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सेन वंश का इतिहास और उनके महत्वपूर्ण तथ्य

बंगाल में रहने वाले आधुनिक सेन लोग अपनी ही तरह प्राचीन सेन वंश के राजाओं को वैद्य मानते हैं. किन्तु यह ऐतिहासिक प्रमाणों से साबित नही होता. सेन वंशी शासकों के पूर्वपुरुषों के मूल स्थान और उत्पत्ति सम्बन्धी उल्लेख विजयसेन के देवपाड़ा अभिलेख एवं लक्ष्मणसेन के माधाइनगर अभिलेख में मिलते हैं. तदनुसार वे चन्द्रवंशी थे और उनका प्रारम्भिक पुरूष वीरसेन था, जिस कुल में सामन्त सेन उत्पन्न हुआ है. सामन्तसेन को कर्णाट क्षत्रियों का कुलशिरोदाम अथवा उस वंश का ग्रीवमाल एवं दक्षिणात्य क्षौणीन्द्र कहा गया है.

विजयसेन (लगभग 1065 – 1158 ई0)

रानी यशोदेवी से उत्पन्न उसका विजयसेन नामक पुत्र गद्दी पर बैठा. दक्षिण राढ़ा में स्थापित शूरवंश की एक राजकुमारी (विलासदेवी) से विवाहकर उसने अपने सत्ता के विस्तार का प्रयत्न किया. रामपाल की मृत्यु के बाद पालों की अवनति का लाभ उठाकर विजयसेन ने धीरे- धीरे अपनी सत्ता पूर्वी बंगाल और उत्तरी बंगाल के बहुत बड़े भाग पर स्थापित कर ली. 

यद्यपि हमें यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नही कि उसने सैनिक और राजनीतिक सफलताएं किस क्रम में अथवा किस प्रकार प्राप्त की. गोडराज पर विजय सेन की विजय को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए. उसके देवपाड़ा अभिलेख में कहा गया है कि गौडराज युद्ध न कर पराङमुख हो गया. यह गौडराज पालशासक मदनपाल था. 

विजयसेन की शक्ति का प्रारम्भिक केन्द्र और उसकी राजधानी पूर्वी बंगाल में विक्रमपुर थी. उसने परमेश्वर, परमभट्टारक, महाराजाधिराज एवं अरिराजवृषभशंकर जैसे गौरव सूचक विरूद धारण किये. उसकी राजनीतिक सफलताओं और अन्य उपलब्धियों से आकृष्ट होकर श्री हर्ष ने विजय प्रशस्ति और गौंडों र्विशप्रशस्ति नामक काव्यों की रचना की.

वल्लालसेन (लगभग 1156 – 1176 ई0)

सन् 1158-1156 के आसपास विजयसेन की मृत्यु हो गयी; और विलासदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र वल्लालसेन राज्य का उत्तराधिकारी हुआ. उसके विशेष सैनिक विजय की जानकारी तो नही होती. किन्तु यह स्पष्ट है कि उस विजयसेन से प्राप्त राजनीतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखा. 

उसने कदाचित गोविन्दपाल को 1162 ई0 के आसपास युद्ध में हराकर बिहार पर अधिकार कर लिया और गोंडेश्वर की वह उपाधि स्वयं धारण की जो पालशासक धारण किया करते थे. इसके संकेत सागर और वल्लालचरित नामक ग्रन्थों से प्राप्त होते हैं. 

लक्ष्मणसेन के माथाइनगर ताम्रफलकाभिलेख से ज्ञात होता है बल्लालसेन ने किसी चालुक्य राजा की पुत्री रामदेवी से विवाह किया. बल्लाल सेन स्वयं भी परिष्कृत बुद्धि का विद्वान था, जिसने 1061 शक संवत् 181 1166-70 ई0 में दानसागर नामक ग्रन्थ की रचना की. उसने अद्भुत सागर नामक एक दूसरा ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ किया किन्तु उसे पूरा किये बिना ही वह गृहस्थ जीवन त्याग कर अपने अन्तिम दिन बिताने संगम चला गया. इस ग्रन्थ को पूर्ण लक्ष्मणसेन ने किया.

लक्ष्मणसेन (लगभग 1176 – 1205 ई0)

बल्लालसेन ने अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में गद्दी को त्यागकर रानी रामदेवी से उत्पन्न अपने पुत्र लक्ष्मणसेन को राज्याभिषिक्त कर दिया. वह अपने वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक प्रतीत होता है.

लक्ष्मणसेन की विजयें

अपने पुत्र विश्वरूप सेन के मदनपाड़ा अभिलेख 2 में वह अश्वपति, गजपति, नरपति, राजत्रयाधिपतिसेन कुलकमल विकास भास्कर सोमवंश प्रदीप परमभट्टारक परमसौरभ महाराजाधिराज अरिराजमदन शंकर गौडेश्वर जैसी लम्बी विरूदावली से विभूषित किया गया है. 

