ब्रिटिश भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन | Religious And Social Reform Movement during British Era

ब्रिटिश भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन: ब्रिटिश शासनकाल में स्थापित नई सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं ने भारतीय समाज के पारंपरिक ढाँचे को गहराई से प्रभावित किया. पुरानी और नई व्यवस्थाओं के बीच टकराव ने समाज के भीतर व्यापक अस्थिरता और परिवर्तन की प्रक्रिया को जन्म दिया. इसी काल में भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रवेश हुआ, जिसने सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण की नींव रखी.

यद्यपि अंग्रेजी कंपनी ने औपचारिक रूप से धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप से दूरी बनाए रखी, किंतु यह नीति भी मुख्यतः उनके उपनिवेशवादी हितों की रक्षा के लिए थी. पश्चिमी शिक्षा से प्रभावित नए वर्ग ने हिंदू धर्म की पारंपरिक संस्थाओं, आस्थाओं और प्रथाओं को आलोचना और तर्क की कसौटी पर परखना शुरू किया. इस आलोचनात्मक दृष्टि ने समाज को आत्ममंथन के लिए बाध्य किया और धीरे-धीरे धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलनों की नींव पड़ी.

इन सुधार आंदोलनों में भारतीय सुधारकों के साथ-साथ कुछ प्रगतिशील ब्रिटिश गवर्नर-जनरल तथा पश्चिमी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की भी अहम भूमिका रही. इन प्रयासों का उद्देश्य भारतीय समाज को पुनर्जीवित करना और उसे आधुनिक मूल्यों से जोड़ना था.

सुधार आंदोलनों को भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति भी माना गया. जब धर्म और समाज दोनों ही जड़ता की स्थिति में पहुँच चुके थे, तब इन आंदोलनों ने उस ठहराव को तोड़कर नई ऊर्जा का संचार किया. 19वीं शताब्दी के सुधार मुख्यतः स्त्रियों की स्थिति, शिक्षा और अधिकारों पर केंद्रित रहे, जबकि 20वीं शताब्दी में आंदोलनों का रुख अस्पृश्यता निवारण और निम्न जातियों के उत्थान की ओर मुड़ गया. इस प्रकार, सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन भारतीय समाज को परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन स्थापित करने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयास थे.

इस लेख में हम जानेंगे

धार्मिक एवं सामाजिक सुधार सुधार आंदोलनों के कारण

भारत में ब्रिटिश काल में धार्मिक व सामाजिक सुधार के कार्य काफी तीव्रता से संचालित हुए. इसके मूल कारण इस प्रकार हैं:

1. ईसाई मिशनरियों का आगमन

1813 के चार्टर एक्ट के बाद भारत में ईसाई मिशनरियों को सक्रिय रूप से कार्य करने का अवसर मिला. ये मिशनरी विभिन्न सामाजिक कुरीतियों—सती प्रथा, बाल विवाह, बहुविवाह, अशिक्षा आदि—पर तीखा प्रहार करते थे. यद्यपि उनकी वास्तविक मंशा भारतीय समाज को आधुनिक बनाना नहीं बल्कि ब्रिटिश वस्तुओं के उपभोक्ता तैयार करना और भारतीय संस्कृति को हीन साबित करना था. इस धार्मिक-सांस्कृतिक चुनौती ने भारतीयों को आत्मरक्षा के लिए संगठित किया और सुधार आंदोलनों की लहर उठी.

2. बौद्धिक चेतना का विकास

पश्चिमी शिक्षा और मुद्रण-प्रकाशन के प्रसार से समाज में एक नया शिक्षित वर्ग सामने आया. इस वर्ग ने धर्म और समाज में प्रचलित आडंबरों की आलोचना की तथा उन्हें तर्कसम्मत और समयानुकूल बनाने का प्रयास किया. इस प्रक्रिया में राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद जैसे व्यक्तित्व और ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज जैसे संगठनों ने अग्रणी भूमिका निभाई.

3. आधुनिक संचार और परिवहन साधन

रेल, टेलीग्राफ और समाचार पत्रों के प्रसार ने विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों को एक-दूसरे से जोड़ा. विचारों का आदान-प्रदान तीव्र हुआ और सामाजिक सुधार की चेतना एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में फैल गई.

4. ब्रिटिश नीतियों का प्रभाव

अंग्रेज शासकों द्वारा कानून बनाकर कुछ कुप्रथाओं पर रोक लगाई गई, जैसे—1829 में सती प्रथा का उन्मूलन और 1856 में विधवा पुनर्विवाह की वैधता. इन कदमों ने समाज को नई दिशा दी और सुधार आंदोलनों को गति प्रदान की.

5. राष्ट्रीय चेतना का उदय

19वीं सदी के उत्तरार्ध तक सामाजिक सुधार आंदोलन केवल धार्मिक या सांस्कृतिक सुधार तक सीमित नहीं रहे, बल्कि धीरे-धीरे उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद की भावना को भी प्रबल किया. इन आंदोलनों ने एक ऐसे समाज की कल्पना प्रस्तुत की जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित हो. इस भाग का आगे विस्तार से वर्णन किया गया हैं.

चेतना की उत्पति व प्रसार

18वीं शताब्दी में यूरोप में एक नवीन बौद्धिक लहर चली, जिसके फलस्वरूप जागृति के एक नये युग का सूत्रपात हुआ. तर्कवाद तथा अन्वेषणा की भावना ने यूरोपीय समाज को प्रगति प्रदान की. भारत का एक नवीन पाश्चात्य शिक्षित वर्ग भी तर्कवाद, विज्ञानवाद तथा मानववाद से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सका. इन पाश्चात्य शिक्षित भारतीयों ने इस नवज्ञान से प्रभावित होकर सामाजिक एवं धार्मिक सुधार का कार्य प्रारंभ किया.

तर्कवाद व नवचेतना के इस आधार पर परिवर्तन की जो प्रक्रिया प्रारंभ हुयी उसे पुनर्जागरण (Renaissance) की संज्ञा दी गयी. पुनर्जागरण की प्रक्रिया में पुरातन मान्यताओं एवं विश्वासों पर प्रहार किये गये तथा विभिन्न कुरीतियों का परित्याग कर नवज्ञान एवं नयी मान्यताओं को अपनाने पर बल दिया गया. भारत की भूमि पर उपनिवेशी शासन के प्रभाव ने आधुनिक भारतीय इतिह्रास के अत्यंत संवेदनशील चरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. ब्रिटिश शासन के तले भारतीय समाज एवं संस्कृति में व्यापक परिवर्तन आया तथा वह अपनी परंपरागत छवि से दूर हो गया.

अंग्रेजों से पूर्व जितने भी बाह्य आक्रमणकारी भारत आये या तो वे भारतीय समाज एवं संस्कृति में कोई दूरगामी प्रभाव नहीं डाल सके या फिर यहीं की सभ्यता एवं संस्कृति में समाहित हो गये. किंतु अंग्रेजों का भारत में आगमन ऐसे समय में हुआ जब यूरोप में आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति की बयार बह रही थी एवं मानवतावाद, तर्कवाद, विज्ञान एवं वैज्ञानिक अन्वेषण अपनी महत्ता स्थापित करते जा रहे थे.

19वीं शताब्दी में भारतीय समाज धार्मिक अंधविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों से जकड़ा हुआ था. हिन्दू समाज बुराइयों, बर्बरता एवं अंधविश्वासों से ओतप्रोत था. पुरोहित, समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाये हुये थे तथा जनसामान्य पर विभिन्न कर्मकांडों तथा निरर्थक धार्मिक कृत्यों की सहायता से वर्चस्व स्थापित कर चुके थे. उन्होंने शिक्षा, ज्ञान एवं धार्मिक क्रियाकलापों को अपना विशाधिकार बताया तथा इनकी सहायता से जनसामान्य के man मष्तिष्क पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की चेष्टा की.

भारतीय सामाजिक व्यवस्था भी इतनी ही दयनीय थी. समाज में सबसे निम्न स्थिति स्त्रियों की थी. लड़की का जन्म अपशकुन, उसका विवाह बोझ एवं वैधव्य (widowhood) श्राप समझा जाता था. जन्म के पश्चात बालिकाओं की हत्या कर दी जाती थी. स्त्रियों का वैवाहिक जीवन अत्यंत दयनीय एवं संघर्षपूर्ण था. यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी तो उसे बलपूर्वक पति की चिता में जलने को बाध्य किया जाता था. इसे ‘सती प्रथा’ के नाम से जाना जाता था.

राजा राममोहन राय ने इसे शास्त्र की आड़ में हत्या की संज्ञा दी. सौभाग्यवश यदि कोई स्त्री इस क्रूर प्रथा से बच जाती थी तो उसे शेष जीवन अपमान, तिरष्कार, उत्पीड़न एवं दुख में बिताने पर बाध्य होना पड़ता था.

