रॉबर्ट क्लाइव के समय तक मुगल सम्राटों का उत्तर बंगाल और दक्षिण में काफी हद तक मुगलों का नियंत्रण था. उदाहरण के लिए, अपने जागीरदारों के माध्यम से, दक्षिण में हैदराबाद के निज़ाम जैसे शासकों पर उनका राज अभी भी सैद्धांतिक रूप से कायम था. लेकिन मुगलों के कमजोर होते ताकतों ने स्थानीय शासकों को केंद्रीय सत्ता को चुनौती देने के लिए प्रोत्साहित किया. इस एक युगांतकारी परिघटना ने यूरोपीय देशों, विशेष रूप से ब्रिटेन और फ्रांस, के लिए लाभ प्राप्त करने की संभावनाएं प्रदान की.

    जब हुआ रॉबर्ट क्लाइव का भाग्योदय (Rise of Fortune of Robert Clive in Hindi)

    क्लाइव को अवसरों को अपने और अपनी कंपनी के लिए उपयोग करने के लिए जाना जाता हैं. हालांकि, कंपनी के एक छोटे कर्मचारी के रूप में, क्लाइव को अपने पल का इंतजार करना पड़ा. उनका अवसर प्रथम कर्नाटक युद्ध के फैलने के साथ आया. इस समय ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार के यूरोपीय युद्ध के भारतीय उपमहाद्वीप में विस्तार हुआ, जिसमें ब्रिटेन और फ्रांस ने भारत में अपने देशों के प्रतिनिधियों का जमकर समर्थन किया.

    यूरोप के उत्तराधिकार का लड़ाई भारत में भी छिड़ गया था और सितंबर 1746 में, फ्रांसीसी सैनिकों ने मद्रास पर कब्जा कर लिया. इस दौरान रॉबर्ट क्लाइव को कैदी बना लिया गया. हालांकि, वह कुड्डालोर में इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी के फोर्ट सेंट डेविड से दक्षिण में भाग गए, जहां उन्होंने कंपनी सेना में भर्ती कराया और किले की रक्षा में एक उल्लेखनीय भूमिका निभाई.

    इस प्रकार एक बार परेशान युवक के लिए फ़्रांस और इंग्लैंड की लड़ाई वरदान साबित हो गई और उसकी तेजी से वृद्धि शुरू हुई. लेकिन अत्यधिक महत्वाकांक्षा का सीधा सा मतलब था कि सहकर्मियों के साथ तनाव!

    ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कहा- सवर्ग का योद्धा

    1751 में, चाँद नवाब साहब की संख्यात्मक रूप से श्रेष्ठ और काफी मजबूत ताकतों के खिलाफ क्लाइव ने जीत हासिल की और अर्कोट की रक्षा करने में सफल रहे. इस दौरान चाँद नवाब के बड़ी संख्या में सम्पतियाँ और सैनिक रॉबर्ट क्लाइव के हाथ आ गए. इससे प्रभावित हो ब्रिटिश प्रधान मंत्री विलियम पिट ने रॉबर्ट क्लाइव को “स्वर्ग में जन्मे सेनानायक” के उपाधि से नवाजा. इसके तुरंत बाद, रॉबर्ट क्लाइव ने शादी कर ली और इंग्लैंड लौट आये. हालाँकि, 1755 तक वह फोर्ट सेंट डेविड के डिप्टी गवर्नर के रूप में भारत वापस आ गए थे. जल्द ही उनका ध्यान उपजाऊ बंगाल में कंपनी की गतिविधियों की ओर मुड़ गया.

    सिराज-उद-दौला के साथ संघर्ष: नए क्लाइव का जन्म

    1756 में, 23 वर्षीय मिर्जा मुहम्मद सिराज-उद-दौला (सिराजुद्दौला) को अपने दादा के बाद बंगाल के नवाब के रूप में उत्तराधिकारी बनाया गया. कंपनी की महत्वाकांक्षाओं के बारे में उन्हें पूर्वाभास था. अपने अपने पूर्वजों के मुकाबले कम सहिष्णु थे. उन्होंने कलकत्ता पर हमला किया और उसे जब्त कर लिया. गवर्नर ड्रेक और ब्रिटिश अधिकारी फाल्टा में नदी के नीचे से मुख्य रूप से भाग गए.

