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मधुबनी पेंटिंग: इतिहास और खासियत

पेंटिंग अभिव्यक्ति करने का बेहतरीन तरीका है. मधुबनी पेंटिंग इसी उक्ति को चरितार्थ करती है. भारतीय संदर्भ में, कला तब अस्तित्व में आई जब मानव ने मिट्टी की सतह पर पेंट करने के लिए टहनियों, उंगलियों या हड्डी के बिंदुओं का इस्तेमाल किया, जो लम्बे समय तक टिक नहीं सकता था. लेकिन, मधुबनी पेंटिंग की तकनीक बताती है कि यह लम्बे समय तक टिक सकता है. इसलिए, इसे आदिम युग का न मानकर सभ्यता के शुरुआत के काफी बाद का माना जा सकता है.

मधुबनी पेंटिंग क्या है? (What is Madhubani Painting in Hindi)

बिहार के मधुबनी जिले के नाम पर इस कला का नाम ‘मधुबनी पेंटिंग’ पड़ा है. मधुबनी, दो शब्दों, मधु और बन से मिलकर बना है. इसका शाब्दिक अर्थ मधु का वन यानी मधु का जंगल है.

ज्यामितीय डिजाइनों वाले इस पेंटिंग में प्राकृतिक रंगों और पिगमेंट का इस्तेमाल किया जाता है. हूबहू, चित्रकारी के जगह ज्यामितीय रूप से भावों, दार्शनिकता और मनोविज्ञान को दर्शाने के अनोखे कला का एक रूप, मधुबनी पेंटिंग है.

मिथिला क्षेत्र में उपलब्ध प्राचीन चित्रकलाओं में सिर्फ ‘मधुबनी पेंटिंग’ ही सजीव है. आजादी के बाद इसका बाजारीकरण हुआ व यह आज के समय में ग्लोबल हो गया है.

यह चित्रकला सदियों से इस क्षेत्र की महिलाओं द्वारा परम्परागत रूप से जीवित है. आज भी यह मिथिला का एक जीवित परंपरा है. आज इसपर न केवल समाज बल्कि धर्म, प्रेम और उन्नति के विषयों पर चित्रण के साथ यहाँ के सांस्कृतिक पहचान को भी दर्शाती है.

मधुबनी पेंटिंग का विस्तार (Expansion of Madhubani Painting)

यह पेंटिंग खासकर बिहार और नेपाल के मिथिला क्षेत्र में फैला है, इसलिए इसे मिथिला पेंटिंग भी कहा जाता है. यह पूर्णिया, सहरसा, सुपौल, दरभंगा, मुजफ्फरपुर व मधुबनी में ख़ास रूप से प्रचलित है. बिहार के अन्य क्षेत्रों में भी इसका थोड़ा-बहुत प्रभाव मिलता है.

आज के समय में इसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली है. इसमें बिहार के मुख्यमत्री नितीश कुमार का ख़ास योगदान है.

मधुबनी पेंटिंग का इतिहास (History of Madhubani Painting in Hindi)

इस पेंटिंग का ऐतिहासिक उल्लेख काफी कम मिलता है. कई लोग इसे छठी से सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व में विकसित मानते है. इसी वक्त भगवान् बुद्ध का भी जन्म नहीं हुआ था. इसलिए, इसे बुद्ध से पूर्व का चित्रकला मान सकते है. हो सकता है कि यह भी आदिवासी या श्रमण परम्परा का हिस्सा हो. ये जान लें की अभी तक यह परंपरा कितनी पुरानी है, ज्ञात नहीं किया जा सका है.

सबसे पहले मधुबनी पेंटिंग से दुनिया का वास्ता 1934 में बिहार में आए भूकंप के समय मिली. अंग्रेज अधिकार विलियम जी आर्चर बिहार के भूकंप प्रभावित इलाकों का व्यापक दौरा कर रहे थे. इसी समय वे मधुबनी के इलाके में पहुंचे. उन्होंने कई घरों के दीवारों पर इस पेंटिंग को देखा. इसके बाद उन्होंने इसपर एक लेख लिखा. इस तरह बाकि दुनिया इससे वाकिफ हुई.

