भारत में यूरोपीय लोगों का आगमन कोई आकस्मिक घटना नहीं हैं. प्राचीन काल से ही भारत सोने की चिड़िया कहलाता था. इस कारण विदेशी हमेशा इस देश के प्रति आकृष्ट होते रहे थे. वे व्यापारी, आक्रमणकारी, छात्र या फिर जिज्ञासु पर्यटक के रूप में भारत आते रहे.
अति प्राचीन काल से ही भारत और यूरोप के बीच व्यापारिक सम्बन्ध चले आ रहे थे. यूरोप से व्यापार के कई मार्ग थे. एक मार्ग एशिया की आक्सस नदी के किनारे होता हुआ कैस्पियन सागर और कालासागर तक जाता था. दूसरा मार्ग फारस की खाड़ी तक समुद्र द्वारा, फिर ईराक और तुर्की तक स्थल-मार्ग से और फिर वहाँ से समुद्र द्वारा वेनिस और जेनेवा तक जाता था. तीसरा मार्ग लालसागर होकर मिस्र के सिकन्दरिया तक स्थल-मार्ग द्वारा और फिर वहाँ से समुद्र द्वारा वेनिस और जेनेवा पहुँचता था, जहाँ से यह माल यूरोप के दूसरे देशों को चला जाता था.
अन्तिम दो मार्ग अधिक प्रचलित थे. यह व्यापार अधिकतर अरब और इटली के व्यापारियों द्वारा होता था. मार्ग में पड़ने वाली अनेक कठिनाइयों के होते हुए भी यह व्यापार बड़ा लाभप्रद था.
ओटोमन-साम्राज्य के विस्तार तथा 1453 ई. में कुस्तुन्तुनिया पर तुकों का अधिकार हो जाने से इस व्यापार में बाधा पड़ी. इन व्यापारी-जहाजों को तुर्क लूटने लगे और इस प्रकार यूरोपीय व्यापारियों का व्यापार ठप्प होने लगा. अरब-सौदागर ही अब इस माल को यूरोपीय बाजारों में भेजने लगे. फिर व्यापारियों मागों की रूकावट के कारण यूरोप के लोगों को पूर्व का माल मिलना दुर्लभ हो गया.
पूर्व के मसाले और कपडा यूरोप के लिए आकर्षण केंद्र थे. अतः यूरोप वालों ने नए जलमार्ग की खोज का निश्चय किया. 1487 ई. में बार्थोलोम्यो डियाज ने उत्तमाशा अंतरीप (cape ofgoodhope) का पता लगाया. कोलम्बस भारत के लिए एक नये जलमार्ग की खोज में निकल पड़ा. परन्तु 1492 ई. में उसने अमेरिका की खोज निकाला.
1498 ई. में वास्को-डि-गामा ने भारत के लिए एक नया जलमार्ग खोज निकाला. वह अफ्रीका-तट का चक्कर लगाते हुये तथा उत्तमाशा अन्तरीप (Cape of Good Hope) होते हुये मालाबार-तट पर कालीकट पहुँच गया. कालीकट के शासक जमोरिन ने उसका स्वागत किया. वह एक हिन्दुस्तानी व्यापारी अब्दुल मनीद नायक गुजराती की सहायता से भारत पहुंचा था. इस प्रकार भारत में यूरोपीयों का बड़े पैमाने पर आगमन का मार्ग प्रशस्त हुआ.
15वीं सदी व इसके बाद भारत के आजाद होने तक भारत में साम्राज्यवादी देशों से कई समूह, व्यापारी व कंपनियों का आगमन हुआ. इनका वर्णन आगे किया जा रहा हैं:
पुर्तगाली से आगमन
पुर्तगालियों को कालीकट के राजा जमोरिन ने अपने राज्य में रहने और व्यापार करने की आज्ञा प्रदान की. इस प्रकार पुर्तगाल और भारत में सीधा व्यापारिक संबंध स्थापित हुआ. पुर्तगालियों ने जमोरिन के शत्रुओं विशेषत: कोचीन के राजा के विरूद्ध जमोरिन की सहायता की. इस प्रकार राजाओं की आपसी दुश्मन से लाभ उठाकर पूर्तगलियों ने अपनी स्थिति मजबूत की.
1500 ई. में पेड्रो ऊल्बेयर्स कैब्रल के नेतृत्व में जहाज भेजे गए. अरब व्यापारियों ने पुर्तगालियों का मार्ग अवरूद्ध करने की कोशिश की. पेड्रो ने अनुभव किया कि केरल के क्षेत्रीय राजाओं के आपसी विवाद से व्यापारिक लाभ उठाया जा सकता है तथा शक्ति के द्वारा संबंधित क्षेत्र में अपना आधार बनाया जा सकता है. आगे चलकर यही धारणा पुर्तगाली नीति की आधार बनी.
1502 ई. में वास्कोडिगामा दो जहाजी बेडों के साथ वापस आया. 1503 ई. में अल्बुकर्क भारत आया और कोचीन में कार्यालय खोला. पुर्तगालियों का भारत में प्रारम्भिक लक्ष्य मसाला व्यापार पर एकाधिकार जमाना था. परन्तु कैब्रल के अभियान के उपरान्त उन्होंने पूर्वी जगत और यूरोप के मध्य होने वाले सम्पूर्ण व्यापार पर एकाधिकार करने का निश्चय किया. अत: सन 1505 ई. में एक नई नीति अपनाई गई जिसके अन्तर्गत 3 वर्षों के लिए एक गवर्नर को नियुक्त किया गया.
भारत में पुर्तगाली वायसराय और उनके कार्य
भारत में नियुक्त होने वाला पहला पुर्तगाली वायसराय फ्राँसिस्को डी अल्मीडा था. उसने समुद्र को नियंत्रण में लेकर भारत पर प्रभुत्व स्थापित करने की योजना बनाई. इसी कारण उसने “ब्लू वाटर पॉलिसी” या “शांत जल नीति” को लागू किया. 1508 में ‘चोल की लड़ाई’ में उसे गुजरात के शासक से पराजय झेलनी पड़ी,
अगले वर्ष उसने महमूद बेगड़ा, मिस्र और तुर्की के संयुक्त नौसैनिक बेड़े को हरा दिया. लेकिन इस संघर्ष के दौरान उसका पुत्र भी मारा गया. 1509 में तीनों शक्तियाँ पराजित हुई. इसी के साथ ओरमुज पर पुर्तगीजों का अधिकार हो गया.
अल्मीडा प्रथम पुर्तगाली गवर्नर था जिसने पुर्तगाल व्यापार को बढ़ावा दिया. उसने आजानीवा, कीवा, बेगसिन एवं कोचीन में कुछ किले निर्मित करवाये. वह 1505 ई. से 1509 ई. तक भारत में रहा.
‘अल्फोंसो-डी-अल्बुकर्क’ (1509-1515) दूसरा वायसराय बनकर आया. उसने अल्मीडा की ‘ब्ल्यू वाटर पालिसी’ को बंद करवाया. अल्बुकर्क के समय में पुर्तगाली-शक्ति और प्रभाव बहुत अधिक बढ़ गया. समुद्र पर पुर्तगाली बहुत शक्तिशाली हो गये और उन्होंने अरब-जहाजों को बड़ी क्षति पहुँचाई.

अल्बुकर्क ने 1510 ई. में बीजापुर से छीनकर गोवा पर अधिकार कर लिया जो पूर्व में पुर्तगाली-शक्ति का प्रमुख केन्द्र हो गया. यहीं से पुर्तगाली साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है. विजय नगर शासक, कृष्णदेव राय ने पुर्तगालियों को भटटकल में दुर्ग बनाने की इजाजत दी. अल्बुकर्क ने पुर्तगालियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया.
धीरे-धीरे भारत में गोवा, दमन, ड्यू, साल्सट बेसीन, चोल, बम्बई, हुगली पर पुर्तगालियों का अधिकार हो गया तथा फारस की खाड़ी में होमुज से लेकर और इण्डोनेशिया तक के समुद्र पर पुर्तगालियों का अधिकार हो गया.
