1857 का विद्रोह (Revolt of 1857 in Hindi): आधुनिक भारत के इतिह्रास में 1857 ई. अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है, क्योंकि इसी वर्ष से भारतीय स्वाधीनता संग्राम की शुरूआत मानी जाती है. इससे पहले भी देश में अंग्रेजों के खिलाफ कई विद्रोह हुआ. लेकिन 1857 का विद्रोह अखिल भारतीय स्तर पर होने वाला पहला विद्रोह था. इसलिए इसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता हैं. अंग्रेजों ने इसे सिपाही विद्रोह (Sepoy Mutiny) के नाम से संबोधित किया था.
1857 का विद्रोह के तात्कालिक कारण
1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारण सैनिक थे. कम्पनी ने भारतीयों के प्रति जो भेदभाव की नीति रखी थी, उसका सर्वाधिक स्पष्ट रूप सेना में था. कारण, उसी में भारतीयों के रोजगार मिलने की सर्वाधिक संभावना थी. परन्तु, भारतीय सैनिकों के साथ बड़ा ही बुरा बर्ताव होता था. इस कारण 1765 में बंगाल में, 1806 में वेल्लूर में, 1824 में बैरकपुर में और अन्यत्र भी सेना में विद्रोह होते रहे.
भारतीय सैनिकों द्वारा कितनी भी योग्यता या बहादुरी दिखाने पर भारतीयों को ‘जमादार’ से ऊंची पदोन्नति नहीं मिलती थी. भारतीय सैनिकों के वेतन, भते आदि भी अंग्रेजों की तुलना में बहुत कम थे. साथ ही; खान-पान, रहन-सहन एवं व्यवहार में भी भारतीयों के साथ भेदभाव बरता जाता था. सेना में भी पादरी ईसाई-धर्म के प्रचार के लिए आते रहते थे.
फिर, कम्पनी की नीति से जिस प्रकार भारतीय कृषि-अर्थव्यवस्था कुप्रभावित हो रही थी, उससे सैनिकों पर भी असर पड़ता था, क्योंकि, उस समय सैनिकों की आय उतनी नहीं थी कि उसकी आय से ही सारे परिवार के लोगों का पेट भर सके अर्थात् कृषि ही उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती थी. वस्तुतः, सैनिक भी वर्दीधारी किसान’ ही थे, जिस पर लगान का समान बोझ पड़ता था. इतना तक भारतीय सैनिकों ने बरदाश्त किया. पर, जब उनकी धार्मिक भावना पर चोट की गई, तब उन्होंने व्यापक विद्रोह कर दिया.
लॉर्ड केनिंग के समय 1856 में द जेनरल सर्विस इनलिस्टमेण्ट एक्ट के अनुसार यह घोषणा की गई कि भारतीय सैनिकों को युद्ध के लिए समुद्र पारकर विदेश भी जाना होगा. भारतीय समुद्र-यात्रा को पाप समझते थे. वे इसका विरोध कर ही रहे थे कि कंपनी की सेना में एक नई एनफील्ड नामक राइफल आई, जिसमे गोली लगाने से पहले कारतूस को मुंह से खोलना पड़ता था और कारतूस में चर्बी चढ़ी होती थी. माना जाता है इन कारतूसों में गायों व सूअरों की चर्बी का प्रयोग किया गया था. सैनिकों को जैसे ही इस बात का पता चला, उनका क्षोभ सीमा पार कर गया. यही 1857 का विद्रोह का तात्कालिक कारण बना.
सबसे पहले बैरकपुर छावनी में मंगल पांडेय ने 29 मार्च, 1857 को ऐसी कारतूस के प्रयोग का विरोध किया. उसने काफी उत्पात मचाया-8 अप्रेल, 1857 को उसे फांसी दे दी गई. 6 मई को सैनिकों ने फिर विरोध किया. अब कम्पनी ने भारतीय सैनिकों पर सख्ती शुरू कर दी. कई जगह सैनिकों के हथियार जब्त कर लिए गए. उन्हें बड़ी संख्या में कैद किया जाने लगा. लेकिन अब भी भारतीय सैनिकों के पास बड़ी मात्रा में असलहा-बारूद थे. अंत में, 10 मई, 1857 को सैनिकों ने व्यापक स्तर पर विरोध कर विद्रोह की घोषणा कर दी और क्रांति की शुरुआत हो गई.
1857 का विद्रोह: अन्य कारण
1857 का विद्रोह राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक कारणों से प्रेरित थी. इसी अनुरूप यहाँ सबसे पहले राजनैतिक व उसके बाद अन्य कारणों का वर्णन किया गया हैं.
सहायक संधि प्रणाली
वैल्जली ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजी राजनैतिक परिधि में लाने के लिए सहायक संधि प्रणान्री का प्रयोग किया. इस प्रणाली ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार में विशेष भूमिका निभाई और उन्हें भारत का एक विस्तृत क्षेत्र हाथ लगा. इस कारण भारतीय राज्य अपनी स्वतंत्रता खो बैठे.
गोद-प्रथा की समाप्ति
गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के शासन काल में भारत के कुछ प्रमुख देशी राज्यों, यथा–झांसी, उदयपुर, संभलपुर, नागपुर आदि के राजाओं के कोई पुत्र नहीं थे. प्राचीन भारतीय राजव्यवस्था के प्रावधानों के तहत योग्य उत्तराधिकारी के चयन के लिए ये राजा अपने मनोनुकूल किसी बच्चे को गोद ले सकते थे.
परन्तु डलहौजी ने गोद लेने की इस प्रथा को अमान्य घोषित कर इन देशी राज्यों (रियासतों) को कम्पनी के शासनाधिकार में ले लिया. कम्पनी द्वारा शुरू की गई इस नयी नीति से सभी राजा असंतुष्ट थे और वे किसी ऐसे अवसर की तलाश में थे, जब पुनः अंग्रेजों को दबाकर अपनी रियासत पर अधिकार जमा सकें.
अवघ के साथ विश्वासघात
1856 ई. में कम्पनी द्वारा अवध राज्य का अधिग्रहण कर लिया गया था. इसके पूर्व अवध के नवाबों के साथ झूठी मित्रता कर अंग्रेजों ने उनसे पूरी सहायता ली थी. पर, जब उनका साम्राज्य विस्तृत हो गया, तब उन्होंने अवध को भी अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन कर लिया. इससे अवध की जनता में अंग्रेजों के प्रति अत्यधिक असंतोष था और इस असंतोष के कारण वहां के सैनिक उत्तेजित हो गए.
बहादुरशाह का अपमान
मुगल साम्राज्य के शासक बहादुरशाह का भी डलहौजी ने घोर अपमान किया. बहादुरशाह को लाल किला खाली करने का आदेश मिला, सिक्कों से उसका नाम हटाया गया और उसके पुत्र कोयाश को अंग्रेजों द्वारा राजकुमार घोषित कर दिया गया, जबकि बहादुरशाह का ज्येष्ठ पुत्र मिर्जा जवांबख्स वास्तविक उत्तराधिकारी था. अंग्रेजी शासन के इस कृत्य से राजपरिवार और जनसाधारण दोनों में रोष था. इसीलिए क्रांति की शुरूआत के समय बहादुरशाह ने यथाशीघ्र नेतृत्व प्रदान करना स्वीकार कर लिया.
दत्तक प्रथा की समाप्ति
लॉर्ड डलहौजी ने गोद प्रथा को समाप्त करने के साथ-साथ दत्तक पुत्रों से जागीर जब्त कर लेने का निश्चय किया और पेंशन भी रोकवा दी. नाना साहब स्वर्गीय पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे और इनका पेंशन रोककर अंग्रेजों ने दुश्मनी मोल ले ली.
