राजा राममोहन राय के ब्रह्म समाज का इतिहास, उद्देश्य, सुधार, योगदान व पतन | History, objectives, reforms, contribution and downfall of Raja Ram Mohan Roy’s Brahmo Samaj

राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का जनक माना जाता है. वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उनके द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज आधुनिक पाश्चात्य विचारों पर आधारित था. यह हिन्दू धर्म का पहला सुधार आंदोलन था. एक सुधारवादी के रूप में राजा राममोहन राय, मानवीय प्रतिष्ठा के आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं सामाजिक समानता के सिद्धांत में विश्वास रखते थे. वे एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे.

इस लेख में हम जानेंगे

राजा राममोहन राय (Raja Ram Mohan Roy)

1809 में राजा राममोहन राय ने एकश्वरवादियों को उपहार नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी. अपने मत के समर्थन में उन्होंने वेदों एवं उपनिषदों के बंगाली अनुवाद लिखे तथा स्पष्ट किया कि प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र भी एकेश्वरवाद का समर्थन करते हैं. 1814 में उन्होंने कलकत्ता में आत्मीय सभा की स्थापना की तथा मूर्तिपूजा, जातिप्रथा की कठोरता, अर्थहीन रीति-रिवाजों तथा अन्य सामाजिक बुराइयों की भर्त्सना की.

एकेश्वरवाद के कट्टर समर्थक राजा राममोहन राय ने स्पष्ट किया कि वे सभी धर्मो की मौलिक एकता में विश्वास रखते हैं. उन्होंने दूसरे धर्मो की उन बातों को ग्रहण किया जिन्हें वे हिन्दू धर्म के योग्य समझते थे. उनके विचारानुसार मनुष्य को स्वयं धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन और रीति-रिवाजों का पालन करना चाहिए.

1820 में उन्होंने प्रीसेप्स आफ जीसस नामक पुस्तक लिखी, उन्होंने ‘न्यू टेस्टामेंट’ के नैतिक और दार्शनिक सन्देश को उसकी चमत्कारिक कहानियों से पृथक करने का प्रयास किया. उन्होंने न्यू टेस्टामेंट के नैतिक एवं दार्शनिक संदेशों की प्रशंसा की. उन्होंने ईसाई धर्म के भी अनेक गलत रीति-रिवाजों को लोगों के सामने रखा.

उनके इस प्रयास से उन्हें ईसाई मिशनरियों का गुस्सा झेलना पड़ा. उनके कई ईसाई मित्र उनसे निराश हो गये क्योंकि उन्हें यह गलतफहमी थी कि राजा राममोहन राय लोगों को हिन्दू धर्म त्याग कर ईसाई बनने के लिये प्रोत्साहित कर रहे थे.

अपने विचारों एवं उद्देश्यों को साकार करने के लिये उन्होंने ब्रह्म सभा (जो आगे चलकर ब्रह्म समाज बना) की स्थापना की. वे सामाजिक सुधार के द्वारा लोगों का राजनीतिक उत्थान करना चाहते थे तथा उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना जगाना चाहते थे.

राजा राममोहन राय ने सती प्रथा का कड़ा विरोध किया. वर्ष 1818 में उन्होंने अपना सती विरोधी अभियान प्रारंभ किया. सर्वप्रथम उन्होंने इस सामाजिक कुरीति के विरुद्ध जनमत तैयार करने का प्रयास आरम्भ किया. एक ओर उन्होंने पुरातन हिन्दू शास्त्रों का प्रमाण देकर धार्मिक ठेकेदारों को दिखलाया कि वे सती प्रथा की अनुमति नहीं देते, दूसरी ओर उन्होंने लोगों को तर्कशक्ति, नैतिकता, मानवीयता तथा दयाभाव की दुहाई देकर इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये प्रेरित किया.

