राज्य (State) का अर्थ, तत्व, स्वरूप व उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांत

राजनीति विज्ञान के अध्ययन का केंद्र-बिन्दु राज्य यानि State है. इस विषये मे राज्य के बारे मे सब कुछ जानने का प्रयास किया जाता है. राज्य आधुनिक युग की सर्वोच्च राजनीतिक इकाई है. प्रश्न यह है कि राज्य क्या है? राज्य कहते किसे है? राज्य का अर्थ क्या है? यानि राज्य की परिभाषा क्या है? 

राज्य को विद्वानों ने अनेक तरह से परिभाषित किया है पर इसकी कोई सार्वदेशीय या सार्वकालिक परिभाषा नही है. राज्य के स्वरूप निर्धारण के कई आधार है जैसे शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर, तत्वों के आधार पर, कानूनी दृष्टिकोण के आधार पर, उद्देश्य एवं कार्य के आधार पर, शक्ति की धारणा के आधार पर, बहु समुदायवाद के आधार पर, तथा उत्पत्ति के आधार पर. 

राजनीति विज्ञान मे मुख्य रूप से राज्य और उसकी उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है. ” राज्य ” शब्द का प्रयोग कई अर्थों मे किया जाता है. परन्तु राजनीति शास्त्र मे “राज्य” शब्द का सही प्रयोग चार तत्वों भू-भाग, जनसंख्या, सरकार, सार्वभौमिकता के आधार पर किया जाता है, जैसे भारत, चीन, सोवियत संघ, अमेरिका, इंग्लैंड इत्यादि राज्य की संज्ञा मे आते है. 

मैकियावेली ने सबसे पहले ‘राज्य’ के विचार का प्रतिपादन किया. मैकियावली के अनुसार,” सारी शक्तियाँ, जिनका अधिकार जनता पर होता हैं, चाहे वे राजतंत्र हो या प्रजातंत्र राज्य है.” इसके बाद तो राज्य के संबंध में कई विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये, किन्तु राज्य के संबंध में सभी की परिभाषाएं पृथक-पृथक हैं. इसलिए शुल्जे ने कहा हैं,” राज्य शब्द की उतनी ही परिभाषाएँ हैं जितने राजनीति विज्ञान के लेखक.

राज्य राजनीति शास्त्र के अध्ययन का महत्वपूर्ण एवं केन्द्रीय विषय है. यदि राजनीति शास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाए तो हम पाते हैं कि इसके आधार स्तम्भ ‘व्यक्ति’ और ‘राज्य’  है. अर्थात्  राजनीति शास्त्र के सभी सिद्धान्त व्यक्ति और राज्य के ईद-गिर्द घूमते है. गार्नर के अनुसार राजनीति शास्त्र का अन्त व प्रारम्भ राज्य के साथ ही होता हैं.

संगठित समाज एवं उद्देश्यों  की सिद्धि के लिए राज्य को प्रथम सोपान के रूप में स्वीकार किया गया है. इसलिये अनेक राजनीतिक चिन्तकों के द्वारा राज्य के महत्व को अपन-अपने स्तर  पर आधार मानकर प्रतिपादित किया गया है. अरस्तु के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के साथ-साथ राजनीतिक प्राणी है जिसका समाज के साथ-साथ राज्य में रहना बहुत जरूरी है, क्योंकि मनुष्य की अनेक मूलभूत आवश्यकताएँ राज्य के साथ जुड़ी हुई है.

भारतीय राजनीतिक चिन्तक मनु राज्य को संगठित समाज की आधारशिला मानते हैं और कहते हैं कि समाज को अराजकता, अशांति, अन्याय व अव्यवस्था से मुक्ति दिलाने के लिए ईश्वर राज्य को उत्पन्न करता है. अरस्तु के अनुसार,” राज्य जीवन के लिए बना है तथा सद्जीवन के लिए बना रहेगा.”

इस लेख में हम जानेंगे

राज्य की परिभाषा (Definition of State)

राजनीति विज्ञान के विद्वानों मे राज्य के स्वरूप के बारे में मतभेद पाया जाता हैं जिसका प्रभाव उसकी परिभाषाओं पर भी पड़ा हैं. प्रत्येक विचारक अपनी मान्यताओं के अनुसार राज्य पर विचार करता हैं और फिर उस राज्य का स्वरूप भी बदलता रहा है. अतः राज्य की कोई परिभाषा सार्वदेशीय या सार्वकालिक नहीं हो सकती. शुल्जे ने ठीक ही कहा हैं कि, राज्य शब्द की उतनी ही परिभाषाएं हैं जितने की राजनीति के लेखक हैं. विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्न प्रकार से हैं–

अरस्तु के अनुसार, ” राज्य परिवारों तथा ग्रामों का एक ऐसा संघ है जिसका उद्देश्य एक पूर्ण, एक आत्म-निर्भर जीवन की प्राप्ति करना है, जिसका महत्व एक सुखी सम्मानित मानव जीवन से है. 

हाॅलैंड के शब्दों मे, ” राज्य मनुष्यों के उस समूह अथवा समुदाय को कहते है जो साधारणतः किसी प्रदेश पर बसा हुआ हो और जिसमे किसी एक श्रेणी अथवा बहुसंख्या की इच्छा अन्य सबकी तुलना मे क्रिया मे परिणत होती है.” 

सिसरो के अनुसार, ” राज्य एक ऐसा समाज है जिसमे मनुष्य पारस्परिक लाभ के लिए और अच्छाई की एक सामान्य भावना के आधार बंधे हुए है.

प्रो. लाक्सी के मतानुसार, ” राज्य एक ऐसा क्षेत्रीय समाज है जो शासक तथा शासित मे विभाजित है और अपने निश्चित भौगोलिक क्षेत्र मे दुसरी संस्थाओं के ऊपर प्रभुता का दावा रखता हो.” 

फिलिमोर के अनुसार, ” राज्य वह जनसमाज है जिसका एक निश्चित भू-भाग पर स्थायी अधिकार हो, जो एक से कानूनों, आदतों व रिवाजों द्वारा बँधा हुआ हो, जो एक संगठित सरकार के माध्यम द्वारा अपनी सीमा के अंतर्गत सब व्यक्तियों तथा वस्तुओं पर स्वतंत्र प्रभुसत्ता का प्रयोग एवं नियंत्रण करता हो तथा जिसे भू-मण्डल के राष्ट्रों के साथ युद्ध एवं संधि करने तथा अन्तराष्ट्रीय संबंध स्थापित करने का अधिकार हो.

गार्नर के अनुसार, ” राज्य संख्या मे कम या अधिक व्यक्तियों का ऐसा संगठन है, जो किसी प्रदेश के एक निश्चित भू-भाग मे स्थायी रूप से निवास करता हो, जो बाहरी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्र अथवा लगभग स्वतंत्र हो, जिसका एक संगठित शासन हो जिसके आदर्शों का पालन नागरिकों का विशाल समुदाय स्वाभावतः करता हो.”

गिलक्राइस्ट के अनुसार,” राज्य उसे कहते है जहाँ कुछ लोग एक निश्चित प्रदेश में एक सरकार के अधीन संगठित होते हैं. यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की संप्रभुता को प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतंत्र होती हैं.” 

विलोबी के अनुसार,” राज्य एक ऐसा कानूनी व्यक्ति या स्वरूप है जिसे कानून के निर्माण का अधिकार प्राप्त हैं.” 

विल्सन के अनुसार,” राज्य एक निश्चित प्रदेश के अन्तर्गत नियम या विधि द्वारा संगठित लोगों का नाम हैं.” 

प्लेटो के अनुसार,” राज्य व्यक्ति का विराट रूप हैं.” 

कार्ल मार्क्स के अनुसार,” राज्य केवल एक ऐसी मशीन है जिसके द्वारा एक वर्ग, दूसरे वर्ग का शोषण करता हैं.” 

एंजिल्स के शब्दों में,” राज्य बुर्जुआ वर्ग की एक समिति मात्र हैं.” 

ट्रीट्स्के के अनुसार,” राज्य एक शक्ति है और हमें उसकी उपासना करनी चाहिए.” 

बेटिल के शब्दों में,” राज्य मानव समाछ या राजनीति संस्था का वह रूप है जो अपनी शक्तियों के मिश्रण द्वारा सर्वसाधारण के हित की कामना करता हैं.” 

गाँधी जी के शब्दों मे,” राज्य एक केन्द्रीत व्यवस्थित रूप में हिंसा का प्रतिनिधि हैं.” 

बोदाँ के अनुसार,” राज्य कुटुम्बों तथा उसके सामूहिक अधिकार की वस्तुओं का एक ऐसा समुदाय हैं जो सर्वश्रेष्ठ शक्ति तथा तर्क-बुद्धि से शासित होता हैं.” 

मैकाईवर के अनुसार,” राज्य उस समुदाय को कहते है जो अपनी सरकार द्वारा लागू किये जाने वाले कानून के अनुसार कार्य करता हैं जिसे इसके लिए बल प्रयोग की अनुमति है तथा जो एक निश्चित सीमा-क्षेत्र में सामाजिक व्यवस्था ही सर्वमान्य बाहरी स्थितियाँ बनाये रखता हैं.”

राज्य के आवश्यक तत्व (Essential elements of the state)

राज्य के आवश्यक तत्वों के संबंध मे विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग विचार किया है, विभिन्न विचारकों ने राज्य के तत्वों के सम्बन्ध में अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं. सिजविक ने राज्य के तीन आवश्यक तत्व बताये है– जनता, भू-भाग तथा सरकार.

ब्लंटशली के अनुसार, भू-भाग, जनता, एकता और संगठन राज्य के ये चार आवश्यक तत्व हैं. गैटिल ने भी जनता, प्रदेश सरकार तथा सम्प्रभुता ये चार तत्व राज्य के लिए आवश्यक माने हैं. वर्तमान मे इस संबंध मे गार्नर के विचारों को सर्वाधिक मान्यता प्रदान की जाती है. गार्नर के अनुसार राज्य के निम्नलिखित 4 आवश्यक तत्व है– 

1. जनसंख्या 

राज्य मे जनसंख्या का होना अत्यंत आवश्यक है. ऐसे किसी राज्य की कल्पना नही की जा सकती जिसमे कोई व्यक्ति नही रहता हो. इसलिए एक राज्य को राज्य तभी कहा जा सकता है जब उसमे एक निश्चित मात्रा मे जनसंख्या हो. 

जनसंख्या या आबादी के संबंध मे कोई निरश्चित नियम नही बनाया जा सकता आबादी कम या अधिक होना राज्य के अन्य तत्वों जैसे आकार, देश की परिस्थिति आदि पर निर्भर करता है. लेकिन एक आदर्श राज्य मे जनसंख्या कितनी हो यह विचारणीय है.

प्लेटो ने ” रिपब्लिकक ” में आदर्श राज्य की जनसंख्या 5040 बतलाई है. इसी तरह अरस्तु ने भी कहा है कि जनसंख्या न बहुत अधिक हो और न कम. जनसंख्या इतनी हो कि उसका भरण-पोषण सरलता से हो सके और साथ ही राज्य की रक्षा भी उससे हो सके.

2. निश्चित भू-भाग 

राज्य के लिए एक निश्चित भू-भाग होना आवश्यक है. निश्चित भू-भाग राज्य का दूसरा आवश्यक तत्व है, जनसंख्या की तरह ही निश्चित भू-भाग के बिना भी राज्य की कल्पना नही की जा सकती. ब्लुन्शली के शब्दों मे ” राज्य की शक्ति का आधार जनसंख्या है, इसका भौतिक आधार भूमि है. जनता तब तक है जब तक निश्चित भू-भाग या क्षेत्र हो. 

गिलक्राइस्ट के अनुसार,” बिना निश्चित भूखंड के कोई भी राज्य सम्भव नही हो सकता.” अतः राज्य के अस्तित्व के लिए एक निश्चित भू-भाग आवश्यक है. कोई घुमक्कड़ कबीलों का (बंजरों का) अपना नेता सरदार होने पर भी उसे राज्य नही कहा जा सकता.

इस सम्बन्ध मे विवाद है और यह दावे के साथ नही कहा जा सकता कि यह भू-भाग कितना होना चाहियें? राज्य के भू-भाग के संबंध मे निम्नलिखित तथ्य विचारणीय है राज्य की सीमाएँ निश्चित होनी चाहिए. राज्य के लिए भूमि का महत्व सिर्फ भौतिक दृष्टिकोण से ही नही बल्कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी है. निश्चित भू-भाग के बिना लोगों मे राष्ट्रप्रेम, एकता, बन्धुत्व आदि की भावनाएं नही आ सकती. 

3. सुसंगठित सरकार या शासन 

राज्य का तीसरा महत्वपूर्ण आवश्यक तत्व राज्य मे सरकार या शासन का होना है. सरकार को राज्य की आत्मा कहा जाता है. किसी निश्चित भू-भाग पर रहने वाले लोगों को तब तक राज्य नही कहा जा सकता, जब तक वहां कोई शासन न हो. ऐसी संस्था का होना आवश्यक है जिसका आदेश मानना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक हो. 

