माओवाद क्या हैं? जानिए इसका इतिहास, सिद्धांत और प्रभाव

माओवाद साम्यवाद का वह रूप है जिसे चीन के नेता माओ त्से तुंग ने विकसित किया. इसकी मूल अवधारणा यह है कि राज्य की सत्ता को केवल सशस्त्र विद्रोह, जनसमर्थन के संगठन और रणनीतिक गठबंधनों के सहारे ही हासिल किया जा सकता है. माओ ने इस प्रक्रिया को “दीर्घकालिक जनयुद्ध” (Protracted People’s War) कहा, जिसमें सत्ता परिवर्तन के लिए सशस्त्र संघर्ष और सैन्य रणनीति को केंद्रीय महत्व दिया गया.

माओवादी विचारधारा का आधार यह विश्वास है कि राजनीतिक बदलाव हिंसक संघर्ष के बिना संभव नहीं है. इसीलिए उनके सिद्धांत में “हथियार उठाना अनिवार्य” माना जाता है. हिंसा को न केवल वैध ठहराया जाता है, बल्कि उसे महिमामंडित भी किया जाता है. माओवादी संगठन अपने प्रभाव क्षेत्र में आतंक फैलाने हेतु पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (PLGA) के सदस्यों को विशेष रूप से प्रशिक्षित करते हैं, ताकि वे हिंसा के सबसे कठोर रूपों को लागू कर सकें.

हालाँकि, माओवादी आंदोलन अपने प्रचार में यह दावा करता है कि वह मौजूदा व्यवस्था की कमजोरियों और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने के लिए संघर्षरत है. किंतु वास्तविकता में यह प्रचार लोगों के मन में यह धारणा बैठाने का साधन भर है कि समस्याओं के समाधान के लिए हिंसक विद्रोह ही एकमात्र रास्ता है.

माओवाद का इतिहास (History of Maoism)

माओवाद की जड़ें 20वीं सदी की शुरुआत में चीन की परिस्थितियों से जुड़ी हैं. उस समय चीन आंतरिक अशांति, सामंती शोषण, साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और आर्थिक पिछड़ेपन से जूझ रहा था. 1911 की शिन्हाई क्रांति ने चीन की सम्राट-शाही का अंत किया, लेकिन स्थिर लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित न हो सकी. इसी पृष्ठभूमि में माओ त्से तुंग (1893–1976) ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारों को चीन की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप ढालने का प्रयास किया.

माओ 1921 में गठित चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से थे. उनका मानना था कि चीन में समाजवादी क्रांति मजदूर वर्ग की बजाय किसानों के नेतृत्व में संभव है, क्योंकि चीन मुख्यतः कृषि प्रधान देश था. इस दृष्टिकोण ने पारंपरिक मार्क्सवादी सोच से अलग एक नई विचारधारा को जन्म दिया, जिसे बाद में “माओवाद” कहा गया.

माओ ने क्रांति के लिए गुरिल्ला युद्ध और ग्रामीण इलाकों से सत्ता पर कब्ज़ा करने की रणनीति विकसित की. उन्होंने तर्क दिया कि सत्ता हासिल करने के लिए पहले गाँवों को नियंत्रित करना आवश्यक है, फिर धीरे-धीरे शहरों को घेरा जा सकता है. इसी रणनीति को उन्होंने “दीर्घकालिक जनयुद्ध” (Protracted People’s War) कहा.

1934–35 का लॉन्ग मार्च (Long March) माओवादी आंदोलन का प्रतीकात्मक मोड़ बना. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान माओ के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने जापानी आक्रमण के खिलाफ संघर्ष किया और ग्रामीण इलाकों में मजबूत आधार बनाया. 1949 में चीनी जनवादी गणराज्य (People’s Republic of China) की स्थापना के साथ माओ के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने सत्ता पर कब्ज़ा किया.

माओ की विचारधारा केवल चीन तक सीमित नहीं रही, बल्कि एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई हिस्सों में फैली. 1960–70 के दशक में वियतनाम, कंबोडिया, नेपाल, फिलीपींस और भारत में कई क्रांतिकारी समूहों ने माओवाद को अपने संघर्ष का आधार बनाया. लैटिन अमेरिका में पेरू के “शाइनिंग पाथ” (Shining Path) आंदोलन ने इसे अपनाया.

माओवाद के प्रमुख सिद्धांत (Main Theories of Maoism)

माओवाद चीनी साम्यवाद का जनक कहलाता है. किन्तु, माओवाद के मूल सिद्धांतों पर मार्क्सवाद, लेनिवाद तथा स्टालिनवाद का प्रभाव हैं. 

