1942 का भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement – QIM in Hindi) भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है. यह महात्मा गांधी के नेतृत्व में कॉंग्रेस द्वारा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध छेड़ा गया तीसरा और सबसे निर्णायक जन-आंदोलन था. इस व्यापक संघर्ष ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक अपरिहार्य मोड़ पर ला दिया. वास्तव में, इस आंदोलन ने भारत में ब्रिटिश राज की समाप्ति लगभग निश्चित कर दी.
यह आंदोलन न केवल तात्कालिन राजनीतिक परिदृश्य को परिभाषित करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि राष्ट्रवादी भावना भारतीय समाज की गहराई तक प्रवेश कर चुकी थी. विस्फोटक, तीव्र गति और क्रांतिकारी स्वरूप के कारण इस आंदोलन को ‘अगस्त क्रांति’ (August Revolution) के नाम से भी जाना जाता है.
इस लेख में QIM की उत्पत्ति के कारणों, गांधीजी के क्रांतिकारी आह्वान ‘करो या मरो’ के वैचारिक आधार, ‘ऑपरेशन जीरो आवर’ के कारण उत्पन्न हुई नेतृत्वहीन गतिशीलता, गुप्त गतिविधियों, समानांतर सरकारों के गठन जैसे क्रांतिकारी नवाचारों, ब्रिटिश दमन के पैमाने और अंततः 1947 की स्वतंत्रता पर इसके दूरगामी प्रभावों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है.
भारत छोड़ो आंदोलन के कारण
द्वितीय विश्व युद्ध
भारत छोड़ो आंदोलन की उत्पत्ति को द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) की पृष्ठभूमि में समझना आवश्यक है. जब ब्रिटेन ने 1939 में भारत को अपनी इच्छा के विरुद्ध युद्ध में शामिल किया, तो भारतीय जनता और कांग्रेस में गहरा असंतोष फैल गया. कांग्रेस ने मांग की कि यदि ब्रिटेन वास्तविक रूप से लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए लड़ रहा है, तो उसे पहले भारत में स्वतंत्रता स्थापित करनी चाहिए.
इसके अतिरिक्त, पूर्वी मोर्चे पर जापानी सेनाओं की बढ़ती सफलताएँ और उनका भारत की सीमाओं के निकट पहुँचना एक गंभीर खतरा बन गया था. 7 दिसम्बर, 1941 को मलाया, इण्डोचायना और इंडोनेशिया के जपान के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया था. जापानी सेनायें बर्मा तक आ चुकी थी.
भारत और इंग्लैंड में अंग्रेजों की स्थिति अनिश्चित होती जा रही थी. चर्चिल ने भी यह स्वीकार किया था कि भारत की रक्षा के लिये उनके पास पर्याप्त साधन नही थे. भारत के अंदर भी राष्ट्रीय आंदोलन के कारण पर्याप्त जन-जागरण और अंग्रेजो के विरूद्ध असंतोष बढ़ रहा था.
भारतीयों का दृष्टिकोण था कि ब्रिटिशों की उपस्थिति भारत को युद्ध के खतरों और जापानी आक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील बना रही हैं. अतः ब्रिटिश भारत संबंध तथा राष्ट्रीय आंदोलन से उत्पन्न परिस्थिति 1942 के ” भारत छोड़ो आंदोलन ” के लिये उत्तरदायी थी.
तात्कालिक परिसतिथियों के अनुरूप आंदोलन का नाम ‘भारत छोड़ो’ रखा गया. यह केवल राजनीतिक मुक्ति तक ही सीमित नहीं था, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप को वैश्विक युद्ध की विभीषिका से बचाने का एक रणनीतिक प्रयास भी निहित था.
इस वैश्विक संघर्ष के कारण ब्रिटिश संसाधनों का व्यापक विचलन हुआ था. इससे भारत में उनकी प्रशासनिक और सैन्य शक्ति कमजोर हुई. इस कमजोरी ने महात्मा गांधी को यह विश्वास दिलाया कि यह निर्णायक संघर्ष छेड़ने का सबसे उपयुक्त और रणनीतिक समय है, ताकि ब्रिटिश साम्राज्य को भारत छोड़ने पर मजबूर किया जा सके.
क्रिप्स मिशन की विफलता
15 अगस्त 1940 को कांग्रेस के बम्बई अधिवेशन मे व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाने का प्रस्ताव पारित किया गया था. यह विनोबा भावे के सत्याग्रह से प्रारंभ हुआ. विनोबा भावे के बाद नेहरू की बारी थी, लेकिन उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया.
इसी समय ब्रिटिन तथा मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध जापान भी युद्ध मे आ गया. इसलिए युद्ध मे भारतीयो का सहयोग जरूरी हो गया. इसलिए सरकार ने व्यक्तिगत सत्याग्रह के सभी बंदियों को छोड़कर व्यक्तिगत सत्याग्रह समाप्त करने का प्रस्ताव पेश किया.
