जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का महत्व और प्रासंगिकता 

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (RPA, 1951) भारतीय चुनावी लोकतंत्र की आधारशिला है. यह संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनावों के संचालन के लिए एक विस्तृत कानूनी ढाँचा प्रदान करता है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 327 के तहत इसे बनाया गया है.  यह अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के प्रावधानों का पूरक है. इन अनुच्छेदों में देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए एक व्यापक रूपरेखा निर्धारित किया गया है. 

1950 का जन प्रतिनिधित्व अधिनियम मुख्य रूप से सीटों के आवंटन और निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन, मतदाताओं की आवश्यकताओं और मतदाता सूची के निर्माण पर केंद्रित था. इसमें संसद और राज्य विधानसभाओं के सदन कैसे चुने जाएंगे, सदस्यता की आवश्यकताएं और बहिष्करण, भ्रष्ट आचरण, चुनावी अपराध और चुनाव विवादों का समाधान कैसे किया जाएगा – जैसे मुद्दों का उल्लेख नहीं था. 1950 के अधिनियम के इन्हीं खामियों को दूर करने के लिए RPA, 1951 को तत्कालीन कानून मंत्री डॉ.  भीमराव अंबेडकर द्वारा प्रस्तुत किया गया.

इस लेख में हम जानेंगे

अधिनियम का उद्देश्य और संवैधानिक आधार

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, भारत में चुनावों के संचालन के लिए एक मूलभूत कानून के रूप में कार्य करता है. इसका प्राथमिक उद्देश्य संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनावों के संचालन के लिए एक सुदृढ़ कानूनी ढाँचा स्थापित करना है. इस व्यापक उद्देश्य में उम्मीदवारों के लिए योग्यता और अयोग्यता निर्धारित करना, राजनीतिक दलों के पंजीकरण और आचरण को विनियमित करना, तथा चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता, निष्पक्षता और अखंडता सुनिश्चित करना शामिल है. इसका एक उद्देश्य भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के प्रावधानों को पूरा करना है. इन अनुच्छेदों के प्रावधान इस प्राकार हैं:

  1. संविधान का अनुच्छेद 324 यह प्रावधान करता है कि संसद, राज्य विधानसभाओं, भारत के राष्ट्रपति के कार्यालय और भारत के उपराष्ट्रपति के कार्यालय के चुनावों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण की शक्ति चुनाव आयोग में निहित होगी.
  2. अनुच्छेद 325 में प्रावधान किया गया है कि धर्म, मूलवंश, जाति या लिंग के आधार पर किसी भी व्यक्ति को मतदाता सूची में शामिल होने से वंचित नहीं किया जाएगा. यह अनुच्छेद यह भी सुनिश्चित करता है कि किसी भी प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र के लिए एक ही मतदाता सूची होगी, जो सभी धर्मों, जातियों या लिंगों के लोगों के लिए समान रूप से लागू होगी. 
  3. अनुच्छेद 326 में भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होने का प्रावधान है. इसका मतलब है कि 18 वर्ष से अधिक आयु का हर नागरिक, चाहे उसकी जाति, धर्म, लिंग या कुछ भी हो, वोट देने का हकदार है. अनुच्छेद 326 भारत के संविधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो लोकतंत्र को मजबूत करता है. यह नागरिकों को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार देता है और यह सुनिश्चित करता है कि सभी को अपने प्रतिनिधि चुनने का समान अवसर प्राप्त हो.
  4. अनुच्छेद 327 संविधान के भाग 15 में शामिल है और विधान मंडल के लिए निर्वाचन संबंधी उपबंध करने की संसद की शक्ति का वर्णन करता है.
  5. अनुच्छेद 328 संविधान के भाग 15 में शामिल है और किसी राज्य के विधान मंडल के लिए निर्वाचन संबंधी उपबंध करने हेतु उस विधान मंडल की शक्ति का वर्णन करता है. 
  6. संविधान का अनुच्छेद 329 निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन या सीटों के आवंटन से संबंधित किसी भी कानून की वैधता को किसी भी अदालत में चुनौती देने से रोकता है.

