दिल्ली सल्तनत और इसके 5 वंशों के महत्वपूर्ण शासक

दिल्ली सल्तनत का उदय 1175 और 1206 के बीच अफ़गानिस्तान के मुहम्मद गौरी द्वारा उत्तरी भारत पर आक्रमण के बाद हुआ. उनके एक सैन्य गुलाम, कुतुब अल-दीन ऐबक को दिल्ली का प्राथमिक सुल्तान बनाया गया. इस तरह कुतुबुद्दीन मामलुक परंपरा का संस्थापक बना. इसके बाद अन्य तुर्क वंश आए – खिलजी और अफ़गान लोदी वंश. लोदी वंश के कारण ही 1526 में मुग़ल भारत आ पाए.

अलाउद्दीन खिलजी अपने मौद्रिक परिवर्तनों, अपने विस्तारवाद और विशेष रूप से मंगोल हमलों को पीछे धकेलने के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन कई शासक अकुशल और कमज़ोर थे. मंगोल और तैमूर से लगातार बाहरी खतरा रहता था. इससे भारी अलगाव और अशांति पैदा हुई. व्यक्तिगत सरकार की संस्कृति और मजबूत प्रांतीय राज्यपालों ने शासन-संचालन को मुश्किल बनाए रखा. हिंदू-मुस्लिम एकता हमेशा नाजुक रही, लेकिन कुछ क्षेत्रों में सामाजिक एकीकरण भी हुआ. 

दिल्ली सल्तनत पर कुल पांच वंशों ने शासन किया. इन वंशों और इनके मुख्य शासकों का परिचय इस प्रकार हैं:

1. दिल्ली सल्तनत का गुलाम वंश (1206-90) 

गुलाम वंश को मामलुक वंश के नाम से भी जाना जाता है. गुलाम मूल रूप से तुर्की थे. कुतुब-उद-दीन-ऐबक ने गुलाम वंश की स्थापना की. वह मोहम्मद गोरी का गुलाम था. कुतुब-उद-दीन-ऐबक ने 2 मस्जिदों का निर्माण किया, दिल्ली में ‘कुवत-उल-इस्लाम’ और अजमेर में ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’. उन्होंने सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार के सम्मान में कुतुब मीनार का निर्माण भी करवाया. 1210 ई. में चौगान खेलते समय घोड़े से गिरकर कुतुबुद्दीन की मृत्यु हो गई.

इस वंश के अन्य शासक थे: 

a. आरामशाह (1210-1211 ई.): कुतुबुद्दीन ऐबक का पुत्र आरामशाह एक अयोग्य और अकुशल शासक था. इसलिए उसके 6 माह के शासन के बाद ही तुर्क सरदारों ने उसे गद्दी से हटाकर इल्तुतमिश को गद्दी सौंप दी. इसके बाद दोनों में दिल्ली के पास जुद नामक स्थान पर संघर्ष हुआ. इस युद्ध में इल्तुतमिश को बंदी बनाकर हत्या कर दी गई. 

b. शम्सुद्दीन  इल्तुतमिश (1211 से 1236 ईस्वी) ऐबक का दामाद था. वह इल्बारी जनजाति से था. इल्तुतमिश ने भारत को मंगोल चंगेज खान के प्रकोप से बचाया. इल्तुतमिश ने भारत में अरबी सिक्के की शुरुआत करते हुए चांदी का टंका जारी किया. विभिन्न सूफी संत मिन्हाज-उस-सिराज, ताज-उद-दीन, निजाम-उल-मुल्क, फखरुल-मुल्क इसामी उसके दौर में हुए. इल्तुतमिश ने दिल्ली में कुतुब मीनार का निर्माण पूरा किया. इसने ही राजधानी लाहौर से दिल्ली स्थानांतरित की. 

c. इल्तुतमिश के बाद उसका अयोग्य पुत्र रुकनुद्दीन फिरोजशाह सात माह के लिए शासक रहा. वह अपने माँ के प्रभाव में था और विलासितापूर्ण जीवन जीता था. इसलिए जनता में विद्रोह फ़ैल गया. अवसर का फायदा उठाते हुए रजिया सुलतान ने दिल्ली के अमीरों और जनता के समर्थन से सिंहासन पर अधिकार कर लिया.

d. रजिया को इल्तुतमिश ने अपना उत्तराधिकारी नामित किया था. वह भारत पर शासन करने वाली पहली और एकमात्र मुस्लिम महिला थी. 1240 ई. में, रजिया को पराजित कर मार दिया गया. 

