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लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक दुनिया

    लोकतंत्र अंग्रेजी शब्द डेमोक्रेसी (Democracy) का हिंदी रूपांतरण हैं. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत के नागरिक होने के कारण आप इस शब्द से भलीभांति वाकिफ होंगे. आज के समय वैश्विक प्रशासन और राजनीति में लोकतंत्र का काफी महत्वपूर्ण स्थान है. कारण हैं- सभी कोई सत्ता में भागीदारी चाहते हैं, लेकिन सभी एक साथ शासक नहीं बन सकते. अधिकतर को शासित बनना ही होता हैं. किन्तु, लोकतान्त्रिक शासन-प्रणाली सत्ता में जन-भागीदारी सुनिश्चित कर देती है. यही इसकी सबसे बेहतर खासियत है. तो आइये हम सरल व आसान भाषा में लोकतंत्र से जुड़े सभी जरुरी पहलुओं को समझने की कोशिश करते हैं कि loktantra kya hai?

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    लोकतंत्र का अर्थ (Meaning of Democracy in Hindi)

    अंग्रेजी शब्द Democracy दो ग्रीक शब्दों, DemosKratos से मिलकर बना हैं. Demos का मतलब हैं लोग या लोक (People) व kratos का मतलब है ‘शासन’ या शासन-तंत्र. इस तरह Democracy का सही अर्थ जनता का शासन होता हैं, जिसे हिंदी में लोकतंत्र कहते हैं.

    वास्तव में, लोकतंत्र का मतलब होता है- न कोई राजा और न कोई गुलाम, सब एक समान. हर व्यक्ति को अपना बात रखने का अधिकार है. इसलिए, इसे आधुनिक व प्रगतिशील शासन-प्रणाली कहा जाता हैं. यह वह शासन प्रणाली है, जहाँ जनता शक्तिशाली होते है, और शासक उनके चुने हुए प्रतिनिधि मात्रा.

    लोकतंत्र क्या है? (What is democracy in Hindi)

    लोकतंत्र शासन की एक प्रणाली है, जिसमें लोगों के पास कानून बनाने की शक्ति होती है, यानी ‘प्रत्यक्ष लोकतंत्र‘; और जिसमे लोग ये तय करते है कि शासन में उनका प्रतिनिधित्व कौन करेगा उसे अप्रत्यक्ष यानी ‘प्रतिनिधि लोकतंत्र‘ कहते है.

    एक लोकतांत्रिक समाज में, समय के साथ जनसंख्या में आम तौर पर वृद्धि हुई है. हालाँकि, किसे ‘लोगों’ के रूप में माना जाता है और लोगों के बीच सत्ता कैसे वितरित या प्रत्यायोजित की जाती है, यह समय के साथ और अलग-अलग देशों में अलग-अलग रूप में विकसित हुआ है.

    सभा की स्वतंत्रता, संघ, संपत्ति के अधिकार, बोलने की स्वतंत्रता, समावेशिता और समानता, नागरिकता, शासितों की सहमति, मतदान के अधिकार, जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार, अन्यायपूर्ण सरकारी वंचन से स्वतंत्रता, और अल्पसंख्यक व समाज के निचले तबके को अधिकार लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों में से हैं.

    आधुनिक समय में, लोकतंत्र वह है जहाँ लोग मतदान के द्वारा अपने शासक का चुनाव करते है व उम्मीद रखते है कि अपने कार्यकाल के दौरान ये शासक सर्वश्रेष्ठ निति, योजना व कानून बनाकर राज्य को आगे बढ़ाने का काम करेंगे.

    लोकतंत्र का शुरुआत और अरस्तू (Inception of Democracy in Hindi)

    लोकतंत्र का शुरुआत पुनर्जागरण और फ़्रांस के गौरवपुर्ण क्रांति के साथ माना जाता है. पुनर्जागरण के प्रणेता, अरस्तु, प्लूटो, सुकरात जैसे संतवादियों ने ही आधुनिक लोकतंत्र कि बुनियाद रखी थी. इन्होंने लोकतंत्र के विभिन्न प्रकार के सिद्धांतो की व्याख्या कर जनता में लोकतंत्र के विकास का आधार तैयार किया था.

    अरस्तू ने लोकतंत्र द्वारा शासन का कुछ कुलीनतंत्र / अभिजात वर्ग के शासन और एक अत्याचारी या निरंकुशता / पूर्ण राजशाही के शासन के साथ तुलना की. उन्होंने सभी में एक अच्छा और एक बुरा संस्करण पाया.

    अपनी पुस्तक “पॉलिटिक्स” के पांचवें खंड के पांचवें अध्याय में अरस्तू ने कहा है कि लोग समाज में विशेषाधिकार और संपत्ति के वितरण में समानता चाहते हैं, जो कि सिर्फ लोकतंत्र में ही संभव है. अधिक समानता वाले समाज की लालसा लोगों को जनोन्मादी नेताओं को ठुकराने के लिए प्रेरित करेगी, इससे लोकतंत्र सरकार के सबसे टिकाऊ रूप में उभरेगा. हालांकि दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि लोकतंत्र की अंतर्निहित कमज़ोरियों के कारण इस पर जनोन्माद फैलाने वाले नेताओं के कब्ज़े की आशंका हमेशा बनी रहती है.

    प्लेटो के शिष्य (अरस्तु) का विवेचना (Aristotle’s Concept in Hindi)

    अरस्तु के गुरु प्लेटो थे. हालाँकि, प्लेटो और अरस्तू ने लोकतंत्र की निरंतरता पर परस्पर विपरीत विचार व्यक्त किए थे. प्लेटो ने अपनी पुस्तक रिपब्लिक के आठवें खंड में लोकतंत्र को मूलत: अस्थाई बताया है. उनका कहना है कि लोगों को स्वतंत्रता दिए जाने पर उनके बीच जनोन्माद फैलाने वाले नेताओं के उभरने की परिस्थिति भी बनती है. सत्ता के लिए ऐसे नेताओं के बीच प्रतिस्पर्द्धा से निरंकुश शासन पैदा हो जाता है.

    अरस्तू का सुझाया समाधान क्या था? अरस्तू का मानना था कि समानता की अवधारणा के इर्द-गिर्द बहुमत निर्मित करना हमेशा संभव होगा. यहां समानता से मतलब गिनी गुणांक से मापी जाने वाली संपत्ति या आय की समानता नहीं, बल्कि हैसियत, विशेषाधिकार, वस्तुओं और समाज में उपलब्ध अवसरों की समानता है.

    अरस्तू ज़्यादा गलत भी नहीं थे. साथ ही अरस्तू, खुल कर ऐसा कहे बिना, यह भी मानते था कि जनोन्माद का मुकाबला जनोन्माद से ही हो सकता है, जो कि समतामूलक उद्देश्यों वाला जनोन्माद होगा. ध्यान दें कि यह गिनी गुणांक आधारित नवउदारवादी समानता नहीं है, बल्कि वास्तविक समानता है.

    लोकतंत्र पर पुराने सोच (Old thoughts on Democracy in Hindi)

    फिर भी अधिकतर प्रारंभिक और पुनर्जागरण रिपब्लिकन सिद्धांतकारों के बीच एक आम विचार यह था कि लोकतंत्र केवल छोटे राजनीतिक समुदायों में ही जीवित रह सकता है. इसके पक्ष में रोमन गणराज्य का तर्क दिया गया.

    कहा गया कि इन राज्यों के बड़े होने के साथ यह राजशाही में बदल गया. जब तक ये राज्य छोटे रहे, लोकतंत्र कायम रहे. इन रिपब्लिकन सिद्धांतकारों ने माना कि क्षेत्र और जनसंख्या का विस्तार अनिवार्य रूप से अत्याचार का कारण बना.

    इसलिए लोकतंत्र ऐतिहासिक रूप से अत्यधिक नाजुक और दुर्लभ था, क्योंकि यह केवल छोटी राजनीतिक इकाइयों में ही जीवित रह सकता था, जो अपने आकार के कारण बड़ी राजनीतिक इकाइयों से असुरक्षित थे.

    मोंटेस्क्यू ने इसकी प्रसिद्ध व्याख्या करते हुए कहा, “यदि एक गणतंत्र छोटा है, तो इसे बाहरी ताकतों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है; यदि यह बड़ा है, तो इसे आंतरिक उथल-पुथल द्वारा नष्ट कर दिया जाता है.”

    रूसो ने जोर देकर कहा, “इसलिए लोकतंत्र छोटे राज्यों नैसर्गिक रूप से संभव है. माध्यम आकार का राज्य एक सम्राट के अधीन होने के लिए, और बड़े साम्राज्यों को एक निरंकुश राजकुमार द्वारा नष्ट किए जाने के लिए उपयुक्त हैं.”

    लोकतंत्र की परभाषाएँ (Definitions of Democracy in Hindi)

    लोकतंत्र की व्याख्या दुनिया के विद्वानों ने की हैं. इसमें सुविख्यात परिभाषा अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का है. उनके अनुसार, “लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है”.

    वास्तव में लिंकन ने यूनानी दार्शनिक वलीआन को दोहराया था. वलीआन के अनुसर, “लोकतंत्र वह होगा जो जनता का, जनता के द्वारा हो, जनता के लिए हो.”

    लोकतंत्र की कुछ अन्य प्रसिद्ध परिभाषाएँ इस प्रकार है:-

    • डाइसी (Dicey) के अनुसार, “लोकतंत्र वह शासन प्रणाली है जिसमें शासक वर्ग राष्ट्र का एक प्रमुख हिस्सा हो.”
    • हॉल के कथन के अनुसार – “लोकतंत्र का मतलब एक ऐसी शासन से होनी चाहिए जिससे लोगों द्वारा आवश्यकता अनुसार भाग लिया जा सके तथा अपने मत व विचार प्रकट कर सके.”
    • जॉनसन ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा, “जनतंत्र शासन का वह रूप है जिसमें प्रभुसत्ता जनता में सामूहिक रूप से निहित हो.”
    • एंड्रयू हेवुड, के अनुसार, “लोगों द्वारा शासन; लोकतंत्र का तात्पर्य बड़े स्तर पर जनता की भागीदारी और जनहित में सरकार दोनों से है, और यह कई प्रकार के रूप में हो सकता है.”
    • सारटोरी ने कहा, “लोकतंत्रीय व्यवस्था वह है जो सरकार को उत्तरदायी तथा नियंत्रणकारी बनाती हो तथा जिसकी प्रभावकारिता मुख्यत: इसके नेतृत्व की योग्यता तथा कार्यक्षमता पर निर्भर हैं.”
    • डॉ जॉन हिर्स्ट कहते है, “लोकतंत्र एक ऐसा समाज है जिसमें नागरिक संप्रभु होते हैं और सरकार को नियंत्रित करते हैं.”
    • बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर के अनुसार, ‘लोकतंत्र का अर्थ है एक ऐसी जीवन पद्धति, जिसमे समता, स्वतंत्रता और बंधुता सामाजिक जीवन के मूल सिद्धांत होते हैं.’

    लावेल के अनुसार, “लोकतंत्र शासन के क्षेत्र में केवल एक प्रयोग है.”

    • जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने लोकतंत्र पर कहा, “लोकतंत्र, अपनी महंगी और समय बर्बाद करने वाली खूबियों के साथ सिर्फ़ भ्रमित करने का एक तरीका भर है, जिससे जनता को विश्वास दिलाया जाता है कि वह ही शासक है जबकि वास्तविक सत्ता कुछ गिने-चुने लोगों के हाथ में ही होती है.”
    • जोसेफ शुम्पीटर के अनुसार, “लोकतांत्रिक पद्धति राजनीतिक निर्णयों पर पहुंचने की वह संस्थागत व्यवस्था है जिसमें व्यक्तियों को लोगों के वोट के लिए प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष के माध्यम से निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त होती है.”
    • सीले (Seeley) के कथनानुसार, “लोकतंत्र एक ऐसी सरकार है जिसमें हरेक व्यक्ति का एक हिस्सा हो.”
    • लॉर्ड ब्रायस (Lord Bryce) के मतानुसार, “वह शासन जिसमें राज्य की सत्ता पूरे समाज के हाथ में है, समाज के किसी विशेष वर्ग या श्रेणी के पास नहीं.”

    यूूूूनान के प्रसिद्ध विद्वान् हेरोडोटस (Herodotus) ने, “लोकतंत्र को एक ऐसा शासन बताया है जिसमें सबसे ऊच शक्ति सभी लोगों के पास होती है.”

