आर्य समाज व दयानंद सरस्वती: उद्देश्य, सिद्धांत व शुद्धि आंदोलन

आर्य समाज (Arya Samaj) हिन्दू धर्म का सुधारवादी आंदोलन था, जिसका मुख्य उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की शुद्ध रूप से पुनः स्थापना करना था. इसके संस्थापक दयानंद सरस्वती (1824-83) थे. इनके नेतृत्व में आर्य समाज द्वारा शैक्षिक सुधार, लैंगिक समानता और जातिविहीन समाज पर काम किया. इसने देश में चल रहे सामाजिक सुधार आंदोलनों को गति दी. इस लेख में दयानंद सरस्वती के विचार व जीवन तथा आर्य समाज के दर्शन, इसके प्रभाव व अन्य पहलुओं का वर्णन हैं.

दयानंद सरस्वती

इनके बचपन का नाम मूलशंकर तिवारी था. इनका जन्म गुजरात के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके माता-पिता यशोधाबाई और लालजी तिवारी रूढ़िवादी ब्राह्मण थे. वे सत्य की तलाश में लगभग 15 वर्षों तक इधर से उधर भटकते रहे. इन्होंने 1875 में उन्होंने बंबई में आर्य समाज की स्थापना की. बाद में उन्होंने इसका मुख्यालय बम्बई से लाहौर स्थानांतरित कर दिया.

दयानंद के विचार एवं चिंतन का प्रकाशन उनकी प्रसिद्ध पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में हुआ. दयानंद की परिकल्पना में, जाति रहित एवं वर्ग रहित समाज, राष्ट्रीय, सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से संयुक्त भारत, विदेशी दासता से मुक्ति एवं सम्पूर्ण राष्ट्र में आर्य धर्म की स्थापना की कल्पना सर्वप्रमुख थी.

उन्होंने वेदों को सच्चा एवं सभी धर्मो से हटकर बताया. उन्होंने कहा कि वेद भगवान द्वारा प्रेरित हैं और सम्पूर्ण ज्ञान के स्रोत हैं. उन्होंने उन धार्मिक विचारों को ठुकरा दिया, जो वेदों के अनुकूल नहीं थे. उन्होंने नारा दिया वेदों की ओर लौटो.

दयानंद सरस्वती ने वेदांत की शिक्षा मथुरा के एक अंधे गुरु स्वामी विरजानंद से ग्रहण की थी. वेदों को उन्होंने सर्वश्रेष्ठ बताया. उनके अनुसार व्यक्तिगत रूप से धार्मिक तर्क का मार्ग सभी को अपनाना चाहिये क्योंकि हर मनुष्य को ईश्वरोपासना का अधिकार है.

उन्होंने प्राचीन हिन्दू धर्म, ग्रंथों में पुराणों की कड़ी आलोचना की और कहा कि स्वार्थी और अज्ञानी पुरोहितों ने पुराणों की सहायता से हिन्दू धर्म को दूषित कर कर्मकांड, पुरोहितवाद, चमत्कार जैसी चीजों में विश्वास, जीवहत्या, समुद्र यात्रा पर निषेध, पुरोहितों के श्राद्ध (भोजन) इत्यादि की कड़ी आलोचना की. उन्होंने हिन्दू धर्म की परंपरागत जाति प्रथा की भी आलोचना की तथा कहा जाति का निर्धारण जन्म के आधार पर नहीं अपितु कर्म के आधार पर होना चाहिए.

आर्य समाज के कार्य

आर्य समाज ने लड़कों के विवाह की न्यूनतम उम्र 25 वर्ष तथा लड़कियों की 16 वर्ष निर्धारित की. एक अवसर पर दयानंद के हिन्दू प्रजाति को ‘बच्चों का बच्चा’ की संज्ञा दी. अंतर्जातीय विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया. स्त्री समानता की वकालत भी की. आर्य समाज, प्राकृतिक विपदाओं जैसे-सूखा, बाढ़, एवं भूकम्प आने पर सहायता पहुंचाने का कार्य भी करता था. आर्य समाज ने शिक्षा व्यवस्था की नयी दिशा देने की मांग की.

शिक्षा के क्षेत्र में समाज का मुख्य योगदान दयानंद एग्लो वैदिक स्कूलों की स्थापना थी. इस तरह का पहला स्कूल 1886 में लाहौर में खोला गया. इस स्कूल में पाश्चात्य शिक्षा की व्यवस्था थी. 1902 में स्वामी श्रद्धानंद ने हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की, जिसमें शिक्षा के अपेक्षाकृत परंपरागत प्रसार की व्यवस्था थी.