जाति प्रथा भी समाज की एक महत्वपूर्ण बुराई थी. वर्ण या जाति का निर्धारण वैदिक कर्मकाण्डों के आधार पर होता था. इस जाति व्यवस्था की सबसे निचली सीढ़ी पर अनुसूचित जाति के लोग थे, जिन्हें समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था. तथा अछूत माना जाता था. इन अछूतों या अश्पृश्यों, की संख्या पूरी हिन्दू जनसंख्या का 20 प्रतिशत से भी अधिक थी. अश्पृश्य, भेदभाव एवं अनेक प्रतिबंधों के शिकार थे. इस व्यवस्था ने समाज को कई वर्गों या समूहों में विभक्त कर दिया. हुयी.

वर्ग-चेतना ने धीरे-धीरे अन्य संप्रदाय के लोगों को हिन्दुओं से पृथक करना प्रारंभ कर दिया. कालांतर में हिन्दू समाज की इस जाति व्यवस्था ने कई अन्य क्षेत्रों में विसंगतियां एवं कठिनाइयां पैदा कीं. अश्पृश्यता की कुरीति ने इस वर्ग के लोगों को समाज से लगभग पृथक कर दिया. मानव सभ्यता एवं प्रतिष्ठा पर यह कुरीति एक शर्मनाक धब्बा था.

भारत में उपनिवेशी शासन की स्थापना के पश्चात देश में अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्कृति के प्रसार हेतु सुनियोजित प्रयास किये गये. शहरीकरण तथा आधुनिकीकरण ने भी लोगों के विचारों को प्रभावित किया. इन नवीन विचारों के विक्षोभ ने भारतीय संस्कृति में प्रसार की भावना उत्पन्न की तथा ज्ञान का प्रसार हुआ.

आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति एवं विदेशी शक्तियों को पराजित करने की चेतना ने जागृति की नयी किरण फैलायी. धीरे-धीरे यह चेतना जागृत होने लगी कि भारतीय सामाजिक संरचना एवं संस्कृति में दुर्बलता के कारण भारत जैसा विशाल देश मुट्टीभर विदेशियों के हाथों में चला गया है. यह भी महसूस किया जाने लगा कि भारत सभ्यता की दौड़ में काफी पिछड़ गया है. इस सोच ने एक प्रतिक्रियावादी स्वरूप को जन्म दिया.

इसी समय कुछ पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त बंगाली नवयुवकों ने इस सोच से अभिप्रेरित होकर की भारत सभ्यता एवं विकास में काफी पीछे छूटता जा रहा है, प्राचीन मान्यताओं एवं मूल्यों पर कुठाराघात किया तथा मांस एवं शराब के सेवन जैसे खान-पान के पाश्चात्य तरीकों को अपना लिया. इससे यह अवश्य परिलक्षित होने लगा कि शायद भारतीय समाज अब सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के दौर से गुजरने वाला है.

19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में लोकतंत्र एवं राष्ट्रवाद के उफान ने कर दिया. इन कारकों ने शीघ्र ही पुनर्जागरण की प्रक्रिया के उद्भव एवं विकास के आर्थिक शक्तियों के अभ्युदय, शिक्षा के प्रसार, आधुनिक पाश्चात्य मूल्यों एवं संस्कृति के प्रभाव तथा विश्व समुदाय को सशक्त करने की सोच ने सुधार (Reform) के मार्ग को प्रशस्त किया.

भारत में 19वीं शताब्दी में सामाजिक-धार्मिक सुधारों की जो प्रक्रिया प्रारंभ हुयी वह उपनिवेशी शासन की उपस्थिति का ही प्रभाव था. लेकिन कहीं भी उपनिवेशी शासकों ने इसे प्रारंभ नहीं किया. 

सामाजिक आधार (Social Backgrounds)

भारत में जो सामाजिक-धार्मिक परिवर्तन प्रारंभ हुये उसका मुख्य सामाजिक आधार उभरता हुआ मध्यम वर्ग एवं परम्परागत व पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त बौद्धिक वर्ग था. किंतु पश्चिम में जन्मी तत्कालीन चेतना एवं बुर्जुआई मूल्यों तथा पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त बुर्जुआ रहित सामाजिक आधार में महत्वपूर्ण टकराव था.

19वीं शताब्दी के बौद्धिक वर्ग में जो मुख्यतया यूरोप का मध्य वर्ग था, एवं प्रथाओं को वर्तमान समय हेतु प्रासंगिक बनाने की तीव्र इच्छा जागृत हुयी. तब उन्होंने पुनर्जागरण एवं धर्म-सुधार जैसी विचारधारा का सहारा लेकर समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया.

पुनर्जागरण एवं धर्म-सुधार की प्रक्रिया में जिस वर्ग ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, वह कोई औद्योगिक या व्यापारी वर्ग नहीं था अपितु वे सरकारी कार्यालय में कार्यरत व्यक्ति, शिक्षक, पत्रकार, वकील एवं चिकित्सक जैसे लोग थे जिनके हित कहीं न कहीं पर एक-दूसरे के समान थे.

बौद्धिक आधार (Intellectual Backgrounds)

वे महत्वपूर्ण आधार, जिन्होंने सुधार आंदोलनों को वैचारिक धरातल प्रदान किया उनमें धार्मिक सार्वभौमिकता, मानववाद एवं तर्कवाद प्रमुख थे. सामाजिक प्रासंगिकता को तर्कवाद के रूप में मान्यता दी गयी. राजा राममोहन राय ने स्पष्ट किया कि सभी धर्मों में विश्वास, एकता में आस्था, निर्गुण ईश्वर की उपासना एवं जाति प्रथा में अविश्वास ही सर्वप्रमुख कारक हैं.

उन्होंने प्राचीन विशेषज्ञों को उद्धृत किया तथा मानवीय तर्कशक्ति में आस्था प्रकट की जो उनके विचार से प्राच्य या पाश्चात्य किसी भी सिद्धांत की अंतिम कसौटी है. अक्षय कुमार दत्त ने भी स्पष्ट किया कि तर्कवाद या हेतुवाद ही हमारा मुख्य अभिप्रेरक तत्व है. उन्होंने बताया कि समस्त प्राकृतिक एवं सामाजिक मान्यताओं को यांत्रिक प्रक्रिया की तरह समझना एवं विश्लेषित करना चाहिए.

इन्हीं मान्यताओं एवं विश्वासों का प्रतिफल था कि जहां एक ओर, ब्रह्म समाज का यह मानना था कि कोई भी पुस्तक न तो ईश्वर है न ही देवी-देवता है, क्योंकि कोई भी पुस्तक पूर्णतया त्रुटिविहीन नहीं हो सकती चाहे वह धार्मिक ही क्यों न हो. वहीं दूसरी ओर, अलीगढ़ आंदोलन में जोर दिया गया कि इस्लामिक शिक्षाओं की व्याख्या वर्तमान युग के परिप्रेक्ष्य में होनी चाहिये. सर सैय्यद अहमद खान ने मुस्लिम धर्म की कुरीतियों पर कड़े प्रहार किये तथा उन्हें तत्कालीन परिस्थितियों में अप्रासंगिक बताया.

कई अन्य बुद्धिजीवियों तथा चिंतकों ने भी धर्म एवं संस्कृति के परम्परागत स्वरूप को बदलने की पहल की तथा सत्यता, प्रासंगिकता एवं तर्कवाद के आधार पर उसे पुनर्व्याख्यायित करने पर जोर दिया. स्वामी विवेकानंद के भी धार्मिक विचार अत्यधिक प्रगतिशील एवं भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप थे. उन्होंने भारतीय दर्शन एवं उसकी श्रेष्ठ परम्परा को सर्वोपरि घोषित किया.

इसी समय विभिन्न वैज्ञानिक अन्वेषणों एवं वैज्ञानिक तर्कों को भी चिंतकों ने अपनी अवधारणाओं को पुष्ट करने का आधार बनाया. उदाहरणार्थ- अक्षय कुमार दत्त ने चिकित्सकीय तर्को द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि बाल विवाह हानिकारक था. कई अन्य मान्यताओं को भी विज्ञानवाद के आधार पर अप्रासंगिक सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया.

यद्यपि इस काल में धर्म सुधारकों ने अपने धर्म को सुधारने का प्रयत्न किया. किन्तु उनका दृष्टिकोण किसी एक धर्म तक ही सीमित न रहकर सार्वभौमिक था. राजा राममोहन राय ने हिन्दू धर्म के अतिरिक्त ईसाई धर्म के भी अनेक गलत रीति-रिवाजों को सार्वजनिक किया. उनका विश्वास था कि मूलतः सभी धर्म एक ही शिक्षा देते हैं.

