कुतुबुद्दीन ऐबक का शासन और गुलाम वंश का स्थापना

कुतुबुद्दीन ऐबक का जन्म तुर्किस्तान में एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था. बचपन में ही उसे गुलाम बनाकर निशापुर के काजी फखरूद्दीन को बेच दिया गया. काजी ने उसकी अच्छी देखभाल की और उसे धनुर्विद्या तथा घुड़सवारी सिखाई. ऐबक ने कुरान पढ़ना भी सीखा, जिसके कारण उसे ‘कुरानख्वां’ (कुरान पाठक) के नाम से भी जाना गया. बाद में उसे निशापुर से गजनी ले जाया गया, जहां मुहम्मद गोरी ने उसे खरीदा.

मुहम्मद गोरी की सेवा में आने के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक के जीवन में बड़ा बदलाव आया. अपनी योग्यता, मेहनत, ईमानदारी और निष्ठा के बल पर उसने गोरी का विश्वास अर्जित किया. गोरी ने उसे अमीर-ए-आखूर के पद पर नियुक्त किया. इस पद पर रहते हुए ऐबक ने गोर, बामियान और गजनी के युद्धों में सुलतान की सहायता की. बाद में तराइन के युद्ध में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. गोरी, उसके कार्यों से प्रसन्न होकर, उसे क्रमशः कुहराम और समाना का प्रशासक बनाया. 1192 से 1206 ई. तक ऐबक ने उत्तरी भारत के विजित क्षेत्रों में गोरी के प्रतिनिधि के रूप में प्रशासन संभाला.

इस दौरान कुतुबुद्दीन ऐबक ने उत्तरी भारत में तुर्की शक्ति का विस्तार किया. उसने गहड़वालों को हराया, गुजरात, बयाना और ग्वालियर के युद्धों में महत्वपूर्ण योगदान दिया, और 1205 ई. में रवोखरों के खिलाफ गोरी की सहायता की. वास्तव में, गोरी की सैन्य योजनाओं को ऐबक ने ही साकार किया, जिसके कारण भारतीय तुर्क अधिकारी उसे अपना प्रमुख नेता मानने लगे.

कुतुबुद्दीन ऐबक का राज्यारोहण


1206 ई. में गोरी ने ऐबक को भारत का नियमित प्रतिनिधि (सुबेदार) नियुक्त किया और उसे ‘मलिक’ की उपाधि दी. गोरी की मृत्यु के समय भारतीय क्षेत्रों का प्रबंधन ऐबक के पास था. गोरी की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार का प्रश्न अनसुलझा रहा. गोरी का भतीजा ग्यासुद्दीन मुहम्मद गोर और गजनी का शासक बना, लेकिन उसकी स्थिति कमजोर थी.

गोर साम्राज्य के अवशेषों पर कब्जा करने के लिए ताजुद्दीन यल्दूज, नासिरुद्दीन कुबाचा और कुतुबुद्दीन ऐबक के बीच प्रतिस्पर्धा थी. ऐबक ने भारत में स्वतंत्र शासन स्थापित करने का प्रयास किया. उसने ग्यासुद्दीन को संदेश भेजा कि यदि वह उसे भारत का शासक स्वीकार करे, तो ऐबक ख्वारिज्म शाह के खिलाफ उसकी मदद करेगा.

सुलतान ने उसकी बात स्वीकार की, और 25 जून 1206 ई. को लाहौर में ऐबक का राज्याभिषेक हुआ. इस तरह दिल्ली में गुलाम शासन की शुरुआत हुई, और ऐबक का राजवंश इतिहास में ‘गुलाम’ या ‘मामलूक’ वंश के रूप में दर्ज हुआ. इसके बाद भारत में शासक को तुर्की शासकों की तरह ‘सुलतान’ कहा जाने लगा. इसलिए, मुगलों के आगमन तक के शासनकाल को सल्तनत काल कहा जाता हैं.

कुतुबुद्दीन ऐबक का शासनकाल (1206 से 1210)

जब ऐबक सुलतान बना, तब उसके अधीन भारत के कई क्षेत्र थे, जो उत्तर-पश्चिम सीमा से मध्य भारत तक और पूर्वी भारत में बिहार व बंगाल तक फैले थे. हालांकि, यल्दूज, कुबाचा और बंगाल-बिहार में बख्तियार खिलजी अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे थे. गोरी के साम्राज्य पर कब्जा करने के कारण मुइज्जी और कुतुबी अमीर भी ऐबक से असंतुष्ट थे.

राजपूत राज्य स्वतंत्रता के लिए प्रयासरत थे, और कालिंजर व ग्वालियर स्वतंत्र हो चुके थे. प्रशासनिक व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त थी. ऐसी स्थिति में ऐबक ने अपनी स्थिति मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित किया और साम्राज्य विस्तार के बजाय विजित क्षेत्रों की सुरक्षा और प्रशासनिक व्यवस्था को प्राथमिकता दी.

ऐबक का शासन प्रबंध

कुतुबुद्दीन ऐबक ने केवल चार वर्षों तक शासन किया और इस दौरान वह अधिकतर युद्धों और प्रतिद्वंद्वियों से संघर्ष में व्यस्त रहा. समय की कमी और निरंतर संघर्ष के कारण वह प्रशासन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे सका.

फिर भी, उसने विद्रोहों का दमन किया और देश में शांति व व्यवस्था स्थापित की. उसके शासन में चोर-डाकुओं का भय नहीं था. कुछ इतिहासकार उसे उत्साही, उदार और न्यायप्रिय शासक मानते हैं.

मिनहाज-उस-सिराज ने उसकी दानशीलता की प्रशंसा करते हुए उसे ‘हातिम द्वितीय’ और ‘लाख बख्श’ कहा. हालांकि, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उसमें रचनात्मक प्रतिभा की कमी थी. स्थानीय प्रशासन और राजस्व नियम पुराने ही रहे, हालांकि उसने राजधानी और प्रांतों में काजियों की नियुक्ति की.

कुतुबुद्दीन ऐबक का योगदान

दिल्ली सल्तनत के संस्थापक ऐबक ने कला और साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. वह कला और साहित्य का संरक्षक था. हसन निजामी और फर्रूखमुदब्बीर उसके दरबार के प्रसिद्ध विद्वान थे. उसने दिल्ली में ‘कुवत-उल-इस्लाम’ और अजमेर में ‘ढाई दिन का झोपड़ा’ नामक दो प्रसिद्ध मस्जिदों का निर्माण करवाया. उसने कुतुब मीनार का निर्माण भी शुरू किया, हालांकि इसे पूरा नहीं कर सका. उसने रायपिथौड़ा नामक किले की नींव भी रखी. ऐबक द्वारा स्थापित नींव पर ही बाद में इल्तुतमिश और बलबन ने सल्तनत की भव्य इमारत खड़ी की. यह उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है.

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