राज्य की इच्छाओं और भावनाओं का पालन सरकार के द्वारा ही होता है. राज्य की शक्तियों का क्रियात्मक प्रयोग भी सरकार ही करती है. सरकार के अंदर प्राधिकरण आते है, जो सरकार के कार्यों को संचालित करते है, जैसे– कानून का निर्माण करना और पालन करवाना तथा उल्लंघन करने वाले को दंड देना आदि. 

गैटिल का मत है कि, संगठित सरकार के अभाव मे जनसंख्या पूर्णतः असंयमित, अराजक जनसमूह हो जायेगी और किसी भी सामूहिक कार्य का करना असम्भव हो जायेगा.

4. सम्प्रभुता 

संप्रभुता राज्य होने की पहचान है. किसी समाज मे अन्य तीन तत्वो के होने पर भी जब तक उसमें संप्रभुता न हो वह राज्य नही बन सकता राज्य मे. नियमों को लागू करने वाली एजेन्सी हो सकती है परन्तु संप्रभुता नही हो सकती.

संप्रभुता केवल राज्य की ही विशिष्टता है और यह राज्य का आवश्यक अंग भी है. स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भारतवर्ष के पास अपनी जनसंख्या थी, उसका निश्चित भू-भाग तथा सरकार थी, किंतु सम्प्रभुता के अभाव मे उसे राज्य नही कहा जाता था. 

सम्प्रभुता से आश्य ” राज्य का आंतरिक दृष्टि से पूर्णतः संप्रभु होना संप्रभुता है. राज्य के अंदर कोई भी व्यक्ति अथवा समुदाय ऐसा नही होता जो कि उसकी आज्ञाओं का पालन न करता हो. बाहरी दृष्टि से सम्प्रभुता का अर्थ है, राज्य विदेशी संबंधों के निर्धारण मे पुर्णतः स्वतंत्र होता है, परन्तु यदि राज्य स्वेच्छा से अपने ऊपर कोई बंधन स्वीकारता है तो इससे राज्य की सम्प्रभुता पर कोई प्रतिबंध नही होता. 

हाॅब्स, बैन्थम, आस्टिन, हीगल तथा अनेक विद्वानों ने राज्य की संप्रभुता को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया है और उसे राज्य रूपी शरीर का प्राण माना है, परन्तु दूसरी ओर लास्की तथा कोल ने, जो मूलतः बहुलवादी विचारक है, राज्य की संप्रभुता पर प्रहार भी किया है. लास्की ने कहा है, ” राज्य न कभी सही अर्थों मे संप्रभु था, न है और न रहेगा.” उन्होंने यह भी कहा कि राज्य भी अन्य संस्थाओं के समान एक संस्था है- अतः वह सर्वोच्च कैसे हो सकती है?

राज्य का स्वरूप (Form of the state)

इस विषय में विभिन्न विद्वानों में मतैक्य नही है. यहाँ कुछ प्रमुख मतों का संक्षिप्त विवेचन किया गया हैं–

1. राज्य एक सर्वोच्च समुदाय है 

अरस्तु का कहना है कि,” राज्य की उत्पत्ति मनुष्यों के जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हुई है, किन्तु राज्य मनुष्यों के जीवन को अच्छा बनाने के लिए स्थिर हैं (The state came into existance for the sake of hife, but continues to exist for the sake of good life).”  

अरस्तु तो यह मानता था कि प्रत्येक समुदाय का उद्देश्य मानव की भलाई करना है और राज्य जो सर्वोत्तम और सर्वोच्च समुदाय है, उसका उद्देश्य तो मनुष्यों की सर्वाधिक भलाई करना हैं. 

2. राज्य का आधार शक्ति या इच्छा 

कुछ विद्वानों का मत है कि राज्य शक्ति के बल पर स्थापित रहता हैं, शक्ति के बल पर ही उसका अस्तित्व कायम रहता है और जब शक्तिहीनता उसमें आ जाती है तो वह समाप्त हो जाता है. इतिहास साक्षी है कि शक्ति के बल पर बड़े-बड़े राज्य स्थापित हुए, उनका विस्तार हुआ और जब शक्ति समाप्त हो गयी तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया. मैकियावेली तथा ट्रिटस्के इसी मत के समर्थक रहे है. परन्तु आज इस मत का खण्डन किया जाता है. अब शक्ति के स्थान पर इच्छा को राज्य का आधार माना जाता हैं.

ग्रीन ने लिखा है कि,” राज्य की आधार शक्ति नहीं बल्कि इच्छा हैं” (Will not force is the basis of the state). अराजकतावादी एवं साम्यवादी दोनों ही राज्य के विरूद्ध हैं और वे आदर्श समाज की स्थापना का  स्वप्न देखते हैं जिसमें राज्य का कोई अस्तित्व न रहेगा. इतना होने पर भी राज्य एक शक्तिशाली वर्ग की शक्ति और प्रभुत्व को कायम रखने का साधन माना जाता है (The state is an organization of class dominating the other). 

3. राज्य का आधार समझौता है 

कुछ विद्वान कहते है कि राज्य का अस्तित्व समझौते के आधार पर स्थापित हुआ. वे राज्य को प्राकृतिक या ईश्वरीय न मानकर मनुष्यकृत एवं कृत्रिम मानते है. वह यह भी कहते है कि समझौता भंग भी किया जा सकता है और राज्य का अस्तित्व समाप्त किया जा सकता हैं.

परन्तु यह धारणा कुछ जँचती नही हैं. राज्य को साझेदारी की कम्पनी के समान मानना उचित नही प्रतीत होता. राज्य का अस्तित्व तो मनुष्य के लिए सभ्य और सामाजिक जीवन की एक आवश्यक शर्त हैं. राज्य ऐच्छिक नहीं शरन् अनिवार्य समुदाय हैं. उसका आधार समझौता नहीं हो सकता.

4. राज्य मनुष्यों के कल्याण का साधन हैं 

वर्तमान में अधिकांश विद्वान राज्य को मानव कल्याण का सबसे महत्वपूर्ण साधन मानते है. उनका कहना है कि राज्य का ध्येय कल्याणकारी (good or welfare) हैं. मैकाईवर ने “राज्य को सामाजिक मनुष्य का साधन” माना हैं. ग्रोशियस तथा अल्थ्युसियम ने “राज्य को एक कल्याणकारी व्यवस्था” (Welfare system) माना हैं. अरस्तु ने भी इसे “अच्छे जीवन के लिए अति आवश्यक” बताया हैं. 

5. राज्य अनेक संघों में से एक संघ है 

बहुलवादी विचारक यह मानते है कि “समाज अनेक संघों से मिलकर बनता है, राज्य भी उन संघों में से एक हैं.” अन्य संघ भी राज्य के समान स्वाभाविक और आवश्यक है. व्यक्तिवादी लोग “राज्य को एक आवश्यक बुराई” (necessry evil) मानते है. अराजकतावादी चिंतक राज्य का आधार शक्ति मानकर उसका विरोध करते हैं तथा उसके उन्मूलन में विश्वास करते हैं. समाजवादी विद्वान राज्य को समाज के हित का आवश्यक साधन मानते हैं. 

6. राज्य एक कानूनी व्यवस्था है 

न्यायशास्त्री लोग राज्य को एक कानूनी व्यवस्था मानते हैं. उसका संगठन कानून के आधार पर होता है जो मनुष्यों के जीवन को कानून द्वारा व्यवस्थित करता है. कानूनी दृष्टि से राज्य की शक्ति असीमित होती है परन्तु वास्तव में उस पर सीमायें भी होती हैं यह राज्य का महत्वपूर्ण पहलू है परन्तु राज्य के उच्चातर उद्देश्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता हैं. 

7. राज्य एक सावयव प्राणी है 

कुछ विद्वान राज्य को एक जीवित प्राणी के समान मानते हैं. जिस प्रकार मनुष्य शरीर मे अनेक अंग होते है जो विभिन्न प्रकार के कार्य करते हैं, वैसे ही राज्य के भी विभिन्न अंग होते हैं, जिनके कार्यक्षेत्र निश्चित होते हैं. हर्वर्ट स्पेन्सर भी राज्य को जीवित प्राणी के समान मानता हैं. राज्य और व्यक्ति एक-दूसरे पर आश्रित रहते हैं परन्तु कुछ विद्वान राज्य को सावयव प्राणी नहीं मानते हैं. 

राज्य के विषय मे अनेक मत हैं परन्तु इन सबमें उत्तम मत ए. बाइल्डे का हैं जो कहते हैं कि,” सामाजिक कल्याण का आदर्श ऐसा समुदाय है जिसके सदस्य स्वतंत्र उत्तरदायी हों और जो अपने सुख की प्राप्ति सम्भवतया स्वयं ही करें. इस तथ्य से कि इस आदर्श का उच्चतम विकास का प्रशिक्षण और अनुकूल वातावरण द्वारा ही हो सकता हैं.

हमें यह न भूलना चाहिए कि राज्य इनकी पूर्ति में केवल उन दशाओं की तैयारी कर सकता हैं जिनके आधार पर व्यक्तियों को अपने नैतिक विकास के लिए प्रयत्न करने चाहिए. इन शर्तों के अनुसार तथा इनके साथ ही हम स्वीकार करते हैं कि राज्य अधिकारों का संगठनकर्ता और सामाजिक न्याय का संरक्षक हैं.”

राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत (Theories of the Origin of the State)

राज्य की उत्पत्ति राजनीति शास्त्र की एक अनसुलझी गुत्थी है. इस विषय में लेखकों के अलग अलग विचार है कुछ लेखक इसे मनुष्य में निहित राजनैतिक चेतना का परिणाम मानते है. 

गार्नर के अनुसार,”  वे परिस्थितियों जिनमें आदि मानव में प्रथमतः राजनैतिक चेतना का अनुभव किया और उससे प्रेरित होकर राजनैतिक संगठन के अधीन होते हुए राज्य की उत्पत्ति की ओर आगे बढ़े इतिहास के काल खण्डों में हुई घटनाओं और परिस्थितियों के अनुसार राज्य की उत्पत्ति के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हुए. 

राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत निम्नलिखित है:

राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत (Divine Theory of the Origin of the State)

राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अब तक जितने भी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, उनमें दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त सबसे प्राचीन है. यह सिद्धान्त बताता है कि राज्य मानवीय नहीं वरन् ईश्वर द्वारा स्थापित एक दैवीय संस्था है. ईश्वर राजा के रूप में अपने किसी प्रतिनिधि को नियुक्त करता है. चूँकि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है. अत: वह ईश्वर के प्रति ही उत्तरदायी है. राजा की आज्ञाओं का पालन करना प्रजा का परम पवित्र कर्तव्य है.

इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य की सृष्टि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ईश्वर ने की हैं. राज्य मानव निर्मित संस्था न होकर दैवी संस्था हैं. राज्य ईश्वर का अभिकर्ता अथवा प्रतिनिधि हैं. मानव जाति के कल्याण के लिए ईश्वर ने राज्य का निर्माण किया है, इसलिए मानव का एकमात्र कर्त्तव्य हैं राज्य के आदेशों का बिना किसी शर्त के पालन करना. 

हिन्दु, यहूदी, ईसाई, मुसलमान तथा विश्व के अन्य सभी धर्मों के लोग इस मत को मानते हैं कि राजनीतिक सत्ता का मूल दैवी वरदान हैं. उदाहरण के लिए ‘महाभारत’ के शान्ति पर्व मे भीष्म ने कहा हैं,” राजनीतिक सत्ता के अभाव में स्थिति को असहनीय पाकर लोग ब्रह्रा जी के पास पहुँचे और प्रार्थना कि,” हे भगवान, किसी रक्षक के बिना हम नष्ट हो रहे हैं. हमें संरक्षक दीजिए जिसकी हम सब मिलकर पूजा करेंगे और वह हमारी रक्षा करेगा.”

भगवान् ने प्रार्थना स्वीकार की तथा उन पर शासन करने के लिए मनु को नियुक्त किया. तथापि मनु इस नियुक्ति को स्वीकार करने में हिचकिचाए क्योंकि उन्हें उन लोगों पर शासन करना बड़ा कठिन लगा जिनका आचरण सदा छलपूर्ण होता हैं. परन्तु अन्ततः उन्हें आश्वस्त किया गया कि लोग उन्हें वित्तीय, नैतिक एवं आध्यात्मिक समर्थन देंगे.”

यहूदियों का भी ऐसा मत हैं. “ओल्ड टैस्टामेण्ड” में इस आरणा का स्पष्ट उल्लेख हैं कि ईश्वर शासकों को चुनता हैं, नियुक्त करता हैं, पदमुक्त करता है और यहाँ तक कि बुरे शासकों की हत्या करता है. ऐसा माना जाता है कि जानबूझकर अथवा भूल से किए गए अपने सभी कृत्यों के लिए राजा ईश्वर के प्रति उत्तरदायी हैं. 