    अमेरिकी फुटबॉल कोच और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रेमंड गारफील्ड गेटेल के अनुसार, “लोकतंत्र शासन का वह रूप है जिसमें जनसंख्या के बहुत बड़े भाग को शासन के सर्वोच्च शक्ति का उपयोग करने का अधिकार प्राप्त होता है. राजनीतिक महानता पर लोगों का विश्वास है और इस विचार के विरुद्ध है के किसी एक श्रेणी को विशेष राजनीतिक रवायतें प्राप्त हो या राजनीतिक शक्तियों पर उसी श्रेणी का एकाधिकार हो.

    लोकतंत्र बहुमत के और लोगों की राय के अनुकूल कानून शासन करने पर जोर देता है. “लोकप्रिय बुद्धि और सदाचार इसके सबसे मूल्यवान परिणाम हैं. लोकप्रिय चुनाव, लोकप्रिय नियंत्रण और लोकप्रिय जिम्मेदारी न केवल सरकार में दक्षता बल्कि राज्य में स्थिरता भी सुनिश्चित करती हैं.”

    प्रजातंत्र से जुड़ी शब्दावली (Democracy related Vacabulary in Hindi)

    • तर्कबुद्धिवादी लोकतंत्र – सिमोन चैम्बर्स
    • संघर्षपूर्ण लोकतंत्र – फिलिप पेटिट
    • विमर्शी लोकतंत्र – जॉन ड्राइजेक
    • संचरीय लोकतंत्र – आइरिश मेरियन यंग

    लोकतंत्र कितने प्रकार के होते है? (Types of Democracy in Hindi)

    वास्तव में लोकतंत्र के दो प्रकार होते हैं- प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष. इसके दो अन्य प्रकार है- संवैधानिक व निगरानी लोकतंत्र. इस तरह लोकतंत्र के चार प्रकार है-

    1. प्रत्यक्ष लोकतंत्र (Direct Democracy in Hindi)

    जैसा की नाम से ही सुस्पष्ट है, इस तरह के लोकतान्त्रिक सत्ता में जनता किसी मसले पर सामूहिक रूप से निर्णय लेती है. इसे विशुद्ध लोकतंत्र भी कहा जाता है. इसमें सभी लोग निश्चित तिथि या रात में एक जगह एकत्रित होते हैं और समस्या के समाधान से जुड़े निर्णय लेते हैं. लेकिन आबादी अधिक होने पर, सभी लोग कई मसलों पर तुरंत फैसला नहीं ले सकते हैं. यह इसकी सबसे बड़ी खामी है. प्रत्यक्ष लोकतंत्र को लोकतंत्र का सबसे पुराना रूप भी कहते हैं.

    प्राचीन एथेंस के कई शहरों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र को अपनाया गया था. हालाँकि इसमें भी सिर्फ सैन्य प्रेक्षण पूरा किये हुए व्यस्क पुरुषों को ही हिस्सा लेने दिया जाता था. केवल वयस्क पुरुष जिन्होंने अपना सैन्य प्रशिक्षण पूरा किया हो. महिलाऐं, गुलाम व सामान्य नागरिक को इसमें भाग लेने की अनुमति नहीं थी.

    प्राचीन भारत के महाजनपदों में लिच्छवि गणराज्य में भी, कुलीनों के एक समूह द्वारा, शासन से जुड़े निर्णय सामूहिक रूप से ली जाती थी.

    भारत में आयोजित की जानेवाली ग्राम-सभाएं भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र का उदाहरण हैं. यहाँ मुखिया के अध्यक्षता में जनभागीदारी में ग्राम विकास के निर्णय लिए जाते है.

    हाल ही में ब्रिटेन में ब्रेक्जिट के लिए किया गया मतदान भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र का एक उदाहरण हैं.

    2. अप्रत्यक्ष लोकतंत्र (Indirect Democracy in Hindi)

    लोकतंत्र का यह प्रकार सबसे आधुनिक व लोकप्रिय हैं. इस प्रणाली में मतदाता एक निश्चित अवधि के लिए मतदान द्वारा अपने प्रतिनिधि का चुनाव करती है, जो शासन के जिम्मेदार होते है.

    इस तरह के लोकतंत्र में सामान्यतः सभी वयस्कों को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार दिया जाता है. इसे सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार भी कहा जाता हैं. इसके कुछ अपवाद भी होते है, जैसे कैदी व राजद्रोही. इसे ‘प्रतिनिधिक लोकतंत्र (Representative Democracy) के नाम से भी जाना जाता हैं.

    भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका व इंग्लैंड में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र हैं.

    3. संवैधानिक लोकतंत्र (Constituitional Democracy in Hindi)

    इसमें संविधान के अनुसार यह निर्णय लिया जाता है कि लोगों का प्रतिनिधित्व कौन और कैसे करेगा? भारत, अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया के लोकतंत्र की यह एक विशेषता हैं.

    4. निगरानी लोकतंत्र (Vigilance Democracy in Hindi)

    राजनीतिक वैज्ञानिक जॉन कीन का सुझाव है कि लोकतंत्र का एक नया रूप विकसित हो रहा है. इसमें सार्वजनिक और निजी एजेंसियां, आयोग और नियामक तंत्रों की एक विशाल उपशाखा द्वारा सरकार की लगातार निगरानी की जाती है. भारत में इसका एक उदाहरण है कृषि कानूनों का किसानों के समूह द्वारा विरोध किए जाने के बाद इसे सरकार द्वारा वापस लिया जाना.

    लोकतंत्र की विशेषताएं व यह क्यों जरूरी है? (Characteristics and Importance of Democracy in Hindi)

    आधुनिक युग में लोकतंत्र सबसे अधिक लोकप्रिय है. लोकतंत्र में व्यापक नैतिक मूल्य शामिल हैं. इसलिए लोकतंत्र को एक नैतिक आचरण भी माना जाता है. लोकतंत्र में जनता के पास कई अधिकार होते हैं, लेकिन यह राजतन्त्र या तानाशाही में सम्भव नहीं होता हैं. इसकी कुछ खासियत हैं-

    जनता के इक्षा पर निर्भर सरकार (Public Choiced Government)

    आधुनिक लोकतंत्र में सत्ता संचालन के लिए जनता द्वारा चार या पांच वर्षों के लिए सरकार का चयन किया जाता हैं. ऐसा हरेक बार सरकार का कार्यकाल समाप्त होने से कुछ समय पहले किया जाता हैं. लेकिन एक बार चुनाव हो जाने के बाद चुनी हुई सरकार स्वायत हो जाती है व अपने शेष कार्यकाल के दौरान मनमानी कर सकती है. लेकिन जनता ऐसा होने पर आन्दोलनों का सहारा ले लेती हैं जिससे सरकार को अपना निर्णय बदलना पड़ता है.

    दरअसल, ऐसे सरकार में शामिल लोग अगली बार भी चुनकर आना चाहते है. इसलिए वे कोई भी गलत निर्णय लेने से बचते है. इस तरह लोकतान्त्रिक सरकार कल्याणकारी व जनहितकारी फैसले लेती है. लेकिन राजतंत्र या तानाशाही प्रणाली में शासक का चुनाव नहीं किया जाता है, जिससे वे सामान्य जनता के कल्याण से अधिक खुद व अपने ख़ास लोगों के कल्याण पर ध्यान देती हैं.

    लोक कल्याणकारी राज्य (Welfare State in Hindi)

    प्रजातांत्रिक सरकार किसी विशेष जाति, वर्ग, पंथ, परंपरा, धर्म या समूह के हितों के लिए काम नहीं करती, बल्कि पुरे राज्य के हितों का ख्याल रखती है और सभी को उनके विकास के लिए समान अवसर प्रदान करती है. सरकार सभी के कल्याण के लिए आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक योजनाएँ बनाती है. अगर सरकार ऐसा नहीं करती है, तो लोगों के पास इसे अगले चुनाव में बदलने का विकल्प होता हैं.

    जवाबदेह सरकार (Responsible Government)

    ऐसी सरकार में जनता द्वारा सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार चुने गए प्रतिनिधि शामिल होते है. ये जनता के प्रति उत्तरदायी रहते हैं और यदि वे अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाते हैं, तो लोग उन्हें अगले चुनावों के दौरान बदल सकते हैं. इसलिए इसे जिम्मेदार सरकार माना जाता है.

    अच्छे व विकासोन्मुखी नीति का निर्माण (Good Policy and Decision)

    एक लोकतांत्रिक सरकार में प्रतिनिधियों का लोगों के साथ सीधा संबंध होता है. इसलिए वे उनकी समस्याओं और हितों को ठीक से समझते हैं. वे विधानसभाओं और संसद में लोगों के हितों का ठीक से रखते करते हैं और हमेशा अच्छे योजनाओं व नीतियों को बनवाकर पारित करने का प्रयास करते हैं. राजशाही व तानाशाही में ऐसा सिर्फ और सिर्फ राजा या तानाशाह के इक्षा पर निर्भर होता हैं.

    राजनैतिक जागरूकता (Political Awareness)

    जनता में जागरूकता इसका सबसे बड़ा शिक्षाप्रद नैतिक मूल्य है. चुनावों और अन्य राजनीतिक गतिविधियों में आम जनता भागीदार होती हैं. ऐसे में वे समकालीन व अन्य बहसों में हिस्सा लेते हैं. वे नीति व योजनाओं की व्याख्या भी करते हैं. वे गलत तथ्यों व नीतियों का आलोचना कर किसी सरकार या नेता के खिलाफ माहौल भी बनाते हैं. ये काम लोगों को बुद्धिमान और राजनीतिक रूप से जागरूक बनाती है.

    लोगों का जागरूक और बुद्धिमान होना राज्य संचालन में बहुत मददगार होता है. इसलिए लोकतंत्र में शिक्षा का अधिकार प्रत्येक नागरिक को निःशुल्क उपलब्ध होनी चाहिए.

    स्वतंत्रता, बंधुत्व और समानता का अस्तित्व (Liberty, Fraternity and Equality)

    इसमें लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता की अच्छी तरह से रक्षा की जाती है. लोगों को बिना किसी डर के अपने विचार व्यक्त करने की आजादी दी गई है. वे सरकार की गलत नीतियों की आलोचना कर सकते हैं. यह स्वायत्तता लोगों को समानता भी प्रदान करती है. सभी नागरिकों को समान अवसर मिलते है. सरकार का सभी के प्रति सामान व्यवहार से समाज में कटुता कम हो जाती है और भाईचारा को बढ़ावा मिलता हैं.

    कमजोर वर्ग व अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व (Representation of Weak and Minorities)

    कमोबेश दुनिया के सभी लोकतान्त्रिक देशों में बहुसंख्यकों के साथ-साथ कमजोर व अल्पसंख्यक वर्ग मौजूद हैं. ऐसे में लोकतान्त्रिक सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह कमजोर व अल्पसंख्यकों तबके के बहिष्कार या उत्पीड़न को कानून बनाकर रोके. लोकतान्त्रिक सरकार को हर संभव तरीके से जीवन और आजीविका में उनकी समान स्थिति रखने में सहायता करनी चाहिए.

    अधिकांश लोकतंत्र ऐसे वर्ग को जनसंख्या के आकार के अनुपात में प्रतिनिधि व सरकारी सेवाओं में पदों को आरक्षित करते हैं. शेष पद सभी के लिए उपलब्ध होते है. SC ST Act व आरक्षण भारत में इसका एक उदाहरण है.

    निर्णय की गुणवत्ता (Quality Decision Process)

    सरकार परामर्श व व्यापक बहस के बाद निर्णय लेती हैं. निर्णय-प्रक्रिया में कई लोग हिस्सा लेते है व कोई भी निर्णय व्यापक चर्चा और बैठकों के बाद ही ली जाती हैं. इस तरह कई लोग मिलकर फैसले, नीति या योजनाओं में छोटी-छोटी खामी भी ढूंढ निकलते है.

    यदि निर्णय गलत व जन-कल्याण के विपरीत हो तो, जनता को विरोध-प्रदर्शन करने की आजादी होती हैं. ऐसे अधिकतर मांगों को सरकार व्यापक अध्ययन के बाद मान भी लेती हैं. लेकिन अलोकतांत्रिक देशों में ऐसा नहीं होता हैं.