अधिनियम की संरचना और प्रमुख प्रावधान

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 को कई भागों और अनुसूचियों में व्यवस्थित किया गया है, जिनमें से प्रत्येक विशिष्ट विषय वस्तु से संबंधित है, जो इसे एक व्यापक कानूनी दस्तावेज बनाता है. इसकी संरचना में शामिल हैं:

  • भाग I: प्रारंभिक
  • भाग II: सीटों का आवंटन और निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन
  • भाग II A: अधिकारी
  • भाग II B: संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के लिए मतदाता सूची
  • भाग III: विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिए मतदाता सूची
  • भाग IV: परिषद निर्वाचन क्षेत्रों के लिए मतदाता सूची
  • भाग V: सामान्य
  • अनुसूचियां: लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और राज्य विधान परिषदों में सीटों का आवंटन.

अधिनियम के मुख्य प्रावधान भारतीय चुनावी प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं को विनियमित करते हैं:

  • चुनावों का संचालन (भाग V: धारा 30-58): यह खंड मतदान, मतों की गिनती और परिणामों की घोषणा सहित चुनाव प्रक्रिया के विस्तृत संचालन को रेखांकित करता है. पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) और वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) का उपयोग एकीकृत किया गया है.
  • सदस्यता के लिए योग्यता (धारा 3-6): अधिनियम संसद और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों के लिए योग्यता मानदंड निर्धारित करता है. उदाहरण के लिए, लोकसभा के लिए उम्मीदवार को किसी भी संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में एक मतदाता होना चाहिए; 2003 के संशोधन के बाद, उस राज्य में निवास की आवश्यकता नहीं है जिससे वह चुनाव लड़ रहा है.
  • सदस्यता के लिए अयोग्यताएं (धारा 8-10A): यह खंड उन परिस्थितियों को परिभाषित करता है जिनके तहत एक व्यक्ति चुनाव लड़ने या सदस्य के रूप में बने रहने के लिए अयोग्य हो सकता है. इसमें कुछ अपराधों के लिए दोषसिद्धि, भ्रष्ट आचरण में संलिप्तता, चुनाव खर्चों की घोषणा करने में विफलता, और सरकारी अनुबंधों या कार्यों में हित शामिल हैं. धारा 8(1) आतंकवाद, बलात्कार, भ्रष्टाचार, दहेज से संबंधित अपराधों, मानव तस्करी आदि जैसे गंभीर अपराधों के लिए दोषसिद्धि पर तत्काल अयोग्यता का प्रावधान करती है. धारा 8(2) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, नारकोटिक ड्रग्स अधिनियम जैसे कानूनों के तहत अपराधों के लिए दोषसिद्धि का उल्लेख करती है.
  • भ्रष्ट आचरण और चुनावी अपराध (धारा 123, 125-136): अधिनियम चुनावी कदाचार को रोकने के लिए विभिन्न भ्रष्ट आचरणों और चुनावी अपराधों को परिभाषित करता है. इसमें रिश्वतखोरी, अनुचित प्रभाव, धार्मिक/जातिगत आधार पर अपील, बूथ कैप्चरिंग, झूठी जानकारी देना, घृणा को बढ़ावा देना आदि शामिल हैं.
  • चुनाव व्यय (धारा 77-78): उम्मीदवारों को अभियान के दौरान किए गए सभी खर्चों का विस्तृत रिकॉर्ड बनाए रखना अनिवार्य है. भारत निर्वाचन आयोग (ECI) राज्य और निर्वाचन क्षेत्र के आकार के अनुसार व्यय सीमा निर्धारित करता है.
  • चुनाव याचिकाएं (धारा 80-86): अधिनियम चुनाव परिणाम की घोषणा के 45 दिनों के भीतर उच्च न्यायालयों में चुनाव याचिकाओं को दायर करने की प्रक्रिया निर्धारित करता है. इन याचिकाओं के आधारों में भ्रष्ट आचरण, नामांकन की अनुचित स्वीकृति/अस्वीकृति, और बूथ कैप्चरिंग शामिल हैं. उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों को सर्वोच्च न्यायालय में अपील किया जा सकता है.
  • राजनीतिक दलों का विनियमन (भाग IVA, धारा 29A): राजनीतिक दलों को ECI के साथ पंजीकरण करना होगा. साथ ही इन्हें दान और व्यय का विवरण देते हुए वार्षिक वित्तीय रिपोर्ट प्रस्तुत करना अनिवार्य किया गया है. 