उन्होंने श्मशानों (Cremation Ground) की यात्रा की तथा विधवाओं के रिश्तेदारों को समझा कर उन्हें सती होने से रोकने के अथक प्रयास किये. उन्होंने समान विचारों वाले व्यक्तियों की सहायता से कई ऐसे समूहों का निर्माण किया जो उन लोगों पर कड़ी निगाह रखते थे, जो पुरातन अंधविश्वास या गहनों के लालच में विधवाओं की सती होने के लिये उकसाते थे.

राजा राममोहन राय के अथक प्रयत्नों से इस दिशा में काफी प्रगति हुयी. उन्होंने सरकार से अपील की कि इस बर्बर प्रथा को रोकने के लिये वह कड़े कानून बनाये. इसी के पश्चात 1829 में लार्ड विलियम बैंटिक ने एक कानून बनाकर सती प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया.

राजा राममोहन राय ने स्त्रियों की हीन दशा का भी कट्टर विरोध किया. वे स्त्रियों की निम्न सामाजिक दशा तथा उनके साथ किये जा रहे भेदभाव से बहुत दुखी हुये. उन्होंने स्त्रियों को सम्पति का अधिकार देने की भी मांग की. वे स्त्रियों की शिक्षा देने, विधवा विवाह को प्रारंभ करने, सती प्रथा को समाप्त करने तथा बहु-पत्नी विवाह को गैर-कानूनी घोषित करने के पक्षधर थे.

स्त्रियों की दशा सुधारने के लिये उन्होंने मांग की कि उन्हें पैतृक एवं विरासत सम्पति संबंधी अधिकार मिलने चाहिए. राजा राममोहन राय आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार-प्रसार के समर्थक थे.

उन्होंने डेविड हेअर को 1817 में हिन्दू कालेज की स्थापना में सहायता की तथा उसके द्वारा प्रस्तुत की गयी विभिन्न शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं का समर्थन किया. उन्होंने अपने खर्चे पर 1817 में कलकत्ता में अंग्रेजी स्कूल खोला जिसमें फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिकों दांते, रूसो एवं वाल्टेयर के दर्शन की शिक्षा दी जाती थी.

1825 में उन्होंने वेदांत कालेज की स्थापना की जिसमें भारतीय विद्या और पाश्चात्य भौतिक विज्ञान एवं सामाजिक विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी. बंगाली भाषा की समृद्ध बनाने हेतु उन्होंने बंगला व्याकरण की रचना की तथा बंगाली पद्य का निर्माण किया.

राजा राममोहन राय की विभिन्न भाषाओं पर गहरी पैठ थी. वे संस्कृत, ज्ञाता थे. विभिन्न भाषाओं के ज्ञान के कारण उन्होंने विभिन्न भाषाओं की अनेकों पुस्तकों का अध्ययन किया. उन्हें भारतीय पत्रकारिता का जनक कहा जाता है.

उन्होंने बंगाली, हिन्दी तथा अंग्रेजी में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन तथा सम्पादन किया. इनके माध्यम से वे जनता को शिक्षित करते थे तथा उनके दुखों एवं कठिनाइयों को सरकार के समक्ष प्रस्तुत करते थे.

एक राजनीतिज्ञ के रूप में राजा राममोहन राय ने बंगाल के जमींदारों की उत्पीड़ित कार्यवाहियों की घोर निन्दा की तथा रैयतों द्वारा दिये जाने वाले लगान की अधिकतम मात्रा निर्धारित करने की मांग की. उन्होंने कर मुक्त भूमि पर सरकार द्वारा पुनः कर लगाने के प्रयासों का विरोध किया. उन्होंने निर्यात की जाने वाली व्यापारिक विशेषाधिकारों को समाप्त करने हेतु सरकार को ज्ञापन दिया.

वे उच्च सेवाओं के भारतीयकरण तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका से पृथक किये जाने के कट्टर समर्थक थे. उन्होंने मुकदमों की सुनवाई जूरी प्रथा के माध्यम से करने एवं भारतीयों तथा यूरोपियों के मध्य न्यायिक समानता की भी मांग की.

