भारतीय इतिहास में मुगल साम्राज्य (Mughal Empire in Hindi) एक युग के समान है. सल्तनतकाल की समाप्ति के साथ भारतीय इतिहास में इस नए युग का प्रारम्भ होता है. भारतीय इतिहास का यह नव युग मुगलकाल के नाम से प्रसिद्ध है. इस राजवंश का संस्थापक बाबर था जो चगताई तुर्क था. बाबर अपने पिता की ओर से तैमूर का वंशज था और माता की ओर से चंगेज खाँ का.
जैसा कि डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है बाबर मुगल नहीं था, एक तुर्क था और अपने पिता की ओर से तैमूर का वंशज था, उसकी माँ मध्य एशिया के युनूस खाँ नामक एक मुगल या मंगोल सरदार की पुत्री थी. वास्तव में भारत के वे सम्राट् जो मुगल कहलाते हैं, तुर्क के मंगोल नहीं.
सत्य तो यह है कि बाबर का मुगलों के साथ घृणास्पद व्यवहार था और उनके रहन-सहन से उसे घृणा थी. उसने तुर्कों तथा मंगोलों में सदैव भेद रखा और उन्हें वह सदा मुगल लिखा करता था. किन्तु इस अन्तर के होते हुए भी इतिहासकारों ने उत्तर मध्ययुग में उदित इस राजवंश को मुगल राजवंश और उनके द्वारा स्थापित साम्राज्य को मुगल साम्राज्य की संज्ञा दी है. लगभग दो शताब्दियों के ऊपर विशाल काल-खण्ड में फैला मुगल शासन-काल भारतीय इतिहास का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण युग है.
इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बाद मंगोलो की ही एक शाखा मुगल कही जाने लगी. तैमूर ने एक बृहत साम्राज्य का निर्माण किया था. इसका साम्राज्य उत्तर में बोलगा नदी से दक्षिण में सिंधु नदी तक फैला हुआ था. इसमें एशिया माइनर का क्षेत्र, मावराउन्नहर (ट्रांस आक्तिसयाना), अफगानिस्तान और इरान का क्षेत्र शामिल था. पंजाब भी उसके अधीन रहा था.
1404 ई. में तैमूर की मृत्यु हो गयी और उसका उत्तराधिकारी शाहरुख मिर्ज़ा ने साम्राज्य के बहुत बड़े भाग पर एकता बनाये रखी. शाहरुख के पश्चात् साम्राज्य का विभाजन हो गया. तैमूर राजकुमार आपस में ही संघर्ष करने लगे और एक प्रकार की राजनैतिक शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो गयी. इसी रिक्ति को भरने के लिये कुछ नये राज्य अस्तित्व में आये. तैमूर साम्राज्य के पतन के पश्चात् तीन साम्राज्य अस्तित्व में आए यथा मुगल, सफवी और उजबेक. ईरान के पश्चिम में अर्थात् पूर्वी यूरोप में ओटोमन साम्राज्य की स्थापना हुयी.
बाबर का भारत आगमन और मुग़ल साम्राज्य की स्थापना
तैमूर की मृत्यु और उसके साम्राज्य के विघटन के पश्चात उसकी संतति मध्य एशिया में छोटे-छोटे राज्यों में बँट गई. इन्हीं वंशजों में एक ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर था, जिसने बाद में भारत में मुग़ल साम्राज्य की नींव डाली. बाबर का जन्म 14 फरवरी 1483 ई. को फ़रगना (वर्तमान उज्बेकिस्तान) में हुआ था. वह मात्र 12 वर्ष की आयु में फ़रगना की गद्दी पर बैठा, परन्तु उसे अपनी ही प्रजा और पड़ोसी राजकुमारों के विद्रोहों का सामना करना पड़ा.
बाबर ने प्रारम्भ में समरकंद और फ़रगना के क्षेत्रों पर अधिकार करने का प्रयास किया, परंतु उज़बेक सरदार शैबानी ख़ाँ ने उसे बार-बार पराजित किया. अंततः बाबर को काबुल की ओर रुख करना पड़ा. 1504 ई. में उसने काबुल पर अधिकार कर लिया और यहीं से उसने अपने साम्राज्य विस्तार की योजनाएँ बनानी शुरू कीं. काबुल उसके लिए भारत में प्रवेश का द्वार सिद्ध हुआ.
भारत उस समय राजनीतिक दृष्टि से अत्यन्त विखंडित अवस्था में था. लोधी वंश का सुल्तान इब्राहीम लोधी दिल्ली की गद्दी पर बैठा था, परन्तु उसकी कठोरता और सरदारों के साथ असहमति के कारण राज्य में असंतोष फैला हुआ था. पंजाब के शासक दौलत ख़ाँ लोधी और मेवाड़ के राणा साँगा जैसे शक्तिशाली सरदार बाबर को आमंत्रण भेजने लगे कि वह भारत आकर इब्राहीम लोधी की शक्ति को समाप्त करे.
बाबर ने अवसर को पहचानते हुए भारत की ओर ध्यान केंद्रित किया. उसने कई बार भारत पर आक्रमण किया और अंततः 20 अप्रैल 1526 ई. को पानीपत के मैदान में इब्राहीम लोधी की विशाल सेना से उसका सामना हुआ. इस युद्ध में बाबर ने तोपख़ाने और संगठित घुड़सवार सेना का प्रयोग किया, जो भारत में पहली बार इतनी प्रभावी ढंग से प्रयोग हुआ. परिणामस्वरूप इब्राहीम लोधी पराजित हुआ और युद्धभूमि में मारा गया.
यह युद्ध प्रथम पानीपत का युद्ध कहलाया और इसके साथ ही भारत में मुग़ल साम्राज्य की नींव पड़ गई. पानीपत की विजय के बाद बाबर को अभी भी भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ करनी थी. 1527 ई. में उसने राणा साँगा की अगुवाई में एकजुट राजपूत शक्तियों का सामना किया. यह युद्ध खानवा का युद्ध कहलाया. बाबर ने इसमें विजय प्राप्त कर उत्तर भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया. इसके बाद 1528 ई. में चंदेरी और 1529 ई. में घाघरा के युद्धों में भी उसे सफलता मिली. इन विजयों ने मुग़ल सत्ता को स्थिरता प्रदान की.
बाबर का व्यक्तित्व और योगदान
बाबर केवल एक विजेता ही नहीं था, बल्कि साहित्य, कला और संस्कृति में भी उसकी रुचि थी. उसने अपनी आत्मकथा तुज़ुक-ए-बाबरी (बाबरनामा) फारसी और तुर्की भाषा में लिखी, जो उस काल की राजनीति, समाज और संस्कृति की अनमोल झलक प्रदान करती है. वह एक व्यवहारकुशल शासक, साहसी सेनापति और उच्च कोटि का लेखक था. उसने भारतीय उपमहाद्वीप में नई सैन्य तकनीक और संगठनात्मक शैली को प्रस्तुत किया, जिसने आगे चलकर मुग़ल शासन की शक्ति को दीर्घकालीन आधार दिया.