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम मे प्रमुख संशोधन

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में समयानुकूल हुए संशोधन ने चुनावी प्रक्रिया की अखंडता और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसमें हुए प्रमुख संसोधन इस प्रकार है:

  • 61वां संशोधन अधिनियम, 1988: इस संशोधन द्वारा मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई. इस परिवर्तन का तत्काल प्रभाव चुनावों में अधिक युवाओं की भागीदारी को सक्षम करना था. यह भारतीय लोकतंत्र में जनभागीदारी के विस्तार की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति को दर्शाता है. 
  • 2003 के संशोधन:
    • राज्यसभा चुनावों के लिए खुली मतदान प्रणाली की शुरुआत क्रॉस-वोटिंग और भ्रष्टाचार को कम करने के उद्देश्य से की गई थी. परंपरागत रूप से, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए गुप्त मतदान को एक आधारशिला माना जाता है. हालाँकि, राज्यसभा चुनावों में गुप्त मतदान को भ्रष्टाचार के स्रोत के रूप में देखा गया, जहाँ धन और बाहुबल की भूमिका बढ़ गई थी.
    • निवास स्थान की शर्त हटाना: राज्यसभा चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार के लिए उस राज्य का निवासी होना अनिवार्य नहीं रहा जहाँ से वह चुनाव लड़ रहा है.
    • प्रस्तावकों की संख्या में वृद्धि: फर्जी उम्मीदवारों को रोकने के लिए प्रस्तावकों की संख्या 10% या 10 मतदाताओं तक बढ़ाई गई.
  • चुनावी बॉन्ड योजना (2017-2024): राजनीतिक दलों को “योगदान रिपोर्ट” में चुनावी बॉन्ड योगदान का विवरण प्रकाशित करने से छूट देने के लिए यह संसोधन किया गया. लेकिन इसके कारण राजनीतिक वित्तपोषण में गुमनामी की अनुमति मिली. इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने 15 फरवरी, 2024 को इस योजना को असंवैधानिक घोषित कर दिया.  इसे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना के अधिकार का उल्लंघन बताया गया.  
  • चुनाव कानून (संशोधन) अधिनियम, 2021: इस अधिनियम ने मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ने का प्रावधान किया गया. इसका उद्देश्य उद्देश्य मतदाता सूची में डुप्लीकेसी को खत्म करना था. 
  • NOTA (None of the Above) का विकल्प: सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर EVM में 2013 के विधानसभा चुनाव के साथ NOTA का विकल्प जोड़ा गया. इस तरह मतदाताओं को उम्मीदवारों को अस्वीकार करने का अधिकार मिला.
  • एक्जिट पोल पर प्रतिबंध (धारा 126ए का सम्मिलन): चुनाव समाप्त होने तक एक्जिट पोल के संचालन और प्रकाशन पर प्रतिबंध लगाया गया. इसे 2009 में एक संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया था. 
  • धारा 8(4) का निरसन (Repeal): यह उपधारा पहले दोषी सांसदों/ विधायकों को अपील दायर करने पर तीन महीने के लिए अपनी सीट बनाए रखने की अनुमति देती थी. इसके निरसन को राजनीति के अपराधीकरण को कम करने की दिशा में एक कदम माना जाता है. इस पर विस्तृत चर्चा “महत्वपूर्ण अदालती फैसले” खंड में की जाएगी.
  • धारा 62(2) का सम्मिलन: यह संशोधन हिरासत में लिए गए व्यक्ति को चुनाव लड़ने की अनुमति देता है. बशर्तें उसका नाम मतदाता सूची में शामिल रहता हो. इस पर विस्तृत चर्चा “महत्वपूर्ण अदालती फैसले” खंड में की गई है.
  • एनआरआई को मतदान का अधिकार (2010): अनिवासी भारतीयों (एनआरआई) को अपने गृह निर्वाचन क्षेत्र से मतदान करने की अनुमति दी गई. 2023 के एक प्रस्तावित संशोधन विधेयक में एनआरआई को निकटतम दूतावास या उच्चायोग से मतदान करने की अनुमति देने का प्रस्ताव है.
  • FCRA का प्रावधान: 2018 मे राजनैतिक दलों को 2000 रुपये या इससे अधिक नगद चंद देने पर रोक लगा दी गई.  