राजा राममोहन राय का राजनीतिक दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय था. वे अंतरराष्ट्रीयता और विभिन्न राष्टों के पारस्परिक सहयोग में दृढ़ विश्वास रखते थे. वे अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्रता, समानता एवं न्याय के हिमायती थे. इससे स्पष्ट होता है कि उन्हें तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की गहरी समझ थी. उन्होंने स्पेन, अमेरिका तथा नेपल्स के स्वतंत्रता अभियानों का समर्थन किया.

जब वे इंग्लैंड में रह रहे थे तब उन्होंने आयरलैण्ड के जमींदारों द्वारा वहां के किसानों पर किये जा रहे अत्याचार की निंदा की तथा घोषणा की कि यदि इस संबंध में इंग्लैण्ड की संसद में जो सुधार विधेयक लाया गया है, यदि वह गिर गया तो वे इंग्लैण्ड छोड़कर चले जायेंगे.

अनेक प्रसिद्द व्यक्तियों जैसे- डेविड हेअर, अलेक्जेंडर डफ, देवेन्द्र नाथ टैगोर, पी.के. टैगोर, चंद्रशेखर देव तथा ताराचंद चक्रवर्ती इत्यादि उनके प्रमुख सहयोगी थे.

ब्रह्म समाज का गठन (Formation of Brahmo Samaj)

अगस्त, 1828 में राजा राममोहन राय ने ब्रह्म सभा का गठन किया, जिसे बाद में नाम परिवर्तित कर ब्रह्म समाज कहा जाने लगा. ब्रह्म समाज के अनुसार, ईश्वर एक है और सभी सद्गुणों का केंद्र व भंडार है. परंतु परमात्मा निर्गुण एवं निराकार है. वह न कभी जन्म लेता है न कभी मरता है. वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सृष्टि का पालनकर्ता तथा अमर है. इसलिए मूर्तिपूजा अनावश्यक है.

ब्रह्म समाज के भवन में किसी मूर्ति, चित्र, पेन्टिग इत्यादि के पूजा करने की अनुमति नहीं थी. वे धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन या पूजा में भी विश्वास नहीं रखते थे क्योंकि उनके अनुसार कोई भी पुस्तक त्रुटिरहित नहीं हो सकती है. हिन्दू धर्म का शुद्धीकरण एवं एकेश्वरवाद या निर्गुण परमात्मा में विश्वास, ब्रह्म समाज का सबसे प्रमुख उद्देश्य था. उनके ये उद्देश्य तर्क एवं वेदों तथा उपनिषदों की शिक्षाओं पर आधारित थे.

ब्रह्म समाज ने सर्व-धर्म समभाव पर बल दिया. उसके अनुसार, सभी धर्मों में सत्य निहित है अतः व्यक्ति को अपने धर्म के साथ सभी धमों का आदर करना चाहिए. ब्रह्म समाज, नैतिकता पर बल देता था एवं कर्मफल में उसका विश्वास था. ब्रह्म समाज के समस्त कार्यों में अहिंसा का स्थान प्रमुख था. उसके सभाभवन में किसी प्रकार की जीव हिंसा नहीं हो सकती थी.

राजा राममोहन राय का उद्देश्य किसी नये धर्म की स्थापना करना नहीं था. अपितु, वे हिन्दू धर्म का शुद्धीकरण करना चाहते थे, जो उनके अनुसार विभिन्न बुराइयों से जकड़ा हुआ है. राजा राममोहन राय के सुधारवादी एवं प्रगतिशील विचारों का तत्कालीन हिन्दू रूढ़वादियों ने कड़ा विरोध किया.

राजा राधाकांत देव ने ब्रह्म समाज के सिद्धांतों का विरोध करने हेतु धर्म सभा का गठन किया. 1833 में ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) में राजा राममोहन राय का निधन हो जाने से ब्रह्म समाज को गहरा आघात लगा.