Wiliam archer kohbar painting image madhubani painting
विलियम आर्चर द्वारा मधुबनी पेंटिंग की ली गई ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर

मधुबनी शहर के पास स्थित जितवारपुर और रन्ती को मधुबन कहा जाता है. इस पेंटिंग का मूलस्थान भी इसे ही माना जाता है.

1962 में एक विदेशी पर्यटक ने स्थानीय महिलाओं से यह पेंटिंग कागज पर बनवा लिया. फिर उसने अपने घर में आसपास को लोगों को दिखवाया. यह काफी ऊँची कीमत पर बिकी. तब से मधुबनी पेंटिंग का व्यावसायिक उपयोग होने लगा.

कालांतर में मधुबनी पेंटिंग पर रामायण का भी प्रभाव दिखने लगा है. कई लोग भूलवश रामायण को हिन्दू धर्म का साहित्य के स्थान पर इतिहास का पुस्तक मान लेते है. इस वजह से इस पेंटिंग को रामायण के घटनाओं के सबूत के तौर पर भी पेश कर दिया जाता है. हालाँकि, यह तथ्य सत्य नहीं है. यह पेंटिंग कालांतर में रामायण उपन्यास से प्रेरित हो गया है. लेकिन यह पेंटिंग रामायण का इतिहास होने का सबूत नहीं है. इस पेंटिंग पर राम-विवाह का चित्रण किया जाने लगा है.

विद्यापति की रचना, कीर्तिपताका में भी मधुबनी पेंटिंग का वर्णन है. विद्यापति बेगूसराय व समस्तीपुर के सिमा पर स्थित विद्यापति धाम के निवासी थे.

मधुबनी पेंटिंग की थीम (Theme of Madhubani Painting)

मधुबनी पेंटिंग घर के दीवारों पर किसी उत्स्व के वक्त बनाया जाता था. यह खासकर विवाह के वक्त कोहबर में मनाया जाता है. कोहबर वह स्थान होता है, जहाँ परिवार के कुलदेवता स्थापित होते है. आमतौर पर आदिवासियों में अपने पूर्वजों को देवता माना जाता है. बिहार के बहुजनों में भी अपने पुरखों को कुलदेवता मानने का परम्परा रहा है. इसलिए, मधुबनी पेंटिंग को बहुजन परम्परा का चित्रकला माना जा सकता है.

यह जीवन के खास अवसरों के अलावा, गोसाईं घर, मतलब कुलदेवता के घर की सजावट में खासतौर से प्रयोग में लाइ जाती है. इसे सुखी व समृद्ध जीवन का द्योतक भी माना जाता है. इस चित्रकला से कुलदेवता को प्रसन्न कर वंश परंपरा के समृद्धि की कामना की जाती है.

मधुबनी पेंटिंग कैसे बनाते हैं? (How to make Madhubani Painting in Hindi)

यह माचिस की तीली या बांस के कलम से बनाया जाता है. इसमें चटख रंगों का अधिक इस्तेमाल होता है, जैसे गहरा लाल, हरा, नीला एवं काला. कई बार हल्के रंग, जैसे- निम्बुआ, पीला इत्यादि का इस्तेमाल भी होता है.

रंगों को प्राकृतिक तरीके से तैयार किया जाता है. फिर इसे वांछित जगह, कागज या कपड़े पर उकेड़ा जाता है. इसमें ज्यामितीय प्रकार से चित्र बनाए जाते है. यह हूबहू न होकर, भावनाओं के अभिव्यक्ति के आधार पर बनाए जाते है. मुखाकृतियों की आँखें काफी बड़ी बनाई जाती हैं. चित्र में खाली जगह भरने हेतु फूल-पत्तियाँ, चिह्न आदि बनाए जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि खाली स्थान गरीबी का प्रतिक है और इसमें नकारात्मक शक्ति का वास होता है.