कानूनी विवाद और महत्वपूर्ण अदालती फैसले

Goddess of Justice Statue having Supreme Court of India in Background.

न्यायपालिका ने अधिनियम की व्याख्या और उसके कार्यान्वयन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.  इससे चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता और संवैधानिक सिद्धांतों को बनाए रखा जा सका. 

चुनाव संबंधी विवादों के निपटारे की प्रक्रिया

चुनाव संबंधी विवादों के निपटारे के लिए एक सुव्यवस्थित कानूनी प्रक्रिया स्थापित की गई है. चुनाव परिणाम की घोषणा के 45 दिनों के भीतर उच्च न्यायालयों में चुनाव याचिकाएं दायर की जाती हैं. इन याचिकाओं के आधारों में भ्रष्ट आचरण, नामांकन की अनुचित स्वीकृति/अस्वीकृति, और बूथ कैप्चरिंग जैसे गंभीर कदाचार शामिल हो सकते हैं. चुनाव याचिका के परीक्षण पर नागरिक प्रक्रिया संहिता (CPC) लागू होती है, जो निष्पक्ष सुनवाई के लिए एक मानकीकृत प्रक्रिया सुनिश्चित करती है. उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों को सर्वोच्च न्यायालय में अपील किया जा सकता है, जिससे अंतिम न्यायिक समीक्षा का मार्ग प्रशस्त होता है.