ब्रह्म समाज के कार्यक्रम और उद्देश्य (Programs and objectives of Brahmo Samaj)

ब्रह्म समाज 19वीं शताब्दी का एक महत्वपूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलन था. इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों और असमानताओं को समाप्त कर एक तार्किक, नैतिक एवं मानवीय धर्म की स्थापना करना था.

ब्रह्म समाज ने हिंदू धर्म में सुधार की प्रक्रिया को गति दी और उस समय की निरर्थक एवं अतार्किक प्रथाओं, जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, बहुविवाह और छुआछूत का कड़ा विरोध किया. राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा पर रोक लगाने में निर्णायक भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप 1829 ई. में लॉर्ड बेंटिक ने सती प्रथा को कानूनन समाप्त कर दिया.

इस समाज ने जाति व्यवस्था की आलोचना की तथा अस्पृश्यता को अमानवीय ठहराया. अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिए पुरोहित वर्ग की आवश्यकता को नकारते हुए इसने कहा कि ईश्वर की उपासना सीधे की जा सकती है. ब्रह्म समाज ने मूर्तिपूजा और बहुदेववाद के विरुद्ध अभियान चलाया तथा एकेश्वरवाद का समर्थन किया. यह वेदों और उपनिषदों की शिक्षाओं पर आधारित था और अवतारवाद का खंडन करता था.

राजा राम मोहन राय ने धार्मिक साहित्य के प्रसार हेतु वेदों और उपनिषदों का बंगाली में अनुवाद किया. उन्होंने 1809 में फ़ारसी में गिफ़्ट टू मोनोथिज़्म” और 1820 में प्रीसेप्ट्स ऑफ़ जीसस” जैसी रचनाएँ कीं, जिनमें एकेश्वरवाद और नैतिक जीवन के आदर्शों की चर्चा की गई.

ब्रह्म समाज ने महिलाओं के उत्थान और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया. विधवा पुनर्विवाह के समर्थन, महिला शिक्षा के प्रसार और स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा इसके प्रमुख कार्यक्रमों में शामिल थे. समाज ने भारतीय और पश्चिमी शिक्षा दोनों के लाभों को अपनाने और उन्हें समाज में प्रसारित करने का प्रयास किया.

इसके अतिरिक्त, ब्रह्म समाज ने धर्म को सार्वभौमिक और मानवीय दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की. इसमें अन्य धर्मों की शिक्षाओं के उपयोगी तत्वों को शामिल करने का प्रयास किया गया ताकि सभी धर्मों के बीच सहिष्णुता और एकता की भावना विकसित हो सके.

कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत पर समाज ने कोई स्पष्ट मत नहीं रखा, परंतु यह जीवन में नैतिक आचरण और सामाजिक सुधार को ही सच्चा धर्म मानता था. इस प्रकार, ब्रह्म समाज ने अंधविश्वासों, रूढ़ियों और परंपरागत कुरीतियों पर प्रहार कर भारतीय समाज को आधुनिकता, समानता और प्रगतिशील विचारधारा की ओर अग्रसर किया.

महिर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर (Maharshi Devendranath Tagore)

राजा राममोहन राय की मृत्यु के पश्चात ब्रह्म समाज की बागडोर रविंद्रनाथ टैगोर के पिता महिर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर (1817-1905) ने संभाली. वे 1842 में ब्रह्म समाज में सम्मिलित हुये. देवेंद्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व में तत्कालीन भारतीय परिस्थितियों एवं पाश्चात्य विचारों का सुंदर समन्वय था. उन्होंने ब्रह्म समाज को नयी चेतना एवं नया स्वरूप प्रदान किया.

देवेंद्रनाथ टैगोर पहले ज्ञानवर्धिनी एवं तत्वबोधिनी सभा से संबंधित थे, जिनका उद्देश्य भारत की प्राचीन सभ्यता एवं राजा राममोहन राय के विचारों का प्रसार करना था. तत्वबोधिनी सभा, जिसका गठन 1839 में किया गया था, बंगाली भाषा में एक पत्रिका तत्वबोधिनी पत्रिका का प्रकाशन करती थी. इन दोनों सभाओं के ब्रह्म समाज में जुड़ने से समाज में एक नयी ऊर्जा व शक्ति का संचार हुआ.

