बहिष्कार एवं स्वदेशी आंदोलन | Boycott and Swadeshi Movement

बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन सरकार द्वारा बंगाल विभाजन के निर्णय के विरोधस्वरूप चलाया गया था तथा यह बंग-भंग का ही प्रतिफल था. बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन में आंदोलनकारियों ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई तथा अंग्रेज सरकार के समक्ष अपना विरोध प्रकट किया. चूंकि ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को दबाने के लिये दमन का सहारा लिया. फलतः सरकारी दमन के विरोध में उग्रवादी गतिविधियां प्रारंभ हो गयीं.

बंगाल विभाजन (1905)

गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्जन का काल (1899-1905) भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का उच्चतम बिंदु था. इसके विभिन्न प्रशासनिक कार्यों में सर्वाधिक विवादित कार्य ‘बंगाल विभाजन’ रहा, जो राष्ट्रवाद पर किया गया एक प्रच्छन्न प्रहार था.

तत्कालीन बंगाल प्रेसिडेंसी में बंगाल, बिहार व उड़ीसा शामिल थे. अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन का मुख्य कारण प्रशासनिक असुविधा बताया. वास्तविक रूप से बंगाल विभाजन का कारण बंगाल में उत्पन्न राष्ट्रीय चेतना को नष्ट करना था. यह विभाजन धार्मिक आधार पर किया गया था. पश्चिमी बंगाल हिंदू बहुल तथा पूर्वी बंगाल मुस्लिम बहुल क्षेत्र था.

बंगाल विभाजन द्वारा लॉर्ड कर्जन कांग्रेस एवं स्वतंत्रता आंदोलन को दुर्बल बनाना तथा मुस्लिम संप्रदायवाद को उभारना चाहता था. 20 जुलाई, 1905 (कुछ स्रोतों में 19 जुलाई, 1905) को बंगाल विभाजन की घोषणा हुई.

16 अक्टूबर, 1905 से बंगाल विभाजन की घोषणा प्रभावी हो गई. पूरा बंगाल पूर्वी तथा पश्चिमी बंगाल में बँट गया. पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक नया प्रांत बनाया गया, जिसमें राजशाही, चटगाँव व ढाका आदि सम्मिलित थे तथा दूसरे भाग में पश्चिम बंगाल, बिहार व उड़ीसा शामिल थे. कर्जन ने ढाका को मुस्लिम बहुल प्रांत (पूर्वी बंगाल) की राजधानी बनाया.

ब्रिटिश सरकार का तर्क

बंगाल विभाजन के पीछे सरकार ने तर्क दिया  कि बंगाल की विशाल आबादी के कारण प्रशासन का सुचारू रूप से संचालन कठिन हो गया है. यद्यपि कुछ सीमा तक सरकार का यह तर्क सही था किंतु अंग्रेजों की वास्तविक मंशा कुछ और ही थी. उनका मुख्य उद्देश्य बंगाल को दुर्बल करना था क्योंकि उस समय बंगाल भारतीय राष्ट्रवाद का सबसे प्रमुख केंद्र था.

बंगाल विभाजन के तहत बंगालियों को प्रशासनिक सुविधा के लिये दो तरह से विभाजित कर दिया गया-

  1. भाषा के आधार पर- (इससे बंगाली भाषा-भाषी बंगाल में ही अल्पसंख्यक बन गये, क्येांकि 1 करोड़ 70 लाख लोग बंगाली भाषा बोलते थे, जबकि हिन्दी एवं उड़िया बोलने वालों की संख्या 3 करोड़ 70 लाख थी)
  2. धर्म के आधार पर- क्योंकि पश्चिमी बंगाल हिन्दू बहुसंख्यक क्षेत्र था, जहां हिन्दुओं की संख्या कुल 5 करोड़ 40 लाख में से 4 करोड़ 20 लाख थी तथा पूर्वी बंगाल मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र था, जहां कुल आबादी 3 करोड़ 10 लाख में से मुसलमानों की आबादी 1 करोड़ 80 लाख थी. मुसलमानों के प्रति प्यार दिखाते हुये कर्जन ने कहा कि ढाका नये मुस्लिम बहुल प्रांत (पूर्वी बंगाल) की राजधानी बन सकता है, क्योंकि इससे मुसलमानों में एकता बढ़ेगी, जो कि मुगल शासकों के समय उनमें पायी जाती थी.

