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संत रविदास: पाखंड के विरोधी

    संत रविदास अथवा गुरु रैदास मध्यकालीन भारत के एक संत है जिन्होंने जात-पात के विरोध में कार्य किया. इसलिए इन्हें सतगुरु अथवा जगतगुरु की उपाधि भी दी जाती है. इन्होंने ही रैदासिया अथवा रविदासिया पंथ की स्थापना की. इनके रचे गये 40 पद सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में भी शामिल हैं. उनका मूल नाम रैदास था, लेकिन बाद में कुछ लोग इसे रविदास लिखने लगे. आजकल उन्हें इन दोनों नामों से जाना जाता हैं.

    भारतीय इतिहास में मध्यकाल का अपना विशिष्ठ स्थान है. इस दौर में बुद्ध के शिक्षाओं का प्रभाव समाज में पुरी तरह समाप्त हो सा गया था व बौद्धिक समतामूलक समाज में कुरीतियों व बुराइयों ने जगह बना ली थी. ऐसे में समाज में अनेक विचारक, भक्त व संत हुए, जिन्होंने भेदभाव व ऊंचनीच को समाप्त करने के लिए कई साहसिक कार्य किए. इन्हीं में संत कबीर, सूरदास, गुरु नानक व संत रविदास कुछ प्रमुख हस्तियां हैं. कबीर ने ‘संतन में रैदास’ कहकर इन्हें मान्यता दी है.

    संत रविदास का आरंभिक परिचय (Saint Ravidas intial life in Hindi)

    “चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास. दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास.” इन पंक्तियों से पता चलता है कि संत रविदास का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा को रविवार के दिन संवत 1433 को हुआ था. उनका जन्म जन्म चंद्रवंशी चंवर चमार जाति परिवार में हुआ था. उनका प्रारंभिक शिक्षा गुरू पंडित शारदा नन्द की पाठशाला में हुआ था. हालाँकि उच्च जाति के छात्रों के विरोध का सामना उन्हें करना पड़ा.

    उनके पिता संतोख दास तथा माता का नाम कलसांं देवी था. उनके पिता मल साम्राज्य के राजा नगर में सरपंच थे. उनकी पत्नी का नाम लोना देवी बताया जाता है. रैदासजी ने अपने जीवनकाल में पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था. वे जूते बनाने का काम उनका जीविकोपार्जन का व्यवसाय था. वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे.

    हालाँकि, वे जरूरतमंदों को मुफ्त में भी जूते दान कर दिया करते थे. इससे व्यथित होकर उनके माता-पिता उनसे अलग हो गए थे. हालांकि इसके बाद भी उनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया था.

    काले युग में जन्मे संत रविदास (Black Era Born Saint Ravidas in Hindi)

    इस अवधि को भारत के इतिहास में सबसे काला अवधि कहा जाता है; क्योंकि इस काल में भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग को बुनियादी मानवाधिकारों समानता, भाईचारा और संप्रभुता से वंचित रखा गया . इन दलित लोगों को शिक्षा प्राप्त करने, अपना व्यवसाय बदलने, पूजा करने की अनुमति नहीं थी तथा; इसी प्रकार के कई अन्य प्रतिबंध भी उन पर लगाए गये थे. इसलिए गुरू रविदास ने इस तरह की सामाजिक बुराईयों के खिलाफ एक अथक धर्मयुद्ध छेड़ा.

    संत रविदास अपने भजनों के माध्यम से वंचित एव दलित लोगों से अज्ञानता और निरक्षरता दूर करने तथा व्यवस्था को सुधारने के लिए कड़ी मेहनत करने का आग्रह किया; क्योंकि गरीबी, अशिक्षा और अज्ञानता मानव जाति के सबसे क्रूर दुश्मन रहे हैं. जिस समय वे लोगों को ध्यान की सही राह दिखा रहे थे; उन्हें गरीब, दलित और शोषितों के छिने हुए अधिकारों को वापस प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ा. उन्होंने दलितों के सामाजिक उत्थान के लिए कई स्तरों पर जोरदार प्रयास किया. इस लक्ष्य को प्राप्त करने में गुरू रविदास को अपने पूरे जीवनकाल में अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ा.