    संवैधानिक कानून के भीतर नियम (Within Constituitional Ambit)

    लोकतांत्रिक देश में सत्ताधारी सरकार नहीं, बल्कि संविधान सर्वोपरि होती है. सरकार एक विधायी निकाय होता है जो देश के संविधान द्वारा निर्धारित सर्वोच्च शक्ति इस्तेमाल करने का ताकत रखता है. एक नई सरकार एक निश्चित अवधि के बाद चुनी जाती है, उसके पास केवल कुछ स्थापित कानूनों में संशोधन करते हुए निर्णय लेने और उन्हें लागू करने की शक्तियां होती हैं. ऐसी सभी गतिविधियाँ देश के कानून और संविधान की देखरेख में ही की जा सकती हैं.

    विवाद और भेदभाव का निपटान (Disposal of Dispute and Discrimination)

    यह सभी नागरिकों को कुछ बुनियादी अधिकार प्रदान करता है जिसके माध्यम से वे अपनी राय दे सकते हैं. जैसे, संसद में सभी सदस्यों को अपनी राय देने का अधिकार होता है. जनता खुद भी पत्राचार के माध्यम से अपनी बात सरकार के सामने रख सकती है. लोकतंत्र नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने का अधिकार प्रदान करता है और धार्मिक व जातीय भेदभाव नहीं किया जाता है. इस तरह अधिकांश सामजिक विवादों का निपटान हो जाता हैं.

    गलती सुधारने का मौका (Opportunity to amend Mistakes)

    इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लोकतंत्र में शासको द्वारा गलतियाँ नहीं की जा सकतीं. सरकार का कोई भी रूप इसकी गारंटी नहीं दे सकता. लेकिन लोकतंत्र में यह लाभ है कि ऐसी गलतियों को लंबे समय तक छुपाया नहीं जा सकता है. अक्सर ये गलतियां सरकार बदलने पर सामने आ जाती है. साथ ही RTI जैसे कानून भी भ्रष्टाचार को बेपर्दा करते है. इन गलतियों पर सार्वजनिक चर्चा की गुंजाइश होती है और सुधार की भी.

    लोकतंत्र के प्रमुख सिद्धांत (Main Theories of Democracy in Hindi)

    स्वतंत्रता, समानता, भातृत्व व न्याय जैसे मूल्यों पर लोकतंत्र के चार प्रमुख सिद्धांत आधारित है. इसके अलावा भी इसके कई अन्य नैतिक मूल्य है, जिसके आधार पर यह शासन-प्रणाली विश्व के अधिकांश देशों में सुचारु रूप से लागु हैं. ये नैतिक मूल्य ही इस शासन व्यवस्था को सर्वोत्तम बनाती है.

    1. लोकतंत्र का पुरातन उदारवादी सिद्धांत (Archaic Liberal Theory of Democracy in Hindi)

    लोकतंत्र की उदारवादी परम्परा में स्वतंत्रता, समानता, मूल अधिकार, धर्मनिरपेक्षता और न्याय जैसे सर्व-स्वीकार्य मूल्यों पर आधारित है. इसके समर्थक इसे लोकतंत्र का सबसे बढियाँ प्रकार बताते है.

    सामंतवाद के पतन के बाद इसे ही शासन का मूल आधार बनाया गया था. मैक्फर्सन के अनुसार, यूरोप में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के आने से पहले ही इससे जुड़े मूल्यों का विकास हो गया. बाद में ये उदारवादी मूल्य, लोकतंत्र में बदल गए.

    लोकतंत्र का विकास व विस्तार में कई दार्शनिकों, विचारकों, लेखकों, क्रांतिकारियों, सामान्य नागरिकों व उद्योगपतियों ने अपना योगदान दिया. लेकिन इसमें सबसे अधिक योगदान पुनर्जागरण के दौरान उपजे वैचारिक समृद्धि को दिया जाता है. इस दौरान कई चित्रकार, लेखक व अन्य क्षेत्रों में विशेषज्ञ पैदा हुए, जिन्होंने लोकतंत्र के विकास में योगदान दिया.

    आरंभिक विचार

    लोकतान्त्रिक भावना के आरम्भिक चिह्न टॉमसमूर के पुस्तक यूटोपिया (1616) और विंस्टैनले जैसे अंग्रेज विचारकों और अंग्रेज अतिविशुद्धतावाद (प्यूरिटैनिजन्म) के साहित्य में पाया जा सकता है. भारत के समाज सुधारक संत रैदास के बेगमपुरा शहर संकल्पना में भी लोकतान्त्रिक भाव पाया जाता हैं.

    इसी क्रम में, थॉमस हॉब्स ने 1651 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘लेवियाथन’ में प्रमुख लोकतान्त्रिक सिद्धान्त की वकालत करते हुए लिखा कि सरकार का निर्माण जनता द्वारा एक सामाजिक संविदा के तहत होता है. सामाजिक संविदा के इस सिद्धांत के बाद ही लोकतांत्रिक भावना का सही से विकास हुआ.

    अंग्रेज दार्शनिक व राजनैतिक चिंतक जॉन लॉक ने प्रतिपादित किया कि सरकार जनता के द्वारा और उसी के हित के लिए होनी चाहिए. वहीं, पूंजीवाद समर्थक लेखक एडम स्मिथ ने मुक्त बाजार का सिद्धांत प्रस्तुत किया. यह भी लोकतान्त्रिक आधार पर आधारित था. उनके अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादन करने, खरीदने और बेचने की स्वतन्त्रता है.

    मिल और बेंथम (Mill and Bentham)

    प्रसिद्ध उपयोगितावादी दार्शनिक मिल और बेंथम ने ने अपने वाद इस माध्यम से लोकतंत्र को बौद्धिक आधार प्रदान किया. इनके अनुसार, लोकतंत्र अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख को अधिकतम संरक्षण प्रदान करता है. शासक व जनता एक-दूसरे से संरक्षण की आशा रखते हैं. इस उपयोगिता को बनाए रखने के लिए लोकतंत्र में – प्रतिनिधिमूलक लोकतन्त्र, संवैधानिक सरकार, नियमित चुनाव, गुप्त मतदान, प्रतियोगी दलीय राजनीति और बहुमत के द्वारा शासन – जैसे विशेषताओं की वकालत की.

    हालाँकि, अभी तक सार्वभौमिक मतदान को मान्यता नहीं मिली थी व दशकों को विश्व में सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार लागु हुआ. यहाँ तक कि मिल और बेन्थैम भी इसे लागु करने के पक्षधर नहीं थे. बाद में इसकी वकालत की गई, लेकिन आबादी के एक बड़े हिस्से को मतदान में शामिल नहीं किया गया. इस तरह उदारवादी लोकतंत्र के शुरुआती दौर में मताधिकार के अभाव में एक बड़े व कमजोर वर्ग की सत्ता से मोलभाव करने की क्षमता सिमित रही.

    फिर भी, बाद के उदारवादी विचारक लोकतन्त्र का समर्थन करते रहे. खासकर, पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका ने इसकी स्वीकार्यता को और आगे बढ़ाने का काम किया. आगे चलकर यह वर्त्तमान लोकतंत्र का आधार बना, जिसमें जनता के पास काफी अधिकार आ गए.

    कुछ खामियों के बावजूद, लोकतंत्र के इस सिद्धांत की वकालत की गई और कहा गया-

    • मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है. इसलिए अपना अच्छा बुरा व, उसके लिए सर्वोत्तम क्या है, जानता है,
    • राजनैतिक सत्ता जनता की अमानत होती है,
    • सराकर का उद्देश्य जनता का भलाई करना तथा राज्य का चंहमुखी विकास करना है,
    • सरकार सीमित व जनता के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए,
    • विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए,
    • व सरकार द्वारा लोकमत का आदर किया जाना चाहिए इत्यादि.

    लोकतंत्र के इस सिद्धांत के आलोचकों का मानना है कि-

    • इस सिद्धान्त के अनुसार, सभी मनुष्य विवेकशील होते है. इसलिए शासन के संचालन में जन सहभागिता होनी चाहिए. जबकि लार्ड ब्राइस, ग्राहम वाल्स इत्यादि विचारक मानते है कि मनुष्य उतना विवेकशील, तटस्थ व सक्रिय नहीं है, जितना कि इस सिद्धान्त के तहत उसे मान लिया गया है;
    • लोकतंत्र से यह अपेक्षा की जाती है कि प्रशासन सामान्य हित मे काम करेगा .लेकिन किसी भी समाज में सामान्य हित विभिन्न लोगों के लिए विभिन्न अर्थ हो सकते है;
    • यह सिद्धान्त मूल्यों तथा आदर्शों पर अधिक ध्यान देता है व राजनैतिक वास्तविकताओं पर कम. यह ऊंचे आदर्शों जैसे सामान्य इच्छा, लोगो का शासन, सामान्य कल्याण आदि से भरा पड़ा है, जिन्हें प्रयोगात्मक परीक्षण का विषय नहीं बनाया जा सकता, ये सभी शब्द भ्रामक है;
    • यह सिद्धान्त राजनीतिक समानता पर बल देता है, जबकि व्यावहारिक स्तर पर राजनैतिक समानता का हो पाना सम्भव नहीं होता है;
    • यह सिद्धान्त राजनीति में नेताओं, शासन करने वाले विशिष्ट वर्ग तथा संगठित संस्थाओं को उचित महत्व प्रदान नहीं करता.

    2. लोकतंत्र का अभिजनभाजी या विशिष्टवर्गीय सिद्धांत (Aristocracy- Elite Theory of Democracy)

    इस सिद्धांत के अनुसार ये माना जाता हैं कि लोकतंत्र में कुछ ख़ास लोग ही सारे निर्णय लेते हैं. जनता इसमें प्रत्यक्ष भाग नहीं लेती हैं. ये शक्तिशाली लोग जनमत को प्रभावित करने की क्षमता रखते है. इसलिए लोकतंत्र कुछ ख़ास लोगों (एलीट) के समूह का शासनतंत्र हैं. चूँकि इसमें एक छोटे से समूह या गुट का शासन पर नियंत्रण होता है, इसलिए इसे ‘गुट-तंत्र’ भी कहते है.

    एरिस्टोक्रेसी (अभिजात्य वर्ग का शासन) था जिसका ग्रीक में मतलब “बेहतरीन लोगों की सरकार” है. इस स्वरूप में कुछ लोग अपनी पूरी ज़िंदगी नेता बनने के लिए तैयारी करते हैं. इन पर गणतंत्र को चलाने की ज़िम्मेदारी होती है ताकि ये लोग समाज के लिए बुद्धिमतापूर्ण फ़ैसले ले सकें.

    एरिस्टोक्रेट पर प्लेटो (Plato on Aristocracy in Hindi)

    प्लेटो का मानना था कि ये एरिस्टोक्रेट निःस्वार्थ भाव और बुद्धिमत्ता से शासन करेंगे. हालांकि, ये आदर्श समाज हमेशा पतन की कगार पर खड़ा रहेगा. उन्होंने आशंका जताई कि पढ़े लिखे और बुद्धिमान लोगों के बच्चे आख़िरकार आराम और विशेषाधिकारों की वजह से भ्रष्ट हो जाएंगे. इसके बाद वे सिर्फ अपनी संपत्ति के बारे में सोचेंगे जिससे एरिस्टोक्रेसी एक ओलिगार्की (सीमित लोगों में निहित सत्ता वाला शासन) में तब्दील हो जाएगी. ग्रीक में इसका मतलब ‘कुछ लोगों का शासन’ होता है. इसे ही गुटतंत्र भी कहते है.

    आगे प्लेटो लिखते हैं, “जैसे-जैसे अमीर और अमीर होता जाएगा, वह और दौलत बनाने पर विचार करेगा और मूल्यों के बारे में कम सोचेगा.” जैसे-जैसे असमानता बढ़ती है, अशिक्षित ग़रीबों की संख्या अमीरों की संख्या से बढ़ने लगती है. और आख़िरकार ओलिगार्क की सत्ता ख़त्म हो जाएगी और राज्य एक वास्तविक लोकतंत्र में तब्दील हो जाएगा.