इस प्रकार बंगाल विभाजन के निर्णय से स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज, कांग्रेस एवं स्वतंत्रता आन्दोलन को दुर्बल बनाने के लिए मुस्लिम सम्प्रदायवाद को उभारना चाहते थे.

उदारवादियों द्वारा बंगाल विभाजन का विरोध 1903-1905 ई.

इस काल में उदारवादी, जिन्होंने बंगाल विभाजन के विरोध में सक्रिय भूमिका निभायी सुरेंद्रनाथ बनर्जी, के.के. मित्रा तथा पृथ्वीशचंद्र राय प्रमुख थे. उदारवादियों ने सरकार के इस निर्णय के विरोध में सरकार को प्रार्थनापत्र सौंपे, सभायें आयोजित की, निंदा प्रस्ताव पतित किए तथा हितवादी, संजीवनी एवं बंगाली जैसे पत्रों के माध्यम से बंगाल विभाजन का विरोध किया. उदारवादियों का उद्देश्य था कि भारत एवं इंग्लैण्ड में शिक्षित भारतीयों के माध्यम से एक ऐसा जनमत तैयार किया जाये जो बंगाल विभाजन के निर्णय को वापस लेने हेतु अंग्रेज सरकार पर दबाव डाल सके.

किंतु भारतीयों के विरोध स्वर की उपेक्षा करते हुये भी सरकार ने जुलाई 1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी. इस घोषणा के कुछ दिनों के भीतर ही लगभग पूरे बंगाल में विरोध सभायें आयोजित की गयीं. इन सभाओं में सबसे पहले विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का निर्णय लिया गया. 

अगस्त 1905 को बंगाल विभाजन के विरोध में कलकत्ता के टाउन हाल में एक विशाल प्रदर्शन आयोजित किया गया जहां से स्वदेशी आंदोलन प्रारंभ करने की घोषणा की गयी. इसके पश्चात राष्ट्रवादी नेताओं ने बंगाल के विभिन्न भागों का दौरा किया तथा लोगों से मैनचेस्टर के कपड़ों एवं लिवरपूल के बने नमक का बहिष्कार करने का आग्रह किया.

16 अक्टूबर 1905 को जब बंगाल विभाजन विधिवत रूप से लागू हुआ, आंदोलनकारियों ने यह दिन शोक दिवस के रूप में मनाया. लोगों ने व्रत रखे, गंगा में स्नान किया तथा नंगे पांव पदयात्रा करते हुये वंदे मातरम गीत गाया. (कालांतर में वंदे मातरम गीत, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का सबसे मुख्य गीत बन गया). विभाजित बंगाल के दोनों भागों के लोगों ने आपसी एकता प्रदर्शित करने हेतु एक-दूसरे के हाथों में राखियां बांधी.

इसी दिन सुरेंद्रनाथ बनर्जी एवं आनंद मोहन बोस ने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया, जो कि स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित संभवतः तब तक की सबसे विशाल जनसभा थी. जनसभा में शामिल प्रदर्शनकारियों ने विरोध अभियान चलाने के लिये 50 हजार रुपये एकत्र किये.

शीघ्र ही यह विरोध प्रदर्शन बंगाल से निकलकर भारत के अन्य भागों में भी फैल गया. पूना एवं बंबई में इस आंदोलन का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक ने किया जबकि पंजाब में लाल लाजपत राय एवं अजीत सिंह ने, दिल्ली में सैय्यद हैदर रजा एवं मद्रास में चिदम्बरम पिल्लई ने इसे नेतृत्व प्रदान किया.