मार्च, 1942 में सर स्टेफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में क्रिप्स मिशन भारत भ्रमण हेतु आया. लेकिन इसके प्रस्ताव कांग्रेस को पसंद नही आए. इस मिशन ने भारत को युद्ध के बाद ‘डोमिनियन स्टेटस’ देने का प्रस्ताव रखा था. भारतीय संविधान बनाने की प्रक्रिया में भागीदारी का आश्वासन दिया था.
हालांकि, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) तत्काल पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रही थी. कांग्रेस का मानना था कि युद्ध की अनिश्चितताओं के बीच डोमिनियन स्टेटस का प्रस्ताव अपर्याप्त और भ्रामक था.
इसलिए 14 जुलाई 1942 को कांग्रेस महासमिति की वर्धा बैठक मे आगामी आंदोलन की रूपरेखा तैयार की गई. 8 अगस्त को महात्मा गांधी द्वारा समिति के समक्ष रखा गया भारत छोड़ो का अपना ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित करते हुए समिति में कहा गया कि” भारत के लिये और मित्र राष्ट्रों के आदर्श की पूर्ति के लिये भारत मे ब्रिटिश शासन का तत्काल अंत आवश्यक है. इसी के ऊपर युद्ध का भविष्य एवं स्वतंत्रता और लोकतंत्र की सफलता निर्भर है.
इसमे जो प्रस्ताव पारित किया गया उसी को भारत छोड़ो आंदोलन कहते है. महात्मा गांधी ने कहा था कि, “जिन्ना के ह्रदय परिवर्तन की प्रतीक्षा नही कर सकते. यह उनके जीवन का अंतिम संघर्ष है. लड़ाई खुली और अहिंसक होगी और यह संघर्ष “करो या मरो” का होगा.
वास्तव में, क्रिप्स मिशन की विफलता ने कांग्रेस के भीतर सहयोग के सभी रास्तों को बंद कर दिया. इस विफलता के बाद ही महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपना तीसरा और अंतिम बड़ा आंदोलन छेड़ने का फैसला किया.
राजनीतिक नेताओं के लिए यह एक स्पष्ट संकेत था कि ब्रिटिश सरकार युद्ध की स्थिति का फायदा उठाते हुए भारत को वास्तविक स्वतंत्रता देने की इच्छुक नहीं थी, जिससे अंतिम टकराव अपरिहार्य हो गया.
गांधीजी की रणनीति में परिवर्तन
क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद गांधीजी की रणनीति में आमूल-चूल परिवर्तन देखने को मिला. उन्होंने अपने अहिंसक संघर्ष की पारंपरिक सीमाओं को आगे बढ़ाया और भारतीय जनता को ‘करो या मरो‘ (Do or Die) का प्रेरणादायक नारा दिया. यह नारा निष्क्रिय विरोध के बजाय, भारतीय जनता से स्वतंत्रता के लिए ‘बहादुरी से काम करने’ की मांग करता था. इस प्रयास में अपने प्राण न्योछावर करने की कीमत पर भी प्रतिरोध की अपील की गई.
गांधीजी ने स्पष्ट रूप से घोषणा की थी, “या तो हम भारत को स्वतंत्र करेंगे या इस प्रयास में प्राण दे देंगे”. यह वैचारिक बदलाव अत्यंत महत्वपूर्ण था. गांधीजी का यह स्पष्ट आह्वान राजनीतिक स्पेक्ट्रम में एक मजबूत ध्रुवीकरण का कारण बना, जिसने आंदोलन को एक अभूतपूर्व जन शक्ति प्रदान की.
वास्तव में गांधीजी की घोषणा निष्क्रियता की समाप्ति और निर्णायक कार्रवाई की शुरुआत का प्रतीक था. इसने जनता को ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने के लिए एक स्पष्ट दिशा दी. इस तरह स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई राजनीतिक अभिजात वर्ग की सीमाओं से बाहर निकलकर जन-जन तक पहुँच गया.
आंदोलन की शुरुआत
भारत छोड़ो आंदोलन की औपचारिक नींव 8 अगस्त, 1942 को मुंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (AICC) के सत्र में रखी गई थी. इसी शाम को भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया गया. इसमें ब्रिटिश शासन की तत्काल समाप्ति की मांग की गई. आंदोलन की आधिकारिक शुरुआत 9 अगस्त, 1942 को हुई.
भारत छोड़ो प्रस्ताव की मुख्य बातें इस प्रकार हैं:
- प्रस्ताव में भारत में ब्रिटिश शासन को तत्काल समाप्त करने की मांग की गई थी. अंग्रेज़ों के जाने के बाद एक अंतरिम सरकार बनाने की मांग भी की गई.
- इसमें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अहिंसा पर आधारित एक व्यापक जन-संघर्ष (Mass Struggle) शुरू करने का आह्वान किया गया, जिसका नेतृत्व महात्मा गांधी को करना था.