इस प्रकार बाबर ने अनेक संघर्षों और चुनौतियों के बावजूद भारत में एक स्थायी साम्राज्य की स्थापना की. यह साम्राज्य उसके वंशजों — हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगज़ेब — के काल में और अधिक सुदृढ़ एवं व्यापक हुआ. मुग़ल साम्राज्य ने लगभग दो शताब्दियों तक भारतीय इतिहास को एक विशिष्ट युग प्रदान किया, जिसमें राजनीति, कला, वास्तुकला और संस्कृति ने अपनी ऊँचाइयाँ प्राप्त कीं.
मुगल साम्राज्य (1526-1707 ई.) के मुख्य शासक (Main Rulers of Mughal Empire)
मुगल साम्राज्य के मुख्य शासक इस प्रकार हुए:
1. बाबर (1526-1530 ई.)

दिल्ली सल्तनत के अंतिम शासक इब्राहिम लोदी को 1526 ई. में पराजित कर बाबर ने मुगल साम्राज्य की स्थापना की. बाबर फरगना का शासक था. बाबर को भारत आने का निमंत्रण पंजाब के सूबेदार दौलत खां लोदी तथा इब्राहिम लोदी के चाचा आलम खां ने लोदी ने दिया था. बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध से पूर्व भारत पर चार बार आक्रमण किया था. पानीपत विजय उसका पांचवा आक्रमण था.
बाबर ने जिस समय भारत पर आक्रमण किया उस समय भारत में बंगाल, मालवा, गुजरात, सिंध, कश्मीर, मेंवाड़, खानदेश, विजयनगर और बहमनी आदि स्वतंत्र राज्य थे. बाबर का पानीपत के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण युद्ध राणा सांग के विरुद्ध खानवा का युद्ध (1527 ई.) था, जिसमें विजय के पश्चात बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की.
बाबर ने 1528 में मेंदिनी राय को परास्त कर चंदेरी पर अधिकार कर लिया. बाबर ने 1529 में घाघरा के युद्ध में बिहार और बंगाल की संयुक्त अफगान सेना को पराजित किया, जिसका नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था.
बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध में ‘तुगलकनामा युद्ध पद्धति’ का प्रयोग किया था, जिसे उसने उज्बेकों से ग्रहण किया था. बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में विजयनगर के तत्कालीन शासक कृष्णदेव राय को समकालीन भारत का सबसे शक्तिशाली राजा कहा है. बाबर ने दिल्ली सल्तनत के शासकों की परम्परा ‘सुल्तान’ को तोड़कर अपने को बादशाह घोषित किया.
अपनी उदारता के कारण बाबर को ‘कलन्दर’ कहा जाता था. उसने पानीपत विजय के पश्चात काबुल के प्रत्येक निवासी को एक-एक चांदी का सिक्का दान में दिया था. बाबर ने आगरा में बाग लगवाया, जिसे ‘नूर-ए-अफगान’ के नाम से जाना जाता था, किन्तु अब इसे ‘आराम बाग’ कहा जाता है. बाबर ने ‘गज-ए-बाबरी’ नामक नाप की एक इकाई का प्रचलन किया. बाबर ने ‘मुबइयान’ नामक एक पद्य शैली का विकास किया. ‘रियाल-ए-उसज’ की रचना बाबर ने ही की थी.
26 दिसंबर, 1530 को आगरा में बाबर की मृत्यु हो गयी, उसे नूर-ए-अफगान बाग में दफनाया गया.
हुमायूं (1530 ई.-1556 ई.)
बाबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हुमायूं मुगल वंश के शासन पर बैठा. बाबर के चारों पुत्र-कामरान, अस्करी, हिंदाल और हुमायूं में हुमायूं सबसे बड़ा था. हुमायूं ने अपने साम्राज्य का विभाजन भाइयों में किया था. उसने कामरान को काबुल एवं कंधार, अस्करी को संभल तथा हिंदाल को अलवर प्रदान किया था.
हुमायूं के सबसे बड़े शत्रु अफगान थे, क्योंकि वे बाबर के समय से ही मुगलों को भारत से बाहर खदेड़ने के लिए प्रयत्नशील थे. हुमायूं का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी अफगान नेता शेर खां था, जिसे शेरशाह शूरी भी कहा जाता है.
हुमायूं का अफगानों से पहला मुकाबला 1532 ई. में ‘दोहरिया’ नामक स्थान पर हुआ. इसमें अफगानों का नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था. इस संघर्ष में हुमायूं सफल रहा. 1532 में हुमायूं ने शेर खां के चुनार किले पर घेरा डाला. इस अभियान में शेर खां ने हुमायूं की अधीनता स्वीकार कर अपने पुत्र क़ुतुब खां के साथ एक अफगान टुकड़ी मुगलों की सेवा में भेज दी.
1532 ई. में हुमायूं ने दिल्ली में ‘दीन पनाह’ नामक नगर की स्थापना की. 1535 ई. में ही उसने बहादुर शाह को हराकर गुजरात और मालवा पर विजय प्राप्त की. शेर खां की बढती शक्ति को दबाने के लिए हुमायूं ने 1538 ई. में चुनारगढ़ के किले पर दूसरा घेरा डालकर उसे अपने अधीन कर लिया.
1538 ई. में हुमायूं ने बंगाल को जीतकर मुगल शासक के अधीन कर लिया. बंगाल विजय से लौटने समय 26 जून, 1539 को चौसा के युद्ध में शेर खां ने हुमायूं को बुरी तरह पराजित किया. शेर खां ने 17 मई, 1540 को बिलग्राम के युद्ध में पुनः हुमायूं को पराजित कर दिल्ली पर बैठा. हुमायूं को मजबूर होकर भारत से बाहर भागना पड़ा.
1544 में हुमायूं ईरान के शाह तहमस्प के यहाँ शरण लेकर पुनः युद्ध की तैयारी में लग गया. 1545 ई. में हुमायूं ने कामरान से काबुल और गंधार छीन लिया. 15 मई, 1555 को मच्छीवाड़ा तथा 22 जून, 1555 को सरहिंद के युद्ध में सिकंदर शाह सूरी को पराजित कर हुमायूं ने दिल्ली पर पुनः अधिकार लिया.
