छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा मराठा साम्राज्य का निर्माण एक क्रान्तिकारी घटना है. विजयनगर के उत्थान से भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण तत्व आया था. वैसे ही सत्रहवीं सदी के उत्तराद्ध में मराठा शक्ति के उत्थान से हुआ. भारतीय इतिहास के पूर्व मध्य काल में मराठों की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में उज्जवल परम्पराएँ थीं. उस समय उन्होंने देवगिरी के यादवों के अधीन राष्ट्रीय पक्ष का समर्थन किया था.
अलाउद्दीन के समय में यादव रामचन्द्रदेव के पतन के साथ उनकी स्वतंत्रता नष्ट हो गयी. परन्तु चालीस वर्षों में वे पुन: बहमनी राज्य में तथा आगे चलकर उत्तरगामी सल्तनतों में महत्वपूर्ण भाग लेने लगे. सत्रहवीं सदी में वे एक राष्ट्रीय राज्य के रूप में संगठित हो गये.
इसमें सन्देह नहीं कि शिवाजी इस मराठा राष्ट्रीय एकता का नायक था, परन्तु यह मानना पड़ेगा कि अन्य अनेक कारण थे जिन्होंने मराठा शक्ति के उत्कर्ष और शिवाओं की गौरवशाली उपलब्धियों का मार्ग प्रशस्त किया. इन कारणों में से मुख्य संक्षेप में इस प्रकार हैं.
मराठा साम्राज्य का उद्भव के कारण
17वीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य की विघटन की प्रक्रिया प्रारंभ होने के साथ ही भारत में स्वतंत्र राज्यों की स्थापना शुरू हो गयी. अस्तित्व में आ रहै नए स्वतंत्र राज्यों में मराठा का उद्भव एक महत्वपूर्ण घटना है.
एक शक्तिशाली राज्य के रूप में मराठों के उत्कर्ष में अनेक कारकों का योगदान रहा, जिनमें भौगोलिक परिस्थिति, औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियां, और मराठा संत कवियों की प्रेरणा महत्त्वपूर्ण करक हैं. प्रारंभ में मराठा, सिपहसलार और मनसबदार के रूप में बीजापुर और अहमदनगर राज्य में नौकरी करते थे. इन कारणों को तीन प्रकार में विभक्त किया जा सकता हैं.
प्रथम कारण
प्रथमत: महाराष्ट्र के लोगों के चरित्र तथा इतिहास को ढालने में वहाँ के भूगोल का गहरा प्रभाव पड़ा. मराठा देश दो तरफ से पहाड़ की श्रेणियों से घिरा है-सह्यद्रि उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ है तथा सतपुड़ा एवं विंध्य पूर्व से पश्चिम तक फैले हुए हैं. यह नर्मदा एवं ताप्ती नदियों द्वारा रक्षित है. इसमें आसानी से प्रतिरक्षित हो सकने वाले बहुत से पहाड़ी दुर्ग थे. यही कारण था कि मराठा देश अश्वारोहियों के एक धक्के से अथवा यहाँ तक कि एक वर्ष तक आक्रमण करने पर भी नहीं मिलाया जा सकता और न जीता जा सकता था.
देश की ऊबड़खाबड़ एवं अनुर्वर भूमि, इसकी अनिश्चित एवं कम वर्षा और कृषि-सम्बन्धी इसके अल्प साधनों के कारण मराठे विषयसुख एवं आलस्य के दोषों से बचे रहे तथा उन्हें अपने में आत्मनिर्भरता, साहस, अध्यवसाय, कठोर सरलता, रुक्ष खरापन, सामाजिक समानता की भावना एवं इसके फलस्वरूप मनुष्य के रूप में मनुष्य की प्रतिष्ठा में गर्व का विकास करने में सहायता मिली.
द्वितीय कारण
दूसरे, एकनाथ, तुकाराम, रामदास और वामन पंडित इन मराठा धर्म-सुधारकों के क्रमानुसार सदियों से ईश्वर-भक्ति, ईश्वर के सामने सब मनुष्यों की समानता जिसमें जाति अथवा पद का कोई भेद नहीं था तथा कार्य की प्रतिष्ठा-इन सिद्धान्तों का प्रचार कर रखा था. इस प्रकार उन्होंने अपने देश में पुनर्जागरण अथवा आत्म-जागरण के बीजों का रोपण कर दिया था, जो सामान्यतया किसी राजनैतिक क्रान्ति की पृष्ठभूमि प्रस्तुत कर उसके आगमन का पूर्वा-मास प्रस्तुत करते हैं.
शिवाजी के गुरु रामदास समर्थ ने स्वदेशवासियों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला था. उसने मठों के अपने शिष्यों एवं अपनी प्रसिद्ध कृति दासबोध के द्वारा उन्हें समाज सुधार तथा राष्ट्रीय पुनर्जीवन के आदशों से प्रेरित किया.
तृतीय कारण
तीसरे, साहित्य एवं भाषा से महाराष्ट्र के लालों को एकता का एक अन्य बन्धन मिला. धर्म-सुधारकों के भक्ति-गीत मराठी भाषा में लिखे गये. फलस्वरूप पंद्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों में एक सबल मराठी साहित्य का विकास हुआ, जिससे देशवासियों को श्रेष्ठ आकांक्षाओं के लिए प्रेरणा मिली. इस प्रकार सत्रहवीं सदी में महाराष्ट्र में, शिवाजी द्वारा राजनैतिक एकता प्रदान किये जाने के पहले ही, भाषा, धर्म एवं जीवन की एक विलक्षण एकता स्थापित हो गयी थी.
लोगों के ऐक्य भाव में जो थोडी कमी थी, वह शिवाजी के द्वारा एक राष्ट्रीय राज्य की स्थापना, दिल्ली के आक्रमणकारियों के साथ उसके (शिवाजी के) पुत्रों के अधीन दीर्घकालीन संघर्ष एवं पेशवाओं के अधीन उस जाति के साम्राज्य के प्रसार से पूरी हो गयी.
मराठों ने दक्कन की सल्तनतों में काम करने के कारण राजनैतिक एवं सैनिक शासन का कुछ पूर्व अनुभव भी प्राप्त कर लिया था. विख्यात शिवाजी के पिता शाहजी ने अहमदनगर के सुल्तान की सेवा में एक अश्वारोही के रूप में अपना जीवन आरम्भ किया. वह धीरे-धीरे प्रतिष्ठित हो गये, उसने उस राज्य में बहुत-से क्षेत्र प्राप्त कर लिये तथा निजामशाही शासन के अन्तिम वर्षों में वह राजा बनाने वाला बन गया. परन्तु उसकी सफलता से दूसरे उससे ईर्ष्या करने लगे.
शाहजहाँ के द्वारा अहमदनगर मिला लिये जाने के बाद 1636 ई. में शाहजी ने बीजापुर राज्य में नौकरी कर ली. यहाँ भी उसने काफी प्रसिद्धि प्राप्त की. पूना की उसकी पुरानी जागीर के अतिरिक्त, जिस पर अहमदनगर राज्य के सेवक के रूप में उसका अधिकार था, उसे कर्णाटक में एक विस्तृत जागीर मिली.
छत्रपति शिवाजी महाराज (1627 ई. -1680 ई.)
शिवाजी का जन्म जुन्नर के निकट शिवनेर के पहाड़ी दुर्ग में 1630 ई. में (एक विचारधारा के लेखकों के मतानुसार) अथवा 1627 ई. में (जैसा कुछ आधुनिक इतिहासकार कहते हैं) हुआ. वे भोंसले परिवार से सम्बद्ध थे. शिवाजी तथा उसकी माँ जीजाबाई को दादाजी कोणदेव नामक एक योग्य ब्राह्मण की संरक्षकता में छोड़कर शाहजी अपनी द्वितीय स्त्री के साथ अपनी जागीर में चला गया.
जीजाबाई अपने पति द्वारा उपेक्षित रही. पर वह धार्मिक प्रकृति एवं असाधारण बुद्धिमत्ता वाली स्त्री थी. उसने प्राचीन युग की वीरता, परमार्थ निष्ठा एवं शूरता की कहानियाँ कहकर अपने बच्चे के मस्तिष्क में उच्च एव प्रेरणाप्रद विचार भर दिये तथा धर्म की प्रतिरक्षा के लिए उसके उत्साह को उत्तेजित किया. रानाडे ने लिखा था कि यदि कभी महापुरुषों की महत्ता माताओं की प्रेरणा के कारण हुई हो, तो शिवाजी के जीवन-निर्माण में जीजाबाई का प्रभाव अत्यन्त महत्वपूर्ण था.
दादाजी कोण्डादेव के प्रभाव से भी वह वीर एवं साहसी बना. यह मालूम नहीं है कि शिवाजी को विधिवत् कोई साहित्यिक शिक्षा मिली अथवा नहीं; परन्तु वह एक वीर एवं साहसी सैनिक बन गया. केवल लूटपाट के प्रेम ने हीं नहीं, बल्कि जिसे वह विदेशी अत्याचार समझता था. उससे अपने देश को मुक्त् करने की एक वास्तविक इच्छा ने उसे प्रेरित किया.
मावल देश पश्चिमी घाटी के किनारे लम्बाई में नब्बे तथा चौडाई में लगभग बारह से चौदह मील है. वहाँ पहाड़ी लोगों के साथ उसकी प्रारम्भिक घनिष्ठता उसके अगले वर्षों में उसके लिए अत्यंत बहुमूल्य हो गयी, क्योंकि मावली उसके सर्वश्रेष्ठ सैनिक, उसके सबसे पहले साथी एवं उसके सबसे अनुरक्त सेनापति निकले.
अपनी माँ की आोर से वह देवगिरि के यादव शासकों का वंशज था तथा पिता की ओर से वह मेवाड़ के वीर सिसोदियों का वंशज होने का दावा करता था. इस प्रकार गौरवपूर्ण वंश के होने की भावना तथा प्रारम्भिक प्रशिक्षण एवं प्रतिवेश के प्रभाव ने मिलकर उस युवक मराठा सैनिक में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने की आकांक्षाएँ जगा दी. उसने अपने लिए स्वतंत्रता का जीवन चुना. यह जीवन जोखिम से भरा हुआ था. परन्तु यदि वह सफल हो सका, तो इसमें उस जोखिम के बदले ऐसे लाभ थे, जिनका किसी ने स्वप्न भी नहीं देखा होगा.
