जब मुग़ल कमजोर हो गए तो अंग्रेजों और मराठे अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करने लगे. इसी का परिणाम आंग्ल-मराठा युद्ध के रूप में सामने आया. दोनों शक्तियों के बीच कुल तीन युद्ध लड़े गए. इनमें मराठों का हार हुआ और पश्चिमी भारत में ब्रिटिश हुकूमत कायम हो गया.
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1772 ई. से 1784 ई.)
1761 ई. में पानीपत के तृतीय युद्ध के कुछ समय बाद ही पेशवा बालाजी बाजीराव की मृत्यु हो गयी. उसके पशचात् उसका पुत्र माधवराव पेशवा बना. उसने थोड़े समय में ही मराठा शक्ति ओर साम्राज्य को पुन: बढ़ा लिया और महादजी सिंधिया ने मुगल सम्राट शाहआलम को अंग्रेजों के संरक्षण से हटाकर मराठों के संरक्षण में ले लिया तथा दिल्ली पर मराठा प्रभुत्व स्थापित कर लिया.
पेशवा माधवराव की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नारायण राव पेशवा बना, पर उसके चाचा राधोबा ने उसका वध कर दिया. इसका विरोध नाना फड़नवीस ने किया और उसने नारायण के पु़त्र सवाई माधवराव को पेशवा घोशित कर दिया. इस पर राघोबा ने नाना फड़नवीस और सवाई माधवराव के विरूद्ध अंग्रेजों से सैनिक सहायता माँगी. फलत: अंग्रेजों और मराठों में युद्ध प्रारभं हो गया. इसे ही प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध कहा जाता है.
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध में प्रारंभ में मराठों की विजय हुई. किन्तु अंत में उन्हें सिंधिया की मध्यस्थता से पूना दरबार और अंग्रेजों के बीच संधि हो गयी. यह सालबाई की संधि कहलाती है. इसके अनुसार सालसिट और थाना दुर्ग अंग्रेज को मिले. पूना दरबार की और से रघुनाथराव (राघोबा) को पेंशन दे दी गयी. इस संधि का यह महत्व है कि आगामी बीस वर्षों तक अंग्रेजों और मराठों के मध्य शांति बनी रही.
इसी युद्ध के दौरान अंग्रेजों और मराठों के बीच कई संधियां हुई. इनमें पुरंदर की संधि (1776), बडगांव की संधि (1779)और सालबाई की संधि (1782) शामिल है.
पुरंदर की संधि 1776 :-
- कंपनी राघोबा उर्फ़ रघुनाथ राव को समर्थन नहीं देगी.
- सलसेट तथा थाना कंपनी को सौंप दिया गया.
इस संधि के कारण दोनों पक्षों में शांति स्थापित हुआ. लेकिन, लंदन में स्थित कंपनी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स ने “सूरत की संधि” को मंजूरी दी. यह इनके लिए अधिक लाभदायक थी. इसी समय फ्रांसीसियों का एक दल पूना पहुंचा और पेशवा से पश्चिमी कनारे पर एक पत्तन निर्माण का अनुमति माँगा. पेश ने इस निर्माण का अनुमति दे दिया. अंग्रेजों के अनुसार यह सूरत के संधि का उलंघन था.
वारेन हेस्टिंग ने एक बड़ी सेना बंबई की सहायता हेतु भेज दिया. बडगांव में हुए लड़ाई में अंग्रेज बुरी तरह हारे. यह लड़ाई बडगांव की संधि द्वारा समाप्त हो गई.
बडगांव की संधि, 1779:
1773 के बाद अंग्रेजों ने जो भी प्रदेश जीते थे, वे सभी मराठों को लौटा दिए. यह संधि अंग्रेजों के लिए बहुत अपमानजनक साबित हुई क्योंकि इसमें उन्हें काफी झुकना पड़ा. लेकिन वॉरेन हेस्टिंग्स ने युद्ध जारी रखा और ब्रिटिश सेना ने अहमदाबाद और ग्वालियर पर अधिकार कर लिया. उधर, गुजरात के गायकवाड़, जो अब तक तटस्थ थे. अंग्रेज उन्हें अपनी ओर मिलाने में सफल नहीं हो पाए.
सालबाई की संधि, 1782:
इस संधि के तहत दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विजित प्रदेश लौटा दिए. संधि के दौरान अंग्रेजों ने राघोबा का साथ छोड़ दिया और पेशवा ने राघोबा को पेंशन दे दी. अंग्रेजों ने माधवराव नारायणराव को पेशवा मान लिया. सालसेट और एलिफेंटा द्वीप अंग्रेजों के पास ही रहने दिए गए. इस संधि ने युद्ध से पहले की स्थिति पुनः स्थापित कर दी. हालांकि कंपनी की प्रतिष्ठा बच गई, लेकिन वित्तीय क्षति हुई.