- इसी अधिवेशन में, महात्मा गांधी ने प्रसिद्ध नारा “करो या मरो” दिया, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीयों से दृढ़ संकल्प के साथ अंतिम स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने का आह्वान किया.
- इस प्रस्ताव के पारित होने के अगले दिन, 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन (या ‘अगस्त क्रांति’) की औपचारिक रूप से शुरुआत हुई.
प्रस्ताव पारित होते समय मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत थे. महात्मा गांधी ने बंबई के ऐतिहासिक ग्वालिया टैंक मैदान (जिसे अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से जाना जाता है) में अपना ऐतिहासिक भाषण दिया. इस दौरान उन्होंने ‘करो या मरो’ का ऐतिहासिक व प्रसिद्ध नारा भी दिया.
नोट: ‘भारत छोड़ो‘ का नारा एक समाजवादी और ट्रेड यूनियनवादी यूसुफ मेहरली द्वारा गढ़ा गया था. इन्होंने मुंबई के मेयर के रूप में भी काम किया था. इन्होंने ने ही “साइमन गो बैक” का नारा भी गढ़ा था.
दमनकारी प्रतिक्रिया: ऑपरेशन जीरो आवर
कांग्रेस द्वारा प्रस्ताव पारित किए जाने के तुरंत बाद, ब्रिटिश सरकार ने अत्यंत क्रूर और तीव्र दमनकारी कार्रवाई की. 9 अगस्त, 1942 को सूर्योदय से पहले ही, सरकार ने ‘ऑपरेशन जीरो आवर’ (Operation Zero Hour) नाम से एक व्यापक कार्रवाई शुरू की. इस ऑपरेशन के तहत महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल सहित कांग्रेस के पूरे शीर्ष नेतृत्व को गिरफ्तार कर लिया गया.
इस तात्कालिक और व्यापक गिरफ्तारी का उद्देश्य कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे को तत्काल अपंग करना और आंदोलन को उसके शुरू होने से पहले ही कुचल देना था. कांग्रेस को एक अवैध संगठन घोषित कर दिया गया. ब्रिटिश सरकार ने इस स्थिति से निपटने के लिए सामूहिक गिरफ्तारी और पुलिस फायरिंग के तरीकों को भी अपनाया.
इस संगठनात्मक शून्यता ने आंदोलन के स्वरूप को मौलिक रूप से बदल दिया. शीर्ष नेताओं को जेल में डालने की ब्रिटिश रणनीति के कारण, यह आंदोलन समाप्त होने के बजाय एक अनियोजित, स्वतःस्फूर्त और विकेन्द्रीकृत स्वरूप में बदल गया. इस तरह आंदोलन का नियंत्रण सीधे जनता के हाथ में आ गया.
नेतृत्वहीन आंदोलन का स्वरूप
ऑपरेशन जीरो आवर के माध्यम से ब्रिटिशों ने आंदोलन को केंद्रीय नेतृत्व से वंचित कर दिया. हालांकि, ब्रिटिशों का यह अनुमान गलत साबित हुआ कि नेतृत्व की अनुपस्थिति से आंदोलन समाप्त हो जाएगा. नेतृत्व के अभाव में आंदोलन ने एक स्वतःस्फूर्त और विकेन्द्रीकृत स्वरूप धारण कर लिया. इस स्थिति ने आंदोलन का संचालन कनिष्ठ नेताओं और सामान्य जनता के हाथों में आ गया.
इस तरह यह एक ऐतिहासिक क्षण था जिसने राष्ट्रीय संघर्ष को केवल राजनीतिक अभिजात वर्ग से निकालकर जमीनी स्तर पर स्थानांतरित कर दिया. संगठनात्मक नियंत्रण की कमी ने जनता को अपनी रचनात्मकता और विद्रोह की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित किया.
यह घटनाक्रम इंगित करता है कि राष्ट्रवादी भावना अब केवल महात्मा गांधी या कांग्रेस के आदेशों पर निर्भर नहीं थी, बल्कि भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी थी. यह एक शक्तिशाली जन-आधारित आंदोलन बन गया. इस दौरान ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ हर कोने से विरोध की आवाज उठी.
आंदोलन का विस्तार
बड़े नेताओं के गिरफ्तार होने पर यह आंदोलन जयप्रकाश लोहिया, पटवर्धन आदि कई नेताओं ने मिलकर चलाया. यह उन्होंने भूमिगत रहकर कार्य किया. कांग्रेस के महात्मा गांधी समेत सभी नेता जेल मे थे. अतः यह आंदोलन अहिंसक न रह सका. हड़तालें, प्रदर्शन तथा जुलूस-जलसे हुए. सरकार ने आंदोलन को बर्बतापूर्वक दबाया.
