बहलोल लोदी या बहलोल खान, मुल्तान के गवर्नर के लिए काम करने वाले मुल्तान के एक पश्तून मूल निवासी मलिक बहराम के पोते थे. बहराम के छोटे बेटे मलिक काला उनके पिता थे. बहलोल बहराम के सबसे बड़े बेटे मलिक सुल्तान शाह लोदी के दामाद भी थे. सुल्तान शाह लोदी ने दिल्ली के सैय्यद वंश के अधीन काम किया और उन्हें पंजाब में सरहिंद का गवर्नर नियुक्त किया गया. बहलोल लोदी ने शम्स खातून और बीबी अम्भा से शादी की थी.
बहलोल लोदी का शासन में उद्भव
बहलोल लोदी का घोड़ों का व्यापार था और एक बार उसने सैयद शासक सुल्तान मुहम्मद शाह को बढ़िया नस्ल के घोड़े बेचे थे. उसे भुगतान के रूप में एक परगना और ‘अमीर’ का दर्जा मिला. बहलोल को सुल्तान की मदद करने का अवसर भी मिला जब मालवा सुल्तान ने उसके क्षेत्र पर आक्रमण किया. इस सफल सैन्य मुठभेड़ के बाद, सुल्तान ने बहलोल को खान-ए-खानन की उपाधि प्रदान की. बहलोल को अपने लिए पंजाब का एक अच्छा हिस्सा भी मिला.
बहलोल ने 1443 में दिल्ली पर हमला किया लेकिन सफल नहीं हुआ. 1447 में एक और प्रयास किया गया, लेकिन यह भी विफल रहा. अंत में, दिल्ली के सैय्यद शासक आलम शाह ने 1448 में उत्तर प्रदेश के बदायूं में जाकर अपना पद त्याग दिया. आलम शाह के मंत्री हामिद खान ने बहलोल को गद्दी पर बैठने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उसने स्वीकार कर लिया.
राज्यारोहण
19 अप्रैल 1451 को बहलोल खान प्रथम लोदी शासक के रूप में दिल्ली की गद्दी पर बैठा और इसके साथ ही सैयद वंश का शासन समाप्त हो गया. कुछ सरदारों की मदद से बहलोल लोदी ने सेना का कार्यभार संभाला (1451- 1484 ई.) तथा सुल्तान बन गया. इस प्रकार उसने लोधीवंश की नींव डाली, जो अफगान के शासक थे. लोधी शासक दिल्ली सल्तनत के आखिरी शासक थे तथा प्रथम अफगानी शासक थे.
बहलोल लोदी की चुनौतियाँ
सुल्तान बहलोल लोदी सक्षम सेनापति था. वह इस सत्य से भलीभांति परिचित था कि सल्तनत पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए उसे अफगान कुलीनों की आवश्यकता पड़ेगी. अफगान अमीर सुल्तान से अपेक्षा करते थे कि वह उनके साथ पूर्ण शासक के बजाय समान सहयोगी जैसा बर्ताव करे. उन्हें प्रसन्न करने के लिए बहलोल ने स्वयं घोषणा की कि वह सुल्तान नहीं है, बल्कि अफगान साथियों में से ही एक है.
न तो लोदी गद्दी पर बैठा तथा न ही उसने अपने दरबार में अमीरों के खड़े होने पर जोर दिया. उसके लंबे शासनकाल के लिए यह नीति कारगर रही तथा उसे शक्तिशाली अफगान अमीरों द्वारा किसी भी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. इस प्रकार, उसने अफगान सरदारों और आदिवासियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करके उनका अनुमोदन और स्वीकार्यता प्राप्त कर ली. उसका यह सिद्धांत अफ़गान राजत्व का सिद्धांत के नाम से मशहूर हैं.
दोआब तथा मेवात के विद्रोहों का बहलोल लोदी ने सफलतापूर्वक दमन किया. सन 1476 में उसने जौनपुर के सुल्तान को पराजित कर दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया. कालपी तथा धोलपुर के शासकों को भी वह दिल्ली साम्राज्य का अंग बनाने में सफल रहा. हालांकि वह बंगाल, गुजरात तथा दक्कन प्रदेशों को जीत न सका.