अल्बुकर्क के बाद नीनो डी कुन्हा सबसे प्रभावशाली वायसराय माना गया. 1530 में उसने कोचिन की जगह गोवा को राजधानी बनाया. साथ ही सेंट टोमे और हुगली में पुर्तगाली बस्तियाँ स्थापित कीं. नीनो डी कुन्हा ने गुजरात के शासक बहादुर शाह को छल से पकड़कर उसकी हत्या कर दी. इसके बाद उसने 1534 में बसान और 1535 में दीव पर अधिकार जमा लिया.
पुर्तगालियों ने धीरे-धीरे हिंद महासागर के व्यापार पर नियंत्रण कर लिया. इसके लिए उन्होंने कार्टेज व्यवस्था लागू की, जिसके अंतर्गत एशियाई देशों में जहाज भेजने के लिए विशेष लाइसेंस और शुल्क आवश्यक था. यहाँ तक कि अकबर ने भी अपने समुद्री व्यापार के लिए कार्टेज को मान्यता दी थी.
पुर्तगालियों ने फारस की खाड़ी, हरमुज और हिंद महासागर में अपने ठिकाने बना लिए. भारत और जापान के बीच व्यापार शुरू कराने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है. पूर्तगलियों के समय ही भारत में जहाज निर्माण, मुद्रण कला और गोथिक स्थापत्य शैली का भी विकास हुआ. किंतु उनकी धार्मिक असहिष्णुता, स्थानीय व्यापारियों से लूटपाट और विवाह नीति ने मराठों और मुगलों को उनके विरोध में खड़ा कर दिया. 1632 में शाहजहाँ ने उन्हें हुगली से बाहर निकाल दिया.
1661 में पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन का विवाह ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स द्वितीय से हुआ. इसके साथ ही बंबई दहेज के रूप में ब्रिटेन को मिला, जिसे बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को किराए पर दे दिया गया. इसी समय पुर्तगाल स्पेन के अधीन हो गया और उसका ध्यान एशिया से हटकर पश्चिम की ओर चला गया. इससे भारत में उनका प्रभुत्व कमजोर पड़ गया.
बाद में गोवा, दमन, ड्यू को छोड़कर सारे प्रदेश पुर्तगालियों के अधिकार से निकल गये. पुर्तगालियों ने भारत में तंबाकू, आलू, टमाटर जैसी फसलों की खेती का प्रचलन किया. 1556 ई. में पुर्तगालियों ने पहली प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की.
भारत में डचों का आगमन और विस्तार
पुर्तगालियों के बाद भारत में प्रवेश करने वाली दूसरी यूरोपीय शक्ति डच थी. 1596 में कॉर्नेलिस डी हाउटमैन सबसे पहले केप ऑफ गुड होप होते हुए सुमात्रा और बाण्टेन पहुँचा. डच वास्तव में हॉलैंड (आज का नीदरलैंड) के निवासी थे. उस समय तक लगभग सौ वर्षों तक पुर्तगालियों ने पूर्वी व्यापार पर एकाधिकार बना रखा था, लेकिन डचों ने इस एकाधिकार को चुनौती दी.
1602 ई. में डचों ने अपनी प्रमुख व्यापारिक संस्था वेरिंगदे ओस्त-इंडसे कंपनी (VOC) की स्थापना की. डच संसद ने इसे युद्ध करने, संधियाँ करने, क्षेत्र पर अधिकार जमाने और किलेबंदी करने तक के अधिकार प्रदान किए. बाद में विभिन्न डच कंपनियों को मिलाकर यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी ऑफ नीदरलैंड नामक एक शक्तिशाली संगठन बना.
डचों ने मसालों के लिए प्रसिद्ध पूर्वी द्वीपसमूह को अपना मुख्य व्यापारिक केंद्र बनाया. वे यूरोप में काली मिर्च और अन्य मसाले बेचकर भारी लाभ कमाते थे. चूँकि द्वीपसमूह के लोग मसालों के बदले भारतीय वस्त्र चाहते थे, इस कारण डच भारत आए. 1605 में उन्होंने अबोयना को पुर्तगालियों से छीन लिया.
प्रारंभ में डच व्यापार इंडोनेशिया तक सीमित था, पर भारत से जुड़ने के बाद उन्होंने सूती कपड़ों और नील (इंडिगो) के व्यापार को भी अपनाया, जिससे उन्हें बहुत लाभ हुआ. 1605 में ही उन्होंने कोरोमंडल तट के मसूलीपट्टनम में स्थायी फैक्ट्री स्थापित की, जो आगे उनका मुख्यालय बना. बाद में इसे नागपट्टनम स्थानांतरित किया गया. डचों ने पुलीकट और पेतेपोली में भी फैक्ट्रियाँ खोलीं. पुलीकट में वे अपने प्रसिद्ध स्वर्ण पगोडा सिक्के ढालते थे.
भारत में उनकी प्रमुख फैक्ट्रियाँ पुलीकट, सूरत, कारिकल, चिनसुरा, कासिमबाजार, पटना, बालासोर, बड़ा नगर, नागपट्टनम और कोचीन में थीं. इनकी अधिकतर बस्तियाँ पूर्वी तट पर थीं ताकि उनका सीधा संपर्क इंडोनेशिया से बना रहे. वे कोरोमंडल तट से विशेष प्रकार के वस्त्र बैन्टम और बटाविया (जकार्ता) भेजते थे. भारत से वस्त्र को निर्यात की वस्तु बनाने का श्रेय डचों को दिया जाता है. इसके अतिरिक्त वे शोरा और नील का भी व्यापार करते थे.
1618 में डचों ने सूरत में फैक्ट्री खोली और मुगल सम्राट जहाँगीर से व्यापार की अनुमति प्राप्त की. शीघ्र ही उन्होंने भड़ौच, अहमदाबाद, कोचीन, मछलीपट्टनम, नागपट्टनम, चिनसुरा, पटना और आगरा जैसे कई शहरों में अपने केंद्र स्थापित किए. बंगाल में उनकी पहली फैक्ट्री पीपली में खोली गई, पर बाद में इसे छोड़कर बालासोर को केंद्र बनाया गया.
भारत में डचों का प्रभाव धीरे-धीरे अंग्रेज़ों और फ्रांसीसियों की बढ़ती शक्ति से कमजोर पड़ने लगा. 1659 में बेडारा की लड़ाई में अंग्रेजों ने उन्हें परास्त किया. 1795 तक अंग्रेजों ने उन्हें पूरी तरह भारत से बाहर कर दिया.
डचों की व्यापारिक प्रणाली का विवरण 1722 के दस्तावेजों में मिलता है, जिसमें उनकी व्यवस्था कार्टेल प्रणाली पर आधारित बताई गई है. कंपनी का सीधा नियंत्रण डच सरकार के हाथों में था, जिससे उसकी स्वतंत्रता सीमित रही. यही उनकी कमजोरी बनी.
साथ ही, उनकी नौसैनिक शक्ति अंग्रेजों की तुलना में कमजोर थी और उन्होंने दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीपों पर ही अत्यधिक ध्यान केंद्रित किया. इस कारण वे भारत में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों से निर्णायक प्रतिस्पर्धा नहीं कर सके और अंततः उनका प्रभाव समाप्त हो गया.

ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी (The British East India Company) का आगमन
1579 ई. में विलियम ड्रेक ने पूर्वी क्षेत्र का भ्रमण किया. 1578 ई. में स्पेनिश आर्मडा की हार हुई और इसी के साथ ब्रिटेन की नौसैनिक श्रेष्ठता स्थापित हो गई. 1599 में से ‘गवर्नर एंड कंपनी ऑफ मर्चेंट ऑफ लंदन ट्रेडिंग टू द ईस्ट इंडीज़’ की स्थापना हुई.
इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ ने 31 दिसम्बर, 1600 ई. को पूर्व से व्यापार करने के एकाधिकार का एक चार्टर प्रदान किया. यह एकाधिकार आरंभ में 15 वर्षों के लिए थी. 1609 में सम्राट जेम्स प्रथम ने कंपनी को अनिश्चित काल के लिए यह अधिकार प्रदान किया. यही कंपनी ईस्ट इंडिया कम्पनी के संक्षिप्त नाम से प्रसिद्ध हुई.