    कई यूरोपीय लोगों को “ब्लैक होल” में उतारा गया था. यह कंपनी के फोर्ट विलियम के पूर्ववर्ती मुख्यालय में एक छोटा, वायुहीन कक्ष था, जहाँ सबकुछ ख़राब थे. कैदियों और मरने वालों की संख्या दोनों ही बहुत विवादित हैं. हालाँकि कहा जाता हैं कि 200 से अधिक लोगों ने इस चैम्बर में अपनी जान गवाएं थे. चैम्बर में बंद काफी कम संख्या में लोग ही जीवित बच पाए थे.

    इस लड़ाई के बात कंपनी को काफी अधिक आर्थिक और सैन्य क्षति हुई थी. फ्रेंच भी सिराज-उद-दौला का समर्थन कर रहे थे. इस लड़ाई में फ्रेंच बस्तियों को काफी कम नुकसान हुए थे. हालाँकि कंपनी फिर से कलकत्ता पर कब्ज़ा कर अपना शहर बसाने को दृढ संकल्प था. कंपनी ये जानता था कि रॉबर्ट क्लाइव एक झगड़ालू प्रवृत्ति का इंसान हैं. इसके बावजूद भी कम्पनी ने उसे कलकत्ता फतह करने के लिए बागडोर दे दी.

    2 जनवरी, 1757 को साधारण सैनिकों के नेतृत्व और सरासर दृढ़ संकल्प के कारण, एक चतुर योजना बनाकर रॉबर्ट क्लाइव ने कलकत्ता को एक बार फिर से बंगाल के नवाब से छीनने में सफलता पाई. उन्होंने कुछ हफ़्ते बाद इस सफलता का अनुसरण किया, जब उनके कुछ सैनिकों ने एडमिरल वॉटसन के नौसैनिक जहाजों द्वारा हुगली नदी को पार किया और नदी के किनारे कुछ अधिकारीयों ने खुद की कमान संभाली. उन्होंने चंद्रनगर में स्तिथ फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की बस्ती पर कब्जा कर लिया. इस तरह बंगाल में फ्रांसीसी महत्वाकांक्षाएँ हमेशा के लिए ध्वस्त हो गई.

    जिस लड़ाई के साथ रॉबर्ट क्लाइव का नाम सीधे तौर से जुड़ा था. वह लड़ाई करीब तीन महीने बाद 23 जून, 1757 को लड़ी गई थी. इस वंय 2,000 भारतीय सैनिकों और 800 यूरोपीय पैदल सेना और तोपखाने के साथ कम्पनी ने सिराज-उद-दौला की 50,000 की सेना को प्लासी में आम के बगीचे के पास पराजित कर दिया.

    हालाँकि रॉबर्ट क्लाइव की यह जीत सैन्य ताकतों से कम, मानसिक ताकतों के कारण अधिक हुई. उनकी जीत के कारण, नवाब के तीनों सेनापति मीर जाफर, लुत्फ खान और राय दुरलभ की विश्वासघात थी. सभी को भारी मात्रा में अंग्रेजो द्वारा रिश्वत दी गई थी. इसलिए इस जीत में अंग्रेजों की कुशलता कम और भारतियों की धोखाधड़ी अधिक शामिल थी. हालाँकि अंग्रेज रिश्वत के बदले नवाब के विश्वस्तों को अपनी तरफ मिला पाए थे. यह भी उनकी एक बड़ी कामयाबी थी.

    इस युद्ध में जीत ने रॉबर्ट क्लाइव को व्यक्तिगत रूप से काफी अधिक फायदा पहुंचाई. इस जीत के बाद उसने शक्ति, गुणगान और धन को प्राप्त किया, जिसके लिए वह सैलून से लालायित थे. मीर जाफर को रॉबर्ट क्लाइव ने सिराज-उद-दौला के खिलाफ जीत होने पर बंगाल के सिंहासन का वादा किया था. जीत के बाद उसे नवाब बनाकर उसे पुरस्कृत किया गया था.