बहलोल लोदी का शासन
दिल्ली का राजा बनने पर उन्होंने बहलोल शाह गाजी की उपाधि धारण की. दिल्ली की गद्दी पर बैठते ही उसने हामिद खान को कैद कर लिया. वह उनके पद के लिए खतरनाक साबित हो सकता था.
बहलोल लोदी ने अपने क्षेत्रों में विद्रोह और बगावत को दबाकर बड़े क्षेत्र पर दिल्ली सल्तनत के अधीन किया. उसने अपना क्षेत्र जौनपुर (1479), ग्वालियर और ऊपरी उत्तर प्रदेश तक फैलाया. उसने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाए रखा. 1486 में अपने बेटे बबरक शाह को जौनपुर का वायसराय नियुक्त किया. उनके दूसरे बेटे निज़ाम खान को उनका उत्तराधिकारी नामित किया गया.
अफगान राजत्व का सिद्धांत
इस हिस्से में हम बहलोल लोदी द्वारा पोषित राजत्व का सिद्धांत की चर्चा करेंगे, जो अफ़गान राजत्व के सिद्धांत पर आधारित था.
अफगान जाति प्राचीन काल से आजतक क़बीलाई व्यवस्था पर विश्वास करती आई है और इसके लिए कुनबा तथा बिरादरी का महत्त्व राज्य तथा शासक दोनों से ही अधिक महत्वपूर्ण रहा है. इसके अतिरिक्त अफगान प्रकृति से ही उग्र, स्वतंत्रता-प्रिय तथा स्वाभिमानी होते हैं. उन्हें किसी के आधीन होकर जीवन बिताना स्वीकार्य नहीं है, इसकी तुलना में अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए उन्हें लड़ते-लड़ते मर जाना स्वीकार्य होता है.
दूसरी जाति की आधीनता की तो बात ही क्या, उन्हें तो अपनी बिरादरी के भी किसी व्यक्ति की आधीनता स्वीकार्य नहीं होती है. इस परिप्रेक्ष्य में हम समझ सकते हैं कि अफगानों को राजत्व का दैविक सिद्धांत कभी मान्य नहीं हो सकता.
अफगान अमीर सुल्तान को न तो पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि मान सकते थे और न ही उसकी आज्ञा को ईश्वर का आदेश मान सकते थे. सुल्तान को ईश्वर का प्रिनिधि मानना तो दूर वो तो उसे अपना स्वामी मानने को भी तैयार नहीं हो सकते थे. इस प्रकार अफगानों को सुल्तान बलबन तथा अलाउद्दीन खिलजी द्वारा पोषित राजत्व का दैविक सिद्धांत किसी भी परिस्थिति में स्वीकार्य नहीं था.
अफगान राजत्व का सिद्धांत पूर्णतया लोकतान्त्रिक था. सुल्तान की नियुक्ति अमीरों के द्वारा चुने जाने पर निर्भर निर्भर करती थी. और इस दृष्टि से सुल्तान अमीरों के प्रति उत्तरदायी था.
अफगान राजत्व का सिद्धांत – ट्राइबल कांसेप्ट ऑफ़ किंगशिप’ (Tribal Concept of Kingship) अर्थात् राजत्व की क़बीलाई अवधारणा थी. इसमें सुल्तान अमीरों का मुखिया होता था. उसे हम अमीरों का अमीर अथवा ‘अमीर-उल-उमरा’ कह सकते थे. अफगान अपने सुल्तान को ‘मसनद-ए-आली’ भी कहते थे जो कि अमीरों के मध्य से ही चुना जाता था.
सुल्तान और अमीरों, सभी के लिए कबीला और बिरादरी महत्वपूर्ण होता था. अमीरों का अस्तित्व सुल्तान पर निर्भर नहीं होता था. अमीर तो कबीला बनाता था और अमीर अपने से ही एक अमीर को अपना मुखिया अथवा अपना सुल्तान बनाते थे. इस प्रकार अमीर-सुल्तान सम्बन्ध में पलड़ा अमीरों की ओर ही झुकता था अर्थात् कोई भी निर्णय लेने में उनकी राय का महत्त्व सुल्तान की राय से अधिक हुआ करता था.
फ़रिश्ता के अनुसार बहलोल लोदी के लिए इतना ही पर्याप्त था कि सल्तनत के साथ उसका अपना नाम जुड़ जाता. उसे अपने साथियों पर हुकूमत करने की कोई इच्छा नहीं थी. बहलोल लोदी ने जब दिल्ली के तख़्त पर अधिकार करने का प्रयास किया तो उसे अफगान अमीरों के सहयोग की आवश्यकता पड़ी.
