सैयद वंश के दिल्ली सल्तनत पर अधिकार होने में तैमूर लंग का काफी अहम भूमिका था. कमजोर हो चुके दिल्ली सल्तनत के मुल्तान, तदन्तर सिंध तथा लाहौर पर तैमूर का कृपापात्र खिज्र खान अधिकार कर चुका था. 1414 तक स्थिति यह आ गयी कि खिज्र खान को दिल्ली पर भी अधिकार करने से रोकने के लिए तुगलक़ वंश का कोई भी व्यक्ति आगे नहीं आया. इस तरह, दिल्ली में खिज्र खान द्वारा बिना किसी विरोध के, सैयद वंश की स्थापना कर दी गयी.
सैयद वंश ने तैमूर वंश की आधीनता स्वीकार करते हुए 37 वर्ष तक दिल्ली सल्तनत पर शासन किया. इस प्रकार उसने दिल्ली सल्तनत के स्वतंत्र अस्तित्व को ही तैमूर वंश के पास गिरवी रख दिया. ऐसी परिस्थिति में दिल्ली सल्तनत का पतन तो अवश्यम्भावी था.
सैयद वंश के शासक (Rulers of Sayyid Dynasty)
सैयद वंश के चार शासकों ने दिल्ली सल्तनत पर शासन किया. सैयद वंश के शासकों के नाम इस प्रकाय है:
- खिज्र खान: (1414-1421 ई.) सैयद वंश के संस्थापक थे.
- मुबारक शाह: (1421-1434 ई.) खिज्र खान के बाद शासक बने.
- मुहम्मद शाह: (1434-1445 ई.) मुबारक शाह के बाद शासक बने.
- अलाउद्दीन आलम शाह: (1445-1451 ई.) सैयद वंश के अंतिम शासक थे.
खिज्र खान सैयद (Khizr Khan Sayyid) (1414-1421)
दिल्ली सल्तनत से टूटकर अनेक स्वतंत्र प्रांतीय राज्यों का उदय हुआ. 1414 में दिल्ली की सत्ता उस शासक के अधिकार में आई जिसको कि स्वयं को सुल्तान कहलाने में कोई रूचि नहीं थी. 37 वर्षों तक सैयद वंश (1414-1451) का उत्तर भारत पर नाम मात्र का शासन रहा. इस समय दिल्ली सल्तनत पूरी तरह विघटित हो चुकी थी.
सैयद वंश दिल्ली सल्तनत के इतिहास का एक प्रभावहीन तथा दुर्बल वंश था. सैयदों को स्वयं को सुल्तान कहलाने का अधिकार भी प्राप्त नहीं हुआ था. तैमूर ने पंजाब, दिल्ली आदि पर आक्रमण करने के बाद अपने वतन लौटते समय खिज्र खान सैयद को मुल्तान का सूबेदार नियुक्त किया था.
खिज्र खान सैयद का उदय (Rise)
तुगलक़ वंश के पतन के बाद खिज्र खान ने सिंध और लाहौर पर भी अधिकार कर लिया और 1414 में उसने दिल्ली की अराजकतापूर्ण स्थिति का लाभ उठाकरउस पर भी अधिकार कर लिया किन्तु उसकी वैधानिक स्थिति तैमूर के – ‘रैयत-ए-आला‘ (जागीरदार) की ही रही, सुल्तान की नहीं.
दिल्ली पर अधिकार करने के बाद खिज्र खान सैयद ने अपने नाम पर नहीं, अपितु तैमूर के उत्तराधिकारी शाहरुख मिर्ज़ा के नाम पर ख़ुतबा पढ़वाया. उसके शासनकाल में ढाले गए सिक्कों पर उसका नाम नहीं, अपितु पूर्व तुगलक़ शासकों का ही नाम अंकित किया गया.