कांग्रेस की स्थिति

कांग्रेस ने 1905 के बनारस अधिवेशन में स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन का अनुमोदन किया. 1905 में गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में निम्न दो प्रस्ताव पारित किये गये-

  1. कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियों एवं बंगाल विभाजन की आलोचन करना
  2. बंगाल में बंग-भंग विरोधी अभियान तथा स्वदेशी अभियान को समर्थन देना.

इस संबंध में उग्रवादी राष्ट्रवादी जैसे- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिनचंद्र पाल एवं अरविंद घोष का मत था कि विरोध अभियान का प्रसार बंगाल से बाहर पूरे देश में हो तथा इसे विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तक ही सीमित न रखकर पूर्ण स्वतंत्रता संघर्ष के रूप में चलाया जाये, जिससे पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके. किंतु इस समय कांग्रेस में नरमपंथियों का प्रभुत्व था तथा वे इसे बंगाल के बाहर चलाये जाने के पक्ष में नहीं थे.

1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन कलकत्ता में आयोजित किया गया. इस अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित किया कि कांग्रेस का लक्ष्य इंग्लैंड या अन्य उपनिवेशों की तरह ‘स्वशासन या स्वराज्य’ है. धीरे-धीरे उदारवादियों एवं उग्रवादियों में विभिन्न विषयों पर मतभेद निरंतर बढ़ते गये, जिसकी चरण परिणति 1907 के सूरत अधिवेशन में हुयी, जब कांग्रेस दो धड़ों में विभक्त हो गयी. इस विभाजन का स्वदेशी अभियान एवं अन्य तात्कालिक आंदोलनों पर गंभीर प्रभाव पड़ा.

उग्रवादी राष्ट्रवादियों की गतिविधियां

1905 के पश्चात बंगाल में चल रहे स्वदेशी आंदोलन में उग्र विचारधारा वाले नेताओं का प्रभुत्व स्थापित हो गया. इसके मुख्य तीन कारण थे.

  1. उदारवादियों के नेतृत्व में आंदोलन का कोई विशेष परिणाम नहीं निकला.
  2. उदारवादियों के संवैधानिक रूख से उग्रवादी असहमत थे.
  3. सरकार ने अभियान को असफल बनाने हेतु कार्यकर्ताओं का दमन प्रारंभ कर दिया. इसके तहत विद्यार्थियों को प्रताड़ित किया गया, वंदे मातरम के गाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया, स्वदेशी के कार्यकर्ताओं को दण्ड एवं कारावास की सजा दी गयी, अनेक स्थानों पर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया, नेताओं को निर्वासन की सजा दी गयी तथा प्रेस का दमन किया गया.

कांग्रेस ने दिसम्बर 1906 में कलकत्ता में अपने वार्षिक अधिवेशन में दादाभाई नौरोजी के नेतृत्व में स्वराज्य की प्राप्ति को अपना प्रमुख लक्ष्य घोषित किया. स्वराज्य का अर्थ वह शासन पद्धति समझा गया जो सभी स्वशासित उपनिवेशों में प्रचलित थी. राष्ट्रीय शिक्षा के प्रोत्साहन पर भी बल दिया गया. बंग-भंग को उग्र विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीय चुनौती के रूप में स्वीकार किया.

सारे बंगाल में जन सभायें हुयीं तथा तिलक,विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय तथा अरविंद घोष ने कई स्थानों पर सभाओं को संबोधित किया. इन सभाओं में लोगों ने स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की शपथ ली. इस शपथ को व्यवहारिक रूप देने हेतु एक सुनियोजित कार्यक्रम प्रारंभ किया गया. कई स्थानों पर विदेशी वस्तुओं की दुकानों के समक्ष धरना दिया गया तथा विदेशी वस्तुओं की सार्वजनिक रूप से होली जलायी गयी.

स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार हेतु समितियां बनायी गयीं. नेताओं ने लोगों से स्कूलों, कालेजों, सरकारी कार्यालयों, उपाधियों इत्यादि का बहिष्कार करने की अपील की. इस अवसर पर अरविंद घोष ने कहा ‘शासन संचालन को अवरुद्ध कर दो, ऐसे किसी भी कार्य या प्रयत्न से दूर रहो जिससे इंग्लैंड के वाणिज्य-व्यापार को लाभ पहुँचता हो तथा भारत का आर्थिक शोषण होता हो’. उन्होंने लोगों से आह्वान किया कि वे एकजुट होकर अंग्रेजी शासन-तंत्र को असफल बनाने हेतु आगे आयें.

