दिल्ली के प्रारम्भिक सुलतानों में गयासुद्दीन बलबन सबसे महान और योग्य शासक था. उसने सुलतान की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को नए रूप में धरातल पर स्थापित की तुर्की राज्य का विस्तार किया तथा सुदृढ प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की. उसने सुलतान नासिरूद्दीन के नायब के रूप में राज्य की अद्भुत सेवा की और विघटन शक्तियों पर पूरा अंकुश रखा. तुर्की अमीरों एवं सुलतान के बीच टकराव को समाप्त किया और मंगोलों के आक्रमण से राज्य की रक्षा की. उसे उलुग खां की उपाधि से विभूषित किया गया.
सुलतान महमूद के समय में सत्ता की बाग-डोर बलबन के हाथों में रही. 1266 ई0 में सुलतान महमूद की मृत्यु के साथ ही इल्तुतमिश के वंश का शासन समाप्त हो गया. परिस्थिति का लाभ उठाकर गयासुद्दीन बलबन स्वंय ही सुलतान बन बैठा.
गयासुद्दीन बलबन का प्रारंभिक जीवन (Early Life of Ghiyasuddin Balban)
बलबन का वास्तविक नाम बहाउद्दीन था. वह अपने आप को अफरासियब वंश (ईरान का प्रसिद्ध वंश) से सम्बन्ध मानता था. परन्तु इसकी कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नही है. अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि बलबन इलबरी तुर्क जनजाति का था. उसका जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था. उसके पिता या पितामह इलबरी तुर्क के एक बड़े कबीलें के मुखिया थे.
दुर्भाग्यवश बलबन अपनी युवावस्था में ही मंगोलों द्वारा बंदी बना लिया गया. मंगोलों ने उसे बसरा ले जाकर दास के रूप में ख्वाजा जलालुद्दीन के हाथों बेच दिया. 1223 ई0 में बलबन की योग्यता से प्रभावित होकर इल्तुतमिश ने उसे खरीद लिया और अपने दासों के दल में सम्मिलित कर लिया. अपनी प्रतिभा के बल पर बलबन निरंतर प्रगति करता गया.
इल्तुतमिश में आरम्भ में उसे अपने नौकर के रूप में रखा. लेकिन शीघ्र ही उसे चालीसा में शामिल कर लिया. रूकनुद्दीन का विरोध करने एवं रज़िया का पक्ष लेने के कारण उसे कुछ समय कारागार में व्यतीत करना पड़ा.
रजिया ने सुलतान बनने के पश्चात बलबन को अमीर-ए-शिकार के पद पर नियुक्त किया. रजिया के समय में हुए सत्ता संघर्ष में बलबन ने बहरामशाह का पक्ष लेकर अपने लिए अमीर-ए-आखूर का पद प्राप्त कर लिया. उसे रेवाड़ी और हाँसी की जागीर भी दी गई. सुलतान मसूदशाह के समय में गयासुद्दीन बलबन को अमीर-ए-हाजिब का पद सौपा गया. इसी समय उसने मंगोलों को पराजित कर उन पर अधिकार कर लिया. इससे बलबन की शक्ति और प्रतिष्ठा और अधिक बढ़ गई. उसने मसूदशाह को अपदस्थ कर सुलतान नासिरूद्दीन महमूद को गद्दी पर बिठाया.
नायब के रूप में बलबन
सुलतान नासिरूद्दीन महमूद का शासन बलबन के राजनीतिक उत्कर्ष का काल था. उसके पूरे शासनकाल में बलबन ही शक्ति का केन्द्र बना रहा. वह नायब मुमलकत बनाया गया और उसे उलुग खां की उपाधि प्रदान की गई.
इस अवधि में बलबन ने न केवल अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त कर अपनी आंतरिक शक्ति सुदृढ की, बल्कि सल्तनत की महत्वपूर्ण सेवा भी की. उसने मंगोलों की विस्तारवादी शक्ति पर अंकुश लगा दिया. खोखरों मेवातियों, राजपूतों एवं अन्य विद्रोहियों का दमन किया. अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह सुलतान के साथ कर दिया.
गयासुद्दीन बलबन की समस्याएँ
इल्तुतमिश के पश्चात राजनीतिक षड़यंत्रों, अधिकारियों की मनमानी एवं निहित स्वार्थी तथा अयोग्य शासकों के शासन के दौरान सम्पूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी थी. चारों तरफ अव्यवस्था एवं अराजकता व्याप्त थी. राजदरबार षड़यंत्रों एवं गुटबाजी का अड्डा था. चालीसा की शक्ति अत्यन्त बढ़ गई थी. विभिन्न सरदारों एवं अमीरों ने अपनी शक्ति बढ़ा ली थी जिन पर अंकुश नितांत आवश्यक था.