ईसाइयों की “न्यू टैस्टामेण्ड” में सत्ता का स्त्रोत ईश्वरीय इच्छा में निहित माना गया हैं. बड़े स्पष्ट या प्रबल शब्दों में पाॅल के रोम लोगों ने कहा,” प्रत्येक आत्मा उच्च शक्तियों के अधीन हो, क्योंकि ईश्वरीय शक्ति को छोड़कर कोई शक्ति नहीं हैं, जो शक्तियाँ हैं वे ईश्वर के निर्देश से हैं, अतः जो कोई शक्ति का प्रतिरोध करेगा वह दैवी कोप भोगेगा.” 

मध्य युग में यही विचार चलता रहा कि पोप इस धरती पर ईसा मसीह का प्रतिनिधि हैं और इसलिए उसका शब्द ईसा मसीह की शिक्षाओं जैसा सत्य हैं. 

गेटेल के अनुसार,” मानव इतिहास में दीर्घ काल तक राज्य को ईश्वरकृत या दैवी समझा जाता था और सरकार का स्वरूप धार्मिक था.” 

दैवी सिद्धान्त के प्रचलन काल में जनता के जीवन में धर्म का अत्यधिक महत्व था और ईश्वर के प्रति भय की भावना विद्यामान थी. इसलिए राज्य का निर्माता भी ईश्वर को मान लिया गया. राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया जो अपने कार्यों के प्रति सिर्फ ईश्वर के प्रति उत्तरदायी ठहराया गया. चूँकि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि हैं, इसीलिए उसकी आज्ञाओं का पालन करना प्रजा का पुनीत कर्त्तव्य माना गया. उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन करने का अर्थ है ईश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन करना अर्थात् पाप करना. 

संक्षेप में, दैवी सिद्धान्त की व्याख्या तीन रूपों में की गई हैं-

  • प्रथम, ईश्वर ने स्वयं इस पृथ्वी पर आकर शासन की स्थापना की. 
  • द्वितीय, ईश्वर ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता पर शासन स्थापित किया. 
  • तृतीय, ईश्वर ने मनुष्यों में ऐसी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न की जिनसे शासन और व्यवस्था की आवश्यकता प्रतीत हुई और उनमें अनुशासन व आज्ञापालन की भावना का जन्म हुआ. 

दैवी सिद्धांत की विशेषताएं 

राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं हैं:

1. राजा ईश्वर का प्रतिनिधि हैं, उसे ईश्वर ने राजा बनाया हैं. 

2. राजा का पद पैतृक हैं. 

3. राजा केवल ईश्वर के ही प्रति उत्तरदायी हैं. यदि वह कोई गलती करता हैं तो इसका मतलब हैं ईश्वर ने उससे वैसा करने के लिये कहा हैं. 

4. ईश्वर ने ही उसे यह राजसत्ता उपहार स्वरूप प्रदान की हैं. वह उसका जन्म से अधिकारी हैं. राजा का दैवीय सिद्धांत राजा को दैवी अधिकार प्रदान करता हैं. निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासकों ने इस सिद्धान्त के माध्यम से राजा के दैवी अधिकारों की स्थापना की. 

5. राजा की आज्ञा ईश्वर की आज्ञा हैं, उसका उल्लंघन करना पाप हैं. 

दैवी सिद्धांत का पतन 

सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस सिद्धान्त का पतन होने लगा. जैसे-जैसे मनुष्य का बौद्धिक विकास हुआ, इस सिद्धान्त के समर्थन में कम प्रमाण दिखाई देने लगे. गिलक्राइस्ट के अनुसार इस सिद्धान्त के ह्रास या पतन के तीन प्रमुख कारण थे-

  • प्रथम, सामाजिक समझौता सिद्धान्त द्वारा इस धारणा का प्रतिपादन करना कि राज्य की उत्पत्ति ईश्वर के द्वारा न होकर लोगों के आपसी समझौते के परिणामस्वरूप हुई. 
  • द्वितीय, चर्च की शक्ति का ह्रास होना अर्थात् चर्च का राज्य से पृथक किया जाना और जीवन में लौकिक प्रश्नों के महत्व का सर्वोपरि माना जाना. 
  • तृतीय, इस सिद्धान्त को सबसे करारी चोट लोकतंत्र की भावना के विकास से मिली. लोकतंत्रवाद ने राजा के स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश शासन का विरोध और खण्डन किया.

दैवी सिद्धान्त की आलोचना 

इस सिद्धान्त ने लोगों के ह्रदयों में राजा के प्रति असीम सम्मान और आदर भाव भर दिया था जिसके परिणामस्वरूप राजाओं ने मध्य युग में जनता पर ईश्वर के नाम का सहारा लेकर घोर अत्याचार किये. वर्तमान वैज्ञानिक युग ने यह प्रमाणित कर दिया कि राजा की वास्तविक शक्ति राजा के राज्य हाथ में नहीं हैं, वह तो जनता के हाथों में निहित हैं. राजा अपने सम्मान का उपभोग जनता के समर्थन पर ही कर सकता हैं. इस भावना के कारण प्रजातंत्र राज्यों का निर्माण हुआ और यह प्रमाणित हो गया कि राज्य ईश्वरकृत नहीं बल्कि मानवकृत हैं. 

दैवीय सिद्धान्त की निम्न आधारों पर आलोचना की जाती हैं– 

1. आलोचकों की राज्य के दैवी सिद्धान्तों के संबंध में यह धारणा रही है कि जब राजा निरंकुशता को स्वीकार कर लेते हैं तब वे राज्य की सभी शक्तियों का उपयोग अनैतिक कार्यों की पूर्ति में करने लगते हैं. 

2. दैवीय उत्पत्ति सिद्धान्त प्रजातंत्र विरोधी है. प्रजातांत्रिक प्रणाली मे शासन का चुनाव जनता द्वारा किया जाता हैं, जो गलत कार्यों के करने पर उसे हटा भी सकती हैं. इसमें शासक जनता के प्रति उत्तरदायी होता हैं, किन्तु यह सिद्धान्त प्रजातंत्र की इन मान्यताओं को स्वीकार नहीं करता हैं. 

3. इस सिद्धान्त के विषय में आलोचकों का विचार रहा है कि यह पूर्ण रूप से अनैतिहासिक हैं, क्योंकि इसका इतिहास के अंदर कोई विवरण नहीं प्राप्त होता. इतिहास में इस बात का कहीं भी कोई प्रमाण नहीं प्राप्त होता कि राज्य की स्थापना ईश्वर द्वारा की गई हैं. 

5. दैवी सिद्धान्त की मान्यता रूढ़िवाद पर आधारित हैं. यह अहितकर इसलिए भी है कि यह राजा की स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुशता का समर्थन करता हैं. 

6. आज के वैज्ञानिक युग मे यह रूढ़िवादी सिद्धान्त सर्वथा अमान्य हैं. आधुनिक युग में कोई सिद्धान्त तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता, जब तक कि वह तर्क और तथ्यों की कसौटी पर सत्त सिद्ध नहीं हो जाता. यह सिद्धान्त भी मनुष्य की जिज्ञासाओं का संतोषजनक उत्तर नही देता हैं, अतः इसे भी स्वीकार नही किया जा सकता. गिलक्राइस्ट के शब्दों में,” यह विचार कि ईश्वर इस या उस व्यक्ति को राजा बनाता हैं, अनुभव एवं साधारण ज्ञान के एकदम विपरीत हैं.” 

7. यह सिद्धान्त राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बनाकर उसकी स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुशता का समर्थन करता हैं. इससे राजाओं को मनमाने ढंग से शासन करने का अधिकार मिल जाता हैं. यह राजा को अत्यधिक शक्तिशाली बना देता हैं तथा उसे किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं रखता. 

दैवी सिद्धान्त का महत्व 

यह सिद्धान्त आज मृतप्राय हो चुका है फिर भी राज्य के संबंध मे इस सिद्धान्त की उपयोगिता हैं. 

सर्वप्रथम, यह सिद्धान्त राज्य के नैतिक आधार पर जोर देता है. राज्य को ईश्वर की कृति मानने का अर्थ राज्य को उच्च स्तर प्रदान करना हैं. राजा का यह नैतिक कर्त्तव्य है कि सुराज्य स्थापित करे अर्थात् इसमें अर्थ निहित हैं कि राज्य का उद्देश्य लोककल्याण हैं. 

द्वितीय, अराजकता और अव्यवस्था को समाप्त कर समाज में शांति व सुव्यवस्था कायम करने में यह सिद्धान्त काफी सहायक सिद्ध हुआ हैं. प्रारंभिक मनुष्य ईश्वर से डरता था, धर्म प्रेमी था, इसलिए शासकों के लिए इस सिद्धान्त के आधार पर जनता पर शासन करने में बड़ी सुविधा हो गई. इससे लोगों में आज्ञाकारिता की भावना का विकास हुआ. 

गेटेल के शब्दों में,” इस सिद्धान्त ने उस समय लोगों को आज्ञा का पालन करना सिखाया, जिस समय वे अपने ऊपर शासन करने के लिए तैयार नहीं थे. 

गिलक्राइस्ट ने भी लिखा हैं,” यह कितना ही गलत और विवेकशून्य सिद्धान्त क्यों न हो, कम से कम अराजकता के निवारण का श्रेय इसे अवश्य प्राप्त हैं.”

पितृसत्तात्मक सिद्धान्त (Patriarchal Theory of State)

इस सिद्धान्त का उल्लेख हमें यूनान, रोम और यहूदियों के प्राचीन इतिहास में देखने को मिलता है. इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक हेनरी मेन है. यहुदियों की धार्मिक पुस्तक ओण्डटेस्टामैण्ट, बाइबिल, रोम और भारत में भी यह सिद्धान्त देखने को मिलता है.

हेनरी मेन के अनुसार प्राचीन समय में समाज परिवारों का समुह था और उस परिवार का सबसे वृद्ध व्यक्ति परिवार का पैट्रिआर्क (मुखिया) होता था. पहला परिवार पुरुष, उसकी स्त्री और बच्चे थे. धीरे-धीरे परिवारों की संख्या में वृद्धि होती गयी. परन्तु परिवारों पर मूल परिवार के मुखिया का अधिकार बना रहा. इसके उत्तराधिकारी का भी इन परिवारों पर नियन्त्रण बना रहा.

धीरेधीरे पितृ प्रधान परिवार का विकास हुआ परिवार से गोत्र और गोत्र से कबीलों का निर्माण हुआ और कबीलों से राज्य की उत्पत्ति हुई. कबीले का सबसे वृद्ध व्यक्ति मुखिया का चुनाव करता था. लीकॉक ने परिवार से राज्य के विकास को इस प्रकार व्यक्त किया है पहले एक गृहस्थी, उसके बाद एक पितृ प्रधान परिवार उसके पश्चात एक वंश के लोगों का कबीला और अन्त में एक राष्ट्र हैं . 

पितृसत्तात्मक सिद्धान्त के मुख्य लक्षण 

पितृसत्तात्मक सिद्धान्त के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं:

1. परिवार का पैट्रियार्क (मुखिया) पुरुष था. 

2. परिवार की वंश परम्परा पिता से चलती थी.

3. परिवार में विवाह प्रथा स्थाई थी कही बहुपत्नी, कही पर एकल पत्नी प्रथा थी. 

4. रक्त सम्बन्ध परिवार के सदस्यों की एकता का मुख्य सूत्र था. 

5. परिवार मे मुखिया की शक्तियाँ निरपेक्ष थी. 

6. राज्य के विकास आधार पितृ प्रधान व्यवस्था थी.

पितृसत्तात्मक सिद्धान्त की आलोचना

पितृसत्तात्मक सिद्धान्त की आलोचना की आलोचना के निम्नलिखित आधार हैं–

1. पितृ प्रधान सिद्धान्त सब जगह विद्यमान नही : यह व्यवस्था पूरे विश्व में नहीं थी. एशिया और आस्ट्रेलिया में तो मातृ प्रधान व्यवस्था के उदाहरण मिलते हैं. 

2. प्रारम्भिक सामाजिक इकाई कबीला था : मार्गन, मैक्सवैल आदि के अनुसार प्रारम्भिक सामाजिक इकाई कबीला थी. कबीला टूटने पर गौत्र और गौत्र से परिवार का निर्माण हुआ. इनके अनुसार वंश स्त्री से चलता था, पुरुष से नही.

 3. अत्यन्त सरल : यह एक सरल सिद्धान्त है जबकि राज्य की उत्पत्ति जटिल विकास का परिणाम है जिसमें अनेक छोटे और बड़े तत्वों का योगदान है. 

4. यह सिद्धान्त राजनैतिक कम और समाज शास्त्रीय अधिक लगता है.

महत्व

इन सभी आलोचनाओं के बाद भी यह कहना निरर्थक है कि इसमें सत्य का कोई अंश नहीं है. राज्य की उत्पत्ति का विकास वादी सिद्धान्त भी इस बात को स्वीकार करता है कि राज्य के विकास में रक्त सम्बन्ध का अत्यधिक महत्व रहा है. समाज में परिवार संगठन, एकता की प्रमुख इकाई थी.