उग्र राष्ट्रवादियों ने बंग-भंग विरोधी आंदोलन तथा स्वदेशी अभियान को जन आंदोलन का स्वरूप देने का प्रयत्न किया तथा नारा दिया ‘उपनिवेशी शासन से भारत की आजादी मिले’. अरविंद घोष ने स्पष्ट किया राजनीतिक स्वतंत्रता ही राष्ट्र की जीवन सांसें हैं. इस प्रकार गरमपंथियों ने भारतीय स्वतंत्रता की अवधारणा को राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य लक्ष्य बना दिया.

संघर्ष का नया स्वरूप

उग्र राष्ट्रवादियों ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान एवं रूख को एक नये आयाम से जोड़ा. उन्होंने जुझारू राष्ट्रवाद का प्रचार किया तथा नरमपंथियों की अवधारणा को पूर्णतया नकार दिया. इस अभियान के तहत संघर्ष के जो विभिन्न तरीके अपनाये गये वे इस प्रकार थे-

विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार

इसके अंतर्गत विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, विदेशी वस्तुओं की होली जलाना, विदेश में निर्मित नमक एवं चीनी का बहिष्कार, विदेशी वस्तुओं के प्रयोग वाले धार्मिक विवाह समारोहों का बहिष्कार करने हेतु ब्राह्मणों से अपील करना तथा धोबियों द्वारा विदेशी कपड़े धोने से इंकार करने का आग्रह करना जैसे कार्यक्रम शामिल थे. यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय हुआ तथा इसे राजनीतिक स्तर पर अत्यंत सफलता मिली.

जनसभाएं एव विरोध प्रदर्शन

ये दोनों माध्यम इस अभियान के दौरान अत्यंत लोकप्रिय हुए तथा जनसँख्या के एक काफी बड़े हिस्से ने इनमें सक्रीय भागेदारी निभायी.

स्वयंसेवी संगठनों एव समितियों का गठनः इस अभियान में समितियां एवं विभिन्न स्वयंसेवी संगठन, जन सहयोग की अत्यंत सशक्त एवं लोकप्रिय संस्थाओं के रूप में उभरे. बारीसल में अश्विनी कुमार दत्त की ‘स्वदेशी बंधब समिति’ इसी प्रकार की एक अत्यंत लोकप्रिय समिति थी. इन समितियों ने जन सामान्य में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया.

समितियों द्वारा जनजागरण हेतु विभिन्न प्रकार के तरीके अपनाये जाते थे, जिनमें व्याख्यानों का आयोजन, स्वदेशी गीतों को गाना, कार्यकर्ताओं को नैतिक एवं शारीरिक प्रशिक्षण, अकाल महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं क्रए समय सामाजिक सहयोग, नए स्कूलों की स्थापना एवं स्वदेशी दस्तकारी हेतु प्रशिक्षण इत्यादि प्रमुख थे.

परम्परागत एक लोकप्रिय उत्सवों का जुझारु राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रसार में उपयोग

उग्रवादी राष्ट्रवादियों ने विभिन्न परम्परागत एवं लोकप्रिय उत्सव एवं मेलों का प्रयोग, जनाधार बढ़ने एवं राजनितिक चेतना के प्रचार-प्रसार में किया. उदाहरणार्थ-तिलक का गणपति एवं शिवाजी उत्सव न केवल महाराष्ट्र अपितु बंगाल में भी स्वदेशी अभियान का एक प्रमुख माध्यम बन गया. बंगाल में परंपरागत लोक नाट्यशालाओं का प्रयोग भी इस अभियान को लोकप्रिय एवं सफल बनाने में किया गया.