विद्रोह और विजयी अभियान
खिज्र खान सैयद ने दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र हुए क्षेत्रों को फिर से जीतने का प्रयास किया किन्तु इटावा, कन्नौज और कम्पिल को फिर से दिल्ली सल्तनत में मिलाने के उसके प्रयास विफल हुए.
कटेहर के राजा हरसिंह के विद्रोह को कुचलने के लिए खिज्र खान के वज़ीर मलिक-उस-शर्क (उपाधि-‘ताज-उल-मुल्क’) ने उसे 1415 में पराजित कर खिज्र खान की आधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया. हरसिंह ने एक बार फिर विद्रोह किया और एक बार फिर उसे ताज-उल-मुल्क ने ही परास्त किया. बयाना और ग्वालियर पर छापे मारकर किसानों से लगान वसूला गया. किन्तु इन में से किसी भी क्षेत्र पर दिल्ली सल्तनत का स्थायी प्रभुत्व स्थापित नहीं हो सका.
दिल्ली सल्तनत को उत्तर-पश्चिम से खोखरों से ख़तरा था तो पूर्व में जौनपुर के शर्की उसके लिए ख़तरा बने हुए थे. इधर राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर सल्तनत के अमीर भी आए दिन विद्रोह का झंडा बुलंद कर देते थे. तुर्क अमीरों के विद्रोहों का दमन करने में जब खिज्र खान सैयद को सफलता नहीं मिली तो उसने विद्रोही अमीरों से समझौता करने की नीति अपनाली.
तलवार के नोक पर राजस्व
सैयद वंश के शासनकाल में राजस्व वसूल करने के लिए भी सैनिक अभियान करने पड़ते थे. खिज्र खान सैयद के वज़ीर, ताज-उल-मुल्क ने इस अराजकतापूर्ण स्थिति को सुधारने का प्रयास किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली. खिज्र खान सैयद को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जा सकता है कि उसने पंजाब को दिल्ली सल्तनत से एक बार फिर जोड़ने में सफलता प्राप्त की.
मुबारक शाह सैयद (1421-1434)
मुबारक शाह अपने पिता से अधिक महत्वकांक्षी था. यद्यपि उसने अपने पिता के समान ही तैमूर के वंश के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की किन्तु अपने नाम के सिक्के चलवा कर और अपने नाम का खुतबा पढ़वा कर उसने अपनी स्वतंत्र शक्ति का प्रदर्शन भी कर दिया.
मुबारक शाह सैयद को तख्तनशीन होने के बाद अपने पिता खिज्र खान सैयद की ही भांति अपने अधीनस्थ अधिकारियों एवं अमीरों के विद्रोहों का सामना करना पड़ा. उसको भी राजस्व वसूल करने के लिए सैनिक अभियानों का आश्रय लेना पड़ा.
भटिंडा में हुए विद्रोह का उसने सफलतापूर्वक दमन किया और दोआब में हुए विद्रोह को भी उसने कुचल दिया. किन्तु वह दिल्ली पर अधिकार करने के प्रयास में असफल हो चुके जसरथ खोखर को दण्डित नहीं कर सका.
दिल्ली सल्तनत के खोए हुए क्षेत्रों को फिर से जीतने में भी वह विफल रहा. दोआब में पुलाद तुर्कबच्चा के विद्रोह ने मुबारक शाह को बहुत परेशां किया. अंततः अक्टूबर, 1433 में तबर्हिंदा के किले को जीत लिया गया और पुलाद तुगरबच्चा को मार डाला गया.
अपने वज़ीर सरवर-उल-मुल्क द्वारा रचे गए षड्यंत्र में मुबारक शाह की 1434 में हत्या कर दी गयी. मुबारक शाह के शासनकाल के अध्ययन के लिए यहिया बिन अहमद सरहिंदी का ग्रन्थ ‘तारीख-ए-मुबारकशाही‘ सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ है.
मुबारक शाह ने यमुना नदी के किनारे मुबारकपुर शहर बसाया किन्तु अब उसके चिह्न तक उपलब्ध नहीं हैं. उसका मक़बरा जिस स्थान पर है, उसे उसके नाम पर कोटला मुबारकपुर कहते हैं.