प्रमुख न्यायिक निर्णय और उनका प्रभाव

  • लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013):
    • मुद्दा: इस ऐतिहासिक मामले में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी. यह प्रावधान दोषी सांसदों (MPs) और विधायकों (MLAs) को अपनी अपील लंबित रहने तक पद पर बने रहने की अनुमति देता था. इस तरह राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों के बने रहने की संभावना बढ़ जाती थी. याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करता है और सार्वजनिक पद पर अखंडता के सिद्धांतों को कमजोर करता है, क्योंकि यह निर्वाचित प्रतिनिधियों को एक अनुचित विशेषाधिकार प्रदान करता है.
    • निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 8(4) को असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर दिया. न्यायालय ने फैसला सुनाया कि 2 साल या उससे अधिक की कारावास की सजा वाले किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए किसी भी सांसद, विधायक या एमएलसी को अपील के लाभ के बिना तत्काल अयोग्य घोषित किया जाएगा.
    • प्रभाव: इस निर्णय को राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना गया है. 
  • जन चौकीदार बनाम भारत निर्वाचन आयोग (2013):
    • मुद्दा: यह मामला पटना उच्च न्यायालय के 2004 के एक फैसले से उत्पन्न हुआ, जिसमें जेल में बंद व्यक्तियों को मतदान करने या चुनाव लड़ने से रोक दिया गया था. सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 62(5) की व्याख्या करते हुए कहा कि यह जेल में बंद व्यक्तियों को मतदान के अधिकार से वंचित करती है. साथ ही अदालत ने मा कि मतदान के अयोग्य व्यक्ति चुनाव लड़ने के लिए योग्य नहीं हो सकते, क्योंकि वे “मतदाता” की परिभाषा के तहत नहीं आते. संसद ने 2013 में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 62(5) में संशोधन कर इस फैसले को पलट दिया. इस तरह कैदियों को भी चुनाव लड़ने की अनुमति मिली. 
    • प्रभाव: यह मामला न्यायपालिका और विधायिका के बीच एक स्पष्ट तनाव को दर्शाता है. 
  • कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ (2006):
    • मुद्दा: इस मामले में राज्यसभा चुनावों में 2003 में शुरू की गई खुली मतदान प्रणाली की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी. याचिका मे खुला मतदान को “स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों” के सिद्धांत को कमजोर करने वाला बताया गया.  क्योंकि यह विधायकों को अपनी पार्टी के निर्देशों के खिलाफ मतदान करने से रोकता था. 
    • निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने तर्क दिया कि “गुप्त मतदान स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है. हालांकि, उच्च सिद्धांत स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव और चुनावों की पवित्रता है. यदि गोपनीयता भ्रष्टाचार का स्रोत बन जाती है, तो पारदर्शिता इसे दूर करने की क्षमता रखती है”. इस तरह इन चुनावों मे खुला मतदान वैध ठहराया गया. 
    • प्रभाव: इस निर्णय से राज्यसभा चुनावों में क्रॉस-वोटिंग और धन-बल के दुरुपयोग को कम करने के प्रयास को अदालती वैधता मिली. इससे चुनावी पारदर्शिता को भी बढ़ावा मिला. यह प्रदर्शित करता है कि संवैधानिक सिद्धांतों की व्याख्या स्थिर नहीं होती, बल्कि बदलते सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों के अनुकूल होती है.
  • एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) और अन्य मामले (2002, 2018, 2020): इन मामलों ने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड, संपत्ति, देनदारियों और शैक्षिक योग्यताओं के प्रकटीकरण की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित किया. याचिकाकर्ताओं ने मतदाताओं के सूचना के अधिकार (अनुच्छेद 19(1)(ए)) पर जोर दिया. याचिका के अनुसार, यह सूचना मतदान का निर्णय लेने के लिए आवश्यक है.
    • निर्णय:
    • ADR मामला (2002): सर्वोच्च न्यायालय ने सभी उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड के प्रकटीकरण को अनिवार्य कर दिया.
    • पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन बनाम भारत संघ (2018): न्यायालय ने राजनीतिक दलों को उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड को अपनी वेबसाइटों, सोशल मीडिया और समाचार पत्रों में प्रकाशित करने का निर्देश दिया. अदालत ने पार्टियों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के कारणों को सार्वजनिक करना अनिवार्य किया .