मार्क्सवाद के प्रभाव से चीनी साम्यवाद वर्ग-संघर्ष और सर्वहार पूँजीवाद में विश्वास करता हैं. वहीं, लेनिनवाद के प्रभाव के कारण चीनी साम्यवाद साम्राज्यवाद को पूँजीवाद की अन्तिम अवस्था मानता है. चीनी साम्यवाद में साम्राज्यवाद का विरोध तथा सर्वहारा वर्ग की क्रांति का महत्व लेनिनवाद की ही देन मानी गई हैं. 

स्टालिनवाद ने भी चीनी साम्यवाद को प्रभावित किया है. चीन में सर्वाधिकारवादी राज्य का संगठन, योजनाबद्ध आर्थिक विकास आदि बातें स्टालिनवाद की ही देन हैं. माओ-त्से-तुंग एक कृषक परिवार में उत्पन्न हुए थे. उन्होंने चीन में अपनी शक्ति बढ़ायी और नये ढंग से मार्क्सवाद को एशियावादी देशों में फैलाया.

माओवाद के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं– 

1. शक्ति सिद्धांत 

माओ को जो भी सफलता मिली, वह उसके सैन्य बल के कारण मिली. इसलिए माओ का दृढ़ विश्वास हो गया था कि विश्व की कोई भी ऐसी वस्तु नहीं, जिसकी प्राप्ति शक्ति के माध्‍यम से न हो सके. माओ कहा करते थे कि शक्ति बन्दूक की नली से निकलती है तथा उसके माध्‍यम से संसार की प्रत्येक वस्तु प्राप्त हो सकती है. इन बातों से सिद्ध होता है कि माओ शक्ति का पुजारी था. वह इस विचारधारा से सहमत था कि शक्ति ही व्यक्ति को एक उच्च कोटि का नेता बना सकती है. 

2. मार्क्सवाद का विरोधी सिद्धांत 

माओ मार्क्स के सिद्धांतों से प्रभावित जरूर थे परन्तु वह मार्क्स की इतिहास की आर्थिक व्याख्या से सहमत नहीं थे. मार्क्स इस बात में विश्वास करता था कि आर्थिक परिस्थितियाँ ही इतिहास का निर्माण करती है तथा सभी सामाजिक संस्थाओं का आधार आर्थिक परिस्थितियाँ ही हैं. इसके विपरीत माओ का विश्वास था कि आर्थिक परिस्थितियाँ ही सब कुछ नहीं है. वह शक्ति के अन्य स्त्रोतों को सामाजिक संस्थाओं और इतिहास के निर्माण के महत्वपूर्ण कारक मानता था. इस तरह माओवाद मार्क्सवाद की इस विचारधारा से सहमत नहीं है कि आर्थिक परिस्थितियाँ ही मनुष्य के विचारों व उसकी संस्थाओं का निर्माण करती हैं. 

3. तटस्थता विरोधी सिद्धांत 

माओवाद में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि अखिल विश्व दो वर्गों में विभाजित है. एक वर्ग में साम्राज्यवादी देश तथा दूसरे वर्ग में साम्राज्य विरोधी देश सम्मिलित हैं. साम्राज्यवादी देशों में अमेरिका और अन्य प्रतिक्रियावादी राष्ट्र सम्मिलित किये जा सकते है, जबकि दूसरे साम्राज्यवादी विरोधी देशों में लोकतांत्रवादी देश रूस तथा चीन आदि को सम्मिलित किया जा सकता है.

इन दोनों में संघर्ष की स्थिति बराबर बनी रहती है. माओवाद के अनुसार विश्व की राजनीति के मंच पर कोई भी देश तटस्थ नहीं रह सकता. उसे किसी न किसी वर्ग की सदस्यता अनिवार्य रूप से ग्रहण करनी होगी अन्यथा उसका अस्तित्व खत्म हो जायेगा. 

4. युद्धवादी सिद्धांत 

माओ शान्ति को विश्व की प्रगति का विरोधी मानता था. उसका मत था कि शांति के समय विश्व के राष्ट्रों को अपने शक्ति प्रदर्शन का कोई अवसर नहीं मिलता. इसके अलावा शांतिकाल में किसी भी प्रकार के आविष्कारों को भी जन्म नहीं मिलता. सभी नये तरह की तकनीकियों का जन्म युद्ध की ही देन है.

युद्ध में राष्ट्र को अपनी शक्ति का पूर्ण प्रदर्शन करने का अवसर मिलता है. युद्ध ही एकमात्र वह कसौटी है जो यह बता सकती है कि कौन राष्ट्र कितना शक्तिशाली हैं? माओवाद युद्धप्रिय सिद्धांत है और वह युद्ध को ही सभ्यता के विकास का एकमात्र साधन मानता हैं.