आर्य समाज ने लोगों का ध्यान परलोक की बजाय इस वास्तविक संसार में रहने वाले मनुष्यों की समस्याओं की ओर आकृष्ट किया. आत्मा अमर है. आत्मा द्वारा बार-बार शरीर त्यागने एवं पुर्नजन्म की बात सत्य है. लेकिन स्वार्थी ब्राह्मणों द्वारा इसके लिये जो श्राद्ध कराया जाता है, वह निरर्थक एवं गलत है. समाज कर्मफल एवं मोक्ष में विश्वास करता है. उसके अनुसार वेद हिन्दुओं की सर्वोच्च धार्मिक पुस्तक है.

आर्य समाज के अनुसार, परम ईश्वर एक है और सबको उसकी उपासना करनी चाहिए. ईश्वर की उपासना में आध्यात्मिक चिंतन का सर्वश्रेष्ठ स्थान है. ईश्वर निराकार है और उसकी मूर्तिरूप में पूजा नहीं की जानी चाहिए. समाज ने इस बात का खण्डन किया कि ईश्वर का अवतार होता है. राम और कृष्ण महापुरुष थे न कि ईश्वर के अवतार. सभी मनुष्य उनके विचार अपना कर और उनके कार्यों पर चलकर उनका स्थान प्राप्त कर सकते हैं.

उपरोक्त आधार पर आर्य समाज के प्रमुख दर्शनों का सार इस प्रकार हैं”

  • धार्मिक रूढ़िवादिता का विरोध
  • सभी को ईश्वर तक पहुंचने का अधिकार
  • एकीकृत समाज की वकालत
  • कर्म और पुनर्जन्म के नियम को मान्यता
  • पूर्वनिर्धारित भाग्य (नियति) को नकारना
  • मोक्ष की अवधारणा को मान्यता

आर्य समाज का शुद्धि आंदोलन

Swami Vivekanand Saraswati

आर्य समाज ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये शुद्धि आदोलन चलाया. इसका उद्देश्य किसी दबाव या भय से हिन्दू धर्म को छोड़ चुके लोगों को हिन्दू धर्म में वापस लाना था. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह देखा गया कि बड़ी संख्या में हिंदू विभिन्न कारणों से इस्लाम और ईसाई धर्म में धर्मांतरित हो रहे थे. इस स्थिति से हिंदू समाज में हीनभावना और विघटन की प्रवृत्ति बढ़ रही थी.

दयानंद सरस्वती ने “वेदों की ओर लौटो” का नारा देते हुए धर्म-सुधार और पुनर्जागरण की आवश्यकता पर बल दिया. इस तरह, इस आंदोलन के द्वारा हिंदू समाज को उसके मूल वैदिक स्वरूप में लौटाने का आह्वान किया गया.  यद्यपि उनके जीवनकाल में यह आंदोलन पूरी तरह संगठित रूप नहीं ले सका, किंतु उनकी प्रेरणा से आगे चलकर स्वामी श्रद्धानंद ने इसे व्यापक जनआंदोलन का स्वरूप दिया.

हिन्दू धर्म में पुनर्वापसी के साथ ही इसका एक और मकसद हिंदू समाज की एकता को मजबूत करना, जाति-भेद और अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों को दूर करना तथा समाज को प्राचीन वैदिक परंपराओं से जोड़ना था.

इस आंदोलन के व्यापक प्रभाव भी देखने को मिले.  इसके फलस्वरूप हिंदू समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक गौरव की भावना पुनः जागृत हुई. पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात जैसे क्षेत्रों में इस आंदोलन के अंतर्गत हजारों लोगों का पुनः स्वागत किया गया.

सामाजिक दृष्टि से इसने हिंदू समाज में आत्मबल और आत्मविश्वास का संचार किया. धार्मिक दृष्टि से यह एक प्रकार का पुनर्जागरण था, जिसने वैदिक परंपराओं को नए सिरे से प्रतिष्ठित किया. राजनीतिक दृष्टि से भी इस आंदोलन ने राष्ट्रवाद की धारा को प्रबल किया, क्योंकि धार्मिक और सामाजिक एकता ने स्वतंत्रता संग्राम को नैतिक बल प्रदान किया.

स्वामी श्रद्धानंद जैसे नेता इस आंदोलन से उभरे, जिन्होंने हिंदू समाज को संगठित और जागरूक करने में बड़ी भूमिका निभाई. हालाँकि शुद्धि आंदोलन की कुछ सीमाएँ भी थीं. अन्य धार्मिक समुदायों, विशेषकर मुसलमानों और ईसाइयों के बीच यह आंदोलन संदेह और विरोध का कारण बना. इसके चलते सांप्रदायिक तनाव भी बढ़ा.