    समाज सुधार के लिए समर्पित रहे गुरु संत रविदास (Saint Raidas worked for social Reform in Hindi)

    गुरू रविदास ने अपने भजनों के माध्यम से पूरे विश्व को समाजवाद, समानता और मानव गरीमा की एक अनूठी अवधारणा दी. उन्होंने अपने भजनों के माध्यम से यह प्रचार किया कि केवल एक ही परमेश्वर है जो पूरे ब्रह्मांड के रचियता है जिसमें मनुष्य और सभी 84 लाख प्रजातियां शामिल हैं. उन्होंने अपने अनुयायियों का आह्वाहन किया कि वे सत्य और सर्वव्यापी ईश्वर कि उपासना करे जिसे उन्होंने सतनाम, हरि, माधव, निरंजन, लाल, केशव आदि से पुकारा.

    साथ ही उन्होंने विश्व में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए लोगों से आग्रह किया. अपने जीवन के मुख्य समय अर्थात चौदहवी शताब्दी के अंतिम दशक व पंद्रहवी शताब्दी के प्रथम अर्धकाल के दौरान अपने इस दर्शन को आगे रखा.

    गुरू व संत रविदास ने सर्वप्रथम पहली बार भारत में अपने भजनों के द्वारा समानता, भाईचारे और समाजवाद के इस नई अवधारणा का प्रचार किया. यह मानवीय दर्शन गुरू रविदास ने दुनिया के सामने लगभग गुरू नानक देव के जन्म के आधी शदी, महान कार्ल मार्क्स के जन्म के चार शदी और फ्रांसीसी क्रांति के चार सौ साल पहले प्रस्तुत किया.

    संत रविदास ने प्रमुख गुरूओं और प्रमुख विचारकों के आगमन से पहले ही मानवाता कल्याण की अनूठी अवधारणा दे दी.

    यहाँ यह उल्लेख करना सार्थक होगा कि गुरू नानक देव 1469 ईसवी और कार्ल मार्क्स 1818 ईसवी में पैदा हुए. और फ्रांसीसी क्रांति 1789 तथा 1799 के बीच हुई. जबकि गुरू रविदास जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है वर्ष 1377 में पैदा हुए थे.

    संत रविदास का जीवन परिचय : एक नज़र में (Saint Ravidas Biography Introduction in Short in Hindi)

    • पूरा नाम- गुरु संत रविदास जी
    • प्रसिद्ध नाम- रैदास, रूहिदास, रोहिदास
    • जन्मस्थल- सीर गोवर्धनपुर, वाराणसी(काशी), उत्तर प्रदेश
    • जन्म तिथि – माघ पूर्णिमा को रविवार के दिन संवत 1433, कुछ लोगों के अनुसार 1377 AD से 1398 AD के बीच
    • पिता का नाम- श्री संतोख दास जी
    • माता का नाम- कलसा देवी
    • दादा का नाम- कालू राम जी
    • दादी का नाम- लखपति जी
    • गुरु का नाम- संत कबीर
    • पत्नी का नाम- लोना देवी
    • बेटे का नाम- विजय दास
    • मृत्यु- 1540 AD (वाराणसी)

    सामाजिक आडम्बर व भेदभाव के धुर विरोधी से संत रविदास (Saint Ravidas: Anti-discrimination and old rituals)

    संत रविदास मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, छुवाछुत, भेदभाव व जाति के धुर विरोधी थे. उन्होंने सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया था. समतामूलक व समाजवादी समाज के वे समर्थक थे. उनकी ख्याति से प्रभावित होकर दिल्ली के सुलतान सिकंदर लोदी ने उन्हें अपने महल में बुलाया था.

    उन्होंने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक जनसामान्य बोलचाल की भाषा ब्रज का प्रयोग किया है. उनके लेखन में ब्रज के साथ ही अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है. गुरु रैदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं. सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी स़फाई से प्रकट किए हैं. इनका आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठक के हृदय को उद्वेलित करते हैं.