मातृसत्तात्मक सिद्धान्त (Matriarchal Theory of State)

इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक मेक्लेनन, मॉर्गन और जंक्स है. इन व्याख्याकारों ने अपनी पुस्तकों में इस सिद्धान्त की व्याख्या की है. मातृ प्रधान सिद्धान्त के समर्थकों का मानना है कि प्राचीन समाज में स्थाई विवाह की संस्थाए नहीं थी. समाज में बहुपतित्व की व्यवस्था थी. इस व्यवस्था में नारी के अनेक पति होते थे उनकी होने वाली सन्तानों को पिता नहीं माता के कुल के नाम से जाना जाता था. सम्पत्ति और सत्ता की अधिकारिणी माता होती थी. इस व्यवस्था के विकास ने आगे जाकर राज्य को जन्म दिया. 

आलोचना 

1. अत्यन्त सरलीकरण 

2. मातृ प्रधान और पितृ प्रधान दोनों के उदाहरण मिलते है. 

3. राजनैतिक नहीं सामाजिक सिद्धान्त. 

4. अन्य तत्वों की उपेक्षा 

महत्व 

इस सिद्धान्त का महत्व भी पितृ सत्ता सिद्धान्त के समान है. रक्त सम्बन्ध राज्य के विकास का महत्वपूर्ण बिन्दु है जिसका यह सिद्धान्त निरुपण करता है.

राज्य की उत्पत्ति का शक्ति सिद्धान्त  (Power Theory of the Origin of the State)

इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र कारण शक्ति है. राज्य का उदय शक्तिशाली व्यक्तियों के द्वारा निर्बल व्यक्तियों को अपने अधीन करने की प्रकृति के कारण हुआ दूसरे शब्दों में युद्ध राज्य की उत्पत्ति का प्रमुख कारण था युद्ध में विजेता शासक और पराजित प्रजा बन गए.

वाल्टेयर के अनुसार प्रथम राजा एक भाग्यशाली योद्धा था. जैक्स के अनुसार ऐतिहासिक दृष्टि से यह सिद्ध करना तनिक भी कठिन नहीं है कि आधुनिक राजनैतिक समाजों का अस्तित्व सफल युद्धों में निहित है.

ब्लंशली भी इस मत का समर्थन करता है वह कहता है कि शक्ति के बिना न कोई राज्य जीवित रहता है और न जीवित रह सकता है. इस प्रकार युद्ध शक्ति को पैदा करता है और शक्ति राज्य को जन्म देती है तथा शक्ति ही इसे कायम रखती है.

बिस्मार्क के अनुसार राज्य का आधार रक्त और लोहा होना चाहिये. ट्रिस्के के अनुसार राज्य में आक्रमण करने और रक्षा करने की जन शक्ति है. 

इस सन्दर्भ में शक्ति सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएँ सामने आती है:

1. शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एक मात्र आधार है. 

2. शक्ति का आशय भौतिक और सैनिक शक्ति से है. 

3. प्रभुत्व की लालसा और आक्रामकता, मानव स्वभाव का अनिवार्य घटक है. 

4. प्रकृति का नियम है कि शक्ति ही न्याय है. 

5. प्रत्येक राज्य में अल्पसंख्यक शक्तिशाली शासन करते है और बहुसंख्यक शक्तिहीन अनुकरण करते है. वर्तमान में राज्यों का अस्तित्व शक्ति पर ही केन्द्रित है. 

शक्ति सिद्धान्त का प्रयोग 

1. मध्ययुग में धर्मगुरुओं ने राज्य को दूषित और चर्च को श्रेष्ठ संस्था बताने में किया. 

2. व्यक्तिवादियों ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में सरकार के हस्तक्षेप को रोकने के लिये इसका उपयोग किया. 

3. अराजकतावादी समाजवादी विचारकों ने भी व्यक्ति की स्वतन्त्रता हेतु इस सिद्धान्त का प्रयोग किया. 

4. फासीवादी और नाजीवादियों ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन और प्रयोग किया.

शक्ति सिद्धांत की आलोचना

राज्य के शक्ति सिद्धांत की निम्नलिखित आधार पर आलोचना की जाती हैं– 

 1. शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एक मात्र तत्व नहीं है. यद्यपि इसने राज्य की उत्पत्ति में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया परन्तु इसकी उत्पत्ति के अन्य कारण चेतना, धर्म, रक्त सम्बन्ध आदि भी रहे. 

2. टी. एच. ग्रीन के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का आधार इच्छा है न कि शक्ति लोगों की इच्छा के बिना न तो राज्य संगठित हो सकता है और न कायम रह सकता है. लोग राज्य के आदेशों का पालन शक्ति के भय से नहीं, अपने विवेक और बुद्धि से करते हैं. 

3. शक्ति सिद्धान्त जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसे सिद्धान्तों को जन्म देता है जिसका अर्थ है कि सिर्फ बलशाली को जीवित रहने का अधिकार है. 

4. यह सिद्धान्त राज्य को निरकुंश बनाता है, जिसके लोगों की स्वतन्त्रता का लोप और जनतन्त्र का विनाश होता है. 

5. यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और विश्व बन्धुत्व का विरोधी है, शक्ति पर ही जोर देने के कारण यह एक साम्राज्यवादी सिद्धान्त है. 

6. यह सिद्धान्त केवल भौतिक शक्ति पर जोर देता है. आधुनिक युग में आध्यात्मिक, तकनीकी और वैधानिक शक्ति को में भी महत्व दिया जाता है.  शक्ति सिद्धान्त की आलोचना

इन आलोचनाओं के अनुसार राज्य की उत्पत्ति में शक्ति सिद्धान्त मान्य नहीं है परन्तु राज्य के जन्म और विकास में शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. प्राचीन समय में अराजक समाज को संगठित करने में तथा अनुशासन और आज्ञापालन का भाव शक्ति के कारण ही आया. आधुनिक समय में भी जब राज्य शक्तिशाली नहीं होते है तो अराजकता और विघटन का शिकार हो जाते हैं. 

राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धांत (Social Contract Theory of State)

सामाजिक समझौते का सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है. इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य ईश्वरीय संस्था न होकर एक मानवीय संस्था है. इस (समझौता) सिद्धान्त के अनुसार, राज्य का निर्माण व्यक्तियों ने पारस्परिक समझौते द्वारा किया है. समझौते से पूर्व व्यक्ति प्राकृतिक अवस्था में रहते थे. किन्हीं कारणों से व्यक्तियों ने प्राकृतिक अवस्था त्यागकर समझौते द्वारा राजनीतिक समाज की रचना की. इस समझौते से व्यक्तियों को सामाजिक अधिकार प्राप्त हुए. 

लीकॉक के अनुसार,” राज्य व्यक्तियों के स्वार्थों द्वारा चालित एक ऐसे आदान-प्रदान का परिणाम था जिससे व्यक्तियों ने उत्तरदायित्वों के बदले विशेषाधिकार प्राप्त किये.” 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त का विकास 

महाभारत के ‘शान्तिपर्व’ तथा कौटिल्य की पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में इस स्थिति का वर्णन मिलता है कि अराजकता की स्थिति से त्रस्त होकर मनुष्यों ने परस्पर समझौते द्वारा राज्य की स्थापना की. 

यूनान में सोफिस्ट वर्ग ने सर्वप्रथम इस विचार का प्रतिपादन किया. इपीक्यूरिन विचारधारा वाले वर्ग तथा रोमन विचारकों द्वारा भी इसका समर्थन किया गया. मध्ययुग में मेनगोल्ड तथा थॉमस एक्वीनास द्वारा भी इसका समर्थन किया गया. सर्वप्रथम रिचार्ड हूकर ने वैज्ञानिक रूप में समझौते की तर्कपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की. डच न्यायाधीश प्रोशियस, पूफेण्डोर्फ तथा स्पिनोजा ने इसका समर्थन किया किन्तु इस सिद्धान्त का वैज्ञानिक और विधिवत् प्रतिपादन ‘संविदावादी विचारक’ हॉब्स, लॉक तथा रूसो द्वारा किया गया है.

सामाजिक समझौता सिद्धांत की मूल मान्यताएँ 

1. समझौते के पूर्व मानव जीवन का अस्तित्व था तथा उनके ही बीच समझौता हुआ. 

2. सामाजिक समझौता के द्वारा राज्य की स्थापना के पूर्व का समय प्राकृतिक अवस्था का था. प्राकृतिक अवस्था के संबंध में समझौता सिद्धान्त के प्रतिपादकों के दो मत हैं. कुछ विचारक प्राकृतिक अवस्था को अंधकार पूर्ण और कपटपूर्ण मानते हैं. यह अवस्था ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की अवस्था थी. कोई कानून नहीं, कोई नैतिकता नहीं मनुष्य का जीवन एकाकी और पाशविक था. प्रत्येक समय व्यक्ति संघर्ष में था.

अन्य विचारक प्राकृतिक अवस्था को आदर्श, सरलता और परम सुख की अवस्था मानते हैं जिसमें लोग स्वर्गिक आनंद का उपभोग करते थे. इन विचारकों के अनुसार प्राकृतिक अवस्था शांति तथा मैत्रीपूर्ण थी. यह मानव जीवन का स्वर्णिम काल था. प्राकृतिक अवस्था में किसी प्रकार का राजनीतिक संगठन नहीं था. मनुष्यों के पारस्परिक संबंध का नियमन अस्पष्ट प्राकृतिक नियमों द्वारा होता था. 

3. प्राकृतिक अवस्था में विभिन्न कारणों से अनेक असुविधाएँ पैदा होने लगीं अतः मनुष्यों ने समझौते द्वारा नागरिक समाज और राज्य की स्थापना की. समझौते की प्रकृति क्या थी, इस पर विचारकों में मतभेद हैं.

हाॅब्स के अनुसार मनुष्यों ने जीवन की रक्षा के लिए, लाॅक के अनुसार मनुष्यों ने प्राकृतिक अवस्था की असुविधाओं को दूर करने के लिए और रूसो के अनुसार मनुष्यों ने सभ्यता की बढ़ती हुई पेचीदगी के कारण आपस में समझौता कर राजनीतिक संगठन का निर्माण किया. कुछ विचारक एक समझौते का तथा कुछ अन्य विचारक दो समझौतों का होना स्वीकार करते हैं. 

4. समझौते के परिणामस्वरूप नागरिक समाज का निर्माण हुआ, राज्य का जन्म हुआ और प्राकृतिक कानूनों के स्थान पर राज्य के कानून निर्मित हुए. समझौते के स्वरूप के विषय में दो मत हैं. कुछ विद्वानों के अनुसार समझौता करते हुए लोगों को अपने समस्त अधिकार त्याग देने पड़े. अन्य विद्वानों के अनुसार समझौता के कारण लोगों को केवल कुछ ही अधिकार त्यागने पड़े.

कुछ विचारकों के अनुसार एक ही समझौता हुआ तो कुछ के अनुसार दो समझौते हुए. लेकिन इस बात से सभी समझौता सिद्धान्त के समर्थक विचारक सहमत हैं कि समझौता के बाद प्राकृतिक अवस्था के स्थान पर लोगों को सुरक्षा प्राप्त हुई और समझौते द्वारा राज्य का निर्माण हो गया. 

5. समझौता सिद्धान्त के अनुसार जिन उद्देश्यों के लिए समझौता किया गया यदि वे उद्देश्य पूरे नही होते तो समझौता तोड़ा जा सकता हैं. कुछ विचारकों ने समझौता तोड़ने का उद्देश्य व्यक्ति की आत्मरक्षा की प्रवृत्ति को बतलाया हैं. लाॅक के अनुसार प्राकृतिक कानूनों की व्याख्या और क्रियान्वयन तथा रूसों के अनुसार समाज के सामान्य हितों की पूर्ति न होगा. समझौता तोड़ने का आधार हैं.

हाॅब्स का सामाजिक समझौता सिद्धांत 

ब्रिटिश नागरिक हॉब्स (1588-1679) का जीवन काल राजनीतिक उथल-पुथल का काल था जिसका हॉब्स के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा. उसने इंग्लैण्ड का गृहयुद्ध (1642-1649) देखा, इंग्लैण्ड के राजा चार्ल्स प्रथम का मृत्यु दण्ड (1649) देखा और इसी पृष्ठभूमि से प्रभावित हो उसने 1651 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘लेवियाथन’ में राजाओं की निरंकुशता को उचित ठहराते हुए सामाजिक समझौता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया. उसने अपनी पुस्तक ‘लेवियाथान’ में इस सिद्धान्त का वर्णन किया हैं:

1. प्राकृतिक अवस्था एवं मनाव-स्वभाव 

हाॅब्स का कथन है कि उत्पत्ति के पूर्व मनुष्य प्राकृतिक रूप से जंगली अवस्था मे रहता था. मनुष्य स्वभाव से झगड़ालू, स्वार्थी, संघर्षप्रिय और असामाजिक था सभी एक-दूसरे के साथ संघर्षरत थे. जीवन एकाकी, दीन, अपवित्र, पार्श्वक और क्षणिक होता था. 

2. सामाजिक समझौते की अवस्था 

निरन्तर संघर्ष ऊबकर मनुष्यों ने आपस में समझौता कर उस दशा का अंत कर दिया. इस समझौते में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं– 

(अ) राजा स्वयं समझौता करने वालों में नहीं हैं अतः स्वयं पूर्ति से बंधा हुआ नहीं है,

(ब) समझौता करने वाले व्यक्तियों ने अपने सार अधिकारों को समझौते के बाद राजा को सौंप दिये हैं वे विरोध नहीं कर सकते हैं. 