आत्म विश्वास या आत्म-शक्ति की भावना पर बल: इस भावना के प्रसार से राष्ट्रीय प्रतिष्ठा एवं विश्वास की भावना को बल मिला तथा गांवों का सामाजिक एवं आर्थिक पुनर्जन्म हुआ. इसके तहत विभिन्न समाज सुधार कार्यक्रम एवं अभियान चलाये गये जिनमें जाति प्रथा का विरोध, बाल विवाह पर रोक, दहेज प्रथा का विरोध एवं मद्य निषेध इत्यादि प्रमुख थे.

स्वदेशी या राष्ट्रीय शिक्षा कार्यक्रम

रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन से प्रेरणा लेकर कलकत्ता में नेशनल कालेज खोला गया तथा अरविंद घोष इसके  प्रधानाचार्य नियुक्त किये गये. शीघ्र ही देश के कई अन्य भागों में नेशनल स्कूल एवं कालेजों की स्थापना की गयी. साहित्यिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शिक्षा को संगठित करने हेतु 15 अगस्त 1906 को नेशनल काउंसिल आफ एजुकेशन की स्थापना की गई जिससे देशवासियों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित किया जा सके.

समाचार पत्रों के माध्यम से शिक्षा के प्रचार को प्रोत्साहित किया गया. तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए ‘बंगाल तकनीकी संसथान’ की स्थापना की गयी तथा मेधावी छात्रों को उच्च तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने हेतु जापान भेजने की व्यवस्था की गयी.

स्वदेशी एव भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन

बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन के कारण भारतीय उद्योगों को अधिक प्रोत्साहन मिला. अनेक कपडा मिलें, साबुन और माचिस की फैक्ट्रियां, हस्तकरघा कारखाने, बैंक एवं बीमा कम्पनियां खोली गयीं. आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय ने प्रसिद्ध बंगाल कैमिकल स्वदेशी स्टोर की स्थापना की. इस समय भारतीय व्यापारियों में व्यावसायिक कारोबार की अपेक्षा देशभक्ति का उत्साह अधिक था.

सांस्कृतिक जगत का प्रभाव

इस काल में महान राष्ट्रवादियों जैसे- रवींद्रनाथ टैगोर, रजनीकांत सेन, द्विजेंद्रलाल राय, मुकुंद दास, सैय्यद अबू मोहम्मद इत्यादि ने अनेक राष्ट्रवादी कविताओं एवं गीतों की रचना की जिससे भारतीयोंको अभूतपूर्व प्रेरणा मिली. इस अवसर पर रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखित अमार सोनार बांग्ला नामक प्रसिद्ध गीत ने तो कालांतर में बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन को अभूतपूर्व प्रेरणा दी तथा बांग्ला देश ने इसे राष्ट्रगान के रूप में अपनाया.

चित्रकला के क्षेत्र में रवींद्रनाथ टैगोर ने विक्टोरियन प्रकृतिवाद के वर्चस्व को तोड़ दिया तथा मुगल, अजन्ता एवं राजपूत काल की चित्रकला से प्रेरणा लेकर अनेक राष्ट्रवादी चित्रों का निर्माण किया. प्रसिद्ध भारतीय कला मर्मज्ञ नन्दलाल बोस ने भारतीय कला के प्रोत्साहन में महत्वपूर्ण योगदान दिया तथा 1907 में स्थापित इन्डियन सोसाइटी ऑफ़ ओरिएण्टल आर्ट की प्रथम छात्रवृत्ति पाने का गौरव हासिल किया.

विज्ञान के क्षेत्र में जगदीश चंद्र बोस, प्रफुल्लचंद्र राय एवं अन्य वैज्ञानिकों के अनेक महत्वपूर्ण अन्वेषण किये, जिनकी न केवल भारत में अपितु पूरे विश्व में प्रशंसा की गयी.