उन्होंने सभी धर्मो की मौलिक एकता पर बल दिया तथा एकेश्वरवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया. सर सैय्यद अहमद खान का मानना था कि सभी धर्मो का मूल उद्देश्य एक ही है. भले ही उनका तरीका भिन्न-भिन्न हो. केशवचंद्र सेन के विचार भी इस संबंध में उदारवादी थे तथा उन्होंने कहा कि विश्व के सभी धर्म सच्चे हैं.

अंग्रेज सरकार के रवैये ने भी भारतीय समाज में सुधार आंदोलन शुरू करने की प्रेरणा दी. अंग्रेजों की आंतरिक मंशा थी कि भारतीय समाज के एक वर्ग को ऐसे पाश्चात्य रंग में रंगा जाये जिससे वे ब्रिटिश हितों की रक्षा कर सकें. अंग्रेज, सरकारी अधिकारियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते थे, जो शारीरिक रूप से भारतीय एवं मानसिक रूप से अंग्रेज हो.

इस मंशा के पीछे मुख्य बात यह थी कि भारत जैसे विशाल देश में प्रशासन के सफल संचालन हेतु अधिकारियों की एक विशाल फ़ौज की आवश्यकता थी. इस कार्य के लिये सभी पदों पर अंग्रेजों को नियुक्त करना अत्यंत कठिन कार्य था, फलतः वे चाहते थे कि भारतीय बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग होना चाहिए जो ब्रिटिश हितों का पक्षपोषण कर सके.

सामाजिक सुधार आंदोलनों में मानवीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी. इस बात को प्रमुखता से इंगित किया गया कि कोई भी परिवर्तन तभी उपयोगी है, जब उससे मानवीय कल्याण के उद्देश्यों की पूर्ति होती हो. इसीलिये इस आंदोलन में ऐसे पाखंडी कर्मकाण्डों को अनावश्यक बताया गया जिससे परेशानियां ज्यादा एवं लाभ कम हों.

सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन में सामाजिक सुधारकों का अनेक अवसरों पर धार्मिक अगुआवों से तीव्र टकराव भी हुआ क्योंकि सभी समाज सुधार आंदोलन मुख्यतः धार्मिक आडम्बरों एवं कर्मकाण्डों की भर्त्सना करते थे.

सामाजिक सुधार (Social Reforms)

19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलन केवल धर्म तक सीमित नहीं रहे अपितु इनका धर्म से ज्यादा प्रभाव सामाजिक क्षेत्र में पड़ा. भारतीय समाज में कई ऐसी मान्यतायें व प्रथायें विद्यमान थीं जिनका आधार अंधविश्वास व अज्ञान था. इनमें से कई प्रथायें अत्यंत क्रूर व अमानवीय थीं. जैसे-सती प्रथा, बाल विवाह, बाल हत्या इत्यादि. समाज गें अशिक्षा व घोर अंधविश्वास था. पूरा का पूरा सामाजिक ढांचा, अन्याय व असमानता पर आधारित था.

ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत का सामाजिक स्वरूप अपरिवर्तनशील एवं स्थिर था. गांव आत्मनिर्भर थे तथा एक संकुचित दायरे में सिमटे हुये थे. सामाजिक व्यवस्था में वर्ण एवं जाति प्रथा अत्यंत सुदृढ़ थी. सम्पूर्ण सामाजिक क्रियाकलापों का निर्धारण जाति के आधार पर ही होता था. ब्रिटिश राज की स्थापना के पश्चात, पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ, जिससे नव जागृति आयी. ब्रिटिश आधिपत्य ने भारत के खोखलेपन एवं फूट को उजागर कर दिया.

इसके पश्चात्य चिंतनशील तथा बुद्धजीवी भारतीयों ने समाज की कुरीतियों एवं त्रुटियों को सार्वजनिक किया तथा उन्हें दूर करने के प्रयत्न किये. वे पश्चिमी मानवतावाद, तकंवाद, राष्ट्रवाद एवं विज्ञानवाद से गहरे प्रभावित हुये. इन बुद्धजीवियों के पाश्चात्य एवं भारतीय संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन कर इसकी कमियों की ओर ध्यान इंगित किया.

पक्षपातपूर्ण अंग्रेजी व्यापारिक नीतियों के फलस्वरूप नये बिचौलियो तथा व्यापारियों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ जिसमें अंग्रेजों से सम्पर्क के कारण पाश्चात्य विचारों का प्रसार हुआ. अंग्रेजी को शिक्षा का अनिवार्य माध्यम बनाये जाने से एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ जिसने अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त कर पाश्चात्य साहित्य का अध्ययन किया तथा भारतीय समाज एवं संस्कृति की खामियों का पता लगाया. हालांकि भारत में आधुनिक ढंग की पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं तथा उपन्यास इत्यादि के प्रकाशन का श्रेय अंग्रेजों को ही है.

प्रेस के विकास से वैचारिक आदान-प्रदान में तेजी आयी. 1853 के पश्चात रेलवे के विकास ने भी इस दिशा में सहयोग किया. लोगों में सामाजिक गतिशीलता आयी. ईसाई मिशनरियों ने भारतीय समाज में प्रचलित अनेक बुराइयों एवं अमानवीय प्रथाओं की भर्त्सना की फलतः इस ओर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ.

सरकार के दृष्टिकोण ने भी समाज सुधार आंदोलन प्रांरभ करने की प्रेरणा दी. वे भारतीय समाज में परिवर्तन करके उसे पश्चिमी समाज के अनुकूल बनाना चाहते थे. फलतः एक ओर जहाँ उन्होंने ईसाई मिशनरियों को भारतीय संस्कृति एवं समाज की निंदा करने के लिए प्रोत्साहित किया वहीँ दूसरी ओर उन्होंने भारतीय समाज सुधारकों को भी अपना योगदान दिया.

भारत में समाज सुधार के प्रारंभिक संगठनों में सामाजिक सभा, सर्वेन्ट आफ इंडिया सोसायटी इत्यादि प्रमुख थीं. ज्योतिबा फुले, गोपालहरि देशमुख, के.टी. तेलंग, बी.एम. मालाबारी, दी.के. कर्वे, श्री नारायन गुरु, ई.पी. रामास्वामी नायकर एवं बी.आर. अम्बेडकर इत्यादि प्रमुख व्यक्ति थे, जिन्होंने प्रारंभिक समाज सुधारकों का कार्य किया. समाज सुधार के बाद के वर्षों में इसे और सुयोग्य नेतृत्व मिला.

मोटे तौर पर समाज सुधार अभियान के दो मुख्य उद्देश्य थे. पहला, समाज में स्त्रियों की दशा में सुधार लाना तथा दूसरा, समाज से अश्पृश्यता को दूर करना.

स्त्रियों की दशा में सुधार के प्रयास (Efforts to improve the condition of women)

समाज सुधारकों ने सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया. समाज में स्त्रियों की दशा अत्यंत सोचनीय थी तथा उन्हें पुरुषों से नीचा समझा जाता था. समाज में स्त्रियों की अपनी कोई पहचान नहीं थी तथा उनकी ऊर्जा एवं योग्यता पर्दा प्रथा, सती प्रथा एवं बाल विवाह जैसी बुराइयों की बलि चढ़ गये थे.

हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों ही समाज में महिलायें आर्थिक तथा सामाजिक रूप से पुरुषों पर आश्रित थीं. उन्हें शिक्षा ग्रहण करने की मनाही थी. हिन्दू स्त्रियों को सम्पति का कोई अधिकार नहीं था तथा विवाह में उनकी सहमति नहीं ली जाती थी.

मुस्लिम स्त्रियों को हालांकि सम्पति का अधिकार था परंतु उन्हें पुरुषों की तुलना में आधी सम्पति ही दी जाती थी. लेकिन तलाक में पुरुष और महिलाओं में बहुत ज्यादा भेदभाव किया जाता था. बहुपत्नी प्रथा हिन्दू एवं मुसलमान दोनों समुदायों में प्रचलित थी.

पत्नी एवं मातृत्व दो ही ऐसे अधिकार क्षेत्र थे, जहां महिलाओं को समाज में थोड़ी-बहुत मान्यता प्राप्त थी. सामान्यतः महिलाओं को उपभोग की वस्तु माना जाता था तथा ऐसी अवधारणा थी कि उसका जन्म पुरुषों की सेवा करने के लिये ही हुआ है. समाज में उनका अपना कोई पृथक अस्तित्व नहीं था तथा उनकी सभी गतिविधियों एवं क्रियाकलापों का निर्धारण पुरुषों द्वारा किया जाता था.