कम्पनी ने भारतवर्ष से व्यापार करने का निश्चय किया और इस हेतु विलियम हॉकिन्स को मुग़ल सम्राट् से बातचीत करने भेजा. हाकिन्स अपने साथ इंग्लैण्ड के सम्राट् जेम्स प्रथम का, मुगल सम्राट् अकबर के नाम एक पत्र भी ले गया जिसमें मुगल-साम्राज्य में व्यापार करने की प्रार्थना थी. हाकिन्स 24 अगस्त, 1608 ई. को मुग़ल-साम्राज्य के प्रमुख बन्दरगाह सूरत पहुँचा.
पुर्तगालियों ने अंग्रेजों के मार्ग में हर प्रकार की बाधा डाली और हाकिन्स को सूरत में फैक्टरी स्थापित करने की आज्ञा न मिल सकी. सूरत के गवर्नर ने हाकिन्स को मुग़ल-सम्राट् जहाँगीर से मिलने का परामर्श दिया. जहाँगीर ने हाकिन्स का स्वागत किया, परन्तु पुर्तगालियों के कुचक्रों के कारण अपने कार्य में हाकिन्स को सफलता न मिल सकी. 1611 ई. में निराश होकर हाकिन्स आगरा से चल दिया.
हेनरी मिडिलटन को 1611 ई. में पुर्तगालियों के विरुद्ध विजय प्राप्त हुई. स्थानीय अधिकरियों की दृष्टि में इस विजय ने अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ा दी. परन्तु पुर्तगालियों के विरोध के कारण अंग्रेजी कम्पनी को कोई व्यापारिक सुविधा न प्राप्त हो सकी. सितम्बर 1612 ई. में थॉमस वेस्ट अपने छोटे से जहाजी बेड़े के साथ सूरत के बन्दरगाह पर पहुँचा. यहाँ उसका स्वागत हुआ. यह देखकर पुर्तगाली चौकन्ने हो गये और उन्होंने गोवा से एक शक्तिशाली जहाजी बेड़ा अंग्रेज़ी जहाजों पर आक्रमण करने भेजा.
पुर्तगाली जहाजी बेडे ने 22 अक्टूबर 1612 ई. को अंग्रेजी बेड़े पर आक्रमण कर दिया. इस समुद्री युद्ध में, जो सुआली के मुहाने पर लड़ा गया, अंग्रेजों की विजय हुई. अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ गयी और उन्हें सूरत में ब्रिटिश फैक्ट्री स्थापित करने की आज्ञा मिल गयी.
1612 में प्रथम ब्रिटिश फैक्ट्री सूरत में स्थापित हुई. इस समझौते की पुष्टि के लिए सम्राट् से प्रार्थना की गई. मुग़ल-सम्राट् जहाँगीर ने एक फरमान दिनांक 11 जनवरी 1613 ई. के द्वारा सूरत के अधिकारियों द्वारा किये गये समझौते की पुष्टि करते हुए कम्पनी को सूरत में अपनी फैक्ट्री स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान कर दी तथा 3½ प्रतिशत कस्टम-ड्यूटी निश्चित की.
पुर्तगालियों ने अपने कुचक्रों को जारी रखा. अधिकारियों पर दबाव डालने के लिए उन्होंने लाल सागर से लौटते हुए सूरत के एक मूल्यवान जहाज को पकड़ लिया; यद्यपि उसके पास पुर्तगालियों की अनुमति थी.
मुगल-सम्राट् जहाँगीर पर भी पुर्तगालियों ने दबाव डाला कि वह अंग्रेजों को दी गयी व्यापारिक सुविधाओं को वापस ले ले. मुग़ल-दरबार में पुर्तगालियों के इन कुचक्रों का मुकाबला करने के लिए अंग्रेज़ों ने भी एक राजदूत भेजने का निश्चय किया. इसके लिए सर टॉमस रो को चुना गया. 1615 में टॉमस रो भारत पहुँच गया.
वह अपने साथ मुगल-सम्राट् जहाँगीर के लिए जेम्स प्रथम का एक पत्र भी लाया, जिसमें प्रार्थना की गई थी कि उन्हें (अंग्रेज़ो की) दूसरों की शत्रुता ईर्ष्या अथवा बहकाने पर किसी प्रकार की असुविधा न हो और उनके व्यापार को हानि न पहुँचे.
पत्र में जहांगीर को संबोधित कर लिखा गया कि आपके बन्दरगाह सुआली और सूरत में, उनके (अंग्रेज़ों के) जहाजों पर पुर्तगालियों ने आक्रमण किये हैं, यद्यपि उन्होंने (अंग्रेजों ने) इन आक्रमणों से अपनी रक्षा करते हुए अपनी शक्ति का अच्छा प्रदर्शन किया है. फिर भी आपसे प्रार्थना है कि उन भागों में आप उन्हें (अंग्रेजों को) सहायता प्रदान करें और उनकी रक्षा करें.
रो का सम्राट् जहाँगीर ने स्वागत किया. उसके प्रयत्नों से अंग्रेजों की स्थिति सुदृढ़ हो गई. परन्तु वह निश्चित संधि मुग़ल-सम्राट् और इंग्लैण्ड के सम्राट् के बीच कराने में सफल न हो सका. 1619 में रो के इंग्लैण्ड जाने के समय तक सूरत, आगरा, अहमदाबाद और भड़ौच में अंग्रेजों की फैक्टरियाँ स्थापित हो गई थीं.
दक्षिण और अन्य क्षेत्रों में अंग्रेजों का विस्तार
सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत तक अंग्रेजों ने धीरे-धीरे भारत के विभिन्न हिस्सों में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी. 1623 तक वे सूरत, आगरा, अहमदाबाद, मसलीपट्टनम (मछलीपट्टनम) और भड़ौच जैसे प्रमुख व्यापारिक केंद्रों में अपनी कोठियाँ स्थापित कर चुके थे.
दक्षिण भारत में अंग्रेजों की पहली कोठी 1611 ई. में मसलीपट्टनम में खोली गई. इसके कुछ वर्षों बाद 1639 ई. में उन्हें मद्रास में व्यापार करने की अनुमति मिली. यहाँ फ्राँसिस डे ने चंद्रगिरि के राजा से मद्रास का पट्टा लिया और एक किलेबंद कोठी बनाई, जिसे आगे चलकर फोर्ट सेंट जॉर्ज कहा गया. इसी बीच, 1632 ई. में गोलकुंडा के सुल्तान ने ‘सुनहरे फरमान’ के माध्यम से अंग्रेजों को अपने राज्य में स्वतंत्र रूप से व्यापार करने की सुविधा भी प्रदान कर दी.
पूर्वी भारत में अंग्रेजों का पहला कारखाना 1633 ई. में उड़ीसा के बालासोर में खोला गया. इसके बाद 1651 ई. में उन्हें हुगली नगर में व्यापारिक गतिविधियाँ संचालित करने की अनुमति मिली और धीरे-धीरे बंगाल, बिहार, पटना और ढाका तक उनका प्रसार हो गया.
1686 ई. में अंग्रेजों ने हुगली पर हमला कर उसे लूट लिया. परिणामस्वरूप उनका मुगल सेनाओं से टकराव हुआ और उन्हें सूरत, मसलीपट्टनम तथा विशाखापट्टनम जैसे कई केंद्रों से हाथ धोना पड़ा. लेकिन क्षमा याचना के साथ डेढ़ लाख रुपये मुआवजा देने के बाद औरंगज़ेब ने उन्हें पुनः व्यापार की अनुमति दे दी.
इसके बाद अंग्रेजों को लगातार व्यापारिक रियायतें मिलती रहीं. 1691 ई. में एक शाही आदेश के तहत बंगाल में कंपनी को सीमा शुल्क से छूट प्रदान की गई, बदले में उन्हें एकमुश्त वार्षिक कर देना होता था.
1698 ई. में अजीमुशान ने उन्हें सुतानती, कलिकाता (कलकत्ता) और गोविंदपुर नामक गाँवों की जमींदारी दी. इन्हीं गाँवों को मिलाकर जॉब चार्नाक ने कलकत्ता बसाया और यहाँ एक किलेबंद बस्ती फोर्ट विलियम के नाम से स्थापित हुई. इसके प्रशासन हेतु ‘प्रेसिडेंट और काउंसिल’ की व्यवस्था की गई, जिसमें चार्ल्स आयर पहले प्रेसिडेंट बने.