अफगानिस्तान में अंग्रेजों की पराजय
वर्ष 1841-42 में अफगानिस्तान में अंग्रेजों को पराजय का सामना करना पड़ा. इससे इस धारणा से उबड़ने का मौका मिला कि अंग्रेज अपराजेय हैं. भारत के क्रांतिकारियों को इस युद्ध से नयी आशा और प्रेरणा मिली कि हम भी अंग्रेजों को देश से निकाल सकते हैं और इसके लिए उन्होंने विद्रोह शुरू कर दिया.
सामाजिक कारण
कंपनी के शासन विस्तार के साथ-साथ अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ-साथ अमानुषिक व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया था. काले और गोरे का भेद स्पष्ट रूप से उभरने लगा था. अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को गुलाम समझा जाता था. समाज में अंग्रेजों के प्रति उपेक्षा की भावना बहुत अधिक बढ़ गयी थी, क्योंकि उनके रहन-सहन, अन्य व्यवहार एवं उद्योग-आविष्कार से भारतीय व्यक्तियों की सामाजिक मान्यताओं में अंतर पड़ता था.
अपने सामाजिक जीवन में वे अंग्रेजों का प्रभाव स्वीकार नहीं करना चाहते थे. अंग्रेजों की खुद को श्रेष्ठ और भारतीयों को हीन समझने की भावना ने भारतीयों को क्रांति करने की प्रेरणा दी.
धार्मिक कारण
भारत में अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में भारतीयों पर धार्मिक दृष्टि से भी कुठाराघात किया था. इस काल में योग्यता की जगह धर्म को पद का आधार बनाया गया. जो कोई भी भारतीय ईसाई धर्म को अपना लेता था, उसकी पदोन्नति कर दी जाती थी, जबकि भारतीय धर्म का अनुपालन करने वाले को सभी प्रकार से अपमानित किया जाता था. इससे भारतीय जनसाधारण के बीच अंग्रेजों के प्रति धार्मिक असहिष्णुता उत्पन्न हो गई थी.
फिर, ईसाई धर्म का इतना अधिक प्रचार किया गया कि भारतीयों को यह संदेह होने लगा कि अंग्रेज उनके धर्म का सर्वनाश करना चाहते हैं. परिणामस्वरूप भारतवासी अंग्रेजों को धर्मद्रोही समझकर उन्हें देश से बाहर निकालने का मार्ग ढूंढने लगे और 1857 ई. में जब मौका मिला, तब हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध प्रहार किया.
आर्थिक कारण
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत के उद्योग धंधों को नष्ट कर दिया तथा श्रमिकों से बलपूर्वक अधिक से अधिक श्रम कराकर उन्हें कम पारिश्रमिक देना प्रारम्भ किया. इसके अतिरिक्त अकाल सूखा और बाढ़ की स्थिति में भारतीयों की किसी भी प्रकार की सहायता नहीं की जाती थी और उन्हें अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता था.
निम्न वर्गीय कृषकों तथा मजदूरों की स्थिति तो दयनीय थी ही, राजाओं और नवाबों तक की आर्थिक स्थिति बदहाल थी. भारत से प्राप्त खनिज संसाधनों और सस्ते श्रम के बल पर अंग्रेजों ने अपने उद्योग धंधों को विकास के चरम पर पहुंचा दिया, जबकि दूसरी ओर भारत में किसी नए उद्योग की स्थापना की बात तो दूर छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों को भी समाप्त कर दिया गया. इससे भारत के प्रत्येक वर्ग में अंग्रेजों के प्रति अविश्वास की भावना उत्पन्न हुई और वे व्यापक विद्रोह के सूत्रधार बन गए.
क्रांति का संगठन
1857 की क्रांति के संबंध में यह कहा जाता है कि इसमें संगठन का अभाव था. इस क्रांति के लिए उद्देश्य, निश्चित समय, प्रचार, तैयारी, एकता, नेतृत्व से लेकर गांवों तक सम्प्रेषित किया गया था. संवाद प्रेषण के लिए कमल आदि प्रतीकों का प्रयोग किया गया था.
उद्देश्य
1857 की क्रांति का उद्देश्य निश्चित और स्पष्ट था. अंग्रेजों को देश से निकालना और भारत को स्वाधीन कराना क्रांतिकारियों का अंतिम लक्ष्य था. यह कहना कि इस क्रांति में भाग लेने वाले सैनिकों, जमींदारों या छोटे-मोटे शासकों के निजी हित थे, क्रांति के महत्त्व को कम करने की कोशिश है. वस्तुतः यह विद्रोह एकता पर आधारित और अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध था.
समय
सम्पूर्ण देश में क्रांति की शुरूआत का एक ही समय निर्धारित किया गया था और वह था 31 मई 1857 का दिन. जे.सी. विल्सन ने इस तथ्य को स्वीकार किया था और कहा था कि प्राप्य प्रमाणों से मुझे पूर्ण विश्वास हो चुका है कि एक साथ विद्रोह करने के लिए 31 मई, 1857 का दिन चुना गया था. यह संभव है कि कुछ क्षेत्रों में विद्रोह का सूत्रपात निश्चित समय के बाद हुआ हो. किन्तु, इस आधार पर यह आक्षेप नहीं किया जा सकता कि 1857 की क्रांति के सूत्रपात के लिए कोई निश्चित समय निर्धारित नहीं किया गया था.
क्रांति की शुरूआत
1857 की क्रांति का सूत्रपात मेरठ छावनी के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिक मंगल पाण्डे ने किया. 29 मार्च, 1857 को नए कारतूसों के प्रयोग के विरुद्ध मंगल पाण्डे ने आवाज उठायी. ध्यातव्य है कि अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सेना के उपयोग के लिए जिन नए कारतूसों को उपलब्ध कराया था. उनमें सूअर और गाय की चर्बी का प्रयोग की आशंका काफी बलवती थी. छावनी के भीतर मंगल पाण्डे को पकड़ने के लिए जो अंग्रेज अधिकारी आगे बढ़े, उसे मौत के घाट उतार दिया. 8 अप्रैल, 1857 ई. को मंगल पाण्डे को फांसी की सजा दी गई. उसे दी गई फांसी की सजा की खबर सुनकर सम्पूर्ण देश में क्रांति का माहौल स्थापित हो गया.
6 मई, 1857 को भारतीय सैनिकों ने फिर नए कारतूसों के प्रयोग का विरोध किया. विरोध करने वाले सेनिकों को दस वर्षों के कैद की सजा मिली. सैनिकों से हथियार छीन लिए गए. हथियार छीने जाने को मेरठ में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी अपमान का विषय समझा. ऐसी स्थिति में सैनिकों के लिए अंग्रेजों से बदला लेना परम कर्त्तव्य हो गया.
इसलिए, मेरठ के सैनिकों ने 10 मई, 1857 ई. को ही विद्रोह कर दिया. मेरठ में मिली सफलता से उत्साहित सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े. दिल्ली आकर क्रांतिकारी सेनिकों ने कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी और दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया. इसी समय अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में भी स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी थी.
1857 का विद्रोह – दिल्ली अध्याय
विद्रोह का आरंभ 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में हुआ. सिपाहियों ने अपने अधिकारियों पर गोली चलाई और अपने साथियों को मुक्त करवा कर दिल्ली की ओर कूच किया. 11 मई, 1857 को जब मेरठ के विद्रोही सैनिक दिल्ली पहुँचे, तो सबसे पहले उन्होंने दिल्ली के कोतवाली और अन्य अंग्रेज़ अधिकारियों पर हमला किया. उस समय अंग्रेज़ों की दिल्ली में सैन्य उपस्थिति बहुत कम थी.