दिल्ली सल्तनत के अब तक के सभी सुल्तान तुर्क थे और भारत में तुर्कों की संख्या अफगानों की संख्या से कई गुनी थी. बहलोल लोदी को उसके इस प्रयास में विदेशों में रह रहे अफगान अमीर तभी सहयोग दे सकते थे जब वो उसकी सल्तनत में उसके अधीनस्थ कर्मचारी नहीं, अपितु उसकी सल्तनत में उसके हिस्सेदार हों. पूर्वी अफगानिस्तान में स्थित रोह के अफगानों को अपने अभियान में सम्मिलित होने का आमंत्रण देते हुए बहलोल लोदी ने उन्हें लिखा था-
‘प्रभुसत्ता नाम-मात्र को मुझमें अवश्य निहित रहेगी किन्तु हम जो भी क्षेत्र जीतेंगे उनमें हम भाइयों की बराबर की हिस्सेदारी रहेगी.’
बहलोल लोदी का यह कथन, अफगान राजत्व के सिद्धांत को पूर्ण-रूपेण स्पष्ट कर देता है. बहलोल लोदी आजीवन अपने अमीरों के सरदार, उनके मुखिया और उनके बड़े भाई की भूमिका निभाता रहा. उसने उनका मालिक, उनका आक़ा बनने की कभी कोशिश नहीं की. वह अपने अमीरों के सामने शाही तख़्त पर भी नहीं बैठता था. वह अमीरों के साथ उठता-बैठता, खाता-पीता था, दोस्तों की तरह उनके घर मिलने जाया करता था.
उसने जागीरों और संपत्ति के वितरण में भी उन्हें हिस्सेदार ही समझा. वह शक्ति के विकेंद्रीकरण में विश्वास करता था और राज्य की समस्त शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित करने का उसने कभी प्रयास नहीं किया. उसके अमीरों को अपनी-अपनी जागीरों में लगभग स्वतंत्र शासकों के रूप में शासन करने का अधिकार था. बहलोल लोदी के शासनकाल दिल्ली सल्तनत एक राज्य-संघ के समान थी.
निष्ठापूर्वक अफगान राजत्व के सिद्धांत का पालन करते हुए भी और शक्ति के विकेंद्रीकरण की नीति अपनाते हुए भी बहलोल लोदी को अपने अमीरों के विद्रोहों का सामना करना पड़ा लेकिन उसे उनका दमन करने में सफलता मिली.
दिल्ली सल्तनत के इतिहास में बहलोल लोदी का शासनकाल (1451-1488) सबसे लम्बा रहा और वो भी तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता तथा राजपूत एवं तुर्क प्रतिरोध के मध्य. बहलोल लोदी के इस दीर्घकालीन शासनकाल का बहुत कुछ श्रेय उसके द्वारा अफगान राजत्व के सिद्धांत के अपनाने को दिया जा सकता है.
अफगान राजत्व का सिद्धांत अफगानिस्तान के लिए तो उपयुक्त था किन्तु भारत जैसे देश में जहाँ अनेक जातियां थीं और जहाँ राजत्व के दैविक सिद्धांत की परंपरा थी, उसकी उपयुक्तता संदेहास्पद थी. इसीलिए बल्ह्लोल लोदी के उत्तराधिकारी सिकंदर लोदी और उसके उत्तराधिकारी इब्राहीम लोदी ने अफगान राजत्व के सिद्धांत का अनुगमन नहीं किया.
मृत्यु व उत्तराधिकार
दिल्ली पर 75 वर्षों तक शासन करने वाले लोदी वंश के संस्थापक बहलोल खान लोदी की मृत्यु 12 जुलाई 1489 को हुई थी. 1489 में बहलोल की मृत्यु के बाद उसके दो बेटों के बीच सत्ता संघर्ष शुरू हो गया. निज़ाम खान ने दिल्ली का शासक बनकर अपना नाम सिकंदर लोदी रख लिया. बहलोल ने 38 वर्षों तक दिल्ली पर शासन किया. उसका मकबरा दिल्ली के चिराग दिल्ली में स्थित है.