मुहम्मद शाह (1434-1445)
मुहम्मद शाह का शासनकाल षड्यंत्रों और कुचक्रों का काल है. अपनी सेना की दुर्बलता के कारण मुहम्मद शाह ने पूर्व में जौनपुर के शर्कियों के हाथों कई परगने खो दिए. लाहौर और सरहिंद में बहलोल लोदी की शक्ति बहुत बढ़ गयी थी.
अलाउद्दीन शाह (1445-1451)
मुहम्मद शाह के बाद उसका पुत्र अलाउद्दीन शाह तो नाम-मात्र का शासक रहा. सैयद वंश के शासनकाल के अंतिम चरण में अफगान शक्ति का उत्कर्ष हो चुका था और दिल्ली सल्तनत के अनेक प्रान्त उनके कब्ज़े में थे. सैयद वंश के काल में दिल्ली के पड़ौस के क्षेत्र मेवात और संभल पर अहमद खान एक स्वतंत्र शासक बना हुआ था.
रूहेलखंड से लेकर दिल्ली की सीमा तक दरिया खान लोदी का प्रभुत्व थाइसी प्रकार एटा और फर्रुखाबाद पर मालवा और गुजरात तो पूरी तरह उनके हाथ से निकल,बंगाल, जौनपुर, पंजाब भी सैयदों का प्रभुत्व नहीं रह गया था.
इन परिस्थितियों में अलाउद्दीन शाह ने 1451 में स्वेच्छा से दिल्ली का तख़्त बहलोल लोदी को सौंप कर स्वयं बदायूं के लिए प्रस्थान किया. इस तरह से दिल्ली सल्तनत पर सैयद वंश के शासन का अंत हुआ और लोदी वंश की नींव पड़ी.
सैयद वंश के पतन के प्रमुख कारण
1. कमजोर शासक: सैयद वंश के शासकों में खिज्र खान के बाद कोई भी बहुत सक्षम नहीं था. मुबारक शाह कुछ हद तक योग्य था, लेकिन उसकी हत्या के बाद कमजोर और कठपुतली शासक गद्दी पर बैठे.
2. केन्द्रीय शक्ति का ह्रास: दिल्ली सल्तनत पहले से ही कमजोर हो चुकी थी. अमीर और प्रांतीय शासक स्वतंत्रता चाहते थे और केंद्र की सत्ता को नहीं मानते थे. सैयद शासक शक्तिशाली सूबेदारों पर नियंत्रण नहीं रख सके.
3. आर्थिक संकट: उत्तर भारत में बार-बार युद्ध और आक्रमण से अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी. खजाना खाली था, जिससे सेना और प्रशासन चलाना कठिन हो गया.
4. बाहरी आक्रमण और अस्थिरता: तैमूर के आक्रमण (1398) के बाद सल्तनत पहले से ही कमजोर थी. पंजाब पर नियंत्रण कमजोर पड़ गया. अफगान और अन्य बाहरी ताकतें बार-बार हमला करती रहीं.
5. सामाजिक और प्रशासनिक विघटन: प्रशासनिक व्यवस्था कमजोर और भ्रष्ट हो गई थी. समाज में भी अस्थिरता और असंतोष बढ़ गया था.
6. लोदी वंश का उदय: बहलोल लोदी ने अफगान शक्ति को संगठित किया. उसने धीरे-धीरे दिल्ली पर अधिकार जमा लिया और अंतिम सैयद शासक आलम शाह को हराकर सत्ता हथिया ली. आलम शाह ने स्वेच्छा से बदायूँ जाकर अपना राज्य छोड़ दिया.
7. जनता और अमीरों का समर्थन न मिलना: जनता और रईसों का सैयदों पर विश्वास नहीं रहा. उन्होंने लोदी अफगानों का समर्थन करना शुरू कर दिया.