    अन्य विचारक

    इटली के दो महान समाज वैज्ञानिक विल्फ्रेडो पैरेटो व ग्रेटानो मोस्का, जर्मन इतालियन रॉबर्ट मिशेल्स और अमेरिकी लेखक जेम्स बर्नहाम तथा सी. राइट मिल्स इस सिद्धांत के प्रवर्तकों में गिने जाते है. इसका सुव्यवस्थित प्रतिपादन सर्वप्रथम जोसेफ शुंप्टर ने अपनी पुस्तक ‘कैपिटलिज्म, सोशलिज्म एंड डेमोक्रेसी‘ (पूंजीवाद, समाजवाद और लोकतंत्र, 1942) में किया है. बाद में सार्टोरी, रॉबर्ट डाल, इक्सटाईन, रेमंड अरोन, कार्ल मैन हियुमंड, सिडनी वर्बा आदि ने अपनी रचनाओं में इस मत का समर्थन किया है.

    इस सिद्धांत की विशेषताएं है-

    • सत्ता संचालन समाज के सर्वोच्च सबके पास होता है, जो अपने विधा में महारत रखते है. इस तरह राज्य का बेहतर प्रबंधन हो पाता है.
    • अभिजनवर्ग में नए लोग शामिल होते हैं और पुराने लोग बाहर हो जाते है. इस तरह यह हमेशा एक जैसा नहीं रहता है और परिवारवाद, राजशाही जैसी समस्या पैदा नहीं हो पाती.
    • बहुसंख्यक वर्ग संतोषप्रद रहता है, क्योंकि वह जानता है कि राज्य के सर्वोत्तम व्यक्तियों का समूह सत्ता संचालन कर रहा है.
    • आम जनता समान रूप से योग्य नहीं होते है, इसलिए अभिजन वर्ग के पास सत्ता रहना श्रेयस्कर होता हैं.
    • बहुसंख्यक जनसमुदाय में अधिकांश भावशून्य, आलसी और उदासीन होते हैं. इसलिए एक ऐसा अल्पसंख्यक वर्ग का होना आवश्यक है जो राज्य को नेतृत्व प्रदान करे.
    • आज के युग में शासक अभिजनवर्ग में मुख्य रूप से बुद्धिजीवी, औद्योगिक प्रबंधक और नौकरशाह शामिल है.

    आलोचनाएं-

    अभिजनवाद की कई विचारकों ने आलोचना की है. इन आलोचलो में सी. बी. मैक्फर्सन, ग्रीम डंकन, बैरी होल्डन, रॉबर्ट डाल आदि प्रमुख हैं. इस सिद्धान्त के विरुद्ध मुख्य आपत्तियां निम्नलिखित हैं:

    1. अभिजनवाद में जनता का काम केवल प्रतिनिधियों को चुनना भर होता है. इस तरह शासन संचालन में उनके पास बोलने-कहने को अधिकार नहीं रह जाता और ऐसी स्थिति में का मूल उद्देश्य ही गौण हो जाता है. इस तरह यह लोकतंत्र का अर्थ विकृत कर इसे अलोकतांत्रिक बना देता है. अभिजनवाद लोकतंत्र की आधारभूत विशेषताओं की उपेक्षा कर इसे स्वेच्छाचारी बना देता है.
    2. लोकतंत्र के पुरातन अवधारणा के अनुसार इसका लक्ष्य लोक-कल्याण व मानवजाति का उन्नयन है. लेकिन अभिजन सिद्धान्त इस नैतिक पक्ष की अवहेलना कर देता है. इसमें अल्पसंख्यक अभिजनवर्ग के शासन की निष्क्रिय स्वीकृति हो जाती है और व जनता के जगह खुद के विकास में लग जाते हैं. इस तरह, यह सिद्धांत लोकतंत्र की परंपरागत पुरातन अवधारणा के नैतिक उद्देश्य को समाप्त कर देता है.
    3. अभिजन सिद्धान्त सहभागिता का महत्त्व घटा देता है. अभिजन दावा करते है जनता के पास विशेषज्ञता नहीं है. इसलिए, सहभागिता संभव है ही नहीं. अभिजन द्वारा मनमाना योजना व कानून जनता पर थोप दिया जाता है. इस तरह जनता द्वारा शासन असंभव हो जाता है.
    4. अभिजन सिद्धान्त एक सामान्य जनता को राजनीतिक दृष्टि से अक्षम और निष्क्रिय मानता है. जनता ऐसी होती है जो अपना जीवन-निर्वाह करता है, शाम में अपने परिवार या मित्रों के बीच अथवा मीडिया के साधनों के उपयोग में अपना समय बिताता है और श्रेष्ठी समूहों में से किसी एक को समय-समय पर चुनने के अतिरिक्त कुछ नही करता. इस तरह इस सिद्धांत में जनता को सिर्फ एक मतदाता के तौर पर देखा जाता है. इससे अधिक उसके पास कोई अधिकार नहीं होते है.
    5. यह सिद्धांत लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा मौलिक परिवर्तन लाने के बदले प्रणाली के स्थायित्व बनाए रखने पर जोर देता है. वह सामाजिक आन्दोलन को लोकतंत्र के लिए खतरा और अभिजनवर्ग द्वारा व्यवस्थित कानूनी प्रक्रिया के लिए विघटनकारी मानता है. इस तरह अभिजनवर्ग सामूहिक तानाशाही को जन्म देती है.

    3. लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत (Pluralistic Theory of Democracy in Hindi)

    यह समाज में एक छोटे से समूह तक सीमित करने के बदले उसे प्रसारित और विकेन्द्रीकृत कर देता है. बहुलवादी सिद्धांत की उत्पत्ति अभिजन सिद्धांत की आंशिक प्रतिक्रिया के रूप में हुई थी. इस सिद्धांत से उम्मीद की जाति है कि उदारवादी लोकतंत्र में अभिजनवाद की प्रवृत्ति को निष्प्रभावी कर देगा और सही जनाकांक्षा को प्रकट करेगा.

    बहुलवादी मानते है कि लोकतंत्र में कई समूह अपने फायदे के लिए सक्रीय रहते है. ये है- व्यापारी घराने और उद्योगपति, सौदागर, श्रमिक संगठन, किसान संगठन, उपभोक्ता, मतदाता इत्यादि. ये खुद के लाभ के लिए संघर्षशील रहते है व अपने मांगो को मनवाने के लिए विभिन्न प्रकार के दवाब की रणनीति अपनाते है. जैसे हड़ताल, रोजगारमूलक निवेश, निर्यातोन्मुखी निवेश, धरना-प्रदर्शन, सड़क जाम इत्यादि.

    मान्यता

    इसके सिद्धनकारों का मानना है कि कई समूहों के सक्रीय रहने से ये एक-दूसरे का अत्यधिक प्रभावी क्षमता को सिमित कर देते है व लोकतंत्र का लाभ विस्तृत रूप में बड़े आबादी को मिलता है. चूँकि इसमें दवाब समूह सक्रिय होते है, जो सरकार पर अपनी बातों को मनवाने के ले दवाब डालते है. इसलिए बहुलवादी सिद्धान्तों को कभी-कभार अभिजनवर्ग सिद्धान्तों से आंशिक रूप में ही भिन्न समझा जाता है.

    इस अवधारणा का विकास मुख्य रूप से अमेरिका में हुआ है. इसके प्रणेताओं में एस. एम. लिण्सेट, रॉबर्ट डाल, वी. प्रेस्थस, एफ. हंटर आदि प्रमुख विचारक व लेखक शामिल हैं.

    इस तरह बहुलवादी सिद्धान्त की विशेषताएँ है-

    • यह सिद्धान्त राज्य को कई समुदायों का एकल समुदाय मानता है.
    • यह सिद्धान्त नागरिकों को दंड देने का अधिकार देता हैं जो राजनेताओं के व्यवहार को सन्तुलित बनाए रखने व उन्हें निरंकुश बनने से रोकता है.
    • इस सिद्धांत के अनुसार, लोकतंत्र सर्वोत्तम तरीके से तभी काम करता है जब नागरिक अपने विशेष हितों के समर्थक समूह से जुड़ जाते हैं.

    हालाँकि, बहुलतावाद के कुछ आलोचनाएं भी है-

    • यह सिद्धान्त रूढ़िवाद को बढ़ावा देता है व यथास्थितिवादी है,
    • जब एक समूह-विशेष अपनी संपूर्ण कार्य सूची को मनवा लेता है तो अन्य समूह आक्रोशित हो उठते हैं. कभी-कभी स्थिति गंभीर हो जाति है.
    • कई बार लोग राष्ट्रवादी अथवा अन्य अभिप्रेरणाओं से अपने हित भूल जाते है, इसलिए इसे मानवीय विकास के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है.

    4. लोकतंत्र का सहभागिता सिद्धांत (Participatory Principle of Democracy in Hindi)

    इस सिद्धांत ने आम जनता की राजनीतिक कार्यों में भागीदारी को जोरदार समर्थन किया जैसे – मतदान करना, राजनीतिक दलों की सदस्यता, चुनावों मे अभियान कार्य आदि. यह सिद्धांत 1960 के बाद विकसित हुआ. इसका विकास मूल रूप से विशिष्टतावादी व बहुलवादी सिद्धांतो के प्रतिक्रिया के रूप में हुई. इस सिद्धांत के आरंभिक मुख्य पैरोकार, कैरोल पेर्लमैन, सी. बी. मैक्फर्सन और एन. पॉलैन्ट, है.

    सहभागिता सिद्धांत में माना जाता है कि सच्चे लोकतंत्र का निर्माण तभी हो सकता है जब नागरिक राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय हों और सामूहिक समस्याओं में निरंतर अभिरूचि लेते रहें. इससे समाज की प्रमुख संस्थाओं के पर्याप्त विनिमय होगा और राजनीतिक दलों में अधिक खुलापन और उत्तरदायित्व के भाव विकसित होंगे.

    जन सामान्य से निम्न कार्यों में सहभागी होने की आशा की जाती है-

    1. चुनावों में मतदान व अभियान कार्य
    2. राजनीतिक दलों की सदस्यता एवं गतिविधियों में शिरकत
    3. संघों, स्वैच्छिक संगठनों और गैर-सरकारी संगठनों जैसे दबाव तथा लॉबिंग समूहों की सदस्यता और सक्रिय साझेदारी
    4. प्रदर्शनों में उपस्थिति, औद्योगिक हड़तालों में शिरकत (विशेषकर जिनके उद्देश्य राजनीतिक हों अथवा जो सार्वजनिक नीति को बदलने अथवा प्रभावित करने को अभिप्रेत हों)
    5. सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भागीदारी, यथा- कर चुकाने से इन्कार इत्यादि
    6. उपभोक्ता परिषद् की सदस्यता
    7. सामाजिक नीतियों के क्रियान्वयन में सहभागिता
    8. महिलाओं और बच्चों के विकास, परिवार नियोजन, पर्यावरण संरक्षण, इत्यादि सामुदायिक विकास के कार्यों में भागीदारी, इत्यादि.

    सहभागी लोकतंत्र की खूबियां :

    • विधायिकाओं, लोकसेवाओं, राजनीतिक दलों का लोकतांत्रिकरण, जिससे लोकतंत्र उत्तरदायी बनते है
    • शक्तियों का विकेन्द्रीकरण व नीतियों के निर्माण व शासन कार्यों में लोगों की भागीदारी बढ़ने पर जोर
    • राजनीतिक मुद्दों व निर्णयों का समाजीकरण की मांग ताकि समाज के सभी व्यक्ति उसमें अपने हितों का निरीक्षण सके
    • लोकतांत्रिक निर्णय में नए आयामों की संभावना को सुरक्षित करने के लिए राज्य की संस्थात्मक व्यवस्था का कुछ हिस्सा खाली होनी चाहिए.

    आलोचनाएं

    • सहभागिता को बढ़ावा, किन्तु सहभागिता हमेशा सकारात्मक हो, ये इस सिद्धांत में आवश्यक नहीं.
    • सहभागिता बढ़ने से गुणात्मकता का अभाव व अव्यवस्था उतपन्न हो सकता है. इससे जल्द निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित हो सकती है.
    • अत्यधिक दवाब की स्थिति में कार्यपालिका सभी कार्यों को निपटाने में असक्षम हो सकती है.

    5. लोकतंत्र का मार्क्सवादी सिद्धांत (Marxists Theory of Democracy in Hindi)

    मार्क्सवादी लोकतंत्र के पैरोकार मानते है कि पूंजीवादी व्यवस्था में लोकतांत्रिक अधिकार सिर्फ साधन-संपन्न वर्ग के हाथ में होता है, इसलिए वे ऐसा लोकतंत्र चाहते हैं जो वास्तव में ‘जनता का लोकतंत्र‘ (People’s Democracy) हो. इसमें शासन के साथ-साथ धन व सम्पदा पर सभी जनता के समान नियंत्रण की वकालत कि गई है.