    बेगमपुर शहर – संत रविदास जी का काव्य कल्पना (Begumpura Town Theory of Saint Ravidas in Hindi)

    भारत के बौद्धकालीन व श्रमण परम्परा को देश का मौलिक समाजवाद कहा जाता है. इस मौलिक समाजवाद की अवधारणा हमें संत रविदास के ‘बेगमपुर शहर’ में मिलती है, जो उनका बहुचर्चित पद है—

    बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ.
    ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु जुवालु.
    अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई.
    काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही.
    आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर.
    तिउ तिउ सैल करहिजिउ भावै, महरम महल न को अटकावै.
    कह ‘रविदास’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा.

    इसका भावार्थ कुछ इस तरह है, “ऐ मेरे भाइयो! मैंने ऐसा घर खोज लिया है यानी उस व्यवस्था को पा लिया है, जो हालांकि अभी दूर है; पर उसमें सब कुछ न्यायोचित है. उसमें कोई भी दूसरे–तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं है; बल्कि, सब एक समान हैं. वह देश सदा आबाद रहता है. वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहें जाते हैं. जो चाहे कर्म (व्यवसाय) करते हैं. उन पर जाति, धर्म या रंग के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं है. उस देश में महल (सामंत) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं. रैदास चमार कहते हैं कि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक है, वही हमारा मित्र है.”

    इस प्रकार बेगमपुर शहर के खासियत हैं-

    • संपत्ति का स्वामी होना बुरा है.
    • जात-पात गलत हैं.
    • कोई भी टैक्स देना बुरा है.
    • दोयम-सोयम दर्जे का नागरिक होना बुरा है.
    • अमीरी तथा गरीबी बुरी है और
    • अस्पृश्यता बुरी है.

    अंग्रेज वकील, सामाजिक दार्शनिक, लेखक, नीतिज्ञ, और प्रसिद्ध पुनर्जागरण मानवतावादी सर थॉमस मोरे के यूटोपिया शहर की तुलना संत रविदास के बेगमपुर शहर से की जाती है. यूटोपिया नामक पुस्तक वर्ष 1516 में प्रकाशित हुई थी.

    जहाँ यूटोपिया को दो खंडों में लिखा गया था, वहीं ‘बेगमपुर’ रचना केवल कुछ पंक्तियों में की गई. हालाँकि, बेगमपुर देश के बाशिंदे उसी तरह दुःख से रहित हैं; जिस तरह यूटोपिया द्वीप के रहने वाले लोग. अगर यूटोपिया इंग्लैंड की सामंतवादी व्यवस्था की प्रतिक्रिया में लिखा गया था तो ‘बेगमपुर’ सल्तनत काल की क्रूर राज्य-व्यवस्था के प्रतिरोध में उपजी कविता हैं.

    ‘बेगमपुरा’ में संत रविदास अंत में कहते हैं- ‘जो हम सहरी, सु मीतु हमारा.’ यह बड़ी प्यारी और दूर तक संदेश देने वाली पंक्ति है. निश्चित रूप से 15वीं सदी में शूद्र-अतिशूद्र वर्गों के लिए संस्थागत विद्रोह करना संभव नहीं रहा होगा. पर, निर्गुणवाद में (जो समतामूलक समाज का दर्शन था) सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध संस्थागत विद्रोह के बीज बोए जा चुके थे. बेगमपुरा की अवधारणा पर 17वीं शताब्दी में सतनामी नाम से एक हथियार-बंद संगठन का उदय उन्हीं बीजों का प्रस्फुटन था.

    संत रविदास के दोहे, हिंदी अर्थ सहित (Ravidas ke Dohe in Hindi)

    ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन।
    पूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुण प्रवीन।।

    अर्थ- इस दोहे के मार्फत संत संत रविदास जी कहना चाहते हैं कि किसी को सिर्फ़ इसलिए नहीं पूजना चाहिए कि वह किसी पूजनीय पद पर है. यदि उस व्यक्ति में उस पद के अनुसार पूजनीय गुण नहीं है तो उसे नहीं पूजना चाहिए. यदि कोई ऐसा व्यक्ति है जो किसी पूजनीय पद पर तो नहीं है, पर उसमें पूजनीय गुण है तो उसे अवश्य ही पूजना चाहिए.

    रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
    नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।

    अर्थ- कोई भी इन्सान जन्म लेने से ऊँच नीच नहीं होता है. इन्सान के कर्म ही होते हैं जो उसे नीच बना देते हैं. अर्थात् इन्सान के कर्म ही उसे नीच बनाते है.