    • 2020 का निर्णय: न्यायालय ने 2018 के निर्देशों को दोहराया और चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों द्वारा गैर-अनुपालन की रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया.
    • प्रभाव: इन निर्णयों ने मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों के बारे में सूचित निर्णय लेने का अधिकार दिया. इससे राजनीति के अपराधीकरण को हतोत्साहित करने में मदद मिली. ये निर्णय सूचना के अधिकार के विस्तार और “मतदाता के जानने के अधिकार” के एक मौलिक अधिकार के रूप में विकास को दर्शाता हैं. यह भारत में चुनावी लोकतंत्र की गुणवत्ता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण है. 
  • चुनावी बॉन्ड योजना (2024):
    • मुद्दा: 2017 का चुनावी बॉन्ड योजना राजनीतिक दलों को गुमनाम दान प्राप्त करने की अनुमति देता था. पारदर्शिता की कमी और राजनीतिक वित्तपोषण में संभावित कॉर्पोरेट प्रभाव के लिए इसे चुनौती दी गई.
    • निर्णय: 15 फरवरी, 2024 को सर्वोच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार दिया. न्यायालय ने इस योजना को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना के अधिकार का उल्लंघन बताया. असीमित कॉर्पोरेट योगदान को भी असंवैधानिक माना गया. अदालत ने माना कि यह चुनावी प्रक्रिया में कंपनियों के अनियंत्रित प्रभाव को अधिकृत करता है.
    • प्रभाव: इस निर्णय ने कॉर्पोरेट प्रभाव और संभावित quid pro quo (क्या किसके लिए है) को कम करने में मदद मिली. यह निर्णय पुष्टि करता है कि “स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव” के लिए केवल मतदान प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि उसके पीछे के वित्तीय तंत्र भी पारदर्शी होने चाहिए. न्यायालय ने माना कि वित्तपोषण की जानकारी मतदाताओं के मतदान निर्णयों को प्रभावित कर सकती है. यह निर्णय सुनिश्चित करती है कि सरकारें जनता के प्रति जवाबदेह रहें, न कि गुप्त दानदाताओं के प्रति. इस प्रकार यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र में “धन शक्ति” के प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है.
  • परिसीमन आयोग के आदेशों की न्यायिक समीक्षा (किशोरचंद्र छगनलाल राठौड़ बनाम भारत संघ और अन्य, 2023):
    • मुद्दा: संविधान का अनुच्छेद 329(ए) निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन या सीटों के आवंटन से संबंधित किसी भी कानून की वैधता को किसी भी अदालत में चुनौती देने से रोकता है. इस मामले में परिसीमन आयोग के आदेशों की न्यायिक समीक्षा की सीमा पर सवाल उठाया गया.
    • निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 329 न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाता है. न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक अदालतें परिसीमन आयोग के आदेशों की वैधता की जांच “संविधान की कसौटी” पर कर सकती हैं, खासकर यदि आदेश “स्पष्ट रूप से मनमाना और संवैधानिक मूल्यों के साथ असंगत” पाया जाता है.
    • प्रभाव: यह निर्णय सुनिश्चित करता है कि परिसीमन जैसे महत्वपूर्ण चुनावी प्रक्रियाओं में भी मनमानी या असंवैधानिक कार्यों को चुनौती दी जा सकती है. इस निर्णय से नागरिकों को परिसीमा से जुड़े अपने शिकायतों को व्यक्त करने का अधिकार मिला. यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में किसी संस्था को पूर्ण रूप से जवाबदेही मुक्त होने से रोकता है. इससे सरकारी प्रणाली में विश्वास और संतुलन बना रहता है.
  • पंचायती राज चुनावों में शैक्षणिक योग्यता पर निर्णय (हरियाणा मामला, 2015):
    • मुद्दा: हरियाणा सरकार ने पंचायती राज चुनावों में उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता, ऋण-मुक्त होने और घर में शौचालय होने जैसी शर्तें लगाई थीं. इस कानून को चुनाव लड़ने के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करने वाला बताकर चुनौती दी गई. 
    • निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा. न्यायालय ने कहा कि “शिक्षा पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए आवश्यक है क्योंकि दोनों मिलकर एक स्वस्थ और शिक्षित समाज बनाते हैं” और बुनियादी शिक्षा “पंचायत के कर्तव्यों का प्रभावी ढंग से निर्वहन करने में उम्मीदवारों को सक्षम करेगी”.
    • प्रभाव: यह निर्णय स्थानीय स्वशासन में बेहतर दक्षता के लिए “मॉडल प्रतिनिधियों” को खोजने के उद्देश्य से चुनाव लड़ने के अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाने के राज्य के अधिकार को पुष्ट करता है. लेकिन देश मे एक बड़ी आबादी अशिक्षित है, उन्हें चुनाव लड़ने से रोकना उनके लोकतान्त्रिक और प्रशासनिक समझ मे विस्तार पर प्रतिबंध लगाने जैसा है.