धीरे-धीरे ब्रह्म समाज की सदस्य संख्या बढ़ने लगी तथा ईश्वरचंद विद्यासागर तथा अश्वनी कुमार दत्त जैसे महान विचारक इस समाज से जुड़ गये.

देवेंद्रनाथ टैगोर ने हिन्दू धर्म को सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया तथा ब्रह्म समाज को ईसाई तथा वेदांतिक कर्मकाण्ड से बचाने का प्रयास किया. 1843 में अलेक्जेंडर डफ और प्रेसबीटेरियन चर्च से टैगोर का वाद-विवाद आरंभ हो गया. इसके पश्चात ईसाई पादरियों ने हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने तथा धर्म परिवर्तन के प्रयास प्रारंभ कर दिये.

ब्रह्म समाज ने ईसाई पादरियों की इस चुनौती का दृढ़तापूर्वक मुकाबला किया. देवेंद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में ब्रह्म समाज ने विधवा विवाह का समर्थन, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, बहुपत्नी प्रथा का उन्मूलन तथा आडम्बरपूर्ण धार्मिक कर्मकाण्डों को समाप्त करने जैसे सराहनीय कार्यों पर बल दिया.

केशव चंद्र सेन और ब्रह्म समाज का विभाजन (Keshav Chandra Sen and the split of the Brahmo Samaj)

1858 में केशवचंद्र सेन द्वारा ब्रह्म समाज की सदस्यता ग्रहण करने के पश्चात देवेंद्रनाथ टैगोर ने उन्हें समाज का नया आचार्य नियुक्त किया. केशवचंद्र सेन की शक्ति, वाकपटुता और उदारवादी विचारों ने ब्रह्म समाज को अत्यंत लोकप्रिय बना दिया. सेन के प्रयत्नों से शीघ्र ही इसकी शाखायें बंगाल से बाहर संयुक्त प्रांत, बंबई, मद्रास एवं पंजाब में भी खुल गयीं. लेकिन शीघ्र ही केशवचंद्र सेन के उदारवादी विचारों के कारण उनमें तथा देवेंद्रनाथ टैगोर में मतभेद हो गये.

केशवचंद्र सेन ब्रह्म समाज के अंतर्राष्ट्रीयकरण, ब्रह्म समाज में सभी धर्मों की शिक्षा तथा अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन जैसे मुद्दों पर बल दे रहे थे, जिसके कारण देवेंद्रनाथ टैगोर से उनके मतभेद और गहरे हो गये. 1865 में सेन को आचार्य की पदवी से बर्खास्त कर दिया गया. 1866 में उन्होंने भारतीय ब्रह्म समाज (नव विधान ब्रह्म समाज) के नाम से एक नयी सभा का गठन किया. इसके पश्चात देवेंद्रनाथ टैगोर के ब्रह्म समाज को आदि ब्रह्म समाज के नाम से जाना जाने लगा.

1878 में केशवचंद्र सेन ने अपनी 13 वर्षीय पुत्री का विवाह कूच बिहार के राजा के साथ वैदिक कर्मकाण्डों से किया. जिसका केशवचंद्र सेन के कुछ साथियों ने कड़ा विरोध किया. इसके पश्चात केशवचंद्र सेन भारतीय ब्रह्म समाज से अलग हो गये तथा उन्होंने साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की. इसके पश्चात श्री सेन इतिह्रास के अंधकार में खो गये.

मद्रास में ब्रह्म समाज के अनेक केंद्र खोले गये. पंजाब में दयाल सिंह ट्रस्ट ने ब्रह्म समाज के सिद्धांतों को प्रसारित करने का बीड़ा उठाया. 1910 में ट्रस्ट ने इस कार्य के लिये लाहोर में दयाल सिंह कालेज की भी स्थापना की.