    रैदास कहै जाकै हदै, रहे रैन दिन राम।
    सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम।।

    अर्थ- जिस हृदय में दिन-रात राम के नाम का ही वास होता है. वह हृदय स्वयं राम के समान होता है. राम के नाम में ही इतनी शक्ति होती है कि व्यक्ति को कभी क्रोध नहीं आता और कभी भी कामभावना का शिकार नहीं होता हैं.

    एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
    रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय।।

    अर्थ- संत रविदास जी कहते हैं कि सभी कामों को यदि हम एक साथ शुरू करते हैं तो हमें कभी उनमें सफलता नहीं मिलती है. ठीक उसी प्रकार यदि किसी पेड़ की एक एक टहनी और पति को सींचा जाये और उसकी जड़ को सुखा छोड़ दिया जाये तो वह पेड़ कभी फ़ल नहीं दे पायेगा.

    करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस।
    कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास।।

    अर्थ- मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्म करना रहना चाहिए, उससे मिलने वाले फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए. क्योंकि कर्म करना मनुष्य का धर्म है तो उसका फल मिलाना भी हमारा सौभाग्य.

    जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
    रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

    अर्थ- संत रविदास जी कहते हैं कि केले के तने को छिला जाये तो पते के निचे पता और पते के नीचे पता मिलता है और अंत में कुछ भी नहीं मिलता है. ठीक उसी प्रकार इन्सान भी जातियों में बंट गया है. उनका कहना है कि इन जातियों ने इन्सान को बांट दिया है. अंत में इन्सान भी खत्म हो जाता है. पर जातियां खत्म नहीं होती है. जब तक जातियां खत्म नहीं होगी तब तक इन्सान एक नहीं हो सकता है.

    जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड मेँ बास।
    प्रेम भगति सों ऊधरे, प्रगटत जन रविदास।।

    अर्थ- संत रविदास जी कहते है कि जिस रविदास को देखने से लोगो को घृणा आती थी, जिनका निवास नर्क कुंद के समान था. ऐसे रविदास का ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाना सच में फिर से उनकी मनुष्य के रूप में उत्पत्ति हो गयी है.

    मन ही पूजा मन ही धूप।
    मन ही सेऊं सहज स्वरूप।।

    अर्थ- भगवान हमेशा एक स्वच्छ और निर्मल मन में निवास करते हैं. यदि आपके मन में किसी प्रकार का बेर, लालच या द्वेष नहीं है तो आपका मन भगवान का मंदिर, दीपक और धूप के समान है. इस प्रकार के लोगों में ही भगवान हमेशा निवास करते है.

    कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
    वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

    अर्थ- भगवान एक ही है. उनके राम, कृष्ण, हरी, इश्वर, करीम और राघव अलग-अलग नाम है. सभी वेद, कुरान और पुराण जैसे सभी ग्रंथों में एक ही इश्वर का गुणगान किया हुआ है और ये सभी ग्रन्थ इश्वर की भक्ति का पाठ सिखाते हैं.

    रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
    बिनु पानी ज्‍यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय।।

    अर्थ- मुश्किल परिस्थिति व्यक्ति की सहायता कोई नहीं करता है. उस समय उसके द्वारा कमाई गई दौलत या सम्पति ही उसके लिए सबसे मददगार होती है. ठीक उसी प्रकार सूर्य भी तालाब का पानी सूख जाने पर पर कमल को सूखने से नहीं बचा सकता है.

    हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस ।
    ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।

    अर्थ- संत रविदास जी कहते हैं कि जो लोग हीरे जैसे बहुमूल्य हरी को छोडकर दूसरी चीज़ों की आशा रखते हैं. उन लोगों अवश्य ही नर्क में जाना पड़ता है. अर्थात् इश्वर की भक्ति को छोडकर इधर उधर भटकना बिल्कुल व्यर्थ है.