3. नवीन राज्य का स्वरूप 

हाॅब्स ने समझौता के द्वारा एक ऐसे निरंकुश राजतंत्र की स्थापना की जिसका शासन संपूर्ण शक्ति सम्पन्न हैं और जिसका प्रजा के प्रति कोई कर्त्तव्य नहीं हैं व प्रजा को विद्रोह करने का अधिकार नहीं हैं. 

जाॅन लाॅक का सामाजिक समझौता सिद्धांत 

हाॅब्स की तरह लाॅक भी एक अंग्रेज दार्शनिक एवं राजशास्त्री था, यद्यपि दोनों के समय में बहुत अधिक अंतर नहीं है. यद्यपि उसके विचार हाॅब्स के विपरीत थे क्योंकि लाॅक के समय की परिस्थितियाँ हाॅब्स की परिस्थितियों से भिन्न थी तथा दोनों प्रतिबद्धताएँ भी अलग-अलग थी.

हाॅब्स ने ब्रिटेन का गृहयुद्ध देखा था. किंतु लाॅक के समय तक ब्रिटेन की संसद राजा की निरंकुशता के विरूद्ध विजयी हो चुकी थी. लाॅक ने 1688 की गौरवशाली क्रांति, और उसके परिणामस्वरूप जेम्स द्वितीय को राडगद्दी से उतरते देखा था. लाॅक ने सन् 1688 की क्रांति को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए समझौता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया. लाॅक के समझौता संबंधी विचारों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती हैं– 

1. मानव स्वभाव की धारणा 

हाॅब्स मनुष्य में केवल शाशविक प्रवृत्तियों का दर्शन करता है किन्तु लाॅक उसके मानवीय गुणों पर बल देता है. लाॅक के अनुसार मनुष्य की बड़ी विशेषता बुद्धिमान तथा विचारवान प्राणी होना है. वह अपनी विवेक बुद्धि से एक नैतिक व्यवस्था की सत्ता स्वीकार करता है और इसके अनुसार कार्य करना अपना कर्तव्य समझता हैं. उसमें दूसरों के प्रति सहानुभूति, प्रेम और दयालुता के गुण होते हैं.

संक्षेप में, लाॅक की कल्पना का मनुष्य हाॅब्स की कल्पना के मनुष्य की तरह केवल स्वार्थी ही नही होता वरन् वह परमार्थी होता है. 

2. प्राकृतिक अवस्था 

हाॅब्स ने मनुष्य को घोर स्वार्थी बतलाया था तथा प्राकृतिक अवस्था को तदनुसार सतत् संघर्ष और युद्ध की दशा माना था. परन्तु लाॅक ने मनुष्य को स्वभावतः परमार्थी, दयुलु, सहयोगी व समाजप्रिय माना है तथा उसी के अनुसार उसकी प्राकृतिक अवस्था की कल्पना भी इस प्रकार की है जिसमें मनुष्य ‘पारस्परिक युद्ध’ की अवस्था में न रहकर ‘पारस्परिक-सहयोग’ की अवस्था में रहते हैं. लाॅक की प्राकृतिक अवस्था की कई विशेषताएं हैं– 

(अ) प्रथम, प्राकृतिक अवस्था में सभी मनुष्य समान हैं क्योंकि सभी सृष्टि के एक ही स्तर पर और सब एक ही सर्वशक्तिमान और अनन्त बुद्धिसम्पन्न सृष्टा की कृतियाँ हैं. 

(ब) द्वितीय, प्राकृतिक अवस्था शांति व पारस्परिक सद्भावना पर आधारित होने के कारण सभी व्यक्ति समान व स्वतंत्र माने जाते हैं, कोई किसी को हानि पहुंचाने का प्रयत्न नहीं करता, सब समान रूप से प्राकृतिक समाज के लाभों को प्राप्त करते हैं और कोई किसी के अधीन नही होता. 

(स) तृतीय, प्राकृतिक अवस्था में लोग पूर्णतः स्वतंत्र होते है. किन्तु यह स्वतंत्रता स्वच्छन्दता या स्वेच्छाचारिता नहीं है क्योंकि प्राकृतिक अवस्था का नियंत्रण प्राकृतिक नियम हैं. 

3. सामाजिक समझौता की अवस्था 

श्रेष्ठ प्राकृतिक अवस्था के बावजूद निवासियों को कुछ परेशानियां जैसे– नियम अस्पष्ट थे, नियमों की व्याख्या हेतु निष्पक्ष न्यायाधीश नही थे. नियमों को लागू करने वाली सत्ता का अभाव था. इन कारणों से व्यक्तियों ने समझौते की आवश्यकता महसूस की. लाॅक के अनुसार दो समझौते हुए.

पहले के द्वारा प्राकृतिक अवस्था का अंत करके समाज की स्थापना हुई. दूसरा समझौता व्यक्ति समूह और राजा के मध्य हुआ जिसके परिणामस्वरूप शासक को कानून बनाने, व्याख्या करने का अधिकार दिया गया, लेकिन शासक की शक्ति पर प्रतिबंध लगाया गया कि निर्मित कानून प्राकृतिक नियमों के अनुरूप होंगे. जनता को स्वतंत्रता, सम्पत्ति की रक्षा का अधिकार प्राप्त होगा. 

नवीन राज्य का स्वरूप 

संवैधानिक राज्य की स्थापना हुई. यदि शासक अपने उद्देश्य में विफल हो जाता है तो समाज को एक प्रकार की सरकार की जगह दूसरी सरकार स्थापित करने का अधिकार होगा. वास्तविक शक्ति जनता के हाथ में निहित होती हैं.

रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धांत 

सामाजिक समझौता के विचारकों की त्रयी में रूसों का क्रम तीसरे विचारक के रूप में आता है. जहाँ, हाॅब्स और लाॅक अपने-अपने समय की राजनीतिक परिस्थितियों से प्रभावित थे और उन्होंने क्रमशः निरंकुश राजतंत्र तथा सीमित राजतंत्र समर्थन में अपने विचारों को व्यक्त किया वही रूसों के साथ ऐसी कोई स्थिति नही थी.

पर यह माना जाता है कि उसके विचारों ने सन् 1789 ई. की फ्रांस की क्रांति के लिए उत्प्रेरक का काम किया तथा एक नवीन लोकतंत्रीय व्यवस्था के लिए मार्ग प्रशस्त किया. 1726 ई. में रूसों की प्रसिद्ध पुस्तक ‘सोशल काॅन्ट्रेक्ट’ प्रकाशित हुई. इसमें रूसों ने सामाजिक समझौते के सिद्धांत का प्रतिपादन किया. रूसो ने सामान्य इच्छा के सिद्धांत के द्वारा सावयवयी समाज का विचार भी दिया हैं. 

रूसों ने अपनी पुस्तक ‘द सोशल कान्ट्रेन्ट’ में सामाजिक समझौता सिद्धांत की व्याख्या की हैं:

1. प्राकृतिक अवस्था एवं मानव स्वभाव 

रूसो की कल्पना के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य पशु के समान जीवन व्यतीत करता था. वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र था, उसके ऊपर किसी प्रकार का नियंत्रण नही था. शान्त, सरल और सुखमय जीवन था, आवश्यकताएं कम थीं धीरे-धीरे जनसंख्या में वृद्धि हुई, आवश्यकताएं बढ़ी और सम्पत्ति का अभ्युदय हुआ, स्वार्थ की भावना की उत्पत्ति एवं मानवगत बुराईयां आने लगी. 

2. समझौता 

सभ्यता के विकास के साथ, सम्पत्ति के उदय के साथ बुराइयों से निराकरण के लिए मनुष्यों ने आपस में समझौता किया. प्रत्येक व्यक्ति ने अपने अधिकार समाज को समर्पित कर दिये. इसे वह सामान्य इच्छा का नाम देता हैं. 

3. नवीन राज्य का स्वरूप 

राज्य का स्वरूप लोकतंत्रिक हैं. इसका आधार सामान्य इच्छा हैं. रूसो के अनुसार सम्प्रभुता संपूर्ण समाज अथवा जनता में निहित होती हैं.

सामाजिक समझौता सिद्धांत की आलोचना 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त की राजनीतिक विचारकों द्वारा कटु आलोचना की गई है. ब्लंटशली ने इस सिद्धान्त को अत्यधिक भयंकर, वूल्जे ने ‘सरासर झूठा’ तथा ग्रीन ने इसे कपोल-कल्पना, कहकर सम्बोधित किया है. सर हेनरीमेन ने तो यहाँ तक कहा है कि,” समाज तथा सरकार की उत्पत्ति के इस वर्णन से बढ़कर व्यर्थ की वस्तु और क्या हो सकती है.” वेग्थम सर फ्रेडरिक पोलक, वाहन, एडमण्ड वर्क आदि विचारकों ने भी इस सिद्धान्त की कटु आलोचना की है. इस सिद्धान्त की आलोचना ऐतिहासिक, दार्शनिक, तार्किक तथा वैज्ञानिक निम्नलिखित आधारों पर की गई है– 

सामाजिक समझौता सिद्धांत की ऐतिहासिक आधार पर आलोचना 

ऐतिहासिक आधार पर आलोचना निम्न रूपों में की गई है– 

1. समझौता अनैतिहासिक 

ऐतिहासिक दृष्टि से यह समझौता सिद्धान्त असत्य है क्योंकि इतिहास में कहीं भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि आदिम मनुष्यों ने पारस्परिक समझौते के आधार पर राज्य की स्थापना की हो. इस सम्बन्ध में डॉ. गार्नर का कथन सत्य ही है कि,” इतिहास में कोई ऐसा प्रामाणिक उदाहरण नहीं मिलता जिसके अनुसार ऐसे व्यक्तियों द्वारा, जिन्हें पहले से राज्य का पता नहीं था, अपने समझौते से राज्य की स्थापना की गई है.”  

2. प्राकृतिक अवस्था की धारणा गलत  

सामाजिक समझौता सिद्धान्त मानव इतिहास को दो भागों में विभाजित करता है– 

(अ) प्राकृतिक अवस्था तथा (ब) सामाजिक अवस्था. 

ऐतिहासिक दृष्टि से यह विभाजन असत्य है, क्योंकि इतिहास में हमें ऐसी अवस्था का प्रमाण नहीं मिलता. जब मनुष्य संगठन-विहीन अवस्था में रहा हो.

3. राज्य विकास का परिणाम है, निर्माण का नहीं 

इतिहास से पता चलता है कि राज्य अन्य मानव संस्थाओं का धीरे-धीरे विकास हुआ है. सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य प्रारम्भ में परिवारों में, फिर कुलों, फिर कबीलों और जनपदों तथा राज्यों में संगठित हुआ. लाॅ फर के शब्दों में, ” परिवार की भाँति ही राज्य समाज के लिए आवश्यक है और वह समझौते का नहीं वरन् वस्तुस्थिति के प्रभाव का परिणाम है.”

अतः सामाजिक समझौता सिद्धान्त के इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि राज्य का किसी एक विशेष समय पर निर्माण हुआ है. 

सामाजिक समझौता सिद्धांत की दार्शनिक आधार पर आलोचना

दार्शनिक आधार पर इस सिद्धान्त की आलोचना निम्न प्रकार की जाती है– 

1. राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, ऐच्छिक नहीं  

राज्य की सदस्यता ऐच्छिक नहीं वरन् अनिवार्य होती है. व्यक्ति उसी प्रकार राज्य के सदस्य होते है जिस प्रकार परिवार के. बर्क के शब्दों में, ” राज्य को काली मिर्च, कहवा, वस्त्र या तम्बाकू अथवा ऐसे ही अन्य सामान्य व्यापार की साझेदारी समझौते के समान नहीं समझा जाना चाहिए जिसे अस्थायी स्वार्थ के लिए कर लिया गया हो और समझौते के पक्ष इच्छानुसार भंग कर सकते हों. इसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाना चाहिए. यह तो समस्त विज्ञान, समस्त कला, समस्त गुणों और समस्त पूर्णता के बीच साझेदारी है.” 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य को ऐच्छिक समुदाय बताता है जो पूर्णरूपेण गलत है. 

2. राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों की अनुचित व्याख्या

सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों की गलत व्याख्या प्रस्तुत करता है. व्यक्ति और राज्य के पारस्परिक सम्बन्ध मानवीय स्वभाव पर आधारित होते हैं किसी समझौते पर नहीं. 

वॉन हॉलर के शब्दों में, ” यह कहना कि व्यक्ति और राज्य में समझौता हुआ उतना ही युक्तिसंगत है जितना यह कहना कि व्यक्ति और सूर्य में इस प्रकार का समझौता हुआ कि सूर्य व्यक्ति को गर्मी दिया करे.” 

3. राज्य प्राकृतिक संस्था है 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त के अनुसार, राज्य का निर्माण व्यक्तियों द्वारा किया गया है. अतः यह एक कृत्रिम संस्था है जबकि आलोचकों के अनुसार राज्य मानव के स्वभाव पर आधारित एक प्राकृतिक संस्था है. 