यद्यपि समाज के कुछ क्षेत्र ऐसे थे, जिनमें महिलाओं ने उल्लेखनीय कार्य किये थे किंतु ऐसी महिलाओं की संख्या अत्यलप थी. इतिह्रास इस बात का साक्षी रहा है कि जब कभी भी महिलाओं की उपेक्षा की गयी है तब-तब सभ्यता अवनति की ओर उन्मुख हुयी है.

समाज सुधार अभियान, स्वतंत्रता संघर्ष एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अनेक ऐसे उदाहरण , जहां महिलाओं ने उल्लेखनीय योगदान दिया है. भारतीय संविधान में महिलाओं की दशा सुधारने हेतु अनेक प्रावधान किये गये हैं.

सभी समाज सुधारकों ने महिलाओं की दशा सुधारने हेतु अपना ध्यान केन्द्रित किया तथा अपील की कि महिलाओं को समाज में उनका दर्जा प्रदान किया जाये. समाज सुधारकों ने घोषित किया कि ऐसा कोई भी समाज सभ्य एवं विकसित नहीं हो सकता जहां महिलाओं से भेदभाव किया जाता हो तथा उनकी स्थिति दोयम दर्जे की हो. समाज सुधारकों ने स्त्रियों के विरुद्ध आरोपित की गयी विभिन्न कुरीतियों आलोचना की तथा इन्हें दूर करने के लिये प्रशंसनीय कदम उठाये.

इन्होंने सरकार से भी अपील की कि वह समाज में महिलाओं की दशा सुधारने हेतु पहल करे एवं स्त्रियों से संबंधित विभिन्न कुप्रथाओं को दूर करने हेतु कदम उठाये. उन्होंने मांग की कि महिलाओं की मध्यकालीन तथा सामंतकालीन छवि को दूर किया जाये.

समाज सुधारकों के इन्हीं प्रयासों का प्रतिफल था कि सरकार ने स्त्रियों की दशा सुधारने हेतु अनेक कदम उठाये तथा अनेक कानून बनाये गये.

सती प्रथा (Tradition of Sati)

राजा मोहन राय ने सती प्रथा को स्त्रियों के साथ किया गया घोर अन्याय बताते हुये इसे समस्त हिन्दू समाज के लिये शर्मनाक कहा. उन्हीं के प्रयत्नों का परिणाम था कि सरकार ने सती प्रथा को दण्डनीय अपराध घोषित किया तथा ऐसा करने वालों को दण्ड देने का नियम बनाया. सरकार ने स्त्री को बलपूर्वक जलाये जाने की हत्या के बराबर अपराध घोषित कर दिया तथा इस प्रथा को प्रोत्साहित करने वालों पर फौजदारी मुकदमा चलाने की घोषणा की.

1829 में सती प्रथा के विरुद्ध एक कानून पास करके इसके 17वें नियम के अनुसार विधवाओं का जीवित जलाना बंद कर दिया गया. सबसे पहले यह नियम बंगाल में लागू किया गया फिर 1830 में यह मद्रास एवं बंबई में भी लागू कर दिया गया.

शिशु वध (Infanticide)

यह क्रूर प्रथा बंगालियों एवं राजपूतों में प्रचलित थी. इस प्रथा के अनुसार आर्थिक बोझ मानकर या अन्य कारणों से बालिकाओं की बचपन में ही हत्या कर दी जाती थी. प्रबुद्ध भारतीयों तथा अंग्रेज दोनों ने ही इस प्रथा की तीव्र आलोचना की. अंततः कानून बनाकर शिशु हत्या को साधारण हत्या के बराबर अपराध मान लिया गया.

भारतीय रियासतों के रेजीडेंटों से भी कहा गया कि वे ऐसे मामले को सदोष मानव हत्या के बराबर अपराध माने. 1795 में बंगाल में 21वें अधिनियम तथा 1804 में तीसरे अधिनियम के अनुसार कानूनी तौर पर शिशु हत्या को मानव हत्या के बराबर अपराध घोषित कर दिया गया. 1870 में इस प्रथा को रोकने के लिये कुछ और कानून बनाये गये.

विधवा पुनर्विवाह (Widow Remarriage)

यह ब्रह्म समाज के कार्य क्षेत्रों में एक अत्यंत प्रमुख मुद्दा तथा उसने इसे लोकपिय बनाने हेतु सराहनीय कार्य किया. लेकिन इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान ईश्वरचंद विद्यासागर (1820-91) का था.

ईश्वरचंद विद्यासागर, संस्कृत कालेज कलकत्ता के आचार्य थे. उन्होंने संस्कृत और वैदिक उल्लेखों से यह सिद्ध किया कि वेद, विधवा पुर्नविवाह की अनुमति देते हैं. उन्होंने लगभग 1,000 हस्ताक्षरों से युक्त एक प्रार्थना पत्र सरकार को भेजा. अंततः उनके प्रयत्नों से 1856 में हिन्दू विधवा पुर्नविवाह अधिनियम बना, जिसके अनुसार विधवा विवाह को वैध मान लिया गया और ऐसे विवाह से उत्पन्न हुये बच्चे वैध घोषित किये गये.

महाराष्ट्र में जगन्नाथ शंकर सेठ एवं भाऊ दाजी ने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया. विष्णु शास्त्री पंडित ने 1850 में विधवा पुर्नविवाह एसोसिएशन की स्थापना की. 1852 में गुजरात में सत्य प्रकाश की स्थापना करके करसोनदास मूलजी ने भी विधवा पुर्नविवाह की दिशा में सराहनीय प्रयत्न किये.

इसी प्रकार के प्रयास बंबई में फर्ग्युसन कालेज के प्रोफेसर दी.के. कर्वे एवं मद्रास में वीरेशलिंगम पंतुलु ने भी किये. प्रो. कर्वे ने विधुर होने पर 1893 में स्वयं एक विधवा से विवाह किया. वे विधवा पुर्नविवाह संघ’  के सचिव थे. 1899 में उन्होंने पूना में एक विधवा आश्रम स्थापित किया. जिसमें विधवाओं को जीविकोपार्जन के साधन प्रदान किये जाते थे. 1906 में उन्होंने बंबई में भारतीय महिला विश्वविद्यालय की स्थापना की.

भारत में पहला कानूनी विधवा पुर्नविवाह 7 दिसम्बर 1856 को कलकत्ता में संपन्न हुआ. इसके साथ ही बी.एम. मालाबारी, नर्मदा, जस्टिस गोविंद महादेव रानाडे, एवं के. नटराजन ने भी विधवा पुनर्विवाह की दिशा में सराहनीय प्रयास किये.

बाल विवाह (Child Marriage)

समाज सुधारकों ने बाल विवाह का भी तीव्र विरोध किया, जिसके फलस्वरूप 1872 में ‘नेटिव मेरिज एक्ट’ पास किया गया. इसमें 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं का विवाह वर्जित कर दिया गया. लेकिन यह कानून बहुत प्रभावी नहीं हो सका. अंत में एक पारसी धम सुधारक वी.एम. मालाबारी के प्रयत्नों से 1891 में सम्मति आयु अधिनियम पारित हुआ. जिसमें 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गयी.

हर विलास शारदा के अथक प्रयत्नों से 1930 में शारदा एक्ट’ पारित हुआ. इस एक्ट द्वारा 18 वर्ष से कम उम्र के लड़के एवं 14 वर्ष से कम उम्र की लड़की के विवाह को अवैध घोषित कर दिया गया. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार ने 1978 में बाल विवाह निरोधक अधिनियम (संशोधित) बनाया, जिसके द्वारा बालक की विवाह की आयु 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष एवं बालिका की 14 से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गयी. साथ ही इसमें बाल विवाह करने वालों के विरुद्ध दंड का भी प्रावधान है.

स्त्री शिक्षा (Woman Education)

19वीं शताब्दी में समाज में यह भ्रांतिव्याप्त थी कि हिन्दू शास्त्र स्त्री शिक्षा की अनुमति नहीं देते तथा शिक्षा ग्रहण करने पर देवता उसे वैधव्य का दंड देते हैं. इस दिशा में सबसे पहला प्रयास ईसाई मिशनरियों ने किया तथा 1819 में कलकत्ता तरुण स्त्री सभा की स्थापना की. 1849 में कलकत्ता एजुकेशन काउंसिल के अध्यक्ष जे.ई.डी. बेथुन ने बेथुन स्कूल की स्थापना की.