दिल्ली पर अधिकार के साथ ही विद्रोहियों ने लाल किले को अपना मुख्यालय बनाया और बहादुरशाह ज़फ़र (बहादुरशाह द्वितीय) को पुनः “भारत का सम्राट” घोषित किया. हालाँकि यह केवल प्रतीकात्मक नेतृत्व था. बख़्त खाँ, जो मेरठ से आए तोपख़ाने के सूबेदार थे, को दिल्ली के सैनिकों का मुख्य सेनापति नियुक्त किया गया. उन्होंने विद्रोहियों को संगठित करने का प्रयास किया, किंतु राजनैतिक और सामरिक असहमति बनी रही.
दिल्ली में विद्रोहियों को एक ओर आपूर्ति की कमी (खाद्य सामग्री, गोला-बारूद) और दूसरी ओर समन्वय की कमी का सामना करना पड़ा. यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुई. अंग्रेज़ों ने विद्रोह को कुचलने के लिए पंजाब और उत्तर-पश्चिम से सेना भेजी. सितंबर 1857 तक दिल्ली को घेर लिया गया.
14 सितंबर, 1857 को अंग्रेज़ों ने कश्मीरी गेट (Kashmiri Gate) से दिल्ली में प्रवेश कर निर्णायक हमला किया. भीषण संघर्ष के बाद अंग्रेज़ों ने 20 सितंबर, 1857 को लाल किले पर कब्ज़ा कर लिया. इस लड़ाई में अंग्रेज़ अधिकारी जॉन निकोलसन गंभीर रूप से घायल हुआ और बाद में उसकी मृत्यु हो गई.
दिल्ली के पुनः अधिकार के बाद अंग्रेज़ों ने व्यापक हत्याकांड किया. हजारों सैनिकों और नागरिकों को मार डाला गया. दिल्ली लगभग वीरान कर दी गई. बहादुरशाह द्वितीय को अंग्रेज़ों ने हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार किया. गिरफ्तारी में उनकी पत्नी ज़ीनत महल की सूचना निर्णायक रही.
अंग्रेज़ अधिकारी विलियम हडसन ने बहादुरशाह के दो पुत्रों – मिर्ज़ा मुगल और मिर्ज़ा खिज़र सुल्तान – तथा पौत्र मिर्ज़ा अबू बकर को धोखे से गोली मार दी. बहादुरशाह ज़फ़र पर अंग्रेज़ों ने मुकदमा चलाकर उन्हें देशद्रोही ठहराया और उन्हें रंगून (बर्मा) निर्वासित कर दिया, जहाँ 1862 में उनकी मृत्यु हो गई.
दिल्ली का पतन विद्रोह के लिए मनोवैज्ञानिक झटका था. क्योंकि दिल्ली भारतीयों के लिए न केवल राजनीतिक बल्कि सांस्कृतिक और भावनात्मक केंद्र भी थी.
1857 का विद्रोह – लखनऊ अध्याय
अवध (Awadh) अंग्रेज़ों द्वारा 1856 में जबरन विलय (Doctrine of Lapse के बजाय “दुरुपयोग के आरोप” के आधार पर) किया गया था. इससे यहाँ के ज़मींदारों, किसानों और दरबारियों में असंतोष पहले से ही चरम पर था. यही कारण था कि लखनऊ विद्रोह का एक बड़ा केंद्र बना. विद्रोह की शुरुआत में बेग़म हज़रत महल ने सक्रिय भूमिका निभाई. उन्होंने अपने छोटे पुत्र बिरजिस कादिर को गद्दी पर बैठाकर स्वयं सत्ता संचालन किया. उनकी अपील पर अवध के कई तालुकेदार और आम जनता विद्रोह में शामिल हो गए.
लखनऊ में स्थित ब्रिटिश रेज़िडेंसी विद्रोहियों का प्रमुख निशाना बनी. लगभग 87 दिन तक (जुलाई से सितंबर 1857) यहाँ अंग्रेज़ों ने घेरा झेला, जिसे इतिहास में Lucknow Residency Siege कहा जाता है. रेज़िडेंसी की घेराबंदी के दौरान ही हेनरी लॉरेंस तोपों की मार से घायल होकर मारे गए. उनका अंतिम संदेश था – “Save the Residency”.
30 जून, 1857 को चिनहट (Chinhat) की लड़ाई हुई, जहाँ विद्रोहियों ने तात्या टोपे और मौलवी अहमदुल्ला शाह के नेतृत्व में अंग्रेज़ सेना को बुरी तरह हराया. इस युद्ध में अंग्रेज़ सेनापति हेवलॉक को पीछे हटना पड़ा. इस संघर्ष में कर्नल नील, जिसने कानपुर में विद्रोहियों पर निर्ममता दिखाई थी, बाद में लखनऊ में विद्रोहियों द्वारा मार दिया गया.
बेग़म हज़रत महल ने जनता से अपील की थी कि वे अंग्रेज़ों की “ईसाईकरण नीति” और “धर्म-विरोधी कदमों” का विरोध करें. उन्होंने स्थानीय हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों को एकजुट करने की कोशिश की. अंततः, विद्रोह को दबाने के लिए सर कॉलिन कैंपबेल (Colin Campbell) को भेजा गया. मार्च 1858 में अंग्रेज़ों ने लखनऊ पर पुनः अधिकार कर लिया.
लखनऊ विद्रोह की एक खासियत यह थी कि यहाँ विद्रोह को स्थानीय जनता और धार्मिक नेताओं का व्यापक समर्थन मिला. मौलवी अहमदुल्ला शाह इस आंदोलन के प्रमुख मुस्लिम नेता थे, जिन्होंने विद्रोह की रणनीति बनाने और जनता को प्रेरित करने में अहम भूमिका निभाई.
लखनऊ की हार के बाद बेग़म हज़रत महल नेपाल चली गईं, जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ प्रतिरोध जारी रखा. 1879 में उनकी मृत्यु नेपाल में हुई. लखनऊ का पतन अवध क्षेत्र में विद्रोह की समाप्ति का प्रतीक था, किंतु यह विद्रोह की सबसे संगठित और लंबे समय तक चलने वाली लड़ाइयों में गिना जाता है.
1857 का विद्रोह – कानपुर अध्याय
कानपुर विद्रोह की शुरुआत 5 जून 1857 को हुई और जल्द ही यहाँ अंग्रेज़ी सत्ता पूरी तरह ढह गई. नाना साहब पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे. अंग्रेज़ों ने उन्हें पेशवाई का अधिकार और पेंशन देने से इनकार कर दिया था, जिससे उनमें गहरा आक्रोश था. यही उनके विद्रोह में सक्रिय होने का प्रमुख कारण था. तात्या टोपे (रामचंद्र पांडुरंग) नाना साहब के सेनापति बने. उनकी सैन्य रणनीति और युद्धकौशल ने विद्रोह को संगठित रूप दिया.
कानपुर की सबसे भीषण घटना “सतीचौरा घाट नरसंहार” थी. इसमें अंग्रेज़ कैदियों को सुरक्षित निकलने का आश्वासन दिया गया, किंतु बीच रास्ते उन पर हमला कर दिया गया. इस घटना ने अंग्रेज़ों को विद्रोहियों के प्रति और अधिक क्रूर बना दिया.
नाना साहब की सभा में आज़ादी के नारों और मुग़ल बादशाह बहादुरशाह द्वितीय के नाम पर सिक्के जारी किए गए. दिसंबर 1857 में अंग्रेज़ सेनापति कॉलिन कैंपबेल ने कानपुर पर पुनः अधिकार कर लिया. नाना साहब अंततः नेपाल चले गए, जहाँ उनका आगे का जीवन रहस्यमय रहा. उनकी मृत्यु के बारे में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है.