23 जुलाई, 1555 को हुमायूं एक बार फिर दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ, परन्तु अगले ही वर्ष 27 जनवरी, 1556 को पुस्तकालय की सीढियों से गिर जाने से उसकी मृत्यु हो गयी. लेनपूल ने हुमायूं पर टिप्पणी करते हुए कहा, “हुमायूं जीवन भर लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाते हुए उसने अपनी जान दे दी.“
बैरम खां हुमायूं का योग्य एवं वफादार सेनापति था, जिसने निर्वासन तथा पुनः राजसिंहासन प्राप्त करने में हुमायूं की मदद की.
शेरशाह सूरी (1540 ई. –1545 ई.)
बिलग्राम के युद्ध में हुमायूं को पराजित कर 1540 ई. में 67 वर्ष की आयु में दिल्ली की गद्दी पर बैठा. इसने मुगल साम्राज्य की नींव उखाड़ कर भारत में अफगानों का शासन स्थापित किया. इसके बचपन का नाम फरीद था. शेरशाह का पिता हसन खां जौनपुर का एक छोटा जागीरदार था. दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खां लोहानी ने शेर मारने के उपलक्ष्य में फरीद खां की उपाधि प्रदान थी. बहार खां लोहानी की मृत्यु के बाद शेर खां ने उसकी विधवा ‘दूदू बेगम’ से विवाह कर लिया.
1539 ई. में बंगाल के शासक नुसरतशाह को पराजित करने के बाद शेर खां ने ‘हजरत-ए-आला’ की उपाधि धारण की. 1539 ई. में चौसा के युद्ध में हुमायूं को पराजित करने के बाद शेर खां ने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण की. 1540 में दिल्ली की गद्दी पर बैठने के बाद शेरशाह ने सूरवंश अथवा द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की.
शेरशाह ने अपनी उत्तरी पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए ‘रोहतासगढ़’ नामक एक सुदृढ़ किला बनवाया. 1542 और 1543 ई. में शेरशाह ने मालवा और रायसीन पे आक्रमण करके अपने अधीन कर लिया. 1544 ई. में शेरशाह ने मारवाड़ के शासक मालदेव पर आक्रमण किया. बड़ी मुश्किल से सफलता मिली. इस युद्ध में राजपूत सरदार ‘गयता’ और ‘कुप्पा’ ने अफगान सेना के छक्के छुड़ा दिए.
1545 ई में शेरशाह ने कालिंजर के मजबूर किले का घेरा डाला, जो उस समय कीरत सिंह के अधिकार में था, परन्तु 22 मई 1545 को बारूद के ढेर में विस्फोट के कारण उसकी मृत्यु हो गयी.
भारतीय इतिहास में शेरशाह अपने कुशल शासन प्रबंध के लिए जाना जाता है. शेरशाह ने भूमि राजस्व में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया, जिससे प्रभावित होकर अकबर ने अपने शासन को प्रबंध का अंग बनाया. प्रसिद्द ग्रैंड ट्रंक रोड (पेशावर से कलकत्ता) की मरम्मत, करवाकर व्यापार और आवागमन को सुगम बनाया.
शेरशाह का मकबरा बिहार के सासाराम में स्थित है, जो मध्यकालीन कला का एक उत्कृष्ट नमूना है. शेरशाह की मृत्यु के बाद भी सूर वंश का शासन 1555 ई. में हुमायूं द्वारा पुनः दिल्ली की गद्दी प्राप्त करने तक कायम रहा.
अकबर (1556 ई. – 1605 ई.)

1556 ई. में हुमायूं की मृत्यु के बाद उसके पुत्र अकबर का कलानौर नामक स्थान पर 14 फरवरी, 1556 को मात्र 13 वर्ष की आयु में राज्याभिषेक हुआ. अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 को अमरकोट के राजा वीरमाल के प्रसिद्द महल में हुआ था. अकबर ने बचपन से ही गजनी और लाहौर के सूबेदार के रूप में कार्य किया था.
भारत का शासक बनने के बाद 1556 से 1560 तक अकबर बैरम खां के संरक्षण में रहा. अकबर ने बैरम खां को अपना वजीर नियुक्त कर खाना-ए-खाना की उपाधि प्रदान की थी. 5 नवम्बर, 1556 को पानीपत के द्वितीय युद्ध में अकबर की सेना का मुकाबला अफगान शासक मुहम्मद आदिल शाह के योग्य सेनापति हैमू की सेना से हुआ, जिसमें हैमू की हार एवं मृत्यु हो गयी.
1560 से 1562 ई. तक दो वर्षों तक अकबर अपनी धय मां महम अनगा, उसके पुत्र आदम खां तथा उसके सम्बन्धियों के प्रभाव में रहा. इन दो वर्षों के शासनकाल को पेटीकोट सर्कार की संज्ञा दी गयी है. अकबर ने भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो इस प्रकार है:
प्रदेश | वर्ष (काल) |
मालवा | 1561 ई. |
चुनार | 1561 ई. |
गोंडवाना | 1564 ई. |
गुजरात | 1571-72 ई. |
काबुल | 1581 ई. |
सिंध | 1591 ई. |
बलूचिस्तान | 1595 ई. |
बंगाल एवं बिहार | 1574-76 ई. |
कश्मीर | 1586 ई. |
उड़ीसा | 1590-91 ई. |
कंधार | 1595 ई. |
राजपूत राज्य
आमेंर | 1562 |
मेंड़ता | 1562 |
हल्दी घाटी युद्ध | 1568 ई. |
रणथम्बौर | 1576 ई. |
कालिंजर | 1569 ई. |
मारवाड़ | 1570 ई. |
जैसलमेंर | 1570 ई. |
बीकानेर | 1570 ई. |
अकबर ने दक्षिण भारत के राज्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था. खानदेश (1591), दौलताबाद (1599), अहमदनगर (1600) और असीर गढ़ (1601) मुगल शासन के अधीन किये गए. अकबर ने भारत में एक बड़े साम्राज्य की स्थापना की, परन्तु इससे ज्यादा वह अपनी धार्मिक सहिष्णुता के लिए विख्यात है.
अकबर ने 15 75 ई. में फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना की स्थापना की. इस्लामी विद्वानों की अशिष्टता से दुखी होकर अकबर ने 1578 ई. में इबादतखाना में सभी धर्मों के विद्वानों को आमंत्रित करना शुरू किया. 1582 ई. में अकबर ने एक नवीन धर्म ‘तोहिद-ए-इलाही’ या ‘दीन-ए-इलाही’ की स्थापना की, जो वास्तव में विभिन्न धर्मों के अच्छे तत्वों का मिश्रण था.
अकबर ने सती प्रथा को रोकने का प्रयत्न किया, साथ ही विधवा विवाह को क़ानूनी मान्यता दी. अकबर ने लड़कों के विवाह की उम्र 16 वर्ष और लड़कियों के लिए 14 वर्ष निर्धारित की. अकबर ने 1562 में दास प्रथा का अंत किया तथा 1563 में तीर्थयात्रा पर से कर को समाप्त कर दिया.