इसके अतिरिक्त, हिंदू समाज में जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता की समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाई. आंदोलन मुख्यतः कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित रहा और पूरे भारत को एक समान रूप से प्रभावित नहीं कर सका. साथ ही 1926 में स्वामी श्रद्धानंद की हत्या होने के बाद इसकी गति काफी धीमी पड़ गई.

समग्रतः कहा जा सकता है कि आर्य समाज का शुद्धि आंदोलन भारतीय समाज सुधार और राष्ट्रवादी चेतना के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है. इसने न केवल हिंदू समाज में आत्मगौरव और आत्मविश्वास जगाया, बल्कि धार्मिक-सामाजिक सुधारों की एक ऐसी धारा प्रवाहित की, जिसने आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम को भी मजबूत आधार प्रदान किया.

आर्य समाज में विभाजन

1893 में आंदोलन सैद्धांतिक शुद्धता के सवाल पर विभाजित हो गया. स्वामी श्रद्धा नंद (1857-1926), जो कि इस आंदोलन के बाद उभरने वाले दूसरे सबसे बड़े प्रचारक थे, ने डीएवी (DAV) स्कूलों को चला रहे गुटों पर उनके अत्यधिक पाश्चात्य होने और अपने संस्थापक की वैचारिक विरासत को धोखा देने का आरोप लगाया.

सन् 1900 के पश्चात उन्होने अपने खुद के स्कूलों के नेटवर्क ‘गुरुकुल’ की स्थापना की. यहाँ उन्होने प्राचीन हिंदू वैदिक शिक्षा पद्धति एवं वेदों के अध्ययन पर ज़ोर दिया. श्रद्धा नंद ने ब्रिटिश पब्लिक स्कूलों की शैक्षणिक प्रथाओं और पाठ्यक्रमों का भी प्रयोग किया.

दोनो गुट 1890 से अलग-अलग तरीकों से राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे. डीएवी विंग के प्रमुख नेताओं में से कुछ जैसे लाला लाजपत राय, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और मुख्य धारा के राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बन गये.

श्रद्धा नंदा  अपने अनुयायियों से विकासवादी राष्ट्रवाद की वकालत करते रहे. इनके अनुसार राजनीतिक स्वशासन कोई जन्म सिद्ध अधिकार नहीं था. इसे एक दुरूह सीखने की प्रक्रिया के माध्यम से अर्जित किया जा सकता था. इनके अनुसार, केवल शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति की क्रमिक पूर्णता आजादी के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकती थी. 1919 में जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के बाद राष्ट्रीय आंदोलन नई उँचाई पर पहुँचे और महात्मा गाँधी द्वारा आयोजित अभियानो मे गुरुकुल आर्यों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.

मुख्य रूप से महिलाओं की शिक्षा एवं उनकी स्थिति में सुधार आर्य गतिविधियों की आधारशिला थी. लेकिन इन्होने अन्य क्षेत्रों में भी सुधार के अपने उत्साह को व्यक्त किया. 1880 के दशक में उन्होने अछूतों के उत्थान के लिए जातियों की सीमा तोड़ना ही अंतिम विकल्प माना. इसके लिए उन्होंने कई प्रयोग किये. आर्यों के बीच ‘शुद्ध’ अछूतों को स्वीकार न करने की रूढ़िवादी विश्वास के विरुद्ध इन्होने एक नई प्रक्रिया का प्रतिपादन किया.

“शुद्धि” जाति बहिष्कृत लोगों, नव-मुस्लिमों जिन्होने इस्लामी शासन के दौरान इस्लाम अपना लिया था, का शुद्धीकरण एक अनुष्ठान के द्वारा किया गया. ऐसे प्रयासों से जल्द ही आर्य समाज को इस्लाम के साथ संघर्ष भी करना पड़ा.

आर्य सामजियों द्वारा गौ-हत्या पर प्रतिबंध और हिन्दी के प्रसार के लिए हिन्दी को प्रशासनिक भाषा के रूप में(उस समय उर्दू को प्रशासनिक भाषा के रूप में प्रयोग किया जाता था) प्रयोग करने की माँग ने इस सांप्रदायिक तनाव को और खट्टा कर दिया. 1920 के दशक में इन्हे हिंदुओं और मुसलमानो के बीच बिगड़ते संबंधों के संदर्भ में रूढ़िवादी हिंदू भाइयों के बीच अधिक से अधिक स्वीकृति पाने की आशा में हिंदू धर्म के रक्षकों और जानबूझ कर झगड़ालू  छवि के रूप में देखा जाने लगा.