बेथुन द्वारा किया गया प्रयास स्त्री शिक्षा की दिशा में की गयी पहली सशक्त पहल थी. किंतु स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में ईश्वरचंद विद्यासागर की देन महान है. वे बंगाल के कम से कम 35 बालिका विद्यालयों से सम्बद्ध थे तथा स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में उनके कार्यो को सदैव याद किया जायेगा. बंबई के एलफिंस्टन इंस्टीट्यूट के भी विद्यार्थियों ने भी स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

इसी दौर में ज्योतिबा फुले व सवित्रीबाई फुले ने महाराष्ट्र में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम उठाए. 5 सितम्बर 1848 को पुणे में सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिराव फुले के सहयोग से विभिन्न जातियों की नौ बालिकाओं के साथ पहला महिला विद्यालय आरंभ किया. यह कदम उस समय क्रांतिकारी माना गया क्योंकि लड़कियों की शिक्षा पर सामाजिक प्रतिबंध थे और समाज के रूढ़िवादी वर्ग ने इसे अस्वीकार किया.

इसके बावजूद, केवल एक वर्ष के भीतर ही सावित्रीबाई और महात्मा फुले ने पाँच नए विद्यालय स्थापित कर दिए, जिनमें बड़ी संख्या में बालिकाएँ पढ़ने लगीं. उनके इस अभूतपूर्व कार्य को देखते हुए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया. उस दौर में एक महिला प्रधानाचार्य के रूप में विद्यालय चलाना अत्यंत साहसिक और कठिन कार्य था.

सावित्रीबाई को समाज से तानों और विरोध का सामना करना पड़ा—लोग रास्ते में उन पर कीचड़ और पत्थर तक फेंकते थे. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और दृढ़ निश्चय के साथ शिक्षा का अलख जगाती रहीं.

सावित्रीबाई केवल स्वयं पढ़ने तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि उन्होंने अन्य लड़कियों को भी पढ़ने का अवसर दिया. वे आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षिका मानी जाती हैं और उनके प्रयासों ने महिला शिक्षा और समानता की दिशा में एक नई परंपरा की शुरुआत की.

1854 के चार्ल्स वुड के डिस्पैच में भी स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने पर बल दिया गया. 1914 में स्त्री चिकित्सा सेवा ने स्त्रियों को नसिंग एवं मिडवाइफरी के क्षेत्र में प्रशिक्षण देने का सराहनीय कार्य किया. 1916 में जब प्रो. कर्वे ने भारतीय महिला विश्वविद्यालय प्रारंभ किया तो यह स्त्री शिक्षा की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ. इसी वर्ष दिल्ली में लेडी हर्डिंग मेडिकल कालेज की स्थापना की गयी. 1880 में डफरिन हास्पिटल की स्थापना के पश्चात महिलाओं को स्वास्थ्य एवं चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध करायी जाने लगी.

स्वदेशी अभियान, बंगाल विभाजन विरोधी अभियान एवं होमरूल आन्दोलन कुछ ऐसे कार्यक्रम थे, जब प्रारंभिक तौर पर घरों की चहारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाओं ने इनमें उत्साहित होकर भाग लिया.

1918 के पश्चात महिलायें उग्रविरोध प्रदर्शनों में भाग लेने लगीं तथा उन्होंने लाठी चार्ज एवं गोलियों का भी सामना किया. उन्होंने ट्रेड यूनियन आंदोलनों, किसान आंदोलनों एवं अन्य अभियानों में भी सक्रिय रूप से हिस्सेदारी निभायी. उन्होंने न केवल स्थानीय निकायों एवं विधानसभा चुनावों में वोट देना प्रारंभ कर दिया बल्कि इन चुनावों में खड़े होकर विजयें भी प्राप्त कीं.

1925 में सरोजिनी नायडू को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनने का गौरव प्राप्त हुआ. बाद में वे 1947-49 तक संयुक्त प्राप्त की राज्यपाल भी रहीं.

1920 के पश्चात जागृति एवं आत्म-विश्वास से स्फूर्त महिलाओं ने महिला स्थापना की गयी. इसी क्रम में 1927 में अखिल भारतीय महिला कांग्रेस का गठन किया गया.

स्वतंत्र भारत में महिलाओं हेतु वैधानिक उपाय (Legislative measures for women in independent India)

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात निर्मित संविधान में महिलाओं को विधिक समानता के अधिकार दिये गये हैं तथा उनसे किसी भी प्रकार के भेदभाव को रोकने हेतु अनुच्छेद 14 एवं 15 में विभिन्न उपवंध किये गये हैं. 1954 के विशेष विवाह अधिनियम द्वारा अंतर्जातीय एवं अंतर-धर्म विवाह को कानूनी मान्यता दी गयी.

1955 के हिन्दू मैरिज एक्ट द्वारा एक पत्नी के रहते हुये पुरुष द्वारा दूसरा विवाह करने पर रोक लगा दी गयी तथा ऐसा करने पर दण्ड एवं जुर्माने का प्रावधान किया गया. 1956 के हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम द्वारा लड़की को भी पुत्र के बराबर उत्तराधिकारी बनने की व्यवस्था की गयी. हिन्दू गोद एवं व्यय अधिनियम द्वारा लड़की को भी इस संबंध में लड़के के बराबर मान लिया गया.

1961 में मातृत्व लाभ अधिनियम बना, जिसे अप्रैल 1976 में संशोधित करके गर्भावस्था के दौरान कार्यालयों में कार्यरत महिलाओं के लाभार्थ अनेक उपायों की घोषणा की गयी. संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत, समान कार्य के लिए महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन दिए जाने की पहल करते हैं. समान पारितोषिक (पारिश्रमिक) अधिनियम 1976 महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन देने एवं नौकरियों में उनसे किसी भी प्रकार का भेदभाव रोकने की व्यवस्था करता है.

कारखाना अधिनियम 1976 द्वारा सभी कारखानों के लिये यह अनिवार्य बना दिया गया है कि यदि किसी कारखाने में 30 या उससे अधिक महिला कर्मचारी कार्यरत हैं तो कारखाने के मालिक या प्रबंधक क्रेच (शिशु पालन गृह) की स्थापना करेंगे, जहां कार्य के दौरान महिलाओं के छोटे बच्चों की देखभाल की जायेगी. 1983 में संसद ने फौजदारी कानून (संशोधित) प्रोसीजर कोड में महिलाओं को अत्याचार से बचाने हेतु अनेक नये अधिनियम जोड़े गये.

महिलाओं के साथ बलात्कार तथा पति या ससुराल द्वारा सताये जाने पर कठोर दण्ड एवं कारावास की सजा निर्धारित की गयी है. महिला व्याभिचार अधिनियम एवं बालिका अधिनियम 1956 में, वर्ष 1986 में संशोधन किया गया तथा यह नियम बना दिया गया कि किसी महिला या बालिका को लैंगिक रूप से प्रताड़ित किये जाने पर कठोर दण्ड एवं कारावास की सजा दी जायेगी.

इस अधिनियम द्वारा यह भी व्यवस्था की गयी है किसी महिला का व्यावसायिक उद्देश्यों से दैहिक शोषण गंभीर अपराध माना जायेगा. 1886 में दहेज निवारण अधिनियम में 1961 में अनेक संशोधन किये गये तथा दहेज देना या ग्रहण करना दोनों ही जुर्म की श्रेणी में रख दिये गये. वर्ष 1987 में एक अधिनियम पारित करके सती प्रथा को अक्षम्य मानव हत्या अपराध घोषित कर दिया गया.

वर्ग आधारित शोषण के विरुद्ध संघर्ष (Struggle against class based exploitation)

प्राचीन काल में स्थापित हुई हिन्दू धर्म की चार स्तरीय जाति व्यवस्था या चतुवर्ण व्यवस्था, कालांतर में अनेक जातियों एवं उप-जातियों में विभक्त हो गयी. इसका प्रमुख कारण, प्रजातीय सम्मिलन, भौगोलिक विस्तार एवं व्यवसाय अपनाने की प्रक्रिया में परिवर्तन था.

हिन्दू चतुवर्ण व्यवस्था के अनुसार, जाति ही किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का निर्धारण करती है. उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा एवं शुद्धता की पुष्टि उसकी जाति के द्वारा होती है. जाति ही निर्धारित करती है कि किसे शिक्षा ग्रहण करने एवं सम्पत्ति रखने का अधिकार है, किसे, कौन सा व्यवसाय अपनाना चाहिये. तथा किसे, किस से वैवाहिक संबंध स्थापित करने चाहिए.

किसी व्यक्ति के पूर्वजन्म के कर्मों का आकलन भी इसी बात से किया जाता था कि इस जन्म में वह किस जाति में पैदा हुआ है. परिधान, खान-पान, वास स्थान, कृषि एवं पीने के पानी का स्रोत तथा मंदिर में प्रवेश के अधिकार जैसे मुद्दों का निर्धारण भी जाति के द्वारा ही होता था.