आांदोलन का सामाजिक आधार

बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन के कारण बड़ी संख्या में छात्रों ने राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया. छात्रों ने स्वदेशी को व्यवहार रूप में अपनाया तथा बहिष्कार सम्बंधी धरनों एवं प्रदर्शनों में अग्रणी भूमिका निभायी. किंतु उन्हें सरकार की दमनपूर्ण नीति का आक्रोश झेलना पड़ा. जिन शिक्षा संस्थाओं के छात्रों ने स्वदेशी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी थी, उन्हें दी जाने वाली सरकारी सहायता एवं छात्रवृत्तियों पर रोक लगा दी गयी.

अनेक छात्रों पर भारी जुर्माने लगाये गये तथा उन्हें गिरफ्तार कर अमानवीय यातनायें दी गयीं. ऐसे छात्रों को सरकारी नौकरियों के अयोग्य घोषित कर दिया गया. किंतु इसके बावजूद छात्रों का उत्साह कम नहीं हुआ तथा वे राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे.

बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन का एक महत्वपूर्ण प्रभाव यह हुआ कि घर की चहारदीवारी में केंद्रित महिलायें विशेषकर शहरी क्षेत्रों की मध्यवर्गीय महिलाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना प्रारंभ कर दिया. महिलाओं ने कधे से कंधा मिलाकर जुलूसों, सभाओं एवं विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया. कालांतर में उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.

बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन के द्वारा अनेक मुस्लिम नेताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया. इनमें बैरिस्टर अब्दुल रसूल, लियाकत हुसैन तथा गजनवी मुस्लिम नेता या तो आंदोलन से दूर रहे या उन्होंने बंगाल विभाजन का समर्थन किया. ढाका के नवाब सलीमुल्ला ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया तथा घोषित किया कि इससे उन्हें मुस्लिम आबादी बहुल पूर्वी बंगाल का नया राज्य प्राप्त होगा.

इस प्रकार बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन का सामाजिक आधार ज्यादा व्यापक नहीं हो सका क्योंकि इस आंदोलन में जमींदारों के कुछ वर्ग, विद्यार्थियों, महिलाओं एवं शहरों तथा कस्बों के निम्न मध्य वर्ग के लोगों ने ही सक्रिय रूप से भाग लिया. आंदोलन को मजदूरों के आर्थिक शोषण के विरुद्ध स्वर मुखरित करने का मंच बनाने का प्रयत्न भी किया गया.

इस दौरान ब्रिटिश स्वामित्व वाली विभिन्न कम्पनियों जैसे- इस्टर्न इंडियन रेलवे इत्यादि में हड़तालें भी आयोजित की गयीं. किन्तु आन्दोलन विशेषकर मुस्लिम किसानों को प्रभावित नहीं कर सका क्योंकि अंग्रेज सरकार ने पहले से ही सतर्क होकर मुसलमानों को विभाजित करने की नीति अपनायी तथा उन्हें आंदोलन से पृथक रखने में सफल रही. सरकार के सहयोग से वह ढाका के नवाब सलीमुल्ला एवं आगा खां ने 1907 में मुस्लिम लीग का गठन किया, जिसका प्रयोग अंग्रेजों ने बहिष्कार एवं स्वदेशी आंदोलन को विफल करने में किया.

आंदोलन का अखिल भारतीय स्वरूप

बंगाल से प्रारंभ हुआ बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन शीघ्र ही देश के अन्य भागों में भी फैल गया. बालगंगाधर तिलक जिन्होंने आदोलन के अखिल भारतीय प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, इस आंदोलन को राष्ट्रव्यापी स्वतंत्रता आंदोलन का स्वरूप देने के पक्षधर थे. उन्होंने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया तथा आंदोलन का जनाधार बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

उनका मानना था कि आंदोलन भारतीयों के उद्गारों को व्यक्त का एक महत्वपूर्ण माध्यम है तथा इसकी सहायता से उपनिवेशी शासन को समाप्त करने का प्रयास किया जाना चाहिए.

