भारत में भूमि सुधार का प्राथमिक लक्ष्य भूमि वितरण को अधिक न्यायसंगत बनाना है. स्वतंत्रता के बाद, सरकार ने भूमि सुधारों को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता में शामिल किया. इसका मुख्य कारण ज़मींदारी प्रथा और असमान भूमि वितरण के कारण किसानों में व्यापक शोषण और गरीबी दूर करना था. इसका व्यापक उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में प्रभावी अर्धसामंती सामाजिक संबंधों और आर्थिक संस्थाओं का उन्मूलन करना, वास्तविक किसानों को भूमि का वितरण सुनिश्चित करना, और खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि करना था.
यह स्पष्ट है कि भूमि सुधार केवल कृषि उत्पादकता बढ़ाने का एक आर्थिक उपाय नहीं थे, बल्कि स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय और ग्रामीण उत्थान के लिए एक मूलभूत आवश्यकता थे. इसका ध्यान औपनिवेशिक विरासत के शोषणकारी ढाँचों को तोड़ने पर केंद्रित था.
स्वतंत्रता-पूर्व भूमि व्यवस्थाएं
औपनिवेशिक काल की भू-राजस्व प्रणालियोंने देश की कृषि संरचना को गहराई से प्रभावित किया. ब्रिटिश शासन से पहले भी भूमि स्वामित्व एक विवादास्पद मुद्दा रहा था. औपनिवेशिक नीतियों ने इसे और अधिक समस्याग्रस्त बना दिया.
औपनिवेशिक काल की भू-राजस्व प्रणालियाँ
ब्रिटिश प्रशासन ने भारत में विभिन्न भू-राजस्व प्रणालियाँ लागू कीं, जिनमें से प्रत्येक की अपनी विशिष्ट चुनौतियाँ और दोष थे:
- इजारेदारी व्यवस्था: वॉरेन हेस्टिंग्स ने 1772 में बंगाल में इस व्यवस्था की शुरुआत की. यह एक पंचवर्षीय ठेका व्यवस्था थी. इसमें सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को भूमि पांच वर्ष के लिए ठेके पर दी जाती थी, जिसे बाद में वार्षिक कर दिया गया. इस व्यवस्था में अस्थिरता थी क्योंकि ठेके की अवधि कम थी, जिससे भूमि में निवेश और सुधार के लिए प्रोत्साहन कम था. इजारेदार अधिक से अधिक राजस्व वसूलने का प्रयास करते थे. इसलिए यह किसानों के शोषण का कारण बनी.
- स्थायी बंदोबस्त या ज़मींदारी व्यवस्था: कॉर्नवॉलिस ने 1793 में इजारेदारी व्यवस्था के दोषों को दूर करने के उद्देश्य से इसे आरंभ किया. यह व्यवस्था बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बनारस और उत्तरी कर्नाटक में लागू की गई. इसमें राज्य की मांग लगान का 89% तय की गई थी और 11% ज़मींदार को अपने पास रखना था. ज़मींदारों को भूमि का मालिकाना हक मिल गया, जिससे वे किसानों से मनमाना लगान वसूलते थे और उन्हें बेदखल कर सकते थे. प्रारंभिक वर्षों में राज्य को राजस्व की हानि हुई क्योंकि लगान स्थायी रूप से तय कर दिया गया था, जबकि कृषि उत्पादन और कीमतें बढ़ रही थीं.
- रैयतवाड़ी व्यवस्था: 1820 में मद्रास के तत्कालीन गवर्नर थॉमस मुनरो ने इसे आरंभ किया. यह व्यवस्था मद्रास, बंबई और असम के 51% भागों में लागू की गई. इसमें रैयतों या किसानों को भूमि का मालिकाना हक प्रदान किया गया. किसान सीधे कंपनी को भू-राजस्व देने के लिए उत्तरदायी थे. राजस्व का निर्धारण उपज के आधार पर नहीं बल्कि भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर था. राजस्व की दरें अक्सर बहुत अधिक होती थीं, जिससे किसानों पर भारी बोझ पड़ता था. सरकारी अधिकारियों का हस्तक्षेप भी बना रहता था.
- महालवाड़ी व्यवस्था: लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा मध्य प्रांत, आगरा, पंजाब के क्षेत्रों में इसे लागू किया गया. “महाल” से तात्पर्य गांव से है. इस व्यवस्था के अंतर्गत गांव के मुखिया के साथ सरकार का लगान वसूली का समझौता होता था. लगान का निर्धारण पूरे गांव की उपज के आधार पर किया जाता था. मुखिया को किसानों को भूमि से बेदखल करने का अधिकार था. इससे मुखिया की शक्ति बढ़ गई और किसानों का शोषण होने लगा.
