फ़िरोज शाह तुगलक़ को राजनीतिक दृष्टि से अस्थिर, अमीरों और प्रजा के मध्य एक समान अप्रिय, आर्थिक दृष्टि से खोखला और चारों ओर से दुश्मनों से घिरा हुआ साम्राज्य मिला था. किन्तु उसे इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि अपने 37 वर्ष के लम्बे शासन काल में अपने साम्राज्य की डूबती कश्ती को यथासंभव डूबने डगमगाने नहीं दिया. फ़िरोज शाह तुगलक़ ने अपने अमीरों की निष्ठा प्राप्त की और अपनी प्रजा की दृष्टि में उसकी छवि एक प्रजा-पालक सुल्तान के रूप में स्थापित हुई. उसके शासन काल में राज्य की आर्थिक स्थिति सुधरी.
फ़िरोज शाह तुगलक़ के सैनिक अभियान
फ़िरोज तुगलक़ सैनिक प्रतिभा से सर्वथा हीन सुल्तान था. उसने मुहम्मद बिन तुगलक़ के काल में दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र हुए राज्यों को फिर से जीतने का प्रयास किया. बंगाल में स्वतंत्र शासक बन्-बँए शम्सुद्दीन इलियास शाह के विरुद्ध उसने 1353 में अभियान किया किन्तु 2 वर्ष के अथक प्रयास के बाद भी वह बंगाल को जीतने में सफल नहीं हुआ और असफल होकर वापस लौट आया.
शम्सुद्दीन इलियास शाह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र सिकंदर शाह के सिंहासनारुढ़ होने पर उसने एक बार फिर बंगाल को जीतने का प्रयास किया पर इस बार भी वह असफल होकर दिल्ली लौट आया. फ़िरोज शाह तुगलक़ को 1360 में जाजनगर (उड़ीसा) पर आक्रमण कर भानुदेव तृतीय को पराजित करने में सफलता मिली. उसने अपनी धर्म-यात्रा का परिचय देते हुए जाजनगर-पूरी के मंदिर को लूटा और उसे ध्वस्त किया.
1361 में नागरकोट पर आक्रमण करने के बाद उसकी सेना 6 महीनों तक रन के रेगिस्तानी में फँसी रही किन्तु अंततः नागरकोट के जाम्बनियों ने कर देने की शर्त मानने हुए सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली. फ़िरोज शाह तुगलक़ ने अपने शासनकाल के आगामी वर्षों में साम्राज्य-विस्तार के लिए या अपने पूर्ववर्ती शासक के काल में खोए हुए क्षेत्रों को जीतने का कोई प्रयास नहीं किया.
फ़िरोज शाह तुगलक़ का राजस्व प्रशासन
फ़िरोज शाह तुगलक़ ने अपने पूर्ववर्ती शासक मुहम्मद बिन तुगलक़ की प्रजा-विरोधी राजस्व-नीति में आमूल परिवर्तन कर दिया. उसने नए सिंचाई कर को छोड़कर मुहम्मद बिन तुगलक़ के काल में लिए जाने वाले 24 करों को समाप्त कर दिया और केवल चार शम्स-मुक्त कर – ‘खिराज’, ‘जजिया’, ‘खम्र’, ‘जकात’ पर अपना राजस्व आधारित किया.
फ़िरोज शाह तुगलक़ ने किसानों की सुविधा देने के लिए राज्य की ओर से नहरों के निर्माण में अत्यधिक धन का निवेश किया था. उसने यमुना, घघर और सतलज पर 5 बड़ी नहरों का निर्माण कर साम्राज्य के एक बड़े कृषि-भूमि क्षेत्र को सिंचाई की सुविधाओं से समृद्ध किया था और उलमाओं की सहमति से उसने ‘हक-ए-शर्फ’ (सिंचाई कर) के रूप में किसानों से कुल उपज का 10% भाग प्राप्त किया था. उसने शासनकाल में खिराज (भूमि-कर) की दर कुल उपज के 1/3 भाग से लेकर 1/5 भाग थी.