ब्रह्म समाज का योगदान (Contribution of Brahmo Samaj)

एच.सी.ई. जाचारियस के मतानुसार, आधुनिक भारत में धर्म, समाज या राजनीति—किसी भी क्षेत्र में सुधार की शुरुआत राजा राममोहन राय ने की और उसका सबसे प्रभावी माध्यम ब्रह्म समाज बना. इस आंदोलन ने भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक सुधार किए, जिनका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों तक दिखाई देता है.

धार्मिक सुधार (Religious Reforms)

ब्रह्म समाज ने सबसे पहले धार्मिक क्षेत्र में सुधार लाने का प्रयास किया. इसने बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल दिया. समाज ने धार्मिक ग्रंथों, पुरोहितों और बाहरी अनुष्ठानों की सर्वोच्चता को नकारते हुए कहा कि सच्चा धर्म नैतिकता और मानवता पर आधारित है. सर्वधर्म समभाव की भावना को प्रोत्साहित करते हुए इसने विभिन्न धर्मों के बीच सहिष्णुता और एकता का संदेश दिया.

समाज सुधार (Social Reforms)

सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में ब्रह्म समाज का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा. इसने सती प्रथा और बहुपत्नी प्रथा का विरोध किया, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और बाल विवाह तथा पर्दा प्रथा जैसी दमनकारी परंपराओं को समाप्त करने की दिशा में कार्य किया.

शिक्षा में योगदान (Contribution to Education)

समाज ने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया और उनके अधिकारों की रक्षा की. छुआछूत, जातिगत भेदभाव और अंधविश्वासों के खिलाफ इसने निरंतर संघर्ष किया तथा विदेश यात्रा को धर्मविरुद्ध घोषित करने जैसी संकीर्ण मानसिकताओं का विरोध किया. इन प्रयासों ने भारतीय समाज को समानता और न्याय की दिशा में आगे बढ़ाया.

शिक्षा के क्षेत्र में भी ब्रह्म समाज का योगदान उल्लेखनीय रहा. समाज ने पारंपरिक और रूढ़िवादी शिक्षा की बजाय आधुनिक, तर्कसंगत और वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा दिया. इसने बंगाली और अंग्रेजी शिक्षा दोनों का समर्थन किया और स्कूलों तथा कॉलेजों की स्थापना को प्रोत्साहित किया. इससे एक नई शिक्षित मध्यमवर्गीय पीढ़ी तैयार हुई, जिसने आगे चलकर समाज और राष्ट्र दोनों को दिशा दी.

नागरिक अधिकार (Civil Rights)

ब्रह्म समाज ने नागरिक स्वतंत्रताओं का भी समर्थन किया. अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता के पक्ष में रहते हुए इसके सदस्यों ने पत्रकारिता के माध्यम से सुधारवादी विचारों का प्रसार किया और सामाजिक अन्याय की आलोचना की. इस प्रकार समाज ने न केवल सामाजिक-धार्मिक सुधार बल्कि राजनीतिक चेतना को भी जन्म दिया.

ब्रह्म समाज का प्रभाव अन्य सुधार आंदोलनों पर भी पड़ा. प्रार्थना समाज, आर्य समाज और अन्य कई सुधारवादी आंदोलनों ने इससे प्रेरणा पाई. एकेश्वरवाद, तर्कवाद, सामाजिक न्याय और समानता पर दिए गए बल ने अनेक सुधारकों को प्रभावित किया.

राष्ट्रीय चेतना के विकास में योगदान (Contribution in the development of national consciousness)

इसके अतिरिक्त, ब्रह्म समाज ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की वैचारिक नींव भी रखी. इसके सामाजिक न्याय, नागरिक अधिकारों और राष्ट्रीय एकता के विचारों ने स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं को प्रेरित किया. इस प्रकार, ब्रह्म समाज केवल एक धार्मिक सुधार आंदोलन नहीं रहा, बल्कि उसने आधुनिक भारत की सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक चेतना को गढ़ने में भी गहरा योगदान दिया.