इस संधि में अंग्रेजों ने मराठों से जीते गए सभी प्रदेश उन्हें लौटा दिए. केवल मैसूर के मामले में कंपनी को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हुई. इस संधि के बाद, अगले 20 वर्षों तक अंग्रेजों और मराठों के बीच शांति बनी रही और अंग्रेजों को मराठों की वास्तविक शक्ति का ज्ञान हो गया.
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803 ई. से 1806 ई.)
1800 ई. में मराठा कूटनीतिज्ञ नाना फड़नवीस की मृत्यु हो जाने पर मराठों में ऐसा कोई प्रभावशाली प्रतिभा संपन्न नेता नहीं था, जो मराठा शासकों – गायकवाड़, होल्कर, सिंधिया और भौंसले को एक सूत्र में बाँधकर संगठित रख सकता. परिणामस्वरूप पूना में पेशवा का दरबार कुचक्रों और शड़यत्रों का केन्द्र हो गया. पेशवा बाजीराव ने होल्कर यशवतं राव के बंधु बिठूजी की हत्या कर दी.
इससे रुष्ट होकर होल्कर ने पूना पर आक्रमण किया और पेशवा और सिंधिया दोनों की सम्मिलित सेनाओं को 25 अक्टूबर 1802 ई. को परास्त कर दिया और रघुनाथराव द्वारा गादे लिये गये लड़के अमृतराव के प़ुत्र विनायकराव को पूना में पेशवा बना दिया. ऐसी परिस्थितियों में पेशवा बेसिन से पलायन कर अंग्रेजों की शरण में चला गया और उसने गवर्नर-जनरल वेलेजली से सैनिक सहायता की याचना की. वेलेजली ने मराठों के मामलों में हस्तक्षपे का यह सुअवसर देखकर 31 दिसम्बर 1802 ईको पेशवा के साथ सहायक संधि कर ली जो बेसिन की संधि कहलाती है.
बेसिन की संधि (31 दिसम्बर 1802 ई.) –
इसकी शर्ते थीं –
- पेशवा और अंग्रेज दोनों ने परस्पर एक दूसरे की सहायता का आशवासन दिया.
- पेशवा के राज्य की सीमा में अंग्रेज सेना और तोपखाना रखा जायेगा और इसके व्यय के लिये प्रतिवर्ष 26 लाख रूपये आय वाली भूमि का प्रदेश अंग्रेजों को दिया जायेगा.
- पेशवा ने वचन दिया कि उसके राज्य में कोई भी यूरोपियन अंग्रेजों की आज्ञा के बिना नहीं रह सकेगा.
- पेशवा और निजाम तथा पेशवा और गायकवाड़ के झगड़ों में अंग्रेज मध्यस्थता करेगे.
- बिना अंग्रेजों की अनुमति के पेशवा किसी भी राज्य से युद्ध या संधि नहीं करेगा.
इस संधि का यह महत्व है कि पेशवा अंग्रेजो पर पूर्णरूप से आश्रित हो गया. किन्तु इस संधि ने अंग्रेजों को मराठों के झगड़ों और युद्धों में अत्याधिक व्यस्त कर दिया.
पेशवा बाजीराव द्वितीय 13 मई 1802 ई. को बेसिन से पूना पहुँचा और अंग्रेजों के संरक्षण में पेशवा बन गया. उसने महाराष्ट्र की स्वतंत्रता को अंग्रेजों के हाथ बेच दिया पर जब उसे अपनी वास्तविक राजनीतिक दुर्दशा का ज्ञान हुआ तब उसने गुप्त रूप से अंग्रेजों के विरूद्ध भौंसले और सिंधिया से पत्र व्यवहार कर समर्थन प्राप्त कर लिया. होल्कर इससे दूर रहा.
इन परिस्थितियों में वेलेजली ने मराठों के विरूद्ध युद्ध प्रारंभ कर दिया. अंगे्रेजों ने 12 अगस्त 1803 ई. को अहमद नगर पर अधिकार कर लिया और सिंधिया तथा भौंसले की सम्मिलित सेनाओं को असाई नामक स्थान पर 23 सितम्बर 1803 ई. को परास्त कर दिया. 29 नवम्बर 1803 ई. को अंग्रेज सेना ने भौंसले को अमर गाँव के युद्ध में पुन: परास्त कर दिया. अपनी पराजय से विवश हो रघुजी भौंसले द्वितीय ने अंग्रेजों के साथ 17 दिसम्बर 1803 ई. को देवगाँव की संधि कर ली.
देवगाँव की संधि (17 दिसम्बर 1803 ई.) –
इसकी शर्ते थीं –
- भौंसले ने अंग्रेजों को कटक व बालसौर के जिले और वर्धा नदी के पशिचम का सम्पूर्ण प्रदेश दे दिया.