स्पष्ट है कि अपने पुत्रों की दृष्टि में लक्ष्मणसेन एक महान विजेता था, जिसकी सैनिक उपलब्धियां अत्यन्त महत्वपूर्ण थी. तदनुसार उसने गोंड, कामरूप, काशी और कलिंग पर विजय प्राप्त की.

सेन राज्य का विश्रृंखलन :

लक्ष्मण सेन की अनेक विशेषताओं को आँख से ओझल न करते हुए भी यह नही कहा जा सकता कि उसके अधीन रहते हुए बंगाल ने उत्तर भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भाग लिया.4 सेन राज्य का यह विश्रृंखलन कदाचित् लक्ष्मणसेन की वृद्धावस्था की शिथिलता का परिणाम था. उसका प्रशासन ढीला हो चुका था और राज्य की सुदृढ़ता बनाये रखने की उसकी शक्ति समाप्त हो चुकी थी, जिसके पूरे प्रमाण बख्तियार खलजी के आक्रमण के समय हमें मिलते हैं.

बख्तियार खलजी का आक्रमण

1163 ई0 में मगध के बिहार नामक नगर को ध्वस्तकर बख्तियार खलजी जब कुतुबुद्दीन ऐबक के सम्मुख उपस्थित हुआ तो उसे बहुत बड़े आदर और सत्कार के साथ लखनौती भी जीतने की आज्ञा मिली. मिनहाजुद्दीन ने अपने तबकाते नासिरी में बख्तियार द्वारा नदिया – लखनौती की विजय का जो विवरण दिया है. वह बहुशः अतिरंजित होते हुए भी अन्य साक्ष्यों के अभाव में विद्वानों द्वारा प्रायः स्वीकृत किया जा चुका है. 

बख्तियार ने इतनी तेजी से सेन क्षेत्रों पर धावा किया कि उसकी सेना का मुख्य भाग पीछे छूट गया और लक्ष्मणसेन (मुसलमान लेखकों का राय लखमनियां) की राजधानी नदिया पहुँचते-पहुँचते उसके पास मात्र 18 घुड़सवार बच रहे. 

सभी ने यह समझा कि घोड़ों को बेचने वाला कोई सौदागर है तथापि निःशक होकर वह राजमहल में घुस गया. तब तक 260 अन्य सैनिक उसके साथ आ चुके थे. महल में भगदड़ हल्ला मच जाने पर वस्तुस्थिति का पता लगा तो उसके सामने भागकर प्राण बचाने के सिवा कोई चारा नही रहा. 

लक्ष्मणसेन दोपहर में भोजन कर रहा था, वह नंगे पाव राजमहल के पिछले द्वार से भागा और (दक्षिणपूर्वी बंगाल) बंग चला गया. बड़ा आश्चर्य जनक प्रतीत होता है कि बख्तियार की 18 घुड़सवारों की अगली टुकड़ी को बिना किसी रोक टोक के नगर अथवा राजमहल में प्रवेश करने से किसी ने रोका नही. परिणामतः नदिया और उसके साथ सारा उत्तरी बंगाल आक्रमणकारियों के सामने तुरंत ढ़ह गया.

लक्ष्मणसेन का राजदरबार :

भयाक्रांत लक्ष्मणसेन की तुर्क आक्रमणकारियों के सामने दुर्गति तो हुई, किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से उसका समय महत्वपूर्ण था. लक्ष्मणसेन की उदारता, गुणों की प्रसिद्धि की सूचनाएं उसके समय के मुसलमानों को भी थीं. 

राजशेखर अपने प्रबन्ध कोश में लक्ष्मण सेन की प्रशंसा करता हुआ कहता है कि वह बड़ा प्रतापी और न्यायी था तथा उसके पास विपुल राज्य और अपार सेना 160 थी. विद्वान लेखकों और कवियों को आदर और राजाश्रय देना उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी. वह स्वयं भी उच्चकोटि का विद्वान और कवि था. 

लक्ष्मणसेन ने अपने पिता द्वारा अधूरे छोड़े गये खगोलशास्त्र से सम्बन्धित अद्भुतसागर नामक ग्रन्थ की पूर्ति की, जो उसके वैदुष्य का ज्वलन्त उदाहरण है.

लक्ष्मणसेन के उत्तराधिकारी

नदिया पर 1202 ई0 में बख्तिायार खलजी के आक्रमण के साथ लक्ष्मणसेन अथवा उसके वंश की समाप्ति नहीं हो गयीं. सदुक्तिकर्णामृत के एक स्थल से ज्ञात होता है कि उसकी मृत्यु 1205 ई0 में हुई.

उसके बाद क्रमशः विश्वरूपसेन और केशवसेन नामक दो पुत्रों ने दक्षिण और पूर्वी बंगाल पर लगभग 20-25 वर्षों तक शासन किया, जहां से उनके कम से कम तीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं. यद्यपि उन अभिलेखों में उन्हें परम्परागत रूप में सभी साम्राज्यसूचक विरूद दिये गये हैं, उनके सम्बन्ध में किसी निश्चित राजनीतिक तथ्य की जानकारी नही होती.

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