आज के विद्वानों में से कुछ, इसे हिंदू अंधराष्ट्रीवादी दलों और संगठनों की एक अग्रदूत के रूप में प्रथम संगठन के रूप में देखते हैं. हालाँकि उस समय स्थिति काफ़ी विषम हो गयी जब विभिन्न आर्य आंदोलनो में क्षेत्रीय उग्रवादी हिंदू संगठनो का वर्चस्व हो गया.

1920 से 1940 तक आर्य समाज की लोकप्रियता अपनी चरम सीमा तक पहुँची, परंतु आज़ादी के बाद इनकी लोकप्रियता कम होने लगी. आजकल उत्तर भारत के क्षेत्रों में जहाँ यह आंदोलन एक सदी तक बहुत महत्वपूर्ण था वहाँ भी इसकी लोकप्रियता खो गयी है. आर्य समाज उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के शुरू में भारत से मजदूरों और अन्य लोगों के आव्रजन के साथ ही हिंदू बहुल देशों गुयाना, फिजी, और मॉरीशस में फैल गया था, जहाँ यह आज भी यह मूल आर्य समाज के विधारों के साथ जिंदा है.

आर्य समाज के 10 सिद्धांत

यह बात स्पष्ट है कि स्वामी दयानंद का नारा वेदों की ओर लौटो वैदिक शिक्षा एवं धर्म की वैदिक शुद्धता के लिये किया गया प्रयास है न कि वैदिक काल की पुर्नस्थापना. स्वामी दयानंद ने आधुनिकता एवं देशभक्ति के आदशों को अपनाने पर जोर दिया. आर्य समाज के 10 प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं-

  1. वेद ही ज्ञान के स्रोत हैं अतः वेदों का अध्ययन आवश्यक है.
  2. वेदों के आधार पर मंत्र-पाठ करना.
  3. मूर्ति पूजा का खंडन.
  4. तीर्थ यात्रा और अवतारवाद का विरोध.
  5. कर्म, पुनर्जन्म एवं आत्मा के बारम्बार जन्म लेने पर विश्वास.
  6. एक ईश्वर में विश्वास जो निरंकारी है.
  7. स्त्रियों की शिक्षा को प्रोत्साहन.
  8. बाल विवाह और बहुविवाह का विरोध.
  9. कुछ विशेष परिस्थितियों में विधवा विवाह का समर्थन.
  10. हिन्दी एवं संस्कृत भाषा के प्रसार को प्रोत्साहन.

आर्य समाज के उद्देश्य

ईश्वर के प्रति पितृत्व एवं मानव के प्रति भ्रातृत्व की भावना, स्त्री-पुरुष के बीच समानता तथा सभी लोगों के बीच पूर्ण समानता की स्थापना का संदेश आर्य समाज ने दिया. इन आदर्शों को आगे बढ़ाने के क्रम में सरस्वती ने प्रमुख तत्कालीन समाज सुधारकों जैसे केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रानाडे, देशमुख इत्यादि से सम्पर्क स्थापित किया.

दयानंद की मृत्यु के पश्चात् उनके आदर्शों को लाला हंसराज, पंडित गुरुदत्त, लाला लाजपत राय एवं स्वामी श्रद्धानंद इत्यादि ने आगे बढ़ाया और समाज सुधार एवं राष्ट्रीय जागरण की धारा को प्रबल बनाया.

आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में आत्म-सम्मान एवं आत्म-विश्वास की भावना जागृत की तथा उसे पाश्चात्य जगत की श्रेष्ठता के भ्रम से मुक्त कराया. आर्य समाज के प्रयासों से इस्लामी एवं ईसाई मिशनरियों की हिन्दू धर्म विरोधी गतिविधियां सफल नहीं हो सकीं तथा हिन्दू धर्म अक्ष्क्षुण बना रहा.

दयानंद के सत्यार्थ प्रकाश नाम ग्रंथ में जन सामान्य की अनेक धार्मिक जिज्ञासाओं को दूर किया गया. इस ग्रंथ में हिन्दू धर्म की अनेक त्रुटियों पर प्रकाश डाला गया है तथा अन्य धर्म के पाखण्डों की भी निंदा की गयी है.

आर्य समाज का विश्लेषण

उपरोक्त विवरण को आधार मानकर आर्य समाज और दयानांद सरस्वती के आंदोलन के प्रासंगिकता को इस प्रकार समझ जा सकता हैं:

1. दयानंद सरस्वती और आर्य समाज का सुधार आंदोलन:

स्वामी दयानंद सरस्वती का “वेदों की ओर लौटो” का नारा केवल धार्मिक सुधार तक सीमित नहीं था. बल्कि यह भारतीय समाज को आधुनिकता की दिशा में ले जाने का प्रयास था. उस समय भारतीय समाज में मूर्तिपूजा, अंधविश्वास, पुरोहितवाद, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा का अभाव, जातिवाद और छुआछूत जैसी समस्याएँ गहराई तक जमी हुई थीं.