    मीर जाफर और रॉबर्ट क्लाइव की दोस्ती यही नहीं रुकी. क्लाइव ने मुग़ल सम्राट के बेटे द्वारा मीर जाफ़र के राज्य पर किए गए हमले से बचाव का नेतृत्व किया. इसके बदले में मीर जाफ़र ने उसे व्यक्तिगत भूमि अनुदान सहित अन्य कई बड़े उपहारों के साथ उसे पुरस्कृत किया.

    रॉबर्ट क्लाइव की आभारी कंपनी ने बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी प्रेसीडेंसी के लिए क्लाइव को पहला गवर्नर नियुक्त किया. रॉबर्ट क्लाइव का गवर्नर के रूप में प्रथम कार्यकाल 1757 से 1760 तक रहा. इसके बाद क्लाइव ने वकालत करना शुरू किया कि कंपनी को व्यापार के साथ-साथ क्षेत्र पर भी नियंत्रण रखना चाहिए. उसी समय, उन्होंने कंपनी के कई अधिकारियों और सेना के अधिकारियों के साथ झगड़ा किया. रॉबर्ट क्लाइव ने समान रूप से चिड़चिड़े और सफल ब्रिटिश सेना अधिकारी, मेजर आइरे कोटे जैसे लोगों को भी अपना दुश्मन बना लिया था.

    आखिरी समय में अतिसक्रिय

    1760 में ब्रिटेन लौटकर, क्लाइव को मीर जाफ़र से प्राप्त भूमि के अनुदान का बचाव करने के लिए मजबूर होना पड़ा. यह कंपनी के हित के खिलाफ था. कम्पनी का मानना था कि य भूमि व्यक्तिगत रूप से उसके बजाय कंपनी के पास जाना चाहिए था. हालाँकि, रॉबर्ट क्लाइव ने इन दावों की धज्जियाँ उड़ा दीं. अस्पष्ट तंत्रिका संबंधी बीमारियों और दर्द के कारण वे संसद के सदस्य बन गए.

    इसके बाद, उन्होंने कंपनी और संसद को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह अपने अधिकारियों के स्थानीय शासकों से गिफ्ट लेने के भ्रष्टाचार से मुलत करना चाहता हैं. यह विडंबना हैं कि जब क्लाइव भारत में था तो उसने भी स्थानीय शासकों से जमकर धन ऐंठे थे. इसके बाद एक बार फिर से 1765 में क्लाइव बंगाल की धरती पर था.

    कलकत्ता वापसी के बाद क्लाइव की कार्रवाइयों ने बंगाल की वास्तविक नियंत्रण कंपनी के हाथों में लाए दिया और उसने राजस्व को बढ़ाया. अपने कथित भ्रष्टाचार रोधी प्रगिया के बावजूद, उन पर आरोप लगाया गया था कि वे आज के समय में की जानेवाली “इनसाइडर स्टॉक ट्रेडिंग” करते हैं.

    रॉबर्ट क्लाइव का दुसरा शासनकाल 1765 से 67 तक रहा. इस दौरान उसने बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना की. इस प्रशानिक व्यवस्था के अंतर्गत कर वसूलने का अधिकार कंपनी को था, लेकिन शासन चलाने का नवाब को दे दिया गया. राजस्व के अभाव में नवाब कुछ न कर सका और कालांतर में इस व्यवस्था ने बंगाल को भयानक सूखा और अकाल की चपेट में ले लिया.

    क्लाइव 1767 में ब्रिटेन लौट आया. उनका अनुमान था कि 4,00,000 पाउंड स्टर्लिंग, एक विशाल राशि है. हालाँकि, जल्द ही कंपनी की गतिविधियों में उनके चरित्र और भूमिका पर विवाद के कारण संसदीय जाँच हुई. क्लाइव ने अपने शेष जीवन का अधिकांश समय खुद पर लगे आरोपों के खिलाफ लड़ने में बिता दिया. जिसमें भारत में अपने सबसे हालिया समय के दौरान उन्होंने भ्रष्ट अधिकारियों को एकाधिकार अधिकारों का दुरुपयोग करने की अनुमति दी थी, प्रमुख थी.