नीचे दी गई सारणी स्वतंत्रता-पूर्व भू-राजस्व प्रणालियों की तुलना प्रस्तुत करती है:
प्रणाली का नाम | शुरुआत का वर्ष | संस्थापक | लागू क्षेत्र | मुख्य विशेषताएं (मालिक कौन, राजस्व संग्रहकर्ता कौन) | चुनौतियाँ/दोष |
इजारेदारी व्यवस्था | 1772 | वॉरेन हेस्टिंग्स | बंगाल | सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को 5 वर्ष के लिए ठेका; बाद में वार्षिक | अस्थिरता, किसानों का शोषण, निवेश की कमी |
स्थायी बंदोबस्त | 1793 | कॉर्नवॉलिस | बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बनारस, उत्तरी कर्नाटक | ज़मींदार भूमि के मालिक, राज्य को 89% लगान, ज़मींदार को 11% | किसानों का शोषण, राज्य को राजस्व हानि, कृषि में निवेश की कमी |
रैयतवाड़ी व्यवस्था | 1820 | थॉमस मुनरो | मद्रास, बंबई, असम के कुछ भाग | किसान भूमि के मालिक, सीधे कंपनी को राजस्व देते थे; राजस्व भूमि क्षेत्रफल पर आधारित | उच्च राजस्व मांग, कठोरता, सरकारी अधिकारियों का हस्तक्षेप |
महालवाड़ी व्यवस्था | लॉर्ड हेस्टिंग्स | मध्य प्रांत, आगरा, पंजाब | गांव के मुखिया राजस्व संग्रहकर्ता; लगान पूरे गांव की उपज पर आधारित | मुखिया का किसानों को बेदखल करने का अधिकार, सामूहिक जिम्मेदारी, अनिश्चितता |
दोष और प्रभाव
औपनिवेशिक शासन में ज़मींदारों, जागीरदारों और बिचौलियों के पास अधिकांश भूमि का स्वामित्व था, जिससे किसान भूमिहीन रह गए और उनका शोषण हुआ. खराब भूमि अभिलेख, खंडित जोत और शोषणकारी पट्टा व्यवस्था ने भूमि सुधारों में बाधा डाली. भू-राजस्व प्रणालियों ने एक परजीवी वर्ग (ज़मींदार) को जन्म दिया, जो उत्पादन में योगदान नहीं देता था, जबकि किसानों को शोषण और भूमिहीनता का सामना करना पड़ा. इससे भारतीय कृषि पिछड़ी रही, सामाजिक-आर्थिक असमानता बढ़ी और स्वतंत्र भारत में व्यापक भूमि सुधारों की आवश्यकता उत्पन्न हुई.
भूमि सुधार पर विभिन्न समितियों के सिफारिशें
कुमारप्पा समिति (1949) की सिफारिशें
स्वतंत्रता के बाद, जे.सी. कुमारप्पा समिति ने व्यापक कृषि सुधारों की सिफारिश की. इन सिफारिशों में ज़मींदारों जैसे बिचौलियों को खत्म करना शामिल था, ताकि राज्य और किसानों के बीच सीधा संबंध स्थापित किया जा सके. समिति की सिफारिशों को नीतिगत ढांचे में शामिल किया गया, और इस प्रकार एक परिवार की आजीविका के लिए आवश्यक आर्थिक जोत के आकार से तीन गुना अधिक भूमि की सीमा तय की गई.
दांतवाला समिति (1970)
इस समिति ने भारत में भूमि सुधारों पर महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं. इन सिफारिशों का मुख्य उद्देश्य भूमि के स्वामित्व और उपयोग में असमानताओं को कम करना, किरायेदारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और कृषि उत्पादकता में सुधार करना था.
समिति की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं:
- भूमि हदबंदी कानूनों का सख्त प्रवर्तन: समिति ने मौजूदा भूमि हदबंदी कानूनों को सख्ती से लागू करने पर जोर दिया. इसने व्यक्तिगत के बजाय परिवार को भूमि जोत की इकाई मानने की भी वकालत की, जिससे हदबंदी को और कम किया जा सके.
- खंडित भूमि जोतों का समेकन: समिति ने भूमि के अत्यधिक विखंडन (Fragmentation) की समस्या को पहचाना, जो कृषि उत्पादकता में बाधा डालता है. इसने बिखरे हुए भूमि जोतों के समेकन (Consolidation) की सिफारिश की ताकि खेती को अधिक कुशल बनाया जा सके.
