संसदीय सत्र के दौरान, भारतीय संसद के दोनों सदनों में संसदीय कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए विभिन्न उपकरणों का उपयोग किया जाता है. ये उपकरण संसद सदस्यों को सदन के नियमों के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. इन्हें संसदीय कार्यवाही के साधन या उपकरण कहा जाता है. वास्तव में, दोनों सदनों के संचालन के नियम ही इन उपकरणों का आधार हैं. आगे संसदीय कार्यवाही के इन विभिन्न उपकरणों का वर्णन किया जा रहा है:
संसदीय कार्यवाही का प्रश्न काल (Question Hour)
संसद सत्र का पहला घण्टा (11 बजे से 12 बजे तक) प्रश्न काल कहलाता है. इस समय संसद सदस्य प्रश्न पूछते हैं तथा मंत्री उसका जवाब देते हैं. प्रश्न तीन प्रकार के होते हैं-
(1) तारांकित प्रश्न: जिसका सदस्य सभा में मौखिक उत्तर चाहता है और पहचान के लिए उस पर तारांक बना रहता है. जब प्रश्न मौखिक हो तो उत्तर भी मौखिक होता है. इन प्रश्नों पर अनुपूरक प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं.
(2) अतारांकित प्रश्न: इस तरह के प्रश्नों पर सभा में मौखिक उत्तर नहीं माँगा जाता है. इनपर कोई अनुपूरक प्रश्न भी नहीं पूछा जा सकता. ऐसे प्रश्न का लिखित उत्तर प्रश्नकाल के बाद जिस मंत्री से वह प्रश्न पूछा जाता हैं, उसके द्वारा सभा पटल पर रखा मान लिया जाता है. लिखित प्रश्न 15 दिन का नोटिस देकर पूछा जा सकता हैं.
(3) अल्प सूचना के प्रश्न: ये अविलम्बनीय लोक महत्त्व से संबंधित होता है और जिसे एक सामान्य प्रश्न हेतु विनिर्दिष्ट सूचनावधि से कम अवधि के भीतर पूछा जा सकता है. इसका भी उत्तर मौखिक दिया जाता है. इन्हें कम से कम दस दिनों का सूचना (notice) देकर पूछा जा सकता हैं.
संसदीय कार्यवाही का शून्य काल (Zero Hour)
संसदीय परंपरा में यह भारतीय नवाचार है. प्रश्न काल के तुरंत बाद (12 बजे से 1 बजे) के घंटे को ‘शून्य काल’ कहलाता है. शून्य काल में सांसद सदस्य बिना किसी पूर्व सूचना के किसी मामले को उठा सकते हैं. यह बहस का ‘अनौपचारिक साधन’ है.
शून्य काल संसदीय कार्यवाही में एक अनौपचारिक प्रक्रिया है. यह सांसदों को बिना पूर्व सूचना के 10 दिन पहले सार्वजनिक महत्व के अत्यावश्यक मुद्दे उठाने का अवसर प्रदान करती है. यह प्रक्रिया नियमों में उल्लिखित नहीं है.
इसका नाम ‘शून्य काल’ इसलिए पड़ा, क्योंकि यह प्रश्नकाल के समाप्त होने और नियमित कार्यवाही शुरू होने के बीच का खाली समय है. यह आमतौर पर दोपहर 12 बजे शुरू होता है. शब्दकोश में इसका अर्थ “निर्णायक क्षण” है, जो इसके महत्व को दर्शाता है.
शून्य काल की उत्पत्ति 1960 के दशक में हुई, जब सांसद प्रश्नकाल के बाद अत्यावश्यक मुद्दे उठाने लगे. यह प्रथा तब विकसित हुई, जब सदस्य बिना विलंब के महत्वपूर्ण मामलों को सदन और सरकार के समक्ष लाने के लिए तुरंत खड़े होने लगे. इसकी लोकप्रियता बढ़ी, क्योंकि यह मीडिया का ध्यान आकर्षित करती थी, जिससे अधिक सांसद इसका उपयोग करने लगे.