    कह रविदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
    तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।

    अर्थ इस दोहे के माध्यम से संत रविदास जी कहते हैं कि इश्वर की भक्ति व्यक्ति को अपने भाग्य से प्राप्त होती है. यदि मनुष्य में थोड़ा सा भी घमंड नहीं है तो वह जरूर ही अपने जीवन में सफल होता है. ठीक इसी प्रकार जिस प्रकार एक विशालकाय हाथी शक्कर के दानों को बिन नहीं सकता है और एक छोटी सी दिखने वाली चींटी शक्कर के दानों को आसानी से बिन पाती है. इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने जीवन में बड़पन का भाव त्यागकर इश्वर की भक्ति में लीन रहना चाहिए.

    संत रविदास के कुछ अन्य दोहे (Two Line Poems of Saint Ravidas in Hindi)

    मस्जिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सों नहीं पिआर।
    दोए मंह अल्लाह राम नहीं, कहै रैदास चमार॥

    मुसलमान सों दोस्ती, हिंदुअन सों कर प्रीत।
    रैदास जोति सभ राम की, सभ हैं अपने मीत॥

    ऊँचे कुल के कारणै, ब्राह्मन कोय न होय।
    जउ जानहि ब्रह्म आत्मा, रैदास कहि ब्राह्मन सोय॥

    हिंदू पूजइ देहरा मुसलमान मसीति।
    रैदास पूजइ उस राम कूं, जिह निरंतर प्रीति॥

    रैदास प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय।
    प्रेम न मुख खोलै कभऊँ, नैन देत हैं रोय॥

    जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात।
    रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥

    रैदास इक ही बूंद सो, सब ही भयो वित्थार।
    मुरखि हैं तो करत हैं, बरन अवरन विचार॥

    माथे तिलक हाथ जपमाला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया।
    मारग छाड़ि कुमारग उहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया॥

    रैदास जीव कूं मारकर कैसों मिलहिं खुदाय।
    पीर पैगंबर औलिया, कोए न कहइ समुझाय॥

    मंदिर मसजिद दोउ एक हैं इन मंह अंतर नाहि।
    रैदास राम रहमान का, झगड़उ कोउ नाहि॥

    रैदास हमारौ राम जी, दशरथ करि सुत नाहिं।
    राम हमउ मांहि रहयो, बिसब कुटंबह माहिं॥

    पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
    रैदास दास पराधीन सौं, कौन करैहै प्रीत॥

    जो ख़ुदा पच्छिम बसै तौ पूरब बसत है राम।
    रैदास सेवों जिह ठाकुर कूं, तिह का ठांव न नाम॥

    ब्राह्मण खतरी बैस सूद रैदास जनम ते नांहि।
    जो चाहइ सुबरन कउ पावइ करमन मांहि॥

    रैदास सोई सूरा भला, जो लरै धरम के हेत।
    अंग−अंग कटि भुंइ गिरै, तउ न छाड़ै खेत॥

    जात पांत के फेर मंहि, उरझि रहइ सब लोग।
    मानुषता कूं खात हइ, रैदास जात कर रोग॥

    सौ बरस लौं जगत मंहि, जीवत रहि करू काम।
    रैदास करम ही धरम हैं, करम करहु निहकाम॥

    नीचं नीच कह मारहिं, जानत नाहिं नादान।
    सभ का सिरजन हार है, रैदास एकै भगवान॥

    जिह्वा भजै हरि नाम नित, हत्थ करहिं नित काम।
    रैदास भए निहचिंत हम, मम चिंत करेंगे राम॥

    रैदास न पूजइ देहरा, अरु न मसजिद जाय।
    जह−तंह ईस का बास है, तंह−तंह सीस नवाय॥

    रैदास जन्मे कउ हरस का, मरने कउ का सोक।
    बाजीगर के खेल कूं, समझत नाहीं लोक॥

    साधु संगति पूरजी भइ, हौं वस्त लइ निरमोल।
    सहज बल दिया लादि करि, चल्यो लहन पिव मोल॥

    अंतर गति राँचै नहीं, बाहरि कथै उजास।
    ते नर नरक हि जाहिगं, सति भाषै रैदास॥

    रैदास जन्म के कारनै होत न कोए नीच।
    नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच॥

    धन संचय दुख देत है, धन त्यागे सुख होय।
    रैदास सीख गुरु देव की, धन मति जोरे कोय॥