11 अगस्त, 1942 ई. को बंबई मे पुलिस ने शाम तक तेरह बार गोलियाँ चलाई. “गांधी जी की जय” गांधी जी को छोड़ दो” के नारे लगा रहे शांतिपूर्ण जुलूसों पर सरकार ने गोलियां चलाई थी. अतः लोगो मे पुलिस और सरकार के विरुद्ध विद्रोह की आग भड़क उठी. वे हिंसा पर उतर आये. भारतीय जनता ने ईंट का जवाब पत्थर से देने की रणनीति अपना ली.
क्रांतिकारियों ने गुप्त रूप से रेलवे स्टेशनों, डाकघरों, पुलिस स्टेशनो मे आग लगा दी. म्युनिसिपाल्टियों के भवनों, सरकारी इमारतों तथा संपत्ति पर आक्रमण किये गये. रेलों और तार की लाइनें काट दी गई. उत्तरप्रदेश के बलिया जिले तथा पूर्वी उत्तरप्रदेश के कुछ स्थानों पर अस्थाई सरकार की स्थापना कर दी गई. इससे भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन अपंग सा हो गया.
सरकार ने इस आंदोलन को दबाने के लिये सेना का सहारा लिया और लोगो पर भीषण अत्याचार किये. कई लोग मारे गये तथा हजारों से लोग घायल हुए. एक लाख से भी अधिक आंदोलनकारी जेल मे ठूंस दिये गये.
बिहार के एक गाँव मे 11 अगस्त और 22 अगस्त तथा 6 दिसम्बर, 1942 को मशीनग्नों से लोग को मारा गया. पुलिस और सेना के अत्याचारों से क्षुब्ध जनता ने बंगाल के विभिन्न स्थानों पर और मद्रास मे आक्रमण करने के लिये हथियारों का आश्रय लिया. बम्बई, उत्तरप्रदेश और मध्य प्रान्त मे कई स्थानों पर क्रांतिकारियों ने बम फेंके.
माइक ब्रेचर के अनुसार, ” सरकार का दमनचक्र बहुत कठोर था और क्रांति को दबाने के लिए पुलिस राज्य की स्थापना हो गई थी.”
वरिष्ठ नेताओं की भूमिका
हालांकि जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे संगठनात्मक स्तंभों को आंदोलन की शुरुआत में ही गिरफ्तार कर लिया गया था. उनकी अनुपस्थिति ने क्षेत्रीय और स्थानीय नेताओं के लिए निर्णायक भूमिका निभाने का मार्ग प्रशस्त किया. वरिष्ठ नेताओं की गिरफ्तारी के बावजूद, कांग्रेस पार्टी की आंतरिक एकता आंदोलन के लिए महत्वपूर्ण बनी रही.
इस संदर्भ में, सरदार पटेल की दूरदर्शिता और महात्मा गांधी के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा की सराहना की जाती है. उन्होंने पार्टी की एकता को अपने व्यक्तिगत सम्मान और महत्वाकांक्षाओं से ऊपर रखा. यह एकता स्वतंत्रता के लिए आगे की राजनीतिक बातचीत और सत्ता के हस्तांतरण के समय कांग्रेस की सामूहिक शक्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी.
वरिष्ठ नेतृत्व की अनुपस्थिति ने एक विरोधाभासी परिणाम उत्पन्न किया. जहाँ एक ओर संगठनात्मक नियंत्रण का अभाव था, वहीं दूसरी ओर जनता की स्वतःस्फूर्त, स्थानीय विद्रोह की अभिव्यक्ति ने राष्ट्रीय भावना को असाधारण रूप से मजबूत किया.
भारत छोड़ो आंदोलन एक नजर में
पहलू | विवरण |
अन्य नाम | अगस्त क्रांति (August Revolution) |
प्रारंभ तिथि | 9 अगस्त, 1942 |
प्रस्ताव पारित तिथि | 8 अगस्त, 1942 |
मुख्य नारा | “करो या मरो” (Do or Die) |
प्रस्ताव स्थल | ग्वालिया टैंक मैदान, बॉम्बे |
कांग्रेस अध्यक्ष (प्रारंभ) | मौलाना अबुल कलाम आज़ाद |
आंदोलन की मुख्य विशेषताएँ
भूमिगत गतिविधियाँ
भारत छोड़ो आंदोलन की एक मुख्य विशेषता भूमिगत गतिविधियों का व्यापक नेटवर्क था. यह ब्रिटिश दमन के दौरान संघर्ष को जीवित रखने में महत्वपूर्ण था. शीर्ष नेतृत्व की गिरफ्तारी के बाद, जयप्रकाश नारायण (जेपीएन), राम मनोहर लोहिया, और उषा मेहता जैसे कनिष्ठ नेताओं का एक भूमिगत नेटवर्क उभरा, जिसने आंदोलन को दिशा दी.
इन भूमिगत नेताओं ने संचार और प्रचार के लिए अभिनव साधनों का उपयोग किया. उषा मेहता द्वारा संचालित एक गुप्त रेडियो स्टेशन इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है. इस समय मुख्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था और प्रेस पर कठोर सेंसरशिप लगा दी गई थी.