भारत में शून्य काल 1962 से शुरू हुआ और यह संसदीय प्रक्रिया में एक भारतीय नवाचार है. साठ के दशक में सांसदों ने राष्ट्रीय और वैश्विक मुद्दों पर चर्चा की आवश्यकता महसूस की. लोक सभा के नौवें अध्यक्ष रवि राय ने इसे व्यवस्थित करने के लिए नियम प्रस्तावित किए, ताकि समय का अधिकतम उपयोग हो. लोक सभा में शून्य काल प्रश्नकाल के बाद शुरू होता है, जबकि राज्य सभा में यह दिन की शुरुआत में होता है.
विधेयकों के विभिन्न प्रकार
साधारण विधेयक: इसे किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता हैं. इस मामले पर दोनों सदनों को समान शक्तियाँ प्राप्त हैं. किंतु संयुक्त बैठक के कारण राज्यसभा काप्रभाव कम कम हो जाता हैं (अनुच्छेद 108).
राष्ट्रपति इसे स्वीकार या अस्वीकार कर सकता हैं. वह इसे पुनर्विचार हेतु वापस भी भेज सकता हैं या फिर वीटो का प्रयोग कर सकता हैं. इस तरह के विधेयकों को प्रस्तुत करने हेतु राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति आवश्यकता नहीं होती हैं.
धन विधेयक (अनु. 110): इसे केवल लोकसभा में पेश किया जा सकता हैं. राज्यसभा इसे 14 दिन तक रोक सकती है या संशोधन की सिफारिश कर सकती है. राज्यसभा के प्रस्ताव को स्वीकार करना या न करना लोकसभा की इच्छा पर निर्भर है. इस प्रकार के विधेयकों पर संयुक्त बैठक का प्रावधान नहीं हैं.
इसे राष्ट्रपति के पूर्व अनुमति से प्रस्तुत किया जाता हैं. इसे राष्ट्रपति स्वीकार करते हैं. वे इसे पुनर्विचार हेतु नहीं लौटा सकते.
वित्त विधेयक [अनु. 117 (1)] : इस प्राकार के विधेयकों को केवल लोकसभा में पेश किया जा सकता है. इस मामले में राज्यसभा को साधारण विधेयक की भाँति शक्तियाँ प्राप्त हैं. संयुक्त बैठक हो सकती है. लेकिन राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति आवश्यक नहीं हैं. इन्हें राष्ट्रपति स्वीकार/ अस्वीकार/ पुनर्विचार हेतु लौटा सकता है.
विभिन्न विधायी प्रक्रियाएँ (Various Legislative Procedures)
कानून बनाना संसद का प्राथमिक कार्य है, और इसमें कई चरण शामिल होते हैं:
(1) विधेयकों का परिचय (Introduction of Bills): यह कानून-निर्माण प्रक्रिया का पहला चरण है. एक बिल (विधेयक) एक प्रस्तावित कानून का मसौदा होता है. यह दो प्रकार का होता हैं- सरकारी बिल (मंत्री द्वारा पेश) या निजी सदस्य बिल (किसी गैर-मंत्री सदस्य द्वारा पेश). विधेयक को पेश करने के लिए सदन की अनुमति ली जाती है. आमतौर पर, केवल शीर्षक और उद्देश्य को पढ़ा जाता है.
(2) विचार-विमर्श (Deliberation – पहला, दूसरा और तीसरा वाचन)
- पहला वाचन: विधेयक को पेश करना और उसे राजपत्र में प्रकाशित करना. इस चरण में आमतौर पर कोई चर्चा नहीं होती.
- दूसरा वाचन: यह कानून-निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण चरण है, जिसमें विधेयक पर विस्तृत चर्चा होती है. इसे तीन उप-चरणों में विभाजित किया गया है:
- विधेयक के सिद्धांतों पर सामान्य चर्चा: सदस्य विधेयक के व्यापक सिद्धांतों और प्रावधानों पर विचार करते हैं.
- खण्डवार विचार (Clause-by-Clause Consideration): विधेयक के प्रत्येक खण्ड (अनुच्छेद) पर विस्तार से चर्चा की जाती है. सदस्य इसमें संशोधन (Amendments) प्रस्तावित कर सकते हैं, जिन पर मतदान होता है.