1857 का विद्रोह – झाँसी अध्याय
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी (1828) में हुआ था. उनकी शादी झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुई थी. अंग्रेज़ों ने Doctrine of Lapse (दत्तक नीति) के तहत 1854 में झाँसी का विलय कर लिया था. यह रानी के आक्रोश का मुख्य कारण बना. जून 1857 में झाँसी विद्रोहियों ने अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या कर रानी के नेतृत्व में झाँसी को स्वतंत्र कर लिया. रानी ने महिलाओं और बच्चों तक को युद्ध के लिए तैयार किया. उनकी सेना में महिला सैनिकों का भी दल था.
मार्च 1858 में अंग्रेज़ सेनापति ह्यूरोज़ (Sir Hugh Rose) ने झाँसी पर आक्रमण किया. तीव्र युद्ध के बाद किला टूट गया. रानी किले से घोड़े पर बैठकर निकल गईं और ग्वालियर पहुँचीं, जहाँ उन्होंने सिंधिया से सहयोग की अपील की. 17 जून, 1858 को ग्वालियर के पास काँट की सराय में अंग्रेज़ सेना से लड़ते हुए वह वीरगति को प्राप्त हुईं.
अंग्रेज़ जनरल ह्यूरोज़ ने उनकी मृत्यु के बाद कहा था – “भारत की सबसे बहादुर औरत झाँसी की रानी थी.” झाँसी की रानी के साथ तात्या टोपे ने भी ग्वालियर में अंग्रेज़ों के खिलाफ लंबा संघर्ष किया.
तात्या टोपे
तात्या टोपे ने गुरिल्ला युद्धकला अपनाई. वे अचानक हमला कर अंग्रेज़ सेना को हानि पहुँचाते और फिर जंगलों में छिप जाते थे. उन्होंने राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र तक अंग्रेज़ों को परेशान किया. उन्हें ग्वालियर के राजकुमार मानसिंह ने धोखा देकर अंग्रेज़ों के हवाले कर दिया. 18 अप्रैल, 1859 को ग्वालियर में फाँसी देकर उनकी जीवनगाथा समाप्त कर दी गई.
1857 का विद्रोह- बिहार अध्याय
बिहार में विद्रोह का नेतृत्व जगदीशपुर के वृद्ध नेता कुँवर सिंह ने किया. उस समय उनकी उम्र लगभग 80 वर्ष थी. उन्होंने अपनी वीरता से अंग्रेज़ों को कई बार पराजित किया. एक बार युद्ध के दौरान उनका दायाँ हाथ तोप से घायल हो गया. संक्रमण से बचाने के लिए उन्होंने उसी हाथ को तलवार से काटकर गंगा में बहा दिया.
कुँवर सिंह की मृत्यु 1858 में हुई. इसके बाद उनके भाई अमर सिंह ने विद्रोह की कमान संभाली, किंतु अंततः अंग्रेज़ सेनापति विन्सेंट आयर और विलियम टेलर ने विद्रोह को दबा दिया.
1857 का विद्रोह – फ़ैज़ाबाद अध्याय
फ़ैज़ाबाद में विद्रोह का नेतृत्व मौलवी अहमदुल्ला शाह ने किया. उन्हें जनता “फ़ैज़ाबाद का मौलवी” कहती थी. वे धार्मिक नेता होने के साथ-साथ कुशल सेनापति भी थे. उन्होंने हिंदू–मुस्लिम एकता पर ज़ोर दिया और अंग्रेज़ों को ‘धर्म व राष्ट्रद्रोही’ बताया. अंततः अंग्रेज़ सेनापति कॉलिन कैंपबेल ने फ़ैज़ाबाद में विद्रोह को कुचल दिया.
1857 का विद्रोह – इलाहाबाद अध्याय
इलाहाबाद में जून 1857 के प्रारंभ में विद्रोह हुआ. यहाँ मौलवी लियाक़त अली प्रमुख नेता थे. इलाहाबाद के विद्रोहियों ने सरकारी खज़ाने पर कब्ज़ा कर लिया और अंग्रेज़ों को भारी नुकसान पहुँचाया. अंग्रेज़ सेनापति जनरल नील ने यहाँ भीषण दमन-नीति अपनाई. हजारों विद्रोहियों को पकड़कर तुरंत फाँसी दी गई. इस दौरान गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने इलाहाबाद को अस्थायी आपातकालीन मुख्यालय बना लिया, ताकि दिल्ली से पहले यहाँ से शासन चलाया जा सके.
1857 का विद्रोह – बनारस (वाराणसी) अध्याय
बनारस में विद्रोह का स्वरूप मुख्यतः सामान्य जनता का विद्रोह था. यहाँ व्यापारी, कारीगर, साधु–संत और किसानों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन में भाग लिया. विद्रोह की शुरुआत 4 जून, 1857 को हुई. स्थानीय सिपाहियों ने भी जनता का साथ दिया.
अंग्रेज़ सेनापति कर्नल नील ने यहाँ अत्यधिक क्रूर दमन-नीति अपनाई. सैकड़ों लोगों को बिना मुकदमे के फाँसी दे दी गई. यहाँ तक कि महिलाओं और बच्चों को भी मृत्युदंड दिया गया, जो अंग्रेज़ों की निर्दयता का सबसे भयावह उदाहरण था.
विद्रोहियों का कहना था कि अंग्रेज़ हिंदुओं के मंदिर और मुसलमानों की मस्जिदों का अपमान कर रहे हैं, इसलिए यह लड़ाई धर्म और स्वाधीनता दोनों की रक्षा के लिए है.
1857 का विद्रोह – बरेली अध्याय
बरेली में विद्रोह का नेतृत्व खान बहादुर ख़ाँ रोहिल्ला ने किया. उन्होंने खुद को नवाब घोषित किया और अंग्रेज़ शासन से स्वतंत्र प्रशासन स्थापित करने का प्रयास किया. उनके नेतृत्व में बड़ी संख्या में रोहिल्ला अफगानों और स्थानीय जनता ने अंग्रेज़ों को चुनौती दी.
खान बहादुर ख़ाँ ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र के नाम पर सिक्के भी चलवाए. अंततः कॉलिन कैंपबेल ने बरेली के विद्रोह को दबाया. खान बहादुर ख़ाँ को पकड़कर अंग्रेज़ों ने फाँसी की सज़ा दी.
बरेली का विद्रोह इस बात का उदाहरण है कि 1857 केवल सैनिकों का ही नहीं बल्कि स्थानीय शासकों और जनता का भी आंदोलन था.
1857 का विद्रोह – राजस्थान अध्याय
राजस्थान में विद्रोह का प्रमुख केंद्र कोटा (Kota) था. विद्रोह का नेतृत्व जयदयाल और हरदयाल ने किया. कोटा में विद्रोहियों ने ब्रिटिश रेज़ीडेंट मेजर बर्टन और उनके दोनों बेटों की हत्या कर दी. अलवर और करौली जैसे क्षेत्रों में भी विद्रोह की हलचल हुई.
हालांकि अधिकांश बड़े राजपूत शासक (जैसे जयपुर, जोधपुर, उदयपुर के राजा) अंग्रेज़ों के पक्ष में रहे. इससे विद्रोह व्यापक समर्थन प्राप्त नहीं कर सका. अंग्रेज़ों ने कई स्थानीय ठिकानों पर बमबारी कर विद्रोह को कुचल दिया.