    रैदास मदुरा का पीजिए, जो चढ़ै उतराय।
    नांव महारस पीजियै, जौ चढ़ै उतराय॥

    बेद पढ़ई पंडित बन्यो, गांठ पन्ही तउ चमार।
    रैदास मानुष इक हइ, नाम धरै हइ चार॥

    जब सभ करि दोए हाथ पग, दोए नैन दोए कान।
    रैदास प्रथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान॥

    जिह्वा सों ओंकार जप, हत्थन सों कर कार।
    राम मिलिहि घर आइ कर, कहि रैदास विचार॥

    देता रहै हज्जार बरस, मुल्ला चाहे अजान।
    रैदास खोजा नहं मिल सकइ, जौ लौ मन शैतान॥

    सब घट मेरा साइयाँ, जलवा रह्यौ दिखाइ।
    रैदास नगर मांहि, रमि रह्यौ, नेकहु न इत्त उत्त जाइ॥

    मुकुर मांह परछांइ ज्यौं, पुहुप मधे ज्यों बास।
    तैसउ श्री हरि बसै, हिरदै मधे रैदास॥

    राधो क्रिस्न करीम हरि, राम रहीम खुदाय।
    रैदास मोरे मन बसहिं, कहु खोजहुं बन जाय॥

    गुरु ग्यांन दीपक दिया, बाती दइ जलाय।
    रैदास हरि भगति कारनै, जनम मरन विलमाय॥

    रैदास स्रम करि खाइहिं, जौं लौं पार बसाय।
    नेक कमाई जउ करइ, कबहुं न निहफल जाय॥

    रैदास हमारो साइयां, राघव राम रहीम।
    सभ ही राम को रूप है, केसो क्रिस्न करीम॥

    प्रेम पंथ की पालकी, रैदास बैठियो आय।
    सांचे सामी मिलन कूं, आनंद कह्यो न जाय॥

    रैदास के पद / पदावली

    प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी।।
    प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा।।
    प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।।
    प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।।
    प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

    अब मैं हार्यौ रे भाई – रैदास

    थकित भयौ सब हाल चाल थैं, लोग न बेद बड़ाई।। टेक।।

    थकित भयौ गाइण अरु नाचण, थाकी सेवा पूजा।
    काम क्रोध थैं देह थकित भई, कहूँ कहाँ लूँ दूजा।।1।।

    रांम जन होउ न भगत कहाँऊँ, चरन पखालूँ न देवा।
    जोई-जोई करौ उलटि मोहि बाधै, ताथैं निकटि न भेवा।।2।।

    पहली ग्यांन का कीया चांदिणां, पीछैं दीया बुझाई।
    सुनि सहज मैं दोऊ त्यागे, राम कहूँ न खुदाई।।3।।

    दूरि बसै षट क्रम सकल अरु, दूरिब कीन्हे सेऊ।
    ग्यान ध्यानं दोऊ दूरि कीन्हे, दूरिब छाड़े तेऊ।।4।।

    पंचू थकित भये जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ थिति पाई।
    जा करनि मैं दौर्यौ फिरतौ, सो अब घट मैं पाई।।5।।

    पंचू मेरी सखी सहेली, तिनि निधि दई दिखाई।
    अब मन फूलि भयौ जग महियां, उलटि आप मैं समाई।।6।।

    चलत चलत मेरौ निज मन थाक्यौ, अब मोपैं चल्यौ न जाई।
    सांई सहजि मिल्यौ सोई सनमुख, कहै रैदास बताई।।7।।

    तेरा जन काहे कौं बोलै – रैदास

    तेरा जन काहे कौं बोलै।
    बोलि बोलि अपनीं भगति क्यों खोलै।। टेक।।

    बोल बोलतां बढ़ै बियाधि, बोल अबोलैं जाई।
    बोलै बोल अबोल कौं पकरैं, बोल बोलै कूँ खाई।।1।।

    बोलै बोल मांनि परि बोलैं, बोलै बेद बड़ाई।
    उर में धरि धरि जब ही बोलै, तब हीं मूल गँवाई।।2।।

    बोलि बोलि औरहि समझावै, तब लग समझि नहीं रे भाई।
    बोलि बोलि समझि जब बूझी, तब काल सहित सब खाई।।3।।