सारांश (Summary)

संक्षेप में ब्रह्म समाज के योगदान को निम्न प्रकार से बिंदुसार किया जा सकता है-

  1. बहुदेववाद तथा मूर्तिपूजा का विरोध.
  2. बहुपत्नी प्रथा एवं सती प्रथा का विरोध.
  3. विधवा विवाह का समर्थन एवं बाल विवाह का विरोध.
  4. नैतिकता पर बल, कर्मफल में विश्वास, सर्वधर्म समभाव, निर्गुण ब्रह्म की उपासना.
  5. धार्मिक पुस्तकों, पुरुषों एवं वस्तुओं की सर्वोच्चता में अविश्वास.
  6. छुआछूत, अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव का विरोध.
  7. बांग्ला एवं अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार को समर्थन.

इस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों में ब्रह्म समाज द्वारा किये गये कार्य अविस्मरणीय रहेंगे.  

ब्रह्म समाज का पतन (Decline of the Brahmo Samaj)

भारतीय समाज में अपने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद, ब्रह्म समाज 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के प्रारंभ तक अपना प्रभाव खोने लगा. यह गिरावट कई आंतरिक और बाह्य कारकों का परिणाम थी, जो सिविल सेवा परीक्षा के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं.

इसके पतन के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:

1. आंतरिक विभाजन और वैचारिक मतभेद (Internal Divisions and Ideological Differences)

ब्रह्म समाज के पतन का सबसे महत्वपूर्ण कारण इसके नेताओं के बीच वैचारिक मतभेद थे.

(a) आदि ब्रह्म समाज और भारतीय ब्रह्म समाज में विभाजन (1866): केशव चंद्र सेन ने जब बाल विवाह का विरोध करने के बावजूद अपनी 13 वर्षीय बेटी का विवाह कूचबिहार के महाराजा से किया, तो यह घटना समाज के सिद्धांतों के विपरीत मानी गई. इसके बाद, देवेंद्रनाथ टैगोर के अनुयायियों ने आदि ब्रह्म समाज की स्थापना की, जबकि केशव चंद्र सेन के अनुयायियों ने भारतीय ब्रह्म समाज का गठन किया.

(b) साधारण ब्रह्म समाज का उदय (1878): भारतीय ब्रह्म समाज में भी आंतरिक मतभेद उत्पन्न हुए, जिसके परिणामस्वरूप आनंदमोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री और उमेश चंद्र दत्त जैसे नेताओं ने साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की. इन विभाजनों ने समाज की एकता को खंडित कर दिया और उसकी संगठनात्मक शक्ति को कमजोर किया.

2. लोकप्रियता का अभाव और अभिजात्य वर्ग तक सीमित (Lack of Popular Appeal and Confined to Elites)

ब्रह्म समाज का दर्शन और विचारधारा काफी हद तक उच्च-शिक्षित बंगाली अभिजात्य वर्ग तक सीमित थी. यह समाज की सामान्य जनता की धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं से जुड़ नहीं पाया, जिससे इसका जनाधार बहुत सीमित रहा. समाज की जटिल और दार्शनिक अवधारणाएँ आम लोगों के लिए समझना मुश्किल था.

३. बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य (Changing Socio-Political Landscape)

19वीं सदी के अंत तक भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन का उदय हुआ. इन आंदोलनों का ध्यान धार्मिक सुधारों से हटकर राजनीतिक स्वतंत्रता पर केंद्रित हो गया. ब्रह्म समाज की उदारवादी और पश्चिमी-प्रभावित विचारधारा को कुछ हद तक राष्ट्रवादी भावना के विरुद्ध देखा गया, क्योंकि यह भारतीय संस्कृति की जड़ों से पूरी तरह से नहीं जुड़ी थी.