चित्रण से पूर्व हस्त नर्मित कागज तैयार किया जाता है. कागज पर गाय के गोबर का घोल तथा बबूल का गोंद मिलाकर लेप चढ़ाया जाता है. सूती कपड़े से गोबर के घोल को कागज पर पेंटq कर इसे धूप में सुखाकर मधुबनी पेंटिंग बनाई जाती है.

पेंटिंग्स में कुछ हल्के रंग भी यूज होते हैं, जैसे पीला, गुलाबी और नींबू रंग. अब इंटरनेशनल मार्केट में इसकी डिमांड देखते हुए कलाकार आर्टीफीशियल पेंट्स भी यूज करने लगे हैं. यह लेटेस्ट कैनवस पर भी बनने लगा है.

रंग निर्माण प्रक्रिया (Colour Making Process in Hindi)

मधुबनी पेंटिंग के पारम्परिक स्वरुप में प्राकृतिक स्त्रोतों से प्राप्त संसाधन से रंग तैयार किये जाते है. इसमें इस प्रकार से रंगों का निर्माण किया जाता है-

  • सफेद- चावल व उड़द की दाल से, कई बार चुने का भी इस्तेमाल
  • काला- काजल व जौ जलाकर
  • नारंगी- पलाश के फूलों से
  • हरा- सीम के पत्तो से
  • लाल- कुसुम या शहतूत के फूलो से
  • पीला- चुना व बेर के पत्तों के दूध के मिलावट से
  • पीपल के छाल, हल्दी इत्यादि का भी इस्तेमाल रंग के लिए किया जाता है.

आजकल कुछ लोग कृत्रिम रंगों का इस्तेमाल भी करने लगे है. प्राकृतिक रंगों के टिकाऊ के लिए बबूल का गोंद का इस्तेमाल किया जाता है.

मधुबनी पेंटिंग के प्रकार (Types of Madhubani Painting in Hindi)

यह तीन प्रकार का होता है-

1. भित्ति चित्र (Graffiti)

इसमें घर के दीवारों व आंगनों को चित्रकला से सजाया जाता है. चित्र के प्रकार व सन्देश के आधार पर इसे तीन रूपों में विभाजित किया जाता है-

गोसाँई घर की सजावट

कुलदेवता को ही बिहार के ग्रामीण व बहुजन गोसाँई कहते है. चूँकि, कुलदेवता का हूबहू चित्रण संभव नहीं होता है. इसलिए, मधुबनी चित्रकला के माध्यम से उनका काल्पनिक चित्रण किया जाता है.

कालांतर में ब्राह्मण धर्म के देवी-देवताओं को भी घर के पूजा स्थलों में उकेरा जाने लगा. इसमें सीता-राम, राधा-कृष्ण, पार्वती-शिव, लक्ष्मी-विष्णु, दशावतार व सरस्वती इत्यादि प्रमुख हैं. इसे मधुबनी चित्रकला का गोसनी रूप कहा जाता है. इस प्रकार के पेंटिंग को खासकर बिहार के ब्राह्मणों और कायस्थों ने बढ़ावा दिया है.

कोहबर घर की सजावट

मधुबनी पेंटिंग का यह मूल रूप है. 1934 में विलियम आर्चर के लेख में भी इसी का ख़ास वर्णन है. साल 1949 में उन्होंने ‘मार्ग’ के नाम से एक आर्टिकल लिखा था,जिसमें उन्होंने मधुबनी पेंटिंग की खासियत के बारे में विस्तार से बताया था. इसके बाद पूरी दुनिया को मधुबनी पेंटिंग की सुंदरता और खासियत के बारे में पता चलने लगा.