- किरायेदारी सुरक्षा में सुधार: किरायेदारों को बेदखली से बचाने और उनके कार्यकाल की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मजबूत कानूनी प्रावधानों की आवश्यकता पर बल दिया गया. किराए उचित और न्यायसंगत हो और काश्तकारों को भू-स्वामित्व देने की सिफारिश की गई.
- मध्यस्थों का उन्मूलन: जमींदारी उन्मूलन पहले ही हो चुका था. समिति ने उन शेष मध्यस्थों को समाप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया जो अभी भी राज्य और काश्तकारों के बीच मौजूद थे.
- ब्लॉक-स्तरीय नियोजन: दांतवाला समिति ने ब्लॉक-स्तरीय नियोजन के महत्व पर भी जोर दिया ताकि ग्रामीण विकास को बढ़ावा दिया जा सके और भूमि सुधारों के लाभों को जमीनी स्तर तक पहुँचाया जा सके.
केंद्रीय भूमि सुधार समिति (1971)
इसके अध्यक्ष उस समय के खाद्य और कृषि मंत्री फ़ख़रुद्दीन अली अहमद थे. इसकी सिफारिशें भारत में भूमि सुधारों के अगले चरण को आकार देने में बहुत महत्वपूर्ण थीं. इसका मुख्य सिफारिश भूमि हदबंदी कानूनों को अधिक कठोर और प्रभावी बनाने के संबंध में है. यह समिति दांतवाला समिति की सिफारिशों पर आधारित थी. इसका उद्देश्य उन खामियों को दूर करना था जो पहले के भूमि सुधारों के कार्यान्वयन में सामने आई थीं.
केंद्रीय भूमि सुधार समिति (1971) की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं:
- भूमि हदबंदी (Land Ceiling) को कठोर बनाना: यह समिति की सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश थी. इसने राष्ट्रीय स्तर पर भूमि हदबंदी के लिए कुछ दिशानिर्देश स्थापित किए.
- पारिवारिक इकाई पर जोर: समिति ने सिफारिश की कि भूमि हदबंदी व्यक्तिगत के बजाय पारिवारिक इकाई पर आधारित होनी चाहिए. यह पहले के उन प्रावधानों को रोकने के लिए था जहाँ बड़े भूमि मालिक अपने परिवार के अलग-अलग सदस्यों के नाम पर भूमि का विभाजन करके हदबंदी कानूनों से बच जाते थे.
- सिंचित भूमि के लिए निचली सीमा: समिति ने सुझाव दिया कि अच्छी सिंचित भूमि (जैसे कि साल में दो फसलें उगाने वाली भूमि) के लिए हदबंदी की सीमा 10-18 एकड़ (लगभग 4-7.3 हेक्टेयर) तक होनी चाहिए.
- कम सिंचित और असिंचित भूमि के लिए उच्च सीमा: कम सिंचित और असिंचित भूमि के लिए, हदबंदी की सीमा अधिक रखी गई. यह भूमि की गुणवत्ता और उत्पादकता पर निर्भर करती थी.
- कुछ छूटों को समाप्त करना: समिति ने उन कई छूटों को समाप्त करने की भी सिफारिश की जो पहले के हदबंदी कानूनों में थीं (जैसे चाय बागान, डेयरी फार्म आदि के लिए), क्योंकि इनका अक्सर दुरुपयोग होता था.
- अधिशेष भूमि का पुनर्वितरण: समिति ने हदबंदी कानूनों से प्राप्त अधिशेष भूमि (surplus land) को तेजी से और प्रभावी ढंग से वितरण का सिफारिश किया. इसे भूमिहीन कृषि श्रमिकों, विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों, और छोटे किसानों के बीच वितरित करने पर जोर दिया गया.
- किरायेदारी कानूनों में सुधार: इसने किरायेदारों को बेदखली से बचाने, उचित किराया और वास्तविक काश्तकारों को स्वामित्व अधिकार प्रदान करने के लिए कदम उठाने की सिफारिश की.
- भूमि अभिलेखों का अद्यतन (Updating Land Records): समिति सुधारों को वास्तविक बनाने के लिए सटीक और अद्यतन भूमि अभिलेखों के महत्व पर जोर दिया. इसने भूमि के सर्वेक्षण और रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला.
- कानूनी खामियों को दूर करना: मौजूदा भूमि सुधार कानूनों में निहित कानूनी खामियों और ढीले प्रावधानों को दूर करने के लिए विशिष्ट सुझाव दिए गए. खासकर ऐसे कानून जिनके उपयोग बड़े भू-स्वामी हदबंदी जैसे मामलों से बच निकलते थे.
