मुहम्मद बिन तुगलक़ का दिल्ली सल्तनत और उसकी योग्यता

1325 में अपने पिता सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक़ की संदेहास्पद स्थिति में मृत्यु के उपरांत उलुग खान उर्फ़ जूना खान अर्थात् मुहम्मद बिन तुगलक़ दिल्ली का सुल्तान बना. दिल्ली सल्तनत के इतिहास में मुहम्मद बिन तुगलक़ सबसे विद्वान सुल्तान था. किन्तु अपनी अव्यावहारिक योजनाओं, अपने अनियंत्रित क्रोध के कारण अनावश्यक रक्तपात करने की प्रवृत्ति, अपनी ज़िद्दी प्रकृति तथा अपनी प्रजा के कष्टों के प्रति पूर्ण उदासीनता के कारण उसे दिवा-स्वप्नदर्शी, रक्त-पिपासु, सनकी, पागल अथवा बुद्धिमान मूर्ख कहा जाता है.

इस्लाम की धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं की अवज्ञा करने के कारण उसे ज़ियाउद्दीन बर्नी, यहिया बिन अहमद सरहिंदी, निजामुद्दीन अहमद, बदायुनी और फ़रिश्ता जैसे इतिहासकारों ने उसे धर्म-विमुख कहा है. विदेशी यात्री इब्न बतूता ने उसकी रक्त-पिपासु प्रवृत्ति का उल्लेख किया है.

मुहम्मद बिन तुगलक़ के सिंहासनारूढ़ होते समय दिल्ली सल्तनत का सर्वाधिक विस्तार हो चुका था. दिल्ली सल्तनत में तब कुल 23 प्रान्त थे. दिल्ली, लाहौर, मुल्तान, सर्मूली, गुजरात, मालवा, अवध, कन्नौज, बिहार, जाज नगर (उड़ीसा), लखनौती (बंगाल), देवगिरि, द्वार समुद्र के अतिरिक्त कश्मीर तथा बलूचिस्तान भी तब दिल्ली सल्तनत का अंग थे.

मुहम्मद बिन तुगलक़ अलाउद्दीन खिलजी की भाँति ही राजनीति में धर्म की मिलावट किए जाने के विरुद्ध था. अलाउद्दीन खिलजी की ही तरह उसने सिंहासनारूढ़ होते समय खलीफ़ा का अनुमोदन प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया और न ही शासन में उलेमाओं को किसी प्रकार का हस्तक्षेप करने की अनुमति प्रदान की. उसने धर्म-निरपेक्ष न्याय-व्यवस्था की स्थापना हेतु अनिवार्य रूप से केवल उलेमाओं की न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति की परंपरा का भी निर्वाह नहीं किया.

मुहम्मद बिन तुगलक़ की अव्यावहारिक योजनाएं

सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक़ ने प्रशासकीय पदों पर योग्यता के आधार पर नियुक्ति की स्वस्थ परम्परा की नीव डाली. अब नस्ल, वर्ग, जाति अथवा धर्म विशेष के व्यक्तियों का उच्च पदों पर नियुक्ति का एकाधिकार नहीं रहा. इस प्रकार के स्वस्थ एवं प्रगतिशील फ़ैसले लेकर मुहम्मद बिन तुगलक़, भारत जैसे विभिन्न धर्म, जाति और संस्कृतियों के देश में सभी वर्गों का विश्वास और सहयोग प्राप्त करके अपने शासन को लोकप्रिय तथा सुदृढ़ बना सकता था. किन्तु उसकी असफल योजनाओं ने ऐसी किसी भी सम्भावना को समाप्त कर दिया.

दोआब में कर-वृद्धि

मुहम्मद बिन तुगलक़ की पहली अव्यावहारिक योजना – दोआब क्षेत्र में लगभग 50% कर-वृद्धि थी. संयोग की बात यह थी कि कर-वृद्धि के निर्णय के तुरंत बाद दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया किन्तु सुल्तान ने अथवा उसके राजस्व अधिकारियों ने बढ़े हुए कर को वसूलने में किसानों किसी प्रकार की कोई छूट नहीं दी. इस संकट के समय जबरन बढ़े हुए कर की वसूली के विरुद्ध किसानों ने विद्रोह कर दिया.

