गुलाम वंश के 5 अलोकप्रिय शासक

शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी के निधन के पश्चात उसके द्वारा विजित भारतीय क्षेत्र पर उसके गुलाम एवं प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक का अधिकार हो गया. गुलाम वंश के पहले शासक कुतुबुद्दीन ने भारत में प्रथम संप्रभुता सम्पन्न मुस्लिम राजवंश की स्थापना की दिल्ली इस राज्य की राजधानी थी. अतः इसे दिल्ली सल्तनत कहा गया. चूंकि ऐबक, मुहम्मद गोरी का गुलाम था. इसलिए, इस वंश को गुलाम वंश के नाम से जाना जाता है.

परन्तु इस वंश को ममलुक वंश के नाम से सम्बोधित करना उचित एवं न्यायसंगत है. क्योंकि इस वंश के सभी शासक गुलाम नही थे और 1206 से 1290 तक तीन अलग-अलग वंशों, कुतुबी, शमसी एवं इलबरी वंश के शासकों ने शासन किया.

कुछ शासक प्रारम्भ में गुलाम अवश्य थे. परन्तु बाद में अपने स्वामियों द्वारा दासता से मुक्त कर दिए गए थे. ऐसे लोग जो प्रारम्भ में गुलाम थे, परन्तु बाद में आजाद कर दिये जाते हैं, वह ममलुक कहलाते है. इसीलिए ऐबक द्वारा स्थापित गुलाम वंश को ममलुक वंश कहना अधिक न्यायसंगत है.

ममलूक या गुलाम वंश के शासक

कुतुबउद्दीन ऐबक के विरासत को इल्तुतमिश, रज़िया और बलबन जैसे शासकों ने बखूबी संभाला. लेकिन इस काल में कुछ ऐसे भी शासक हुए जो इतिहास में कम लोकप्रिय हुए. आज हम उन्हीं शासकों का वर्णन करने जा रहे हैं. इससे पहले के लेखों में ऐबक, इल्तुतमिश, रज़िया और बलबन के शासन का वर्णन किया जा चुका हैं. इस काल के अन्य शासक हैं:

रूकुनुद्दीन फिरोज (1236)

इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु के पूर्व अपना राज्य अपनी पुत्री रजिया को सौंपने की इच्छा व्यक्त की थी. इसका कारण यह था कि उसके योग्य और बड़े पुत्र, लखनौती के शासक, नासरूद्दीन महमूद की मृत्यु हो चुकी थी. छोटा पुत्र रूकुनुद्दीन फिरोजशाह एक दुर्बल और अक्षम व्यक्ति था. दुर्भाग्यवश इल्तुतमिश की यह इच्छा पूरी नही हो सकी. तुर्क अमीर एक स्त्री को राज्य करते हुए देखना अपना अपमान समझते थे. अतः अनेक तुर्क अमीरों, फिरोजशाह की माता शाहतुर्कन और अनेक इक्तादारों ने पड़यंत्र कर रूकुनुद्दीन फिरोजशाह को 1236 ई0 में सुलतान घोषित कर दिया.

फिरोजशाह सुलतान तो बन गया, परन्तु वह राज्य पर नियंत्रण नही रख सका. वास्तविक सत्ता शाहतुर्कन के हाथों में चली गई. वह एक क्रूर महिला थी. उसने तुर्क अमीरों एवं राजपरिवार के सदस्यों को अपमानित एवं आतंकित करना आरम्भ कर दिया. इल्तुतमिश के छोटे पुत्र रूकनुद्दीन को अंधा करवा कर उसकी हत्या करवा दी गई. प्रशासन पर नियंत्रण ढ़ीला पड़ गया. जनता पर भी अत्याचार होने लगा.

फलतः पूरे राज्य में असंतोष एवं विद्रोह छा गया. फिरोजशाह को अपने भोग-विलास से ही छुट्टी नही थी. परन्तु जब लगातार लाहौर, मुलतान हाँसी और बदायूँ का विद्रोह आरम्भ हुआ. फलतः फिरोजशाह को बाध्य होकर अपनी निंद्रा तोडनी पड़ी. इस बीच सारे विद्रोही अपनी सेना के साथ दिल्ली की तरफ बढ़े. वजीर जुनैदी भी अनेक अधिकारियों के साथ विद्रोहियों से मिल गया. हताश सुलतान दिल्ली छोड़कर विद्रोहियों का सामना करने के लिए आगे बढ़ा.

दिल्ली में सुलतान की अनुपस्थित का लाभ उठाकर रजिया लाल वस्त्र पहनकर जुमा की नमाज के अवसर पर जनता के सम्मुख उपस्थित हुई. उसने शाहतुर्कन के अत्याचारों एवं, राज्य में फैली अव्यवस्था का बखान किया तथा आश्वासन दिया कि शासक बनकर वह शांति एवं सुव्यवस्था स्थापित करेगी. रजिया से तुर्क अमीर और अन्य व्यक्ति प्रभावित हो उठे. क्रुद्ध जनता ने राजमहल पर आक्रमण कर शाहतुर्कन को गिरफ्तार कर लिया एवं रजिया को सुलतान घोषित कर दिया.

फिरोजशाह जब विद्रोहियों से भयभीत होकर दिल्ली पहुँचा तब उसे भी कैद कर लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई. इस प्रकार नवम्बर, 1236 ई० में रजिया सुलतान के पद पर प्रतिष्ठित हुई.