इस चतुर्वर्ण व्यवस्था का सबसे निंदनीय पहलू था समज में अश्पृश्यता या छुआछूत की भावना का जन्म. जो लोग निम्न जाति में पैदा होते थे उन्हें अछूत समझा जाता था. उन्हें सामान्यतः गांवों से दूर बसाया जाता था तथा उनके मंदिरों में प्रवेश करने पर पाबंदी थी. इस वर्ग के लोग अनेक प्रकार के उत्पीड़न एवं भेदभाव के शिकार थे.

जातीय कठोरता में कमी आने के कारण (Reasons behind downfall of Caste Rigidity)

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना से जाति या वर्ण व्यवस्था में थोड़ा परिवर्तन आया. अंग्रेजों ने सभी जातियों के लोगों को सेना एवं अन्य प्रशासकीय क्षेत्रों में नियुक्त किया. यद्यपि तत्कालीन उच्च वर्ग के लोगों ने इसे अपना अपमान समझा तथा इसका विरोध भी किया. लेकिन, अंग्रेजों की इस नीति से निम्न जाति के लोगों में थोड़ा सुधार अवश्य हुआ.

सम्पत्ति के निजी स्वामित्व एवं भूमि के मुक्त क्रय से भी जातीय समीकरणों में परिवर्तन हुये. धीरे-धीरे गांवों की जाति-व्यवस्था में थोड़ा परिवर्तन होने लगा. आधुनिक वाणिज्य एवं व्यवसाय के विकास एवं परिवहन के साधनों में तीव्र वृद्धि से भी सामाजिक गतिशीलता में परिवर्तन हुये.

अंग्रेजों ने ग्राम पंचायतों की जाति पर आधारित न्याय प्रणाली को समाप्त कर आधुनिक न्याय व्यवस्था की स्थापना की जिसमें सभी जातियों के लिये समान न्याय की प्रणाली थी. प्रशासनिक पदों एवं सरकारी कार्यालयों में भर्ती के अवसर भी सभी जाति के लिये खोल दिये गये. अंग्रेजों की शिक्षा व्यवस्था में सभी जातियों की शिक्षा ग्रहण करने के समान अवसर दिये गये.

कालांतर में समाज सुधार कार्यक्रमों ने भी जाति पर आधारित शोषण को कम करने के प्रयत्न किये. 19वीं शताब्दी के मध्य से विभिन्न समाज सुधार संगठनों यथा-ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन एवं थियोसोफिकल सोसायटी आदि ने भी निम्न जाति के लोगों की दशा सुधारने के अनेक प्रयास किये. इन संगठनों ने अछूतों एवं निम्न जाति के लोगों के मध्य शिक्षा के प्रचार-प्रसार का कार्य किया तथा उन्हें मंदिरों में प्रवेश दिलाने, तालाबों से जल ग्रहण करने एवं सार्वजनिक स्थानों के प्रयोग करने की दिशा में प्रयत्न किये.

हालांकि कुछ समाज सुधारकों ने चतुर्वर्ण व्यवस्था का थोड़ा पक्ष लिया लेकिन उन्होंने भी जाति-प्रथा एवं छुआछूत की आलोचना की. इन समाज सुधारकों ने जाति-प्रथा की कठोरता की निंदा की तथा जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था के निर्धारण को अनुचित बताया. उन्होंने ‘कर्म’ के सिद्धांत को प्राथमिकता देने की वकालत की. इन्होंने लोगों से अपील की कि वे भूख से मरने की बजाय सक्रिय हों तथा मानव जगत के कल्याण हेतु रचनात्मक कार्यों में सहयोग करें.

आर्य समाज ने शूद्रों को उच्च शिक्षा ग्रहण करने, यज्ञोपवीत धारण करने तथा उच्च जाति के लोगों के समान अधिकार प्राप्त करने का समर्थन किया.

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी स्वतंत्रता एवं समानता के सिद्धांत को सर्वोपरि मानते हुये जातिगत ऊंच-नीचे को गलत बताया. राष्ट्रवादी नेताओं एवं संगठनों ने भी जातीय विशेषाधिकार, समान नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष तथा सभी के स्वतंत्र विकास के सिद्धांत की वकालत की. इस अवधि में प्रदर्शन में जन-भागेदारी, जनसभाओं एवं सत्याग्रह आंदोलन जैसे कार्यक्रमों में सक्रियता से भाग लेने के कारण दलितों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ.

1937 में विभिन्न राज्यों में कांग्रेसी सरकारें बनने के पश्चात उन्होंने दलितों के उत्थान के लिये अनेक कार्य किये. कांग्रेसी सरकारों ने कुछ राज्यों में हरिजनों के लिये निःशुल्क शिक्षा कार्यक्रम भी प्रारंभ किया. ट्रावनकोर, इंदौर एवं देवास के शासकों ने स्वयं पहल करके अछूतों को मंदिरों में जाने के अधिकार दे दिये.

गांधीजी, समाज से छुआछूत की बुराई को समूल नष्ट करने के लिये कृतसंकल्पित थे. उनके विचार मानवतावाद एवं तर्क पर आधारित थे. उनके अनुसार, शास्त्र छुआछूत को मान्यता नहीं देते और यदि कुछ शास्त्रों में ऐसा प्रावधान है भी तो उस पर ध्यान नहीं देना चाहिए क्योंकि यह बुराई सत्यता के सिद्धांतों के विपरीत है. 1932 में उन्होंने अखिल भारतीय हरिजन संघ की स्थापना की.

शिक्षा में व्यापक प्रसार एवं जनजागृति के फलस्वरूप दलित वर्ग के लोगों में दिया. दलितों ने उच्च वर्ग की ज्यादतियों एवं शोषण के विरुद्ध कई सशक्त आंदोलन चलाये. महाराष्ट्र में माली जाति में जन्मे ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मण वर्ग के विशेषाधिकारों को चुनौती दी. उन्होंने दलितों में, विशेषकर दलित महिलाओं में शिक्षा के प्रसार को सर्वश्रेष्ठ प्राथमिकता दी तथा इसके लिये अनेक स्कूल खोले.

बाबा साहब अम्बेडकर, जो बाल्यावस्था से ही जातीय भेदभाव के प्रत्यक्ष गवाह थे, आजीवन उच्च वर्ग की ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे. उन्होंने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ की स्थापना की. उन्हीं के प्रयत्नों से प्रेरणा लेकर कई अन्य तत्कालीन दलित नेताओं ने आपस में मिलकर अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ की स्थापना की.

डा. अम्बेडकर ने समाज की चतुर्वर्ण व्यवस्था की घोर आलोचना की तथा स्पष्ट किया कि देश के उत्थान के लिये समाज में व्याप्त इस बुराई को दूर किया जाना आवश्यक है. 1935 के अधिनियम में दलित एवं पिछड़े वर्ग के लोगों के लिये विशेष प्रतिनिधित्व का प्रावधान किये जाने से इस वर्ग को एक बड़ी उपलब्धि हासिल हुई.

वास्तव में डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रयासों से महात्मा गांधी को भी जातिय भेदभाव का आभास हुआ था. इसके बाद उन्होंने दलित वर्ग को हरिजन नाम से संबोधित किया व जातिय भेदभाव तथा छुवाछूत के खिलाफ सक्रिय हुए.

19वीं शताब्दी के पश्चात कोल्हापुर के महाराजा ने स्वयं ब्राह्मण विरोधी अभियान को प्रोत्साहन दिया. बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में यह अभियान दक्षिण भारत में भी फैल गया तथा कम्मास, रेड्डी, वेल्लाला एवं मुसलमानों ने भी इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया.

1920 के दशक में दक्षिण भारत में ई.वी. रामास्वामी नाइकर ने ब्राह्मणों के भांति इस आंदोलन ने भी दलितों के मंदिरों में प्रवेश करने पर लगी पाबंदी को हटाने की मांग की. केरल में श्री नारायण गुरु ने जीवनपर्यंत दलितों की दशा सुधारने के लिये संघर्ष किया. उन्होंने दलितों से ऊंची जातियों के विरुद्ध संघर्ष करने की अपील की. श्री गुरु ने नारा दिया समस्त मानव जाति के लिये एक ईश्वर, एक जाति एवं एक धर्म है. श्री नारायण गुरु के शिष्य सहादरन औयप्पन ने इस नारे को परिवर्तित करके समस्त मानव जाति के लिए कोई इश्वर नहीं, कोई धर्म नहीं का नारा दिया.

परंतु इन सभी प्रयत्नों के बावजूद ब्रिटिश शासनकाल में जाति प्रथा के विरुद्ध चल रहे अभियानों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी. क्योंकि ब्रिटिश सरकार की भी अपनी कुछ सीमायें थीं, जिनके चलते वह उच्च वर्ग या रूढ़िवादी वर्ग के विरुद्ध खुलकर संघर्ष नहीं कर सकती थी. इसके अतिरिक्त राजनीतिक एवं आर्थिक उत्थान के बिना निम्न जातियों की दशा में सुधार असंभव था. इस बारे में ईमानदारीपूर्वक जो भी प्रयत्न किये गये वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही हुये.