ऐसे वक्त में यह गुप्त रेडियो स्टेशन सूचना प्रसारित करने और विद्रोह की भावना को जीवित रखने के लिए एक महत्वपूर्ण संचार तंत्र बन गया. यह गुप्त संचार प्रणाली ब्रिटिश निगरानी से बचते हुए जनता तक राष्ट्रीय संदेश पहुँचाने में सफल रही.
अरुणा आसफ अली और सुचेता कृपलानी जैसी महिलाओं ने भी नेतृत्वकारी भूमिका निभाई. अरुणा ने ”दिल्ली छोड़ो” आंदोलन का भी नेतृत्व किया. इन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी’ कहा जाता है. हजारों महिलाएं जुलूसों और प्रदर्शनों में शामिल हुईं, जो उस समय सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने वाला कदम था.
समानांतर सरकारों की स्थापना
आंदोलन की सबसे क्रांतिकारी विशेषताओं में से एक देश के कई हिस्सों में समानांतर सरकारों (जातीय सरकार – Jatiya Sarkar) की स्थापना थी. ये सरकारें ब्रिटिश सत्ता को समाप्त करके उन क्षेत्रों में स्वदेशी शासन स्थापित करने का सीधा प्रयास थीं.
यह दर्शाता है कि QIM केवल विरोध का आंदोलन नहीं था, बल्कि उन क्षेत्रों में ब्रिटिश संप्रभुता को पूरी तरह से समाप्त करने के उद्देश्य से किया गया एक वास्तविक, हालांकि अल्पकालिक, विद्रोह था.
प्रमुख समानांतर सरकारों ने निम्नलिखित स्थानों पर कार्य किया:
- बलिया (उत्तर प्रदेश): यहाँ एक स्थानीय स्वतंत्र/आजाद सरकार की स्थापना हुई.
- तामलुक (मिदनापुर, बंगाल): यहाँ ‘जातीय सरकार’ स्थापित हुई.
- सतारा (महाराष्ट्र): यहाँ स्थापित ‘प्रति सरकार’ सबसे लंबे समय तक चली.
इन समानांतर सरकारों ने ब्रिटिश प्रशासन द्वारा किए गए क्रूर दमन के बावजूद लोगों को एकजुट रखा और राष्ट्रवादी संघर्ष को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई 3.
व्यापक जन भागीदारी
भारत छोड़ो आंदोलन एक सच्चा जन-आधारित आंदोलन था. इसमें समाज के विभिन्न वर्गों की व्यापक भागीदारी थी. इसमें छात्रों, किसानों, श्रमिकों, और महिलाओं ने वर्ग और समुदाय से ऊपर उठकर उत्साहपूर्वक भाग लिया. आंदोलन का मुख्य प्रसार उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, मिदनापुर (बंगाल), और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में केंद्रित था.
इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी विशेष रूप से उल्लेखनीय थी. अरुणा आसफ अली ने ग्वालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराकर गिरफ्तारी के बाद नेतृत्व का एक शक्तिशाली प्रतीक स्थापित किया.
असम की कनकलता बरुआ जैसी युवा महिलाओं ने ब्रिटिश अधिकारियों का विरोध करते हुए राष्ट्रीय ध्वज फहराया और बलिदान दिया. पटना सचिवालय गोलीकांड में सात किशोर छात्र राष्ट्रीय ध्वज फहराते हुए शहीद हो गए.
ब्रिटिश दमन और कार्रवाई
ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ सैन्य बल का व्यापक और क्रूर उपयोग किया. आंदोलन को अत्यंत हिंसक रूप से दबाया गया. पुलिस द्वारा लोगों पर गोलियाँ चलाई गईं, लाठीचार्ज किया गया, गाँवों को जला दिया गया. जनता पर भी भारी जुर्माना लगाया गया.
आंदोलन की व्यापकता को कुचलने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने हिंसा का सहारा लिया. करीब 1,00,000 (एक लाख) से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया. गिरफ्तारियों का यह विशाल पैमाना आंदोलन की व्यापक पहुंच और औपनिवेशिक प्रशासन के निर्मम दमन, को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है. यह आंकड़ा एक युद्धकालीन औपनिवेशिक राज्य की हताशा को भी दर्शाता है. वास्तव में औपनिवेशिक सरकार ने अपनी वैधता खो दी थी और अब केवल बल के प्रयोग पर निर्भर था.
आंदोलन के दौरान कुछ स्थानों पर हिंसा भी देखी गई. लेकिन यह कांग्रेस द्वारा पूर्व नियोजित नहीं थी. यह हिंसा मुख्य रूप से ब्रिटिश पुलिस और सेना की शुरुआती क्रूरता के जवाब में जनता की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी. लेकिन यह ‘करो या मरो’ के आह्वान की भावना के अनुरूप थी. मतलब यह जन-विद्रोह की तीव्र अभिव्यक्ति थी.