राज्य कृषि संबंध समिति (State Agrarian Relations Committee) (2008)
इसका गठन 2008 में ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत ग्रामीण विकास मंत्री के अध्यक्षता में किया गया था. अभिजीत सेन इस समिति के सदस्य थे. इस समिति का मुख्य उद्देश्य “भूमि सुधारों में अपूर्ण कार्य” (Unfinished Task in Land Reforms) की समीक्षा करना और आगे के उपायों का सुझाव देना था. इसकी रिपोर्ट अगस्त 2009 में प्रधान मंत्री को सौंपी गई थी.
समिति की प्रमुख सिफारिशें, विशेष रूप से भूमि सुधारों पर, इस प्रकार हैं:
- भूमि हदबंदी (Land Ceiling) कानूनों की समीक्षा और पुन:प्रवर्तन: समिति ने पाया कि भूमि हदबंदी कानूनों का कार्यान्वयन बहुत कमजोर रहा है. अधिकांश अधिशेष भूमि का वितरण नहीं हो पाया है. इसने मौजूदा भूमि हदबंदी सीमाओं की समीक्षा करने और उन्हें वास्तविक रूप से लागू करने का सुझाव दिया. समिति ने विशिष्ट सीमाएं निर्धारित करने के बजाय, राज्यों को अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उचित सीमाएं तय करने की सलाह दी, लेकिन इस बात पर जोर दिया कि उन्हें प्रभावी ढंग से लागू किया जाए.
इसने “बेनामी” लेनदेन और अन्य तरीकों से हदबंदी से बचने के प्रयासों को रोकने के लिए कठोर उपाय सुझाए. समिति ने कृषि भूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए परिवर्तित करने पर भी चिंता व्यक्त की और इसे नियंत्रित करने के उपाय सुझाए.
- काश्तकारी सुधार (Tenancy Reforms): समिति ने मौजूदा काश्तकारों के अधिकारों को मान्यता देने और उन्हें सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता पर बल दिया, भले ही उनका कार्यकाल लिखित न हो. इसने काश्तकारी कानूनों में लचीलेपन की भी वकालत की ताकि भूमि मालिक अपनी भूमि को किराए पर देने से न डरें. इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि भूमि खाली न रहे और उत्पादक बनी रहे. समिति ने सुझाव दिया कि काश्तकारी समझौतों को पंजीकृत किया जाना चाहिए ताकि काश्तकार को सुरक्षा मिले और भूमि मालिक के स्वामित्व अधिकार भी सुरक्षित रहें.
- भूमि अभिलेखों का आधुनिकीकरण (Modernization of Land Records): समिति ने भूमि अभिलेखों के आधुनिकीकरण और डिजिटलीकरण पर अत्यधिक जोर दिया. इसने भूमि स्वामित्व के रिकॉर्ड को पारदर्शी बनाने और उन्हें जनता के लिए सुलभ बनाने की सिफारिश की.
- सरकारी और बंजर भूमि का वितरण: समिति ने भूमिहीन गरीब परिवारों, विशेषकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं को सरकारी बंजर भूमि (wastelands) और अन्य उपलब्ध सार्वजनिक भूमि के त्वरित वितरण की सिफारिश की. इसने भूमि के इन टुकड़ों की गुणवत्ता में सुधार के लिए सहायता प्रदान करने का भी सुझाव दिया.
- सामुदायिक संपत्ति संसाधनों (Common Property Resources – CPRs) तक पहुंच: समिति ने ग्रामीण गरीबों के लिए सामुदायिक संपत्ति संसाधनों (जैसे चारागाह, वनोपज के लिए वन भूमि, जल स्रोत) तक पहुंच सुनिश्चित करने के महत्व को रेखांकित किया. इसने इन संसाधनों के प्रबंधन और विकास में स्थानीय समुदायों की भागीदारी को बढ़ावा देने की सिफारिश की.
- आदिवासी भूमि का गैर-आदिवासियों को हस्तांतरण रोकना: समिति ने आदिवासी क्षेत्रों में भूमि के गैर-आदिवासियों को अवैध हस्तांतरण को रोकने के लिए सख्त कानूनों के प्रभावी प्रवर्तन पर जोर दिया. इसने ‘वन अधिकार अधिनियम, 2006’ (Forest Rights Act, 2006) के पूर्ण कार्यान्वयन की भी वकालत की, जो वन-निर्भर आदिवासी समुदायों को भूमि अधिकार प्रदान करता है.