दक्कन की सल्तनतों की बढ़ती हुई दुर्बलता तथा उत्तर में शाही दल के लम्बी अवधि तक युद्ध करते रहने के कारण, मराठा शक्ति के उत्थान में बड़ी सहायता मिली. 1646 ई. में शिवाजी ने तोरण के दुर्ग पर अधिकार कर लिया, जिससे पाँच मील पूर्व उसने शीघ्र राजगढ़ का किला बनवाया.
दादाजी कोण्डादेव इन जोखिम भरे साहसिक कामों को पसन्द नहीं करता था. उनकी मृत्यु (1647) के पश्चात् शिवाजी ने पुश्तैनी मालिकों अथवा बीजापुर के स्थानीय अफसरों से बल, रिश्वत या छल के द्वारा बहुत-से किलों पर अधिकार कर लिया. उसने नये किले भी बनवाये. इस प्रकार उसके अधिकार में काफी अचल सम्पति हो गयी, जो पहाड़ी दुर्गों की एक लम्बी श्रृंखला से सुरक्षित थी.
उसे कुछ वर्षों के लिए (1649-1655 ई.) बीजापुर के विरुद्ध आक्रमणकारी कार्य स्थगित कर देने पडे, क्योंकि बीजापुर सरकार ने उसके पिता को बन्दी बना लिया तथा उसके अपने पुत्र के अच्छे आचरण की शर्त पर मुक्त किया. परन्तु उसने इस समय का उपयोग अपने जीते हुए प्रदेशों के दृढ़ीकरण में किया.
जनवरी, 1656 ई. में उसने जावली नामक एक छोटे मराठा राज्य को, उसके अर्ध-स्वतंत्र मराठा राजा चन्द्रराव मोरे को अपने एक प्रतिनिधि द्वारा, मरवाकर ले लिया. इस समय तक शिवाजी की विरासत का विस्तार एवं राजस्व दूने से भी अधिक हो गया.
मुगलों के साथ उसकी सबसे पहली मुठभेड 1657 ई. में हुई. इस समय औरंगजेब तथा उसकी सेना बीजापुर पर आक्रमण करने में लगी हुई थी. इससे लाभ उठाकर शिवाजी ने अहमदनगर एवं जुन्नर के मुगल जिलों पर हमला कर दिया तथा जुन्नर नगर को लूट लिया. औरंगजेब ने शीघ्र उस भाग में अपने अफसरों को नयी सेना दी तथा शिवाजी पराजित हुआ. जब आदिलशाह ने औरंगजेब के साथ संधि कर ली, तब शिवाजी ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली.
औरंगजेब ने शिवाजी पर कभी विश्वास नहीं किया, परन्तु उसने संधि कर ली क्योंकि अपने पिता की अस्वस्थता के कारण उत्तर में उसकी उपस्थिति आवश्यक हो गयी थी. इसके बाद शिवाजी ने उत्तर कोंकण पर ध्यान दिया, कल्याण, भिवाणी एवं माहुली पर अधिकार कर लिया तथा दक्षिण में माहद तक बढ गया.
बीजापुर का सुल्तान आन्तरिक कलह एवं तात्कालिक मुगल आक्रमण से कुछ समय के लिए मुक्त हो गया. अत: उसने शिवाजी की शक्ति का सदा के लिए नाश करने का निर्णय किया. 1659 ई. के प्रारम्भ में उसके विरुद्ध राज्य के एक प्रमुख सरदार एवं सेनापति अफजल खाँ के अधीन एक विशाल सेना भेजी गयी. इसका उद्देश्य था विद्रोही (शिवाजी) को जीवित अथवा मृत रूप में पकड़कर लाना.
अफजल खाँ एक पखवारे के अन्दर वाई पहुँच गया, जो सतारा से बीस मील उत्तर है. बीजापुर का सेनापति शिवाजी को उसके प्रतापगढ़ के दुर्ग से निकालने में असफल हुआ. तब उसने कृष्णजी भास्कर नामक एक मराठा ब्राह्मण की मध्यस्थता से उसके साथ संधि की बातचीत शुरू कर दी तथा उसे एक सम्मेलन में आने को आमंत्रित किया.
शिवाजी ने उस दूत का सम्मान के साथ स्वागत किया तथा उससे धर्म के नाम पर अफजल खाँ का वास्तविक अभिप्राय बतलाने की अपील की. इससे द्रवित होकर कृष्णजी भास्कर ने संकेत किया कि बीजापुर के सेनापति के मन में छल है. इसकी पुष्टि अफजल के पास भेजे गये शिवाजी के अपने दूत गोपीनाथ से मिली खबर द्वारा हो गयी. इससे शिवाजी सावधान हो गया. वह अपने शत्रु से सम्मलेन में मिलने चला.
उपरी तौर पर वह निःशस्त्र थ, किन्तु उसने अपने पास हथियार छिपा लिए और झिलम पहन ली. ऐसा उसने इसलिए किया था की वह जरुरत पड़ने पर मक्कारी का जवाब मक्कारी से देना चाहता था. सभी मराठे एकमत होकर कहते हैं की जब दोनों ने एक दूसरे का आलिंगन किया, तब मजबूत और हट्टे-कट्टे मुस्लिम सेनापति ने नाटे और दुबले मराठा नायक की गर्दन को एक फौलादी पकड़ के साथ अपनी बायीं बाहु में दबा लिया तथा अपने दाहिने हाथ से शिवाजी के शरीर में छुरा भोंकने का प्रयत्न किया. परन्तु शिवाजी ने छिपे शास्त्रों ने उसकी हानि से रक्षा की.
उसने झट अपने बघनखे से अफज़ल के शरीर को चीरकर उसे मार डाला. अपनी सेना की मदद से, जो छिपकर बैठी थी, उसने बीजापुर की नेतृत्वविहीन सेना को हरा दिया तथा उसके पड़ाव को लूट लिया. खाफी खां तथा डफ शिवाजी पर अफज़ल की छलपूर्वक हत्या करने का अभियोग लगते हैं. उनके विचार में अफज़ल ने पहले शिवाजी पर आघात करने की कोशिश नहीं की थी.
परन्तु मराठा लेखकों ने अफजल के प्रति किये गये शिवाजी के व्यवहार को न्यायोचित ठहराया है. उनके विचार में यह बीजापुर के सेनापिति के आक्रमण के विरुद्ध आत्मरक्षा का कार्य था. समकालीन कारखानों (फैक्ट्रियों) के प्रमाण मराठा इतिहासकारों के कथन से मेल खाते हैं.
इसके बाद शिवाजी दक्षिण कोंकण तथा कोल्हापुर जिले में घुसा. परन्तु जुलाई, 1660 ई. में पनहाला दुर्ग में उसे सीदी जौहर के अधीन बीजापुर की एक सेना ने घेर लिया तथा उसे विवश होकर इसे खाली करना पड़ा. शीघ्र उसे एक नये खतरे का सामना करना पड़ा. दक्कन के नये मुगल सूबेदार शाइस्ता खाँ को औरंगजेब ने मराठा नायक की हरकतों को दबाने का काम सौंपा.
शाइस्ता खाँ ने पूना जीता, चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा मराठों को कल्याण जिले से खदेड़ भगाया. परन्तु शिवाजी ने शीघ्र अपने पिता की मध्यस्थता से, जो अब भी बीजापुर राज्य में एक महत्वपूर्ण पद पर था, उस राज्य के साथ एक अल्पकालीन संधि कर ली. इस प्रकार वह अपना पूरा ध्यान मुगलों की ओर देने को स्वतंत्र हो गया.
लगभग दो वर्षों तक अनियमित रूप से युद्ध करने के पश्चात् 15 अप्रैल, 1663 ई. को वह कुछ नौकरों के साथ चुपके से पूना में शाइस्ता खाँ के कमरे में घुस पड़ा. उसने दक्कन के मुगल सूबेदार पर अचानक हमला करके उसे उसकी छावनी के भीतर, उसके सोने के कमरे में ही घायल कर डाला. यह घटना उसके अंगरक्षकों एवं दासियों के भीतरी घेरे के बीच हुई. शिवाजी ने उसके पुत्र अबुल फतह, एक कप्तान, चालीस नौकरों एवं उसके अन्त:पुर की छ: स्त्रियों को कत्ल कर डाला तथा सकुशल सिंहगढ़ के पार्श्ववर्ती दुर्ग में चला गया.
मुगल सूबेदार का अंगूठा कट गया तथा वह किसी प्रकार अपनी जान लेकर भाग निकला. इस साहसपूर्ण एवं अद्भुत कार्य से शिवाजी की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी. शीघ्र ही उसने एक दूसरा वीरतापूर्ण कार्य किया, जो पूर्व वर्णित कार्य से कम साहसपूर्ण न था.
16 से लेकर 20 जनवरी, 1664 ई. के बीच उसने पश्चिमी समुद्रतट के सबसे समृद्ध बन्दरगाह सूरत पर आक्रमण कर उसे लूट लिया. इसमें कोई बाधा नहीं हुई क्योंकि उस स्थान का शासक उसका विरोध करने के बदले अपने पैर सिर पर रखकर चम्पत हो गया था. मराठा नायक अत्याधिक माल लूटकर भाग गया, जिसका मूल्य एक करोड़ रुपये से अधिक था. केवल स्थानीय अंग्रेजी और डच फैक्ट्रियों ने सफलतापूर्वक उसका प्रतिरोध किया तथा लूटे जाने से बच गयीं.
बार-बार की इन पराजयों से दक्क्न में मुगलों की प्रतिष्ठा और प्रभाव पर बहुत असर पड़ा. औरंगजेब इससे कुपित हुआ. उसने शिवाजी को दण्ड देने के लिए 1665 ई. के प्रारम्भ में अम्बर के राजा जयसिंह तथा दिलेर खाँ की एक भारी फौज के साथ दक्कन भेजा. जयसिंह एक चतुर एवं साहसी सेनापति था. उसने साम्राज्य के विभिन्न भागों में आक्रमणों के समय तरह-तरह के सैनिक अनुभव प्राप्त किये थे. इसके साथ उसमें बहुत कूटनीतिक कुशलता तथा दूरदर्शिता भी थी. वह चतुर मराठा नायक के विरुद्ध सावधानी से आगे बढ़ा.