e. मुईजुद्दीन बहरामशाह (1240-1242 ई.) इल्तुतमिश का पुत्र और रजिया सुल्तान का भाई था. रजिया सुल्तान की हत्या के बाद, तुर्की अमीरों ने मुईजुद्दीन बहरामशाह को गद्दी पर बैठाया. उसे “नायब-ए-मुमलकत” (संरक्षक) का पद दिया गया था, जिसका अर्थ था कि वह नाममात्र का शासक था. वास्तविक शक्ति “चालीसा” (इल्तुतमिश द्वारा गठित चालीस तुर्की सरदारों का समूह) के हाथों में थी . वास्तविक अधिकार वज़ीर मुहाज़बुद्दीन के पास था. वह एक ताजिक (ग़ैर तुर्क) था, जिसका तुर्की सरदारों ने विरोध किया. बाद में, यह पद नजुमुद्दीन अबू बक्र को मिला. 

f. अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-1246 ई.) के दौर में भी  “तुर्कान-ए-चहलगानी” वास्तविक शासक बने रहे. उसके शासनकाल में बलबन, जो बाद में एक शक्तिशाली सुल्तान बना, ने अमीर-ए-हाजिब (शाही दरबार का प्रमुख अधिकारी) के रूप में अपनी शक्ति बढ़ानी शुरू कर दी थी.

g. नासिरुद्दीन महमूद (1246-1265 ई.) इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र थे. सिरुद्दीन महमूद एक सरल स्वभाव के सुल्तान थे. कहा जाता है कि वे टोपी सीकर और कुरान की आयतें लिखकर बेचकर अपना जीवन-यापन करते थे. इसी कारण उन्हें “दरवेश राजा” भी कहा जाता था. वास्तविक शक्ति उनके वज़ीर और ससुर बलबन के हाथों में थी.

इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ “तबकात-ए-नासिरी” नासिरुद्दीन महमूद को समर्पित किया था. उनके शासनकाल में ही 1257 ई. में बंगाल स्वतंत्र हो गया था. उन्हीं के समय में मंगोल आक्रमण हुए, जिन्हें बलबन ने विफल किया.

h. ग़यासुद्दीन बलबन ने पिछले अपने दामाद और सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद के शासनकाल में गद्दी संभाली. उसने आंतरिक गड़बड़ियों से निपटने के लिए एक मजबूत केंद्रीकृत सेना बनाई. बलबन ने कठोर दरबारी अनुशासन की शुरुआत की. उसने नौरोज़ के फ़ारसी त्योहार की शुरुआत की. उसने एक अलग सैन्य विभाग की स्थापना की जिसे दीवान-ए-अर्ज के नाम से जाना जाता है. 

i. मुइज़ुद्दीन कैकुबाद (1287-1290 ई.) सुल्तान गयासुद्दीन बलबन का पोता था और 18 वर्ष की आयु में बलबन की मृत्यु के पश्चात् गद्दी पर बैठा था. कैकुबाद एक विलासी शासक था और जल्द ही दरबार के षड्यंत्रों का शिकार हो गया. जलालुद्दीन खिलजी को कैकुबाद ने ‘शाइस्ता खां’ की उपाधि दी और सेनापति नियुक्त किया. 

1290 ई. में कैकुबाद को लकवा मार गया, जिससे वह प्रशासन के कार्यों में अक्षम हो गया. इसी वर्ष जलालुद्दीन खिलजी ने उसकी हत्या कर दी और गद्दी पर अधिकार कर लिया. कैकुबाद के बाद उसका तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन क्यूमर्स कुछ समय के लिए सुल्तान बना. लेकिन उसकी भी हत्या जलालुद्दीन खिलजी ने कर दी, जिससे गुलाम वंश का अंत हो गया. इस तरह खिलजी वंश का उदय हुआ.

2. दिल्ली सल्तनत का खिलजी वंश (1290-1320 ई.)

खिलजी वंश की स्थापना जलाउद्दीन खिलजी ने की थी. इस वंश के अन्य सुलतान इस प्रकार हैं:

अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई.): उसने सिंहासन हड़पने के लिए अपने ससुर की हत्या कर दी. वह दिल्ली का पहला तुर्की सुल्तान था जिसने धर्म को राज्य से अलग कर दिया. उसने भूमि की पैमाइश का आदेश दिया. उसने दिल्ली में चार अलग-अलग बाज़ार स्थापित किए. दीवानी रियासत नामक एक अलग विभाग बनाया गया था जिसे नायब-ए-रियासत नामक अधिकारी के अधीन बनाया गया था. मुन्हियान नामक गुप्त एजेंट थे. उसने राजस्थान में चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया. उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि दक्कन पर विजय थी. उसने अमीर खुसरो और अमीर हसन जैसे कवियों को संरक्षण दिया. उसने अलाई दरवाज़ा बनवाया और सिरी में एक नई राजधानी बनाई.