5. मिश्रित अर्थव्यवस्था का सिद्धांत 

माओवाद में एक नवीन लोकतंत्र के सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया गया है. माओ का विचार था कि साम्यवाद की स्थापना से पूर्व एक ऐसी व्यवस्था स्थापित की जाएगी जिसमें पूँजीवाद और समाजवाद दोनों का ही मिश्रण पाया जाएगा. यह व्यवस्था एक तरह के नवीन लोकतंत्र के नाम से पुकारी जाएगी. इस व्यवस्था में भी साम्यवादी कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा.

धीरे-धीरे लोकतन्त्रवादी तत्व मिलकर उस पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त कर देंगे तथा साम्यवादी दल की सरकार की स्थापना की जाएगी. उस सरकार में सरकारी तथा निजी उद्योगवादी एक ऐसी व्यवस्था स्थापित होगी, जिसे मिश्रित अर्थव्यवस्था की संज्ञा दी जाएगी. इस व्यवस्था में सरकारी और निजी उद्यमों को विशेष महत्व दिया जाएगा. 

6. वर्गीय विभाजन का सिद्धांत 

माओ सम्पूर्ण समाज को व्यावसायिक आधार पर वर्गीकृत करता है. उसका कहना है कि समाज में श्रमिक, कृषक, दुकानदार छोटे पूँजीपति तथा बड़े पूँजीपति आदि वर्ग पाए जाते हैं. ये सभी वर्ग अपना-अपना कार्य साम्यवादी दल की देख-रेख में करते है. इन वर्गों का प्रमुख कार्य साम्यवादी दल की योजनाओं को सफल बनाना है. इस तरह माओवाद व्यावसायिक आधार पर समाज का वर्गीकरण करके साम्यवाद की योजनाओं को सफल बनाने में विश्वास रखता हैं. 

7. कृषक क्रांति का सिद्धांत 

माओ का जन्म एक कृषक के घर में हुआ था. माओ को कृषकों मे फैले हुए अन्धविश्वास का पूर्ण ज्ञान था. वह समझता था कि चीन का विशाल देश ग्रामीण कृषक-समुदायों का देश है. अगर चीन में साम्यवादी क्रांति को सफल बनाना है, तो चीन के ग्रामीण कृषक-समुदायों में क्रांति की भावना का प्रचार तथा प्रसार करना होगा.

इसी उद्देश्य से माओ ने कृषक क्रांति के सिद्धांत को अपनाया और ग्रामीण समुदायों में क्रांति के केन्द्र स्थापित किए. माओ-त्से-तुंग की इस योजना ने साम्यवाद लहर चीन के कोने-कोने में फैला दी.

8. लोकतांत्रीय अधिनायकवाद का सिद्धांत 

माओवाद श्रमिकों के हितों का रक्षक रहा है. माओ सिद्धांत के अनुसार विश्व के सभी राष्ट्रों में वर्गीय संघर्ष हमेशा ही किसी न किसी रूप में अनिवार्य रूप से पाया जाता है. माओ का कहना है कि इस वर्गीय संघर्ष में एक वर्ग दूसरे वर्ग पर अपना आधिपत्य जमाने का प्रयास करता है सबल वर्ग निर्बल वर्ग के हितों का हनन करता है.

ऐसी दशा में माओ-त्से-तुंग का कहना है कि राज्य को श्रमिक वर्ग के हितों की रक्षा करनी चाहिए तथा उन लोगों का कठोरता से दमन करना चाहिए जो निर्बल वर्ग के लोगों तथा क्रान्ति के विरोधियों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करते है. इस तरह का कार्य करने वाली सरकार को माओ लोकतन्त्रात्मक अधिनायकवाद के नाम से पुकारता हैं. 

9. लोकन्त्रीय केन्द्रयतावाद का सिद्धांत 

माओ ने अपने साम्यवादी विचारों में लोकतन्त्र और केन्द्रीयतावाद दोनों ही सिद्धांत का प्रतिपादन किया हैं. उसमें दोसरे सिद्धांत की व्याख्या करने के लिए माओ ने लोकतंत्रवाद तथा केन्द्रयतावाद दोनों अवधारणाओं को स्पष्ट किया हैं. 

(अ) लोकतंत्रवाद 

लोकतन्त्रवाद से माओ का अभिप्राय एक ऐसी व्यवस्था से है, जिसमें शासन का कार्य चलाने के लिए ग्रामीण स्तरों पर छोटी-छोटी सोवियतें स्थापित कर दी जायें, जो प्रशासकीय कार्यों में पूरा-पूरा सहयोग दें तथा अपनी समस्याओं का हल स्वयं ही खोज सकें. इस प्रकार की व्यवस्था लोकतंत्र के अनुकूल होगी.

(ब) केन्द्रीयतावाद

माओ ने यह व्यवस्था की कि निम्न स्तर वाली सोवियत अपने से उच्च स्तर की सोवियत से निर्देश ग्रहण करेगी और इस तरह सर्वोच्च स्तर पर निर्मित सोवियत अन्य सभी सोवियतों को निर्देश देगी. उस निर्देश का पालन करना सभी सोवियतों के लिए अनिवार्य होगा. इस प्रकार माओ ने सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत संपूर्ण शक्तियों को सर्वोच्च स्तर पर निर्मित सोवियत में केन्द्रत कर दिया हैं.