- भूमि विवादों का समाधान: भूमि विवादों के त्वरित समाधान के लिए समिति ने विशेष भूमि अधिकरणों (Land Tribunals) और फास्ट-ट्रैक अदालतों के गठन की सिफारिश की. इसने मध्यस्थता और ग्राम सभाओं के माध्यम से स्थानीय स्तर पर विवादों को सुलझाने के तंत्र को मजबूत करने का भी सुझाव दिया.
- भूमि सुधार कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए संस्थागत तंत्र: समिति ने भूमि सुधार कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए संस्थागत तंत्रों को मजबूत करने की सिफारिश की. इसमें प्रशासनिक क्षमता निर्माण और जवाबदेही सुनिश्चित करना शामिल था.
स्वतंत्र भारत में भूमि सुधारों के उद्देश्य और घटक
स्वतंत्रता के बाद, भारत ने एक न्यायसंगत और उत्पादक कृषि प्रणाली स्थापित करने के लिए व्यापक भूमि सुधारों की आवश्यकता महसूस की. इन सुधारों का उद्देश्य औपनिवेशिक विरासत में मिली शोषणकारी संरचनाओं को समाप्त करना और ग्रामीण समाज में समानता लाना था.
स्वतंत्र भारत में भूमि सुधार कार्यक्रमों में निम्नलिखित प्रमुख कदम उठाए गए:
- बिचौलियों का उन्मूलन: सरकार द्वारा ज़मींदारी व्यवस्था के उन्मूलन पर विशेष बल दिया गया, जिसका उद्देश्य बिचौलियों को समाप्त करके कृषकों के साथ सीधा संपर्क कायम करना था. आज़ादी के समय, व्यक्तिगत स्वामित्व की 57 प्रतिशत कृषि भूमि पर ज़मींदारों का प्रभुत्व था. ज़मींदारों ने मुआवजे के प्रश्न को मौलिक अधिकार के उल्लंघन के आधार पर न्यायालय से असंवैधानिक घोषित कराने का प्रयास किया. इन बाधाओं को दूर करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 31 में संशोधन करके ही भूमि सुधारों को लागू किया जा सका.
- काश्तकारी सुधार: इन सुधारों से किराए को नियंत्रित करना (कुल उत्पादन के 1/2 से 1/4 से ज्यादा न हो), सुरक्षित काश्तकारी अवधि सुनिश्चित करना, और काश्तकारों को स्वामित्व प्रदान करना था. इन प्रयासों के परिणामस्वरूप अधिकांश किसान भूस्वामी बने. हालांकि, काश्तकारी सुधारों को भी चुनौतियों का सामना करना पड़ा. इनमें से अधिकतर कानून संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों के विरोधी थे, जिसके कारण इन्हें वैधता देने के लिए 1951 में पहले संविधान संशोधन के तहत 9वीं अनुसूची जोड़ी गई. कई ज़मींदारों ने काश्तकारों को बेदखल कर दिया या उन्हें गुप्त रूप से खेती करने के लिए मजबूर किया ताकि वे स्वामित्व अधिकार प्राप्त न कर सकें. कानूनों का कमजोर कार्यान्वयन भी एक बड़ी बाधा थी.
- भूमि जोत की अधिकतम सीमा (Land Ceiling): इसका अभिप्राय एक व्यक्ति या परिवार के पास जोत के अधिकतम आकार को तय करना था. पंचवर्षीय योजनाओं में असमानता की समाप्ति और ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन किसानों को रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से भूमि हदबंदी की आवश्यकता को स्वीकार किया गया. 1961-62 तक राज्यों ने अलग-अलग अधिकतम सीमाएँ लागू की थीं. इसे 1971 में मानकीकृत किया गया. राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों ने भूमि के प्रकार और उत्पादकता के आधार पर 10-54 एकड़ के बीच सीमाएँ निर्धारित की गई.
- भूमि जोत का समेकन (चकबंदी): विखंडन को कम करने और कृषि दक्षता में सुधार करने के लिए भूमि जोतों का समेकन किया गया. प्रथम पंचवर्षीय योजना में भूमि चकबंदी की व्यवस्थित शुरुआत की गई, जिसका उद्देश्य भूमि के उपविभाजन को रोकना था. 1957 के अंत तक 150 लाख एकड़ भूमि की चकबंदी हो चुकी थी. अधिकांश राज्यों ने एकीकरण कानून बनाए, जिसमें हरियाणा और पंजाब ने अनिवार्य एकीकरण लागू किया, जबकि अन्य राज्यों ने स्वैच्छिक एकीकरण अपनाया. इसे भी बड़े भूस्वामियों के विरोध का सामना करना पड़ा.