शिहाबुद्दीन उमर खिलजी (1316 ई.) का शासनकाल मात्र 35 दिन का रहा. वह अलाउद्दीन खिलजी का पुत्र था और शासक बनते वक्त मात्र 5 से 6 साल का था. वह अपने संरक्षक मलिक काफूर और बाद में अपने भाई कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया.

कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी (1316-1320 ई.) ने अपने भाई शिहाबुद्दीन उमर खिलजी को अँधा कर गद्दी संभाल ली. इससे पहले उसने अपने भाई के संरक्षक मालिक काफ़ूर की भी हत्या करवा दी थी. मुबारक खिलजी अपने एक विश्वासपात्र और परिवर्तित हिंदू गुलाम खुसरो खां पर बहुत अधिक निर्भर करता था. 

खुसरो खां (1320 ई.) ने धीरे-धीरे सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली और 15 अप्रैल, 1320 ई. को मुबारक खिलजी की हत्या कर दी. इस प्रकार खिलजी वंश का अंत हो गया और खुसरो खां कुछ समय के लिए दिल्ली का शासक बना, जिसे बाद में गाजी मलिक (गयासुद्दीन तुगलक) ने पराजित किया.

3. दिल्ली सल्तनत का तुगलक वंश (1320-1414)

गयासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई.) तुगलक वंश का संस्थापक था. उसने खिलजी वंश के अंतिम राजा खुसरो खान की हत्या कर दी. इस तरह वह 8 सितम्बर 1320 को गद्दी पर बैठा. इन्हें 13 मंगोल आक्रमण विफल करने के लिए जाना जाता है.

मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351): उसे अपने समय से आगे का शासक माना जाता है. उसके चीन, मिस्र और ईरान से संबंध थे. वह दिल्ली का एकमात्र सुल्तान था जिसने व्यापक साहित्यिक, धार्मिक और दार्शनिक शिक्षा प्राप्त की थी. मोहम्मद-बिन-तुगलक ने राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरित कर दिया. लेकिन फिर दो साल बाद राजधानी को वापस दिल्ली ले आया. उसने भारत में पहली बार तांबे पर आधारित टोकन मुद्रा शुरू की. लेकिन वह सिक्कों की जालसाजी को रोकने में सक्षम नहीं था और प्रयोग को छोड़ना पड़ा. उसने किसानों को खेती के लिए ऋण देने की योजना शुरू की जिसे तक्कावी ऋण के रूप में जाना जाता है.

फिरोज शाह तुगलक (1351-1388 ई.): उसके शासनकाल में जजिया एक अलग कर बन गया और गैर-मुसलमानों पर सख्ती से लगाया गया. उसने लाल किले के पास फिरोजाबाद का निर्माण किया, जिसे फिरोज शाह कोटा के नाम से जाना जाता है. उसने विधवाओं और अनाथों की देखभाल के लिए दीवान-इखैरत नामक एक नया विभाग स्थापित किया. फिरोज शाह शिया मुसलमानों और सूफियों के प्रति असहिष्णु था.

फिरोज शाह के बाद कुछ समय तक मोहम्मद खान सत्तासीन रहा. लेकिन, जल्द उसकी हत्या कर दी गई. इसके बाद गयासुद्दीन तुगलक II शासक बना. वह फिरोजशाह तुग़लक़ का पोता था. 5 महीने में ही इसकी भी हत्या कर दी गई. 

इसके बाद फ़रवरी 1389 में जफ़र खान का पुत्र अबू बक्र स्वयं सुलतान बन गया. फिरोज शाह तुगलक के नायक रह चुके शाहजादा मुहम्मद और अबू बक्र के बीच सत्ता संघर्ष हुआ. इस संघर्ष के बाद, अबू बक्र को 1390 ई. में सिंहासन छोड़ना पड़ा और उन्हें जेल में डाल दिया गया, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई. उनके बाद नसीरुद्दीन मुहम्मद शाह तृतीय सुल्तान बने. इस तरह निरंतर सत्ता संघर्ष से तुगलक वंश काफी कमजोर हो गे.

तुगलक वंश को अंतिम झटका 1398 में तैमूर के आक्रमण से लगा. तैमूर ने मध्य एशिया वापस लौटने से पहले दिल्ली को लूटा और लूटा. तैमूर एक तुर्क था जिसने शासन करने के लिए अपने उम्मीदवार को छोड़ दिया था.

4. दिल्ली सल्तनत का सैय्यद वंश (1414-1451 ई.) 

तैमूर का उम्मीदवार खिज्र खान था, जो मुल्तान का गवर्नर था. उसने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया और शासन करने की कोशिश की. उसके बाद मुबारक शाह, मुहम्मद शाह ने थोड़े समय तक शासन किया. अंतिम सैय्यद शासक अलामशाह शाह (अलाउद्दीन शाह) बहलोल लोदी के पक्ष में सिंहासन से उतर गया. वह अत्यधिक असम्मानजनक स्थिति में बदायूँ चला गया.