    इससे भी बदतर आरोप यह था कि उनके द्वारा लगाए गए उच्च भूमि करों ने बंगाल को महान अकाल का शिकार बनाया था. 1769-1773 में बंगाल में भयानक सूखा और अकाल पड़ा था. इससे लाखों की आबादी मौत के गाल में समा गई थी. साथ ही उनपर भ्रष्टाचार के माध्यम से खुद को समृद्ध करने का आरोप लगाया गया. रॉबर्ट क्लाइव ने अपने ऊपर लगे आरोपों पर कहा था, “मैं अपने स्वयं के संयम पर हैरान हूं.”

    व्यापारिक, प्रतिभाशाली लेकिन मौलिक रूप से दोषपूर्ण क्लाइव की मृत्यु केवल 49 वर्ष की आयु में नवंबर 22 नवम्बर 1774 में लंदन में हो गई. उन्होंने खुद को पेन-चाकू से वार कर मौत के मुंह में धकेल दिया था. उनकी आत्महत्या शायद अवसाद का परिणाम थी. अन्य विवादास्पद चरित्र विंस्टन चर्चिल की तरह, क्लाइव अक्सर उन अंधेरे मूड के अधीन था, जो चर्चिल ने अपनी पीठ पर एक काला कुत्ता होने से तुलना की थी.

    संभवत: क्लाइव ने अफीम के प्रभाव में काम किया. वह अफीम का एक उत्साही उपयोगकर्ता बन गए थे. अफीम ने उन्हें भारत में अवसाद और अतिसक्रिय महत्वाकांक्षा के अपने वैकल्पिक मनोदशाओं को शांत करने में मदद की. इसने उन्हें तनाव के बीच सोने और सुस्त करने में सक्षम बनाया.

    क्लाइव के जीवन चरित्र की तुलना में यह समझना बड़ा जटिल है कि क्यों अपनी स्पष्ट खामियों के बावजूद, वह एक ऐसे प्रसिद्ध हस्ती बन गए, जिस पर इतिहास में बहुत अधिक बहस हुई है. संभवतः वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो ब्रिटेन से भारत एक साधारण क्लर्क के रूप में आये थे, लेकिन वे जल्द ही भारत में इस कम्पनी के सर्वेसर्वा बन गए.

    कुछ लोगों के लिए, 19 वीं सदी के इतिहासकार लॉर्ड एक्टन के शब्द एक उपयुक्त प्रसंग प्रतीत होते हैं: “सत्ता भ्रष्ट और निरपेक्ष सत्ता को बिल्कुल भ्रष्ट कर देती है”. …या शायद फॉर्च्यून के सोल्जर में अन्य प्रमुख लेकिन काल्पनिक चरित्र के रूप में पता चलता है कि प्लासी के बाद अपनी जीत परेड के दौरान क्लाइव के लिए यह कितना बेहतर होता, अगर किसी ने उनके कान में कानाफूसी की होती, जैसा कि रोमन सम्राटों के रोम में अपनी विजयी प्रविष्टि के दौरान, “आप नश्वर हैं याद रखें” का किया जाता था.

    बेशक आज हमारे बीच रॉबर्ट क्लाइव नहीं हैं. लेकिन एक क्लर्क का सत्ता के शीर्ष पद पर पहुंचना वाकई हैरतअंगेज हैं. ठीक वैसा ही, जैसा अब्राहम लिंकन के संबंध में कहा जाता हैं. लेकिन इतिहास के नजरों से देखे तो दोनों के बीच एक बड़ी अंतर हैं.