शिवाजी के चारों ओर शत्रुओं का एक घेरा बनाकर उसने पुरंदर के गढ़ पर घेरा डाल दिया. गढ़ के अन्दर की घिरी हुई सेना ने कुछ काल तक वीरतापूर्ण प्रतिरोध किया. इसमें इसका प्रभु सेनापति माहद का मुनर वाजी देशपांडे सौ मावलियों के साथ लड़ता रहा.
मुगलों ने शिवाजी की राजधानी रायगढ़ भी घेर लिया. अधिक प्रतिरोध करने के मूल्य का विचार कर शिवाजी ने 22 जून, 1665 ई. को जयसिंह के साथ पुरन्दर की संधि कर ली. इसके अनुसार उसने मुगलों को अपने तेईस किले दे दिये तथा सिर्फ बारह अपने लिए रखे. उसने दक्कन में मुगल सेना के साथ काम करने के लिए पाँच हजार घुड़सवार देने का वादा किया. राज्य के घाटे की पूर्ति के लिए उसे बीजापुर राज्य के कुछ जिलों में चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल करने की अनुमति मिल गयी.
शीघ्र ही बीजापुर के विरुद्ध एक युद्ध हुआ, जिसमें उसने शाही दल का साथ दिया. परन्तु बीजापुर के विरुद्ध जयसिंह का आक्रमण असफल रहा. फिर भी उसने शिवाजी को ऊँची आशाएँ दिलायीं तथा हजार उपायों का उपयोग कर उसे आगरे में शाही दरबार जाने को राजी कर लिया. औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की उपाधि दी.
शिवाजी को शाही दरबार ए भेजने का अभिप्राय था, उसे दक्कन के उपद्रवपूर्ण प्रदेश से हटाना. परन्तु यह समझना बहुत कठिन है कि शिवाजी ने उसके प्रस्ताव को क्यों स्वीकार कर लिया. श्री सरदेसाई लिखते हैं कि जिस विचार से शिवाजी शाही दरबार गया वह यह था कि- शिवाजी का उद्देश्य मुग़ल बादशाह और उसके दरबार का पर्यवेक्षण करके यह ज्ञात करना था कि मुग़ल शक्ति के स्रोत क्या हैं, कहाँ उसका संवेदनशील मर्म है और कहाँ एवं किस प्रकार चोट करना या न करना उपयुक्त होगा.
जयसिंह ने शिवाजी से पुरस्कार एवं प्रतिष्ठा की प्रतिज्ञा की, आगरे में उसकी सुरक्षा के उत्तरदायित्व की भड़कदार शपथे खायीं तथा इस प्रकार उसे ऐसा जोखिम वाला कदम उठाने को राजी कराया. मराठा नायक का एक यह ध्येय भी रहा होगा कि बादशाह से मिलकर जंजीरा द्वीप पर, जो उस समय सीदी नामक एक शाही नौकर के अधीन था, अधिकार कर लेने के लिए उसकी स्वीकृति ले ली जाये. ज्योतिषियों से आश्वासन तथा अपने निकटस्थ पदाधिकारियों की सहमति लेकर वह अपने पुत्र शम्भूजी के साथ आगरे के लिए चल पड़ा तथा 9 मई, 1666 ई. को वहाँ पहुँच गया.
परन्तु औरंगजेब ने शिवाजी का स्वागत रुखाई के साथ किया तथा उसे पाँच हजारी सरदार की श्रेणी दी. इससे उसके सम्मान की भावना को इतना अधिक धक्का लगा कि वहाँ हंगामा हो गया और वह मूर्छित हो गया. होश में आने पर उसने बादशाह पर वचन-भंग करने का आरोप लगाया. इस पर उसे नजरबंद कर लिया गया. इस प्रकार शिवाजी की ऊँची आशाएँ चकनाचूर हो गयीं और उलटे उसने अपने को बंदी पाया.
इन कठिन परिस्थितियों में कोई साधारण व्यक्ति निराश हो जाता परन्तु उसे असाधारण बुद्धिमत्ता का वरदान मिला था. इस कारण उसने निकल भागने की एक युक्ति का सहारा लिया. उसने अपनी बनावटी बीमारी से स्वस्थ होने का बहाना किया तथा ब्राह्मणों, भिखारियों और सरदारों के बीच अपनी काल्पनिक स्वस्थता के लिए धर्मदान के रूप में प्रत्येक संध्या को अपने घर से फलों एवं मिठाइयों से भरी टोकरियाँ भेजने लगा.
कुछ दिनों के बाद जब पहरेदारों की सजगता में शिथिलता आ गयी तथा टोकरियों को बिना जाँचे ही जाने देने लगे. तब शिवाजी तथा उसका पुत्र दो खाली टोकरियों में छिपकर बैठ गये और मुगल बादशाह के सभी गुप्तचरों की आँखें बचाकर आगरे से बाहर भाग निकल गए.
शम्भूजी के साथ वह शीघ्रता से मथुरा पहुँचा. वहाँ उसने अपने थके हुए पुत्र को एक मराठा ब्राह्मण के संरक्षण में छोड़ दिया. वह स्वयं एक भिखारी के वेश में इलाहाबाद, बनारस, गया एवं तेलगाना के चक्करदार रास्ते से होता हुआ 30 नवम्बर, 1666 ई. को घर पहुँच गया. इसके बाद तीन वर्षों तक शिवाजी मुगलों के साथ शान्तिपूर्वक रहा. इस समय का उपयोग उसने अपने आन्तरिक शासन का संगठन करने में किया.
औरंगजेब ने उसे राजा की उपाधि और बरार में एक जागीर दी तथा उसके पुत्र शम्भूजी को पाँच हजारी सरदार के पद पर नियुक्त कर लिया. परन्तु 1670 ई. में युद्ध पुनः आरम्भ हो गया. मुगल सूबेदार शाह आलम तथा उसके सहायक दिलेर खाँ के बीच भारी झगड़ा था. इससे शाही दल की स्थिति पहले की अपेक्षा अधिक कमजोर हो गयी. फलत: शिवाजी ने करीब-करीब उन सभी दुर्गों पर पुन: अधिकार प्राप्त कर लिया, जिन्हें उसने 1665 ई. में मुगलों को समर्पित किया था.
अक्टूबर, 1670 ई. में उसने सूरत को दूसरी बार लूटा. इसमें नगद एवं असबाब के रूप में उसे बहुत-सा माल हाथ लगा. तब वह मुगल प्रान्तों पर साहसपूर्ण आक्रमण करने लगा तथा खुले युद्ध में बार-बार मुगल सेनापतियों को परास्त किया. 1672 ई. में उसने सूरत से चौथ की माँग की.
उस समय औरंगजेब का ध्यान सबसे अधिक उत्तर-पश्चिम के कबायली विद्रोहों में लगा था. मुगल सेना के एक भाग को दक्कन से उस प्रदेश में भेज दिया गया. 1672 से लेकर 1678 ई. तक शिवाजी के विरुद्ध मुगल कप्तानों को अनियमित युद्ध में कोई सफलता नहीं मिली. उस समय मराठा वीर अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर था. 16 जून, 1674 ई. को उसने बड़े ठाट-बाट और धूम-धाम से रायगढ़ में विधिवत् अपना राज्याभिषेक कराया तथा छत्रपति की उपाधि धारण की.
मुगलों के उत्तर-पश्चिम में उलझे रहने के कारण शिवाजी उनके दबाव से मुक्त हो ही गया था. इसके अतिरिक्त उसने गोलकुंडा के सुल्तान से मैत्री कर ली. एक वर्ष के अन्दर (1677 ई.) उसने जिंजी, वेलोर तथा पार्श्ववर्ती जिले जीत लिये. इनसे उसकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी. उसे मद्रास, कर्णाटक एवं मैसूर के पठार (प्लेटो) में एक विस्तृत प्रदेश मिल गया. इसकी लम्बाई तथा चौड़ाई क्रमश: साठ एवं चालीस लीग थी. उससे उसे बीस लाख हून का वार्षिक राजस्व प्राप्त होता था. इसमें सौ किले थे.
उसके सफल जीवन का अन्त तिरपन (कुछ के मतानुसार पचास) वर्षों की आयु में 14 अप्रैल, 1680 ई. को उसकी अकाल मृत्यु हो जाने के कारण हो गया. शिवाजी का राज्य उत्तर में रामनगर (सूरत एजेंसी में आधुनिक धरमपुर राज्य) से लेकर दक्षिण में कारवार तक मोटे तौर पर सम्पूर्ण समुद्रतट के किनारे-किनारे फैला हुआ था.
इसमे दमन, साष्टी, बसाई, चोल, गोवा जंजीर तथा बम्बई की पुर्तगीज, अफ्रीकन और अंग्रेजी बस्तियां शामिल नहीं थीं. पूर्व में उसकी सीमा एक टेढ़ी-मेढ़ी पंक्ति में उत्तर के बलगाना से लेकर, नासिक एवं पुन जिले होकर और सम्पूर्ण सतारा को घेरते हुए, दक्षिण के कोल्हापुर तक जाती थीं. उसकी जीतों से उसके राज्य की सीमा के भीतर पश्चिम कर्णाटक आ गया, जो बेलगाँव से लेकर तुगभद्रा नदी के किनारे तक फैला हुआ था तथा आधुनिक कर्णाटक राज्य के बेलारी जिले (पहले यह जिला मद्रास (चेन्नई) में था) के ठीक सामने पड़ता है. इन जीतों से आधुनिक मैसूर राज्य का एक बड़ा भाग भी इसके अन्तर्गत आ गया.
छत्रपति शिवाजी महाराज का संक्षिप्त परिचय
- शिवाजी का जन्म पूना के निकट शिवनेर के किले में 20 अप्रैल, 1627 को हुआ था. शिवाजी शाहजी भोंसले और जीजाबाई के पुत्र थे.
- शिवाजी ने एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना करके ‘हिन्दू धर्मोद्धारक’ और ‘गैर ब्राह्मण प्रतिपालक’ जैसी उपाधि धारण की.
- शिवाजी के संरक्षक और शिक्षक कोंणदेव तथा समर्थ गुरु रामदास थे.