भ्रष्ट आचरण और चुनावी अपराध

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 चुनावी से जुड़े विभिन्न भ्रष्ट आचरणों, कदाचार और अपराधों को विस्तृत रूप से परिभाषित करता है. ये प्रावधान अधिनियम की उन शक्तियों को दर्शाते हैं जो चुनावी अखंडता को बनाए रखने के लिए बनाए की गई हैं.

अधिनियम के तहत परिभाषित प्रमुख भ्रष्ट आचरण (धारा 123)

अधिनियम की धारा 123 के तहत कई प्रमुख भ्रष्ट आचरण परिभाषित किए गए हैं, जिनका उद्देश्य चुनावी प्रक्रिया में अनुचित प्रभाव और कदाचार को रोकना है:

  • रिश्वतखोरी: मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धन, उपहार या अन्य प्रकार के लाभों की पेशकश करना या स्वीकार करना रिश्वतखोरी के अंतर्गत आता है. 
  • अनुचित प्रभाव: मतदाताओं के स्वतंत्र चुनावी अधिकारों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करना या उन्हें बाधित करना अनुचित प्रभाव माना जाता है. मतादाताओं को ‘दैवीय प्रभाव’ का भय दिखाकर अपने पक्ष मे करने की कोशिश भी अपराध माना जाता है. 
  • धार्मिक/जातिगत आधार पर अपील: धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर वोट देने या वोट न देने की अपील करना प्रतिबंधित है. यह भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष विशेषता को बरकरार रखने मे मददगार है. 
  • झूठी जानकारी: किसी उम्मीदवार या उसके प्रतिद्वंद्वी के बारे में भ्रामक या झूठी जानकारी प्रदान करना या झूठे बयान प्रकाशित करवाना भी भ्रष्ट चुनावी आचरण है. 
  • घृणा को बढ़ावा: धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच शत्रुता या घृणा की भावनाओं को बढ़ावा देना एक गंभीर चुनावी अपराध है.
  • बूथ कैप्चरिंग: बल या धमकी द्वारा मतदान केंद्रों पर कब्जा करना एक स्पष्ट भ्रष्ट आचरण है. बूथ केपचरिंग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को सीधे तौर पर बाधित करता है. 
  • चुनाव व्यय का गलत विवरण: उम्मीदवारों को अभियान के दौरान किए गए सभी खर्चों का विस्तृत रिकॉर्ड बनाए रखना अनिवार्य है. चुनाव खर्चों का विवरण प्रस्तुत करने में विफलता या गलत रिपोर्टिंग करने पर धारा 10ए के तहत अयोग्य घोषित किया जा सकता है. 

चुनावी अपराध और उनके निवारण के प्रावधान (धारा 125-136)

भ्रष्ट आचरणों के अलावा, अधिनियम कई चुनावी अपराधों को भी परिभाषित करता है और उनके निवारण के लिए प्रावधान करता है:

  • झूठे बयान (धारा 125ए): उम्मीदवार की पृष्ठभूमि, जैसे आपराधिक इतिहास, संपत्ति या शैक्षिक योग्यता के बारे में नामांकन पत्रों में या हलफनामों में भ्रामक घोषणाएं करना एक अपराध है.
  • वाहनों का अवैध किराया (धारा 133): उचित घोषणा या अनुमति के बिना मतदाताओं के परिवहन के लिए वाहनों का अवैध रूप से किराया देना या उनके लिए उपयोग करना प्रतिबंधित है.
  • शराब की बिक्री पर प्रतिबंध: मतदान से 48 घंटे पहले मतदान क्षेत्र में शराब और अन्य नशीले पदार्थों की बिक्री या वितरण पर प्रतिबंध है. इसका उल्लंघन करने पर 6 महीने तक की कैद या ₹2,000 का जुर्माना हो सकता है.