1857 का विद्रोह – असम अध्याय
असम में विद्रोह का नेतृत्व मनीराम दत्त बरुआ ने किया. वे असम के अंतिम अहोम शासक के दीवान थे. विद्रोह के दौरान उन्होंने कंदर्पेश्वर सिंघा, जो कि असम के अंतिम राजा का पोता था, को स्वतंत्र शासक घोषित किया.
अंग्रेज़ों ने मनीराम को पकड़कर कलकत्ता (कोलकाता) लाया और वहीं उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया. असम का विद्रोह छोटा अवश्य था, लेकिन यह उत्तर-पूर्व भारत में 1857 की क्रांति की गूँज का महत्वपूर्ण उदाहरण था.
1857 का विद्रोह – उड़ीसा अध्याय
उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा) में विद्रोह का नेतृत्व संबलपुर के राजकुमार सुरेंद्र साई ने किया. सुरेंद्र साई पहले से ही अंग्रेज़ों के विरोध में सक्रिय थे और जनता के बीच उनकी गहरी पैठ थी. 1857 के विद्रोह में उन्होंने स्थानीय आदिवासी समुदायों और किसानों को संगठित कर अंग्रेज़ों को चुनौती दी. उनका संघर्ष केवल 1857 तक सीमित नहीं रहा बल्कि उन्होंने वर्षों तक अंग्रेज़ों को परेशान किया.
1862 में उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया, जिसके बाद अंग्रेज़ों ने उन्हें कैद कर देश से निकाल दिया. सुरेंद्र साई का नाम उड़ीसा के स्वतंत्रता संग्राम के महानायकों में आता है.
इस तरह 1857 का विद्रोह केवल कुछ शहरों तक सीमित नहीं था. बल्कि यह उत्तर भारत से लेकर पूर्वोत्तर और दक्षिण–पूर्व (उड़ीसा) तक फैला हुआ एक राष्ट्रीय स्वरूप का आंदोलन था.
1857 का विद्रोह: एक नजर में

प्रमुख केंद्र | विद्रोह के नेतृत्वकर्ता | ब्रिटिश दमनकर्ता |
दिल्ली | बहादुरशाह जफ़र, बख्त खाँ | जॉन निकोलसन, हडसन |
लखनऊ | बेगम हजरत महल | हेनरी लॉरेंस, कैंपबेल |
कानपुर | नाना साहब, तात्या टोपे | कैंपबेल |
झाँसी, ग्वालियर | रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे | जनरल ह्यूरोज़ |
जगदीशपुर (बिहार) | कुँवर सिंह, अमर सिंह | मेजर विलियम टेलर, वेसेंट आयरे |
फैज़ाबाद | मौलवी अहमदुल्ला | कैंपबेल |
इलाहाबाद, बनारस | लियाकत अली | कर्नल नील |
बरेली | खान बहादुर खाँ | कैंपबेल |
एकता का प्रदर्शन
1857 की क्रांति में हिन्दू और मुसलमानों ने एक साथ मिलकर भाग लिया. क्रांति ने एक-दूसरे का पूरा साथ दिया. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के विरोध में कारण यह था कि अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति को हिन्दुओं और मुसलमानों को तोड़ने में लागू नहीं किया था. फिर, अंग्रेजी सरकार ने जिस नए कारतूस को भारतीय सैनिकों के प्रयोग के लिए दिया था, उसमें गाय और सूअर की चर्बों का उपयोग किया गया था. इससे दोन धर्मों के सैनिकों ने अंग्रेजी सरकार का विरोध किया.
क्रांति का दमन
क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप और भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश सरकार ने निर्ममतापूर्ण दमन की नीति अपनायी. तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएं मंगवायीं. जनरल नील के नेतृत्व वाली सेना ने बनारस और इलाहाबाद में क्रांति को जिस प्रकार से कुचला, वह पूर्णतः अमानवीय था. निर्दोषों को भी फांसी की सजा दी गई.
दिल्ली में बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लेने के बाद नरसंहार शुरू हो गया था. फुलवर, अम्बाला आदि में निर्ममता के साथ लोगों की हत्या करवायी. सैनिक नियमों का उल्लंघन कर कैदी सिपाहियों में से अनेकों को तोप के मुंह पर लगाकर उड़ा दिया गया. पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिन्दा जला दिया गया.
अंग्रेजों ने केवल अपनी सैन्य शक्ति के सहारे ही क्रांति का दमन नहीं किया बल्कि उन्होंने प्रलोभन देकर बहादुरशाह को गिरफ्तार करवा लिया, और उसके पुत्रों की हत्या करवादी, सिक्खों और मद्रासी सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया. वस्तुतः, क्रांति के दमन में सिक्ख रेजिमेण्ट ने यदि अंग्रेजी सरकार की सहायता नहीं की होती तो अंग्रेजी सरकार के लिए क्रांतिकारियों को रोक पाना टेढ़ी-खीर ही साबित होता. क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी सहायता मिली कि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय में क्रांति ने जोर पकड़ा था.
क्रांति की असफलता के कारण
क्रांतिकारियों ने जिस उद्देश्य से 1857 की क्रांति का सूत्रपात किया था, उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली. उन्होंने सोचा था कि अंग्रेजों को बाहर खदेड़ कर भारत की स्वाधीन कर देंगे. परन्तु, क्रांति के दमन के बाद अंग्रेजों ने ऐसी नीति अपनायी कि 90 और वर्षों तक भारतीयों को गुलाम बनाए रखने में सफल रहे. इस महान् क्रांति की असफलता के अनेक कारण थे, जिनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-
निश्चित समय की प्रतीक्षा न करना
1857 की क्रांति की देशव्यापी शुरूआत के लिए 31 मई 1857 का दिन निर्धारित किया गया था. एक ही दिन क्रांति शुरू होने पर उसका व्यापक प्रभाव होता. परन्तु, सैनिकों ने आक्रोश में आकर निश्चित समय के पूर्व 10 मई, 1857 को ही विद्रोह कर दिया. सैनिकों की इस कार्यवाही के कारण क्रांति की योजना अधूरी रह गयी.
निश्चित समय का पालन नहीं होने के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में क्रांति की शुरूआत अलग-अलग दिनों में हुई. इससे अंग्रेजों को क्रांतिकारियों का दमन करने में काफी सहायता हुई. अनेक स्थानों पर तो 31 मई की प्रतीक्षा कर रहे सैनिकों के हथियार छीन लिए गए. यदि सभी क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात एक साथ हुआ होता, तो तस्वीर कुछ और ही होती.
देशी राजाओं का देशद्रोही रूख
1857 की क्रांति का दमन करने में अनेक देशी राजाओं ने अंग्रेजों की खुलकर सहायता की. पटियाला, नाभा, जीद, अफगानिस्तान और नेपाल के राजाओं ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता के साथ-साथ आर्थिक सहायता भी की. देशी राजाओं की इस देशद्रोहितापूर्ण भूमिका ने क्रांतिकारियों का मनोबल तोड़ा और क्रांति के लिए अंग्रेजी सरकार को प्रोत्साहित किया.
साम्प्रदायिकता का खेल
1857 ई. की क्रांति के दौरान अंग्रेजी सरकार हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाने में तो सफलता प्राप्त नहीं कर सकी, परन्तु आंशिक रूप से ही सही साम्प्रदायिकता का खेल खेलने में सफल रही. साम्प्रदायिक भावनाओं को उभर कर ही अंग्रेजी सरकार ने सिक्ख रेजिमेंट और मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया. मराठों, सिक्खों और गोरखों को बहादुरशाह के खिलाफ खड़ा कर दिया गया. उन्हें यह महसूस कराया गया कि बहादुरशाह के हाथों में फिर से सत्ता आ जाने पर हिन्दुओं और सिक्खों के अत्याचार होगा.