आंदोलन का धीमापन और अंत
व्यापक दमन और शीर्ष नेतृत्व की दीर्घकालिक गिरफ्तारी के कारण, आंदोलन की मुख्य धारा अंततः 1944 आते-आते समाप्त हो गई. हालांकि स्थानीय प्रतिरोध और भूमिगत गतिविधियाँ कुछ समय तक जारी रहीं. महात्मा गांधी को मई 1944 में स्वास्थ्य कारणों से रिहा किया गया था. अन्य वरिष्ठ नेता लंबे समय तक जेल में रहे.
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि QIM को कुछ राजनीतिक समूहों का विभाजनकारी समर्थन मिला. जबकि कांग्रेस ने इस संघर्ष का नेतृत्व किया, मुस्लिम लीग और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) जैसे समूहों ने इसमें भाग नहीं लिया. यह तथ्य उस समय की राजनीतिक जटिलता को दर्शाता है. इस समय देश स्वतंत्रता की ओर बढ़ रहा था, लेकिन साथ ही विभाजन के कगार पर भी था.
भारत छोड़ो आंदोलन की असफलता के कारण
1942 का भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय इतिहास का एक महान जन-आंदोलन था. लेकिन यह असफल रहा. भारत छोड़ो आंदोलन की असफलता के कारण इस प्रकार है: –
1. सरकार का शक्तिशाली होना: इस आंदोलन के दौरान जनता की शक्ति सरकार के मुकाबले कम थी. सरकार अस्त्र-शस्त्रों से लैस थी और इसकी शक्ति जनता से कई गुना ज्यादा थी.
2. मतभेद: इस आंदोलन के संबंध मे बहुत अधिक मतभेद थे. स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू का कहना था कि इससे फासिस्टवाद को बल मिलेगा. कम्युनिस्टों और अम्बेडकर व राष्ट्रीय स्वयंसेवकों इत्यादि ने इसमे मदद नही दी. अकाली भी तटस्थ ही रहे.
3. संगठन की कमी: यह एक जन आंदोलन था. इसकी पूर्व से ही रणनीति बननी चाहिए थी. लेकिन इस आंदोलन मे ऐसा कुछ नही हुआ. कोई पूर्व निर्धारित कार्यक्रम नही था. किसी को यह पता नही था कि आंदोलन कैसे चलाना है तथा यदि नेता गिरफ़्तार हो जाते है तो आंदोलन को किस प्रकार जारी रखा जाएं?
4. सरकारी कर्मचारियों की सरकार के प्रति निष्ठा: इस आंदोलन के दौरान सरकारी सेवको ने जनता को कोई सहयोग नही दिया. इसके पीछे द्वितीय विश्व युद्ध के खतरों के प्रति आशंका हो सकती हैं.
भारत छोड़ो आंदोलन का महत्व और विरासत
भारतीय स्वतंत्रता पर प्रभाव
भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर अपने दीर्घकालिक और निर्णायक प्रभाव के लिए ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है. भले ही ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को सैन्य शक्ति के बल पर दबा दिया, इसने यह अंतिम रूप से स्थापित कर दिया कि भारत को अब लंबे समय तक गुलाम नहीं रखा जा सकता. यह आंदोलन ब्रिटिश राज के संस्थागत और नैतिक आधार को पूरी तरह से नष्ट करने में सफल रहा.
1944 के बाद, ब्रिटिश सरकार के लिए ‘क्या भारत को आजादी दी जाए’ का सवाल समाप्त हो गया. QIM की शक्ति ने ब्रिटिशों को यह महसूस करा दिया कि दमन की लागत शासन के लाभों से बहुत अधिक है. अब चर्चा अनिवार्य रूप से ‘सत्ता के हस्तांतरण की विधा’ पर केंद्रित हो गई. इसीलिए इस आंदोलन को ब्रिटिश शासन के ‘ताबूत में आखिरी कील’ (Last Nail in the Coffin) के रूप में देखा जाता है.
भविष्य के नेतृत्व का निर्माण
इस आंदोलन ने भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए एक नई पीढ़ी के नेताओं का निर्माण किया. राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, बीजू पटनायक, और सुचेता कृपलानी जैसे नेताओं ने भूमिगत गतिविधियों में शामिल होकर संघर्ष के दौरान नेतृत्व क्षमता और साहस का प्रदर्शन किया.
इन ‘जूनियर’ नेताओं ने स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इससे नए राष्ट्र को नेतृत्व की निरंतरता मिली. QIM उनके लिए एक गहन राजनीतिक प्रशिक्षण का मैदान साबित हुआ.
महात्मा गांधी ने के योजना ने स्वतंत्रता आंदोलन को एक जन आंदोलन में तब्दील कर दिया. उन्होंने छोटे शहरों और गांवों में इसका प्रसार किया. इससे स्वतंत्रता आम इंसान की जरूरत बन गई. यह जन-आधार QIM के दौरान अंतिम और सर्वाधिक शक्तिशाली रूप में सामने आया.