    इस तरह, मार्क्सवादी लोकतंत्र में उत्पादन के साधनों पर पूंजीपतियों के स्वामित्व को खत्म करने और आम जनता द्वारा अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के पश्चात् समाजवादी लोकतंत्र की स्थापना का उद्देश्य पूरा किया जाता है. इसमें, भूमि, कल कारखाने इत्यादि पर सरकार के माध्यम से जनता का स्वामित्व होता है.

    राज्य के पास सारी उत्पादक पूंजीगत परिसंपत्तियों का नियंत्रण होता है. इस तरह उत्पादन से प्राप्त लाभ सभी को समान रूप से प्राप्त होता है. प्रत्येक नागरिक को आगे बढ़ने के समान अवसर उपलब्ध होते हैं.

    मार्क्स और एंगेल्स (Marx and Angles on Democracy in Hindi)

    अपनी रचना ‘द क्रिटिक ऑफ द गोथा प्रोग्राम‘ (गोथा कार्यक्रम की समीक्षा- 1875) में मार्क्स और एंगेल्स ने अपनी अवधारणा को स्पष्ट किया है. उनका मानना है कि शासक राज्य का अधिनायक होता है.

    पूंजीवाद में अधिनायकवाद को संचालित करने वाला ‘संपन्न औद्योगिक और व्यापारी बुर्जुआ’ होता है. लेकिन साम्यवाद सर्वाहारा वर्ग केंद्रित होती है. इस तरह सर्वहारा (सभी वर्ग) अधिनायकवाद की स्थापना होती है.

    मार्क्स व एंजेल्स के सिद्धांत पर आधारित पहले लोकतंत्र की स्थान का श्रेय रुसी क्रन्तिकारी लेनिन को जाता है. इन्होंने साल 1917 में रूस की सफल क्रांति के बाद रूस में इसकी स्थापना की. लेकिन उन्होंने संचालन सुविधा के लिए कुछ परिवर्तन किए व कुछ नए सिद्धांत जोड़ दिए.

    लेनिन के अनुसार, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद विशाल सर्वहारा संगठन या साम्यवादी दल द्वारा ही प्रयोग में लाया जा सकता है. उन्होंने लोकतंत्र की तीन अवस्थाएं बताईः पूंजीवादी लोकतंत्र, समाजवादी लोकतंत्र और साम्यवादी लोकतंत्र.

    कार्ल मार्क्स के अनुसार, मजदूर/ कामगार वस्तु को उत्पादित करते समय उसमें मूल्य निर्मित करता है. लेकिन उसे वह नहीं मिलता जिसका वह उत्पादन करता है. उसे वेवल वेतन मिलता है और वेतन से उपर जो कुछ भी होता है वह मालिक ले जाता है. यह अतिरिक्त मूल्य है. अतिरिक्त मूल्य श्रमिक द्वारा उत्पादित मूल्य और उसे प्राप्त होने वाले वेतन के बीच का अंतर है.

    आसान भाषा में (Easily Described in Hindi)

    सरल शब्दों में मजदूर को वेतन प्राप्त होता है और मालिक को लाभ. यह अतिरिक्त मूल्य धनी को और धनी और निर्धन को और निर्धन बनाता है. अतिरिक्त मूल्य के दम पर ही पूँजीपति पनपते हैं. मार्क्सवादी लोकतंत्र में, पूंजीपति को प्राप्त होने वाले लाभ मजदूरों को हस्तांतरित की जाती है.

    वी . आई. लेनिन का मानना था कि बुर्जुआ वर्ग काफी शक्तिशाली होता है. इसलिए समाजवादी लोकतंत्र के आरंभिक दौर में ही सर्वहारा वर्ग बलपूर्वक पूंजीवादी वर्ग का उन्मूलन कर दे. उन्होंने सर्वहारा अधिनायकवाद के दो लक्ष्य- क्रांति को बचाना, और एक नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को संघटित करना बताया है.

    मार्क्सवादी लोकतंत्र की विशेषताएं:-

    (1) इसमें राजकीय एवं आर्थिक व्यवस्था के अधिकार अल्पसंख्यक उद्योगपतियों और व्यापारिक घरानों के हाथों से श्रमिकों के हाथ आ जाता हैं.

    (2) उत्पादन के साधनों – भूमि, कल कारखानें इत्यादि- पर जनता का स्वामित्व होता है. सभी नागरिक के लिए नियोजन के समान अवसर होते हैं.

    (3) समाजवादी लोकतंत्र में सारे कार्मिक सीधे तौर पर चुने जाते हैं तथा पुलिस और सैन्य बल का स्थान नागरिक सेना ले लेती है. सारे सरकारी सेवक श्रमिक के रूप में समान वेतन पाते हैं.

    (4) सामाजिक स्तर पर विरासत का चलन समाप्त हो जाता है. राज्य निःशुल्क शिक्षा प्रदान करती हैं. चूँकि उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण व सम्पत्ति का समान वितरण होता है. इससे गांवों और शहरों के बीच आबादी का न्यायसंगत वितरण हो जाता है.

    (5) मार्क्सवादी विश्लेषण के अनुसार जब समाजवादी समाज धीरे-धीरे पूर्ण साम्यवाद की ओर अग्रसर होने लगता है. इस अवस्था में राज्य व्यवस्था का अंत हो जाता है और उसके स्थान पर एक प्रकार का स्व-शासन कायम हो जाता है.

    आलोचनाएं

    इसमें साम्यवादी दलों के शीर्ष पर कुछ दबग व ताकतवर लोग ही पहुँच पाते है. इससे विशाल जनसमुदाय का अधिनायकवाद के बदले विशाल जनसमुदाय पर अधिनायकवाद स्थापित हो जाता है.

    उत्पादन का सम्पूर्ण नियंत्रण राज्य के हाथों में रहता है. इस तरह प्रतिद्वंदी उत्पादक समाप्त हो जाते है. इससे रचनात्मकता व नवीन प्रद्योगिकी के विकास में बाधा उत्पन्न हो जाती है.

    लोगों में खुद के बदले राज्य के विकास के लिए काम करने की भावना जगाई जाती है. लेकिन लोग अपना जीवन सुधारने के लिए काम करना चाहते है. इससे लोग अकर्मण्यता का शिकार हो जाते है. इस तरह लोगों को काम पर समय बिताने के बदले मेहताना कमा रहे होता है.

    लोकतंत्र के सैद्धांतिक स्तम्भ हैं (Theoretical Pillars of Democracy in Hindi)

    जनभागीदारी या सहभागिता: लोकतंत्र में नागरिकों की भागीदारी का एक महत्वपूर्ण भूमिका है. यह उनका अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है. नागरिकों की भागीदारी में- चुनाव के लिए उम्मीदवार होना, चुनाव में मतदान करना, मुद्दों पर बहस करना, समुदाय या नागरिक बैठकों में भाग लेना, निजी स्वैच्छिक संगठनों के सदस्य होने, करों का भुगतान करना आदि शामिल हैं. विरोध करना भी नागरिक भागीदारी का हिस्सा है. जन-भागीदारी एक बेहतर लोकतंत्र का निर्माण करती है.

    मानवाधिकार (Human Rights)

    लोकतंत्र नागरिकों के मानवाधिकारों का सम्मान और रक्षा करने का गारंटी देता हैं. मानवाधिकार से तात्पर्य उन मूल्यों से है जो मानव जीवन और मानव गरिमा के प्रति सम्मान को दर्शाते हैं. लोकतंत्र हर इंसान के स्वतंत्रता व गरिमा को सम्मान देता है. मानवाधिकारों के उदाहरणों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की (संघ) स्वतंत्रता, सभा की स्वतंत्रता, समानता का अधिकार और शिक्षा का अधिकार शामिल हैं.

    बहुदलीय प्रणाली (Multi-Party System)

    इसमें, एक से अधिक राजनीतिक दलों को चुनावों में भाग लेने की स्वतंत्रता होता है और विजेता दल या दलों के संगठन को सरकार में भागीदार होना पड़ता है. बहुदलीय व्यवस्था में विजेता दल की नीतियों के विरोध की अनुमति होती है. यह सरकार को मुद्दों पर विभिन्न दृष्टिकोण प्रदान करने में मदद करता है.

    एक बहुदलीय प्रणाली, मतदाताओं को वोट देने के लिए उम्मीदवारों, पार्टियों और नीतियों का विकल्प प्रदान करती है. ऐतिहासिक रूप से, जब किसी देश में केवल एक ही पार्टी होती है, तो इसका परिणाम तानाशाही रहा है.

    समानता (Equality)

    लोकतांत्रिक समाज इस सिद्धांत पर जोर देता है कि सभी लोग समान हैं. समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान महत्व दिया जाएं व सबके लिए एक समान कानून हो. समान अवसरों पर, व्यक्तियों के साथ उनकी जाति, धर्म, जातीय समूह, लिंग या यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है. हालाँकि सरकार गरीब व कमजोर लोगों के समूह के झुकाव में नीतियां बनाती हैं, तो इसे उचित व लोककल्याणकारी माना जाता हैं.

    लोकतंत्र में, व्यक्ति को अपने पसंद के अनुसार संस्कृतियों, व्यक्तित्वों, भाषाओं और विश्वासों को चुनने की आजादी होती है. लेकिन भारत में इसका एक अपवाद है, वह हैं जाति. कोई व्यक्ति अपनी जाति अपने अनुसार नहीं चुनता, बल्कि इसे जन्म से ही निर्धारित कर दिया जाता हैं.

    शासन की जवाबदेही (Responsible Administration)

    लोकतंत्र में निर्वाचित और नियुक्त अधिकारी जनता के प्रति जवाबदेह होते है. वे अपने कार्यों के लिए खुद जिम्मेदार होते हैं. अधिकारी अपने लिए नहीं बल्कि जनता की हित में निर्णय लेते है. इस तरह विधायिका और कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का पालन करते है.

    राजनीतिक सहिष्णुता (Political Tolerance in Hindi)

    लोकतांत्रिक समाज राजनीतिक रूप से सहिष्णु होता हैं. इसका मतलब यह है कि जब लोकतंत्र में बहुमत का शासन होता है, तो अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए. जो सत्ता में नहीं हैं उन्हें संगठित होने और बोलने की अनुमति दी जानी चाहिए. व्यक्तिगत नागरिकों को भी एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना सीखना चाहिए.

    एक लोकतांत्रिक समाज अक्सर विभिन्न संस्कृतियों के लोगों से बना होता है; नस्लीय, धार्मिक और जातीय समूह जिनका दृष्टिकोण बहुसंख्यक आबादी से भिन्न होता है. एक लोकतांत्रिक समाज विविधता से समृद्ध होते है. यदि बहुमत अपने विरोधियों को अधिकारों से वंचित करता है, तो वे लोकतंत्र को भी नष्ट कर देते हैं. लोकतंत्र के लक्ष्यों में से एक समाज के लिए सर्वोत्तम सम्भाव्य निर्णय लेना है.

    पारदर्शिता (Transparency)

    सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए लोगों को इसके प्रति जागरूक होना चाहिए कि देश में क्या हो रहा है. यदि जनता सरकार के कार्यों तक पहुँच रख पा रही हैं तो इसे सरकार में पारदर्शिता माना जाता है. एक पारदर्शी सरकार सार्वजनिक बैठकें करती है और नागरिकों को भाग लेने की अनुमति देती है. पारदर्शी लोकतंत्र में प्रेस और जनता यह जानने में सक्षम होती है कि कौन से निर्णय, किसके द्वारा और क्यों लिए जा रहे हैं?

    आर्थिक स्वतंत्रता (Economic Freedom)

    लोकतंत्र में लोगों को किसी न किसी रूप में आर्थिक स्वतंत्रता होनी चाहिए. इसका मतलब है कि सरकार संपत्ति और व्यवसायों के कुछ निजी स्वामित्व की अनुमति देती है और लोगों को अपनी नौकरी और श्रमिक संघों को चुनने की अनुमति होती है.

    सत्ता के दुरूपयोग पर नियंत्रण (Control on Misuse of Power in Hindi)

    लोकतांत्रिक समाज किसी भी अधिकारी या निर्वाचित प्रतिनिधि को अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने से रोकने की कोशिश करते हैं. सत्ता के सबसे आम दुरुपयोगों में से एक भ्रष्टाचार है. भ्रष्टाचार तब होता है जब सरकारी अधिकारी जनता के पैसे का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं या सत्ता का दुरूपयोग कर लाभ कमाते हैं.

