कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद तुर्क सरदारों ने आरामशाह को सुलतान बनाया. आरामशाह अक्षम और आलसी था. इसलिए कई तुर्क सरदारों ने उसका विरोध किया. साम्राज्य में अराजकता फैल गई. वह स्थिति को नियंत्रित करने में असफल रहा. परिणामस्वरूप, दिल्ली के तुर्क सरदारों ने बदायूँ के गवर्नर इल्तुतमिश को दिल्ली बुलाया. इल्तुतमिश, कुतुबउद्दीन ऐबक का विश्वस्त गुलाम और दामाद था. उसने दिल्ली के पास युद्ध में आरामशाह को हराकर मार डाला. इस तरह इल्तुतमिश 1210 ई. में स्वयं सुलतान बना.
इल्तुतमिश की चुनौतियाँ (Threats to Iltutmish)
सुलतान बनने के बाद इल्तुतमिश को आंतरिक और बाह्य समस्याओं का सामना करना पड़ा. उसके तीन मुख्य प्रतिद्वंद्वी थे: गजनी का ताजुद्दीन यल्दौज, सिंध का नासिरुद्दीन कुबाचा, और बंगाल का अलीमर्दान खाँ.
राजपूत शासक भी दिल्ली सल्तनत के लिए खतरा बने हुए थे. कालिंजर व ग्वालियर जैसे क्षेत्र तुर्कों के नियंत्रण से बाहर हो चुके थे. मंगोल आक्रमण का भय भी बना हुआ था. आंतरिक रूप से, तुर्की अमीरों का एक वर्ग इल्तुतमिश के खिलाफ था. प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह अव्यवस्थित थी.
नवस्थापित तुर्की सल्तनत संकट में थी, जिसे केवल एक दृढ़ और साहसी शासक ही बचा सकता था. इल्तुतमिश ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई. यही कारण है कि कई इतिहासकार उसे भारत में तुर्की सल्तनत का वास्तविक संस्थापक मानते हैं.
सल्तनत की शक्ति और प्रतिष्ठा का विस्तार
इल्तुतमिश ने सबसे पहले सुलतान की सत्ता और सम्मान को मजबूत करने पर ध्यान दिया. उसने विरोधी अमीरों को महत्वपूर्ण पदों से हटाकर अपने विश्वासपात्र लोगों को नियुक्त किया. इसके लिए उसने ‘चरगान’ या ‘चालीसा’ नामक समूह बनाया. इसमें उसके विश्वस्त लोग शामिल थे. इन्हें राज्य के प्रमुख पद सौंपे गए.
इसके अलावा, योग्यता के आधार पर भारतीय और विदेशी मुसलमानों को भी उच्च पद दिए गए. इसमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया. इल्तुतमिश ने वंशानुगत राजतंत्र को अपनाया. उसने अपने जीवनकाल में अपनी पुत्री रजिया को उत्तराधिकारी घोषित किया.
इक्तदारी व्यवस्था की शुरुआत
इल्तुतमिश का एक प्रमुख योगदान था इक्तदारी व्यवस्था की स्थापना. उसने राज्य को छोटी-छोटी प्रशासनिक इकाइयों, जिन्हें ‘इक्ता’ कहा गया, में बाँट दिया. इन इकाइयों के अधिकारी ‘इक्तदार’ कहलाए.
बड़े इक्तदार प्रांतीय गवर्नर की तरह कार्य करते थे, जिन्हें सैन्य, पुलिस, और न्यायिक अधिकार प्राप्त थे. वे कर संग्रह का कार्य भी करते थे. छोटे इक्तदार केवल सैन्य जिम्मेदारियाँ निभाते थे. इक्तदारों को उनकी सेवाओं के बदले अपने क्षेत्र से कर वसूलने का अधिकार था. इस कर का कुछ हिस्सा वे अपने लिए रख सकते थे. इस व्यवस्था ने पुरानी सामंती व्यवस्था को समाप्त कर दिया.
मुद्रा सुधार (Currency Reform)
इल्तुतमिश ने मुद्रा व्यवस्था में भी सुधार किया. उसने पुराने सिक्कों के स्थान पर अरबी शैली के ‘टंक’ सिक्के चलाए. ये सिक्के सोने और चाँदी के बने होते थे और वजन 175 ग्रेन था. इन सिक्कों पर खलीफा का नाम अंकित किया गया. टंकों पर टकसाल का नाम लिखने की प्रथा भी शुरू की. ये सिक्के केवल राजकीय टकसाल में ढाले जाते थे. टंकों के अलावा, पीतल के ‘जीतल’ सिक्के भी जारी किए गए. इस सुधार से इल्तुतमिश ने अपनी सत्ता की मजबूती का प्रमाण दिया.
न्याय व्यवस्था (Judiciary)
इल्तुतमिश को एक न्यायप्रिय शासक माना जाता है. उसने जनता को उचित न्याय प्रदान करने के लिए राजधानी और सल्तनत के प्रमुख शहरों में काजी और अमीर-दाद नियुक्त किए. इनके निर्णयों के खिलाफ लोग प्रधान काजी की अदालत में अपील कर सकते थे. अंतिम फैसला सुलतान स्वयं करता था. इस व्यवस्था में सुलतान की सर्वोच्चता थी.
शिक्षा, साहित्य, और कला का संरक्षण
हालाँकि इल्तुतमिश का अधिकांश समय युद्धों में बीता. फिर भी उसने शिक्षा, साहित्य, और कला में गहरी रुचि दिखाई. वह स्वयं विद्वान नहीं था. लेकिन विद्वानों का सम्मान करता था और उन्हें संरक्षण देता था. उसके शासनकाल में मध्य एशिया की अशांति के कारण कई लेखक और विद्वान दिल्ली आए. इन्हें इल्तुतमिश ने आश्रय दिया.
परिणामस्वरूप, दिल्ली इस्लामी शिक्षा, साहित्य, और ज्ञान-विज्ञान का केंद्र बन गया. उसे स्थापत्य कला में विशेष रुचि थी. उसने कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा शुरू किए गए कुतुब मीनार के निर्माण को पूरा किया. इसके अलावा, उसने सुल्तान गढ़ी, शम्सी मदरसा, हौज-ए-शम्सी, का निर्माण भी कराया. उसने कई मस्जिदें, मकबरे, तालाब, और खानकाह बनवाए.
इल्तुतमिश का मूल्यांकन
प्रारंभिक तुर्क सुल्तानों में इल्तुतमिश का स्थान अग्रणी है. उसने ऐबक के अधूरे कार्यों को पूरा किया और नवस्थापित दिल्ली सल्तनत को स्थायित्व प्रदान किया. इतिहासकार प्रो. ईश्वरी प्रसाद उसे गुलाम वंश का ‘वास्तविक संस्थापक’ मानते हैं.
प्रो. निजामी के अनुसार, “ऐबक ने सल्तनत की केवल मानसिक रूपरेखा तैयार की थी, जबकि इल्तुतमिश ने उसे व्यक्तित्व, शक्ति, दिशा, और शासन व्यवस्था प्रदान की.”
वह एक कुशल सेनापति, दूरदर्शी शासक, और कला-साहित्य का संरक्षक था. उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी तुर्की सल्तनत को विघटन से बचाकर उसे स्थिरता और सुरक्षा प्रदान करना. वास्तव में, भारत में तुर्की शासन की नींव इल्तुतमिश ने ही डाली.