    यह ख़ास अंतर् हैं- रॉबर्ट क्लाइव ने खुद के लिए काम किया तो लिंकन ने अपनी ऊर्जा का सदुपयोग समाज में फैली असमानता और बुराइयों को समाप्त करने में लगाया. यदि क्लाइव को ये मालुम होता कि ये दुनियां नश्वर हैं और उसका अंत भी निश्चित हैं, तो क्या वह अपने जैसे ही अन्य महत्वाकांक्षा से भरे गरीब युवाओं के लिए काम करता?

    ब्रिटिश सत्ता की स्थापना और रॉबर्ट क्लाइव (British Rule Foundation and Robert Clive in Hindi)

    अठारवी शताब्दी में बंगाल भारत का सबसे समृद्ध इलाका था. दुनिया की अर्थव्यवस्था अब भी कृषि आधारित थी, और बंगाल के मैदान उपजाऊ खेतों से भरे थे. ऐसे में रॉबर्ट क्लाइव द्वारा बंगाल विजयी ने, कंपनी के भारत अभियान के लिए आसानी से धन मुहैया करवाया.

    इस जीत के बाद ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के अन्य हिस्सों, जैसे मैसूर, मराठा साम्राज्य व दिल्ली के इलाके को जितने का सपना देखा. हम कह सकते है कि रॉबर्ट क्लाइव ने ब्रिटिशों को भारत में जीत का तरीका सीखा दिया था, जो अगले 200 सालों तक भारत में सत्ता का सिरमौर बनने वाला था.

    यहाँ ये भी गौर करने वाली बात है कि सिराजुद्दौला के विश्वस्तों ने उसे धोखा दिया था. इस धोखे के कारण उसकी ताकत में काफी कमी हो गई, जो उसके हार और भारत में ब्रिटिश सत्ता के शुरुआत का कारण बना.

    रॉबर्ट क्लाइव ने अपने चालाकी, कूटनीति व सूझबूझ के दम पर अकेले ही बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुग़ल सम्राट शाहआलम द्वितीय, इन तीनों को ही परास्त कर दिया था.

    बक्सर जीत के बाद अंग्रेजों ने क्लाइव को भारत में कंपनी का मुख्य सेनापति तथा गर्वनर बनाकर भेजा. 10 अप्रैल, 1765 को क्लाइव ने दूसरी बार मद्रास की धरती पर पैर रखा और 3 मई, 1765 को कलकत्ता में कार्यभार ग्रहण किया.

    रॉबर्ट क्लाइव ने 12 अगस्त, 1765 को मुग़ल सम्राट शाहआलम से इलाहाबाद की पहली संधि की, जिसके शर्तों के अनुसार कम्पनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हुई. सम्राट शाहआलम के लिए इलाहाबाद तथा कड़ा के ज़िले एवं कम्पनी द्वारा प्रति वर्ष 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देने की व्यवस्था की गई. कम्पनी ने अवध के नवाब से कड़ा और मनिकपुर छीनकर मुग़ल बादशाह को दे दिया.

    आगे चलकर, क्लाइव ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ भी 16 अगस्त, 1765 को एक संधि की, जिसे ‘इलाहाबाद की दूसरी संधि’ के रूप में जाना जाता है. संधि की शर्तों के अनुसार नवाब ने इलाहाबाद व कड़ा के ज़िले शाहआलम को देने का वायदा किया और युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए उसने कम्पनी को 50 लाख रुपये भी देने का वायदा किया. इन दोनों संधियों के सम्पन्न हो जाने पर कम्पनी की स्थिति अत्यन्त ही मजबूत हो गई.

    रॉबर्ट क्लाइव के दोहरे शासन का दुष्परिणाम पुरे बंगाल को झेलना पड़ा. यह व्यवस्था भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी हुई थी. इसके कारण 1770 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा, जिससे जानमान की काफी क्षति हुई. इस भ्रष्टाचार पर लॉर्ड कार्नवालिस ने ‘हाउस ऑफ़ कामन्स’ में कहा कि, मैं निश्चिय पूर्वक कह सकता हूँ कि, 1765-1784 ई. तक ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार से अधिक भ्रष्ट, झूठी तथा बुरी सरकार संसार के किसी भी सभ्य देश में नहीं थी.”

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