- भौंसले के निजाम और पेशवा से जो झगड़े होंगे, उनकी मध्यस्थता और निर्णय अंग्रेज करेगे.
- भौंसले ने नागपुर में अपने दरबार में अंग्रेज रेजीडेटं रखना स्वीकार किया.
- भौंसले ने यह वचन दिया कि वह बिना अंग्रेजों की अनुमति के किसी भी यूरोपीयन को अपनी सेवा में नहीं रखेगा. देवगाँव की संधि के बाद भी उत्तरी भारत में वेलेजली ने दौलतराम सिंधिया के साथ युद्ध जारी रखा और लासवाड़ी के युद्ध में, नवम्बर 1803 ई. में सिंधिया को परास्त कर 15 दिसम्बर 1803 ई. को उसके ग्वालियर दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया. अत: विवश होकर सिंधिया ने अंग्रेजों से सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि कर ली.
सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि (30 दिसम्बर 1803 ई.) –
इसकी शर्ते थीं –
- सिंधिया ने अंग्रेजों को गंगा-जमुना के बीच का दोआब का क्षेत्र तथा जयपुर एवं गोहद के उत्तर का सम्पूर्ण प्रदेश दे दिया. वहाँ सिंधिया के प्रभुत्व का अंत कर दिया गया.
- पशिचमी भारत में सिंधिया ने अंग्रेजों को अहमदनगर, भड़ोंच, अजंता तथा गोदावरी नदी के बीच का सम्पूर्ण प्रदेश दे दिया.
- निजाम, पेशवा, गायकवाड़ और मुगल सम्राट से सिंधिया के समस्त संबंध समाप्त कर दिये गये. उन पर सिंधिया का प्रभाव समाप्त कर दिया गया.
- सिंधिया ने अपने राज्य की सीमा या सेवा में किसी भी यूरोपीयन को न रखने का वचन दिया.
- सिंधिया के दरबार में एक रेजीडेटं रखा गया.
सिंधिया से सहायक संधि (27 फरवरी 1804 ई.)
इस संधि के अनुसार वेलेजली ने सिंधिया की सीमा के समीप एक अंग्रेज सहायक सेना रखी और सिंधिया ने यह आशवासन प्राप्त किया 43 कि वह युद्ध के समय अंग्रेजों से सहायता प्राप्त कर सकगेा और अंग्रेज भी उसे सहायता देंगे. यह द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध का आखिरी पड़ाव था.
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817 ई. से 1818 ई.)
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817 ई. से 1818 ई.) के कारण
- पेशवा बाजीराव में तीव्र असंतोष
- त्रियम्बकराव का अंग्रेज विरोधी होना
- गायकवाड़ – पेशवा मतभेद और शास्त्री हत्या
- पेशवा तैयारी
- पेशवा द्वारा अंग्रेज रेसिडेन्स पर आक्रमण
पेशवा बाजीराव में तीव्र असंतोष- पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों से की गयी सहायक संधि से उत्पन्न अपनी क्षीण और दयनीय दशा का अनुभव कर लिया था. वह अंग्रेजों पर आश्रित होने के कारण क्षुब्ध था. उसे अपनी हीन राजनीतिक परिस्थिति से तीव्र असंतोश था. अंग्रेजों के संरक्षण और प्रभुत्व से वह मुक्त होना चाहता था. अत: उसने मराठा शासकों से भी गुप्त रूप से इस विषय पर वार्तालाप प्रारंभ कर किया और उनको अंग्रेजों के विरूद्ध खडे़ होने हेतु आव्हान किया तथा अपनी शक्ति को भी संगठित करने के प्रयास प्रारंभ कर दिये.
त्रियम्बकराव का अंग्रेज विरोधी होना- मराठा पेशवा पर मंत्री त्रियम्बकराव दांगलिया का अत्याधिक प्रभाव था. वह अंग्रेजों का शत्रु था और अन्य मराठा शासकों की सहायता से अंग्रेजों को अलग करना चाहता था.
गायकवाड़ – पेशवा मतभेद और शास्त्री हत्या- गायकवाड़ अंग्रेजों का मित्र था. पेशवा ने त्रियम्बकराव के परामशर से अपने अधिकारों के आधार पर गायकवाड़ से अपने बचे हुए कर का धन माँगा. गायकवाड़ ने अपने उपमंत्री गंगाधर शास्त्री को पेशवा के पास पूना इस संबंध में समझौता करने के लिए भेजा. गंगाधर अंग्रेजों का प्रबल समर्थक था. किन्तु पंढरपरु में धोखे से शास्त्री की हत्या कर दी गयी.