सुलतान की शक्ति और गरिमा नष्ट हो चुकी थी. वह नाम मात्र का शासक था. सुलतान तुर्क अमीरों के हाथ का कठपुतली बन चुका था. उलेमा वर्ग भी राजनीति में दखल दे रहा था. राज्य की आंतरिक अव्यवस्था का लाभ उठाकर राजपूत शासक पुनः तुर्को को भारत से बाहर खदेड़ने एवं अपनी राजनीतिक सर्वोच्चता स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे. सिन्ध और पंजाब पर अपना प्रभाव स्थापित कर अब मंगोल दिल्ली विजय का स्वप्न देख रहे थे.
संक्षेप में गयासुद्दीन बलबन जैसे शक्तिशाली व्यक्ति के लिए स्थिति भयावह थी. परन्तु बलबन ने दृढता पूर्वक इस स्थिति का सामना किया. उसने सुलतान की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की, ‘चालीसा’ का प्रभाव समाप्त किया. आंतरिक विद्रोहों को दबाया. मंगोल आक्रमण से राज्य की सुरक्षा की व्यवस्था की तथा प्रशासन का पुनर्गठन किया. बलबन के इन कार्यों से सल्तनत की स्थिति पहले क अपेक्षा अधिक सुदृढ़ हुई.
बलबन के सैन्य कार्य (Military System of Balban in Hindi)
गयासुद्दीन बलबन ने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ करने के लिए व्यापक प्रशासनिक सुधार किए. अपने विरोधियों का दमन करने के लिए कठोर नीति अपनाएं. इसे “लौह और रक्त” नीति (Policy of Iron and Blood) कहा जाता है. यह नीति आंतरिक विद्रोहों और बाहरी आक्रमणों का सामना करने में सफल साबित हुई:
1. तुर्क सरदारों पर नियंत्रण
अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए बलबन ने सर्व प्रथम इल्तुतमिश के परिवार के बचे सदस्यों को निर्दयतापूर्वक मरवा डाला. तत्पश्चायत महत्वाकांक्षी तुर्क सरदारों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया. सबसे अधिक खतरा चरगान के गुट से था. इसलिए, अब राज्य के महत्वपूर्ण पद चालीसा को न देकर सुलतान के विश्वासपात्र व्यक्तियों को दिए गये.
सिर्फ श्रेष्ठ रक्तवाले तुर्कों को ही ऊँचे पदों पर बहाल किया गया. संदिग्ध चरित्र वाले अमीरों को अपमानित एवं दंडित किया गया. उनकी जागीरें छीन ली गई तथा उनके विशेषधिकार समाप्त कर दिए गए. यहां तक कि बलबन ने अपने चचेरे भाई शेरखां की हत्या करवा दी. बदायूँ के गवर्नर मलिक बकबक, अवध के सुबेदार हैवात खां एवं शासक अमीर खां को भी अपमानित एवं दंडित किया गया. अनेकों की सम्पत्ति जब्त कर ली गई तथा उनके कार्यों पर कठोर नियंत्रण रखा गया.
2. आंतरिक विद्रोहों का दमन
कानून और व्यवस्था के दृष्टिकोण से चार प्रदेश अत्यन्त समस्याग्रस्त थे. पहला था, दिल्ली के निकटवती प्रदेश जहां मेवाती उत्पात मचा रहे थे. दूसरा, गंगा-यमुना दो-आब, जो सुलतान की सत्ता को निरंतर चुनौती देता था. अवध जानेवाला व्यापारी मार्ग भी असुरक्षित था. कटेहर या बुन्देलखण्ड की स्थिति भी चिन्ताजनक थी. इसलिए गयासुद्दीन बलबन ने इन क्षेत्रों में कानून और व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया.
सबसे पहले उसने मेवातियों के आतंक को समाप्त किया. मेवातियों को निर्दयतापूर्वक कत्ल किया गया. उनकी स्त्रियों को गुलाम बनाकर बेच दिया गया तथा उनके ठिकानों को नष्ट कर दिया गया. दिल्ली के निकटवती क्षेत्रों को साफ करवा कर पुलिस चौकियां एवं सैनिक शिविर बनाए गए. इससे दिल्ली के निवासियों को मेवातियों के आतंक से निजात मिल गई.