अकबर ने 1564 में जजिया कर समाप्त कर सामाजिक सदभावना को सुदृढ़ किया. 1579 में अकबर ने ‘मजहर’ या अमोघवृत्त की घोषणा की. अकबर ने गुजरात विजय की स्मृति में फतेहपुर सीकरी में ‘बुलंद दरवाजा’ का निर्माण कराया था.
अकबर ने 1575-76 ई. में सम्पूर्ण साम्राज्य को 12 सूबों में बांटा था, जिनकी संख्या बराड़, खानदेश और अहमदनगर को जीतने के बाद बढ़कर 15 हो गयी. अकबर ने सम्पूर्ण साम्राज्य में एक सरकारी भाषा (फारसी), एक समान मुद्रा प्रणाली, समान प्रशासनिक व्यवस्था तथा बात माप प्रणाली की शुरुआत की.
अकबर ने 1573-74 ई. में ‘मनसबदारी प्रथा’ की शुरुआत की, जिसकी खलीफा अब्बा सईद द्वारा शुरू की गयी तथा चंगेज खां और तैमूरलंग द्वारा स्वीकृत सैनिक व्यवस्था से मिली थी.
जहाँगीर (1605 ई.- 1627 ई.)
17 अक्टूबर 1605 को अकबर की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र सलीम जहाँगीर के नाम से गद्दी पर बैठा. गद्दी पर भटकते ही सर्वप्रथम 1605 ई. में जहाँगीर को अपने पुत्र खुसरो के विद्रोह का सामना करना पड़ा. जहाँगीर और खुसरो के बीच भेरावल नामक स्थान पर एक युद्ध हुआ, जिसमें खुसरो पराजित हुआ.
खुसरो को सिक्खों के पांचवे गुरु अर्जुन देव का आशीर्वाद प्राप्त था. जहाँगीर ने अर्जुन देव पर राजद्रोह का आरोप लगाते हुए फांसी की सजा दी.
1585 मेँ जहाँगीर का विवाह आमेंर के राजा भगवान दास की पुत्री तथा मानसिंह की बहन मानबाई से हुआ, खुसरो मानबाई का ही पुत्र था. जहाँगीर दूसरा विवाह राजा उदय सिंह की पुत्री जगत गोसाईं से हुआ था, जिसकी संतान शाहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) था. मई 1611 जहाँगीर ने मेंहरुन्निसा नामक एक विधवा से विवाह किया जो, फारस के मिर्जा गयास बेग की पुत्री थी. जहाँगीर ने मेंहरुन्निसा को ‘नूरमहल’ एवं ‘नूरजहाँ’ की उपाधि दी.
नूरजहाँ के पिता गयास बेग को वजीर का पद प्रदान कर एत्माद्दुदौला की उपाधि दी गई, जबकि उसके भाई आसफ खाँ को खान-ए-सामा का पद मिला. 1605 से 1615 के मध्य कई लड़ाइयों के बाद जहाँगीर ने मेंवाड़ के राजा अमर सिंह के साथ संधि कर ली.
अकबर के समय मेँ खानदेश तथा अहमदनगर के कुछ भागो को जीत लिया गया था, परन्तु अहमदनगर का राज्य समाप्त नहीँ हुआ था. मुगलो और अहमदनगर के बीच कई युद्ध हुए और अंततः 1621 मेँ दोनो के बीच संधि हो गई.
1621 ने जहाँगीर ने अपना दक्षिण अभियान समाप्त कर दिया क्योंकि इसके बाद वह 1623 ई. में शाहजहाँ के विद्रोह, 1626 मेँ महावत ख़ाँ के विद्रोह के कारण उलझ गया. जहाँगीर के दक्षिण विजय मेँ सबसे बडी बाधा अहमदनगर के योग्य वजीर मलिक अंबर की उपस्थिति थी. उसने मुगलोँ के विरोध ‘गुरिल्ला युद्ध नीति’ अपनाई और बडी संख्या मेँ सेना मेँ मराठोँ की भरती की.
जहाँगीर ने 1611 मेँ खरदा, 1615 मेँ खोखर, 1620 मेँ कश्मीर के दक्षिण मेँ किश्तवाड़ तथा 1620 में ही कांगड़ा को जीता. जहाँगीर के शासन की सबसे उल्लेखनीय सफलता 1620 मेँ उत्तरी पूर्वी पंजाब की पहाडियोँ पर स्थित कांगड़ा के दुर्ग पर अधिकार करना था.
1626 मेँ महावत खान का विद्रोह जहाँगीर के शासनकाल की एक महत्वपूर्ण घटना थी. महावत खां ने जहाँगीर को बंदी बना लिया था. नूरजहाँ की बुद्धिमानी के कारण महावत ख़ाँ की योजना असफल सिद्ध हुई. नूर जहाँ से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण घटना उसके द्वारा बनाया गया ‘जुंटा गुट’ था. गुट मेँ उसके पिता एत्माद्दुदौला, माता अस्मत बेगम, भाई आसफ खान और शाहजादा खुर्रम सम्मिलित थे.
जहाँगीर ने ‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ नाम से अपनी आत्मकथा की रचना की. नूरजहाँ, जहाँगीर के साथ झरोखा दर्शन देती थी. सिक्कोँ पर बादशाह के साथ उसका नाम भी अंकित होता था. नूरजहाँ की माँ अस्मत बेगम ने इत्र बनाने की विधि का आविष्कार किया था. जहाँगीर के चरित्र की सबसे मुख्य विशेषता उसकी ‘अपरिमित महत्वाकांक्षा’ थी.
जहाँगीर ने तंबाकू के सेवन पर प्रतिबंध लगाया था. जहाँगीर के शासन काल में इंग्लैड के सम्राट जेम्स प्रथम ने कप्तान हॉकिंस (1608) और थॉमस (1615) को भारत भेजा. जिससे अंग्रेज भारत मेँ कुछ व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने मेँ सफल हुए.
जहाँगीर धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु था. वह अकबर की तरह ब्राम्हणों और मंदिरोँ को दान देता था. उसने 1612 ई. में पहली बार रक्षाबंधन का त्योहार मनाया. किंतु कुछ अवसरों पर जहाँगीर ने इस्लाम का पक्ष लिया. कांगड़ा का किला जीतने के बाद उसने एक गाय कटवाकर जश्न मनाया. अकबर सलीम को शेखूबाबा कहा करता था. उसने अकबर द्वारा जारी गो हत्या निषेध की परंपरा को जारी रखा.
जहाँगीर ने सूरदास को अपने दरबार मेँ आश्रय दिया था, जिसने ‘सूरसागर’ की रचना की. जहांगीर के शासन काल मेँ कला और साहित्य का अप्रतिम विकास हुआ. नवंबर 16 27 में जहाँगीर की मृत्यु हो गई. उसे लाहौर के शाहदरा मेँ रावी नदी के किनारे दफनाया गया.