अंग्रेज रेजीडेटं एलफिन्सटन को यह सन्दहे था कि त्रियम्बकराव ने यह हत्या करवायी है. पेशवा को भी इसके लिए दोषी ठहराया गया. फिर भी अंग्रेजों ने त्रियम्बकराव को बंदी बना लिया परंतु वह बंदीगृह से भाग निकला. एलफिन्सटन का विशवास था कि पेशवा बाजीराव ने त्रियम्बकराव को भागने में सहायता प्रदान की है. अत: अंग्रेजों ने पेशवा से उसकी माँग की. किन्तु पेशवा ने उसे सौंपने में अपनी असमर्थता प्रगट की. इस घटना से अंग्रेजों और पेशवा के संबंधों में कटुता गहरी हो गई.
पेशवा तैयारी-अब पेशवा मराठा शासकों से अंग्रेजों के विरूद्ध संगठित होने की गुप्त रूप से चर्चाएँ कर रहा था. उसने अपनी सेना में भी वृद्धि करना प्रारंभ कर दिया था. इस पर लार्ड हेिस्ंटग्स ने अहस्तक्षपे की नीति त्याग दी और रेजीडेटं एलफिन्सटन के द्वारा बाजीराव पर सैनिक रूप से दबाव डाला गया कि वह त्रियम्बकराव को अंग्रेजों को सौंप दे और नवीन संधि करे. पेशवा इस समय सैनिक शक्ति विहीन था. इसलिए विवश होकर उसने 13 जून 1817 ई. को अंग्रेजों से नवीन संधि कर ली जिसे पूना की संधि कहा जाता है. इस संधि की शर्ते थीं-
- पेशवा बाजीराव ने मराठा संघ के प्रमुख का पद और नेतृत्व त्याग दिया.
- अब पेशवा अन्य भारतीय राज्यों से और विदेशी सत्ता से राजनीतिक संबंध तोड़ देगा, उनसे किसी प्रकार का पत्र व्यवहार नहीं करेगा.
- पेशवा ने बुन्देलखण्ड, मालवा, मध्यभारत, अहमदनगर का दुर्ग व जिला अंग्रेजों को दे दिया. इसके अतिरिक्त उसने अपने अधीन राज्य का कुछ भाग जिसकी आय 34 लाख रूपया वार्शिक थी, अंग्रेजों को दे दिया.
- पेशवा ने मराठा शासक गायकवाड़ पर उसका जो पिछला कर बकाया था, वह भी उसने त्याग दिया और भविश्य में केवल चार लाख रूपये वार्शिक कर लेना स्वीकार किया.
पेशवा के लिए यह संधि नितांत ही अपमानजनक थी. अब वह पहले की अपेक्षा अंग्रेजों का अधिक कÍर शत्रु हो गया और उसने अधिक तीव्रता से युद्ध की तैयारियाँ करना प्रारंभ कर दी.
पेशवा द्वारा अंग्रेज रेसिडेन्स पर आक्रमण
पूना की गंभीर परिस्थिति को देखकर पूना का अंग्रेज रेजीडेंट पूना छोड़कर किरकी चला गया और वहाँ अंग्रेज सेना भी बुला ली किन्तु पेशवा ने इनको वापिस भेजने की माँग की, परंतु रेजीडेंट एलफिन्सटन ने उसकी मांग ठुकरा दी. इस पर पेशवा ने रेजीडेंसी पर आक्रमण किया और उसे जला डाला. यही तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध का तात्कालिक कारण था.
आंग्ल-मराठा युद्ध की घटनाएं
अंग्रेज सेना ने पूना पर आक्रमण कर वहाँ से पेशवा को खदेड़ दिया. इसके बाद कोरोगाँव के युद्ध में और बाद में अश्टी के युद्ध में अंग्रेज सेना ने पेशवा को परास्त कर दिया. अंत में पेशवा ने अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. लार्ड हेस्टिंग्स ने उसके साथ अत्यन्त कठोर और अपमानजनक व्यवहार किया.
संधि और पेशवा का अंत (1818 ई.)
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध की समाप्ति पर अंग्रेजों द्वारा पेशवा के साथ एक संधि गयी जिसके अनुसार पेशवा का समस्त राज्य का बम्बई प्रेसीडेंसी के अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया. पेशवा का पद समाप्त कर दिया गया और बाजीराव को आठ लाख रूप्ये वार्षिक पेंशन देकर उसे उत्तर प्रदेश में कानपुर के पास बिठुर में भेज दिया गया. पेशवा के सहायक त्रियम्बकराव को आजीवन कारावास देकर वाराणसी के पास चुनार के दुर्ग में कैद कर लिया. नाममात्र के छोटे से राज्य सतारा में छत्रपति शिावाजी के वंशज को राजा बनाया गया. इस प्रकार हेस्टिंग्स ने पेशवा का अंत कर दिया.