मुईजुद्दीन बहरामशाह (1240-1242)

रजिया के बाद 1240 ई0 में बहरामशाह सुलतान बना. परन्तु वह कुछ वर्षों तक ही गद्दी पर रह सका. वह नाम मात्र का शासक था. राज्य की वास्तविक शक्ति का संचालन चालीस गुलामों का दल ही करता था. शासन पर अपनी पकड बनाए रखने के लिए तुर्की अमीरों ने नायब-ए-मुमलकत (संरक्षक) का पद बनाया और उसपर एतगीन को बहाल किया गया. परन्तु उसकी बढ़ती शक्ति से अशंकित होकर बहरामशाह ने उसकी हत्या करवा डाली.

एतगीन की हत्या के पश्चात बदरूद्दीन सुन्कर ने नायब के अधिकार प्राप्त कर लिए. उसने बहराम की हत्या का षड़यंत्र रचा; परन्तु स्वंय ही मार डाला गया. इन हत्याओं से तुर्की अमीर भयभीत हो उठे. उन लोगों ने सुलतान को पदच्युत करने का षड़यंत्र रचा. 1241ई० में लाहौर पर

मंगोलों ने आक्रमण कर दिया. इसी समय तुर्क अमीरों ने भी बगावत कर दी और दिल्ली पर अधिकार कर अमीरों ने 13 मई 1242 ई0 को बहरामशाह की हत्या कर दी.

अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-1246)

यह भी एक दुर्बल और अयोग्य व्यक्ति था. वह नाम मात्र का शासक था. अब मलिक कुतुबुद्दीन हसन नायब और अबूबक्र वजीर बना. बलबन को हाँसी का इक्ता प्राप्त हुआ. धीरे-धीरे बलबन ही सबसे प्रमुख व्यक्ति बन गया. मसूदशाह के समय में पुनः मंगोलों का आक्रमण हुआ. 1245 ई0 में मंगोलों ने उच्छ पर अधिकार कर लिया.

बलबन ने अपनी सैनिक प्रतिभा के बल पर मंगोलों को मार भगाया एवं उच्छ पर पुनः अधिकार किया. बलबन के इस कार्य से जहां उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ी. वहीं अमीरों में सुलतान मसूदशाह की प्रति नफरत की भावना भी पैदा हुई. बलबन ने षड़यंत्र कर मसूदशाह को गद्दी से हटाकर कैद कर लिया तथा कैद खाना में ही उसकी मृत्यु हो गई.

नासिरूद्दीन महमूद (1246-1266)

जून 1240ई0 में युवा नासिरूद्दीन महमूद को मसूदशाह के पश्चात सुलतान के पद पर प्रतिष्ठित किया गया. उसने तुर्की अमीरों की शक्ति का अंदाजा लागाकर सारी सत्ता ‘चालीसा‘ के सरगना और नायब बलबन के हाथों में सौप दी. वह नाम मात्र का शासक बनकर ही संतुष्ट हो गया. फलतः तुर्की अमीरों और सुलतान के बीच चलता आ रहा सत्ता का संघर्ष समाप्त हो गया.

महमूद की स्थिति का वर्णन करते हुए इतिहासकार इसामी लिखते है कि, “वह बिना उनकी (तुर्की अधिकारियों) पूर्व आज्ञा के अपनी कोई राय व्यक्त नही करता था. वह बिना उनकी आज्ञा के हाथ-पैर तक नही हिलाता था. वह बिना उनकी जानकारी के न पानी पीता था और न सोता था”. अनेक विद्वानों ने उसे धर्मपरायण शासक माना है, जिसकी सत्ता में दिलचस्पी नही थी. परन्तु वास्तविकता ऐसी नही थी. नासिरूद्दीन ने बलबन के सहयोग और षड़यंत्र से ही गद्दी प्राप्त की थी. अतः वह बलबन के आगे असहाय था.

कैकुबाद

बलबन की इच्छा अपने ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने की थी, परन्तु बलबन के जीवन काल में ही वह मंगोलों से संघर्ष करता हुआ मारा गया. अतः बलबन ने मुहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकार नियुक्त किया. परन्तु मृत शक्तिशाली सुलतान की यह इच्छा भी पूरी नही हो सकी.

सुलतान के मरते ही उसके अमीर पुनः सक्रिय हो उठे. उन लोगों ने कैखुसरो को मुलतान भेज दिया एवं उसकी जगह बुगरा खां के पुत्र कैकुबाद को सुलतान मनोनित किया. कैकुबाद को सुलतान बनाने में दिल्ली के कोतवाल मलिक फखरूद्दीन ने महत्व्वपूर्ण भूमिका निभाईं.

बलबन ने बड़े-प्यार और कठोर अनुशासन में कैकूबाद को रखा था. उसे राजोचित शिक्षण भी दिया गया था. परन्तु सुलतान बनते ही उसपर से पाबंदियां हट गई. अन्मिंत्रित होकर वह सुरा-सुंदरी में लिप्त हो गया. फलस्वरूप, राजकार्य में उसकी रूचि समाप्त हो गई. वह सदैव चाटुकारों, नृतकमियों, भाँडों और विदूषकों से घिरा रहने लगा. दरबार का अनुशासन समाप्त हो गया. अमीर और अधिकारी व्यक्तिगत सुखों और षड़यंत्रों मे लिप्त हो गए.

अनियमित व्यतीत करने से सुलतान के स्वरूप पर भी बुरा प्रभाव पड़ा. तीन वर्षो के अन्दर ही उसका आधा शरीर फालिज से बेकार हो गया. राज्य की सारी सत्ता अब अमीरों और पदाधिकारियों के हाथों में केन्द्रित हो गई.

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