शाहजहाँ (1627 ई. 1658 ई.)
शाहजहाँ (खुर्रम) का जन्म 1592 मेँ जहाँगीर की पत्नी जगत गोसाईं से हुआ. जहाँगीर की मृत्यु के समय शाह जहाँ दक्कन में था. जहाँगीर की मृत्यु के बाद नूरजहाँ ने लाहौर मेँ अपने दामाद शहरयार को सम्राट घोषित कर दिया. जबकि आसफ़ खां ने शाहजहाँ के दक्कन से आगरा वापस आने तक अंतरिम व्यवस्था के रुप मेँ खुसरो के पुत्र द्वार बक्श को राजगद्दी पर आसीन किया.
शाहजहाँ ने अपने सभी भाइयो एवम सिंहासन के सभी प्रतिद्वंदियोँ तथा अंत मेँ द्वार बक्श की हत्या कर 24 फरवरी 1628 मेँ आगरा के सिंहासन पर बैठा.
शाहजहाँ का विवाह 1612 ई. मेँ आसफ की पुत्री और नूरजहाँ की भतीजी ‘अर्जुमंद बानू बेगम’ से हुआ था, जो बाद मेँ इतिहास मेँ मुमताज महल के नाम से विख्यात हुई. शाहजहाँ को मुमताज महल 14 संतानेँ हुई लेकिन उनमेँ से चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ ही जीवित रहै. चार पुत्रों मेँ दारा शिकोह, औरंगजेब, मुराद बख्श और शुजाथे, जबकि रोशनआरा, गौहन आरा, और जहांआरा पुत्रियाँ थी.
शाहजहाँ के प्रारंभिक तीन वर्ष बुंदेला नायक जुझार सिंह और खाने जहाँ लोदी नामक अफगान सरदार के विद्रोह को दबाने मेँ निकले. शाहजहाँ के शासन काल मेँ सिक्खोँ के छठे गुरु हरगोविंद सिंह से मुगलोँ का संघर्ष हुआ जिसमें सिक्खों की हार हुई.
शाहजहाँ ने दक्षिण भारत मेँ सर्वप्रथम अहमदनगर पर आक्रमण कर के 1633 में उसे मुगल साम्राज्य मेँ मिला लिया. फरवरी 1636 में गोलकुंडा के सुल्तान अब्दुल्ला शाह ने शाहजहाँ का आधिपत्य स्वीकार कर लिया. मोहम्मद सैय्यद (मीर जुमला), गोलकुंडा के वजीर ने, शाहजहाँ को कोहिनूर हीरा भेंट किया था.
शाहजहाँ ने 1636 में बीजापुर पर आक्रमण करके उसके शासक मोहम्मद आदिल शाह प्रथम को संधि करने के लिए विवश किया. मध्य एशिया पर विजय प्राप्त करने के लिए शाहजहाँ ने 1645 ई. में शाहजादा मुराद एवं 1647 ई. मेँ औरंगजेब को भेजा पर उसको सफलता प्राप्त न हो सकी.
व्यापार, कला, साहित्य और स्थापत्य के क्षेत्र मेँ चर्मोत्कर्ष के कारण ही इतिहासकारोँ ने शाहजहाँ के शासनकाल को स्वर्ण काल की संख्या दी है. शाहजहाँ ने दिल्ली मेँ लाल किला और जामा मस्जिद का निर्माण कराया और आगरा मेँ अपनी पत्नी मुमताज महल की याद मेँ ताजमहल बनवाया जो कला और स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत करते हैं.
शाहजहाँ के शासन काल का वर्णन फ्रेंच यात्री बर्नियर, टेवरनियर तथा इटालियन यात्री मनुची ने किया है. शाहजहाँ ने अपने शासन के प्रारंभिक वर्षोँ में इस्लाम का पक्ष लिया किंतु कालांतर मेँ दारा और जहाँआरा के प्रभाव के कारण वह सहिष्णु बन गया था.
शाहजहाँ ने अहमदाबाद के चिंतामणि मंदिर की मरमत किए जाने की आज्ञा दी तथा खंभात के नागरिकोँ के अनुरोध पर वहाँ गो हत्या बंद करवा दी थी. पंडित जगन्नाथ शाहजहाँ के राज कवि थे जिनोने जिंहोने गंगा लहरी और रस गंगाधर की रचना की थी.
शाहजहाँ के पुत्र दारा ने भगवत गीता और योगवासिष्ठ का फारसी मेँ अनुवाद करवाया था. शाहजहाँ ने दारा को शाहबुलंद इकबाल की उपाधि से विभूषित किया था. दारा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य वेदो का संकलन है, उसने वेदो को ईश्वरीय कृति माना था. दारा सूफियोँ की कादरी परंपरा से बहुत प्रभावित था.
सितंबर 1657 ई. में शाहजहाँ के बीमार पड़ते ही उसके पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के लिए युद्ध प्रारंभ हो गया. शाहजहाँ के अंतिम आठ वर्ष आगरा के किले के शाहबुर्ज मेँ एक बंदी की तरह व्यतीत हुए. शाहजहाँ दारा को बादशाह बनाना चाहता था किन्तु अप्रैल 1658 ई. को धर्मत के युद्ध मेँ औरंगजेब ने दारा को पराजित कर दिया.
बनारस के पास बहादुरपुर के युद्ध मेँ शाहशुजा, शाही सेना से पराजित हुआ. जून 1658 में सामूगढ़ के युद्ध मेँ औरंगजेब और मुराद की सेनाओं का मुकाबला शाही सेना से हुआ, जिसका नेतृत्व दारा कर रहा था. इस युद्ध मेँ दारा पुनः पराजित हुआ.
सामूगढ़ के युद्ध मेँ दारा की पराजय का मुख्य कारण मुसलमान सरदारोँ का विश्वासघात और औरंगजेब का योग्य सेनापतित्व था. सामूगढ़ की विजय के बाद औरंगजेब ने कूटनीतिक से मुराद को बंदी बना लिया और बाद मेँ उसकी हत्या करवा करवा दी.
औरंगजेब और शुजा के बीच इलाहाबाद खंजवा के निकट जनवरी 1659 मेँ एक युद्ध हुआ जिसमें पराजित होकर शुजा अराकान की और भाग गया. जहाँआरा ने दारा शिकोह का, रोशनआरा ने औरंगजेब का और गौहन आरा ने मुराद बख्श का पक्ष लिया था.
शाहजहाँ की मृत्यु के उपरांत उसके शव को ताज महल मेँ मुमताज महल की कब्र के नजदीक दफनाया गया था.
औरंगजेब (1658-1707 ई.)