5. दिल्ली सल्तनत के लोदी (1451-1526 ई.) 

लोदी अफगान थे. बहलोल लोदी ने लोधी वंश की स्थापना की. बहलोल लोदी एक साहसी और दूरदर्शी शासक था. वह अपने सरदारों के प्रति सम्मान रखता था. वह अपने मजबूत व्यक्तित्व के लिए जाना जाता था. उसने अफगान और तुर्की प्रमुखों को एकजुट किया. बहलोल लोदी का निधन 1489 ई. में हुआ. उसके बाद उसका पुत्र सिकंदर लोदी सिंहासन पर बैठा, जिसने लोदी वंश को और मजबूत किया.

सिकंदर लोदी (निज़ाम खान) तीन लोदी शासकों में सबसे महान था. उसने बिहार पर विजय प्राप्त की, साथ ही कई राजपूत सरदारों को भी हराया. वह एक अच्छा प्रशासक था. उसने राजधानी को दिल्ली से आगरा स्थानांतरित कर दिया. वह एक कट्टरपंथी था. सिकंदर लोदी की मृत्यु 21 नवंबर 1517 को हुई. उन्हें दिल्ली के लोदी गार्डन में दफनाया गया, जहाँ उनका मकबरा आज भी मौजूद है, जिसका निर्माण उनके पुत्र इब्राहिम लोदी ने करवाया था.

इब्राहिम लोदी (शासनकाल: 1517-1526 ई.) दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश का अंतिम सुल्तान था. 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में उसे अफ़गान मुग़ल बाबर ने हराया था. बाद में मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर को कुछ अफगानी दरबारियों (जैसे दौलत खान लोदी और आलम खान) ने भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था. इब्राहिम लोदी युद्ध के मैदान में मारा गया. नियामतउल्ला के अनुसार, वह दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जो युद्ध के मैदान में मारा गया.

इब्राहिम को अपने शासनकाल में कई विद्रोहों का सामना करना पड़ा. उसकी कठोर नीतियों के कारण उसके अपने ही लोग उससे डराने-धमकाने लगे थे. उसके भाई जलाल खान ने जौनपुर में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी. जिस पर इब्राहिम ने कब्जा कर लिया और बाद में जलाल खान की हत्या कर दी.

दिल्ली सल्तनत के विघटन के कारण

ए. मुसलमानों का नैतिक पतन: समय के साथ मुसलमान भोग-विलास में डूबे और आलसी हो गए. उनकी शारीरिक और मानसिक शक्ति कम हो गई, वे मुग़लों का सामना नहीं कर सके. परिणामस्वरूप, 1526 ई. में दिल्ली सल्तनत को बहुत बड़ा झटका लगा.

बी. उत्तराधिकार के कानून का अभाव: उत्तराधिकारियों की नियुक्ति के लिए कोई निश्चित कानून या परंपरा नहीं थी. राजपरिवार का हर सदस्य खुद को उत्तराधिकार के लिए योग्य मानता था. राजा की मृत्यु के बाद राजसिंहासन के लिए आपसी लड़ाई होती थी, क्योंकि हर सुल्तान के पास आमतौर पर उसकी अलग-अलग पत्नियों से दर्जनों बेटे होते थे, जो एक-दूसरे से ईर्ष्या करते थे. कभी-कभी उत्तराधिकार का युद्ध सुल्तान के जीवनकाल में ही शुरू हो जाता था. निस्संदेह यह सल्तनत के लिए घातक था.

सी. मोहम्मद तुगलक की जिम्मेदारी: मोहम्मद तुगलक का चरित्र सल्तनत के पतन के लिए काफी हद तक जिम्मेदार था. उसकी सभी योजनाएँ विफल रहीं. उसने इन योजनाओं पर बहुत अधिक धन खर्च किया और इससे अर्थव्यवस्था को गहरा झटका लगा. सुल्तान ने अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन में बल का प्रयोग किया. इस प्रकार, उसने लोगों के दुखों को बढ़ाया और विघटनकारी प्रवृत्तियों को अपना सिर उठाने और सल्तनत को बर्बाद करने के लिए प्रोत्साहित किया.

डी. तैमूर का आक्रमण: तैमूर के आक्रमण ने दिल्ली सल्तनत को विघटित कर दिया और जल्द ही एक के बाद एक प्रांत दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र हो गए. 3 महीने तक दिल्ली की गद्दी पर कोई सुल्तान नहीं था. विघटन शुरू हो गया और 1525 ई. तक यह दिल्ली के आस-पास के इलाकों से घिरा एक छोटा सा राज्य रह गया.

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