1700 ई. में कलकत्ता को कंपनी का पहला प्रेसिडेंसी नगर घोषित कर दिया गया. आगे चलकर यह नगर 1774 से 1911 तक ब्रिटिश भारत की राजधानी रहा.
1717 ई. में कंपनी के चिकित्सक विलियम हैमिल्टन ने जब मुगल सम्राट फर्रुखसियर का इलाज किया. फलस्वरूप सम्राट ने अंग्रेजों को कई व्यापारिक विशेषाधिकार प्रदान किए. अंग्रेजों को मात्र 3000 रुपये वार्षिक कर देकर पूरे साम्राज्य में निःशुल्क व्यापार करने की छूट मिली. बंबई में ढाले गए सिक्कों को पूरे मुगल साम्राज्य में चलाने की अनुमति भी मिल गई. इस फरमान को ब्रिटिश इतिहासकार ओर्म्स ने कंपनी का “महाधिकार पत्र” (Magna Carta) करार दिया.
संगठन
सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की फैक्ट्रियाँ दो प्रैज़ीडेटों के अन्तर्गत संगठित थीं. इसमें से एक सूरत की अंग्रेज़ी फैक्टरी का प्रैज़ीडेंट था. सूरत प्रैजीडेंट के अधीन पश्चिमी भाग में स्थित फैक्ट्रियाँ, दक्षिण भारत में मालाबार तट स्थित राजापुर की फैक्ट्री, फारस और लालसागर स्थित फैक्ट्रियाँ थीं. सूरत के प्रैजीडेंसी के अधीन निम्नलिखित फैक्ट्रियाँ थीं-
(1) सूरत, (2) अहमदाबाद, (3) आगरा, (4) थट्टा (सिंध), (5) गोमरूप (बन्दर अब्बास) तथा (6) इस्पहान (फारस).
1657 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पूर्व में स्थित अपनी समस्त फैक्टरियों को सूरत प्रैजीडेंसी के अधीन कराने का निश्चय किया. इस प्रैजीडेसी के अन्तर्गत 4 शाखाएँ थीं, जो एजेण्ट और काउन्सिल के अधीन थीं. ये शाखाएँ थीं-
(1) कोरोमण्डल-तट, (2) बंगाल, (3) फारस एवं (4) बांटाम.
अंग्रेजों की फैक्ट्री कोरोमण्डल-तट पर मछलीपट्टम और फोर्टसेण्ट जार्ज में स्थापित थी. पूर्वी भारत में उड़ीसा में बालासोर और हरिहरपुर में बंगाल में हुगली और कासिम बाजार, बिहार में पटना में स्थापित थीं.
1652 ई. में पूर्वी प्रैजीडेंसी का मुख्यालय बाण्टाम को हटाकर फोर्ट सेन्ट जार्ज कर दिया गया. 1658 ई. में पूर्वी बंगाल, बिहार, उड़ीसा और कोरोमण्डल तट पर स्थित फैक्टरियाँ सेन्ट जार्ज (मद्रास) के अधीन कर दी गयीं. बंगाल में कम्पनी अधिक सुविधाएँ प्राप्त करने में सफल हुई.
1651 ई. में बंगाल के सूबेदार शाहशुजा ने 3,000 रुपये वार्षिक के बदले कम्पनी को समस्त सीमा-शुल्कों से मुक्त कर दिया. 1698 ई. में कम्पनी को तीन गाँवों-सतनुती, कालीकत्ता और गोविन्दपुर की जमींदारी प्राप्त हुई, इससे एक नये नगर कलकत्ता का जन्म हुआ. 1700 ई. में बंगाल में स्थित फैक्टरियाँ एक प्रैजीडेट और काउंसिल के अधीन कर दी गयीं, जिसका मुख्यालय फोर्ट विलियम (कलकत्ता) में था.
इस प्रकार सत्रहवीं शताब्दी की समाप्ति पर कम्पनी की फैक्टरियाँ तीन महत्त्वपूर्ण स्थानों-पश्चिमी तट पर सूरत और बम्बई, दक्षिणी-पूर्वी तट पर मद्रास और पूर्व में कलकत्ता में स्थापित थीं. 1717 ई. में सम्राट् फर्रुखसियर ने एक फरमान द्वारा अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी को 3,000 रुपये के बदले बिना कोई अन्य कर दिये व्यापार करने की सुविधा को पक्का कर दिया.
फरूखसियर के समय ब्रिटिश अधिकारी जॉन सुरमन आया था. सूरत में केवल दस हजार रुपये वार्षिक देकर कम्पनी समस्त सीमा-शुल्कों से मुक्त हो गई और बम्बई की टकसाल में ढाले गये कम्पनी के सिक्कों के समस्त मुगल-साम्राज्य में प्रचलन की अनुमति प्रदान की गयी. यह फरमान कम्पनी के लिए बड़ा लाभप्रद सिद्ध हुआ और कम्पनी की स्थिति सुदृढ़ हो गयी.
बम्बई की प्राप्ति
1661 में पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन का विवाह ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स द्वितीय से हुआ. इसके साथ ही बंबई दहेज के रूप में ब्रिटेन को मिला, जिसे बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को किराए पर दे दिया गया.
1661 में ब्रिटिश राजकुमार चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाली राजकुमारी इनफैण्टा केथराइन से सम्पन्न हुआ. इसके साथ ही बंबई दहेज के रूप में ब्रिटेन को मिला, जिसे बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को किराए पर दे दिया गया. स्पेन इसी समय पुर्तगाल के अधीन हो गया. इससे पुर्तगाल का ध्यान एशिया से हटकर पश्चिम की ओर चला गया. फलतः, भारत में उनका प्रभुत्व कमजोर पड़ गया.
वास्तव में बम्बई द्वीप देकर पुर्तगाली, डचों के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता प्राप्त करना चाहते थे. एक गुप्त संधि के द्वारा चाल्र्स द्वितीय ने पूर्व में पुर्तगालियों की बस्तियों की डचों के आक्रमणों से रक्षा करने तथा पुर्तगाल सम्राट् और नीदरलैण्ड के स्टेट्स जनरल के बीच स्थायी शांति स्थापित करने हेतु प्रयत्न करने का वचन दिया.
1661 ई. में चार्ल्स द्वितीय ने मार्लवरो के अधीन एक जहाजी बेड़ा बम्बई द्वीप को प्राप्त करने के लिए भेजा. 18 सितम्बर, 1662 ई. को मार्लवरो बम्बई पहुँचा, परन्तु बम्बई का पुर्तगाली गवर्नर जो इस निर्णय से प्रसन्न नहीं था, किसी-न-किसी बहाने बम्बई के हस्तान्तरण को टालता रहा. मार्लवरो इंग्लैण्ड वापस लौट गया.
पुर्तगाली सम्राट् ने पुनः बम्बई गवर्नर को आदेश भेजा और 1665 ई. में बम्बई के द्वीप को अंग्रेजों को सौंप दिया. साथ-ही-साथ उसने पुर्तगाल के सम्राट् को बम्बई का महत्त्वू बताते हुए लिख दिया- भारत (पुर्तगालियों के लिए) उसी दिन खो जाएगा जिस दिन अंग्रेजों को बम्बई सौंप दिया जाएगा. चार्ल्स द्वितीय ने बंबई को ईस्ट इंडिया कंपनी को 10 पौण्ड वार्षिक के मामूली किराये पर 27 मार्च, 1668 ई. को दे दिया.
कम्पनी ने अपने अधिकारियों को बम्बई द्वीप प्राप्त करने के निर्देश भेज दिये. बम्बई द्वीप को सूरत प्रैजीडेंसी के अधीन रखा गया. सूरत फैक्टरी के प्रैज़ीडेंट सर जार्ज आक्सिण्डन को बम्बई द्वीप का गवर्नर और कमाण्डर-इन-चीफ़ नियुक्त किया गया. भौगोलिक दृष्टि से लाभप्रद स्थिति के कारण शीघ्र ही मुंबई, सूरत की जगह कंपनी का प्रमुख मुख्यालय बन गया.