कार्यान्वयन और प्रभाव
भारत में भूमि सुधारों के कार्यान्वयन से मिश्रित परिणाम मिले, जिसमें कुछ क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताएँ और अन्य में चुनौतियाँ रहीं. इन सुधारों ने सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में गहरा प्रभाव डाला.
उपलब्धियाँ
- बिचौलियों का उन्मूलन: ज़मींदारों का प्रभाव खत्म कर किसानों का शोषण कम हुआ.
- किसानों का सशक्तिकरण: भूमि स्वामित्व और कानूनी जागरूकता से किसानों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ.
- भूमि पुनर्वितरण: जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्रों में सीलिंग के माध्यम से भूमि पुनर्वितरण हुआ.
- कृषि उत्पादकता: परती भूमि का उपयोग और बेहतर तकनीकों से उत्पादन बढ़ा.
- सामाजिक-आर्थिक उत्थान: गरीब किसानों की स्थिति सुधरी, रोजगार के अवसर बढ़े.
- असमानता में कमी: ग्रामीण समाज में गरीब-अमीर की खाई कम हुई.
- ऋण सुगमता: स्पष्ट स्वामित्व से किसानों को निवेश और ऋण प्राप्ति में मदद मिली.
गरीबी उन्मूलन और सामाजिक न्याय:
भूमिहीन किसानों, लघु किसानों और महिलाओं को भूमि स्वामित्व से आजीविका और सशक्तिकरण का साधन मिला. हालांकि, नीति आयोग (2019) के अनुसार, बिहार में 56% और पश्चिम बंगाल में 11% ग्रामीण परिवार भूमिहीन थे, जो सुधारों की असमान सफलता को दर्शाता है.
राज्य-वार सफलता और विफलताएं
भूमि सुधारों की सफलता विभिन्न राज्यों में अलग-अलग रही.
- पश्चिम बंगाल: इस राज्य में मुख्यमंत्री ज्योति बसु के नेतृत्व में वाम मोर्चा सरकार ने 1970 के दशक के अंत में महत्वपूर्ण भूमि सुधार सफलतापूर्वक लागू किए. ज़मींदारों से ज़मीन लेकर भूमिहीन मज़दूरों को वितरित की गई. यह एक मज़बूत राजनीतिक प्रतिबद्धता था.
- केरल: केरल के भूमि सुधार अधिनियम (1963) ने भूमि स्वामित्व की सीमाएँ निर्धारित कीं और काश्तकारों को सुरक्षा प्रदान की. इस अधिनियम के कारण भूमि का सफल पुनर्वितरण हुआ और काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा हुई.
- बिहार और उत्तर प्रदेश: इन राज्यों को अभी भी भूमि सुधारों के कार्यान्वयन में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन विधेयक ने कन्या संतान को कृषि भूमि के उत्तराधिकार से वंचित रखा. कुछ राज्यों में स्त्रियाँ कृषि भूमि क्रय भी नहीं कर सकती थीं.
- वितरण की असमानता: सितंबर 1998 तक, 74 लाख एकड़ भूमि सीमा कानून के अंतर्गत अधिशेष घोषित की गई. लेकिन केवल 53 लाख एकड़ को 55 लाख भूमिहीनों में वितरित किया जा सका है. कुल वितरित अधिशेष भूमि का लगभग 1/5 पश्चिम बंगाल में था, जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों ने अपेक्षाकृत बहुत कम क्षेत्र पुनर्वितरित किए.
चुनौतियां और बाधाएं
भारत में भूमि सुधारों के कार्यान्वयन ने कई गंभीर चुनौतियों और बाधाओं का सामना किया, जिन्होंने उनकी प्रभावशीलता को सीमित कर दिया.
कानूनी और प्रशासनिक अड़चनें
भूमि का ‘राज्य सूची’ का विषय होना एक बड़ी बाधा थी. विभिन्न राज्यों की भू-सुधार नीतियों में भिन्नता थी और पूरे भारत में एक साथ सुधार लागू करना अत्यंत दुष्कर था. भूमि हदबंदी कानूनों को बेनामी हस्तांतरण ने एक सीमा तक अप्रभावी बना दिया. उपलब्ध आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि सीमा की अधिशेष भूमि से संबंधित कई मामले न्यायिक निर्णयों में देरी के कारण अदालतों में पड़े हैं. इसके अतिरिक्त, भारत में भूमि अभिलेख अस्पष्ट होना भी चुनौती है.
राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और भ्रष्टाचार
भूमि सुधारों के परिपालन में सरकार में आवश्यक इच्छाशक्ति का अभाव रहा है. संभावित लाभार्थियों का भी कोई संगठित दबाव नहीं था.