मालबर्न का कथन है कि,” राज्य व्यक्तियों के बीच स्वेच्छा से किये गए समझौते से नहीं बना है. मनुष्यों को उन सामाजिक आवश्यकताओं से वाध्य होकर राज्य में रहना पड़ा, जिनसे वह बच नहीं सकता था.”

4. विद्रोह का पोषक

सामाजिक समझौता सिद्धान्त राज्य को व्यक्तिगत सनक का परिणाम बताकर विद्रोह, क्रान्ति तथा अराजकता का मार्ग प्रशस्त करता है. 

लाइवर के अनुसार, ” इस सिद्धान्त को अपनाने से अराजकता फैलने का डर है. 

ब्लंटशली के अनुसार, ” सामाजिक समझौता सिद्धान्त अत्यन्त भयानक है, क्योंकि यह राज्य और अन्य संस्थाओं को व्यक्तिगत सनक का परिणाम बताता है.” 

5. प्राकृतिक अवस्था में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं 

लॉक का विचार है कि प्राकृतिक अवस्था में भी व्यक्ति प्राकृतिक अधिकारों का उपयोग करते थे किन्तु यह धारणा नितान्त भाम्रक है, क्योंकि अधिकारों का जन्म समाज में होता है तथा राज्य में रहकर ही अधिकारों का प्रयोग किया जा सकता है.” 

ग्रीन के शब्दों में, ” प्राकृतिक अवस्था में, जो कि एक असामाजिक स्थिति होती है, अधिकारों की कल्पना स्वयं ही एक विरोधाभास है.” 

तार्किक आधार पर आलोचना

सामाजिक समझौता सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से भी असंगत है. प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले व्यक्तियों में जो कि राज्य संस्था से बिल्कुल अपरिचित थे, एकाएक ही राजनीतिक चेतना कैसे उत्पन्न हुई? यह बात समझ में नहीं आती है, क्योंकि राजनीतिक चेतना सामाजिक जीवन में ही उत्पन्न होती है, प्राकृतिक अवस्था में नहीं. कहावत है कि, ” एक रात में चीता अपना नहीं बदल सकता.” 

सामाजिक समझौता सिद्धांत की वैधानिक आधार पर आलोचना 

वैधानिक आधार पर इस सिद्धान्त पर निम्न आक्षेप लगाये जाते हैं–

1. प्राकृतिक अवस्था में समझौता असम्भव 

आलोचकों के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में किये गये समझौते का वैधानिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है क्योंकि कोई समझौता तभी वैध होता है जब उसे राज्य की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है लेकिन प्राकृतिक अवस्था में राज्य का अभाव होने के कारण समझौता वैध नहीं है. 

ग्रीन के शब्दों में, ” समझौता सिद्धान्त में चित्रित प्राकृतिक स्थिति के अन्तर्गत कानूनी दृष्टि से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है.” 

2. समझौता वर्तमान में लागू नहीं

कोई भी समझौता जिन निश्चित लोगों के मध्य होता है उन्हीं पर लागू होता है. कानूनी दृष्टि से किसी अज्ञात समय में अज्ञात व्यक्तियों द्वारा किया गया समझौता उसके बाद के समय और वर्तमान लोगों पर लागू नहीं किया जा सकता.

बेग्यम के अनुसार, ” मेरे लिए आज्ञापालन आवश्यक है, इसलिए नहीं कि मेरे प्रपितामह ने तृतीय जार्ज के प्रपितामह से कोई समझौता किया था, वरन् इसलिए कि विद्रोह से लाभ की अपेक्षा हानि अद होती है. ” 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त का महत्व

समाजिक समझौता सिद्धान्त का राजनीतिक विचारों के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है–

1. सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त का खण्डन किया जिसमें राज को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था. समझौता सिद्धान्त ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया कि राज्य दैवीय नहीं वरन् मानवीय संस्था है.

2. सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने इस सत्य का प्रतिपादन किया कि जनसहमति ही राज्य का आधार है, शक्ति अथवा शासक की व्यक्तिगत इच्छा नहीं. 

3. सामाजिक समझौता सिद्धान्त ने प्रभुत्व सम्बन्धी विचारधारा में महत्वपूर्ण योग दिया है. हॉब्स के विचारों के आधार पर ऑस्टिन ने वैधानिक सम्प्रभुता के विचार का प्रतिपादन किया. लॉक ने राजनीतिक प्रभुत्व के सिद्धान्त को प्रेरणा प्रदान की और रूसो के सामान्य इच्छा सम्बन्धी विचारों ने लोकप्रिय सम्प्रभुता की धारणा का प्रतिपादन किया.

राज्य की उत्पत्ति का विकासवादी या ऐतिहासिक सिद्धांत (Evolutionary or Historical Theory of the origin of the state)

राज्य के विकासवादी सिद्धान्त अनुसार, राज्य न तो दैवीय कृति है, न वह शक्ति या युद्ध से उत्पन्न हुआ है और न ही वह व्यक्तियों के बीच परस्पर समझौते का परिणाम है. इस सिद्धान्त के अनुसार, राज्य कोई कृत्रिम संस्था नहीं वरन् एक स्वाभाविक समुदाय है. ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त ही राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या प्रस्तुत करता है.

राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रतिपादित दैवीय सिद्धान्त, शक्ति सिद्धान्त, पैतृक तथा मातृक सिद्धान्त तथा सामाजिक समझौता सिद्धान्त, इस मान्यता पर आधारित हैं कि राज्य की उत्पत्ति किन्हीं विशेष परिस्थितियों में अथवा किसी विशेष समय पर हुई है. इसी कारण ये सभी सिद्धान्त स्वीकार नहीं किये गये है. यह सिद्धान्त बताता है कि राज्य विकास का परिणाम है, निर्माण का नहीं. आदिकालीन समाज से क्रमिक विकास करते-करते इसने वर्तमान राष्ट्रीय राज्यों के स्वरूप को प्राप्त कर लिया है. 

इस सम्बन्ध में डॉ. गार्नर का कथन सत्य ही है कि,” राज्य न तो ईश्वर की कृति है न वह उच्चकोटि के शारीरिक बल का परिणाम है, न किसी प्रस्ताव या समझौते की कृति है और न परिवार का ही विस्तृत रूप है. यह तो क्रमिक विकास से उदित एक ऐतिहासिक संस्था है.”

विकासवादी सिद्धान्त यह कहता है कि राज्य का एक विशेष काल में जन्म नहीं हुआ बल्कि इसका तो धीरे-धीरे परिस्थितियों वश विकास हुआ हैं. अब देखना यह है कि विकास किस क्रम में हुआ हैं. कुछ विद्वानों के अनुसार राज्य के विकास का यह क्रम इस प्रकार हैं– 

1. परिवार 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं तथा सामाजिकता के कारण वह सबसे पहले एक परिवार के रूप में संगठित हुआ होगा. इस तरह परिवार एकाकी व्यक्ति से राज्य तक की संस्थागत यात्रा का पहला कदम हैं. यह परिवार राज्य का शुरू का स्वरूप हैं. इसमें राज्य के लगभग सारे गुण मौजूद हैं. 

2. कुटुम्ब 

समाज के विकास का दूसरा सौपान कुटुम्ब अथवा कबीला हैं. परिवार बढ़ाकर जब इसमें विभिन्न शाखाएं विकसित हो जाती हैं तो कुटुम्ब अथवा कबीला हो जाता हैं. इसमें परिवार से विस्तृत विस्तृत रिश्तों के लोग शामिल होते हैं जो रक्त संबंध से जुड़े होते हैं, ये कबीले पहले बंजारा जीवन बिताते थे. इनका सरदार होता था, जो राजा का पहले का रूप होता हैं. 

3. गाँव

पहले समाज का प्रमुख व्यवसाय पशु पालन या पशु चराना या शिकार था तब घास और शिकार की खोज में ये कबीले घूमा करते थे, बाद में कृषि का विकास हो जाने से एक स्थान पर बसने लगे. जिससे ग्राम संस्था का विकास हुआ. इसमें भी राज्य के सभी मूलभूत लक्षण मौजूद रहते है. हालांकि इसमें कई जातियों तथा परिवार के कुटुम्ब, कबीलों के लोग मिलकर रहते हैं. इनका मुखिया राजा का पूर्ववर्ती रूप होता हैं. 

4. शहर 

छोटे ग्राम धीरे-धीरे तरक्की कर बड़े-बड़े ग्राम बन गए. इन्होंने कस्बों का रूप धारण किया. आगे चलकर इन्हीं से राजनीतिक चेतना के परिणामस्वरूप नगर राज्य का विकास हुआ. ये छोटे-छोटे नगर आर्थिक सामाजिक दृष्टि से स्वावलम्बी होकर इनमें राजा के पद की स्थापना हुई अथवा सरकार का अन्य स्वरूप विकसित हुआ. ये छोटे-छोटे राज्य थे. 

5. साम्राज्य 

परिवार से शुरू होकर आधुनिक राज्य तक की विकास यात्रा की विकास यात्रा में नगर राज्य के बाद साम्राज्य का विकास पहले हुआ. यह ऐसे हुआ कि आगे चलकर नगर राज्य के योद्धा राजाओं ने अन्य पास के छोटे-छोटे नगर राज्यों को जीतकर महान यूनान रोमन साम्राज्य बेवीलोन, मगध राज्य जैसे विशाल साम्राज्यों को जन्म दिया. इनके विकास में सिकंदर, सीजर, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त और चोल जैसे राजाओं की प्रमुख भूमिका रही. 

राज्य के तत्व 

राज्यों की एक समय में उत्पत्ति हुई, बाद में धीरे-धीरे विकास हुआ. राज्य के विकास में निम्न सहायक तत्वों की प्रमुख भूमिका थी– 

1. सामाजिक प्रवृत्ति 

राज्य के विकास में सामाजिक चेतना का भी प्रमुख हाथ था. सामाजिक चेतना ने उसे समाज का सुयोग्य नागरिक बनाया था तथा विभिन्न समुदायों में बांटा व राज्य को इन समुदायों ने मदद की. 

2. राजनैतिक चेतना 

मनुष्य एक राजनैतिक प्राणी है और उसमें एक राजनैतिक चेतना होती हैं. यह राजनैतिक चेतना समाज में व्यक्तियों को एक सूत्र में बांधकर शासन की स्‍थापना तथा शासन की आज्ञा मानने व शासन के कार्यों में भाग लेने, अधिकार कर्त्तव्यों का पालन करने हेतु प्रेरित करते हैं. 

3. आर्थिक गतिविधियाँ 

मनुष्य में एक आर्थिक चेतना होती हैं, जो आर्थिक क्रियाकलाप व आर्थिक कार्यों हेतु प्रेरित करती हैं. वह वस्तुओं को खरीदता व आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को बेचकर धन कमाकर अन्य जरूरत की वस्तुएं खदीदता हैं. इससे समाज का आर्थिक जीवन संगठित होता हैं. 

4. शक्ति 

राज्य के विकास तथा उसकी रक्षा में शक्ति ने भी प्रमुख भूमिका निभाई हैं. इस बात के इतिहास में कई प्रमाण उपलब्ध हैं. 

5. रक्त संबंध 

रक्त संबंधों ने उक्त विकास क्रम में परिवार, कुटुम्ब, कबीले के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई क्योंकि ये सभी रक्त संबंधों में बंधे होते हैं. 

6. धर्म 

राज्य के प्रारंभिक स्वरूप के विकास में धर्म की भी प्रमुख भूमिका थी. धर्म ने ही सबसे पहले जंगली मनुष्यों को मर्यादित किया. इस संबंध में पुरोहित, जादू-टोना, ओझा की महत्ता रही. ये मनुष्य को अलौकिक शक्ति का भय दिखाकर मर्यादित अथवा नियमित करके कुछ नियम कानून मनवाते थे. 

राज्य की उत्पत्ति विकसवादी सिद्धान्त की समीक्षा (Criticism of the evolutionary theory of the origin of the state)

यह एक माना हुआ तथ्य है, कि आधुनिक युग में राज्य की उत्पत्ति का विकासवादी सिद्धान्त माना जाता हैं, क्योंकि यह सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से उत्तम हैं. यह सिद्धान्त सिद्ध कर देता है कि राज्य न तो शक्ति की उपज है और न इसे ईश्वर ने बनाया है. यह सिद्धान्त सामाजिक समझौते की तरह काल्पनिक भी नही हैं. इसके सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति मनुष्य की सामाजिकता व सहयोग की स्वाभाविक प्रवृत्ति का परिणाम हैं.

यह सिद्धान्त इसलिए भी मूल्यवान है क्योंकि यह राज्य को एक प्राकृतिक संस्था मानता हैं, जिसका धीरे-धीरे विकास हुआ हैं.

राज्य की उत्पत्ति के संबंध में दो प्रकार के दृष्टिकोण प्रचलित हैं– परम्परावादी और आधुनिक. दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत, शक्ति सिद्धान्त आदि परम्परावादी दृष्टिकोण है और आधुनिक दृष्टिकोण दो प्रकार के हैं- प्रथम, उदारवादी और द्वितीय मार्क्सवादी दृष्टिकोण.