इसका मूल कारण था कि सम्पूर्ण पंजाब में बादशाह के नाम झूठा फरमान अंग्रेजों की ओर से जारी किया गया, जिसमें कहा गया था कि लड़ाई में जीत मिलते ही प्रत्येक सिक्ख का वध कर दिया जाएगा. सैनिकों के साथ-साथ जनसाधारण को ही गुमराह किया गया. इस स्थिति में क्रांति का असफल हो जाना निश्चित हो गया. जब देश के भीतर देशवासी ही पूर्ण सहयोग न दें, तो कोई भी क्रांति सफलता प्राप्त नहीं कर सकती.
सम्पूर्ण देश में प्रसारित न होना
1857 ई. की क्रांति का प्रसार सम्पूर्ण भारत में नहीं हो सका था. सम्पूर्ण दक्षिण भारत और पंजाब का अधिकांश हिस्सा इस क्रांति से अछूता रहा. यदि इन क्षेत्रों में क्रांति का विस्तार हुआ होता, तो अंग्रेजों को अपनी शक्ति को इधर भी फैलाना पड़ता और वे पंजाब रेजिमेण्ट तथा मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में करने में असफल रहते.
शस्त्रास्त्रों का अभाव
क्रांति का सूत्रपात तो कर दिया गया, किन्तु आर्थिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण क्रांतिकारी आधुनिक शस्त्रास्त्रों का प्रबंध करने में असफल रहे. अंग्रेजी सेना ने तोपों और लम्बी दूरी तक मार करने वाली बंदूकों का प्रयोग किया, जबकि क्रांतिकारियों को तलवारों और भालों का सहारा लेना पड़ा. इसलिए, क्रांति को कुचलने में अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई.
सहायक साधनों का अभाव
सत्ताधारी होने के कारण रेल, डाक, तार एवं परिवहन तथा संचार के अन्य सभी साधन अंग्रेजों के अधीन थे. इसलिए, इन साधनों का उन्होंने पूरा उपयोग किया. दूसरी ओर, भारतीय क्रांतिकारियों के पास इन साधनों का पूर्ण अभाव था. क्रांतिकारी अपना संदेश एक स्थान से दूसरे स्थान तक शीघ्र भेजने में असफल रहे. सूचना के अभाव के कारण क्रांतिकारी संगठित होकर अभियान बनाने में असफल रहे. इसका पूरा-पूरा फायदा अंग्रेजों को मिला और अलग-अलग क्षेत्रों में क्रांति को क्रमशः कुचल दिया गया.
सैनिक संख्या में अंतर
एक तो विद्रोह करने वाले भारतीय सैनिकों की संख्या वैसे ही कम थी, दूसरे अंग्रेजी सरकार द्वारा बाहर से भी अतिरिक्त सैनिक मंगवा लिया गया था. उस समय कम्पनी के पास वैसे 96,000 सैनिक थे. इसके अतिरिक्त देशी रियासतों के सैनिकों से भी अंग्रेजों को सहयोग मिला. अंग्रेज सैनिकों को अच्छी सैनिक शिक्षा मिली थी और उनके पास अधुनातन शस्त्रास्त्र थे, परन्तु अपने परंपरागत हथियारों के साथ ही भारतीय क्रांतिकारियों ने जिस संघर्ष क्षमता का परिचय दिया, उससे कई स्थलों पर अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गए. फिर भी, अंततः सफलता अंग्रेजों के हाथों ही लगी.
क्रांति के परिणाम
1857 ई. की क्रांति अपने तत्कालीन लक्ष्य की दृष्टि से असफल रही, परन्तु इस क्रांति ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए मार्ग प्रशस्त किया. इस क्रांति के परिणाम अच्छे और बुरे दोनों हुए. क्रांति का परिणाम अंग्रेजों और भारतीयों के लिए अलग-अलग हुआ. 1857 ई. की क्रांति के जो परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में गए, उनमें प्रमुख हैं-
सत्ता का हस्तांतरण
क्रांति के बाद भारत में सत्ता ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकलकर ब्रिटिश सरकार के हाथों में चली गयी. इसके लिए भारत शासन अधिनियम, 1858 पारित हुआ. अब भारत का शासन प्रत्यक्षतः ब्रिटिश नीति से होने लगा.
ऐसा करने से कम्पनी द्वारा शासन-व्यवस्था के लिए संगठित बोर्ड ऑफ कंट्रोल, द कोर्ट ऑफ प्रोपराइट्स तथा द कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का विघटन हो गया. इनके स्थान पर द सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया (भारत सचिव) के रूप में नए पद का सृजन किया गया. इस सचिव की सहायता के लिए इंग्लैंड में एक परिषद का भी गठन किया गया.
अब भारत का गवर्नर जनरल ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधि बन गया और इसे वायसराय कहा जाने लगा. ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने भारत में अच्छे शासन-प्रबंध की स्थापना के लिए कदम उठाए जाने की घोषणा की. महारानी की इस घोषणा से भारतीयों का रोष एवं असंतोष कुछ समयों के लिए ठंढा पड़ गया.
सतर्कता में वृद्धि
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने सेना और सैन्य सामग्रियों पर एकाधिकार कर लिया, जिससे भविष्य में भारतीय सैनिकों की ओर से उनके लिए कोई खतरा न उत्पन्न हो. इस समय से यह भी निश्चय किया गया कि किसी भी भारतीय को उच्च सैनिक पद प्रदान नहीं किया जाएगा. अंग्रेजों को इस नीति को क्रियान्वित करने से काफी समय तक सुरक्षित रहने का अवसर प्राप्त हुआ.
शस्त्रास्त्र पर प्रतिबंध
अंग्रेजी सरकार ने भारत की साधारण जनता के बीच अस्त्र-शस्त्र रखने की मनाही कर दी. इससे भारतीयों की आक्रामक शक्ति को पूर्ण रूप से पंगु बना दिया गया. दुर्भाग्यवश भारत के धन से अंग्रेजी सरकार की सेना अधुनातन शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित हो गई और भारत का जनसाधारण अपनी आत्मसुरक्षा के लिए पारम्परिक शस्त्रास्त्रों को रखने से भी वंचित हो गया.
देशी राजाओं से मित्रता
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार ने देशी राजाओं के साथ फिर से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किए. देशी राजाओं के साथ विरोध की नीति अपनाने की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी थी. आगे फिर कोई करने और इसका लाभ उठाने का मार्ग अपनाया. इसी नीति को ध्यान में रखकर ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने 1 नवम्बर, 1858 को देशी राजाओं का पूर्ण सम्मान किए जाने की घोषणा की.
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में वृद्धि
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार ने ऐसी शिक्षा-पद्धति को लागू किए जाने को प्रोत्साहित किया, जिससे भारतीय अपने धर्म और संस्कृति को भूल जाएं तथा पाश्चात्य संस्कृति की ओर आकृष्ट हों. पाश्चात्य देशों के वैचारिक आंदोलन से भारत के लोगों को नयी प्रेरणा मिली तथा वे लाभान्वित भी हुए, पर उन देशों की आडम्बरपूर्ण जीवन-पद्धति से भारतीयों का चरित्र-बल भी समाप्त होने लगा. भारत के लोगों के साथ ऐसा होना अंग्रेजों के लिए सुखदायक था.