- समिति चरण (Committee Stage): अक्सर, विधेयक को इस चरण में एक संसदीय समिति (जैसे प्रवर समिति या संयुक्त समिति) को भेजा जाता है. समिति विधेयक की गहन जाँच करती है, सार्वजनिक हितधारकों से सुझाव लेती है, और अपनी रिपोर्ट सदन को प्रस्तुत करती है.
- तीसरा वाचन: इस चरण में विधेयक पर सामान्य बहस होती है. लेकिन इसमें कोई संशोधन प्रस्तावित नहीं किया जा सकता. सदस्य यह निर्णय लेते हैं कि विधेयक को या तो स्वीकार किया जाए या अस्वीकार किया जाए.
(3) पारित होना (Passing): तीसरे वाचन के बाद, विधेयक पर मतदान होता है. यदि विधेयक सदन में बहुमत से पारित हो जाता है, तो उसे दूसरे सदन में भेजा जाता है. दोनों सदनों द्वारा पारित होने के बाद, विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है. राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद, विधेयक कानून बन जाता है.
संसदीय समितियों की भूमिका (Role of Parliamentary Committees):

संसदीय समितियाँ विधेयकों की गहन और विस्तृत जाँच करती हैं जो पूरे सदन के लिए संभव नहीं होता. वे विधेयक के हर पहलू पर विशेषज्ञता और समय दे पाती हैं. इन समितियों में विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ सदस्य होते हैं, जो विधेयक के तकनीकी और जटिल पहलुओं को समझने में मदद करते हैं.
समितियाँ अक्सर हितधारकों, विशेषज्ञों और आम जनता से सुझाव और आपत्तियां आमंत्रित करती हैं, जिससे कानून-निर्माण प्रक्रिया अधिक समावेशी और प्रभावी बनती है. ये समितियाँ सदन के कार्यभार को कम करती हैं, जिससे सदन महत्वपूर्ण बहस और अन्य विधायी कार्यों पर ध्यान केंद्रित कर सके.
विभिन्न प्रकार के प्रस्ताव
कटौती प्रस्ताव: इसके निम्न प्रकार होते हैं:
- नीतिगत कटौती:- इसमें माँग की राशि को कम कर 1 रुपये कर दी जाती है. यह नीति के प्रति सदन की असहमति को दर्शाता है. सदस्यों द्वारा वैकल्पिक नीति को पेश किया जा सकता है.
- आर्थिक कटौती:- माँग की राशि को एक निश्चित सीमा तक करना इसका उद्देश्य होता हैं. प्रस्तावित व्यय से अर्थव्यवस्था पर प्रभाव की समीक्षा भी इसका अंग हैं.
- सांकेतिक कटौती:- माँग की राशि में 100 रुपये की सांकेतिक कटौती की जाती है.
अनियमित दिन वाले प्रस्ताव: जिस प्रस्ताव को अध्यक्ष द्वारा स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है. लेकिन उस प्रस्ताव पर विचार-विमर्श के लिए कोई समय नियत नहीं किया जाता.
ध्न्यवाद प्रस्ताव: राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद संसद की कार्य-मंत्रणा समिति की सिफारिश पर तीन-चार दिनों तक धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा होती है.
अनुषंगी प्रस्ताव: इस प्रस्ताव को विभिन्न प्रकार के कार्यों की अगली कार्यवाही के लिए नियमित उपाय के रूप में पेश किया जाता है.
ध्यान आकर्षण प्रस्ताव (Calling Attention Motion): इसका उद्देश्यसार्वजनिक महत्व के किसी तात्कालिक मामले पर संबंधित मंत्री का ध्यान आकर्षित करना होता है, ताकि वह उस पर बयान दे सकें.
स्थगन प्रस्ताव (Adjournment Motion): सार्वजनिक महत्व के एक निश्चित, तात्कालिक और महत्वपूर्ण मामले पर चर्चा के लिए सदन के सामान्य कामकाज को स्थगित करने के लिए यह प्रस्ताव लाया जाता हैं. मामला अत्यंत गंभीर प्रकृति का होना चाहिए. इसे कम से कम 50 सदस्यों का समर्थन आवश्यक हैं.