- शिवाजी ने 1656 ई. में रायगढ़ को मराठा राज्य की राजधानी बनाया.
- शिवाजी ने अपने राज्य के विस्तार का आरंभ 1643 ई. में बीजापुर के सिंहगढ़ किले को जीतकर किया. इसके पश्चात 1646 ई. में तोरण के किले पर भी शिवाजी ने अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया.
- शिवाजी की विस्तारवादी नीति से बीजापुर का शासक सशंकित हो गया, उसने शिवाजी की शक्ति को दबाने के लिए सरदार अफजल खां को भेजा. शिवाजी ने 1659 ई. में अफजल खां को पराजित कर उसकी हत्या कर दी.
- शिवाजी की बढती शक्ति से घबराकर औरंगजेब ने शाइस्ता खां को दक्षिण का गवर्नर नियुक्त किया. शिवाजी ने 1663 ई. में शाइस्ता खां को पराजित किया.
- औरंगजेब ने शाइस्ता खां के असफल होने पर शिवाजी की शक्ति का दमन करने के लिए आमेर के मिर्जा राजा जय सिंह को दक्षिण भेजा..
- जयसिंह के नेतृत्व में पुरंदर के किले पर मुगलों की विजय तथा रायगढ़ की घेराबंदी के बाद जून 1665 में मुगलों और शिवाजी के बीच पुरंदर की संधि हुई.
- 1670 ई. में शिवाजी ने मुगलों के विरुद्ध अभियान छेड़कर पुरंदर की संधि द्वारा खोये हुए किले को पुनः जीत लिया. 1670 ई. में ही शिवाजी ने सूरत को लूटा तथा मुगलों से चौथ की मांग की.
- 1674 ई. में शिवाजी ने रायगढ़ के किले में छत्रपति की उपाधि के साथ अपना राज्याभिषेक करवाया.
- अपने राज्याभिषेक के बाद शिवाजी का अंतिम महत्वपूर्ण अभियान 1676 ई. में कर्नाटक अभियान था.
- 12 अप्रैल, 1680 को शिवाजी की मृत्यु हो गई.
छत्रपति शिवाजी का व्यक्तित्व

शिवाजी न केवले एक साहसी सिपाही और एक सफल सैनिक विजेता था, बल्कि अपनी प्रजा का एक ज्ञानी शासक भी था. प्राय: सभी महान् योद्धाओं के समान-नेपोलियन एक उत्कृष्ट उदाहरण है. छत्रपति शिवाजी भी एक महान् शासक था क्योंकि जिन गुणों से एक योग्य सेनापति बनता है, उन्हीं गुणों की आवश्यकता सफल संगठनकर्ता एवं राजनीतिज्ञ के लिए भी होती है.
बनारस के एक ब्राह्मण गंगा भट्ट ने उसे एक सूर्यवंशी क्षत्रिय घोषित किया था. शिवाजी ने स्वयं क्षत्रिय कुलवतमसां (क्षत्रिय परिवार के आभूषण) की उपाधि ली. इसकी दूसरी उपाधि हैंदवधमोंधारक थी. भारत के मुस्लिम शासकों के समान उसकी प्रणाली एकतंत्री थी तथा वह स्वयं इसका सर्वप्रधान था.
शासक एवं व्यक्ति दोनों रूपों में शिवाजी का भारत के इतिहास में एक प्रतिष्ठित स्थान है. जो उसके सम्पर्क में आते थे, उन पर वह जादू का असर डाल सकता था. अपनी असाधारण वीरता एवं कूटनीति के बल से वह एक जागीरदार के पद से उठकर छत्रपति बन बैठा तथा सामर्थ्य शक्तिशाली मुगल साम्राज्य को, जो उस समय अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर था, अप्रतिरोध्य शत्रु हो गया.
उसका सबसे ज्वलंत कार्य था- दक्कन के बहुत-से राज्यों में अणुओं की तरह बिखरी हुई मराठा जाति को एकता के सूत्र में बाँधकर मुगल साम्राज्य, बीजापुर, पुर्तगीज, भारत तथा जंजीरा के अबिसीनियनों के समान चार महान् शक्तियों का विरोध होने पर भी एक प्रबल राष्ट्र बनाना.
वह अपनी मृत्यु के समय एक विस्तृत राज्य छोड़ गया. ग्रांट डफ लिखता है- परन्तु शिवाजी के द्वारा अर्जित प्रदेश अथवा कोष मुगलों के लिए उतने भयानक नहीं थे, जितना उसके द्वारा दिया हुआ दृष्टान्त, उसके द्वारा चलायी हुई प्रथा और आदतें तथा मराठा जाति के अधिकांश में उसके द्वारा भारी गयी भावना.
उसके द्वारा निर्मित मराठा राष्ट्र ने औरंगजेब के राज्यकाल में और उसके पश्चात् मुगल साम्राज्य की अवहेलना की तथा अठारहवीं सदी में भारत में प्रबल शक्ति बना रहा, जिसके परिणामस्वरूप औरंगजेब का एक वंशज महादजी सिंधिया नामक एक मराठा सरदार के हाथों में वस्तुत: कठपुतला बन गया. मराठा शक्ति ने भारत में प्रभुता स्थापित करने के लिए अंग्रेजों से भी प्रतिद्वन्द्विता की और यह लार्ड हेस्टिंग्ज के समय में अतिम रूप से पीस डाली गयी.
वह महान् रचनात्मक प्रतिभा था. वह उन सभी गुणों से सम्पन्न था, जिनकी किसी देश के राष्ट्रीय पुनर्जीवन के लिए आवश्यकता होती है. उसकी प्रणाली उसकी अपनी सृष्टि थी. उसने अपने शासन में कोई विदेशी सहायता नहीं ली, जैसा रंजीत सिंह भी न कर सका. उसकी सेना की कवायद तथा कमान उसके अपने आदमियों के ही अधीन थी, न कि फ्रांसीसियों के.
उसने जो बनाया, वह लम्बे समय तक टिका; यहाँ तक कि एक शताब्दी बाद पेशवाओं के शासन के समृद्धिशाली दिनों में भी उसकी संस्थाएँ प्रशंसा एवं प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से देखी जाती थीं.
वह अनावश्यक निष्ठुरता एवं केवल लूट के लिए ही लूट करने वाला निर्दय विजेता नहीं था. उसकी चढ़ाईयों में स्त्रियों तथा बच्चों के प्रति, जिनमें मुसलमानों की स्त्रियाँ और बच्चे भी सम्मिलित थे, उसके शूरतापूर्ण आचरण की प्रशंसा खाफी खाँ जैसे कटु आलोचक तक ने की है- शिवाजी ने सदैव अपने राज्य के लोगों के सम्मान की रक्षा करने का प्रयत्न किया था.
वह अपने हाथों में आयी हुई मुसलमान स्त्रियों तथा बच्चों के सम्मान की रक्षा सावधानी से करता था. इस सम्बन्ध में उसके आदेश बडे कठोर थे तथा जो कोई भी इनका उल्लंघन करता था उसे दण्ड मिलता था. रौलिंसन ठीक ही कहता है- वह कभी भी जानबूझ कर अथवा उद्देश्यहीन होकर क्रूरता नहीं करता था. स्त्रियों, मस्जिदों एवं लड़ाई न लड़ने वालों का आदर करना, युद्ध के बाद कत्लेआम या सामूहिक हत्या बन्द कर देना, बंदी अफसरों एवं लोगों को सम्मान सहित मुक्त कर जाने देना-ये निश्चय ही साधारण गुण नहीं हैं.
शिवाजी का आदर्श था अपने देश में एक स्वदेशी साम्राज्य को पुन: स्थापित करना तथा उसने एकाग्र चित्त हो कर इसका अनुसरण किया. परन्तु इसे पूर्ण रूप में कार्यान्वित करने का उसे समय नहीं था.
अपने व्यक्गित जीवन में शिवाजी उस समय के प्रचलित दोषों से बचा रह गया. उसके नैतिक गुण अत्यन्त उच्च कोटि के थे. अपने प्रारम्भिक जीवन से ही सच्ची धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण वह राजनैतिक एवं सैनिक कर्त्तव्यों के बीच भी उन उच्च आदशाँ को नहीं भूला, जिनसे उसकी माँ तथा उसके गुरू रामदास ने उसे प्रेरित किया था. वह मराठा राष्ट्र को ऊपर उठाने में धर्म को एक प्रबल शक्ति बनाना चाहता था तथा सदा हिन्दू धर्म एवं विद्या को अपना प्रश्रय प्रदान करता था.
छत्रपति शिवाजी का प्रशासन
छत्रपति शिवाजी का प्रशासन मूलत: दक्षिणी व्यवस्था पर आधारित था. परन्तु इसमें कुछ मुगल तत्त्व भी शामिल थे. इसके शीर्ष पर छत्रपति होता था. शिवाजी ने अपने राज्य को चार प्रान्तों में विभक्त किया था., जो वायसराय के अधीन होते थे. प्रान्तों को परगनों और तालुकों में विभाजित किया गया था. सर्वोच्च न्यायालय को हाजिर मजलिस कहा जाता था. न्याय-प्रशासन-ग्राम स्तर पर पाटिल या पंचायत के द्वारा न्याय कार्य किया जाता था. आपराधिक मामलों को पाटिल देखता था.
मराठा राज्य के अंतर्गत दो प्रकार के क्षेत्र होते थे-
- स्वराज- जो क्षेत्र प्रत्यक्षतः मराठों के नियंत्रण में थे, उन्हें स्वराज क्षेत्र कहा जाता था.
- मुघतई- (मुल्क-ए-कदीम) यह वह क्षेत्र था जिसमें वे चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल करते थे.
स्वराज क्षेत्र पुनः तीन भागों में विभाजित थे-
- पूना से लेकर सल्हेर तक का क्षेत्र- इसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था. यह पेशवा मोरोपंत पिंगले के अधीन था.
- उत्तरी किनारा एक दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र-यह अन्ना जी दत्तो के अधीन था.
- दक्षिण देश के जिले जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ एवं कोयल तक का क्षेत्र सम्मिलित थे. यह दत्तो जी पंत के नियंत्रण में था.