इस पेंटिंग में शादी व इसके उद्देश्य से नए जोड़े को सन्देश दिया जाता है. बोलकर यह सन्देश देना थोड़ा मुश्किल होता है. इसलिए घर की महिलाऐं सामूहिक रूप से चित्रण के मार्फत जोड़े को संदेश देती है.

यह कुलदेवता के स्थान पर की गई चित्रकारी है. इसमें कामुकता का भी चित्रण किया जाता है. कामुकता के लिए स्त्री-पुरुष के जननांगों सहित चित्रण किया जाता है. ये स्त्री-पुरुष क्रमशः रति-कामदेव होते है.

कोहबर के कोनिया का चित्रण

विवाह के अवसर पर, गोसाईं घर के चार कोनों को विशेष रूप से सजावट की जाती है. इसे कोनिया (कोणिया) का चित्रण कहा जाता है. इसमें यक्ष-यक्षिणी, पशु-पक्षी व पेड़ पौधों का चित्रण ख़ास सन्देश देने के उद्देश्य से किया जाता है. ये संकेत है-

  • केला – मांसलता के प्रतिक के रूप में चित्रित किया जाता है.
  • सूर्य तथा चन्द्रमा- दीर्घ जीवन.
  • सिंह- शक्ति.
  • हाथी व घोड़ा- ऐश्वर्य का प्रतीक.
  • हंस व मयूर- शांति.
  • मछली- कामोत्तेजना.
  • कमल का पत्ता- स्त्री प्रजननइन्द्रिय .
  • बांस- वंशवृद्धि.
  • सुग्गा या तोता- कामवाहक.

मूलनिवासियों में प्रचलित ये प्रतिक मधुबनी पेंटिंग के मुख्य अंग है.

2. अरिपन (भूमिचित्रण-Landscape) (Aripan)

यह घर के आंगन या चौखट के पास बनाया जाने वाला चित्रकला है. इसकी तुलना दिवाली के रंगोली से की जा सकती है, जो जमीन पर ही बनाया जाता है. इसमें चित्रण के लिए कच्चे चावल को पीसकर सफ़ेद रंग प्राप्त किया जाता है. चित्र के अधिकांश हिस्से इसी पीसे चावल से बनाए जाते है.

यह बंगाल में भी लोकप्रिय है. बंगाल में इसे अल्पना कहा जाता है. बिहार के मिथिला में इसे अरिपन कहते है. धीरे-धीरे इसमें भी धार्मिकता प्रवेश कर गई है. अब प्रकृति के साथ-साथ पुरणों और अन्य धार्मिक पुस्तकों व स्थानीय साहित्यों के आधार पर भी इसमें चित्रण किया जाता है.

हम इसे पांच श्रेणियों में विभाजित कर सकते है-

  1. मनुष्य व पशु-पक्षियों का चित्रण
  2. फूल, पेड़ व फलों का चित्रण
  3. तांत्रिक प्रतीकों का चित्रण
  4. देवी-देवताओं का चित्रण
  5. बौद्ध व हिन्दू धर्म का स्वास्तिक व दीप का चित्रण इत्यादि

विशेष अवसर के लिए अरिपन

ख़ास अवसर पर भी अरिपन बनाकर उत्सव मनाया जाता है. पर्व-त्यौहार, विवाह, व धार्मिक अनुष्ठान के अवसर पर.
तुलसी पूजा खासकर अविवाहित युवतियों द्वारा की जाती है. इस अवसर पर, इनके द्वारा की गई चित्रकला में ज्यामितीय प्रभाव काफी अधिक दिखते है. त्रिकोण व आयत का सबसे अधिक उपयोग होता है.
विवाह के अवसर पर बनाए गए अरिपन में विभिन्न प्रकार के पत्तियों का समावेश होता हैं.