औरंगजेब का जन्म 3 नवंबर 1618 को उज्जैन के निकट दोहन नामक स्थान पर हुआ था. उत्तराधिकार के युद्ध मेँ विजय होने के बाद औरंगजेब 21 जुलाई 1658 को मुगल साम्राज्य की गद्दी पर आसीन हुआ. एक शासक के सारे गुण औरंगजेब में थे, उसे प्रशासन का अनुभव भी था क्योंकि बादशाह बनने से पहले औरंगजेब गुजरात, दक्कन, मुल्तान व सिंधु प्रदेशों का गवर्नर रह चुका था.
औरंगजेब ने 1661 ई. में मीर जुमला को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया जिसने कूच बिहार की राजधानी को अहोमो से जीत लिया. 1662 ई. में मीर जुमला ने अहोमो की राजधानी गढ़गाँव पहुंचा जहां बाद मेँ अहोमो ने मुगलो से संधि कर ली और वार्षिक कर देना स्वीकार किया.
1633 मेँ मीर जुमला की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता खां को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया. शाइस्ता खां ने 1666 ई. मेँ पुर्तगालियोँ को दंड दिया तथा बंगाल की खाड़ी मेँ स्थित सोन द्वीप पर अधिकार कर लिया. कालांतर मेँ उसने अराकान के राजा से चटगांव जीत लिया.
औरंगजेब शाहजहाँ के काल मेँ 1636 ई. से 1644 ई. तक दक्षिण के सूबेदार के रुप मेँ रहा और औरंगाबाद मुगलोँ की दक्षिण सूबे की राजधानी थी. शासक बनने के बाद औरंगजेब के दक्षिण मेँ लड़े गए युद्धों को दो भागोँ मेँ बाँटा जा सकता है – बीजापुर तथा गोलकुंडा के विरुद्ध युद्ध और मराठोँ के साथ युद्ध.
ओरंगजेब ने 1665 ई. में राजा जयसिंह को बीजापुर एवं शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा. जय सिंह शिवाजी को पराजित कर पुरंदर की संधि (जून, 1665) करने के लिए विवश किया. किंतु जयसिंह को बीजापुर के विरुद्ध सफलता नहीँ मिली. पुरंदर की संधि के अनुसार शिवाजी को अपने 23 किले मुगलों को सौंपने पड़े तथा बीजापुर के खिलाफ मुगलों की सहायता करने का वचन देना पड़ा.
1676 में मुगल सुबेदार दिलेर खां ने बीजापुर को संधि करने के लिए विवश किया. अंततः 1666 ई. मेँ बीजापुर के सुल्तान सिकंदर आदिल शाह ने औरंगजेब के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया फलस्वरुप बीजापुर को मुगल साम्राज्य मेँ मिला लिया गया.
1687 ई. मेँ औरंगजेब ने गोलकुंडा पर आक्रमण कर के 8 महीने तक घेरा डाले रखा, इसके बावजूद सफलता नहीँ मिली. अंततः अक्टूबर 1687 मेँ गोलकुंडा को मुगल साम्राज्य मेँ मिला लिया गया. जयसिंह के बुलाने पर शिवाजी औरंगजेब के दरबार मेँ आया जहाँ उसे कैद कर लिया गया, किंतु वह गुप्त रुप से फरार हो गये.
शिवाजी की मृत्यु के बाद के बाद उनके पुत्र संभाजी ने मुगलों से संघर्ष जारी रखा किंतु 1689 ई. मेँ उसे पकड़ कर हत्या कर दी गई. संभाजी की मृत्यु के बाद सौतेले भाई राजाराम राजाराम ने भी मुगलोँ से संघर्ष जारी रखा, जिसे मराठा इतिहास मेँ ‘स्वतंत्रता संग्राम’ के नाम से जाना जाता है.
औरंगजेब ने राजपूतोँ के प्रति अकबर, जहांगीर, और शाहजहाँ द्वारा अपनाई गई नीति मेँ परिवर्तन किया. औरंगजेब के समय आमेर (जयपुर) के राजा जयसिंह, मेंवाड़ के राजा राज सिंह, और जोधपुर के राजा जसवंत सिंह प्रमुख राजपूत राजा थे. मारवाड़ और मुगलोँ के बीच हुए इस तीस वर्षीय युद्ध (1679 – 1709 ई.) का नायक दुर्गादास था, जिसे कर्नल टॉड ने ‘यूलिसिस’ कहा है.
औरंगजेब ने सिक्खोँ के नवें गुरु तेग बहादुर की हत्या करवा दी. औरंगजेब के समय हुए कुछ प्रमुख विद्रोह मेँ अफगान विद्रोह (1667-1672), जाट विद्रोह (1669-1681), सतनामी विद्रोह (1672), बुंदेला विद्रोह (1661-1707), अकबर द्वितीय का विद्रोह (1681), अंग्रेजो का विद्रोह (1686), राजपूत विद्रोह (1679-1709) और सिक्ख विद्रोह (1675-1607 ई.) शामिल थे.
औरंगजेब एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था. उसका प्रमुख लक्ष्य भारत मेँ दार-उल-हर्ष के स्थान पर दार-उल-इस्लाम की स्थापना करना था. औरंगजेब ने 1663 ई. मेँ सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया प्रथा हिंदुओं पर तीर्थ यात्रा कर लगाया. औरंगजेब ने 1668 ई. मेँ हिंदू त्यौहारोँ और उत्सवों को मनाने जाने पर रोक लगा दी.
औरंगजेब के आदेश द्वारा 1669 ई. में काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवराय मंदिर तथा गुजरात का सोमनाथ मंदिर को तोड़ा गया. औरंगजेब ने 1679 ई. मेँ हिंदुओं पर जजिया कर आरोपित किया. दूसरी ओर उसके शासनकाल मेँ हिंदू अधिकारियो की संख्या संपूर्ण इतिहास मेँ सर्वाधिक (एक तिहाई) रही.
औरंगजेब की मृत्यु 3 मार्च 1707 को हो गई. औरंगज़ेब को ‘आलमगीर’ के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ “विश्व विजेता” है. मुगल बादशाह औरंगजेब आलमगीर का मकबरा महाराष्ट्र के छत्रपति संभाजीनगर (पहले औरंगाबाद) जिले में खुल्दाबाद शहर में स्थित है. अपनी वसीयत के अनुसार, औरंगजेब को उनके आध्यात्मिक गुरु हजरत ख्वाजा सैयद ज़ैनुद्दीन शिराज़ी की दरगाह के पास एक साधारण, अचिह्नित कब्र में दफनाया गया था.

उत्तर मुगल काल (Post-Mughal Period)
1707 मेँ औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारतीय इतिहास मेँ एक नए युग का पदार्पण हुआ, जिसे ‘उत्तर मुगल काल’ कहा जाता है. औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का पतन भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है. इस घटना ने मध्यकाल का अंत कर आधुनिक भारत की नींव रखी.