इनके अतिरिक्त हाल में जीत गये जिजी, वेल्लोर और अन्य क्षेत्र अधिग्रहण सेना के अंतर्गत थे. ये साम्राज्य, प्रांत या तरफों में विभाजित था और तरफ परगनों में विभाजित होता था. परगना गाँव या मौजा में विभाजित था.
छत्रपति शिवाजी का मंत्रीमंडल
शासन-कार्य को वास्तविक रूप में चलाने में उसे अष्टप्रधान नामक आठ मंत्रियों की एक परिषद् से सहायता मिलती थी. उसका कार्य प्रधानत: परामर्श देने का था. वे आठ मंत्री थे-
- पेशवा अथवा प्रधान मंत्री, जिसे राज्य की सामान्य भलाई और हितों को देखना पड़ता था;
- अमात्य अथवा वित्तमंत्री, जिसका काम था सभी सार्वजनिक हिसाब-किताब को जाँचना तथा उन पर समर्थन के लिए अपने हस्ताक्षर बनाना;
- मंत्री या वाकयानवीस, जो राजा के कामों तथा उसके दरबार की कार्रवाइयों का प्रतिदिन का विवरण रखता था;
- सचिव अथवा सुरनवीस, जिसके जिम्मे राजा का पत्रव्यवहार था तथा जो महालों एवं परगनों के हिसाब को भी जाँचता था;
- सुमन्त या दबीर;
- सेनापति या सर-ए-नौबत, जो प्रधान सेनापति था;
- पंडित राव एवं दानाध्यक्ष अथवा राजपुरोहित एवं दानविभागाध्यक्ष तथा
- न्यायाधीश, जो प्रधान न्यायाधीश था. न्यायाधीश एवं पडित राव के अतिरिक्त सभी मत्रियों को अपने असैनिक कर्त्तव्यों के साथ सैनिक कमान भी थी.
उनमें से कम-से-कम तीन को प्रादेशिक शासन का कार्य भी था. मंत्रियों के अधीन राज्य के विभिन्न विभाग थे, जिनकी संख्या तीस से कम न थी. शिवाजी ने अपने राज्य की कई प्रदेशों में विभक्त कर दिया था. प्रत्येक प्रदेश एक राजप्रतिनिधि के अधीन था, जो तब तक अपने पद पर रह सकता था जब तक राजा उसे चाहे.
राजा की तरह उनकी सहायता भी आठ प्रमुख अफसर करते थे. कर्णाटक के राजप्रतिनिधि का स्थान प्रादेशिक शासकों के स्थान से कुछ भिन्न था तथा उसे अधिक शक्ति एव स्वतंत्रता थी. इस अष्ठ प्रधान की सहायता के लिए प्रत्येक विभाग में आठ सहायक अधिकारी होते थे जो निम्नलिखित थे-
(1) दीवान, (2) मजुमदार, (3) फडनवीस, (4) सबनवीस, (5) कारखानी, (6) चिटनिस, (7) जमादार एवं (8) पतनीस.
राजस्व व भूमि प्रशासन
राजस्व-संग्रह तथा शासन के लिए शिवाजी का राज्य कई प्रान्तों में बँटा था. प्रत्येक प्रान्त परगनों तथा तफों में विभक्त था. गाँव सबसे छोटी इकाई था. शिवाजी ने भूमि-राजस्व को ठेके पर देने की, उस समय की फैली हुई प्रथा को छोड़ दिया. इसके बदले उसने सरकारी अफसरों द्वारा सीधे रैयतों से कर वसूलने की प्रथा चलायी. इसके अनुसार सरकारी अफसरों का राजनैतिक अधिपति की शक्तियों के काम में लाने अथवा रैयतों को क्लेश देने का अधिकार नहीं था.
भूमि की सावधानी से जाँच कर कर का निर्धारण होता था. इसके लिए माप की एक इकाई निकाली गयी, जो राज्य भर में एक समान व्यवहार में लायी गयी. संभावित उपज का 30 प्रतिशत राज्य लेता था. कुछ समय के बाद, अन्य प्रकार के करों या चुगियों के उठा देने के पश्चात्, शिवाजी ने इसे बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया.
कृषक निश्चित रूप से जानते थे कि उन्हें कितना देना है तथा इसे वे बिना किसी जुल्म के अदा कर सकते थे. उन्हें नकद अथवा अनाज किसी रूप में अदा करने की स्वतंत्रता थी. राज्य रैयतों को बीज तथा मवेशी खरीदने के लिए खजाने से अग्रिम ऋण देकर खेती को प्रोत्साहन देता था. रैयतें इन्हें आसान वार्षिक किश्तों में चुका देती थीं.
यह कहना गलत है, जैसा फ्रायर ने लिखा है, कि राज्य के अधिकारी से अपने राज्य को पुष्ट बनाने के अभिप्राय से शिवाजी राजस्व-संग्रह के मामले में कठोर रहा. आधुनिके अनुसंधानों ने यह पूर्णत: सिद्ध कर दिया है कि शिवाजी का राजस्व शासन मानवतापूर्ण, कार्यक्षम तथा उसकी प्रजा के लिए हितकर था. मराठा इतिहास सुविज्ञ लेखक ग्रांट डफ तक ने कई वर्ष पहले इसे स्वीकार किया था.
शिवाजी ने 1679 ई. में अन्नाजी दत्तो द्वारा व्यापक भूमि सर्वेक्षण कराया. शिवाजी ने माप की पद्धति अपनायी. उसकी भूमि राजस्व व्यवस्था को मलिक अम्बर की व्यवस्था से भी प्रेरणा मिली थी. किन्तु मलिक अम्बर माप की ईकाई का मानकीकरण में असफल रहा था. मलिक अम्बर ने भूमि की माप की ईकाई के रूप में जरीब को अपनाया था.
शिवाजी ने रस्सी के माप के बदले काठी या मानक छड़ी को अपना लिया. 20 काठी का बिसवा (बिघा) होता था और 120 बीघा का एक चावर होता था. शिवाजी ने भू-राजस्व की राशि प्रारंभ में उत्पादन का 33 प्रतिशत निर्धारित की. किन्तु आगे चलकर उसने अन्य सभी प्रकार के करों का अंत कर दिया तो फिर भू-राजस्व की राशि बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दी गयी.
आम मान्यता यह है कि शिवाजी ने जागीरदारी प्रथा एवं जमींदारी प्रथा को पूरी तरह समाप्त क्र किसानों के साथ सीधा संपर्क स्थापित किया. इस तरह उसने उन्हें शोषण से मुक्त कर दिया.
किन्तु डॉ. सतीश चन्द्र का मानना है कि वह इस प्रथा को पूरी तरह नहीं समाप्त कर सका. उसने बस इतना किया की बड़े देश्मुखों की ताकत कम कर दी. गलत प्रथाओं को सुधार और आवश्यक निरिक्षण की व्यवस्था की. शिवाजी का सबसे पहले पक्ष लेने वाले मावले के देशमुख छोटे भूमिपति ही थे. भू-राजस्व नकद और अनाज दोनों में लिया जाता था.
महाराष्ट्र के पहाडी प्रदेशों से अधिक भूमि-कर नहीं आता था. इस कारण शिवाजी बहुधा पड़ोस के प्रदेशों (जो पूर्णत: उसकी मर्जी पर थे), मुगल सूबों एवं बीजापुर राज्य के कुछ जिलों पर भी चौथ तथा सरदेशमुखी कर लगा दिया करता था. चौथ लगाने की प्रथा पश्चिमी भारत में पहले से ही प्रचलित थी, क्योंकि हम पाते हैं कि रामनगर के राजा ने दमन की पुर्तगीज प्रजा से यह वसूल किया था.
चौथ एक प्रकार का मराठा कर था जिसमें 25 प्रतिशत भू-राजस्व देना पड़ता था. चौथ के स्वरूप के विषय में विद्वानों में मतभेद है. रानाडे, जो इसकी तुलना वेलेजली की सहायक-सन्धि से करते हैं, लिखते हैं कि यह बिना किसी नैतिक या कानूनी दायित्व का सैनिक चन्दा-मात्र नहीं था, बल्कि किसी तीसरी शक्ति के आक्रमण के विरुद्ध रक्षा के बदले में यह अदायगी थी.
डाक्टर यदुनाथ सरकार भिन्न मत व्यक्त करते हैं. वे लिखते हैं, चौथ के देने से केवल कोई स्थान मराठा सिपाहियों एवं उनके दीवानी उपकर्मचारियों की दु:प्रद उपस्थिति से बच सकता था; परन्तु इसके बदले शिवाजी पर उस जिले को विदेशी आक्रमण अथवा आन्तरिक अव्यवस्था से बचाने का कोई उत्तरदायित्व न था. मराठे केवल अपना लाभ देखते थे और उनके चले जाने पर उनके शिकार की क्या हालत होगी-इसकी परवाह नहीं करते थे.
चौथ एक लुटेरे को घूस देकर उससे बचने का उपाय मात्र था; यह सभी शत्रुओं के विरुद्ध शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए सहायक-प्रबन्ध नहीं था. इसलिए चौथ के अधीन जो भूमि थी, उसे औचित्य आधारित प्रभाव-क्षेत्र नहीं कहा जा सकता.
श्री सरदेसाई के मतानुसार यह वैसा कर था, जो विरोधी अथवा विजित राज्यों से वसूल किया जाता था. डौमटर सेन लिखते हैं कि चौथ फौजी नेता का लगाया हुआ चन्दा था, जो परिस्थिति की आवश्यकताओं को देखते हुए न्यायोचित था. इस भारी कर का, जो सरकारी राजस्व का चौथाई अंश था, चाहे जो भी सैद्धान्तिक आधार रहा हो, व्यवहार में यह सैनिक चन्दा छोड़ कर और कुछ भी नहीं था.
सरदेशमुखी दस प्रतिशत का एक अतिरिक्त कर था, जिसकी माँग शिवाजी अपने इस दावे के आधार पर करता था कि वह महाराष्ट्र पुश्तैनी सरदेशमुख है. परन्तु यह एक कानूनी कल्पना थी. चौथ तथा सरदेशमुखी वसूल करने से मराठों का प्रभाव उनके अधिकार-क्षेत्र से बाहर के जिलों पर भी पड़ता था. ये कर वसूलने के बाद मराठे इन जिलों को आसानी से अपने राज्य में मिला लेते थे.