अविश्वास प्रस्ताव (No-Confidence Motion): इसे सरकार में सदन के विश्वास की कमी व्यक्त करने के लिए लाया जाता हैं. यह केवल लोकसभा में प्रस्तुत किया जा सकता है. इसके पारित होने पर सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है.
विश्वास प्रस्ताव (Confidence Motion): यह सरकार द्वारा सदन में अपना बहुमत साबित करने की प्रक्रिया हैं. यह आमतौर पर प्रधानमंत्री द्वारा पेश किया जाता है.
संकल्प (Resolutions): यह सार्वजनिक नीति के किसी विशिष्ट पहलू पर सदन की राय व्यक्त करने के उद्देश्य से लाया जाता हैं. इसके तीन प्रकार हैं:
- निजी सदस्य संकल्प (Private Member’s Resolution): यह संकल्प किसी मंत्री के अलावा सदन के किसी भी सदस्य द्वारा पेश किया जाता है. इसका उद्देश्य किसी सार्वजनिक हित के विषय पर सदन का ध्यान आकर्षित करना या सदन की राय व्यक्त करना होता है.
- सरकारी संकल्प (Government Resolution): यह संकल्प किसी मंत्री द्वारा पेश किया जाता है और सरकार की नीतियों या कार्यों से संबंधित होता है.
- सांविधिक संकल्प (Statutory Resolution): यह संकल्प किसी विशेष कानून या संविधान के प्रावधानों के तहत पेश किया जाता है. इसका उद्देश्य किसी विशेष कानून को लागू करना या उसमें संशोधन करना होता है.
बहस और चर्चाएँ (Debates and Discussions)

नियम 193 के तहत चर्चा (Discussion under Rule 193): यह एक अल्पकालिक चर्चा है. इसका मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक महत्व के किसी समसामयिक या महत्वपूर्ण मामले पर सदन में बहस की अनुमति देना है. इसमें कोई मतदान नहीं होता हैं. कोई भी सदस्य स्पीकर को इसका नोटिस दे सकता हैं.
नियम 184 के तहत चर्चा (Discussion under Rule 184): यह एक अधिक औपचारिक चर्चा है, जिसमें मतदान का प्रावधान होता है.इसका उपयोग उन विशिष्ट मुद्दों पर सदन का निर्णय प्राप्त करने के लिए किया जाता है जिन पर सदन की स्पष्ट राय या अनुमोदन की आवश्यकता होती है. बहुमत से पारित होने पर प्रस्ताव सदन का निर्णय बन जाता हैं.
बजट पर सामान्य चर्चा (General Discussion on the Budget): यह वार्षिक वित्तीय विवरण (बजट) प्रस्तुत किए जाने के बाद होती है. इसमें सदस्य सरकार की वित्तीय नीतियों, राजस्व के अनुमानों, व्यय के प्रस्तावों और आर्थिक प्राथमिकताओं पर व्यापक बहस करते हैं. यह एक सामान्य प्रकृति की चर्चा होती है. इसमें बजट के व्यापक सिद्धांतों पर चर्चा होती है.
पूरक अनुदान की मांगें (Demands for Supplementary Grants): जब किसी वित्तीय वर्ष के दौरान किसी सेवा पर उसके लिए स्वीकृत राशि से अधिक व्यय आवश्यक हो जाता है, या किसी नई सेवा पर व्यय की आवश्यकता होती है जिसके लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं था, तब सरकार पूरक अनुदान की मांगें प्रस्तुत करती है. इन मांगों पर सदन में चर्चा होती है और फिर मतदान होता है.
प्रतिस्थापन प्रस्ताव: यह किसी अन्य प्रश्न पर विचार-विमर्श के दौरान पेश किया जाता है. कोई सदस्य किसी विधेयक पर विचार करने के प्रस्ताव के सम्बन्ध में प्रतिस्थापन प्रस्ताव पेश करता है.
आधे घंटे की बहस: लोक महत्त्व के ऐसे विषयों जिनसे संबंधित प्रश्नों का उत्तर सदन में दे दिया गया हो, पर उत्पन्न होने वाले मामलों पर चर्चा लोकसभा में सप्ताह में तीन दिन यथा-सोमवार, बुधवार तथा शुक्रवार को बैठक के अंतिम आधे घंटे में की जा सकती है. राज्य सभा में ऐसी चर्चा किसी दिन, जिसे सभापति नियत करें, सामान्यतः 5 बजे से 5.30 बजे के मध्य की जा सकती है. इस पर मतदान की आवश्यकता नहीं होती. इस चर्चा के लिए कम से कम तीन दिन की पूर्वसूचना आवश्यक होती है.