इसी प्रकार बलबन ने दो-आब के डाकुओं का भी सफाया किया. जंगलों को कटवाकर उनके ठिकानों को नष्ट किया गया. बरनी के शब्दों में, “विद्रोहियों और लुटेरों को इतने कठोर दंड दिए गए कि सुलतान की मृत्यु के साठ वर्ष बाद तक भी सड़कों पर लूट मार करने का इस क्षेत्र के डाकुओं ने साहस नही किया; और यह प्रदेश यात्रियों किसानों तथा सरकारी पदाधिकारियों के लिए पूर्णतया सुरक्षित हो गया”.
इन क्षेत्रो में दुर्ग बनवाकर सैनिक बहाल किए गए. अवध का व्यापारिक मार्ग भी सुरक्षित कर दिया गया, जिससे व्यापारियों को सुविधा हुई. इसी प्रकार, बलबन ने कटेहर और पंजाब में भी शांति की स्थापना की.
कटेहर के विद्रोही बदायूँ तथा अमरोहा क्षेत्र में आतंक फैलाए हुए थे. वे इक्तदारों की भी अवहेलना करते थे. अतः बलबन ने शाही सेना की सहायता से विद्रोहियों का दमन कर उस क्षेत्र में शांति व्यवस्था स्थापित की. उसने साल्ट रेंज के विद्रोहियों को भी दंडित किया.
3. बंगाल में तुगरिल खां का विद्रोह
गयासुद्दीन बलबन के समय में सबसे भयंकर विद्रोह बंगाल में तुगरिल खां का हुआ. तुगरिल बंगाल का सुबेदार था. बलबन की अस्वस्थता का लाभ उठाकर उसने 1279 में विद्रोह कर दिया. वह लखनौती का स्वतंत्र शासक बन बैठा. उसने अपने नाम का खुतबा पढ़वाया और सिक्के ढ़लवाए.
बलबन ने अवध के सुबेदार को विद्रोह के दमन के लिए भेजा. परन्तु वह असफल होकर लौट आया. क्रुद्ध होकर बलबन ने उसकी हत्या करवा दी. दो सेनापति (तिरमति और शहाबुद्दीन) भी निराश होकर वापस आ गए. फिर, बलबन ने अब स्वंय ही बंगाल पर आक्रमण कर दिया. तुगरिल भयभीत होकर भाग खड़ा हुआ. परन्तु उसे पकड़कर मार डाला गया. इस तरह बलबन ने लखनौती में आतंक का साम्राज्य कायम कर विरोधियों का मनोबल तोड़ दिया गया.
4. मंगोल आक्रमण
भारत की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर सदैव ही मंगोल आक्रमणकारियों का भय बना रहता था. सुलतान बनते के पूर्व बलबन ने इस क्षेत्र में मंगोलों से लोहा लिया था. सुलतान बनते ही उसने पश्मिोत्तर सीमा की सुरक्षा के उपाय किए. पुराने दुर्गों की मरम्मत करवाई गई तथा नए दुर्ग बनवाए गये. सैनिक शिविर स्थापित किए गए.
शेरखां के अधीन एक सेना सीमान्त की सुरक्षा के लिए बहाल की गई. शेरखां ने मंगोलों की बाढ़ को आगे बढने से रोके रखा. 1270 ई0 में उसकी मृत्यु के पश्चात बलबन ने अपने दो पुत्रों मुहम्मद और बुगरा खां को क्रमशः मुलतान, सिन्ध, लाहौर तथा सुमन और समाना के प्रदेशों की सुरक्षा का भार सौंप दिया. इन दोनों ने सीमांत की सुरक्षा की वयवस्था की.
नोट: शेरशाह सूरी ने गयासुद्दीन बलबन के अधीन काम नहीं किया था. शेरशाह सूरी का शासनकाल 1540 से 1545 तक रहा, जबकि बलबन का शासनकाल 1266 से 1286 तक था. गयासुद्दीन बलबन लगभग 100 साल पहले दिल्ली सल्तनत में शासक थे.
1285 ई0 में तैमूर खां ने आक्रमण कर लाहौर और दीपालपुर को लूट लिया. मुहम्मद मंगोलों से युद्ध करता हुआ मारा गया. परन्तु मंगोल लाहौर पर आधिकार नही कर सके. बलबन के एक अन्य पुत्र कैखुसरो ने लाहौर की सुरक्षा की. बलबन के प्रयासों से मंगोल भारत में पंजाब से आगे नही बढ पाए. यद्यपि बलबन ने सुलतान के रूप में कोई महत्वपूर्ण विजय हासिल नही की, तथापि उसके समय तक तुर्की साम्राज्य की सीमा बहुत अधिक विस्तृत हो गई.