राजस्व व भूमि व्यवस्था के खास तथ्य
- शिवाजी की राजस्व व्यवस्था मलिक अंबर की भूमि कर व्यवस्था से प्रेरित थी.
- भूमि की पैमाइश के लिए काठी या गरीब का इस्तेमाल किया जाता था.
- शिवाजी के समय में कुल कृषि उपज का 33 प्रतिशत किया जाता था जो बाद मेँ 40 प्रतिशत हो गया.
- चौथ तथा सरदेशमुखी मराठा कराधान प्रणाली के प्रमुख कर थे.
- चौथ – सामान्य रुप से चौथ मुग़ल क्षेत्रों की भूमि तथा पड़ोसी राज्य की आय का चौथा हिस्सा होता था, जिसे वसूल करने के लिए उस क्षेत्र पर आक्रमण तक करना पडता था.
- सरदेशमुखी – यह कर वंशानुगत रुप से उस प्रदेश का सरदेशमुखी होने के नाते वसूल किया जाता था. शिवाजी के अनुसार लोगोँ के हितों की रक्षा के लिए करने के बदले उनके सरदेशमुखी लेने का अधिकार था.
- यह आय का 10 प्रतिशत था जो कि 1/10 भाग के रूप में होता था.
- जदुनाथ सरकार के अनुसार, यह मराठा आक्रमण से बचने के एवज मेँ वसूल किया जाने वाला कर था.
छत्रपति शिवाजी का सैन्य व्यवस्था
शिवाजी के द्वारा मराठी सेना का एक नये ढंग पर संगठन उसकी सैनिक प्रतिभा का एक ज्वलंत प्रमाण है. पहले मराठों की लड़ने वाली फौज में अधिकतर अश्वारोही होते थे, जिनकी आदत आधे साल तक अपने खेतों में काम करने की थी तथा सूखे मौसम में सक्रिय सेवा करते थे.
किन्तु शिवाजी ने एक नियमित तथा स्थायी सेना रखी. उसके सैनिकों को कर्त्तव्य के लिए सदैव तैयार रहना पड़ता था तथा वर्षा ऋतु में उन्हें वेतन और रहने का स्थान मिलता था. इस सेना में घुड़सवारों की संख्या तीस हजार से बढ़कर चालीस हजार हो गयी तथा पैदल की संख्या बढ़कर दस हजार हो गयी. शिवाजी ने एक बड़ा जहाजी बेड़ा बनाया तथा बम्बई के किनारे की छोटी-छोटी जातियों के हिन्दुओं को नाविकों के रूप में भतीं किया.
यद्यपि शिवाजी के समय में मराठी जल-सेना ने कोई अधिक विलक्षण कार्य नहीं किया, फिर भी बाद में अंग्रियों के अधीन मराठा बेडे ने अंग्रेजों, पुर्तगीजों तथा डचों को बहुत तंग किया. नौसेना में शिवाजी ने कुछ मुसलमानों को भी नियुक्त किया था.
सभासद् बखर के लेखानुसार, वह हाथियों का एक दल रखता था जिनकी संख्या लगभग बारह सौ साठ थी तथा ऊँटों का एक दल रखता था जिनकी संख्या तीन हजार अथवा डेढ़ हजार थी. हम यह निश्चित रूप से नहीं जानते कि उसकी गोलंदाज फौज की क्या संख्या थी. पहले उसने सूरत के फ्रांसीसी निर्देशक से अस्सी तोपें एवं अपनी तोडेदार बन्दूकों के लिए काफी सीसा खरीदा था.
घुड़सवार तथा पैदल दोनों में अफसरों की नियमित श्रेणियाँ बनी हुई थीं. घुड़सवार की दो शाखाएँ थीं- बर्गी और सिलाहदार. बर्गी वे सिपाही थे, जिन्हें ओर से – वेतन एवं साजसमान मिलते थे. सिलाहदार अपना सजसमान आने खर्च से जुटते थे तथा उन सिपाहियों के वेतन एवं साजसमान भी वेही देते थे जिन्हें वे राज्य की सेवा के लिए लाते थे. परन्तु मैदान में काम करने का खर्च चलने के लिए राज्य की उर से एक निश्चित रकम मिलती थी.
अश्वारोहियों के दल में 25 अश्वारोहियों की एक इकाई बनती थी. 25 आदमियों पर एक हवलदार होता था, 5 हवालदारों पर एक जुमलादार तथा दस जुमलादारों पर एक हजारी, जिसे एक हजार हून प्रतिवर्ष मिलता था. हजारियों से ऊँचे पद पंचहजारियों तथा सनोबर्त के थे. सनोबर्त अश्वारोहियों का सर्वोच्च सेनापति था.
पड़ती में सबसे छोटी इकाई 9 पायकों की थी, जो एक नायक के अधीन थे. 5 नायकों पर एक हवलदार, दो या तीन हवलदारों पर एक जुमला दार तथा दास जुमलादारों पर एक हजारी था. अश्वारोहियों में सनोर्बत के अधीन पाँच हजारी थे, किन्तु पदाति में सात. हजारियों पर एक सनोबर्त होता था. यद्यपि अधिकतर शिवाजी स्वंय अपनी सेना का नेतृत्व करता था, तथापि नाम के लिए यह एक सेनापति के अधीन थी.
सेनापति अष्टप्रधान (मत्रिमंडल) का सदस्य होता था. मराठों के इतिहास में किलों का महत्वपूर्ण भाग होने के कारण उनमें कार्यक्षम दशा में सेना रखने में अत्यन्त सावधानी बरती जाती थी. प्रत्येक किला समान दर्जे के तीन अधिकारियों के अधीन था- हवलदार, सबनीस और सनोबत. इन तीनों को एक साथ मिलकर कार्य करना था तथा इस प्रकार एक दूसरे पर प्रतिबन्ध के रूप में रहना था. और भी, दुर्ग के अफसरों में विश्वासघात को रोकने के लिए शिवाजी ने ऐसा प्रबन्ध कर रखा था- कि प्रत्येक सेना में भिन्न-भिन्न जातियों का सम्मिश्रण हो.
यद्यपि शिवाजी नियमित रूप से तथा उदारता-पूर्वक सैनिकों को वेतन और पुरस्कार दिया करता था, परन्तु उनमें कठोर अनुशासन रखना वह भूला नहीं था. उसने उनके आचरण के लिए कुछ नियम बनाये थे, जिससे उनका नैतिक स्तर नीचा न हो. इन नियमों में से अधिक महत्वपूर्ण नियम थे; किसी स्त्री, दासी या नर्तकी को सेना के साथ जाने की आज्ञा नहीं थी. इनमें से किसी को भी रखने का सिर काट लिया जाता था.
गायें जब्ती से बरी थीं, परन्तु बैलों को केवल बोझा ढोने के लिए ले जाया जा सकता था. ब्राह्मणों को सताया नहीं जा सकता था और न उन्हें निस्तार के रूप में बंधक रखा जा सकता था. कोई सिपाही (आक्रमण के समय) बुरा आचरण नहीं कर सकता था.
युद्ध में लूटे हुए माल के सम्बन्ध में शिवाजी ने आज्ञा दी थी कि- जब कभी किसी स्थान को लूटा जाए, तब निर्धन लोगों का माल पुलसिया (ताम्बे का सिक्का तथा ताम्बे एवं पीतल के बर्तन उस आदमी के हो जाएं, जो उन्हें पाएं; किन्तु अन्य वस्तुएं, सोना-चांदी (मुद्रा के रूप में अथवा ऐसे ही), रत्न, मूल्यवान चीजे अथवा जवाहरात पाने वाले के नहीं हो सकते थे. पाने वाला बिना कुछ निकाले उन्हें अफसरों को दे देता था तथा वे शिवाजी की सरकार को दे देते थे.
सैन्य व्यवस्था का संक्षिप्त परिचय
- शिवाजी ने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त किया था – 1. बरगीर, और 2. सिलेहदार.
- बारगीर सेना वह सेना थी, जो छत्रपति द्वार नियुक्त की जाती थी, जिसे राज्य की और से वेतन एवं सुविधाएं प्रदान की जाती थीं.
- सिलेहदार स्वतन्त्र सैनिक थे, जो स्वयं अस्त्र-शस्त्र रखते थे.
- शिवाजी ने नौसेना की भी स्थापना की थी.
- गावली सैनिक शिवाजी के अंगरक्षक थे. गावली एक पहाड़ी लड़ाकू जाति थी.
- शिवाजी की सेना में मुसलमान सैनिक भी थे. लेकिन उनकी सेना में स्त्रियों के लिए स्थान नहीं था.
- शाही घुड़सवार सैनिकों को ‘पागा’ कहा जाता था.
- सर-ए-नौबत सम्पूर्ण घुड़सवार सेना का प्रधान होता था.
छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी (Shivaji’s Successor)
शिवाजी के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र शम्भूजी आया. विषय-सुख का प्रेमी होने पर भी वह वीर था. उसका प्रमुख परामर्शदाता उत्तर भारत का एक ब्राह्मण था, जिसका नाम कवि कलश था. कवि कलश का आचरण निन्दा से परे नहीं था. नये राजा (शम्भूजी) के अधीन मराठा शक्ति दुर्बल हो गयी, परन्तु बिल्कुल मंदगति नहीं हुई.
शम्भूजी ने स्वयं मुगल संकट की प्रकृति को महसूस किया तथा उस प्रबल सेना के साथ साहस एवं दृढ़ता से लड़ा, जिसे औरंगजेब दक्कन में लाया था. अन्त में मुकर्रब खाँ नामक एक साहसी मुगल अफसर ने उस पर अचानक हमला कर रत्नागिरि से बाईस मील दूर संगमेश्वर नामक स्थान पर उसे पकड़ लिया (11 फरवरी, 1689 ई.). उसका मंत्री कवि कलश तथा उसके पचीस प्रमुख अनुगामी भी उसके साथ कैद कर लिये गये.
दोनों प्रमुख कैदियों को बहादुरगढ़ के शाही पड़ाव में लाया गया तथा खुलेआम घुमाया गया. तीन सप्ताह से अधिक तक तरह-तरह की यातनाएँ देने के बाद बदियों को 11 मार्च, 1689 ई. को मार डाला गया. शाही दल ने शीघ्र बहुत-से मराठा दुगों पर अधिकार कर लिया; यहाँ तक मराठा राजधानी रायगढ़ पर भी घेरा डाल लिया.