विभिन्न प्रकार के अनुदान
बजट के अतिरिक्त संसद द्वारा विशेष परिस्थितियों में अन्य अनुदान भी दिये जाते हैं.
अनुपूरक अनुदान: सदन में दिए जा रहे तारांकित प्रश्नों के उत्तर अर्थात् मौखिक रूप से दिए जा रहे उत्तर में यदि कोई स्पष्टीकरण चाहिए होता है तो उस स्पष्टीकरण के लिए जो प्रश्न पूछे जाते हैं उन्हें अनुपूरक प्रश्न कहा जाता है.
अतिरिक्त अनुदान: किसी नई सेवा के संबंध में अतिरिक्त व्यय की आवश्यकता पड़ने पर यह अनुदान दिया जाता है. इसमें मतदान की आवश्यकता नहीं होती हैं.
लेखानुदान (वोट ऑन अकाउंट): यह वित्तीय वर्ष के एक भाग के लिए दिया जाता है. लोकसभा को यह शक्ति दी गई है कि जब तक बजट स्वीकृत नहीं हो जाता तब तक के लिए देश का प्रशासन चलाने के लिए वह सरकार को धन उपलब्ध कराए. लोकसभा इसे बिना चर्चा के पास कर देती है.
विनियोग विधेयक (एप्रोप्रिएशन बिल): संचित निधि से कोई भी धन विनियोग विधेयक के माध्यम से ही निकाला जाता है. यह संचित निधि से व्यय के विनियोग के लिए सरकार को कानूनी अधिकार देता है. इसे लोकसभा में पेश किया जाता है. राज्यसभा को इसमें संशोधन करने या अस्वीकार करने की शक्ति नहीं है. उसे इस विधेयक पर सहमति देनी ही पड़ती है.
विभिन्न प्रकार के निधि
भारत की संचित निधि (अनुच्छेद 266 (1)): भारत सरकार को प्राप्त होने वाले सभी राजस्व तथा ऋण-अदायगी से प्राप्त धन संचित निधि में ही जमा किया जाता है. भारत सरकार के सभी व्यय सामान्यतः संचित निधि के माध्यम से होते हैं. संचित निधि से कोई भी धन विनियोग विधेयक के माध्यम से ही निकाला जाता है. संविधान द्वारा घोषित ‘संचित निधि पर भारित व्यय’ पर मतदान की आवश्यकता नहीं होती.
भारत का लोक लेखा कोष/निधि (अनु. 266 (2)): संचित निधि में शामिल राशियों के अलावा भी भारत सरकार को कुछ राशियाँ प्राप्त होती है. जैसे- बैक जमा राशियाँ, बचतें, भविष्य निधि जमा राशियाँ, संघ के क्रियाकलाप के संबंध में किसी अधिकारी या न्यायालय द्वारा प्राप्त राशि आदि को लोक लेखा में शामिल किया जाता है.
नोट :- लोक लेखा से धन निकालने के लिए सरकार को संसदीय विनियोजन की आवश्यकता नहीं होती हैं.
भारत की आकस्मिकता निधि (अनु. 267): इसका गठन संसद द्वारा ‘भारत की आकस्मिकता निधि अधिनियम 1950’ के तहत हुआ है. यह निधि राष्ट्रपति या कार्यपालिका या सरकार के अधीन होती है. इस निधि से पैसा निकालने के लिए संसद को इजाजत की जरूख नहीं होती है.
संसद की अब तक हुई संयुक्त बैठकें
संयुक्त बैठक | विषय | तत्कालीन प्रधानमंत्री |
प्रथम 1959 | दहेज प्रतिबंध विधेयक | पं. जवाहरलाल नेहरू |
द्वितीय 1977 | बैंकिंग सेवा आयोग विधेयक | मोरारजी देसाई |
तृतीय 2002 | आतंक निवारक अध्यादेश (पोटा) | अटल बिहारी वाजपेयी |