मुगल साम्राज्य जैसे विस्तृत साम्राज्य का पतन किसी एक कारण से नहीँ हो सकता इसलिए इतिहासकारोँ मेँ इस बात को लेकर मतभेद है.
यदुनाथ सरकार, एस. आर. शर्मा और लीवर पुल जैसे इतिहासकारोँ का मानना है कि औरंगजेब की नीतियोँ – धार्मिक, राजपूत, दक्कन आदि के कारण मुगल साम्राज्य का पतन हुआ. सतीश चंद्र, इरफान हबीब और अतहर अली जैसे मुझे इतिहासकारोँ ने मुगल साम्राज्य के पतन को दीर्घकालिक प्रक्रिया का परिणाम माना है.
औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों मुअज्जम, मुहम्मद आजम और मोहम्मद कामबख्श मेँ उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ, जिसमें मुअज्जम सफल हुआ. उत्तर मुगल काल के शासक अपेक्षाकृत कमजोर थे या नाममात्र के थे. ये शासक इस प्रकार हैं:
बहादुर शाह प्रथम (1707 ई. से 1712 ई.)
उत्तराधिकार के युद्ध मेँ सफल होने के बाद मुअज्जम 65 वर्ष की अवस्था मेँ बहादुर शाह प्रथम की उपाधि के साथ दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ. बहादुर शाह ने मराठोँ और राजपूतो के प्रति मैत्रीपूर्ण नीति अपनाई. इसने शंभाजी के पुत्र शाहू मुगल कैद से आजाद कर दिया. बहादुर शाह ने बुंदेल शासक छत्रसाल को बुंदेल राज्य का स्वामी स्वीकार कर लिया.
इतिहासकार खफी खाँ के अनुसार बादशाह राजकीय कार्योँ मेँ इतना लापरवाह था की लोग उसे ‘शाह-ए-बेखबर’ कहने लगे. सिक्ख नेता बंदा बहादुर के विरुद्ध एक सैन्य अभियान के दौरान फरवरी 1712 ई. मेँ बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु हो गई. इसे औरंगजेब के मकबरे के आंगन मेँ दफनाया गया.
सर सिडनी ओवन ने बहादुर शाह के विषय मेँ लिखा है की वह अंतिम मुगल शासक था, जिसके बारे मेँ कुछ अच्छी बातेँ कही जा सकती हैं.
जहांदार शाह (1712 ई. से 1713 ई.)
1712 ई. मेँ बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जहाँदारशाह मुग़ल शासन की गद्दी पर बैठा. ईरानी मूल के शक्तिशाली अमीर जुल्फिकार खां की सहायता से जहांदार शाह ने अपने भाई अजीम-उस-शान, रफी-उस-शान तथा जहान शाह की हत्या कर शासक बना. यह एक अयोग्य एवं विलासी शासक था. जहांदार शाह पर उसकी प्रेमिका लालकंवर का काफी प्रभाव था.
जहांदार शाह ने जुल्फिकार खां को बजीर के सर्वोच्च पद पर नियुक्त किया. जहांदार शाह ने वित्तीय व्यवस्था मेँ सुधार के लिए राजस्व वसूली का कार्य ठेके पर देने की नई व्यवस्था प्रारंभ की जिसे इस्मतरारी व्यवस्था कहते है.
जहांदार शाह ने आमेर के राजा सवाई जयसिंह को ‘मिर्जा’ की उपाधि के साथ मालवा का सूबेदार बनाया. जहांदार शाह ने मारवाड़ के राजा अजीत सिंह को ‘महाराजा’ की उपाधि प्रदान कर गुजरात का सूबेदार बनाया. अजीमुशान के पुत्र फरूखसियर ने हिंदुस्तानी अमीर सैय्यद बंधुओं के सहयोग से जहांदार शाह को सिंहासन से अपदस्थ उसकी हत्या करवा दी.
फरूखसियर (1713 ई. से 1719 ई.)
सैय्यद बंधुओं की सहायता से मुग़ल सासन की गद्दी पर फरूखसियर आसीन हुआ. फर्रुखसियर ने सैय्यद बंधुओं में से अब्दुल्ला खां को वजीर और हुसैन अली को मीर बख्शी नियुक्त किया. सैय्यद बंधुओं को मध्यकालीन भारतीय इतिहास मेँ ‘शासक निर्माता’ के रुप मेँ जाना जाता है.
फरूखसियर के शासन काल मेँ सिक्खोँ के नेता बंदा बहादुर को पकड़ कर 1716 मेँ उसका वध कर दिया गया. फरूखसियर ने 1717 ई. मेँ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की बहुत सारी व्यापारिक रियायतें प्रदान कीं.
1719 में हुसैन अली खान ने तत्कालीन मराठा बालाजी विश्वनाथ से ‘दिल्ली की संधि’ की जिसके तहत मुगल सम्राट की ओर से मराठा राज्य को मान्यता देना, दक्कन में मुगलोँ के 6 प्रांतो से मराठोँ को चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार प्रदान किया गया. इसके बदले मेँ मराठोँ द्वारा दिल्ली मेँ सम्राट की रक्षा के लिए 15 हजार सैनिक रखने थे.
सैय्यद बंधुओं ने षड्यंत्र द्वारा जून, 1719 में फरुखसियर को सिंहासन से अपदस्थ करके उसकी हत्या करवा दी. फरूखसियर की हत्या के बाद सैय्यद बंधुओं ने रफी-उर-दरजात तथा रफी-उद-दौला को मुग़ल बादशाह बनाया. दोनो ही सैय्यद बंधुओं के कठपुतली थे. रफी-उद-दौला ‘शाहजहाँ द्वितीय’ की उपाधि धारण कर मुग़ल शासन की गद्दी पर बैठा.
मुहम्मद शाह (1719 ई. से 1748 ई.)
शाहजहाँ द्वितीय की मृत्यु के बाद उसके पुत्र रौशन अख्तर को सैय्यद बंधुओं ने मुहम्मद शाह की उपाधि के साथ मुग़ल शासन की गद्दी पर बैठाया. मोहम्मद शाह के शासनकाल मेँ सैय्यद बंधुओं का पतन हो गया. इनके बाद आमीन खाँ को बजीर बनाया गया. लेकिन उसकी मृत्यु के बाद निजाम-उल-मुल्क वजीर बना, जो बाद मेँ मुगल दरबार की साजिशों से तंग आकर दक्कन चला गया.