परन्तु शम्भूजी का छोटा भाई राजाराम भिखारी के वेश में नगर से भाग निकला तथा काफी साहसिक यात्रा के बाद कर्णाटक में जिंजी पहुँचा. इसी बीच राजधानी ने आत्मसमर्पण कर दिया था तथा मुगलों ने शम्भूजी के परिवार को, जिसमें उसका बहुत छोटा पुत्र शाहू भी था, पकड़ लिया था. इस प्रकार ऐसा प्रतीत होने लगा कि मराठा शक्ति पूर्ण रूप से विध्वस्त हो गयी.
परन्तु वह भावना जिससे शिवाजी ने अपने लोगों को प्रेरित किया था, इतनी आसानी से नष्ट नहीं हो सकती थी. मराठों ने शीघ्रतापूर्वक शक्ति संचय किया. उन्होंने मुगलों के साथ राष्ट्रीय प्रतिरोध का युद्ध पुनः आरम्भ कर दिया, जिसने अन्त में मुगलों के साधनों को समाप्त कर डाला.
महाराष्ट्र में रामचंद्र पन्त, शांकर जी मल्हार तथा परशुराम त्रयम्बक-जैसे नेताओं ने मराठों को पुनर्जीवित किया. परशुराम 1701 ई. में प्रतिनिधि बना. पूर्वी कर्णाटक में प्रथम प्रतिनिधि प्रह्लाद निराजी योग्यतापूर्वक काम चला रहा था. अब मराठा कप्तान अपने आप विभिन्न दिशाओं में मारकाट मचाने लगे.
औरंगजेब को वस्तुत: जन-युद्ध का सामना करना पड़ गया. वह इसका अन्त नहीं कर सकता था, क्योंकि कोई ऐसा मराठा सरदार अथवा राजकीय सेना नहीं थी, जिसे वह आक्रमण कर नष्ट करता. सन्तजी घोरपड़े तथा धनाजी जाधव नामक दो योग्य एवं सक्रिय मराठा सेनापतियों ने एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक रौंद डाला तथा मुगलों को बहुत हानि और गड़बड़ी पहुँचायी.
मराठा इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने बादशाह के पड़ाव तक अपने साहसपूर्ण आक्रमण पहुँचा दिये. मुगल दक्कन के बहुत-से अफसरों ने मराठों को चौथ देकर अपनी रक्षा की तथा उनमें से कुछ ने तो बादशाह के लोगों को लूटने में शत्रु का साथ तक दिया.
जैसा डाक्टर यदुनाथ सरकार कहते हैं, मुगल शासन वास्तव में टूट चुका था, केवल देश में अपनी सारी सेना के साथ बादशाह की उपस्थिति ने इसे एक साथ जोड़कर रखा था किन्तु अब यह भ्रांतिजनक भूत भर था. सन्ता एवं धना इस युग के वीर थे, किसी बात का सूत्रपात करना बिल्कुल उन्हीं के हाथों में था तथा वे शाही दल द्वारा बनाई गयी प्रत्येक योजना एवं गणना को उलट देते थे.
जिंजी पर, जिसने लगभग आठ वर्षों तक घेरे का सामना किया था, जुल्फिकार खाँ ने जनवरी, 1698 ई. में अधिकार कर लिया. परन्तु राजाराम सतारा भाग चुका था. वहाँ उसने एक प्रबल सेना इकट्ठी कर उत्तरी दक्कन में पुन: संघर्ष आरम्भ कर दिया, जहाँ औरंगजेब ने अपनी सेना का जमाव कर रखा था.
शाही दल ने दिसम्बर, 1699 ई. में सतारा के दुर्ग पर घेरा डाल दिया. परन्तु रक्षक सेना ने वीरतापवूक इसकी प्रतिरक्षा की. अन्त में राजाराम की मृत्यु (12 मार्च, 1700 ई.) के पश्चात् उसके मंत्री परशुराम ने कुछ शर्तों पर इसे समर्पित कर दिया. अब बादशाह स्वयं मराठों के एक के बाद दूसरे किले पर अधिकार करने लगा. परन्तु मराठे जो आज खोते थे उसे कल पुनः प्राप्त कर लेते थे, इस प्रकार युद्ध अन्तहीन रूप में जारी रहा.
राजाराम की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा ताराबाई ने, जो अद्वितीय उत्साह वाली महिला थी, इस संकटपूर्ण समय में अपने अल्पवयस्क पुत्र शिवाजी तृतीय की संरक्षिका के रूप में मराठा राष्ट्र की बागडोर सँभाली. खाफी खाँ जैसे कटु आलोचक तक ने स्वीकार किया है कि वह एक चतुर तथा बुद्धिमत्ती स्त्री थी तथा दीवानी एवं फौजी मामलों की अपनी जानकारी के लिए अपने पति के जीवन काल में ही ख्याति प्राप्त कर चुकी थी.
राज्य के शासन को संगठित कर तथा गद्दी पर उत्तराधिकार के लिए प्रतिद्वन्द्वी दलों के झगड़ों को दबाकर उसने, जैसा खाफी खाँ बतलाता है, शाही राज्य के रौदने के लिए सशक्त उपाय किये तथा सिरोंज तक दक्कन के छ: सूबों, मंदसोर एवं मालवों के सूबों के लूटने के लिए सेनाएँ भेजीं. मराठे पहले ही 1699 ई. में मालवा पर आक्रमण कर चुके थे. 1703 ई. में उनका एक दल बरार, (एक सदी तक एक मुगल सूबा) में घुस पड़ा. 1706 ई. में उन्होंने गुजरात पर आक्रमण किया तथा बड़ौदा को लूटा.
अप्रैल अथवा मई, 1706 ई. में एक विशाल मराठा सेना अहमदनगर में बादशाह की छावनी पर जा धमकी. एक लंबे तथा कठिन संघर्ष के बाद उसे वहाँ से पीछे हटा दिया गया. आक्रमणों के कारण मराठों के साधन बहुत बढ़ गये. इस प्रकार अब तक वे व्यवहारिक रूप में दक्कन की तथा मध्य भारत के कुछ भागों की भी परिस्थिति के स्वामी बन चुके थे.
जैसा कि भीमसेन नामक एक प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा, मराठे सम्पूर्ण राज्य पर पूर्णतया छा गये तथा उन्होंने सड़कों को बन्द कर दिया. लूटपाट के द्वारा वे दरिद्रता से बच गये तथा बहुत धनी बन गये. उनकी सैनिक कार्यप्रणाली में भी परिवर्तन हुआ, जिसका तात्कालिक परिणाम उनके लिए अच्छा हुआ. मराठा राष्ट्रीयता विजयिनी शक्ति के रूप में उसके बाद भी जीवित रही, जिसका प्रतिरोध करने में मुग़ल राजवंश के दुर्बल उत्तराधिकारी असफल रहे.
शंभाजी (1680 ई. से 16 89 ई.)
- छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य उत्तराधिकार के संघर्ष मेँ उलझ गया. शिवाजी की पत्नियों से उत्पन्न दो पुत्र संभाजी और राजाराम के बीच उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छिड़ गया.
- राजाराम को पदच्युत करके शंभाजी 20 जुलाई 1680 को मराठा साम्राज्य की गद्दी पर आसीन हुआ.
- शंभाजी ने एक उत्तर भारतीय ब्राहमण कवि कलश को प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी नियुक्त किया.
- शंभाजी ने 1681 ई. मेँ औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर द्वितीय को शरण दी.
- मार्च 1689 मेँ औरंगजेब ने शंभाजी की हत्या कर मराठा राजधानी रायगढ़ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया. औरंगजेब ने इसी समय शंभाजी के पुत्र शाहू को रायगढ़ के किले मेँ बंदी बना लिया.
राजाराम (1689 ई. से 1700 ई.)
- शंभाजी की मृत्यु के बाद राजाराम को मराठा साम्राज्य का छत्रपति घोषित किया गया.
- राजाराम मुग़लोँ के आक्रमण के भय से अपनी राजधानी रायगढ़ से जिंजी ले गया. 1698 तक जिंजी मुगलोँ के विरुद्ध मराठा गतिविधियो का केंद्र रहा. 1699 मेँ सतारा, मराठों की राजधानी बना.
- राजाराम स्वयं को शंभाजी के पुत्र शाहू का प्रतिनिधि मानकर गद्दी पर कभी नहीँ बैठा.
- राजा राम के नेतृत्व मेँ मराठों ने मुगलोँ के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए अभियान शुरु किया जो 1700 ई. तक चलता रहा.
- राजा राम की मृत्यु के बाद 1700 ई. में उसकी विधवा पत्नी तारा बाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया और मुगलो के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा.
शाहू (1707 ई. से 1748 ई.)
- औरंगजेब की 1707 ई. मेँ मृत्यु के बाद उसके पुत्र बहादुर शाह – प्रथम ने शाहू को कैद से मुक्त कर दिया.
- अक्टूबर 1707 मेँ शाहू ताराबाई के मध्य खेड़ा का युद्ध हुआ, शाहू बालाजी विश्वनाथ की मदद से विजयी हुआ.
- शाहू ने 1713 ई. मेँ बालाजी को पेशवा के पद पर नियुक्त किया. बालाजी विश्वनाथ की नियुक्ति के साथ ही पेशवा पद शक्तिशाली हो गया. छत्रपति नाममात्र का शासक रह गया.
पेशवाओं के अधीन मराठा साम्राज्य
बालाजी विश्वनाथ (1713 ई. से 1720 ई.)
- बालाजी विश्वनाथ एक ब्राहमण था. बालाजी विश्वनाथ ने अपना राजनीतिक जीवन एक छोटे से राजस्व अधिकारी के रुप मेँ शुरु किया था.
- बालाजी विश्वनाथ की सबसे बड़ी उपलब्धि मुगलों तथा मराठोँ के मध्य एक स्थाई समझोते की व्यवस्था की थी, जिसमेँ दोनोँ पक्षो के अधिकार तथा प्रभाव क्षेत्र की विधिवत व्यवस्था की गई थी.