  • सामाजिक दृष्टि से आधुनिकता की ओर झुकाव:
    • स्त्रियों की शिक्षा और विधवा विवाह का समर्थन करना.
    • जाति प्रथा का विरोध कर कर्म पर आधारित समाज का आदर्श प्रस्तुत करना.
    • अंतर्जातीय विवाह की स्वीकृति देना.
  • धार्मिक दृष्टि से सुधारवादी दृष्टिकोण:
    • अवतारवाद, मूर्तिपूजा और तीर्थयात्रा जैसी रूढ़ियों का विरोध.
    • एक निराकार ईश्वर की उपासना की वकालत.
    • कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांतों को तार्किक आधार देना.
  • राजनीतिक-सांस्कृतिक दृष्टि से आधुनिकता का बीजारोपण:
    • राष्ट्रीय चेतना और आत्मगौरव को जगाना.
    • मिशनरी प्रभाव के बीच हिन्दू धर्म को आत्मविश्वास से खड़ा करना.
    • शिक्षा के आधुनिक संस्थान स्थापित करना (DAV स्कूल, गुरुकुल कांगड़ी).

2. यह आंदोलन आधुनिकता के कितने करीब था?

यदि 19वीं शताब्दी की पृष्ठभूमि देखें तो आर्य समाज का आंदोलन अपने समय से काफी आगे था. उस युग में जब स्त्री शिक्षा को सामाजिक खतरे की तरह देखा जाता था. ऐसे दौर में दयानंद का स्त्री-शिक्षा और लैंगिक समानता पर जोर आधुनिक सोच को दर्शाता है. बाल विवाह और बहुविवाह का विरोध, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से धर्म को देखने की कोशिश, और शिक्षा पर जोर देना उस समय के लिए “आधुनिक चेतना” के करीब था.

हालाँकि, इसकी सीमाएँ भी थीं:

  • “वेद ही सर्वोच्च ज्ञान” पर जोर देना आधुनिक वैज्ञानिक विविधता के सिद्धांत से मेल नहीं खाता है.
  • “शुद्धि आंदोलन” ने जहाँ एक ओर हिन्दू समाज को आत्मगौरव दिया, वहीं यह सांप्रदायिक तनाव का कारण भी बना.
  • पाश्चात्य उदारवादी सोच की तरह पूर्ण धार्मिक सहिष्णुता का स्वर इसमें कम दिखाई देता है.

3. आज के संदर्भ में प्रासंगिकता:

  • प्रासंगिक पहलू: स्त्री शिक्षा, सामाजिक समानता, जातिवाद का विरोध, आत्मगौरव और राष्ट्रीय चेतना जैसे मूल्य आज भी उतने ही आवश्यक हैं. आर्य समाज का शिक्षा क्षेत्र में योगदान (DAV संस्थान, गुरुकुल परंपरा) अब भी जीवंत है. “ईश्वर निराकार है, सबको समान अधिकार है” जैसी बातें आज की लोकतांत्रिक और समानतावादी मूल्यों से मेल खाती हैं.
  • कम प्रासंगिक या पिछड़े पहलू: “वेद ही एकमात्र सत्य” का आग्रह आज के बहुलतावादी समाज और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संकुचित माना जा सकता है. शुद्धि आंदोलन की सोच आज के बहुसांस्कृतिक समाज में सामंजस्य की बजाय विभाजन का कारण बन सकती है. आधुनिक मानवाधिकार और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की तुलना में आर्य समाज का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत सीमित था.

निष्कर्षत:, आर्य समाज और दयानंद सरस्वती का सुधार आंदोलन अपने समय में अत्यंत आधुनिक और प्रगतिशील था. इसने भारतीय समाज में वैज्ञानिक सोच, शिक्षा, समानता और आत्मगौरव का संचार किया. यह आंदोलन भारतीय समाज को मध्ययुगीन रूढ़ियों से निकालकर आधुनिक युग की ओर ले गया.
लेकिन आज के वैश्वीकृत और बहुलतावादी समाज में इसके कुछ विचार सीमित या विवादास्पद प्रतीत होते हैं. फिर भी इसके सामाजिक सुधार और आत्मगौरव से जुड़े पहलू आज भी प्रासंगिक हैं और भारतीय समाज के आधुनिक विकास की बुनियाद समझे जाते हैं.

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