भारतीयों से दूरी में वृद्धि
अंग्रेजों ने भारत में आरम्भ से गोरे और काले के आधार पर श्रेष्ठता और हीनता की भावना फैला रखी थी. 1857 की क्रांति के बाद तो प्रत्येक अंग्रेज भारतीयों से सावधान और अलग-थलग रहने लगा. अंग्रेजों को ऐसा महसूस होने लगा कि भारतीयों से दूरी बनाए रखना ही उनके हित में है, क्योंकि नजदीक आने से भारतीय अंग्रेजों के भेड़ों को जन लेंगें और उन्हें परेशान करने लगेंगे. क्रांति के दौरान अंग्रेज सतर्क हो गए और उस सतर्कता को उन्होंने लगभग हमेशा बनाए रखा.
सरकार की नीति में परिवर्तन
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के अंतिम दौर में भारत में कठोर एवं दमनात्मक नीति को अपनाया गया था. 1857 की क्रांति को देखकर अंग्रेजी सरकार भारतीयों के विचार पर भी ध्यान देने लगी. सरकार ऐसा अनुभव किया कि भारतीयों की पूर्णरूपेण उपेक्षा से परेशानियां बढ़ेगी. भारतीयों के हित में तो सरकार की ओर से कोई कदम नहीं उठाया गया, पर अनेक प्रकार के आश्वासन अवश्य दिए जाने लगे.
1857 के विद्रोह का भारतीय जनमानस पर प्रभाव
1857 की क्रांति के कुछ परिणाम भारतीयों के पक्ष में भी रहे. भारतीयों के पक्ष में जो सकारात्मक परिणाम सामने आए, वे हैं-
आत्मबल में वृद्धि
1857 की क्रांति अपने लक्ष्य को तत्काल प्राप्त करने में असमर्थ रही. परन्तु, इस क्रांति ने भारतीयों के आत्मबल में वृद्धि की और उनकी सुसुप्त चेतना को स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए जागृत किया. अब भारतीयों में जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया. इस समय से एक जागृत भारत का अभ्युदय हुआ.
राजनीतिक जागृति
लंबी पराधीनता और शासकों को अपराजेय मानने की धारणा ने भारतीयों में आलस्य भर दिया था. पराधीनता को भारतीयों ने अपनी नियति मान ली थी. परन्तु, 1857 की क्रांति ने भारतीयों के शीतित रक्त को फिर से खौला दिया. क्रांति के बाद भारतीयों को ऐसा महसूस हुआ कि जोर लगाने पर स्वशासन की प्राप्ति आसानी से हो सकती है.
संगठन की प्रेरणा
यद्यपि 1857 की क्रांति को संगठित स्वरूप प्रदान की पूर्ण कारण मनोवांछित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी थी. व्यापक संगठन के अभाव के कारण ही क्रांति को कुचल दिया गया था. इसलिए, इस क्रांति से आगे के क्रांतिकारियों को व्यापक संगठन की प्रेरणा प्राप्त हुई. 1857 ई. की क्रांति से प्रेरणा पाकर ही आगे के वर्षों में अनेक क्रांतिकारी आंदोलनों का संचालन संभव हो सका.
एकता की प्रेरणा
1857 की असफलता का कारण सम्पूर्ण भारतवासियों में एकता का अभाव भी था. सिक्ख और दक्षिण भारतीय क्रांति के विरुद्ध थे तथा अनेक देशी रियासतों के शासकों ने अंग्रेजों की सहायता की थी. जिन क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात हुआ, वहां भी सभी वर्गों ने मिलकर अंग्रेजों का विरोध नहीं किया. एकता ही राष्ट्रीयता का मूल मंत्र है- इस तथ्य की ओर भारतीयों का ध्यान क्रांति के असफल हो जाने के बाद गया. अब उन्होंने ऐसा महसूस किया कि एक साथ चलकर ही आगे बढ़ा जा सकता है और लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त की जा सकती है.
स्वतंत्रता आंदोलन की नयी दृष्टि
1857 की क्रांति का जिस निर्ममता के साथ अंग्रेजी सरकार ने दमन किया था, उससे उसका असली चेहरा भारतीयों के सामने उजागर हुआ. अंग्रेजों के क्रूरतापूर्ण व्यवहार को देखने के बाद भारतवासियों ने अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का संकल्प लिया. इस क्रांति से स्वतंत्रता आंदोलन को भविष्य में एक नयी दृष्टि मिली. विद्रोह के बदले असहयोग का मार्ग होता.
शासन और शस्त्रास्त्र का नियंत्रण अंग्रेजी सरकार के हाथों में था और किसी भी प्रकार के विद्रोह का गला घोंट देने की क्षमता उसमें थी, इसलिए क्रांति के बाद विद्रोह का रास्ता छोड़ने की प्रेरणा मिली.
1857 का विद्रोह- स्वतंत्रता संघर्ष अथवा सैनिक विद्रोह?
वर्ष 1857 का विद्रोह शताब्दियों से शोषित, प्रताड़ित एवं उपेक्षित भारतीय जन-समूह की स्वतंत्रता प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा का प्रतीक है. 1857 ई. में हुए इस विद्रोह के सम्पूर्ण घटनाक्रम पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि यह एक राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत स्वतंत्रता संघर्ष था, परन्तु कुछ अंग्रेज इतिह्रासकारों और उनके समर्थक इतिह्रासकारों द्वारा इसे ‘सैनिक विद्रोह’ अथवा ‘गदर’ की संज्ञा प्रदान कर इसके महत्त्व को कम करने की कोशिश की जाती है.
फ्रेड राबर्ट्स, एडवर्ड्स टॉमप्सन विलियम, जी.टी. गैरेट, सर जॉन सिले, जेम्स आऊट्रम, विलियम हॉवर्ड रसेल, जी.बी. मैल्लेसन आदि पाश्चात्य इतिह्रासकारों के साथ-साथ रमेशचन्द्र मजूमदार, सुरेन्द्रनाथ सेन, हरिप्रसाद चट्टोपाध्याय, पूरनचंद जोशी आदि भृत्य इतिह्रास में 1857 के विद्रोह को सैनिकों द्वारा छोटे स्तर पर किए गए विद्रोह के रूप में व्याख्यायित करते हैं. इनका मानना है कि 1857 के विद्रोह में राष्ट्रीयता की भावना का सर्वथा अभाव था.
दूसरी ओर, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, विनायक दामोदर सावरकर, एस.ए.ए. रिजवी, बेंजामिन डिजरैली, जस्टिस मेकार्थी, जॉन ब्रूस नोर्टन, विपिनचंद्र आदि जैसे- इतिह्रासकार 1857 के विद्रोह को भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रथम संघर्ष की संज्ञा दी है. इनका मानना है कि वर्ष 1857 का आन्दोलन जन-जीवन से सम्पृक्त, भारत से विदेशी आततायियों को निकालने के उद्देश्य से संबद्ध तथा एक संगठित और सुनियोजित कार्यक्रम था.
1857 का संग्राम यदि सैनिक विद्रोह मात्र था, तो उसमें सिर्फ सैनिकों ने ही भाग क्यों नहीं लिया? मेरठ से उठी क्रांति की लहर ने दो दिनों के भीतर ही दिल्ली को भी अपनी चपेट में ले लिया. वस्तुतः, विद्रोह में ग्रामीण और शहरी जनता सम्मिलित थी. हां, क्रांति की शुरूआत सैनिकों ने की थी.
वर्ष 1857 के विप्लव में क्रुद्ध सिपाहियों के साथ-साथ अंग्रेजों के अत्याचार से क्षुब्ध जनसाधारण ने भी सक्रिय रूप से भाग लिया था. इसलिए, इसे मात्र ‘सैनिक विद्रोह’ की संज्ञा देना युक्तिसंगत नहीं है. डॉ. आर.सी. मजूमदार का यह कहना कि “तथाकथितं 1857 का प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम था” सर्वथा अतिशयोक्तिपूर्ण और सत्यता से परे है.