- बालाजी विश्वनाथ को सम्राट निर्माता भी कहा जाता है. उसने मुगलोँ की राजधानी मेँ अपनी एक बड़ी सेना भेज कर सैय्यद बंधुओं की सहायता की थी, जो मुगल इतिहास मेँ ‘किंगमेकर’ के रुप मेँ प्रसिद्ध हैं.
- इतिहासकार टोपल ने मुग़ल सूबेदार हुसैन अली तथा बालाजी विश्वनाथ के बीच 1719 मेँ हुई संधि को मराठा साम्राज्य के मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी है.
बाजीराव प्रथम (1720 ई. – 1740 ई.)
- बालाजी विश्वनाथ की 1720 मेँ मृत्यु के बाद उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को शाहू ने पेशवा नियुक्त किया.
- बाजीराव प्रथम के पेशवा काल मेँ मराठा साम्राज्य की शक्ति चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई.
- 1724 मेँ शूकर खेड़ा के युद्ध मेँ मराठोँ की मदद से निजाम-उल-मुल्क ने दक्कन मेँ मुगल सूबेदार मुबारिज खान को परास्त कर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की.
- निजाम-उल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद मराठोँ के विरुद्ध कार्रवाई शुरु कर दी. बाजीराव प्रथम ने 1728 मेँ पालखेड़ा के युद्ध में निजाम-उल-मुल्क को पराजित किया.
- 1728 में ही निजाम-उल-मुल्क बाजीराव प्रथम के बीच एक मुंशी शिवगांव की संधि हुई जिसमे निजाम ने मराठोँ को चौथ एवं सरदेशमुखी देना स्वीकार किया.
- बाजीराव प्रथम ने हिंदू पादशाही के आदर्शों के प्रसार के लिए प्रयत्न किया.
- बाजीराव प्रथम ने शिवाजी की गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया.
- 1739 ई. में बाजीराव प्रथम ने पुर्तगालियोँ से सालसीट तथा बेसीन छीन लिया.
- बालाजी बाजीराव प्रथम ने ग्वालियर के सिंधिया, गायकवाड़, इंदौर के होलकर और नागपुर के भोंसले शासकों को सम्मिलित कर एक मराठा मंडल की स्थापना की.
बालाजी बाजीराव (1740 ई. – 1761 ई.)
- बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद बालाजी बाजीराव नया पेशवा बना. नाना साहेब के नाम से भी जाना जाता है.
- 1750 मेँ रघुजी भोंसले की मध्यस्थता से राजाराम द्वितीय के मध्य संगौला की संधि हुई. इस संधि के द्वारा पेशवा मराठा साम्राज्य का वास्तविक प्रधान बन गया. छत्रपति नाममात्र का राजा रह गया.
- बालाजी बाजीराव पेशवा काल मेँ पूना मराठा राजनीति का केंद्र हो गया.
- बालाजी बाजीराव के शासनकाल मेँ 1761 ई. पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ. यह युद्ध मराठों अहमद शाह अब्दाली के बीच हुआ.
- पानीपत का तृतीय युद्ध दो कारणोँ से हुआ – प्रथम नादिरशाह की भांति अहमद शाह अब्दाली भी भारत को लूटना चाहता था. दूसरा, मराठे हिंदू पद पादशाही की भावना से प्रेरित होकर दिल्ली पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते थे.
- पानीपत के युद्ध मेँ बालाजी बाजीराव ने अपने नाबालिग बेटे विश्वास राव के नेतृत्व मेँ एक शक्तिशाली सेना भेजी किन्तु वास्तविक सेनापति विश्वास राव का चचेरा भाई सदाशिवराव भाऊ था.
- इस युद्ध में मराठोँ की पराजय हुई और विश्वास राव और सदाशिवराव सहित 28 हजार सैनिक मारे गए.
माधव राव (1761 ई. – 1772 ई.)
- पानीपत के तीसरे युद्ध मेँ मराठोँ की पराजय के बाद माधवराव पेशवा बनाया गया.
- माधवराव की सबसे बड़ी सफलता मालवा और बुंदेलखंड की विजय थी.
- माधव ने 1763 मेँ उद्गीर के युद्ध मेँ हैदराबाद के निजाम को पराजित किया. माधवराव और निजाम के बीच राक्षस भवन की संधि हुई.
- 1771 ई. मेँ मैसूर के हैदर अली को पराजित कर उसे नजराना देने के लिए बाध्य किया.
- माधवराव ने रुहेलों, राजपूतों और जाटों को अधीन लाकर उत्तर भारत पर मराठोँ का वर्चस्व स्थापित किया.
- 1771 मेँ माधवराव के शासनकाल मेँ मराठों निर्वासित मुग़ल बादशाह शाहआलम को दिल्ली की गद्दी पर बैठाकर पेंशन भोगी बना दिया.
- नवंबर 1772 मेँ माधवराव की छय रोग से मृत्यु हो गई.
नारायण राव (1772 ई. – 1774 ई.)
- माधवराव की अपनी कोई संतान नहीँ थी. अतः माधवराव की मृत्यु के उपरांत उसके छोटे भाई नारायणराव पेशवा बना.
- नारायणराव का अपने चाचा राघोबा से गद्दी को लेकर लंबे समय तक संघर्ष चला जिसमें अंततः राघोबा ने 1774 मेँ नारायणराव की हत्या कर दी.
माधव नारायण (1774 ई. – 1796 ई.)
- 1774 ई. मेँ पेशवा नारायणराव की हत्या के बाद उसके पुत्र माधवराव नारायण को पेशवा की गद्दी पर बैठाया गया.
- इसके समय मेँ नाना फड़नवीस के नेतृत्व मेँ एक काउंसिल ऑफ रीजेंसी का गठन किया गया था, जिसके हाथों मेँ वास्तविक प्रशासन था.
- इसके काल मेँ प्रथम आंग्ल–मराठा युद्ध हुआ.
- 17 मई 1782 को सालबाई की संधि द्वारा प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध समाप्त हो गया. यह संधि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के बीच हुई थी.
- टीपू सुल्तान को 1792 मेँ तथा हैदराबाद के निजाम को 1795 मेँ परास्त करने के बाद मराठा शक्ति एक बार फिर पुनः स्थापित हो गई.
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बाजीराव द्वितीय (1796 ई. से- 1818 ई.)
- माधवराव नारायण की मृत्यु के बाद राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना.
- इसकी अकुशल नीतियोँ के कारण मराठा संघ मेँ आपसी मतभेद उत्पन्न हो गया.
- 1802 ई. बाजीराव द्वितीय के बेसीन की संधि के द्वारा अंग्रेजो की सहायक संधि स्वीकार कर लेने के बाद मराठोँ का आपसी विवाद पटल पर आ गया. सिंधिया तथा भोंसले ने अंग्रेजो के साथ की गई इस संधि का कड़ा विरोध किया.
- द्वितीय और तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध बाजीराव द्वितीय के शासन काल मेँ हुआ.
- द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध मेँ सिंधिया और भोंसले को पराजित कर अंग्रेजो ने सिंधिया और भोंसले को अलग-अलग संधि करने के लिए विवश किया.
- 1803 मेँ अंग्रेजो और भोंसले के साथ देवगांव की संधि कर कटक और वर्धा नदी के पश्चिम का क्षेत्र ले लिया.
- अंग्रेजो ने 1803 में ही सिन्धयों से सुरजी-अर्जनगांव की संधि कर उसे गंगा तथा यमुना के क्षेत्र को ईस्ट इंडिया कंपनी को देने के लिए बाध्य किया.
- 1804 में अंग्रेजों तथा होलकर के बीच तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ, जिसमें पराजित होकर होलकर ने अंग्रेजो के साथ राजपुर पर घाट की संधि की.
- मराठा शक्ति का पतन 1817-1818 ई. मेँ हो गया जब स्वयं पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अपने को पूरी तरह अंग्रेजो के अधीन कर लिया.
- बाजीराव द्वितीय द्वारा पूना प्रदेश को अंग्रेजी राज्य मेँ विलय कर पेशवा पद को समाप्त कर दिया गया.
स्मरणीय तथ्य
- आरंभ मेँ पेशवा का पद अष्टप्रधान की सूची मेँ दूसरे स्थान पर था, किंतु पेशवा बालाजी बाजीराव के समय यह पद वंशानुगत हो गया.
- पूना मेँ पेशवा का सचिवालय ‘हुजूर दफ्तर’ कहलाता था. यह पेशवा कालीन मराठा प्रशासन का केंद्र था.
- 1750 मेँ संगोला की संधि द्वारा मराठोँ का वास्तविक प्रधान पेशवा बन गया.
- जदुनाथ सरकार के अनुसार, “मैं शिवाजी को हिंदू प्रजाति का अंतिम रचनात्मक प्रतिभा संपन्न व्यक्ति और राष्ट्र निर्माता मानता हूँ.“
- शिवाजी का राजस्व प्रशासन अहमदनगर के मलिक अंबर द्वारा अपनाई गई रैयतवाड़ी प्रथा पर आधारित था.
- बालाजी प्रथम द्वारा हिंदू पद पादशाही का आदर्श शुरु किया गया था, जिसे बालाजी बाजीराव ने समाप्त कर दिया.
- इतिहासकार सरदेसाई के अनुसार बालाजी बाजीराव की प्रशासनिक योग्यता की सबसे बडी विशेषता अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करने, राज्य की आय के साधनों को बढ़ाने तथा उन संसाधनो को राज्य के हित मेँ अधिकाधिक प्रयोग करने के की थी.
- पेशवाओं के शासन काल मेँ प्रशासन मेँ भ्रष्टाचार रोकने का कार्य देशमुख तथा देशपांडे नामक अधिकारी करते थे. ये राजस्व अधिकारी होते थे.
- महल का प्रधान हवलदार होता था, जिसकी सहायता मजूमदार और फाड़नवीस करते थे.
- पटेल और कुलकर्णी ग्राम प्रशासन के अधिकारी थे.
- पेशवाओं ने विधवा के पुनर्विवाह पर ‘पतदाम’ नामक कर लगाया था.
- काम विसदर नामक अधिकारी ‘चौथ’ वसूलते थे, जबकि ‘सरदेशमुखी’ वसूलने का कार्य गुमाश्ता नामक अधिकारी करते थे.