बंगाल विभाजन रद्द

क्रांतिकारी आतंकवाद के उभरने के भय से 1911 में बंगाल विभाजन रद्द कर दिया गया. किंतु बंगाल विभाजन रद्द होने से मुसलमानों को काफी आघात लगा. विभाजन रद्द किये जाने के साथ ही सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से बदलकर दिल्ली आने की घोषणा की जो मुस्लिम संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र था. किंतु मुसलमान इस निर्णय से खुश नहीं हुये. बिहार एवं उड़ीसा को बंगाल से पृथक कर दिया गया तथा असम की एक पृथक प्रांत बना दिया गया.

स्वदेशी आंदोलन की असफलता के कारण

1908 तक बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन का बाह्य उन्माद (यद्यपि यह चरण भूमिगत क्रांतिकारी चरण से भिन्न था) ठंडा पड़ चुका था. इसके कई कारण थे-

  1. ब्रिटिश सरकार ने आंदोलनकारियों के प्रति कठोर दमनात्मक रुख अपनाया.
  2. आंदोलन एक सक्रिय संगठन या पार्टी का रूप नहीं ले सका. यद्यपि आन्दोलन में विभिन्न गांधी वादी सिद्धांतों यथा-असहयोग, सत्याग्रह, जेल भरो आंदोलन इन सिद्धांतों को एक अनुशासनात्मक दिशा नहीं दे सका.
  3. आंदोलन आगे चलकर नेतृत्वविहीन हो गया क्योंकि 1908 तक अधिकांश नेता या तो गिरफ्तार कर लिये गये थे या देश से निर्वासित कर दिये गये थे. इसी समय अरविन्द घोष तथा विपिनचंद्र पाल ने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया.
  4. कांग्रेस के नेताओं के मध्य आतंरिक झगड़े की परिणति 1907 के सूरत विभाजन के रूप में हुयी. इससे आंदोलन को भारी आघात पहुंचा.
  5. यद्यपि आदोलन ने जनसामान्य की शक्ति और ऊर्जा को उभारने का कार्य तो किया किंतु इस शक्ति एवं ऊर्जा को संगठित कर वह सही स्वरूप एवं दिशा में सफल नहीं हो सका.
  6. आंदोलन समाज के सभी वगों में अपनी पैठ नहीं बना सका. यह उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा जमींदारों तक ही सीमित रहा. मुसलमानों तथा किसानों को प्रभावित करने में यह पूर्णतया असफल साबित हुआ.
  7. असहयोग एवं सत्याग्रह मुख्यतः सिद्धांत रूप में ही रहे तथा ज्यादा व्यावहारिक रूप नहीं ले सके.

बिना किसी सुनिश्चित योजना एवं कार्यनीति के किसी भी जन आंदोलन को सही दिशा नहीं दी जा सकती. संभवतः इस आंदोलन के साथ भी यही विसंगति रही.

मूल्यांकन

यद्यपि बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन अपने उद्देश्यों में पूर्णतयाः सफल नहीं हो सका किंतु इस आंदोलन की उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता. यह आंदोलन आधुनिक भारत के इतिह्रास की एक प्रमुख घटना थी तथा इसके अत्यंत दूरगामी परिणाम हुये.

  1. देशप्रेम एवं राष्ट्रीयता का तीव्र प्रसार करने में स्वदेशी आंदोलन को अपार सफलता मिली. यह आंदोलन विदेशी शासन के विरुद्ध जनता की भावनाओं की जागृत करने का अत्यंत शक्तिशाली साधन सिद्ध हुआ.
  2. अभी तक स्वतंत्रता आंदोलन की राजनीति से पृथक रहने वाले अनेक वर्गो यथा- छात्रों, महिलाओं तथा कुछ ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या ने इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया.
  3. स्वतंत्रता आंदोलन के सभी प्रमुख माध्यमों जैसे- उदारवाद से राजनीतिक अतिवाद, क्रांतिकारी आतंकवाद से प्रारंभिक समाजवाद तथा याचिका एवं प्रार्थना पत्रों से असहयोग एवं सत्याग्रह का अस्तित्व इस आंदोलन में परिलक्षित हुआ.
  4. आंदोलन का प्रभाव क्षेत्र राजनीतिक जगत तक ही सीमित न रहा अपितु साहित्य, विज्ञान एवं उद्योग जगत पर भी इसका प्रभाव पड़ा.
  5. आंदोलन से लोगों की तंद्रा टूटी तथा वे साहसिक राजनीतिक भागेदारी एवं राजनीतिक कार्यों में एकता की महत्ता से परिचित हुये.
  6. स्वदेशी आन्दोलन ने उपनिवेशवादी विचारों एवं संस्थाओं की वास्तविक मंशा को लोगों के समक्ष अनावृत्त कर दिया.
  7. आंदोलन से प्राप्त हुये अनुभवों से स्वतंत्रता संघर्ष की भावी राजनीति को तय करने में सहायता मिली.