भयंकर रक्तपात के बाद इस विद्रोह का दमन तो कर दिया गया किन्तु सुल्तान को अपने इस निर्णय से कोई आर्थिक लाभ होना तो दूर, पुरानी व्यवस्था के अंतर्गत मिलने वाला राजस्व भी प्राप्त नहीं हो सका और प्रजा के मध्य वह एक अत्याचारी शासक के रूप में कुख्यात भी हो गया.

कृषि-सुधार की योजना

मुहम्मद बिन तुगलक़ ने ‘दीवान-ए-कोही’ विभाग का गठन कर कृषि-सुधार की महत्वाकांक्षी योजना बनाई थी. किन्तु यह भी भू-राजस्व अधिकारियों तथा किसानों की उदासीनता के कारण निष्फल हो गयी.

राजधानी-परिवर्तन

मुहम्मद बिन तुगलक़ ने साम्राज्य के लगभग मध्य में स्थित दौलताबाद को दिल्ली की जगह राजधानी बनाने का निर्णय इसलिए लिया था. इसका उद्देश्य था कि वह अपने पूरे साम्राज्य पर सुचारू रूप से नियंत्रण स्थापित कर सके और इसके अलावा नव-विजित दक्षिण पर अपनी पकड़ मज़बूत बना सके. इसके अतिरिक्त दौलताबाद में रहकर उसके लिए दक्षिण भारत की अथाह संपत्ति का दोहन भी आसान हो सकता था.

पश्चिमोत्तर प्रदेश से दिल्ली पर निरंतर हो रहे आक्रमणों से भी नई राजधानी सुरक्षित रह सकती थी. सुल्तान ने राजधानी-परिवर्तन के लाभ पर तो विचार किया किन्तु उस से होने वाले नुक्सान का उसने कोई आकलन नहीं किया और इस बात की भी चिंता नहीं की कि उसके इस निर्णय से राज्य पर कितना आर्थिक बोझ आएगा और जनसँख्या-विस्थापन से दिल्लीवासियों को कितना कष्ट होगा.

इस मूर्खतापूर्ण निर्णय का परिणाम विनाशकारी सिद्ध हुआ. अथाह आर्थिक हानि और हज़ारों लोगों की रास्ते में ही जान जाने के बाद 1335 में ही सुल्तान को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा. इस अव्यावहारिक निर्णय का कुपरिणाम यह हुआ कि कि सुल्तान की नगर (उड़ीसा), लखनौती (बंगाल), देवगिरि, द्वार समुद्र के अतिरिक्त कश्मीर तथा बलूचिस्तान भी तब दिल्ली सल्तनत की दक्षिण भारत पर पकड़ पहले से कमज़ोर हो गयी. 1336 में विजयनगर राज्य की स्थापना और 1347 में बहमनी राज्य की स्थापना इसका प्रमाण हैं.

सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन

सांकेतिक मुद्रा का प्रथम चलन चीन में हुआ था जिसमें कि कागज़ की सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन किया गया था. मुहम्मद बिन तुगलक़ ने राजकोष में चांदी की कमी के कारण चांदी के टंके के मूल्य के बराबर के ताम्बे के सिक्कों को सांकेतिक मुद्रा के रूप में प्रचलित करने का मौलिक किन्तु नितांत अव्यावहारिक प्रयोग किया था.

इस सांकेतिक मुद्रा के ढालने में ऐसी कोई सावधानी नहीं बरती गयी जिस से कि घर-घर जाली सांकेतिक मुद्रा न ढाली जा सके. इस प्रयोग के असफल होने के बाद भी सुल्तान ने अपना निर्णय वापस ले लिया किन्तु जाली सांकेतिक मुद्रा के बदले में असली चांदी का भुगतान करते-करते राजकोष लगभग पूरी तरह से खाली हो गया.