भूमि अभिलेखों की अस्पष्टता और बेनामी हस्तांतरण
भूस्वामियों का सही ब्यौरा सुनिश्चित नहीं किया गया, और अधिकारियों ने भूमि के बेनामी हस्तांतरण पर अपनी जानकारी के आधार पर कार्रवाई नहीं की 7. सही भूमि रिकॉर्ड की कमी ने अतिरिक्त भूमि की पहचान करना और उसका पुनर्वितरण करना मुश्किल बना दिया 5.
महिलाओं के भूमि अधिकारों से संबंधित मुद्दे
भूमि सुधार नीति ने महिलाओं के भूमि अधिकारों के प्रश्न पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया. उत्तर प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन विधेयक ने कन्या संतान को कृषि भूमि के उत्तराधिकार से वंचित रखा, और कुछ राज्यों में स्त्रियां कृषि भूमि खरीद भी नहीं सकती थीं. अभिलेखित भू-अधिकारों के अभाव के कारण वे यह सिद्ध नहीं कर पाती थीं कि वे कृषक हैं. प्रचलन में सामान्यतः महिलाओं को नजरअंदाज करके लाभार्थी परिवार के पुरुष सदस्य के नाम भूमि स्वामित्व दिया जाता था.
संसाधनों की कमी और जागरूकता का अभाव
भूमि सुधार के बाद भी किसानों को आधुनिक उपकरण और तकनीक नहीं मिल पाए. साथ ही बरसात पर निर्भरता और सस्ते सिंचाई सुविधाओं के कमी किसानों के विकास में बाधक रहा.
वर्तमान पहलें
हाल के वर्षों में, भारत में भूमि सुधारों का ध्यान भूमि अभिलेखों के आधुनिकीकरण और डिजिटलीकरण पर केंद्रित हो गया है. इसका उद्देश्य पारदर्शिता बढ़ाना, विवाद कम करना और भूमि को एक आर्थिक परिसंपत्ति के रूप में अधिक तरल बनाना है.
DILRMP योजना
डिजिटल इंडिया भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (DILRMP), जिसे पहले राष्ट्रीय भूमि रिकॉर्ड आधुनिकीकरण कार्यक्रम के नाम से जाना जाता था, केंद्र सरकार से पूर्ण वित्त पोषित होता है और अप्रैल 2016 में केंद्रीय क्षेत्र योजना के रूप में इसका पुनर्गठन किया गया था.
DILRMP के अंतर्गत कई प्रमुख पहलें शामिल हैं:
- विशिष्ट भूमि पार्सल पहचान संख्या (ULPIN/भू-आधार): यह प्रत्येक भूमि पार्सल के लिए उसके भू-निर्देशांक के आधार पर 14 अंकों का अल्फ़ान्यूमेरिक कोड प्रदान करता है 9.
- यह पूरे देश में विलेख/दस्तावेज़ पंजीकरण के लिए एक समान प्रक्रिया प्रदान करता है. इससे दस्तावेजों तक सुगम पहुँच समेत अन्य सुविधाएं आसान हो जाती है. अब तक, 18 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने इस प्रणाली को अपनाया है और 12 अन्य राष्ट्रीय पोर्टल के साथ डेटा साझा कर रहे हैं.
- ई-कोर्ट एकीकरण: भूमि अभिलेखों को ई-कोर्ट से जोड़ने का उद्देश्य न्यायपालिका को भूमि की त्वरित और प्रामाणिक जानकारी प्रदान करना है. 26 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने इसे मंजूरी दी है.
- भूमि अभिलेखों का अनुवाद: भारतीय संविधान की अनुसूची VIII में सूचीबद्ध 22 भाषाओं में से किसी में भूमि अभिलेखों का अनुवाद उपलब्ध है.
- भूमि सम्मान: इस पहल के अंतर्गत, 16 राज्यों के 168 जिलों ने भूमि रिकॉर्ड कम्प्यूटरीकरण और मानचित्र डिजिटलीकरण सहित कार्यक्रम के मुख्य घटकों के 99 प्रतिशत से अधिक को पूरा करने के लिए “प्लेटिनम ग्रेडिंग” प्राप्त की है.
2016 के बाद से ग्रामीण भारत में लगभग 95% भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण किया गया है. इसमें 6.26 लाख से ज्यादा गांव शामिल हैं. राष्ट्रीय स्तर पर भू-मानचित्रों का डिजिटलीकरण 68.02% तक हो चुका है. 87% उप-पंजीयक कार्यालयों को भूमि रिकॉर्ड के साथ एकीकृत किया गया है. DILRMP को 2025-26 तक बढ़ा दिया गया है, जिसमें आधार-आधारित एकीकरण और राजस्व अदालतों का कम्प्यूटरीकरण जैसी नई सुविधाएँ जोड़ी गई हैं.