इस प्रकार, बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन ने उदारवादियों की याचिका एवं अनुनय-विनय की नीति को अप्रासंगिक एवं व्यर्थ साबित कर दिया. उदारवादी अपने कार्यक्रम एवं नीतियों को यथोचित गति नहीं प्रदान कर सके. उनकी यह असफलता इस बात से सिद्ध हो गयी कि युवा पीढ़ी ने उनके नेतृत्व को नकार दिया तथा उन्हें सहयोग देने से इंकार कर दिया.

जनसहयोग प्राप्त करने में नरपंथियों की असफलता से यह बात स्पष्ट हो गयी कि उनकी नीतियां भारतीयों में जड़ें नहीं जमा सकीं. नरमपंथी अपने उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का व्यापक प्रचार-प्रसार भी नहीं कर सके. बहिष्कार एवं स्वदेशीआंदोलन के प्रारंभिक चरण में उदारवादी इसे अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करने में असफल रहे तथा उनके नेतृत्व में आंदोलन में कोई खास प्रगति नहीं हुयी.

लेकिन अतिवादी राष्ट्रवादियों की कार्यप्रणाली में भी एकरूपता का अभाव रहा. इनकी कार्यप्रणाली से अहिंसात्मक एवं वैधानिक आंदोलन के समर्थक असंतुष्ट हो गये. विभिन्न उग्रवादी नेताओं यथा- अरविन्द घोष, बाल गंगाधर तिलक एवं लाला लाजपत के उद्देश्य भी भिन्न-भिन्न थे.

तिलक के लिये स्वराज्य का अर्थ था सीमित स्वशासन, जबकि अरविन्द घोष विदेशी शासन से पूर्ण स्वतंत्रता को स्वराज्य मानते थे. किंतु राजनीतिक एवं सैद्धांतिक स्तर पर ज्यादा से ज्यादा लोगों की सहभागिता पर बल देने एवं आंदोलन का जनाधार बढ़ाने जैसे उद्देश्यों में उग्रवादी, उदारवादियों की तुलना में ज्यादा सफल रहे.

अतिवादियों ने शिक्षा के प्रसार तथा सेवा एवं त्याग की भावना को आधार बनाकर भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का संचार करने का सराहनीय कार्य किया. किंतु कहीं-कहीं पर अतिवादी संकीर्णता के भावना के शिकार भी रहे. उनके परंपरागत एवं रूढ़िवादी विचार भी यदा-कदा उनके कार्यों में बाधक बनते रहे. 

बाल गंगाधर तिलक द्वारा सम्मति आयु अधिनियम का विरोध (इस अधिनियम द्वारा 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया गया)गणपति एवं शिवाजी उत्सव को राष्ट्रीय महोत्सव के रूप में मनाने का निर्णय तथा गोवध पर प्रतिबंध का समर्थन करने जैसे कायों से उनकी छवि कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी बन गयी. इसी प्रकार विपिनचंद्र पाल एवं अरविन्द घोष ने भी हिन्दू राष्ट्रवादी हितों का प्रचार किया.

इस प्रकार उग्रवादियों के कार्यों एवं नीतियों से उपनिवेशी शासन की आघात जरूर पहुंचा लेकिन उनके इन कार्यों से धर्म एवं राजनीति के मध्य अस्वस्थ परंपरा की शुरुआत हुयी, जिसके दुष्परिणाम कालांतर में भारतीयों को झेलने पड़े.

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