4. नए सुधार आंदोलनों का उदय (Rise of New Reform Movements)

आर्य समाज (दयानंद सरस्वती) और रामकृष्ण मिशन (स्वामी विवेकानंद) जैसे नए सुधार आंदोलनों ने ब्रह्म समाज को पीछे छोड़ दिया. आर्य समाज ने “वेदों की ओर लौटो” का नारा देकर भारतीय संस्कृति और परंपरा पर जोर दिया, जो आम लोगों के लिए अधिक आकर्षक था.

रामकृष्ण मिशन ने धार्मिक सेवा और सामाजिक कार्य को एक साथ मिलाकर एक नया मार्ग दिखाया, जिससे इसे व्यापक समर्थन मिला. ये आंदोलन ब्रह्म समाज की तुलना में अधिक साहसिक और भारतीय संस्कृति के निकट माने गए, जिससे ब्रह्म समाज का प्रभाव और कम हो गया.

अंत में (Conclusion)

ब्रह्म समाज ने पुरातन व रूढ़िवादी समाज को आधुनिकता के तरफ मोड़ने का आरंभिक प्रयास किया. इसमें यह काफी हदतक सफल भी हुआ. लेकिन, आंतरिक संघर्षों, आम जनता से दूरी और बदलते हुए सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के कारण इसका पतन भी हो गया. इसने एक महत्वपूर्ण नींव रखी. लेकिन अपनी कमजोरियों के कारण यह आधुनिक भारत में सुधार आंदोलनों की अगली लहर का नेतृत्व नहीं कर पाया. हालाँकि, इसके विचारों ने कई भावी आंदोलनों और नेताओं को प्रेरित किया, जिससे इसका ऐतिहासिक महत्व अक्षुण्ण रहा.

ब्रह्म समाज पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. ब्रह्म समाज की स्थापना किसने और कब की थी?

ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त 1828 को राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में की थी.

2. ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धांत क्या थे?

ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धांतों में एकेश्वरवाद (एक ईश्वर में विश्वास), मूर्तिपूजा और बहुदेववाद का विरोध, तथा अंधविश्वासों और कुरीतियों का खंडन शामिल थे. समाज ने नैतिकता, तर्कवाद और सभी धर्मों की एकता पर बल दिया.

3. ब्रह्म समाज के विभाजन का क्या कारण था?

ब्रह्म समाज का विभाजन मुख्य रूप से केशव चंद्र सेन और देवेन्द्रनाथ टैगोर के बीच हुए वैचारिक मतभेदों के कारण हुआ. 1866 में, केशव चंद्र सेन के अनुयायियों ने भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना की, जबकि देवेंद्रनाथ टैगोर के अनुयायी आदि ब्रह्म समाज के रूप में जाने गए. बाद में, भारतीय ब्रह्म समाज में भी विभाजन हुआ और साधारण ब्रह्म समाज का गठन हुआ.

4. ब्रह्म समाज का भारतीय समाज में क्या योगदान था?

ब्रह्म समाज ने सती प्रथा, बाल विवाह, और जातिगत भेदभाव जैसी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसने विधवा पुनर्विवाह और स्त्री शिक्षा का समर्थन किया. इसके अलावा, इसने आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा दिया और भारतीय राष्ट्रवाद की वैचारिक नींव रखने में भी योगदान दिया.

5. ब्रह्म समाज और आर्य समाज में क्या अंतर था?

ब्रह्म समाज ने पश्चिमी विचारों से प्रभावित होकर एकेश्वरवाद और तर्क पर जोर दिया, जबकि आर्य समाज ने “वेदों की ओर लौटो” का नारा देकर भारतीय परंपराओं और संस्कृति पर अधिक ध्यान केंद्रित किया. ब्रह्म समाज का प्रभाव मुख्य रूप से बंगाल तक सीमित था, जबकि आर्य समाज का प्रभाव उत्तर भारत में अधिक व्यापक था.

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