    इन दुर्व्यवहारों से बचाव के लिए विभिन्न देशों में विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल किया है. किसी ख़ास स्वायत या अर्द्ध-स्वायत संगठन या सरकार की शाखा को किसी भी अवैध कार्रवाई के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति प्राप्त होती है. लोकायुक्त की अवधारणा ऐसी ही एक मांग है.

    सार्वजनिक शिक्षण (Public Education)

    एक शिक्षित नागरिक बेहतर निर्णय ले सकता है. इसलिए सरकार को निःशुल्क व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सभी नागरिकों को उपलब्ध करवाना चाहिए. सामुदायिक लाइब्रेरी उपलब्ध करवाना भी इस दिशा में एक कोशिश है.

    अधिकारों का बिल (Bill of Rights)

    कई लोकतांत्रिक देश लोगों को सत्ता के दुरुपयोग से बचाने के लिए अधिकारों का बिल लागू करते हैं. अधिकारों का कानून देश के सभी लोगों को प्राप्त गारंटीकृत अधिकारों और स्वतंत्रता की एक सूची है. जब अधिकारों का बिल किसी देश के संविधान का हिस्सा बन जाता है, तो अदालतों के पास इन अधिकारों को लागू करने की शक्ति होती है. अधिकारों का विधेयक सरकार की शक्ति को सीमित करता है और अवमानना पर व्यक्तियों और संगठनों पर अर्थदंड भी लगा सकता है.

    भाषण, अभिव्यक्ति और पसंद की स्वतंत्रता (Liberty to speech, express and choice)

    वह शासन जो जनता की आवाज को दबाता या रोकता है, वह अलोकतांत्रिक होता है. लोकतंत्र में सभी को भाषण,अभिव्यक्ति व पसंद की आजादी होती है. कोई विचार या भाषण भले ही वह सत्ताधारी पार्टी के लिए खिलाफ हो, उसे प्रसारित होने से नहीं रोकना लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी है. लोगों को ये आजादी उत्पीड़न के डर के बिना उपलब्ध होना चाहिए.

    इसी तर्ज पर, एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक को अपने विवेक के आधार पर स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम होना चाहिए. लेकिन यह उस सीमा तक ही उपलब्ध होना चाहिए जहाँ तक यह देश के कानूनों या किसी अन्य व्यक्ति के लिए खतरा पैदा न करें. कार्यों की यह स्वतंत्रता ही लोकतंत्र को फलदायी व लोकप्रिय बनाती है.

    किसी व्यक्ति को सरकार का जो निर्णय गलत लगता है, उसका विरोध की आजादी एक कानूनी अधिकार होना चाहिए. मूल रूप से यही एकमात्र चीज है जो सत्ताधारी दलों को गलत कार्यों और नीतियों को लागू करने से रोके रखती है.

    निष्पक्ष व स्वतंत्र मीडिया (Fair and Independent Media in Hindi)

    पत्रकारिता, प्रेस व समाचार को “लोकतंत्र का चौथा खम्भा” कहा जाता है. मीडिया यानी जनसंचार सेवाएं ही सरकार के फैसलों व नए नीतियों का सम्प्रेषण आम जनता तक करती है. इसके बाद ही जनता फैसले का विश्लेषण करती है व नए सिरे से जनमत का निर्माण होता है. अतः मीडिया को सरकार से जुड़े ख़बरों को प्रसारण करने की पूरी आजादी होनी चाहिए.

    स्वायत्त न्यायपालिका: न्यायपालिका ही कार्यपकिला व विधायक के फैसलों का समीक्षा करती है. इसलिए लोकतंत्र में इस पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए अपितु इसे सरकार की भांति राज्य के एक अंग के रूप में काम करना चाहिए.

    सामान्यतः लोकतान्त्रिक देशों में न्यायपालिका को कानूनों के व्याख्या का अधिकार होना चाहिए. हालाँकि, इसमें भी विधायिका व कार्यपालिका के भांति सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व हो तो, अच्छा माना जाता है.

    स्वतंत्र, निष्पक्ष व क्रमिक चुनाव (Free, Fair and Regular Elections in Hindi)

    देश के नागरिक अपनी इच्छा के अनुसार सरकार में उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए राजनेताओं का चुनाव करते हैं. एक स्वास्थ्य व सुचारु लोकतंत्र में ये निर्वाचित जन-प्रतिनिधि स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुने जाते हैं और शांतिपूर्वक पद से हटा दिए जाते हैं. इनका चुनाव गुप्त सार्वभौमिक वयस्क मतदान द्वारा होता है.

    चुनाव के दौरान या चुनाव से पहले नागरिकों को धमकाना, भ्रष्टाचार से जनमत को अपने पक्ष में करना और जनता को डराना लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ है. अपवादों को छोड़कर सभी नागरिकों को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में उम्मीदवार बनने का अधिकार होता है.

    कानून का शासन: लोकतंत्र में कानून से ऊपर कोई नहीं है, यहां तक ​​कि राजा या निर्वाचित राष्ट्रपति भी नहीं. इसे ‘कानून का राज’ कहते हैं. इसका मतलब यह है कि हर किसी को कानून का पालन करना चाहिए और अगर वे इसका उल्लंघन करते हैं तो उन्हें जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए.

    इसे कभी-कभी “कानून की उचित प्रक्रिया” के रूप में भी जाना जाता है. अधिकांश पुलिस व सरकारी विभाग के अन्य एजेंसियां इसे धरातल पर लागु करवाने में सरकार का सहयोग करते हैं.

    लोकतंत्र के पक्ष व विपक्ष में तर्क (Pros and Cons of Democracy in Hindi)

    जनतंत्र के पक्ष में तर्क इस प्रकार हैं:-

    • प्रजातंत्र में लोग समसामयिक मुद्दों पर बहस करते है. वे अपने देश को आगे बढ़ाने की बात भी करते है. इससे नागरिकों में देश प्रेम की भावना का विकास होता है.
    • राजनैतिक दल अपने संचालन के लिए चंदा एकत्रित करते है. इससे दानदाता जनता में विश्वास एवं उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है.
    • एक प्रजातांत्रिक सरकार को राजतन्त्र व तानाशाही से सबसे बेहतर माना जाता है. जन-दवाब में यह देश को विकास की ओर ले जा सकती है.
    • इसमें जनता के पास सरकार बदलने का विकप होता है. इस तरह यह क्रांति से सुरक्षा प्रदान करता है.
    • लोकतंत्र मतभेदों और सामाजिक व अन्य संघर्षों से निपटने का तरीका प्रदान करता है.
    • लोकतांत्रिक निर्णय से पहले व बाद में हमेशा चर्चाएं और बैठकें होती हैं. अतः लोकतंत्र, निर्णय लेने की गुणवत्ता में भी सुधार करता है.
    • यह प्रणाली राजनीतिक समानता के सिद्धांत पर आधारित है. नागरिक शासन में भागीदार होते है. इसलिए यह नागरिकों की गरिमा को बढ़ाता है.
    • यह निति-निर्माताओं व सरकार को अपनी गलतियों को सुधारने की अनुमति देता है.

    प्रजातंत्र के विरोध में तर्क इस प्रकार हैं:

    • बार-बार चुनाव के वजह से यह एक खर्चीला शासन है. राजनैतिक दल भी व्यापक खर्च करते है, जिसकी भरपाई भ्रष्टाचार से होती है. साथ ही, लोकतंत्र में नेता व सरकार बदलते रहते हैं, जिससे अक्सर अस्थिरता पैदा होती है.
    • कई बार जन-प्रतिनिधि को लोगों के सर्वोत्तम हितों का पता नहीं होता है, इस तरह वे गलत निर्णय ले सकते हैं.
    • लोकतंत्र सभी को शासक बनने का अवसर उपलब्ध करवाता है. इसे राज्य में एक बड़ा वर्ग पैदा हो जाता है, जिनमे राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और सत्ता पाने की भावना होती है. उच्च प्रतियोगिता के दौर में, नैतिकता की कोई गुंजाइश नहीं होती है.
    • प्रजातंत्र गुणों पर नहीं बल्कि संख्या पर बल देता है. कपटी पेशेवर राजनीतिक लोग बेवकूफ लोगों का मत प्राप्त कर सत्तासीन हो जाते है. इसलिए लोकतंत्र को जुगाड़ का शासन भी कह दिया जाता है.
    • मतदान में वे लोग भी भाग लेते है, जिन्हे सही व गलत का पता नहीं होता है. कई बार जनता गलत नेता का चयन भी कर लेते है. इसलिए इसे ‘मूर्खों का शासन’ भी कहा जाता हैं.
    • चुनाव जितने के लिए कई तरह के जतन नेताओं को करने पड़ते है. यह चुनावी प्रतिस्पर्धा राज्य को भ्रष्टाचार की ओर ले जाता है.
    • लोकतंत्र में बहुत सारे दवाब समूह होते है. इसलिए कई लोगों से परामर्श लेना पड़ता है, जिससे उचित निर्णय लेने में देरी होती है. इसलिए इसे संकट काल के लिए अनुपयुक्त माना जाता है.

    लोकतंत्रीय शासन प्रणाली के प्रकार (Types of Democratic Governance System in Hindi)

    आधुनिक युग में लोकतंत्रीय शासन प्रणाली के प्रकार के दो प्रकार है, एक संसदीय प्रणाली व दूसरा अध्यक्षीय प्रणाली. अधिकतर देशों ने संसदीय प्रणाली को अपनाया गया है. इसमें सभी निर्वाचित जनप्रतिनिधि संसद के सदस्य होते है. कुछ लोगों को संविधान के अनुसार नामित भी किया जाता है. भारत व ब्रिटेन ने जहाँ संसदीय प्रणाली अपनाया है, वहीं अमेरिका ने अध्यक्षीय प्रणाली को अपनाया है. हालाँकि, दोनों में संसद उपलब्ध है.

    1. संसदात्मक प्रणाली (parliamentary system)

    इसमें कार्यपालिका अपनी लोकतांत्रिक वैधता विधायिका के माध्यम से प्राप्त करती है और विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है. इस प्रकार संसदीय प्रणाली में, कार्यपालिका और विधायिका, एक-दूसरे से परस्पर संबंधित होते हैं. इस प्रणाली में राज्य का मुखिया (राष्ट्रपति) तथा सरकार का मुखिया (प्रधानमंत्री) अलग-अलग व्यक्ति होते हैं.

    भारत की संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति और ब्रिटेन के महाराज नाममात्र की कार्यपालिका है तथा प्रधानमंत्री तथा उसका मंत्रिमंडल वास्तविक कार्यपालिका है. इसमें प्रधानमंत्री देश की शासन व्यवस्था का सर्वोच्च प्रधान होता है. हालाँकि संविधान के अनुसार राष्ट्र का सर्वोच्च प्रधान राष्ट्रपति होता है. लेकिन देश की शासन व्यवस्था की बागडोर प्रधानमंत्री के हाथों में ही होती है. राष्ट्रपति सिर्फ मंत्रिमंडल के निर्णय को लागू करने का आदेश जारी करते है. आम (भारत में लोकसभा व ब्रिटेन में हाउस ऑफ़ कॉमन्स) चुनाव में सर्वाधिक सीटों पर जीत दर्ज करने वाला राजनीतिक दल सरकार बनाता है.

    2. अध्यक्षीय प्रणाली (presidential system)

    लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के इस प्रणाली में प्रायः राज्य का प्रमुख (राष्ट्राध्यक्ष) सरकार (कार्यपालिका) का भी अध्यक्ष होता है. इसमें कार्यपालिका अपनी लोकतांत्रिक वैधता के लिये विधायिका पर निर्भर नहीं रहती है एवं राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका प्रमुख होता है.

    अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में राज्य का मुखिया तथा सरकार का मुखिया एक ही व्यक्ति होते हैं. इस प्रणाली में कार्यपालिका और विधायिका एक-दूसरे से संबंधित नहीं होते हैं. कार्यपालिका अपनी नीतियों एवं कार्यों के लिये विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती है. परिणामस्वरूप कार्यपालिका निर्धारित समय तक अपना कार्य करती है. इस प्रणाली में राष्ट्रपति शासक होता है, न की जनप्रतिनिधियों का समूह यानि संसद.