स्वतंत्रता का अंतिम चरण
भारत छोड़ो आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की श्रृंखला में एक ऐसी अपरिहार्य गति प्रदान की जिसने बाद में कई निर्णायक क्षणों को प्रेरित किया. इसका प्रभाव इतना गहरा था कि इसने भारतीय सेना और नौसेना के भीतर भी राष्ट्रवादी भावना को बढ़ावा मिला. यह बाद में 1946 में रॉयल इंडियन नेवी में विद्रोह (RIN Mutiny) जैसी घटनाओं को जन्म का कारण बना.
QIM के माध्यम से ब्रिटिश राज की नैतिक और भौतिक कमजोरी उजागर हुई. वास्तव में, भारत छोड़ो आंदोलन ने ब्रिटिश राज के संस्थागत और नैतिक आधार को नष्ट दिया था. इसने उनके पास भारत छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा. इसने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने भी यह स्पष्ट कर दिया कि भारत में ब्रिटिश शासन टिकाऊ नहीं है.
इस आंदोलन द्वारा उत्पन्न तीव्र जन-आक्रोश और बाद में सामने आए नेतृत्व की दृढ़ता ने भारत को 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश हुकूमत से आजादी का मार्ग प्रशस्त किया. QIM भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की आधारशिला बना. यह भारतीय संप्रभुता की दिशा में अंतिम और निर्णायक कदम सिद्ध हुआ.
QIM का ऐतिहासिक मूल्यांकन
भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय इतिहास में सबसे बड़ा, सबसे तीव्र और सबसे व्यापक नेतृत्वहीन विद्रोह था. इसने भारतीय राष्ट्र की सामूहिक इच्छाशक्ति की पराकाष्ठा का प्रतिनिधित्व किया. ब्रिटिश सरकार ने 100,000 से अधिक गिरफ्तारियों और क्रूर दमन के बावजूद, इस आंदोलन को पूरी तरह से दबाने में सफल नहीं हो पाई. इसका कारण ब्रिटिश राज के वैधता का जनता की नजरों में स्थायी रूप से समाप्त होना था.
QIM तात्कालिक स्वतंत्रता प्राप्त करने में विफल रहा और इसे व्यापक दमन का सामना करना पड़ा. लेकिन इससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा को अपरिवर्तनीय रूप से बदल गया. यह केवल राजनीतिक विरोध का कार्य नहीं था, बल्कि भारतीय जनता की ओर से ब्रिटिश सत्ता की अंतिम और पूर्ण अस्वीकृति की घोषणा थी.
डाॅ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है,” इस विद्रोह की ज्वालाओं ने औपनिवेशिक स्वराज्य की सारी ताकत जल गई. पूर्ण स्वतंत्रता से कम अब भारत कुछ नही चाहता था. भारत छोड़ो एक स्थाई बात थी. सम्राज्यशाही भारत के लिये बहुत बड़ा धक्का था.”
उपरोक्त कथन से सिद्ध होता है कि असफल होने के बाद भी 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन अत्यंत महत्वपूर्ण था. ब्रिटिश सरकार समझ चुकी थी कि अब अधिक दिनों तक भारत को अपने पैरों तले दबाकर नही रखा जा सकता. वस्तुस्थिति अब सम्पूर्ण विश्व के सामने आ चुकी थी तथा अमेरिका, चीन एवं मित्रराष्ट्र भारत की स्वतंत्रता के लिये ब्रिटेन पर दबाव डाल रहे थे. इस आंदोलन ने भारत मे एकता और राष्ट्रीयता की भावना मे वृद्धि कर दी.
भारत छोड़ो आंदोलन की एक अन्य विशेषता यह थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अन्य सभी प्रमुख नेता जेलों मे बंद थे. अतः इसे समाजवादियों तथा नौजवानों के नेतृत्व ने सफलतापूर्वक चलाया जिसने यह सिद्ध कर दिया कि भारत अब जाग गया है. अब इसे स्वतंत्र होने से नही रोका जा सकता.
इस आंदोलन के अनुभव बहुत लाभकारी थे. यह एक कार्यकारी आंदोलन बन गया था. जनता ने इसमे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. इस आंदोलन की ख्याति पूरे विश्व मे फैल गई, क्योंकि इसकी विश्वव्यापी प्रतिक्रिया हुई थी. 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन एक जन मुक्ति सैलाब के रूप मे जाना जा सकता है. यह आंदोलन असल मे भारत की जनता ने लड़ा था.