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात बने भारतीय संविधान में छुआछूत के उन्मूलन हेतु अनेक प्रावधान किये गयै तथा अश्पृश्यता को किसी भी तरह से बढ़ावा देने के प्रयास को अनैतिक एवं गैरकानूनी घोषित किया गया. यह ऐसे किसी प्रतिबंध पर भी रोक लगाता है, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति या जाति के लिये मंदिरों, तालाबों, घाटों जलपानगृह, छविगृह, क्लब इत्यादि में जाना वर्जित हो.

संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में भी कहा गया है कि राज्य अपनी समस्त प्रजा के समुचित उत्थान का प्रयास करेगा. वह सभी नागरिकों को सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक विकास के समान अवसर देगा तथा किसी भी आधार पर उनके उत्पीड़न या भेदभाव पर रोक लगायेगा.

सांस्कृतिक जागरण, सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन एवं उसके नेता (Cultural awakening, socio-religious reform movement and its leaders)

Religious And Social Reform Movemen

19वीं शताब्दी में भारत में हुए सांस्कृतिक जागरण और सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों और रूढ़ियों को दूर कर एक आधुनिक, तर्कसंगत और समतावादी समाज की नींव रखी. इन आंदोलनों ने विभिन्न धर्मों में सुधार लाने का प्रयास किया और राष्ट्रीय चेतना के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

हिन्दू धर्म के सुधार आंदोलन (Reform Movements in Hinduism)

1. ब्रह्म समाज: इसकी स्थापना राजा राम मोहन राय ने 1828 में ब्रह्म सभा के रूप में की थी. यह एक एकेश्वरवादी आंदोलन था जो मूर्ति पूजा, कर्मकांड और अंधविश्वासों का विरोध करता था. इसने उपनिषदों पर आधारित तर्कसंगत और नैतिक सिद्धांतों पर जोर दिया. राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा, बाल विवाह और जाति व्यवस्था का भी पुरजोर विरोध किया.

2. प्रार्थना समाज: इसकी स्थापना 1867 में आत्माराम पांडुरंग ने की थी, जिसमें महादेव गोविंद रानाडे और आर.जी. भंडारकर जैसे नेता भी शामिल थे. यह ब्रह्म समाज के विचारों से प्रभावित था और इसने सामाजिक सुधारों जैसे अंतरजातीय विवाह, विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया.

3. आर्य समाज: इसकी स्थापना 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने की थी. इसका मुख्य नारा “वेदों की ओर लौटो” था. यह मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जातिवाद और बाल विवाह का विरोध करता था. आर्य समाज ने शिक्षा के प्रसार और शुद्धि आंदोलन (उन लोगों को वापस हिंदू धर्म में लाना जिन्होंने इसे छोड़ दिया था) पर बहुत जोर दिया.

4. यंग बंगाल आंदोलन: 1820 के दशक में हेनरी विवियन डेरोजियो के नेतृत्व में यह एक क्रांतिकारी आंदोलन था. इसने समाज में मौजूद सभी रूढ़ियों और स्थापित परंपराओं का विरोध किया. यह अपने कट्टर विचारों और पश्चिमी शिक्षा के प्रति झुकाव के कारण जाना जाता है.

5. थियोसोफिकल सोसाइटी: इसकी स्थापना 1875 में मैडम ब्लावात्स्की और कर्नल ओल्कोट ने न्यूयॉर्क में की थी. भारत में इसका नेतृत्व एनी बेसेंट ने किया. इसने हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के आध्यात्मिक विचारों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और प्राचीन भारतीय दर्शन के महत्व को पश्चिमी दुनिया में फैलाया.

6. सत्यशोधक समाज: इसकी स्थापना 1873 में ज्योतिराव फुले ने महाराष्ट्र में की थी. इसका मुख्य उद्देश्य निम्न जातियों और महिलाओं को शिक्षा प्रदान करना और उन्हें ब्राह्मणवादी वर्चस्व से मुक्त कराना था. इस समाज ने जातिवाद और छुआछूत का कड़ा विरोध किया.

जाति विरोधी आंदोलन और डॉ. बी.आर. अंबेडकर

डॉ. भीमराव अंबेडकर, जिन्हें बाबासाहेब के नाम से जाना जाता है, एक महान विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक थे. उन्होंने अपना जीवन जातिवाद और छुआछूत के खिलाफ संघर्ष में समर्पित कर दिया. वह स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री और भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता थे.

जातिवाद व छुआछूत के विरोध में कार्य व स्थापित संगठन:

  1. बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1924): इसका उद्देश्य अछूतों की शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार करना था.
  2. मूकनायक: अंबेडकर ने इस पत्रिका के माध्यम से दलितों के मुद्दों को उठाया.
  3. महाड़ सत्याग्रह (1927): उन्होंने महाड़ के एक सार्वजनिक तालाब से पानी पीने के अधिकार के लिए संघर्ष किया, जिसे अछूतों के लिए वर्जित किया गया था.
  4. अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ (1930): यह दलितों के राजनीतिक अधिकारों के लिए एक महत्वपूर्ण मंच था.
  5. 1932 का पूना पैक्ट: उन्होंने गांधीजी के साथ मिलकर दलितों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग को छोड़कर, विधानसभाओं में आरक्षित सीटों पर सहमति व्यक्त की.
  6. स्वतंत्र लेबर पार्टी (1936): इसका उद्देश्य मजदूर वर्ग और दलितों के अधिकारों के लिए लड़ना था.
  7. रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (1956): यह एक राजनीतिक दल था जिसका उद्देश्य भारत में दलितों, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा करना था.

दक्षिण भारत में जाति विरोधी आंदोलन:

  1. द्रविड़ आंदोलन: इसकी शुरुआत पेरियार ई.वी. रामासामी ने की थी. इसका मुख्य उद्देश्य ब्राह्मणवादी वर्चस्व और जाति व्यवस्था का विरोध करना था. यह आंदोलन द्रविड़ लोगों की सांस्कृतिक पहचान पर जोर देता था.
  2. वायकोम सत्याग्रह (1924): यह त्रावणकोर (केरल) में मंदिर प्रवेश के अधिकार के लिए एक आंदोलन था. इसका नेतृत्व टी.के. माधवन और के.के. केलप्पन ने किया था.
  3. आत्म सम्मान आंदोलन (1925): इसकी शुरुआत पेरियार ने की थी. यह ब्राह्मणवादी रीति-रिवाजों और पुरोहितों के बिना विवाह समारोहों और अन्य सामाजिक अनुष्ठानों को प्रोत्साहित करता था.

मुस्लिम धर्म सुधार आंदोलन (Reform Movements in Islam)

1. अलीगढ़ आंदोलन: इसकी शुरुआत सर सैयद अहमद खान ने की थी. इसका मुख्य उद्देश्य मुसलमानों को आधुनिक पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिए प्रेरित करना और उन्हें सरकारी नौकरियों के लिए तैयार करना था. 1875 में उन्होंने मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना) की स्थापना की.

2. अहमदिया आंदोलन: इसकी शुरुआत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने की थी. यह आंदोलन एक उदार आंदोलन था जो जिहाद की अवधारणा की व्याख्या आध्यात्मिक संघर्ष के रूप में करता था.

3. वहाबी आंदोलन: यह एक पुनरुत्थानवादी आंदोलन था जिसकी शुरुआत सैयद अहमद बरेलवी ने की थी. इसका उद्देश्य इस्लाम में प्रचलित गैर-इस्लामिक प्रथाओं को समाप्त कर इस्लाम के मूल सिद्धांतों को फिर से स्थापित करना था.

4. देवबंद आंदोलन: इसकी शुरुआत मुहम्मद कासिम नानौतवी और रशीद अहमद गंगोही ने की थी. यह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जिहाद और मुसलमानों के बीच धार्मिक शिक्षा को पुनर्जीवित करने पर केंद्रित था.

अन्य धर्म सुधार आंदोलन (Other Religious Reform Movements in Hindi))

1. पारसी धर्म सुधार आंदोलन: रहनुमाई माज़दायासन सभा (धार्मिक सुधार संघ) की स्थापना 1851 में दादाभाई नौरोजी और एस.एस. बंगाली ने की थी. इसका उद्देश्य पारसी समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को दूर करना और आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देना था.