    लोकतंत्र के विकास के चरण (Stages of Democracy’s Development in HIndi)

    लोकतंत्र के विकास को 5 चरणों में विभाजित किया जाता है. ये है- आरंभिक व प्राचीन, मध्यकाल व शुरुआती आधुनिक काल, द्वितीय विश्व युद्ध व सोवियत का पतन, व आधुनिक काल में नेपाल की क्रांति व अरब स्प्रिंग.

    प्राचीन व आरंभिक (Ancient and Inception of Democracy in Hindi)

    क्लिस्थनीज ने 508-507 ईसा पूर्व में एथेंस में लोकतंत्र स्थापित किया था. इसलिए क्लिस्थनीज को “एथेनियन लोकतंत्र का जनक” कहा जाता है. लोकतंत्र शब्द का पहला प्रमाणित उपयोग 430 ईसा पूर्व के गद्य कार्यों, जैसे हेरोडोटस के ‘हिस्ट्री’ में पाया जाता है. लेकिन इसे और भी प्राचीन माना जाता है.

    470 के दशक में पैदा हुए दो एथेनियाई लोगों को डेमोक्रेट्स नाम दिया गया था. संभावित लोकतंत्र के समर्थन में यह एक नया राजनीतिक नाम था. यह नाम एथेंस में संवैधानिक मुद्दों पर बहस के समय दिया गया. एस्किलस ने 463 ईसा पूर्व में अपने नाटक “द सप्लिएंट्स” में भी इस शब्द का उल्लेख किया है, जहां उन्होंने “डेमोस रूलिंग हैंड” (demou kratousa cheir-डेमो क्रेटौसा चीयर) का उल्लेख किया है. उस समय से पहले, क्लिस्थनीज की नई राजनीतिक व्यवस्था को परिभाषित करने के लिए “आइसोनोमिया” शब्द का इस्तेमाल किया जाता था, जिसका अर्थ “राजनीतिक समानता” है.

    मध्य व शुरुआती आधुनिक काल (Medieval and Initial Modern Era)

    15 जून 1215 ईस्वी में इंग्लैंड के राजा जॉन ने थेम्स नदी के किनारे स्थित रनीमीड स्थान पर मैग्नाकार्टा या अधिकार पत्र जारी किया था. यह वास्तव में सामंतो दी गई कुछ अधिकार थे. लेकिन इसमें अन्य लोगों को भी कई अधिकार दे दिए गए थे. इसलिए इसके प्रति लोगों का सम्मान काफी समय तक कायम रहा. बाद में मध्यकाल व आधुनिक काल में इसकी चर्चा होती रही व इसी से मौलिक अधिकार के अवधारणा का विकास हुआ.

    मध्यकाल तक यूरोप के अधिकांश देशों में निरंकुश राजतंत्र स्थापित था, जिसका आधार राजत्व के दैवी सिद्धान्त था. इसमें सामंती प्रणाली लागु थी व आम जनों को नाममात्र के अधिकार प्राप्त थे. इस कालावधि में ही रूसो, प्लूटो, अरस्तु, कार्ल मार्क्स, एंजेल्स, नेपोलियन बोनापार्ट, वाल्तेयर व मॉन्टेस्क्यू जैसे अनगिनत महान व्यक्तित्वों का जन्म हुआ. इन्होंने आम जनता को लोकत्रांत्रिक शासन-व्यवस्था के लिए प्रेरित किया.

    फ़्रांस और अमेरिका की क्रांति (Revolution of France and America)

    इसी दौर में फ़्रांस और अमेरिका में जनक्रांति हुए. फ़्रांस की क्रांति ने समानता, स्वतंत्रता व बंधुता का जो सन्देश दिया, वह धीरे-धीरे पुरे यूरोप व दुनिया में फ़ैल गया. फ़्रांसिसी क्रांति का ये नैरा ही बाद में लोकतंत्र का 3 मूल आधार बन गए.परिणाम ये हुआ कि 1926 के आते-आते 30 से अधिक देशों ने लोकतंत्र को अपना लिया. इनमे अमेरिका, फ़्रांस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड, व जर्मनी जैसे देश शामिल थे. इसे लोकतंत्र का पहला लहर या चरण कहा जाता है. ग्रीस दुनिया का पहला देश है, जिसने लोकतान्त्रिक पद्धति अपनाया था.

    मध्यकाल में हुए इन परिवर्तनों का उद्देश्य स्वेच्छाचारी राजतन्त्र से मुक्ति पाना था. इन देशों के विकास को देखकर अन्य देशों में भी लोकतंत्र कि मांग उठने लगी.

    द्वितीय विश्व युद्ध व सोवियत का पतन (2nd World War and Dissolution of Soviet)

    द्वितीय विश्व युद्ध में यूरोप के देश आपस में लड़ मिटे. इससे कई नए व स्वतंत्र राष्ट्रों का उदय हुआ. इनमे ऑस्ट्रिया, भारत, पाकिस्तान, इटली, पश्चिमी जर्मनी, जापान व इजराइल जैसे देश शामिल थे. इन देशों ने भी लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली को अपना लिया. इसे लोकतंत्र का दूसरा लहर कहा गया.

    1970 और 1980 के दशक में पुर्तगाल, स्पेन, चिली ,अर्जेंटीना, पूर्वी यूरोप व जर्मनी और दक्षिण अमेरिका में कई सैन्य तानाशाही अंत हुआ. यहां लोकतंत्र लागु हुआ व ये देश नागरिक शासन के तहत आ गए. सोवियत को द्वितीय विश्व युद्ध इ बाद मिलें इलाकों में भी इसी दौरान लोकतंत्र स्थापित हुआ. इस दौरान ही इस दौर को लोकतंत्र की तीसरी लहर का दौर कहा जाता है.

    सोवियत संघ के पतन के बाद रूस से कई देश स्वतंत्र हो गए. इनमे अधिकांश देशों ने लोकतंत्र को अपनाया. यूक्रेन व लाटविया ऐसे देश है.

    नेपाल की क्रांति व अरब स्प्रिंग (Nepal Revolution and Arab Spring in Hindi)

    21वीं सदी के शुरुआती दौर में हुए ये क्रांति लोकतंत्र के विकास के लिहाज से काफी महत्वूर्ण है. इस समय तक कई देशों में दशकों से लोकतंत्र स्थापित थे व दुनिया के लोग इसके नैतिक मूल्यों से सुपरिचित थे. ऐसे में ये क्रांति लोकतान्त्रिक मूल्यों व मुल्क अधिकारों को लागू करवाने के मांग के साथ हुए. लोकतंत्र के इस “चौथी लहर” का शुरुआत ‘अरब स्प्रिंग’ के साथ माना जाता है.

    अरब स्प्रिंग के दौरान, मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, लेबनान, जॉर्डन, कुवैत, ओमान और सूडान में लगातार व गंभीर सड़क प्रदर्शन हुए. जिबूती, मॉरिटानिया, फिलिस्तीन, सऊदी अरब और मोरक्को के कब्जे वाले पश्चिमी सहारा में मामूली विरोध प्रदर्शन हुए. अरब जगत में इन प्रदर्शनकारियों का एक प्रमुख नारा है अश-शब यूरीद इस्क़ां अन-निशाम, इसका अर्थ है लोग शासन को नीचे लाना चाहते हैं.

    इसका शुरुआत यह असमानता, भ्रष्टाचार और आर्थिक गतिरोध के विरोध में सबसे पहले ट्यूनीशिया से हुआ. फिर पांच अन्य देशों – लीबिया, मिस्र, यमन, सीरिया और बहरीन – में यह फैल गया. साल 2012 के आते-आते सम्पूर्ण अरब जगत इसके चपेट में थे.

    लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तें व चुनौतियाँ (Conditions for Success of Democracy and Threats to it in Hindi)

    लोकतंत्र में जनता का महत्व काफी अधिक होता है. इसलिए इसके सामने कई चुनौतियाँ भी है, जिससे पर पाकर एक सफल लोकतंत्र की स्थापना की जा सकती है-

    • शिक्षित नागरिक जागरूक व राजनीतिक में रुचि रखते है. इसलिए लोकतंत्र में नागरिक का शिक्षित होना निहायत जरुरी है.
    • देश में शांति और सुव्यवस्था का वातावरण बनाए हो, इससे देश आर्थिक प्रगति की और अग्रसारित होता है.
    • आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय की स्थापना करने सामाजिक सद्भाव कायम होता है. जनता की जीवन-स्तर जितना ऊँचा होगा, वह उतना ही बिना किसी दबाव के शासन के कार्यों में भाग ल सकेगा.
    • निर्वाचन समय पर एवं निष्पक्ष होना लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत ही आवश्यक है.
    • निष्पक्ष न्यायपालिका, मीडिया व चुनाव तंत्र लोकतंत्र की सफलता के लिए अहम भूमिका निभाता है.
    • जनमत निर्माण के साधन जैसे समाचार पत्र ,पत्रिकाएं, सभा, संगठन ऐसी कई सारे प्रकार के चीजे, जो लोकतंत्र को प्रभावित करता है, पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार ना हो.
    • स्थानीय स्वशासन लोकतंत्र की प्राथमिक पाठशाला होती है. इसलिए इसका विकास बहुत ही आवश्यक है.
    • लिखित संविधान और उसका अनुपालन लोकतंत्र में अहम भूमिका निभाते हैं.
    • प्रभावशाली और शक्तिशाली विरोधी दल के अभाव में सरकार निर्गुण और लापरवाह हो जाती है. साथ ही सत्ता का दुरुपयोग करने लगती है. इसलिए मजबूत विपक्ष लोकतंत्र के लिए आवश्यक होता है.

    लोकतंत्र की महत्ता (Importance of Democracy in Hindi)

    प्रजातान्त्रिक शासन अनेक प्रकार की आलोचना और दोषों के होते हुए इसका अपना एक अलग ही महत्व है. लोकतांत्रिक शासन पद्धति बाकी सभी पद्धति से बेहतर है क्योंकि:-

    • लोगों की जरूरत के अनुरूप आचरण करने के मामले में यह शासन प्रणाली किसी अन्य शासन प्रणाली से बहुत ही बेहतर है.
    • यह शासन का अधिक जवाबदेही वाला स्वरूप होता है.
    • बेहतर निर्णय देने की संभावना बढ़ाने के लिए लोकतंत्र सबसे अलग भूमिका निभाता है.
    • मतभेदों और टकराव को संभालने का सबसे बेहतर तरीका उपलब्ध कराता है.
    • जनता एवं नागरिकों का सम्मान बढ़ाता है.
    • इसमें जनता को अपनी गलती ठीक करने का अवसर भी दिया जाता है.

    लोकतंत्र और राजशाही/ तानाशाही के बीच अंतर क्या हैं? (Difference between Democracy and Dictatorship)

    राजशाही व तानाशाही के पतन के बाद ही लोकतंत्र का उदय हुआ है. दोनों की तुलना किसी भी स्तर पर नहीं किया जा सकता. हालाँकि दुनिया के कई देशों में आज भी तानाशाही है. हरेक राजशाही में एक तानाशाह हो, ऐसा नहीं होता. लेकिन तानाशाही में राजतन्त्र के गन भी कई बार समाहित हो जाते है. इसका सबसे बेहतर उदाहरण है उत्तरी कोरिया.

    फ़िलहाल, अफगानिस्तान, घाना, म्यांमार और वेटिकन सिटी किसी न किसी रूप में लोकतंत्र की परिधि से बाहर के देश हैं. इसके अलावा सऊदी अरब, जार्डन, मोरक्को, भूटान, ब्रूनेई, कुवैत, यूएई, बहरीन, ओमान, कतर, स्वाजीलैंड आदि देशों में राजतंत्र है. हाल ही में नेपाल से राजतन्त्र समाप्त हुआ है व उसने लोकतंत्र को अपना लिया है. तो आइये जानते है लोकतंत्र और तानाशाही के बीच अंतर क्या हैं-

    • लोकतंत्र नागरिकों को समानता प्रदान करता है. नागरिकों को अपना शासक या प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है. हालाँकि, तानाशाही में देश के तानाशाह के नियमों और इच्छाओं के आदेशों का नागरिकों को आँख बंद करके पालन करना होता है.
    • लोकतंत्र में नागरिक संघर्षों को हल करने के लिए उचित तौर-तरीके शामिल हैं, चाहे वह देश के भीतर या देश के बाहर का मामला हो; जबकि तानाशाही में अपने नागरिकों के बीच संघर्ष समाधान के लिए ऐसी कोई विशेषता नहीं है.
    • जनतांत्रिक सरकार को वैध सरकार का एक रूप माना जाता है, क्योंकि यह जनता द्वारा चुना गया होता है. दूसरी ओर, तानाशाही अक्सर वंशानुगत होती है, जिसका चुनाव तानाशाह के परिजन करते है या पूर्व तानाशाह करके गए होते है. ये तानाशाह अक्सर क्रूर होते है, जिस वजह से देश को अकारण बदनामी झेलनी पड़ती है.