ब्रिटिश सरकार पर भारत छोड़ो आंदोलन का बहुत बूरा प्रभाव पड़ा था, जिसके चलते ब्रिटिश सरकार को 2-3 वर्ष के बाद ही विवश होकर भारत छोड़ना पड़ा. भारत को स्वतंत्रता के अंतिम लक्ष्य 15 अगस्त 1947 तक पहुंचाने मे मील के कई पत्थर थे. इनमे सबसे अधिक महत्व भारत छोड़ो आंदोलन का था.
भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement) पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. भारत छोड़ो आंदोलन कब और क्यों शुरू हुआ?
भारत छोड़ो आंदोलन 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बंबई अधिवेशन में शुरू हुआ. यह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान शुरू किया गया था, जिसका मुख्य कारण था ब्रिटिश शासन को तत्काल समाप्त करना ताकि भारत युद्ध के बाद अपनी संप्रभुता सुनिश्चित कर सके. क्रिप्स मिशन की विफलता और जापान के संभावित खतरे ने भी इस आंदोलन को प्रेरित किया.
2. आंदोलन का प्रस्ताव कहाँ पारित हुआ?
आंदोलन का प्रस्ताव मुंबई (तत्कालीन बंबई) के गोवालिया टैंक मैदान (जिसे अब अगस्त क्रांति मैदान कहा जाता है) में पारित हुआ था.
3. महात्मा गांधी ने आंदोलन के दौरान कौन सा नारा दिया?
महात्मा गांधी ने आंदोलन के दौरान प्रसिद्ध नारा “करो या मरो” (Do or Die) दिया, जिसका अर्थ था कि भारतीय या तो ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के प्रयास में मर जाएंगे, या पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करेंगे.
4. आंदोलन की प्रमुख माँगें क्या थीं?
☸ ब्रिटिश शासन का तत्काल अंत
☸ स्वतंत्र भारत
☸ युद्ध में भागीदारी से इंकार
☸ स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार का गठन
5. आंदोलन के शुरू होते ही प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी का क्या परिणाम हुआ?
आंदोलन शुरू होने के कुछ ही घंटों के भीतर (9 अगस्त 1942 को) ‘ऑपरेशन ज़ीरो ऑवर’ के तहत गांधीजी सहित सभी प्रमुख कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. इससे आंदोलन स्वस्फूर्त और नेतृत्वविहीन हो गया, जिससे यह जनता द्वारा संचालित एक व्यापक आंदोलन बन गया.
6. आंदोलन में महिलाओं की क्या भूमिका थी?
महिलाओं ने आंदोलन में अभूतपूर्व भूमिका निभाई. अरुणा आसफ अली ने बंबई के गोवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस का झंडा फहराया और भूमिगत होकर आंदोलन का नेतृत्व किया. ऊषा मेहता ने गुप्त रूप से ‘कांग्रेस रेडियो’ का संचालन किया, जो आंदोलन के संदेश को प्रसारित करता था.
7. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्थापित समानांतर सरकारें (Parallel Governments) कहाँ-कहाँ थीं?
आंदोलन के दौरान देश के कई हिस्सों में ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद समानांतर सरकारें स्थापित हुईं. इनमें प्रमुख थीं:
❖ बलिया, उत्तर प्रदेश: (अगस्त 1942, चित्तू पांडे के नेतृत्व में, सबसे कम समय चली)
❖ तामलुक, मिदनापुर, बंगाल: (दिसंबर 1942 – सितंबर 1944, जातीय सरकार के नाम से प्रसिद्ध, सबसे लंबे समय तक चली)
❖ सतारा, महाराष्ट्र: (1943 – 1945, वाई.बी. चव्हाण और नाना पाटिल के नेतृत्व में, सबसे लंबे समय तक चली)
8. आंदोलन की सफलता और विफलता का संक्षिप्त विश्लेषण क्या है?
✳️ सफलता (Impact): इसने ब्रिटिश सरकार को स्पष्ट संदेश दिया कि भारत पर शासन करना अब संभव नहीं है, जिससे स्वतंत्रता की प्रक्रिया तेज हुई. इसने जन-शक्ति और राष्ट्रवादी भावना को चरम पर पहुँचाया.
✳️ विफलता (Limitation): कठोर ब्रिटिश दमन के कारण यह आंदोलन लक्ष्य प्राप्त करने में तत्काल सफल नहीं हो सका. मुस्लिम लीग, कम्युनिस्ट पार्टी और रियासतों के अधिकांश वर्गों से समर्थन न मिलना इसकी बड़ी सीमा थी.
9. इस आंदोलन को ‘अगस्त क्रांति’ क्यों कहा जाता है?
चूँकि यह आंदोलन अगस्त महीने में शुरू हुआ था और भारत की स्वतंत्रता के लिए एक महत्वपूर्ण निर्णायक मोड़ साबित हुआ, इसलिए इसे ‘अगस्त क्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है.
10. भारत छोड़ो आंदोलन के समय भारत का वायसराय कौन था?
भारत छोड़ो आंदोलन के समय लॉर्ड लिनलिथगो (Lord Linlithgow) (1936-1943) भारत का वायसराय था.