उदारवादी दृष्टिकोण में दो सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं- सामाजिक समझौते का सिद्धान्त जिसका प्रतिपादन हाॅब्स, लाॅक तथा रूसो ने किया और विकासवादी सिद्धान्त जिसका प्रतिपादन बेजहाट, स्पेन्सर, गिडिंग्स, लोवी आदि लेखकों ने किया.

आज सभी उदारवादी लेखक, जिनमें गार्नर और मैकाईवर भी शामिल हैं, राज्य की उत्पत्ति के संबंध में विकासवादी सिद्धान्त को ही मानते हैं. इसके विपरीत मार्क्स एंगेल्स, लेनिन आदि साम्यवादी लेखक राज्य की उत्पत्ति के संबंध में वर्ग-व्यवस्था के सिद्धान्त को मानते है.

उदारवादी और मार्क्सवादी लेखक वस्तुतः समान रूप से राज्य को एक विकासजन्य संस्था मानते हैं. मैकाईवर और एंगेल्स दोनों ही राज्य की उत्पत्ति में रक्त, वंश, धर्म, शक्ति, आर्थिक कारणों और राजनीतिक चेतना के महत्व को कम या अधिक मात्रा में स्वीकार करते हैं.

मार्क्स का राज्य सिद्धांत (Marxian Theory of State)

परंपरागत सिद्धांत का मानना है कि राज्य, समाज और व्यक्तित्व के विकास के लिए अनिवार्य है. प्लेटो कहते हैं कि राज्य न्याय के लिए अनिवार्य है, इसके बिना व्यक्ति का विकास असंभव है. प्राचीन यूनानी विचारक और राजनीति विज्ञान के जनक अरस्तु भी मानते हैं कि राज्य उत्तम जीवन के लिए अनिवार्य है.

परंपरागत सिद्धांत के विपरीत, कार्ल मार्क्स अपने राज्य संबंधी सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं. कार्ल मार्क्स राज्य को पूंजीवादी षड्यंत्र का एक हथियार मानते हैं. कार्ल मार्क्स कहते हैं कि आधुनिक राज्य की कार्यपालिका बुर्जुआ समाज के अहित और पूंजीपतियों के हित में काम करने वाला संगठन है. उनका कहना है कि राज्य का कार्य पक्षपातपूर्ण है और यह सर्वहारा को दबाता है.

कार्ल मार्क्स के लिए राज्य एक स्वाभाविक समुदाय नहीं है, जैसा कि अरस्तु मानते हैं. कार्ल मार्क्स के अनुसार, राज्य का जन्म इतिहास की उस प्रक्रिया में होता है जब समाज दो विरोधी गुटों में बंट गया था, जिनके हित हमेशा परस्पर विरोधी होते हैं और उनमें कभी समन्वय नहीं हुआ है और न होगा.

कार्ल मार्क्स के राज्य संबंधी सिद्धांत को निम्नलिखित बिंदुओं पर स्पष्ट किया जा सकता है:

  • पूंजीपतियों के हित में राज्य का शासन – कार्ल मार्क्स कहते हैं कि शासन द्वारा पूंजीपति निम्न वर्गों का शोषण करते हैं. राज्य एक ऐसी संस्था है जिसके माध्यम से पूंजीपति को अतिरिक्त मूल्य हड़पने का सुनहरा मौका मिलता है. पूंजीपतियों के स्वार्थों की रक्षा के लिए राज्य पुलिस और सैनिक रखता है. राज्य की न्याय प्रणाली भी इसी काम के लिए होती है. राज्य श्रमिकों की दशा सुधारने में कोई ध्यान नहीं देता. राज्य द्वारा बनाए गए कानून पूंजीपतियों के हित में होते हैं. शोषण केवल निर्धन व्यक्तियों का किया जाता है और यदि निर्धन विरोध करते हैं तो राज्य उन्हें राजद्रोह की संज्ञा देकर श्रमिकों का दमन करता है.
  • वर्ग-संघर्ष का कारण – राज्य की उत्पत्ति वर्ग-संघर्ष के कारण हुई है. राज्य हमेशा से एक ऐसा संगठन रहा है और भविष्य में भी रहेगा जिसमें एक आर्थिक पूंजीपति वर्ग होता है और दूसरा शोषित वर्ग होता है. पूंजीपति वर्ग श्रमिकों पर नियंत्रण रखता है और उनका शोषण करता है. लेनिन के शब्दों में, वर्ग संघर्ष के विरोधों में कभी सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकता.
  • राज्य पर अविश्वास – आज का पूंजीवादी राज्य मजदूरों के शोषण के लिए बन गया है. इसीलिए श्रमिकों को उस पर विश्वास नहीं है. यदि वे राज्य पर आस्था रखते हैं तो इसका अर्थ होगा कि वे अपने शोषक और दमनकारी स्वरूप के प्रति आत्मसमर्पण कर रहे हैं.
  • राज्य का दमनकारी स्वरूप – राज्य अपने दमनकारी स्वरूप के कारण वर्ग-भेद और वर्गों के विशेषाधिकार बनाए रखता है. राज्य न तो गरीब व्यक्ति के विकास में सहयोग देता है और न ही उसके हित को सफल करता है. जब भी श्रमिकों द्वारा अपनी वाजिब मांग के लिए कोई हड़ताल की जाती है, तो राज्य उन्हें राजद्रोह कहकर कुचलता है. पुलिस, सेना आदि के द्वारा राज्य अमीरों के हित में तथा गरीबों के दमन में कार्य करता है. इस प्रकार राज्य के सभी कार्य दमनकारी हैं, न कि कल्याणकारी.
  • पूंजीवादी शोषण का अंत – कार्ल मार्क्स कहते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए पूंजीपतियों के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग करना चाहिए. राज्य मजदूरों का शोषक और समर्थक है. जब भी श्रमिकों द्वारा विद्रोह किया जाता है, राज्य अपनी पूरी शक्ति और बल से उसे कुचल देता है.
  • क्रांति एवं हिंसा की आवश्यकता – राज्य को समाप्त करने के लिए क्रांति और हिंसा की आवश्यकता है.
  • राज्यविहीन समाज – कार्ल मार्क्स अपने द्वंद्वात्मक सिद्धांत के आधार पर कहते हैं कि आने वाले समाज का स्वरूप समाजवादी और वर्गहीन होगा, और इसलिए वह राज्यविहीन भी होगा. जब राज्य नहीं रहेगा तो वर्ग-भेद भी नहीं रहेगा. कार्ल मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवादी व्याख्या के अंतर्गत बतलाया है कि जब हिंसात्मक क्रांति की विजय होगी तो पूंजीवादी संस्था के रूप में राज्य नष्ट हो जाएगा.
  • संक्रमण काल की अवस्था – इस अवस्था में राज्य नष्ट हो जाएगा. कार्ल मार्क्स अपनी पुस्तक “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” में कहते हैं, “दुनिया के मजदूरों एकजुट हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिए जंजीरों के सिवा और कुछ नहीं है”. जंजीर से तात्पर्य उस प्रणाली से है जो सर्वहारा वर्ग को उत्पादन प्रक्रिया में बांधकर रखती है.
  • सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवादी शासन – संक्रमण काल में सर्वहारा वर्ग एकजुट होकर पूंजीपति वर्ग को समाप्त कर देगा. इस संक्रमण काल में सर्वहारा का अधिनायकवादी तत्व रहेगा तथा श्रमिक पूंजीपतियों का विनाश करेंगे. ऐसा इसलिए किया जाएगा ताकि पूंजीपति अपनी छीनी हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न न करें.
  • राज्यविहीन समाज – सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में बनी सरकार का अंत हो जाएगा. राज्य विहीन तथा वर्गहीन समाज कायम होगा. इस समाज में प्रत्येक व्यक्ति का सिर्फ स्वतंत्र विकास होगा, बल्कि उत्पादन के साधनों पर समाज का आधिपत्य भी होगा.
  • पूंजीवादी लोकतंत्र का विरोध – कार्ल मार्क्स कहते हैं कि जब तक उत्पादन की प्रणाली पूंजीवादी आधार पर कायम रहती है अर्थात भूमि और उत्पादन के साधनों पर मुट्ठी भर लोगों का स्वामित्व रहता है, तब तक जनतंत्र जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती. लोकतंत्र का अस्तित्व उसी समाज में हो सकता है जहां वर्ग-संघर्ष समाप्त हो जाए, अर्थात साम्यवादी राज्य हो.

कार्ल मार्क्स के राज्य विषयक सिद्धांत की आलोचना (Criticism of Marxian Theory of State)

कार्ल मार्क्स द्वारा कहे गए राज्यविहीन और वर्गविहीन समाज की आलोचना की जाती रही है.

  1. राज्य दमनकारी नहीं, कल्याणकारी है – कार्ल मार्क्स राज्य को दमनकारी और शोषणकारी यंत्र मानते हैं, जबकि आलोचकों का कहना है कि राज्य का स्वरूप दमनकारी न होकर कल्याणकारी है. यह बात इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है कि राज्य किसी वर्ग विशेष का खिलौना नहीं रहा है, न किसी वर्ग विशेष के शोषण के लिए अस्तित्व में आया है.
  2. क्रांति के बिना भी परिवर्तन – कार्ल मार्क्स की क्रांति संबंधी अवधारणा, जिसे वे परिवर्तन के लिए आवश्यक मानते हैं, की भी आलोचना की जाती है. आलोचकों का कहना है कि संसार में परिवर्तन बिना क्रांति के भी हो रहे हैं. केरल और पश्चिम बंगाल में लोकतांत्रिक पद्धति के द्वारा समाजवाद की स्थापना हुई है.
  3. आज के लोककल्याणकारी राज्य पर लागू नहीं – आलोचकों का कहना है कि मार्क्स के सिद्धांत आज के लोककल्याणकारी राज्य पर लागू नहीं होते हैं.
  • अनावश्यक बुराई – आलोचकों का कहना है कि कार्ल मार्क्स केवल “रोगग्रस्त राज्य” का अध्ययन करते हैं. वे राज्य को एक अनावश्यक बुराई बताते हैं और इसके सर्वोत्तम रूप का वर्णन नहीं करते हैं. वे प्राचीन और मध्यकालीन राजाओं को केवल एक आर्थिक वर्ग का प्रतिनिधि मानकर ही अपना सिद्धांत देते हैं. हालांकि, दुनिया में ऐसे कई राजा हुए हैं जो अपनी उदारता और संपूर्ण समाज की भलाई के लिए प्रसिद्ध रहे हैं.

कार्ल मार्क्स के राज्य संबंधी सिद्धांत के निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि राज्य वर्ग विशेष के हित में काम करता है, यह बात सही है. इतिहास इस बात का गवाह है कि राज्य उसी के पक्ष में काम करता है जो उसकी बागडोर थामे रहता है. राजतंत्र में निरंकुशता और आज की तथाकथित प्रजातंत्र कही जाने वाली व्यवस्था में अलग-अलग कानून और न्याय गरीबों के लिए अलग-अलग व्यवस्थाएं करते हैं.

आज यह दिखता है कि अमीरों के बड़े से बड़े अपराध पर नाममात्र के अर्थदंड लगा दिए जाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ गरीबों के साथ कड़ाई से पेश आया जाता है. इस बात से स्पष्ट है कि कार्ल मार्क्स का राज्य संबंधी सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है.

महत्त्वपूर्ण बिन्दु 

राज्य की उत्पत्ति में कोई सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं है. इस विषय में समय समय पर उस समय की परिस्थिति के अनुसार अनेक सिद्धान्त दिये गये पर वो सर्वमान्य नहीं हो पाये. इन सिद्धान्तों में दैवीय सिद्धान्त, शक्ति सिद्धान्त, मातृ सत्तात्मक सिद्धान्त, पितृ सत्तात्मक सिद्धान्त सामाजिक समझौता सिद्धान्त, विकास वादी सिद्धान्त प्रमुख है. 

  • दैवीय सिद्धान्त: दैवीय सिद्धांत के अनुसार राज्य की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा की गयी है राजा को ईश्वर द्वारा राज्य को संचालित करने के लिये भेजा गया है. प्रजा का कर्तव्य है कि राजा का विरोध न करे, क्योंकि वह ईश्वर का प्रतिनिधि है. 
  • शक्ति सिद्धान्त: शक्ति सिद्धान्त अनुसार राज्य की उत्पत्ति का मूल आधार शक्ति है. राज्य बलशाली द्वारा दुर्बल लोगों पर प्रभुत्व जमाने का परिणाम है. 
  • पितृसत्तात्मक सिद्धान्त: इसके अनुसार राज्य की उत्पत्ति का कारण कुल है, जिसका मुखिया पिता होता है. कुलों से कबीला और कबीलों से राज्य का विकास हुआ. 
  • मातृसत्तात्मक सिद्धान्त: यह सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति का कारण है तथा स्थाई वैवाहिक सम्बन्धों के अभाव को मानता है. परिवार का मुखिया पिता न होकर माता होती थी सन्तानों को माँ के नाम से जाना जाता था.