बलबन का प्रशासनिक नीति व सिद्धांत (Balban’s Administrative Policy and Theories)
गयासुद्दीन बलबन ने सुलतान के पद की गरिमा बनाए रखने एवं राज्य का कायम रखने के उद्देश्य से कई सारे नीतियाँ और सिद्धांत अपनाएं. ये इस प्रकार हैं:
1. बलबन के राजत्व-सम्बंधी सिद्धान्त
बलबन दिल्ली का पहला सुलतान था, जिसने राजत्व-सम्बंधी सिद्धान्त की स्थापना की. वह भारत के प्राचीन शासकों की ही तरह राजत्व के दैवी सिद्धान्त में विश्वास रखता था. इसके द्वारा वह सुलतान की सर्वोच्चता स्थापित करना चाहता था. उसके राजत्व-सिद्धान्त का स्वरूप फारस के राजत्व-सम्बंघी सिद्धान्त से प्रभावित था.
गयासुद्दीन बलबन सुलतान को पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधि’- ‘नियाबते-खुदाई‘ मानता था. उसके अनुसार, सुलतान का स्थान पैगम्बर के पश्चात आता है. सुलतान जिल्ले अल्लाह, अर्थात ईश्वर का प्रतिबिम्ब है.
बलबन यह भी मानता था कि “राजा का हृदय ईश्वर-कृपा का विशेष कोष है और समस्त मनुष्य जाति में उसके समान कोई नही है. राजत्व निरंकुशता का शारीरिक रूप है. इस प्रकार की निरंकुशता सुलतान की हत्या का खतरा उत्पन्न करती थी. अतः उसे अपनी सुरक्षा के प्रति सावधान रहना चाहिये और जनता में अपने प्रति भय की भावना जागृत करना चाहिये“.
उसने अपने पुत्रों को भी इस बात की शिक्षा दी कि वे राजत्व के उच्च आदर्शों के अनुसार ही शासन करें. अपने व्यक्तिगत चरित्र को आदर्शमय बनाएँ, जिसका अनुकरण अन्य व्यक्ति कर सकें. राजा के उत्तरादायित्वों और कर्तव्यों की भी उसने एक रूप रेखा तैयार की. उसका एक मात्र उद्देश्य सुलतान के पद की गरिमा एवं उसकी शक्ति को सुरक्षित बनाए रखना था.
बलबन के राजत्व सिद्धान्त की पूरी जानकारी इतिहासकार बरनी द्वारा संकलित उसके ‘वसय’ से मिलती है. इसमें राजत्व के सम्बंधी में बलबन के विचारों को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है.
गयासुद्दीन बलबन ने खलीफा की राजनीतिक सत्ता भी स्वीकार की तथा सिक्कों पर खलीफा का नाम खुदवाया एवं खुतबा में उसका नाम पढ़वाया. बलबन कुरान के नियमों का कड़ाई से पालन करता था. न्याय के सम्पादन पर वह विशेष बल देता था. राजदरबार के लिए निशि्चित नियम तय किए गए. फारसी परिपाटी के आधार पर उसने भी दरबार में ‘सिजदा’ (घुटने पर सिर झुकाना) एवं ‘पैबोस’ (सुलतान का पैर चूमना) की प्रथा प्रारम्भ की.
दरबार में उसके अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए खड़े रहते थे. उसके सामने बैठने (खलीफा के दो वंशजों को छोड़कर) बात करने (वजीर के अतिरिक्त), मुस्कुराने की आज्ञा किसी को नही थी. दरबारियों को एक विशेष प्रकार का वस्त्र पहनकर ही दरबार में उपस्थित होना पड़ता था.
2. सैनिक व्यवस्था
सेना में योग्य सैनिकों एवं अधिकारियों को नियुक्त किया गया. उनके प्रशिक्षण एवं वेतन की व्यवस्था की गई. सैनिकों के वेतन में वृद्धि कर उन्हें संतुष्ट रखने का प्रयास किया गया.
सेना के देखभाल एवं प्रशिक्षण के लिए एक अलग विभाग दीवान-ए अर्ज का गठन किया गया. सैनिकों के वेतन में वृद्धि कर उन्हे संतुष्ट रखने का प्रयास किया गया प्रचलित सैनिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए. वैसे व्यक्ति जो सैनिक सेवा के योग्य नही थे, उनकी जागीरें वापस लेकर उन्हे पेंशन दे दी गई.