    बोलै गुर अरु बोलै चेला, बोल्या बोल की परमिति जाई।
    कहै रैदास थकित भयौ जब, तब हीं परंमनिधि पाई।।4।।

    राम जन हूँ उंन भगत कहाऊँ – रैदास

    राम जन हूँ उंन भगत कहाऊँ, सेवा करौं न दासा।
    गुनी जोग जग्य कछू न जांनूं, ताथैं रहूँ उदासा।। टेक।।

    भगत हूँ वाँ तौ चढ़ै बड़ाई। जोग करौं जग मांनैं।
    गुणी हूँ वांथैं गुणीं जन कहैं, गुणी आप कूँ जांनैं।।1।।

    ना मैं ममिता मोह न महियाँ, ए सब जांहि बिलाई।
    दोजग भिस्त दोऊ समि करि जांनूँ, दहु वां थैं तरक है भाई।।2।।

    मै तैं ममिता देखि सकल जग, मैं तैं मूल गँवाई।
    जब मन ममिता एक एक मन, तब हीं एक है भाई।।3।।

    कृश्न करीम रांम हरि राधौ, जब लग एक एक नहीं पेख्या।
    बेद कतेब कुरांन पुरांननि, सहजि एक नहीं देख्या।।4।।

    जोई जोई करि पूजिये, सोई सोई काची, सहजि भाव सति होई।
    कहै रैदास मैं ताही कूँ पूजौं, जाकै गाँव न ठाँव न नांम नहीं कोई।।5।।

    संत रविदास से जुड़ा एक प्रसंग (Tale Story of Saint Ravidas in Hindi)

    एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे. रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता, किन्तु गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है. मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है. कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि – मन चंगा तो कठौती में गंगा.

    गुरु संत रविदास जी से जुड़े स्मारक (Memorials related to Saint Ravidas in Hindi)

    संत रविदास के द्वारा किये गए महान कार्यों को याद रखने के लिए आज भारत में जगह जगह इनके नाम पर सरकार द्वारा स्मारक बनाये गए है. इनमें पार्क, घाट, नगर, मंदिर और गेट जैसे स्मारक शामिल है, जो निम्नलिखित है:

    श्री गुरु संत रविदास जन्म अस्थाना मंदिर, वाराणसी

    गुरु रविदास के जन्म स्थान सीर गोवर्धनपुर, वाराणसी में एक मंदिर बनाया गया है. यह इनके अनुयायीयों द्वारा चलाया जाता है. पूरी दुनिया में फैले रविदास के अनुयायी यानि रैदासिया या रविदासिया समुदाय के लिए यह मंदिर प्रधान धार्मिक कार्यालय के रूप में काम करता है.

    वाराणसी में श्री गुरु संत रविदास पार्क

    वाराणसी नगवा में संत रविदास के नाम पर एक पार्क है. इसका नाम “गुरु रविदास स्मारक और पार्क” है, जो उनके यादगार के रुप में बनाया गया है.

    गुरु संत रविदास घाट

    गंगा नदी के किनारे स्थित सबसे बड़े घाटों में से एक गुरु रविदास घाट उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के बेहतरीन पर्यटन स्थलों में से एक है.

    संत रविदास नगर

    उत्तर प्रदेश में ज्ञानपुर जिले के निकट संत रविदास नगर है, जो कि पहले भदोही नाम से था अब उसका नाम भी संत रविदास नगर है.

    श्री गुरु संत रविदास मेमोरियल गेट

    वाराणसी के लंका चौराहे पर एक संत रविदास के याद व सम्मान में एक बड़ा गेट है, जिसका नाम श्री गुरु रविदास मेमोरियल गेट है.

    आज के समय संत रविदास के अनुयायी पुरे दुनिया में फैले हुए है. वे संत रविदास का जयंती हरेक साल बड़े धूमधाम से मनाते है.

    “संत रविदास: पाखंड के विरोधी” पर 3 विचार

    1. संत शिरोमणि रविदास जी महाराज की जीवनी, वाणी , दोहों एवं शिक्षाओ का बहुत सुंदर चित्रण किया है । वर्तमान में सामाजिक समरसता व आध्यात्मिक दर्शन के लिए बहुत आवश्यक है।

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