राज्य के कार्य (Duties of State)

प्राचीन समय से ही यह प्रश्न बड़ा जटिल तथा विवादग्रस्त रहा है कि राज्य के क्या कार्य है? सभी विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से राज्य के कार्य निश्चित करने का प्रयत्न किया है. इस संबंध मे विभिन्न मत निम्न प्रकार है:

(अ) प्लेटो तथा अरस्तू 

प्लेटो तथा अरस्तू का मत था कि राज्य एक नैतिक संस्था है. इसका उद्देश्य मनुष्य के जीवन को नैतिक और समुन्नत बनाना है. इस दृष्टिकोण मे राज्य का कार्य मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से संबंधित हो जाता है.

(ब) आदर्शवादी विचारक 

आदर्शवादी विचारकों ने इसी दृष्टिकोण के आधार पर राज्य से अलग मानव के प्राकृतिक अधिकारों का विरोध करते हुए राज्य के नियंत्रण के महत्व को बताया है. हीगल के अनुसार राज्य नैतिक एवं दैवी है. व्यक्ति की स्वतंत्रता व अधिकार राज्य मे ही निहित है.

(स) उपयोगितावादी विचारक 

उपयोगितावादी विचारक राज्य को एक कृत्रिम संस्था एक साधन मानते है, जिसका निर्माण उपयोगिता के आधार पर किया गया है.

(द) व्यक्तिवादी विचारक 

समाजवादी विचारक राज्य को उन समस्त कार्यों को करने का अधिकार देते है जिनसे समाज की उन्नति हो तथा व्यक्ति का जीवन सुखमयबनें.

राज्य के कार्यों को दो भागों मे विभाजित किया जा सकता है:

(अ)  आवश्यक कार्य 

राज्य के आवश्यक कार्य इस प्रकार हैं:

1. देश की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करना 

यह राज्य का सर्वप्रथम कार्य है. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राज्य जल, थल तथा नभ सेना को आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित रखता है.

2. अन्तर्राष्ट्रीय संबंध

इस कार्य को संपन्न करने के लिए राज्य देशों मे अपने राजदूतों तथा वाणिज्य दूतों की नियुक्ति करता है. इसी प्रकार वह अन्य राज्यों से आये हुए राजदूतों का स्वागत करता है. अन्तर्राष्ट्रीय समारोहों तथा संगठनों मे अपने प्रतिनिधि भेजता है.

3. कर संग्रह 

धन के अभाव मे राज्य का कार्य नही चल सकता. यह धन करों के रूप मे एकत्र किया जाता है. इस प्रकार प्रजा पर कर लगाना तथा उसे एकत्र करना राज्य का प्रमुख कार्य है.

4. मुद्रा बैकिंग तथा करेन्सी

यदि करेन्सी पर राज्य का नियंत्रण नही होगा तो वह एक क्षण के लिए भी अपना कार्य नही कर सकता. देश की आर्थिक संस्थाओं पर नियंत्रण रखने के उद्देश्य से राज्य द्वारा रिजर्व बैंक की स्थापना की जाती है.

5. नागरिक के अधिकारों तथा कर्तव्यों की विवेचना करना 

प्रजातान्त्रिक सिद्धांतों की समुचित पूर्ति उसी समय हो सकती है जब राज्य नागरिक अधिकारों तथा कर्तव्य को निश्चित करे तथा उनके उपयोग मे आने वाली बाधाओं को दूर करे.

6. शक्ति की स्थापना 

कांट राज्य के उद्देश्य के रूप मे राज्य मे नियमों की रक्षा और शांति की कल्पना करते है. उनका विचार है कि राज्य का उद्देश्य अपने नियमों द्वारा समाज मे शांति और व्यवस्था लाना है. गिलक्राइस्ट का विचार है कि वैयक्तिक दृष्टिकोण के अनुसार राज्य का उद्देश्य केवल कानून का निर्माण करना है.

परन्तु कुछ अन्य व्यक्तिवादियों ने राज्य के उद्देश्य मे समाज की रक्षा और शांति की स्थापना को भी शामिल कर लिया है. व्यक्तिवादियों का कथन है कि राज्य को केवल अपने नागरिकों की आन्तरिक तथा बाहरी संकटों से रक्षा करने के अतिरिक्त उनके किसी भी कार्य मे हस्तक्षेप नही करना चाहिए. पर यह एक संकीर्ण विचार है.

7. न्याय 

कुछ विचारकों का कथन है कि राज्य का उद्देश्य न्याय है. यह दृष्टिकोण सामान्यतः आदर्शवाद का है. आदर्शवादियों ने इसे राज्य का प्रधान उद्देश्य माना है, जिसमे उन्होंने नैतिक धारणा को भी सम्मिलित किया है. हीथरिंग्टन और म्यूरहैड के अनुसार न्याय राज्य का सदा ही मुख्य उद्देश्य रहा है.

(ब) ऐच्छिक कार्य

इन कार्यों को करना या न करना राज्य की इच्छा पर निर्भर है. आधुनिक युग मे राज्य के ऐच्छिक कार्यों को मोटे तौर पर निम्न श्रेणियों मे विभाजित किया जा सकता है– 

1. शिक्षा की व्यवस्था 

प्रत्येक राज्य की प्रगति के लिए शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है. जाॅन स्टुअर्ट मिल ने बड़े स्पष्ट शब्दों मे लिखा है,” अच्छी सरकार का मुख्य कार्य व्यक्तियों के गुणों और योग्यताओं का विकास करना है.

2. जनहित सेवाओं की व्यवस्था 

प्रत्येक राज्य रेलवे, तार, डाक, वायरलैस आदि की उचित व्यवस्था करता है, जिससे जनता को यातायात आदि मे कठिनाई न हो. सड़कों, पुलों, छायादार वृक्षों, जलाशयों और विश्राम गृहों का प्रबंध भी राज्य का कर्तव्य है.

3. बेकारी का अंत 

प्रत्येक राज्य मे कुछ न कुछ लोग बेकार होते है. इस बेकारी का अंत करना और सबको जीविका के साधनों को उपलब्ध कराने का भी राज्य को प्रबंध करना चाहिए.

4. उद्योग-धन्धों, वाणिज्य व्यवसाय का विकास 

राज्य को बड़े-बड़े उद्योग-धन्धों की व्यवस्था करनी चाहिए. राज्य को व्यवसाय को प्रोत्साहन देना चाहिए. आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार की होनी चाहिए कि किसी का शोषण शोषण न किया जा सके.

5. सामाजिक कुरीतियों का निवारण 

राज्य को अनेक पुरानी सड़ी गली कुरीतियों को समाज से दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए.

6. वृद्ध निर्धन एवं असहायों की रक्षा

राज्य का प्रत्येक व्यक्ति कार्य करने योग्य नही होता. बहुत से वृद्ध और असहाय व्यक्ति अपनी जीविका स्वयं नही चला सकते. उनकी सहायता के लिए राज्य द्वारा प्रबंध किया जाना चाहिए. निर्धनों के लिए भी उचित व्यवस्था करनी चाहिए.

7. स्वास्थ्य एवं स्वच्छता का प्रबंध

स्वच्छता का प्रबंध करना राज्य का एक पुनीत कर्तव्य है. इसके लिए राज्य को स्वास्थ्य और स्वच्छता संबंधी कानून बनाने चाहिए. जल की उचित व्यवस्था करनी चाहिए, औषधालयों का प्रबंध करना चाहिए तथा सड़कों की व्यवस्था करनी चाहिए.

8. कृषि का विकास

प्रत्येक राज्य को कृषि के विकास मे योगदान देना चाहिए. आधुनिक वैज्ञानिक साधनों की उपलब्धि, सिंचाई का सुप्रबन्ध इत्यादि राज्य के कार्य है. 

9. अन्य सामाजिक कल्याण के कार्य 

राज्य को कुछ अन्य सामाजिक कार्यों यथा महिलाओं का उत्थान, शिशुओं के स्वास्थ्य की सुरक्षा आदि का प्रबंध भी करना चाहिए और सामाजिक कल्याण के कार्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

10. प्राकृतिक स्त्रोतों का उपभोग एवं ऐतिहासिक स्थलों की रक्षा 

राज्य को अपने प्राथमिक स्त्रोतों का उपभोग अधिक करना चाहिए. राज्य को चाहिए कि वह ऐतिहासिक स्थलों की रक्षा करे. यह स्थल हमारी प्राचीन संस्कृति के परिचायक होते है.

11. मनोरंजन के साधनों का प्रयोग 

व्यक्ति के लिए मनोरंजन अत्यन्त आवश्यक है. इसके लिए राज्य पार्कों, स्नानगृहों आदि का निर्माण करवा सकता है तथा प्रदर्शनियों और मेलों आदि का प्रयोजन कर सकता है.

12. मादक वस्तुओं पर नियंत्रण 

शराब, अफीम, गाँजा-भांग आदि मादक वस्तुयें व्यक्ति की उन्नति के मार्ग मे बाधक है. राज्य का यह कर्तव्य है कि वह मादक वस्तुओं पर रोक लगाये और इस प्रकार सामाजिक वातावरण का निर्माण करे कि लोग मादक वस्तुओं से घृणा करने लग जायें.

13. श्रमिकों के हित की रक्षा 

औद्योगिक संस्थाओं मे बहुत अधिक संख्या मे मजदूर कार्य करते है. इन मजदूरों के हितों की रक्षा राज्य का कर्तव्य है. राज्य को इस प्रकार का कानून बनाना चाहिए कि मजदूरों के काम के घण्टे, वेतन, भत्ते, छुट्टियाँ आदि इस प्रकार निर्धारित की जाये कि वह राज्य की प्रगति मे अधिक से अधिक योगदान दे सकें.

निष्कर्ष (Conclusion)

आधुनिक राज्य का प्रमुख कार्य अपनी जनता की भलाई करना है. अरस्तू ने लिखा है,” राज्य एक सर्वोच्च संस्था है और इसका उद्देश्य सर्वोच्च भलाई है.” राजनीति विज्ञान की परिभाषा के अनुसार राज्य में चारों तत्वों का होना आवश्यक है. इन तत्वों के अभाव में किसी भी संगठन को राज्य कहकर सम्बोधित नहीं किया जा सकता. राज्य के तत्वों पर विचार करते समय निम्नलिखित दो प्रश्न प्रायः हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं–

1. क्या संघ की इकाईयां राज्य हैं? 

संघ का निर्माण उसकी घटक इकाइयों से होता हैं. भारत और अमेरिका संघात्मक शासन प्रणाली के अच्छे उदाहरण हैं. भारतीय संविधान के अन्तर्गत राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, गुजरात इत्यादि भारतीय संघ की इकाइयों के लिए राज्य शब्द का प्रयोग किया जाता हैं.

संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के अन्तर्गत भी संघ की इकाइयों के पास राज्य का निर्माण करने वाले प्रथम तीन तत्व- भूमि, जनसंख्या तथा सरकार पूर्ण रूप से विद्यामान हैं. परन्तु इनके पास संप्रभु शक्ति नहीं हैं. इनकी आन्तरिक सम्प्रभुता केन्द्रीय सरकार द्वारा नियन्त्रित होती है और इन्हें बाहरी संबंध बनाने का अधिकार नहीं है. इस प्रकार सम्प्रभु शक्ति के अभाव के कारण इन्हें राज्य नहीं कहा जा सकता. 

2. क्या संयुक्त राष्ट्र संघ एक राज्य है? 

कभी-कभी यह भी प्रश्न पूछा जाता है कि क्या संयुक्त राष्ट्र संघ एक राज्य हैं? औपेनहीन के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का एक कानूनी निकाय हैं. इसे कानूनी व्यक्तित्व प्राप्त है जो इसके सदस्यों के व्यक्तित्व से विशिष्ट हैं.

जिस प्रकार विभिन्न राज्य विभिन्न कार्यों को अपने ‘नाम’ से करते हैं उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के नाम से ही संगठन एवं एजेन्सियाँ कार्यरत हैं. जिस प्रकार राज्य के राजनयिक प्रतिनिधियों को अनेक उन्मुक्तियाँ एवं विशेषाधिका दूसरे देशों में प्राप्त हैं, उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधियों को भी इसके सदस्य देशों में उन्मुक्तियाँ एवं विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं.

राज्यों की तरह संयुक्त राष्ट्र संघ का भी अपना विशिष्ट झण्डा हैं. औपेनहीम के अनुसार राज्य के चारों निर्णायक तत्वों के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यक्तित्व का विश्लेषण किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि थोड़ी सीमा तक ये सभी तत्व संयुक्त राष्ट्र संघ में हैं.

विश्व की समस्त जनता के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ कार्यरत हैं. भूमि की दृष्टि से सदस्य राष्ट्रों की सीमाएं एवं क्षेत्र संघ की कर्मस्थली कहा जा सकता हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रशासनिक ढाँचा एक रूप में उसकी सरकार ही हैं. 

फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सहासभा, सुरक्षा परिषद् आदि की सिफारिशें राज्यों के लिए सम्प्रभु आदेश के समान नहीं हैं. प्रायः यह देखा गया हैं कि विभिन्न राज्य इसके आदेशों की अवहेलना करते हैं. ऐसी स्थिति में इसे राज्य नहीं कहा जा सकता.

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