3. गुप्तचर विभाग का गठन
पदाधिकारियों, राज्य की जनता एवं विरोधियों पर निगरानी रखने के लिए बलबन ने एक सशक्त गुप्तचर विभाग का संगठन किया. ये ‘बरीद‘ (गुप्तचर) सम्पूर्ण साम्राज्य में फैले हुए थे. बरीद, राज्य के प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना की खबर सुलतान तक पहुँचाते थे. उन्हें अनेक सुविधाएं दी गई थी. परन्तु अपने उत्तरदायित्व का ठीक से पालन नही करने पर उन्हे कठोर दण्ड दिया जाता था.
बदायूँ के बरीद का वध कर उसकी लाश को सूली पर प्रदर्शित किया गया, क्योकि उसने अपने कर्तव्य का पालन नही किया था. गुप्तचरों की सहायता से ही गयासुद्दीन बलबन समस्त राज्य पर अपनी पकड़ स्थापित कर सका.
4. प्रशासनिक सुधार
गयासुद्दीन बलबन प्रशासन के प्रत्येक विभाग पर स्वंय कड़ी निगरानी रखता था. समस्त नौकरशाही पर उसका नियंत्रण था. अधिकारियों की नियुक्ति वह स्वंय करता था. सूबेदारों पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी. उन्हे सदैव सूबे की स्थिति से सुलतान को अवगत करना पडता था. उसने सैनिक एवं आर्थिक अधिकार अलग कर दिए.
वजीर से सैनिक एवं अर्थिक अधिकार वापस ले लिए गए. इसका उद्देश्य सरकारी अधिकारियों के हाथों में अधिक शक्ति केन्द्रित नही होने देना था. अधिकारियों को प्रजा के साथ उचित व्यवहार करने का निर्देश दिए गए.
बलबन ने अर्ध-नागरिक एवं अर्ध-सैनिक प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की. उसने केन्द्रीय शक्ति के सुदृढ़ीकरण पर बल दिया एवं फूट उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों पर नियंत्रण स्थापित किया.
इतिहासकार बरनी के अनुसार गयासुद्दीन बलबन प्रशासन को संरक्षात्मक स्वरूप प्रदान करना चाहता था. जनता एवं अधिकारी दोनों से वह संतुलित व्यवहार की अपेक्षा करता था. जनता एवं अधिकारी दोनों से वह संतुलित व्यवहार की अपेक्षा करता था. वह यह भी चाहता था कि शासन अपनी नीतियों से दृढ़ हो, व्यापारियों को समृद्ध और संतुष्ट रखे, राज्य के आर्थिक साधनों का समुचित अपयोग करे और सेना को प्रसन्न तथा संतुष्ट रखे. बलबन ने इन्ही आदर्शों के अनुकूल कार्य किया तथा शांति एवं न्याय की स्थापना की.
सांस्कृतिक और स्थापत्य योगदान
गयासुद्दीन बलबन अपने सख्त और सत्तावादी शासन के लिए जाना जाता था. लेकिन वह कला और संस्कृति का भी एक महान संरक्षक था. उसके शासनकाल में सूफीवाद, साहित्य और अन्य कला रूपों के विकास को प्रोत्साहन मिला:
साहित्यिक और संस्कृति
प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो को भी गयासुद्दीन बलबन का संरक्षण प्राप्त था. अमीर खुसरो ने सितार और तबला जैसे वाद्य यंत्रों का आविष्कार किया और कई महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियाँ लिखीं, जैसे ‘किरान-उल-सादेन’, ‘मफ्ता-उल-फतह’ और ‘खजान-उल-फतह’. बलबन की नीतियाँ और दरबारी शिष्टाचार फारसी संस्कृति से प्रभावित थे, जो फारसी साम्राज्यों के वैभव और प्रशासनिक दक्षता का अनुकरण करने की उसकी इच्छा को दर्शाता है.
स्थापत्य

गयासुद्दीन बलबन के स्थापत्य योगदान में उसका अपना मकबरा विशेष रूप से उल्लेखनीय है. बलबन का मकबरा दिल्ली के महरौली में कुतुबमीनार के पीछे स्थित हैं. इसे उसने अपने जीवनकाल में ही बनवाया था. वह इसे ‘दारुल अमन’ कहता था, जिसका अर्थ ‘इंसाफ का दरवाजा’ है.
यह इमारत भारत में शुद्ध लाल पत्थरों से निर्मित तुर्की वास्तुकला शैली का पहला मकबरा है. इसकी गुंबद भारत की पहली गुंबद निर्माण कला थी, जो बाद में ध्वस्त हो गई. फिरोजशाह खिलजी ने इस इमारत का जीर्णोद्धार करवाया और चंदन के दरवाजों से सुसज्जित किया.
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