अंग्रेजों ने बम्बई का तेजी से विकास किया. व्यापार के अनुकूल माहौल बनाए गए. बम्बई को वस्त्र-उद्योग का केन्द्र बनाने के लिए कम्पनी ने जुलाहों को बम्बई में बसने के लिए प्रोत्साहित किया. उन्हें हर सुविधा देने का वचन दिया. कम्पनी के प्रोत्साहन पर बहुत से जुलाहे यहाँ आकर बस गये. यहाँ रुई और धागे सूरत और कैम्बे से लाये जाते थे. इसके साथ ही कई अमीर भी यहाँ बसे और अपना व्यापार आरंभ किया.
1686 ई. में कम्पनी के डायरेक्टरों ने बम्बई को सूरत के स्थान पर अपनी सरकार का मुख्यालय बनाया परन्तु 17वीं शताब्दी के अन्त तक सूरत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापार का प्रमुख केन्द्र बना रहा. अठारहवीं शताब्दी में सूरत के पतन के बाद बम्बई कम्पनी के व्यापार का प्रमुख केन्द्र हो गया.
कर्मचारियों द्वारा निजी व्यापार
कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन कम थे. अपनी आय को बढ़ाने के लिए कर्मचारी अपना निजी व्यापार करते थे. निजी व्यापार ही कम्पनी की सेवा में कर्मचारियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण था. अपने कर्मचारियों द्वारा किया गया व्यापार कम्पनी के लिए हानिकारक था. इस निजी व्यापार को रोकने के लिए कम्पनी ने समय-समय पर आदेश जारी किये.
कर्मचारियों को निजी व्यापार न करने की शपथ लेनी होती थी. जहाजों के कप्तान को एक बॉण्ड इस आशय का भरना होता था कि वह कम्पनी के माल के अतिरिक्त अन्य माल न इंग्लैंड लायेंगे और न इंग्लैंड से ले जायेंगे. निजी माल पकड़ा जाने पर कम्पनी उसे जब्त कर लेती थी.
जब कम्पनी के संचालकों को यह सूचना मिली कि उनके कर्मचारी कम्पनी के जहाजों में भारत के एक बन्दरगाह से दूसरे बन्दरगाह को अपना निजी माल भेजकर खूब कमा रहे हैं; तब उन्होंने सूरत के प्रैजीडेण्ट को कठोर आदेश भेजे कि इस निजी व्यापार को तुरन्त बन्द किया जाये और निजी व्यापार करने वाले कर्मचारियों को कम्पनी से बखास्त करके इंग्लैंड भेज दिया जाय.
कम्पनी के कर्मचारी कभी-कभी भारतीय व्यापारियों से गुप्त साझेदारी करके लाभ कमाते थे. भारतीय व्यापारी कस्टम ड्यूटी और अन्य राहदरी करों में कम्पनी को रियायत होने के कारण इस गोपनीय साझेदारी में जाते थे. कम्पनी को जब पता चला कि इस प्रकार माल फारस को तब उसने इसके विरुद्ध सूरत प्रैज़ीडेन्सी को कठोर चेतावनी भेजी.
कम्पनी के कर्मचारी कभी-कभी कम्पनी के धन को अपने निजी व्यापार में ले आते थे और इस प्रकार कम्पनी को बड़ी हानि पहुँचती थी. कम्पनी के संचालकों ने अपने एक आदेश दिनांक 21 अक्टूबर, 1679 ई. के द्वारा कठोर चेतावनी देते हुए कहा कि- जो कर्मचारी कंपनी के धन का इस प्रकार प्रयोग करेंगे, इन्हें कंपनी की नौकरी से निकल दिया जाएगा और कंपनी से मिलने वाली समस्त सुविधाओं से उन्हें वंचित कर दिया जाएगा.
निजी व्यापार के विरुद्ध कठोर आदेशों के होते हुए भी, कम्पनी निजी व्यापार को पूर्ण रूप से रोकने में सफल न हो सकी. यह देखकर कम्पनी ने कुछ निर्धारित वस्तुओं में निजी व्यापार की अनुमति प्रदान कर दी, परन्तु निजी व्यापार की वस्तुओं को कम्पनी के रजिस्टर में दर्ज कराना अनिवार्य कर दिया गया, जिसकी सूचना कम्पनी के संचालकों को देनी पड़ती थी.
महारानी एलिजाबेथ ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी को 1600 ई. में चार्टर द्वारा पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था. जिन व्यापारियों को व्यापार करने का अधिकार नहीं मिला था, वे अनाधिकृत रूप से व्यापार करते थे. जेम्स प्रथम और चार्ल्स प्रथम ने व्यक्तिगत व्यापारियों को पूर्व से स्वतन्त्र रूप से व्यापार करने के लाइसेंस दिये. कॉमनवेल्थ के समय में अनधिकृत व्यापारियों की गतिविधियाँ अधिक बढ़ गयीं.
1660 ई. में राजतंत्र की पुन: स्थापना पर कम्पनी को चार्ल्स द्वितीय ने अधिक सुविधाएँ प्रदान कीं. चाल्र्स द्वितीय ने कम्पनी को यह अधिकार दिया कि वह इन अनाधिकृत व्यापारियों को बन्दी बनाकर इंग्लैंड भेज दे. कम्पनी के संचालकों ने सूरत प्रैजीडेन्सी को आदेश भेज दिये कि इन अनाधिकृत व्यापारियों को बन्दी बनाकर इंग्लैंड भेज दिया जाये.
1688 ई. की गौरवपूर्ण क्रान्ति (गोरियास रिवाल्यूशन) ने विलियम को इंग्लैंड का राजा बनाया और पार्लियामेन्ट की प्रभुता का युग प्रारम्भ हो गया. इस प्रकार राजा द्वारा किया गया व्यापारिक एकाधिकार पार्लियामेन्ट के कानून के द्वारा रद्द किया जा सकता था.
एक अनाधिकृत व्यापारी ने हाऊस ऑफ कॉमन्स की एक कमेटी के समक्ष कहा कि वह पूर्व से व्यापार करना कोई अपराध नहीं समझता और तब तक व्यापार करता रहेगा जब तक इसके विरुद्ध पार्लियामेन्ट कानून नहीं बनाती. इंग्लैंड की पार्लियामेन्ट ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसके द्वारा पूर्व से व्यापार करना सब अंग्रेजों का अधिकार है, जब तक इसके विरुद्ध पार्लियामेन्ट कोई कानून नहीं बनाती.
पार्लियामेन्ट के इस प्रस्ताव से अनाधिकृत व्यापारियों को बड़ा प्रोत्साहन मिला. उन्होंने एक विरोधी कम्पनी का निर्माण किया. सरकार को धन की आवश्यकता थी. इस विरोधी कम्पनी ने 20 लाख पौंड 8 प्रतिशत ब्याज पर सरकार को देने का प्रस्ताव किया. साथ ही सरकार से एक चार्टर प्रदान करने की प्रार्थना की. सरकार ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. 1698 ई. में पार्लियामेन्ट के एक एक्ट द्वारा नयी कम्पनी का जन्म हुआ. सरकार ने पुरानी कम्पनी को तीन वर्ष तक का नोटिस दे दिया.
दो कम्पनियाँ और परस्पर संघर्ष
इस प्रकार दो कम्पनियाँ भारत से व्यापार करने लगीं, क्योंकि तीन वर्ष की नोटिस मिलने पर पुरानी कम्पनी को भी 29 सितम्बर, 1701 ई. तक पूर्व से व्यापार करने का अधिकार था. इस प्रकार भारत में दोनों कम्पनियों के कर्मचारियों में झगड़ा प्रारम्भ हो गया.
नयी कम्पनी के प्रैजीडेंट सर निकोलस वेंट ने मुग़ल-अधिकारियों को सूचित किया कि उनकी कम्पनी को भारत से व्यापार करने का एकाधिकार इंग्लैंड की पार्लियामेन्ट द्वारा प्राप्त है और पुरानी कम्पनी के कर्मचारी किसी भी दिन कम्पनी के कर्जों को बिना चुकाये भारत को छोड़ कर जा सकते हैं. उससे स्थानीय व्यापारियों के मन में सन्देह पैदा हो गया.