ऊपर दिए गए वर्णन से विदित होता है कि माओवाद लोकतंत्र सिद्धांत का पालन करते हुए भी शक्ति के केन्द्रीयकरण में विश्वास रखता है. इसके इसी सिद्धांत को विद्वानों ने लोकतन्त्रीय केन्द्रीयतावाद के नाम से पुकारा हैं. 

10. संयुक्त अधिनायकतंत्र का सिद्धांत 

माओ-त्से-तुंग चीनी साम्यवाद को दृढ़ बनाने का पक्षपाती था, पर वह भली-भाँति जानता था कि चीन में औद्योगिक विकास का अभाव है तथा जब तक चीन औद्योगिक क्षेत्र में अधिक विकसित नहीं होता, तब तक चीनी साम्यवाद विदेशी खतरों से मुक्त नहीं हैं. अतः माओ ने यह विचार किया था कि विदेशी श्रमिकों की सहायता लेकर भी चीन में साम्यवादी विचारधारा को दृढ़ किया जाये.

माओ के इस प्रकार के विचार को साम्यवादियों ने संयुक्त अधिनायकतंत्र के सिद्धांत का नाम दिया है. इस सिद्धांत का सार यह था कि चीन के श्रमिकों को ऐसे वर्गों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए जो कि उन्हें क्रांति को सफल बनाने में सहयोग दे सकें तथा सामन्तवाद तथा साम्राज्यवाद की भावनाओं को कुचलने में भी सहायता दे सकें.

भारत में माओवाद (Maoism in India)

भारत में माओवाद को नक्सलवाद या वामपंथी उग्रवाद के नाम से भी जाना जाता हैं. भारत सरकार इसे आंतरिक सुरक्षा व स्थिरता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानती हैं. भारत में माओवादी विचारधारा का प्रभाव 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन से शुरू हुआ, जिसके कारण इन्हें अक्सर नक्सली भी कहा जाता है.

धीरे-धीरे यह आंदोलन बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों तक फैल गया. वर्तमान में माओवादी संगठन स्वयं को हाशिए पर पड़े तबकों की आवाज़ बताते हैं, लेकिन उनकी गतिविधियाँ मुख्यतः सशस्त्र संघर्ष, हिंसा और राज्य विरोधी विद्रोह पर केंद्रित हैं.

भारत में सबसे बड़ा और सबसे हिंसक माओवादी संगठन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) है. सी पी आई (माओवादी) अनेक अलग-अलग गुटों का समूह है जिनका 2004 में दो सबसे बड़े माओवादी गुटों-कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया (मार्क्सवादी- लेनिनवादी) पी डब्ल्यू तथा एम सी सी आई में विलय हो गया.

सी पी आई (माओवादी) तथा इसके सभी गुटों को विधि-विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 के अंतर्गत प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल किया गया है. अधिक जानने के लिए पढ़ें: भारत में वामपंथी उग्रवाद

माओवाद के प्रभाव (Effects of Maoism)

  • राजनीतिक प्रभाव: माओवाद ने कई देशों में सरकारों को चुनौती दी और राज्य सत्ता के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह खड़े किए. भारत जैसे देशों में यह लोकतांत्रिक व्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती बना.
  • सामाजिक प्रभाव: हाशिए पर पड़े समुदायों, विशेषकर आदिवासियों और ग्रामीण गरीबों में, माओवाद ने असमानता और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने की चेतना पैदा की. हालाँकि, हिंसक तरीकों ने समाज में भय और असुरक्षा का वातावरण भी बनाया.
  • आर्थिक प्रभाव: माओवादी हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में विकास कार्यों की गति धीमी हो गई. बुनियादी ढाँचे जैसे सड़क, स्कूल, स्वास्थ्य सेवाएँ और उद्योग-व्यापार पर नकारात्मक असर पड़ा.
  • सांस्कृतिक प्रभाव: माओवाद ने कुछ जगहों पर कला, साहित्य और जनसंगीत को अपने प्रचार का माध्यम बनाया. लेकिन हिंसा-प्रधान विचारधारा के कारण यह सांस्कृतिक विमर्श टिकाऊ रूप से व्यापक समाज को प्रभावित नहीं कर सका.
  • सुरक्षा संबंधी प्रभाव: माओवादी विद्रोह ने राज्य को सुरक्षा बलों की बड़ी तैनाती और और विशेष अभियानों के लिए मजबूर किया. इससे आंतरिक सुरक्षा पर लगातार दबाव बना रहा.
Spread the love!
मुख्य बिंदु
Scroll to Top