राज्यों के बीच समन्वय और सहयोग का अभाव इसकी मुख्य चुनौती है. भूमि राज्य सूची का विषय है और कार्यान्वयन राज्य सरकारों की इच्छा पर निर्भर करता है. हितधारकों में भी DILRMP के लाभों और प्रक्रियाओं के बारे में जागरूकता और भागीदारी की कमी है.
स्वामित्व योजना (SWAMITVA Scheme)
स्वामित्व योजना को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस, 24 अप्रैल, 2020 को शुरू किया गया था. इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण आबादी क्षेत्रों में संपत्ति मालिकों को “अधिकारों का रिकॉर्ड” प्रदान करके ग्रामीण भारत के आर्थिक परिवर्तन को गति देना है. यह योजना भूमि सीमांकन के लिए उन्नत ड्रोन और जीआईएस तकनीक का उपयोग करती है.
18 जनवरी 2025 तक 10 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों के 50,000 से अधिक गाँवों में 65 लाख स्वामित्व संपत्ति कार्ड ई-वितरित किए गए. कुल 3,46,187 गाँवों में से 3,17,715 गाँवों में ड्रोन उड़ाने का कार्य पूरा हो चुका है (92% उपलब्धि). लगभग 2.25 करोड़ संपत्ति कार्ड जारी किए गए हैं. हरियाणा और उत्तराखंड ड्रोन सर्वेक्षण और संपत्ति कार्ड तैयार करने दोनों में 100% पूरा होने के साथ सबसे आगे हैं .
इस योजना ने संपत्ति मुद्रीकरण को बढ़ावा दिया है. बैंक ऋण तक पहुंच आसान हुआ. संपत्ति विवादों में कमी हुई और ग्राम-स्तरीय योजना को बढ़ावा मिला.
आगे की राह
भारत में भूमि सुधार अब पुनर्वितरण के बजाय डिजिटलीकरण, संपत्ति अधिकारों के औपचारिकरण और पट्टेदारी कानूनों के आधुनिकीकरण पर केंद्रित हैं.
2025 से एक नई व्यवस्था लागू होगी, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में पट्टे की ज़मीन पर मालिकाना हक मिल सकेगा. इससे ग्रामीण विकास में तेजी आने, भूमि विवाद कम होने और किसानों को आर्थिक स्थिरता मिलने की उम्मीद है. यह प्रक्रिया डिजिटल रिकॉर्ड, तेज़ स्वीकृति और पारदर्शी तरीकों पर आधारित होगी.
भूमि अभिलेखों का पूर्ण डिजिटलीकरण सटीकता और पारदर्शिता के लिए महत्वपूर्ण है. डिजिटल इंडिया भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (DILRMP) के तहत सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने और सरकारी अधिकारियों को आधुनिक तकनीकों का प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है.
व्यापक भूमि सुधारों से आर्थिक विकास, सामाजिक समानता और सतत विकास सुनिश्चित होगा, जिससे छोटे और सीमांत किसानों को लाभ मिलेगा. DILRMP में किसी भी हेराफेरी या भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए. पारदर्शिता, जवाबदेही और एक प्रभावी शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करना आवश्यक है. क्षमता विकास के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) का लाभ उठाना चाहिए. साथ ही, महिलाओं को भूमि सुधारों का समान लाभ मिलना सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है.
निष्कर्ष (Conclusion)
भारत में भूमि सुधारों की यात्रा जटिल रही है, जिसमें स्वतंत्रता-पूर्व की शोषणकारी प्रणालियों से लेकर वर्तमान के प्रौद्योगिकी-आधारित आधुनिकीकरण तक बदलाव आया है. बिचौलियों के उन्मूलन जैसी महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल हुई हैं, लेकिन भूमि पुनर्वितरण और महिलाओं के भूमि अधिकारों के संबंध में चुनौतियां बनी हुई हैं.
वर्तमान में, DILRMP और स्वामित्व योजना जैसी पहलें भूमि प्रशासन में पारदर्शिता, दक्षता और पहुंच बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रही हैं, जिससे ग्रामीण विकास के नए द्वार खुल रहे हैं. भविष्य में, निरंतर डिजिटलीकरण, कानूनी ढांचे में सुधार और राजनीतिक इच्छाशक्ति की निरंतरता भारत में भूमि सुधारों के पूर्ण लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण होगी, जिससे एक अधिक समावेशी और न्यायसंगत ग्रामीण समाज का निर्माण होगा.