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की प्रासंगिकता, महत्व और चुनौतियाँ

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 भारतीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन इसे कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है जो इसकी प्रभावशीलता और चुनावी प्रणाली की समग्र अखंडता को प्रभावित करती हैं.

भारतीय लोकतंत्र में अधिनियम की भूमिका और महत्व

  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव: जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के संचालन के लिए एक कानूनी आधार प्रदान करता है. इससे चुनावी प्रक्रिया एक निर्धारित कानूनी ढांचे के भीतर सम्पन्न होता है, जो मनमानी और कदाचार को रोकता है. 
  • लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखना: यह अधिनियम सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, प्रत्यक्ष चुनाव और गुप्त मतदान जैसे मौलिक लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखता है. इस तरह यह सभी नागरिकों को चुनावी प्रक्रिया में समान अवसर प्रदान करता है. 
  • जवाबदेही और पारदर्शिता: अधिनियम उम्मीदवारों के लिए चुनावी खर्चों की घोषणा, राजनीतिक दलों के पंजीकरण तथा वित्तीय पारदर्शिता के माध्यम से जवाबदेही और पारदर्शिता को बढ़ावा देता है. यह मतदाताओं को उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने में सक्षम बनाता है.
  • विवादों का समाधान: यह चुनाव संबंधी विवादों के समाधान के लिए एक स्पष्ट कानूनी प्रक्रिया प्रदान करता है, जिससे चुनावी प्रक्रिया में विश्वास बना रहता है और न्यायिक हस्तक्षेप के माध्यम से कदाचार को सुधारा जा सकता है.

भारत निर्वाचन आयोग (ECI) की भूमिका और शक्तियाँ

भारत निर्वाचन आयोग (ECI) भारतीय चुनावी प्रक्रिया का एक केंद्रीय स्तंभ है. इसका गठन संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत हुआ है. संविधान मे इसे चुनावों की देखरेख, निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार रखता है. साथ ही, ECI को चुनावी रोल तैयार करने, निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करने, चुनाव संबंधी विवादों पर निर्णय लेने और राजनीतिक दलों को मान्यता रद्द करने की शक्ति प्राप्त है.  ECI की स्वायत्तता पर कोई भी समझौता भारतीय लोकतंत्र के मूल को कमजोर कर सकता है, क्योंकि यह चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता का अंतिम मध्यस्थ है.

लेकिन, ECI की स्वतंत्रता पर चिंताएं उठाई जाती रही हैं. इसमें निर्णय लेने में पूर्वाग्रह के आरोप और वित्तीय निर्भरता शामिल हैं. मुख्य और अन्य चुनाव आयुक्तों के नियुक्ति पर भी विवाद होते रहे है. हाल ही में इनके चयन प्रक्रिया से शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायाधीश को अलग करने पर विवाद हुआ है.

चुनाव और अन्य आयोगों की सिफारिशें

  • कानून आयोग (1999 और 2014) की सिफारिश: 5 साल या उससे अधिक की सजा वाले अपराधों के लिए आरोपित को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाए.
  • ECI की सिफारिशें: केवल चुनावों से छह महीने पहले दर्ज किए गए मामलों से ही अयोग्यता होनी चाहिए. ताकि कानून के राजनीतिक दुरुपयोग को रोका जा सके.

अंत मे (Conclusion)

भारत का लोकतंत्र एक स्थिर ढांचा नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रणाली है. इसे लगातार सुधारा जाना चाहिए ताकि यह नागरिकों की आकांक्षाओं और संवैधानिक आदर्शों का सच्चा प्रतिनिधित्व कर सके. जन प्रतिनिधित्व अधिनियम जैसे कानूनों को एक सक्षम संस्थागत तंत्र और राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ पूरक करना आवश्यक है.  ऐसे प्रयासों से ही भारतीय लोकतंत्र दीर्घकालिक रूप से प्रासंगिक और प्रभावी रह पाएगा.

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