स्वतंत्रता की भावना से उद्वेलित हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों का सम्मिलित होकर विदेशियों को अपने देश से निकालने का पहला प्रयास 1857 ई. में ही हुआ. इसलिए, 1857 की क्रांति को भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम का प्रथम उद्घोष कहना सर्वथा युक्तिसंगत है.
1857 के विद्रोह के बारे में इतिहासकारों के मत
- यह धर्माधों का ईसाईयों के विरुद्ध एक धर्मयुद्ध था- एल.ई.आर. रीज
- यह राष्ट्रीय विद्रोह था, न कि सिपाही विद्रोह – बेंजामिन डिजरैली
- 1857 का विद्रोह न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय था और यह न ही स्वतंत्रता संग्राम था. – आर. सी. मजूमदार
- यह पूर्णतया देशभक्ति रहित और स्वार्थी सिपाही विद्रोह था. – सीले
- यह सिपाही विद्रोह के अतिरिक्त कुछ नहीं था – जॉन लॉरेंस
- यह सभ्यता एवं बर्बरता का संघर्ष था. – टी.आर. होम्स
- यह विद्रोह राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिये लड़ा गया सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम था. – वी.डी. सावरकर
- यह अंग्रेज़ों के विरुद्ध हिंदू व मुसलमानों का षड्यंत्र था. – जेम्स आउट्रम व डब्ल्यू. टेलर
1857 के विद्रोह से संबंधित प्रमुख पुस्तकें एवं उनके लेखक
- ‘द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेस 1857’ – वी. डी. सावरकर
- ‘द पीजेंट एंड द राज’ – एरिक थॉमस स्टोक्स
- ‘1857 द ग्रेट रिवोल्ट’ – अशोक मेहता
- ‘द सिपॉय म्यूटिनी एंड रिवोल्ट ऑफ 1857’- आर. सी. मजूमदार
- ‘सिविल रिबेलियन इन इंडियन म्यूटिनीस 1857-1859’ – शशि भूषण चौधरी
- ‘द हिस्ट्री ऑफ द सिपॉय वॉर इन इंडिया’ – जॉन विलियम काये
- ‘द फर्स्ट इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस’ 1857-1859 – कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स
- द कॉजेज ऑफ द इंडियन रिवोल्ट (1858) – सर सैय्यद अहमद खाँ
- ‘द सिपॉय म्यूटिनी ऑफ 1857’ ए सोशल एनालिसिस – एच.पी. चट्टोपाध्याय
- ‘1857’ – एस.एन.सेन
स्मरणीय तथ्य (Important Facts)
- फैज़ाबाद के मौलवी अहमदुल्ला ने अंग्रेजों के विरुद्ध फतवा जारी किया और जिहाद का नारा दिया. अंग्रेजों ने इनके ऊपर 50 हज़ार रुपये का इनाम घोषित किया था.
- मौलवी अहमदुल्ला मूलतः मद्रास के रहने वाले थे.
- विद्रोह के समय एक झंडा गीत की रचना हुई थी, जिसे अजीमुल्ला ने लिखा था.
- लंदन टाइम्स के पत्रकार ‘माइकल रसेल‘ ने इस विद्रोह का सजीव वर्णन किया.
- बंगाल, पंजाब, राजपूताना, पटियाला, जींद, हैदराबाद, मद्रास आदि ऐसे क्षेत्र थे, जहाँ पर विद्रोह नहीं फैला. यहाँ के शासक व ज़मींदार वर्ग ने विद्रोह को कुचलने में ब्रिटिशों की सहायता भी की थी.
- 1857 के विद्रोह में अवध में इस तरह जनता ने भाग लिया कि यह स्वतंत्रता संग्राम जैसा प्रतीत होने लगा.
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1857 के विद्रोह पर 5 अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
Q1: 1857 के विद्रोह में पहली बार हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रदर्शन किस घटना में हुआ था?
Ans: 1857 के विद्रोह में पहली बार हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रदर्शन दिल्ली पर कब्जा करने के बाद हुआ था, जब मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को विद्रोह का नेता घोषित किया गया. विद्रोहियों ने मुगल साम्राज्य के प्रतीकात्मक महत्व को समझा और विभिन्न समुदायों को एकजुट करने के लिए उनका समर्थन मांगा. इस दौरान, हिंदू और मुस्लिम सैनिकों ने मिलकर लड़ाई लड़ी और धार्मिक सद्भाव का एक अनूठा उदाहरण पेश किया.
Q2: क्या 1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारणों में केवल चर्बी वाले कारतूस ही थे?
Ans: नहीं, चर्बी वाले कारतूस 1857 के विद्रोह का केवल तात्कालिक कारण थे. इसके पीछे कई दीर्घकालिक कारण भी थे, जिनमें अंग्रेजों की शोषणकारी आर्थिक नीतियां, भारतीय उद्योगों का पतन, धार्मिक हस्तक्षेप (जैसे ईसाई धर्म का प्रचार), और सामाजिक सुधारों के नाम पर भारतीयों की परंपराओं को चुनौती देना शामिल था. इन सभी कारकों ने मिलकर असंतोष को बढ़ाया, और चर्बी वाले कारतूस ने केवल चिंगारी का काम किया.
Q3: 1857 के विद्रोह को ‘सिपाही विद्रोह’ कहना क्यों गलत है?
Ans: 1857 के विद्रोह को ‘सिपाही विद्रोह’ कहना इसलिए गलत है क्योंकि यह सिर्फ सैनिकों तक सीमित नहीं था. इसमें किसानों, दस्तकारों, जमींदारों और यहां तक कि कुछ रियासतों के शासकों ने भी भाग लिया था. यह एक व्यापक जन-विद्रोह था जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों ने अपनी-अपनी शिकायतों के कारण अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा संभाला. इसलिए, इसे ‘भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम’ या ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ कहना अधिक सटीक है.
Q4: 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने कौन-कौन से प्रमुख प्रशासनिक बदलाव किए?
Ans: 1857 के विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार ने कई महत्वपूर्ण प्रशासनिक बदलाव किए:
1. कंपनी शासन का अंत: ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया और भारत को सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दिया गया.
2. भारत सरकार अधिनियम, 1858: यह अधिनियम पारित किया गया, जिसके तहत भारत में गवर्नर-जनरल का पद समाप्त कर वायसराय का पद बनाया गया.
3. सेना का पुनर्गठन: भारतीय सैनिकों की संख्या कम की गई और यूरोपीय सैनिकों की संख्या बढ़ाई गई. रेजिमेंटों को जाति और धर्म के आधार पर विभाजित किया गया, जिसे ‘विभाजन और शासन’ की नीति का आधार माना जाता है.
Q5: 1857 के विद्रोह के दमन में किन दो प्रमुख भारतीयों ने अंग्रेजों का साथ दिया?
Ans: 1857 के विद्रोह के दमन में कई भारतीय शासकों ने अंग्रेजों का साथ दिया था, जिनमें प्रमुख थे:
1. हैदराबाद के निजाम: उन्होंने अंग्रेजों को आर्थिक और सैन्य सहायता प्रदान की.
2. पंजाब के सिख शासक: सिख सेना ने दिल्ली और लखनऊ में विद्रोहियों को दबाने में अंग्रेजों की मदद की.
इनके अलावा, ग्वालियर के सिंधिया और नेपाल के राणा जैसे शासकों ने भी अंग्रेजों का समर्थन किया, जिसने विद्रोह को कमजोर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.