    जनहितकारी सरकार (Public Interest Government)

    लोकतान्त्रिक सरकारें सुव्यवस्थित होती है. सभी तरह के समस्याओं से निपटने के लिए पूर्व-निर्धारित कानून व नियम होते है. कई बार तो सरकार ऑनलाइन माध्यम से जनता से सुझाव भी मांग लेती है. इस तरह ये सरकारें संकट के समय बेहतरीन काम करती है. दूसरी ओर, तानाशाही अपने मन के अनुसार निर्णय लेता है, इन जनता के पास नियमों या फैसलों पर सवाल उठाने का कोई अधिकार नहीं होता है.

    लोकतंत्र एक जवाबदेह राजनीतिक व्यवस्था है. सरकार को अपने फैसलों के लिए जवाबदेह ठहराया जा सकता है और प्रदान किए गए अधिकारों के जरिए नागरिक सवाल कर सकते हैं और पूछताछ कर सकते हैं कि ख़ास निर्णय लेने के मामले में क्या हो रहा है. तानाशाह अपने निजी हितों को जनता से अधिक तरजीह देता है. अधिकारविहीन जनता आवाज भी उठा नहीं पाती है.

    तानाशाही: जीवन का उत्पीड़न (Dictatorship: Threat to Life)

    आज के समय में भी कई देश ऐसे हैं जो शासन के तानाशाही रूप के दौर से गुजर रहे हैं. वे देश हैं ईरान, चीन, उत्तर कोरिया, वेनेजुएला, सीरिया, मिस्र, कंबोडिया, कजाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार. विभिन्न देशों पर शासन करने वाले कुछ क्रूर तानाशाह हैं, अयातुल्ला खामेनेई, बशर अल असद, किम जोंग उन, नूरसुल्तान नज़रबायेव, अब्दुल फतेह अल सीसी, शी जिनपिंग और हुन सेन.

    तानाशाही में कभी-कभार बिना किसी चुनाव के एक पार्टी का शासन होता है, जबकि लोकतंत्र में नियमित और लगातार चुनाव होते हैं जिसमें सभी नागरिकों के वोट शामिल होते हैं.

    लोकतंत्र में, जनता की आवाज को शासन के मामलों में प्राथमिक प्राथमिकता दी जाती है, जबकि एक तानाशाही में लोगों को प्रभावी ढंग से खामोश कर दिया जाता है और सरकार के लिए उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं होती है. कई बार तानाशाही शासन में आवाज उठाने के कारण सैकड़ो लोग अपना जान तक गावं बैठते है. यह लोकतंत्र और तानाशाही के बीच एक बड़ा अंतर है.

    तानाशाही में, सरकार के पास नीतियों और विनियमों को लागू करने के लिए अनियंत्रित शक्ति होता है. वह सिर्फ और सिर्फ अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करती है. लेकिन लोकतंत्र में जनता का अंकुश होता है और सरकार जनहित का सम्मान करती है और इसको ख़ास तरजीह देती है.

    लोकतंत्रमें सबसे ज्यादा वोट और जनसमर्थन पाने वाला व्यक्ति नेता बनता है. दूसरी ओर, तानाशाही में केवल एक ही शासक होता है जिसने अवैध रूप से सत्ता हथिया ली है और पूरे देश पर लोहे के हाथ से (क्रूर तरीके से) शासन करता है.

    विश्व के प्रमुख प्रजातान्त्रिक देश और उनके संसद के नाम क्या हैं? (Main Democratic Countries and its Parliament in Hindi)

    • भारत और ब्रिटेन (UK) – संसद और पार्लियामेंट (parliament)
    • नेपाल – राष्ट्रीय पंचायत
    • स्पेन – कॉर्टेक्स
    • रूस – ड्यूमा(duma)
    • मिस्र – पीपुल्स असेंबली(people’s assembly)
    • चीन – नेशनल पीपुल्स कांग्रेस(national people’s Congress)
    • जर्मनी – बुड्स टेग
    • फ्रांस – नेशनल असेंबली(national assembly)
    • मंगोलिया – खुरल
    • बांग्लादेश – जातीय संसद
    • ईरान – मजलिस
    • आयरलैंड – डेल आयरन(del iron)
    • ताइवान – युवान
    • मलेशिया – दीवान निगारा
    • इजराइल – नेसेट
    • पाकिस्तान – नेशनल असेंबली
    • जापान – डायट
    • स्विट्जरलैंड- फेडरल असेंबली
    • मालदीव – मजलिस
    • तुर्की – ग्रैंड नेशनल असेंबली
    • स्वीडन – रिक्सडॉग
    • ऑस्ट्रेलिया – पार्लियामेंट
    • नार्वे – स्टार्टिंग
    • यूएसए(संयुक्त राज्य अमेरिका) – कॉन्ग्रेस
    • भूटान – त्सोनंडगू
    • डेनमार्क – फॉल्केटिंग
    • पोलैंड – शोजिम
    • कनाडा – पार्लियामेंट
    • फिनलैंड – एडु सकुस्ता
    • इटली – सीनेट
    • कुवैत – नेशनल असेंबली
    • केन्या – नेशनल असेंबली
    • उत्तरी कोरिया – सुप्रीम पीपुल्स असेंबली
    • आइसलैंड – एलपिंगी
    • सऊदी अरब – मजलिस अस शूरा
    • अजरबैजान – मेंली मजलिस
    • श्रीलंका – श्रीलंका पार्लीअमेंथुआ
    • लिथुआनिया – सीमस

    भारत में लोकतंत्र (Democracy of India in Hindi)

    भारत में 26 जनवरी 1950 को संविधान को लागु किया गया था, जिसमे लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली को अपनाया गया था. इसे तैयार करने में डॉ भीमराव आंबेडकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इसलिए उन्हें भारतीय प्रजातंत्र का जनक भी कहा जाता है. भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान है.

    भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहां राष्ट्रपति राज्य के प्रमुख होता है. लेकिन, प्रधानमंत्री देश की केंद्र सरकार और कार्यपालिका के देश का वास्तविक प्रधान होता है. भारत में शासन के लिए संघीय ढांचे को अपनाया गया है.

    केंद्र-राज्य ढांचा (Centre-State Structure in Hindi)

    संघीय ढांचे में द्वि-स्तरीय सरकार होती है, जिसमें दोनों की शक्तियों और कार्यों का स्पष्ट दायरा होता है. इस व्यवस्था में केन्द्र की सरकार तथा इकाइयों की सरकारें एक सुस्पष्ट क्षेत्र में कार्य करती हैं तथा अपने कार्यों में समन्वय स्थापित करती हैं. वे सभी विषय, जो किसी को आवंटित न हुए हो, केंद्र के लिए आरक्षित होती है.

    अंतर्राष्ट्रीय व अतिमहत्वपूर्ण राष्ट्रिय मामले केंद्र के अधीन, शेष राज्यों के अधीन आते है. कुछ मामले जैसे स्वास्थ्य व शिक्षा, दोनो के अधीन आते हैं. ऐसा बंटवारा शासन के सुचारु संचालन को ध्यान में रखकर किया गया है. सरकार का एक तीसरा रूप भी होता है जिसे पंचायत या नगर-निकाय कहा जाता है. स्थानीय मसलों का हल अधिकतर राज्य व पंचायत ही करती है. इसलिए जनता इनसे अधिक लगाव महसूस करते है व लोकतंत्र के प्रति जनता में आस्था का विकास होता है.

    सबसे बड़ा लोकतंत्र (The Largest Democracy in Hindi)

    भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत में लगभग 70 करोड़ लोग अपने मत का प्रयोग करके सरकार को चुनते हैं. मतदाताओं की विशाल संख्या दुनिया के किसी अन्य लोकतंत्र में नह मिलती है.

    भारत के लोकतंत्र में सामाजिक लोकतंत्र का समावेश है. इसका तात्पर्य है कि समाज में नस्ल, रंग (वर्ण), जाति, धर्म, भाषा, लिंग, धन, जन्म आदि के आधार पर व्यक्तियों के बीच भेद नहीं किया जाएगा और सभी व्यक्तियों को व्यक्ति के रूप में समान समझा जाता है.

    बहुदलीय प्रणाली (Multi-Party System in Hindi)

    भारत ने लोकतंत्र के बहुदलीय प्रणाली को अपनाया है. इससे विभिन्न विचारधारा के समूह, आसानी से अपना राजनैतिक दल बना पते है. इन्हे चुनाव में भाग लेने की पूर्ण आजादी होती है. भारत में कोई भी व्यक्ति चुनाव में उम्मीदवार हो सकता है. इस तरह भारत में कोई खास विचारधारा मनवाने के लिए क्रांति का सहारा नहीं लेना पड़ता है. विचारक अपने विचार जनता में ले जाते है, जहाँ चुनाव में उनके विचार पर मतदान द्वारा आमजन राय व्यक्त कर देते है. इस तरह भारतीय लोकतंत्र राजनीतिक समानता पर आधारित है.

    भारत में सभी दलों को एक राष्ट्रीय, राज्य या स्थानीय व छोटे पार्टी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है. इसके लिए कानून में कुछ खास प्रावधान किए गए है. साथ ही, किसी पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए, उसे भारत के चुनाव आयोग के साथ पंजीकृत होनाआवश्यक है. न्यायपालिका के भांति, यह एक स्वतंत्र निकाय है जिसे सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है.

    केंद्र सरकार में सदनों का विभाजन (Division of Assemblies)

    चुने हुए जनप्रतिनिधियों के लिए केंद्र में द्विसदनीय विधायिका है- राज्यसभा और लोकसभा. राज्य सभी को उच्च सदन और लोकसभा को निचला सदन कहते है.

    लोकसभा के सदस्यों का चुनाव देश के आम मतदाता करते है. पुरे देश को फिलहाल 543 लोकसभा क्षेत्रों में विभाजित किया गया है. जो दल या दलों का समूह 272 या इससे अधिक मत प्राप्त करती है, उसे सामान्य बहुमत प्राप्त हो जाता है. ये दल ही सरकार का गठन करती है. सरकार में न शामिल होने वाले दल विपक्षी दल कहलाते है. विपक्षी दलों का मुख्य काम सरकार के नीतियों की खामियों को जनता तक ले जाना व जनता के लिए आवाज उठाना है.

    राज्य सभा के 245 सदस्य होते है. इनमें से 233 सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से राज्य विधान सभा के प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हैं. शेष 12 का मनोनयन भारत के राष्ट्रपति कला, साहित्य, खेल आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उनके विशेष योगदान के लिए करते हैं.

    अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस (International Day of Democracy in Hindi)

    8 नवम्बर 2007 को संयुक्त राष्ट्र कि महासभा ने हरेक वर्ष 15 सितम्बर को अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाने कि घोषणा की थी. इसके बाद सबसे पहले साल 2008 में अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाया गया. इसकी 2020 की थीम ‘कोविड -19 : ए स्पॉटलाइट ऑन डेमोक्रेसी’ थी. वहीं, 2019 में थीम ‘भागीदारी’ थी. लोकतंत्र के प्रति जागरूकता फैलाना ही ‘अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस’ का उद्देश्य है.

    चलते-चलते (Conclusion)

    संक्षेप में, लोकतंत्र का मतलब लोगों को निर्णय लेने में भाग लेने के लिए सशक्त बनाना, व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करना और अल्पसंख्यक अधिकारों का सम्मान करते हुए बहुमत का शासन सुनिश्चित करना है. यह शासन-तंत्र समय के साथ विकसित और समृद्ध हुआ है. फिर भी इसे आज कई चुनौतियों का सामना पड़ रहा है. लेकिन इसके मूल सिद्धांत न्यायपूर्ण और समावेशी समाज के लिए आवश्यक है.

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