3. पट्टचित्र

इसका विकास प्राचीन भारतीय चित्रकला व नेपाल के पट्टचित्र कला से हुआ है. ये चित्र छोटे-छोटे चित्रों और कागज पर उकेरे जाते है. इन्हें उकेरने से पहले कागज को विशेष विधि से तैयार किया जाता है. इसका मकसद चित्र को टिकाऊ बनाना होता है.

मधुबनी पेंटिंग की विशेषताएं (Features of Madhubani Painting in Hindi)

  1. इस चित्रकला में पीला रंग धरती, उजला पानी, लाल आग, काला वायु व नीला आकाश के लिए प्रयोग होता है.
  2. चित्र में वस्तुओं का सांकेतिक रूप में बनाया जाता है. जैसे किसी पुरुष या महिला के चित्रण के लिए, उसके सौंदर्य व सौष्ठव के जगह, गन, व्यवसाय व दार्शनिक पक्षों को दर्शाया जाता है. किसी जानवर का चित्रण करना हो तो उसे इस तरह चित्रित किया जाता है कि कोई जानवर है.
  3. इस चित्रकला को गरीबों का कला कहा जा सकता है. इसके लिए किसी खास खरीद व प्रशिक्षण की जरूरत नहीं होती है. आसपास मौजूद संसाधनों से चित्र बनाने के सामान जुटाए जाते है और कला को मूर्त रूप दिया जाता है. रंगों के लिए पौधे की पट्टी, फूल, फल और पौधों के अन्य भाग प्रयोग किए जाते है.
  4. ब्रश के लिए बांस की कूंची या हाथ का ऊँगली प्रयोग किया जाता है. कई बार बांस के पतले डंडे के सिरे में सूती कपडा लपेटकर भी चित्रकारी किया जाता है.
  5. इन चित्रों को मुख्यतः घरों की दीवारों पर ही बनाया जाता था. हाल के दौर में कागज और कपड़ों पर ऐसे चित्रकारी का उपयोग व्यावसायिक तौर पर किया जा रहा है.
  6. लोक-कल्पना की ऊँची उड़ान, कला से गहरा भावनात्मक लगाव व सुन्दर प्राकृतिक रंग इसे अलग पहचान देता है.
  7. बॉर्डर या आउटलाइन मधुबनी पेंटिंग का अहम हिस्सा है. मधुबनी पेंटिंग के छात्रों को सबसे पहले यही सिखाया जाता है. बॉर्डर पैटर्न के साथ सुंदर रूपरेखा पेंटिंग की इस शैली को अद्वितीय बनाती है. मधुबनी पेंटिंग बॉर्डर डिज़ाइन के लिए विभिन्न पैटर्न का उपयोग किया जाता है. ये पैटर्न सीखना और उकेरना आसान होता है.

जीविका का साधन (Livelihood)

आरम्भ में मिथिला के लोग मिथिला पेंटिंग को अपने घर के साज-सज्जा के रूप में इस्तेमाल करते थे. लेकिन, इसके आकर्षकता ने इसे प्रसिद्ध बना दिया. इसलिए, आज कई लोगों के जीविका का साधन यह बन गया है. आज कई चित्रकारों ने इस पेंटिंग से ख्याति व पुरस्कार प्राप्त किए है.

मधुबनी पेंटिंग से जुड़े ख़ास कलाकार (Famous Artist of Madhubani Painting in Hindi)

यह पेंटिंग इस मायने में ख़ास है कि इसके 95 फीसदी कलाकार महिलाऐं है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि घरों के साज-सज्जा का काम मुख्यतः महिलाओं के हाथ रहा है. इसलिए इसे महिला चित्रकारी कहा जा सकता है.

हालाँकि, शिवन पासवान, अरुण कुमार यादव व नरेंद्र कुमार कर्ण ने इस कलाकारी में महिला वर्चस्व को चुनौती दी. आज के समय में कई पुरुष कलाकार भी इससे जुड़े हुए है.