सम्राट् विलियम ने सर विलियम नोरिस को अपना विशेष दूत बनाकर मुग़ल-दरबार में भेजा. नोरिस का उद्देश्य नयी कम्पनी के लिए व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करना था. विलियम नोरिस को यह निर्देश था कि वह यह स्पष्ट कर दे कि नयी कम्पनी का पुरानी कम्पनी के ऋणों से कोई सम्बन्ध नहीं है.
सर विलियम नोरिस ने औरंगजेब को बहुमूल्य उपहार दिये. उसने मुग़ल-सम्राट् को सूचित किया कि नई कम्पनी को चार्टर प्रदान किया गया है और पुरानी कम्पनी समाप्त कर दी गई है. सम्राट् से उसने प्रार्थना की कि पुरानी कम्पनी के कर्मचारियों को मुग़ल-साम्राज्य में व्यापार करने की आज्ञा न दी जाये.
पुरानी कम्पनी के कर्मचारी भी चुप नहीं थे. उन्होंने मुगल-दरबारियों को समझाया कि वह ही वास्तविक कम्पनी है जो राजकीय चार्टर के आधार पर व्यापार कर रही है और नयी कम्पनी के सदस्य भी अंग्रेजू व्यापारी हैं जिनको भारत से व्यापार करने की आज्ञा मिल गई है.
मुगल-सम्राट् का उत्तर यह था कि मुग़ल-बन्दरगाह सब व्यापारियों के लिए खुले हुए हैं और वह पुरानी कम्पनी के कर्मचारियों को अपने साम्राज्य से नहीं निकाल सकता. सर विलियम नोरिस अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ.
दोनों कम्पनियों का एक होना
दोनों कम्पनियों ने अनुभव किया कि आपसी संघर्ष दोनों को विनाश के कगार पर ले जायेगा. इंग्लैंड का जनमत दोनों कम्पनियों को एक करने के पक्ष में था. दोनों कम्पनियों में समझौते की बातचीत चली. दोनों कम्पनियों ने अपने सात-सात प्रतिनिधि बातचीत के लिए चुने. 1702 ई. में दोनों कम्पनियों में समझौता हो गया और दोनों कम्पनियों की एक संयुक्त कम्पनी बन गई.
फ़्रांसीसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी (The French East India Company) का आगमन
फ्रांसीसियों ने पूर्व में व्यापार करने के लिए 1664 ई. में एक फ्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी का निर्माण किया. इसका नाम कम्पनी इन्डेसेओरियंतलेस था. इस कम्पनी के निर्माण में लुई-चौदहवें के मन्त्री कोलबर्ट ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी. सम्राट् लुई ने कम्पनी को एक चार्टर प्रदान किया. जिसके अनुसार 50 वर्ष तक कम्पनी को मेडागास्कर से पूर्व भारत तक व्यापार का एकाधिकार प्राप्त हो गया.
कम्पनी को मेडागास्कर और समीपवर्ती टापू भी प्रदान किये गये. कम्पनी की स्थापना फ्राँस के मंत्री कोलबर्ट के प्रयास से हुई. प्रबन्धकारिणी के रूप में 21 संचालकों की एक समिति बनायी गई. कम्पनी की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए लुई ने कम्पनी को 30,00,000 लिवर ब्याज रहित प्रदान किये, जिसमें से कम्पनी को 10 वर्ष में जो भी हानि हो, काटी जा सकती थी. राज-परिवार के सदस्यों, मन्त्रियों और व्यापारियों को प्रोत्साहित किया गया था कि वे कम्पनी में धन लगाये.
लुई ने कम्पनी को विस्तृत अधिकार प्रदान किये. कम्पनी पूर्व के देशों में अपने राजदूत भेज सकती थी, युद्ध की घोषणा कर सकती थी और सन्धि कर सकती थी. लुई ने आश्वासन दिया कि कम्पनी के जहाजों की सुरक्षा के लिए अपने जगी जहाज भेजेगा और कम्पनी को अपने जहाजों पर फ्रांस का राजकीय झंडा फहराने की आज्ञा प्रदान की.
कम्पनी के अपने भू-प्रदेशों का प्रशासन देखने के लिए एक गवर्नर-जनरल नियुक्त करने की आज्ञा प्रदान की गई और उसे राजा के लेफ्टिनेंट जनरल की उपाधि से विभूषित किया गया. उसकी सहायता के लिए 7 सदस्यों की एक काउन्सिल बनायी गयी. यह काउन्सिल सर्वप्रथम मेडागास्कर में स्थापित की गई. 1671 में इसे सूरत और 1701 में पाण्डिचेरी ले जाया गया. इस प्रकार पाण्डिचेरी में पूर्व फ्रांसीसियों का प्रमुख केन्द्र बन गया.
सूरत में फ्रेंच फैक्टरी की स्थापना
सूरत मुगल-साम्राज्य का प्रसिद्ध बन्दरगाह और संसार का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था. 1612 ई. और 1618 ई. में यहाँ इंगलिश और डच फैक्टरियों की स्थापना हो चुकी थी. इसके अतिरिक्त मिशनरी, यात्री और व्यापारियों के द्वारा फ्रांसीसियों को मुग़ल-साम्राज्य और उसके बन्दरगाह सूरत के विषय में विस्तृत जानकारी मिल चुकी थी.
थेबोनीट, बर्नियर और टेवर्नियर फ्रांस के थे जिन्होंने अपने देशवासियों को भारत के बारे में जानकारी दी है. अत: कम्पनी ने सूरत में अपनी फैक्टरी स्थापित करने का निश्चय किया इस हेतु अपने दो प्रतिनिधि भेजे जो मार्च 1666 ई. में सूरत पहुँचे.
सूरत गवर्नर ने इन प्रतिनिधियों का स्वागत किया, परन्तु पहले स्थापित इंगलिश और डच फैक्टरी के कर्मचारियों को एक नये प्रतियोगी का आना अच्छा नहीं लगा. ये प्रतिनिधि सूरत से आगरा पहुँचे, उन्होंने लुई-चौदहवें के व्यक्तिगत पत्र को औरंगजेब को दिया और इन्हें सूरत में फैक्टरी स्थापित करने की आज्ञा मिल गयी. कम्पनी ने केरोन को सूरत भेजा और इस प्रकार 1661 ई. में भारत में सूरत के स्थान पर प्रथम फ्रेंच फैक्टरी की स्थापना हुई.
सूरत की फ्रेंच फैक्टरी के कर्मचारियों की विभिन्न श्रेणियाँ थीं. ये श्रेणियाँ डायरेक्टर, मर्चेण्ट सेक्रेटरी, खजान्ची और कलर्क की थीं. केरोन नव-स्थापित फैक्टरी का डायरेक्टर था. उसके नेतृत्व में फ्रेंच व्यापार का तेजी से विकास हुआ.
कम्पनी का मुख्यालय भी फोर्ट डोफिन (मेडागास्कर) से बदल कर सूरत कर दिया गया परन्तु इसी समय कम्पनी ने ऐसी त्रुटि की जिससे उसके व्यापार को बड़ा धक्का लगा. कम्पनी ने सूरत फैक्टरी में एक डायरेक्टर के स्थान पर 4 डायरेक्टर नियुक्त किये और उनको समान अधिकार प्रदान किये. चारों डायरेक्टरों को समान अधिकार प्राप्त थे. ऐसे में इनमें साधारण-सी बातों पर विवाद होने लगे. इससे फ्रांसीसियों के व्यापार और उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा.
आपसी झगड़ों के अतिरिक्त कम्पनी के कर्मचारियों में व्यापारिक कुशलता का भी अभाव था. इंगलिश और डच व्यापारिक कुशलता में फ्रांसीसियों से आगे थे. फ्रांसीसियों के व्यापार से उन्हें क्या मिल रहा है और इस पर उनका कितना खर्च हो रहा है, इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया. वह अंग्रेजों और डचों की अपेक्षा भारतीय माल को अधिक मूल्य पर खरीदते थे और अपना माल कम मूल्य पर बेचते थे.