2. सिख धर्म सुधार आंदोलन: निरंकारी आंदोलन, नामधारी आंदोलन और अकाली आंदोलन जैसे आंदोलनों ने सिख धर्म में मौजूद कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया. सिंह सभा आंदोलन ने सिख धर्म को पुनर्जीवित करने और सिखों के शैक्षिक विकास के लिए काम किया. 1920 के दशक का गुरुद्वारा सुधार आंदोलन एक महत्वपूर्ण आंदोलन था जिसने गुरुद्वारों के प्रबंधन को भ्रष्ट महंतों के नियंत्रण से मुक्त कराया.

सुधार आंदोलनों का योगदान व प्रभाव (Contribution and impact of reform movements)

धार्मिक व सामाजिक सुधार आंदोलनों का जहाँ सकारात्मक प्रभाव हुए, वहीं कुछ नकारात्मक पहलू भी सामने आए. ये इस प्रकार हैं:

सुधार आंदोलनों का सकारात्मक (Positive) प्रभाव

समाज के रूढ़िवादी वर्ग ने विभिन्न समाज सुधारकों के द्वारा वैज्ञानिक विचारधारा को सामाजिक-धार्मिक स्वरूप देने के प्रयासों का अत्यंत कड़ा विरोध किया. इसके कारण अनेक समाज सुधारकों को अपमानित होना पड़ा, उनकी निंदा की गयी, उन पर अभियोग लगाये गये, उनके विरुद्ध फतवे जारी किये गये तथा कुछेक की तो हत्या करने की चेष्टा भी की गयी.

किंतु तीव्र विरोधों के बावजूद भी इन सुधार आंदोलनों ने लोगों में स्वतंत्रता एवं समानता का भाव जागृत किया. इसने लोगों को यह महसूस करने हेतु प्रेरित किया कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, इसलिये स्वतंत्रता का अधिकार उसे ईश्वर प्रदत्त है तथा कोई भी व्यक्ति, समाज या शासन इस पर रोक नहीं लगा सकता. आंदोलन ने समाज में पुरोहितों के एकाधिकार को कड़ी चुनौती दी.

धार्मिक ग्रंथों के विभिन्न भाषाओं में किये गये अनुवाद जिससे लोग विभिन्न धर्मो का अध्ययन कर सके तथा उनमें यह विश्वास जागा कि धार्मिक रीति-रिवाजों के पालन एवं धार्मिक अनुवाद का कार्य प्रत्येक मनुष्य स्वयं कर सकता है. प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह ईश्वर की उपासना या चिंतन कर सकता है तथा इस कार्य के लिये उसे किसी मध्यस्त की जरूरत नहीं है. इसने लोगों में किसी भी नियम की तर्क-वितर्क के आधार पर परखने की समझ विकसित की.

सुधार आंदोलनों ने विभिन्न धर्म के लोगों को उनकी समृद्ध धार्मिक विरासत से अवगत कराया जिससे उनमें यह हीन भावना दूर हो सके कि उनका धर्म पिछड़ा हुआ या अविकसित है. इसने मध्य वर्ग में नई समझ एवं चेतना जागृत की तथा उसके उदय में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.

आंदोलनों के फलस्वरूप यह स्पष्ट हो गया कि शोषण एवं भेदभाव का शासन लंबे समय तक अस्तित्व में नहीं रह सकता तथा इसके विरुद्ध तीव्र जनाक्रोश होता है. इसने तत्कालीन परिस्थितियों में पाश्चात्य ज्ञान एवं विज्ञान की महत्ता को रेखांकित किया, जिसके फलस्वरूप विभिन्न शिक्षा संस्थानों में इन विषयों का पठन-पाठन प्रारंभ हुआ.

पाश्चात्य जगत के ज्ञान से भारतीयों ने तुलनात्मक अध्ययन के फलस्वरूप पाया कि उनका धर्म एवं संस्कृति अपने आप में महान विरासत संजोये हुये हैं तथा वे पश्चिम से किसी भी प्रकार से कम नहीं है. आंदोलन ने सामाजिक भेदभाव एवं शोषण पर कड़े प्रहार किये तथा इसके विरुद्ध संघर्ष करने की चेतना लोगों में जागृत की. पुरातन एवं अव्यवहारिक रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं को छोड़ने की अपील आंदोलनकारियों ने लोगों से की तथा बताया कि वे परम्परायें एवं मूल्य ही वास्तविक है जो समय के साथ प्रासंगिक बने रहें.

इसने लोगों को चेताया कि वे पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का अंधानुकरण न करें. इसने भारत के बौद्धिक एवं धार्मिक पृथककरण को समाप्त किया तथा तत्कालीन विश्व के साथ इसका सम्पर्क स्थापित किया. समाज सुधारकों ने लोगों से अपेक्षा की कि वे पाश्चात्य ज्ञान एवं परम्पराओं का अनुपालन अपनी धर्म एवं संस्कृति के अनुरूप करेंगे.

इसने लोगों को शक्ति एवं आन्दोलन करने की प्रवृत्ति को एक नया स्वरूप दिया जो कि उपनिवेशी शासन के तले बिल्कुल असहाय होकर रह गयी थी. कालांतर में इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप भारतीयों में यह समझ विकसित हुयी कि वे स्वतंत्र है तथा विदेशी शासन के बोझ तले उन्हें नहीं रहना चाहिए.

समाज सुधारकों ने स्त्रियों की दशा सुधारने तथा स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने में भी सराहनीय कार्य किया. समाज सुधारकों ने तत्कालीन समाज में व्याप्त विभिन्न कुरीतियों यथा- सती प्रथा, बाल विवाह, बहुपत्नी प्रथा तथा पर्दा प्रथा इत्यादि पर कड़े प्रहार किए तथा काफी हद तक इनके उन्मूलन में सफलता हासिल की.

इन्हीं का प्रयत्न था कि विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिली तथा विधवाओं की दशा में सुधार हुआ. दलितों एवं पिछड़ा की दशा सुधारने तथा उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने में समाज सुधारकों ने अथक प्रयास किये.

इस प्रकार, सुधार आंदोलनों का चरण भारतीय इतिह्रास में एक ऐसा चरण था जिसने न केवल भारतीय समाज एवं धर्म को नयी दिशा दी अपितु भारतीय इतिह्रास में एक नये अध्याय का समावेश भी किया. इन आंदोलनों का ही प्रतिफल था कि उपनिवेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने में पूरा भारतीय समाज उठ खड़ा हुआ तथा उसे जड़ से उखाड़ फेंका.

सुधार आंदोलनों का नकारात्मक (Negative) प्रभाव

19वी सदी के सुधार आंदोलन मुख्यतः शहरी मध्यम एवं उच्च वर्ग तक ही सीमित रहे तथा कोई भी आन्दोलन देश के गाँव और किसानों तथा शहरों के गरीब लोगों तक नहीं पहुंच सका.

इसके अतिरिक्त आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने पीछे देखने या अतीत की महानता और अपने-अपने धर्मग्रंथों से प्रमाण देने की प्रवृत्ति का सहारा लिया. उनकी इन प्रवृति ने लोगों में साम्प्रदायिकता के आधार पर विभाजित होने की गलत परम्परा को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दिया.

अनेक इतिह्रासकारों का मत है कि देश में अन्य अनेक कारणों के साथ-साथ इन आंदोलनों ने भी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया.

सुधार-आंदोलनों में संस्कृति के कुछ चुनिंदा पहलुओं को ज्यादा महत्व दिये जाने से संस्कृति के अन्य क्षेत्र जैसे- स्थापत्य, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला इत्यादि उपेक्षित हुये. हिन्दू समाज सुधारक अपनी विचारधारा में प्राचीन इतिह्रास एवं संस्कृति में ही संकुचित होकर रह गये.

उन्होंने मध्यकालीन इतिह्रास को बिल्कुल भुला दिया, जबकि भारतीय इतिह्रास में मध्यकाल का अपना एक विशेष स्थान है. गुणगान करने से वे जातियां इसके विरुद्ध हो गयीं जिनके पूर्वज प्राचीन काल में विभिन्न प्रकार के शोषण एवं उत्पीड़न के शिकार रहे थे.

प्राचीन काल में पुरोहितों का सामाजिक एकाधिकार एवं वर्चस्व था. इसके कारण भी कई जातियां विशेष रूप से निम्न जातियां इन आंदोलनों में सक्रिय नहीं हुयी. कई मुस्लिम मध्यवर्गियों ने मुस्लिम समाज का पाश्चात्यीकरण किये जाने के केवल अपने धर्म की श्रेष्ठता स्थापित करने के प्रयास से साम्प्रदायिक सौहार्द को धक्का लगा लोगों आपसी में आपसी भाईचारा कम हुआ.

कालांतर में इसी मनोधारणा से संप्रदायवाद का उभार भी हुआ. इसी का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने भारतीय समाज को विभाजित करने के कुत्सित प्रयत्न प्रारंभ कर दिये, जिसकी दुखद परिणती देश के विभाजन के रूप में सामने आयी.

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