खुरासान तथा कराचिल विजय हेतु अभियान

मंगोल तर्माशरीन की मृत्यु के बाद औक्सश पर्वत के पार के क्षेत्र की अराजक स्थिति का लाभ उठाकर मुहम्मद तुगलक़ खुरासान और कराचिल को जीतना चाहता था. किन्तु उसका यह अभियान नितांत अव्यावहारिक था. पहाड़ के दुर्गम क्षेत्रों से पूर्णतया अपरिचित और पहाड़ में युद्ध करने की पूर्णतया अनभ्यस्त सेना किस प्रकार पहाड़ी राज्यों को जीत सकती थी, इस पर सुल्तान ने कोई विचार ही नहीं किया.

खुसरो मालिक के नेतृत्व में 3,50,000 की सेना रास्ता भटकते हुए, मुश्किलों से जूझते हुए असफल होकर जब वापस लौटी तो उस विशाल सेना में से केवल मुट्ठी भर सैनिक ज़िन्दा बचे थे.

मुहम्मद बिन तुगलक़ के शासनकाल में विद्रोह

मुहम्मद बिन तुगलक़ के शासनकाल में अनेक असफल और सफल विद्रोह हुए. इनमें से कुछ तो महत्वाकांक्षी अमीरों द्वारा किए गए थे, कुछ उसकी दमनकारी नीतियों के विरोध में हुए थे और कुछ राज्य पर उसके नियंत्रण के शिथिल हो जाने के कारण हुए थे.

इन में से कुछ विद्रोह अपने उद्देश्य में सफल हुए थे जिसका परिणाम दिल्ली सल्तनत से अलग होकर किंचित स्वतंत्र राज्यों का गठन था. इन स्वतंत्र राज्यों के गठन ने ही तुगलक़ साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया को गतिशील बना दिया था.1326 में कर्नाटक प्रान्त के सागर नमक क्षेत्र में बहाउद्दीन गुरशप के विद्रोह को मुहम्मद बिन तुगलक़ ने सफलतापूर्वक कुचल दिया.

यही परिणाम उच, सिंध तथा मुल्तान के सूबेदार बहराम ऐबा के विद्रोह का हुआ. किन्तु लखनौती (बंगाल) के विद्रोह को कुचलने में मुहम्मद बिन तुगलक़ सफल नहीं हुआ.

1327-28 में लखनौती में पहले वहां के संयुक्त सूबेदार गियासुद्दीन बहादुर ने विद्रोह किया जिसे दूसरे संयुक्त सूबेदार बहराम खान ने कुचल दिया किन्तु अली मुबारक ने 1340-41 में लखनौती में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की.

मालाबार के सूबेदार सैयद एहसान शाह ने 1334-35 में ख़ुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया. मुहम्मद तुगलक़ विद्रोह को कुचलने लिए आगे बढ़ा पर उसे लाहौर में विद्रोह के समाचार के कारण वापस लौटना पड़ा और मालाबार एक स्वतंत्र राज्य बन गया. इसी समय तेलंगाना और कांची में स्वतंत्र हिन्दू राज्यों के स्थापना हुई.

1336 में हरिहर तथा बुक्का ने महान विजयनगर साम्राज्य की नीव रखी. गुजरात में विदेशी मूल के अमीरों के विद्रोह ने मालवा, बरार तथा दौलताबाद में भी विद्रोहों को भड़का दिया.

मुहम्मद बिन तुगलक़ अधिकांश विद्रोहों को कुचलने में सफल रहा किन्तु उसके शासनकाल का उत्तरार्ध ऐसे विद्रोहों की घटनाओं से भरा पड़ा था.सुनाम, समाना, कड़ा, बीदर, गुलबर्गा और  मुल्तान में भी विद्रोह हुए जिनको सुल्तान ने कुचल तो दिया किन्तु इस से यह स्पष्ट था कि अब सुल्तान का अपने राज्य पर नियंत्रण नाम मात्र का रह गया है.