फ्रेंच शान-शौकत पर अधिक खर्च करते थे. वे मितव्ययी नहीं थे. अपनी समृद्धि का प्रदर्शन करने के लिए वे स्थानीय अधिकारियों को बहुमूल्य उपहार देते थे. इन उपहारों से खर्च की अपेक्षा लाभ कम होता था. इन कारणों से फ्रांसीसियों की आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी और उन्होंने सूरत फैक्टरी का त्याग कर दिया.
व्यापारिक शत्रुता
यूरोपीय कम्पनियों में घोर व्यापारिक शत्रुता थी. ये कम्पनियाँ जियो और जीने दो के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करती थी. जिस प्रकार ये कम्पनियाँ अपने देश में व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त करना चाहती थीं और चार्टर द्वारा उन्हें पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार मिला हुआ था, उसी प्रकार से कम्पनियाँ भारत और सुदूर पूर्व के दूसरे प्रदेशों पर व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त करना चाहती थीं.
इस कारण इन कम्पनियों में व्यापारिक युद्ध हुए. सत्रहवीं शताब्दी में यह संघर्ष तिकोना था. अंग्रेज़-पुर्तगीज-संघर्ष, डच-पुर्तगीज संघर्ष और अंग्रेज़-डच संघर्ष. अठाहरवीं शताब्दी में यह संघर्ष अंग्रेज़ और फ्रांसीसियों के बीच हुआ.
अंग्रेज़-पुर्तगीज और डच-पुर्तगीज संघर्ष
जैसा कि पहले कहा जा चुका है वास्कोडिगामा ने 1498 ई. में भारत के लिए एक नया समुद्री मार्ग खोजा. इस खोज के आधार पर तथा पोप के पोपल बुल के कारण लगभग एक शताब्दी तक पूर्व के व्यापार पर पुर्तगालियों का एकाधिकार बना रहा.
सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अंग्रेज़ों और डचों ने पुर्तगालियों के इस एकाधिकार को चुनौती दी. अंग्रेजों की अपेक्षा डच पुर्तगालियों के प्रबल शत्रु सिद्ध हुए और डचों ने पुर्तगालियों को मसालों की प्राप्ति के प्रमुख प्रदेश पूर्वी द्वीप समूह, लंका और मालाबार तट से खदेड़ दिया.
इसी प्रकार जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सूरत में अपनी फैक्टरी स्थापित करने का प्रयत्न किया, पुर्तगालियों के प्रभाव और कुचक्रों के कारण हाकिन्स को अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिली. 1612 ई. में थॉमस वैस्ट के जहाजों पर पुर्तगाली जहाजी बेड़े ने आक्रमण कर दिया. इस समुद्री युद्ध में जो सुआली (सूरत) के मुहाने पर लड़ा गया, पुर्तगालियों की पराजय हुई. इस विजय से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ गई.
ऐंग्लो-डच युद्ध
अंग्रेज-पुर्तगीज संघर्ष कुछ समय तक चलता रहा. परन्तु एक साझे शत्रु डचों ने दोनों को एक-दूसरे के समीप ला दिया. पुर्तगीज डचों से बहुत तंग थे और उन्होंने अंग्रेजों से मित्रता करने में अपना हित समझा. इसी प्रकार अंग्रेज़ भी पुर्तगालियों की मित्रता के लिए उत्सुक थे क्योंकि इस मित्रता से उन्हें मालाबार-तट पर मसालों के व्यापार की सुविधा प्राप्त होती थी.
इस कारण गोवा के पुर्तगीज गवर्नर और सूरत के अंग्रेज प्रैजीडेन्ट में 1635 ई. में एक सन्धि हो गयी. यह मित्रता पुर्तगीज राजकुमारी केथराइन का इंग्लैण्ड के सम्राट चार्ल्स-द्वितीय से विवाह से और पक्की हो गई. इस विवाह के फलस्वरूप चार्ल्स द्वितीय को बम्बई का द्वीप दहेज में प्राप्त हुआ जिसे उसने 10 पौंड वार्षिक किराये पर कम्पनी को दे दिया.
अंग्रेज़-डच संघर्ष
डच पुर्तगालियों की अपेक्षा अंग्रेजों के अधिक प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हुए. अंग्रेजों और डचों दोनों ही की फैक्टरियाँ सूरत में स्थापित थीं. मसालों के व्यापार के एकाधिकार पर अंग्रेजों और डचों का संघर्ष हो गया. डच मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहते थे जिसे अंग्रेजों ने चुनौती दी.
मालाबार-तट के लिए डचों ने राजाओं से समझौते किये जिसके अनुसार काली मिर्च केवल डचों को ही बेची जा सकती थी. इस समझौते के फलस्वरूप डच कम मूल्य पर काली मिर्च प्राप्त करते थे यद्यपि स्वतन्त्र रूप से बेचने पर अधिक मूल्य प्राप्त किया जा सकता था.
अंग्रेजी कम्पनी के मालाबार-तट से काली मिर्च खरीदने के मार्ग में डच हर प्रकार से रोडा अटकाते थे. जो जहाज इंगलिश कम्पनी के लिए काली मिर्च ले जाते थे, इन्हें पकड़ लिया जाता था. इन सब रुकावटों के होते हुए भी इंगलिश कम्पनी मालाबार तट से बड़ी मात्रा में काली मिर्च खरीदने और उसे इंग्लैण्ड भेजने में सफल हो जाती थी.
यद्यपि इंग्लैंड और हालैंड दोनों ही प्रोस्टेंट देश थे, परन्तु व्यापारिक शत्रुता के कारण उनमे शत्रुता के कारण उनमें तीन घमासान युद्ध 1652-54 ई., 1665-66 ई. और 1672-74 ई. में हुए. ब्रिटिश पार्लियामेंट ने अपने देश के व्यापारिक हित के लिए 1651 ई. में जहाजरानी कानून (नेवीगेशन्स ला) पास किया.
जहाजरानी कानून डचों के व्यापारिक हित में नहीं थे और उन्होंने उन्हें मानने से इंकार कर दिया. जब प्रथम एंग्लो-डच युद्ध की सूचना मार्च, 1635 में सूरत पहुँची तो अंग्रेज़ बड़े चिंतित हुए और उन्होंने सूरत के मुगल सूबेदारों से डचों के आक्रमणों से रक्षा की प्रार्थना की. इससे प्रतीत होता है कि पूर्व में उस समय डच अंग्रेजों से अधिक शक्तिशाली थे.
युद्ध की सूचना मिलते ही एक शक्तिशाली जहाजी सुआली (सूरत) पहुँच गया. मुगल अधिकारियों की सतर्कता के कारण डचों ने सूरत की इंगलिश फैक्टरी पर आक्रमण नहीं किया. यद्यपि स्थल पर संघर्ष नहीं हुआ, परन्तु समुद्र पर अंग्रेज और डचों में कई युद्ध हुए. अंग्रेज़ी जहाज डचों द्वारा पकड़े गये और व्यापार को हानि पहुँची. अन्य दो युद्धों (1665-67 ई. और 1672-74 ई.) में भी व्यापार को आघात पहुँचा.
पहले की तरह इन युद्धों के समय भी अंग्रेजों ने मुगल-सरकार से सुरक्षा की प्रार्थना की. स्थल पर कोई युद्ध नहीं हुआ. परन्तु समुद्र पर डचों ने अंग्रेज़ी जहाजों को पकड़ लिया. सन् 1688 ई. की गौरवपूर्ण क्रान्ति से जिसमें विलियम इंग्लैण्ड का राजा बन गया, अंग्रेज़-डच सम्बन्ध सुधर गये.
डेनिस कम्पनी
डेनिस कपनी का आगमन 1616 ई. में हुआ. 1620 ई. में तमिलनाडु के टूकोबर नामक क्षेत्र में इसने व्यापारिक केन्द्र खोला. इन्होंने बाद में 1676 में सेरामपोर (बंगाल) में अपनी फैक्टरियाँ स्थापित की. यह कंपनी भारत में अपनी स्थिति मज़बूत करने में असफल रही. 1745 तक अपनी सारी फैक्टरियाँ अंग्रेज़ों को बेचकर चली गई.