किसानों को राहत देने के लिए उसने मुहम्मद बिन तुगलक़ के काल में उनको दिया गया ऋण – ‘सोंधर’ माफ कर दिया था. राज्य की आय बढ़ाने के लिए उसने 1200 ‘फलों’ के बाग लगवाए थे. फ़िरोज शाह तुगलक़ यह मानता था कि निर्माण-व्यापार राज्य की आय बढ़ाता है. उसने आंतरिक व्यापार के मार्ग की अनेक बाधाओं को दूर किया और उसकी प्रगति में बाधक अनेक करों को हटा दिया.
महान भवन एवं नगर-निर्माण
फ़िरोज शाह तुगलक़ महान निर्माता था. सार्वजनिक निर्माण-कार्य तथा नगर-निर्माण में उसने गहन अभिरुचि थी. उसने अपने नाम पर – हिसार फ़िरोजा, फ़िरोज शाह कोटला (दिल्ली में), फ़िरोजपुर तथा फ़िरोजाबाद की स्थापना की और पूर्व-सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक़ के वास्तविक नाम ‘जुना खान’ पर ‘जौनपुर’ की स्थापना की. उसने खिजाबाद तथा मेरठ से दो अशोक स्तम्भ उखाड़कर उन्हें दिल्ली में स्थापित किया. उसने ‘दार-उल-शफा’ (चिकित्सालय) का निर्माण करवाया.
फ़िरोज शाह तुगलक़ के जन-कल्याणकारी कार्य
फ़िरोज शाह तुगलक़ द्वारा बनवाए गए ‘दार-उल-शफा’ में गरीबों का निःशुल्क इलाज होता था. मुस्लिम अनाथ बच्चों, विधवाओं और बेसहारा स्त्रियों को आश्रय देने के लिए ‘दीवान-ए-खैरात’ की स्थापना की. किन्तु उसके जन-कल्याणकारी कार्य केवल मुस्लिम समाज तक ही सीमित थे. फ़िरोज शाह तुगलक़ ने शिक्षा के विकास के लिए अनेक मदरसों का निर्माण करवाया.
इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने उसके संरक्षण में – ‘तारीख-ए-फ़िरोजशाही’ तथा ‘फतवा-ए-जहाँदारी’ की रचना की. शम्स-ए-सिराज अफीफ ने भी – ‘तारीख-ए-फ़िरोजशाही’ शीर्षक, इतिहास-ग्रन्थ लिखा. फ़िरोज शाह तुगलक़ ने आयुर्वेद के अनेक संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया जिनको कि ‘दलायत-ए-फ़िरोजशाही’ के नाम से प्रकाशित किया गया. उसकी आत्मकथा – ‘फुतुहात-ए-फ़िरोजशाही’ भी उसके काल की एक प्रमुख रचना है.
फ़िरोज शाह तुगलक़ द्वारा दिल्ली सल्तनत को कमजोर बनाने वाले कार्य
फ़िरोज शाह तुगलक़ ने दास प्रथा को बहुत बढ़ावा दिया. उसके दासों की संख्या 180,000 थी. उसने गुलामों की देखभाल के लिए ‘दीवान-ए-बन्दनगान’ की स्थापना की. दीवानों की बढ़ती संख्या शाही खजाने पर एक बोझ थी और साम्राज्य में दासों के बढ़ते हुए प्रभाव से पुराना अमीर वर्ग बहुत नाराज था.
अपने कर्मचारियों के प्रति अनावश्यक उदारता के कारण फ़िरोज शाह तुगलक़ ने उनमें शासक के प्रति ‘भय और श्रद्धा’ की भावना स्थापित करने की सर्वथा उपेक्षा की. उसने प्रशासन में घुसखोरी को अनदेखा किया और प्रशासन व सेना में योग्यता के आधार पर नियुक्ति तथा पदोन्नति के स्थान पर उसने पुश्तैनी पदों की परंपरा को बढ़ावा दिया. जागीरदारी व्यवस्था को पुनर्चालित करना भी उसकी बहुत बड़ी भूल थी. फ़िरोज शाह की सैनिक दुर्बलता ने तुगलक़ राजवंश के पतन का मार्ग प्रशस्त किया.