भगवती देवी, महादेवी सुंदरी (पद्मश्री 2010), यमुना देवी, बौआ देवी, सुश्री देवी, नीलू यादव, कर्पूरी देवी, शांति देवी, गोदावरी दत्त, भूला, मुद्रिका, हीरा, श्यामा, जानकी, त्रिपुरा व भूमा देवी, भर्ती दयाल, जानकी देवी, चन्द्रकला व कर्पूरी देवी इस कलाकृति से जुड़े पुरस्कार प्राप्त लोग है.

मधुबनी जिले के जितवारपुर ग्राम निवासी बौआ देवी को साल 2017 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. चित्रकार दुलारी देवी को 2021 में पद्मश्री प्रदान किया गया.

मधुबनी पेंटिंग के इंस्टीट्यूट

देश के कई शिक्षण संस्थाओं में मधुबनी पेंटिंग पर सर्टिफिकेट व डिग्री कोर्स चलाए जाते है. ये है

  • हिमांशु आर्ट इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली.
  • राष्ट्रीय मिथिला कला संस्थान, दरभंगा
  • मिथिला स्कूल ऑफ़ आर्ट, मधुबनी
  • संस्कृत हाईस्कूल, सौराठ, मधुबनी
  • मिथिला पेंटिंग इंस्टिट्यूट, मधुबनी (सरकारी व थोड़ा बेहतर)

मधुबनी पेंटिंग आर्ट गैलरी

यदि आप मधुबनी पेंटिंग के वास्तविक रूप का दर्शन करना चाहते है तो, मिथिला के ग्रामीण इलाकों का दौरा कर सकते है. इसके अलावा भी कई सार्वजनिक स्थानों पर इसे दर्शाया गया है.

बिहार के पटना व मधुबनी रेलवे स्टेशनों के दीवारों पर इसे उकेरा गया है.

लार्जेस्ट मिथिला आर्ट गैलरी का निर्माण कई कलाकारों द्वारा मधुबनी रेलवे स्टेशन पर किया गया है. यहाँ के दीवारों पर 10,000 sq/ft में इसे उकेरा गया है. श्रमदान से उकेरी गई इस कलाकृति को देखने कई पर्यटक आते है.

विदेशों में, जापान में भी मधुबनी पेंटिंग से जुड़ा एक संग्राहलय है.

पटना में गंगा रिवर फ्रंट, संसद भवन के द्वार व कई अन्य स्थलों पर उकेरा गया है. स्वर्णजयंती जनता एक्सप्रेस के डब्बों पर भी इसकी चित्रकारी की गई है.

निष्कर्ष (Conclusion)

मधुबनी पेंटिंग का लिखित इतिहास का अभाव है. इसलिए, इसका प्राचीनता ज्ञात करना मुश्किल है. समय के साथ, इसमें विकास हुआ है. आज यह एक ख्यातिप्राप्त कलाकृति है. कई लोग इसका छोटा कैनवास अपने घर के दीवारों पर सजावट के रूप में लगाना पसंद करते है. जनता से जुड़े होने के कारण, यह अत्यधिक लोकप्रिय है.

ख़ास बात ये है कि खुलापन, प्रकृति प्रेम, पूर्वज व पुरखों के याद में समारोह, भारतीय आदिवासी समाज की पहचान है. मधुबनी पेंटिंग भी इनसे प्रभावित है.

गरीब लोग अपने घर के मिटटी के दीवालों पर, प्रकृति, सूर्य व चन्द्रमा से जुड़े चित्रों को उकेरकर अपने घरों को सजाते रहे है. भित्ति चित्र का यह स्वरुप ही मिथिला या मधुबनी पेंटिंग की खासियत है. कई आदिवासी इलाकों में भी ऐसा चित्रकारी देखा जा सकता है.

हाल के कुछ वर्षों में बिहार व भारत सरकार ने इसे काफी प्रोत्साहित किया है. इसके वजह से यह और भी प्रसिद्ध होते चला गया.

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