आगे चलकर पुर्तगाली भी गोवा तक सीमित हो गए और ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियाँ ही रह गई. कर्नाटक के युद्धों में फ्रांसीसियों का भाग्य भी तय हो गया.
स्वीडिश का आगमन
भारत में स्वीडिश लोगों का आगमन अन्य यूरोपीय शक्तियों की तुलना में कम महत्वपूर्ण और सीमित था. उन्होंने मुख्य रूप से व्यापार पर ध्यान केंद्रित किया और भारत में कोई स्थायी उपनिवेश या बड़ा राजनीतिक प्रभाव स्थापित नहीं कर पाए. उनका आगमन मुख्यतः स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी (Swedish East India Company) से जुड़ा था.
स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी
स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1731 में गुटेनबर्ग में हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य चीन और सुदूर पूर्व के साथ व्यापार करना था, विशेष रूप से चाय और रेशम का. हालांकि, उन्होंने भारत से भी कुछ व्यापारिक संबंध स्थापित किए, लेकिन ये संबंध बहुत सीमित थे.
स्वीडिश व्यापारियों ने मुख्य रूप से चीन से व्यापार पर ध्यान दिया, जहाँ से वे भारी मात्रा में चाय और अन्य वस्तुएँ यूरोप लाते थे. भारत में, उनका कोई स्थायी कारखाना या व्यापारिक कोठी नहीं थी. उन्होंने कुछ मौसमी व्यापारिक यात्राएँ कीं, लेकिन वे भारत में डच, अंग्रेज़ या फ्रांसीसियों की तरह कोई प्रमुख शक्ति नहीं बन पाए.
स्वीडिश कंपनी ने भारत के राजनीतिक या सामाजिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया. उनकी गतिविधियाँ पूरी तरह से व्यापार तक सीमित रहीं. वे भारत में कोई क्षेत्रीय दावे या सैन्य उपस्थिति स्थापित करने में असफल रहे. 18वीं शताब्दी के अंत तक, आर्थिक समस्याओं और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते प्रभुत्व के कारण उनकी गतिविधियाँ लगभग समाप्त हो गईं.
संक्षेप में, स्वीडिश का भारत में आगमन एक छोटी और अल्पकालिक घटना थी, जिसने भारत के इतिहास पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं डाला.
भारत में यूरोपीय कंपनियों के आगमन का क्रम –
GK Trick In Hindi – “पुत्र अंडा फसा”
पुत्र – पुर्तगाली (1498)
- अं – अंग्रेज – (1600)
- डा – डच – (1602)
- फ – फ़्रांसीसी (1664)
- सा – स्विडिश – (1731)
यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों से संबद्ध व्यक्ति
व्यक्ति | संबद्धता |
वास्को-डि-गामा | भारत आने वाला प्रथम पुर्तगाली यात्री |
कैब्राल | भारत आने वाला द्वितीय पुर्तगाली |
फ्रांसिस्को-डी-अल्मीडा | भारत आने वाला प्रथम पुर्तगाली वायसराय |
कैप्टन हॉकिंस | प्रथम अंग्रेज़ दूत जिसने सम्राट जहाँगीर से भेंट की. |
गेराल्ड ऑन्गियार | बंबई का संस्थापक |
जॉब चारनाक | कलकत्ता का संस्थापक |
चार्ल्स आयर | फोर्ट विलियम (कलकत्ता) का प्रथम प्रेसिडेंट. |
फ्रांको मार्टिन | पाँडिचेरी का प्रथम फ्रांसीसी गवर्नर |
फ्रांसिस डे | मद्रास का संस्थापक |
जॉन सुरमन | मुगल सम्राट फर्रुखसियर से विशेष व्यापारिक सुविधा प्राप्त करने वाले शिष्टमंडल का मुखिया. |
फ्रैंकोइस कैरो | भारत में प्रथम फ्रांसीसी फैक्ट्री की स्थापना सूरत में की. |
भारत में यूरोपीयों के आगमन पर FAQs
Q1. भारत में विभिन्न यूरोपीय शक्तियों के आगमन का क्रम क्या था और उनके प्रमुख उद्देश्य क्या थे?
उत्तर: भारत में यूरोपीय शक्तियों के आगमन का क्रम पुर्तगाली, डच, अंग्रेज़, डेनिश और फ्रांसीसी था. उनका प्राथमिक उद्देश्य भारत के मसालों, सूती वस्त्रों और अन्य वस्तुओं के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करना था. व्यापार के माध्यम से आर्थिक लाभ कमाना और ईसाई धर्म का प्रचार करना उनके मुख्य लक्ष्य थे.
Q2. पुर्तगाली भारत में व्यापार स्थापित करने में सफल होने के बावजूद अपने प्रभुत्व को लंबे समय तक बनाए क्यों नहीं रख पाए?
उत्तर: पुर्तगालियों के पतन के कई कारण थे. उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति, जिसमें जबरन धर्मांतरण और लूटपाट शामिल थी, ने स्थानीय शासकों और व्यापारियों का विरोध बढ़ाया. इसके अलावा, उनकी गुप्त व्यापारिक नीतियों और ब्राजील की खोज ने भी उनके ध्यान को भारत से विचलित किया. अंततः, अन्य यूरोपीय शक्तियों, विशेषकर अंग्रेजों की बेहतर नौसैनिक शक्ति और संगठनात्मक क्षमता के सामने वे टिक नहीं पाए.
Q3. ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में एक व्यापारिक कंपनी से एक राजनीतिक शक्ति के रूप में कैसे स्वयं को स्थापित किया?
उत्तर: ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे भारत में अपनी राजनीतिक शक्ति स्थापित की. उन्होंने स्थानीय शासकों की आपसी लड़ाइयों का फायदा उठाया और “फूट डालो और राज करो” की नीति अपनाई. प्लासी (1757) और बक्सर (1764) के युद्धों में मिली जीत ने उन्हें बंगाल पर नियंत्रण दिया. व्यापारिक सुविधाओं के बदले में सैन्य सहायता प्रदान करके उन्होंने भारतीय रियासतों पर अपना प्रभाव बढ़ाया और सहायक संधि जैसी नीतियों से धीरे-धीरे भारतीय क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिला लिया.
Q4. फ्रांसीसी और अंग्रेज़ों के बीच हुए कर्नाटक युद्धों का भारत के इतिहास पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर: फ्रांसीसी और अंग्रेज़ों के बीच हुए तीन कर्नाटक युद्धों (1746-1763) ने यह निर्धारित किया कि भारत में कौन सी यूरोपीय शक्ति सर्वोच्च होगी. इन युद्धों में अंग्रेजों की विजय हुई, जिससे फ्रांसीसी शक्ति का पतन हो गया. इन युद्धों के बाद, अंग्रेजों का कोई बड़ा यूरोपीय प्रतिद्वंदी नहीं बचा और उन्हें भारत में अपनी राजनीतिक और सैन्य शक्ति को मजबूत करने का अवसर मिला, जो अंततः उनके औपनिवेशिक शासन की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ.
Q5. भारत में यूरोपीय कंपनियों के आगमन ने मुगल साम्राज्य और क्षेत्रीय शक्तियों की राजनीतिक व्यवस्था को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर: यूरोपीय कंपनियों के आगमन ने मुगल साम्राज्य की केंद्रीय सत्ता को कमजोर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने मुगल और क्षेत्रीय शक्तियों के बीच चल रहे संघर्षों का फायदा उठाया. कंपनियों ने भारतीय शासकों को सैन्य सहायता और हथियार बेचे, जिससे ये शासक एक-दूसरे के खिलाफ अधिक आक्रामक हो गए.
मराठा और क्षेत्रीय रियासतों के साथ संधियाँ और हस्तक्षेप करके उन्होंने उनके आंतरिक मामलों में घुसपैठ की. इससे मुगलों की शक्ति कमज़ोर होती गई और अंततः राजनीतिक अराजकता का माहौल बना, जिसका लाभ उठाकर अंग्रेज़ों ने अपनी राजनीतिक सर्वोच्चता स्थापित की.