मुहम्मद बिन तुगलक़ के शासन काल के अधिकांश विद्रोह दक्षिण भारत में हुए. 1347 में मुहम्मद बिन तुगलक के अमीरों (अमीरन-ए-सादाह) ने दकन में विद्रोह कर दिया और दौलताबाद के किले पर अधिकार कर इस्माइल अफ़गान को ‘नासिरुद्दीन शाह’ को दकन का सुल्तान घोषित कर दिया. किन्तु बूढ़ा और अयोग्य नासिरुद्दीन शाह अधिक दिनों तक सुल्तान नहीं रहा और उसका स्थान ‘ज़फ़र खान’ उपाधि धारी हसन गंगू ने ले लिया.

हसन गंगू ‘अलाउद्दीन हसन बहमन शाह’ के नाम से अगस्त, 1347 को बहमनी साम्राज्य की स्थापना की. 1350 में गुजरात में तार्गी ने विद्रोह कर दिया. सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक़ इस विद्रोह को कुचलने के लिए अपनी सेना के साथ निकला तो अवश्य किन्तु विद्रोह को कुचलने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गयी.

मुहम्मद बिन तुगलक़ का शासक के रूप में आकलन

इतिहासकार बर्नी मुहम्मद बिन तुगलक़ की मृत्यु पर कहता है-

‘सुल्तान को अपनी प्रजा से और प्रजा को अपने सुल्तान से मुक्ति मिल गयी.’

एक शासक के रूप में मुहम्मद बिन तुगलक़ का आकलन करते समय किसी भी इतिहासकार ने उसे सफल नहीं बताया है. इसामी उसे इस्लाम का शत्रु बताता है तो विदेशी यात्री इब्न बतूता उसे रक्त-पिपासु कहता है. उसकी हर असफल योजना ने उसको पागल और सनकी समझने वालों की संख्या में वृद्धि की.

उसकी बुद्धिमत्ता, उसकी मौलिकता, दोनों ही, उसकी अव्यावहारिकता के बोझ तले दबकर रह गईं. सुल्तान को बार-बार अपने अव्यावहारिक निर्णय बदलने पड़ते थे. उसने अपने शासनकाल के प्रारंभ में अपनी सत्ता की प्रतिष्ठा के लिए खलीफ़ा की मान्यता को कोई महत्ता नहीं दी थी. उसने कठमुल्लों को राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करने से रोका था और नियुक्तियों में धर्म को आधार बनाने के स्थान पर योग्यता के आधार पर क्या मुसलमान और क्या हिन्दू, सबको नियुक्त किया था.

किन्तु बाद में उलेमाओं का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से उसने अपनी छवि एक निष्ठावान मुस्लिम शासक की बनाने की कोशिश की थी और उसने ख़ुद को सुल्तान के रूप में खलीफ़ा की मान्यता प्राप्त करने के लिए उसके प्रतिनिधि का भव्य स्वागत भी किया था.

जल्दबाजी में लागू की गयी अपनी प्रत्येक योजना के असफल होने पर उसे वापस लेना और फिर अपनी खीज निरीह प्रजा पर उतारने की उसकी प्रवृत्ति ने भी उसकी छवि बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

सुल्तान को दिल्ली सल्तनत के इतिहास का सबसे बड़ा साम्राज्य उत्तराधिकार में मिला था और राज्यारोहण के समय उसके साम्राज्य में शांति भी स्थापित थी और शाही खज़ाना भी खाली नहीं था किन्तु उसने अपने उत्तराधिकारी फ़िरोज़ तुगलक़ के लिए अपेक्षाकृत सिमटा हुआ, विद्रोहों से भरा हुआ और खाली खज़ाने वाला साम्राज्य छोड़ा था. मिली हुई विरासत और छोडी हुई विरासत के मापदंड के आधार पर मुहम्मद बिन तुगलक़ नितांत असफल शासक सिद्ध होता है.

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