फ़िरोज शाह तुगलक़ एक धर्मान्ध कट्टर मुस्लिम शासक था. वह पहला सुल्तान था जिसने कि ब्राह्मणों पर भी ‘जजिया’ लगाया था. उसने गैर-मुसलमानों को अपने धर्म-पालन की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी थी और उनमें से बहुतों को लाठिक देकर अथवा तलवार का भय दिखाकर इस्लाम में दीक्षित होने के लिए या तो प्रेरित किया था या बाध्य किया था. उसने अनेक मंदिरों को ध्वस्त किया था जिसमें कि पुरी का जगन्नाथ मंदिर प्रमुख था.
फ़िरोज शाह तुगलक़ के जन-कल्याणकारी कार्य केवल मुस्लिम समाज तक सीमित थे. फ़िरोज शाह तुगलक़ ने अपने 37 वर्ष के लम्बे शासन में अपने उत्तराधिकारियों को समुचित प्रशासनिक तथा सैनिक प्रशिक्षण नहीं दिलाया. एक प्रकार से यह निश्चित हो गया था कि बूढ़े सुल्तान की मृत्यु होते ही तुगलक़ साम्राज्य में अराजकता व्यास हो जाएगी. फ़िरोज शाह तुगलक़ के मृत्यु के 10 साल बाद ही दिल्ली सल्तनत के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी – तैमूर का आक्रमण, घटित हो गयी.
हिन्दू राजवंशों का उदय
तैमूर के आक्रमण के बाद राजस्थान में मेवाड़ राजवंश उत्तर भारत की सबसे प्रमुख शक्ति के रूप में उभर कर सामने आया था. राणा कुम्भा से लेकर राणा सांगा तक मेवाड़ का दबदबा पूरे उत्तर भारत में ही नहीं अपितु मालवा, गुजरात तक व्याप्त हो गया था.
तैमूर के आक्रमण के बाद जोधा के नेतृत्व में मारवाड़ भी उत्तर भारत की एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा था और मारवाड़ राज्य, 16वीं शताब्दी के प्रतापी शासक मालदेव के काल तक राजपूत शक्ति के पुनरुत्थान का एक प्रमुख केंद्र बना रहा. तैमूर के आक्रमण के बाद ग्वालियर के तोमरों ने भी दिल्ली सल्तनत से खुद को स्वतंत्र करा लिया था.
तुग़लक वंश का पतन
तुगलक़ साम्राज्य का विघटन होना तो 1335 में ही प्रारंभ हो गया था किन्तु उसका पूर्ण पतन 77 साल बाद अर्थात् 1414 में हुआ.
तुगलक़ राजवंश के पतन के लिए मुख्यतः मुहम्मद बिन तुगलक़ की अयायाहाकरक योजनाएँ, राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर महत्वाकांक्षी अमीरों के सफल विद्रोह, प्रांतीय शक्तियों का उदय, हिन्दू-प्रतिरोध, फ़िरोज़ शाह तुगलक़ की सैनिक दुर्बलता, उसकी धर्मान्धता, उसके द्वारा जागीरदारी व्यवस्था को पुनर्जीवित करना, सैनिक तथा प्रशासनिक पदों को पैतृक बनाना, घुसखोरी को अनदेखा करना, फ़िरोज़ शाह तुगलक़ के उत्तराधिकारियों का अयोग्य होना, तैमूर के आक्रमण से साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया का तीव्र होना.
अंततः खिज्र खान सैयद द्वारा 1414 में दिल्ली पर अधिकार कर सैयद राजवंश की स्थापना उत्तरदायी है.