मुहम्मद शाह ने 1724 मेँ जजिया कर अंतिम रुप से समाप्त कर दिया. मुहम्मद शाह की सार्वजनिक मामलोँ के प्रति उदासीनता एवं विलासिता में तल्लीनता के कारण उसे ‘रंगीला’ कहा जाता था. इसके शासन काल मेँ कई राज्योँ के सूबेदारोँ ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी. इसके शासनकाल मेँ ईरान के साथ नादिर शाह ने 1739 में भारत पर आक्रमण किया.
मुहम्मद शाह के शासन काल मेँ नादिरशाह के उत्तराधिकारी अहमद शाह अब्दाली ने 1748 ई. में 50 हजार सैनिकोँ के साथ पंजाब पर आक्रमण किया.
अहमद शाह (1748 ई. से 1754 ई.)
1748 में मुहम्मद शाह की मृत्यु के बाद अहमद शाह मुगल शासक बना. अहमद शाह ने अवध के सूबेदार सफदरजंग को अपना बजीर बनाया. अहमद शाह एक अयोग्य एवं भ्रष्ट शासक था. उसकी दुर्बलता का लाभ उठा कर उसकी माँ उधम भाई ने हिजड़ो के सरदार जावेद खां के साथ मिलकर शासन पर कब्जा जमा लिया था.
अहमद शाह अब्दाली ने अहमद शाह के शासन काल मेँ 1748-59 के बीच भारत पर पांच बार आक्रमण किया. मराठा सरदार मल्हार राव की सहायता से इमाद-उल-मुल्क, सफदरजंग को अपदस्थ कर मुगल साम्राज्य का वजीर बन गया.
1754 वजीर इमाद-उल-मुल्क ने मराठोँ के सहयोग से अहमद शाह को अपदस्थ कर जहांदार शाह के पुत्र अजीजुद्दीन को ‘आलमगीर द्वितीय’ के नाम से गद्दी पर बैठाया. आलमगीर द्वितीय वजीर इमाद-उल-मुल्क की कठपुतली था. इमाद-उल-मुल्क ने 1759 मेँ आलमगीर द्वितीय की हत्या कर दी.
शाहआलम द्वितीय (1759 ई. से 1806 ई.)
आलमगीर द्वितीय के बाद अलीगौहर, शाह आलम द्वितीय की उपाधि धारण कर मुगल शासन की गद्दी पर बैठा. शाहआलम द्वितीय ने 1764 में बंगाल के शासक मीर कासिम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ मिलकर अंग्रेजो के विरुद्ध बक्सर के युद्ध मेँ भाग लिया.
बक्सर के युद्ध मेँ ऐतिहासिक पराजय के बाद अंग्रेजो ने शाह आलम के साथ इलाहाबाद की संधि की, जिसके द्वारा शाहआलम को कड़ा तथा इलाहाबाद का क्षेत्र मिला. मुगल बादशाह शाह आलम ने बंगाल बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इंडिया कंपनी को प्रदान की. जिसके बदले मेँ कंपनी ने 26 लाख रुपए देने का वादा किया.
1772 ई. मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने पेंशनभोगी शाहआलम द्वितीय को पुनः दिल्ली की गद्द्दी पर बैठाया. रुहेला सरदार गुलाम कादिर ने शाहआलम द्वितीय को अंधा कर के 1806 ई. में उसमे उसकी हत्या कर दी. शाहआलम द्वितीय के समय मेँ 1803 में दिल्ली पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया.
शाहआलम द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अकबर द्वितीय अंग्रेजो के संरक्षण मेँ 1806 में मुगल बादशाह बना. उसने 1837 तक शासन किया. उसने राजा राम मोहन राय को इंग्लैण्ड भेजा था.
बहादुरशाह द्वितीय (1837 ई. –1857 ई.)
अकबर द्वितीय की मृत्यु के बाद बहादुरशाह द्वितीय मुगल बादशाह बना. यह जफ़र के नाम से शायरी लिखता था. 1857 के विद्रोह मेँ विद्रोहियोँ का साथ देने के कारण अंग्रेजो ने इसे निर्वासित कर रंगून भेज दिया जहाँ 1862 मेँ इसकी मृत्यु हो गई. यह मुगल साम्राज्य का अंतिम शासक सिद्ध हुआ. इसकी मृत्यु के साथ मुगल साम्राज्य का भारत मेँ अंत हो गया.
मुग़ल साम्राज्य के पतन के कारण (Causes for the decline of Mughal Empire)
मुग़ल साम्राज्य का पतन कोई एकाएक घटना नहीं थी, बल्कि यह आर्थिक, प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक-धार्मिक कारकों के एक जटिल और लंबी प्रक्रिया का परिणाम था, जो विशेष रूप से औरंगज़ेब की मृत्यु (1707 ई.) के बाद तेज़ी से उभरे. विभिन्न इतिहासकारों ने इन कारकों का विस्तार से विश्लेषण किया है, जिनका सार एक उच्च-स्तरीय अकादमिक परिप्रेक्ष्य में यहाँ प्रस्तुत किया गया है.
मुगल साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:
कमजोर उत्तराधिकारी और शाही चरित्र का पतन
मुग़ल सरकार की सफलता शासक के व्यक्तिगत चरित्र और क्षमता पर अत्यधिक निर्भर थी, क्योंकि यह एक व्यक्तिगत निरंकुशता से प्रेरित थी. औरंगज़ेब के बाद, उत्तराधिकार के निश्चित नियम का अभाव होने के कारण सिंहासन के लिए लगातार उत्तराधिकार के युद्ध होते रहे, जिससे साम्राज्य का स्थायित्व कमज़ोर हुआ और पक्षपात को बढ़ावा मिला.
बाद के मुग़ल शासक (जैसे बहादुर शाह, जहाँदार शाह, मुहम्मद शाह) अयोग्य, विलासितापूर्ण जीवनशैली में लिप्त और प्रशासन के प्रति उदासीन थे. उनकी अयोग्यता के कारण वे साम्राज्य को नियंत्रित करने, विद्रोहों को दबाने और साज़िशों पर लगाम लगाने में पूरी तरह असमर्थ रहे.
सम्राट और सैनिकों के बीच सीधा संपर्क न होने से सेना में अनुशासन की कमी आई, और मनसबदारों ने सेना के रखरखाव के बजाय धन का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया, जिससे सेना की क्षमता और मनोबल गिर गया.
मनसबदारी-जागीरदारी संकट और कुलीनों का पतन
प्रशासनिक अक्षमता का एक महत्वपूर्ण पहलू मनसबदारी और जागीरदारी व्यवस्था में उत्पन्न संकट था. मुग़ल साम्राज्य की केंद्रीकृत नौकरशाही संरचना, जो मनसबदारों पर निर्भर थी, जागीर संकट के कारण चरमरा गई.
औरंगज़ेब के शासनकाल के अंतिम वर्षों में, नियुक्त जागीरदारों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई, जिससे ‘पाइबाकी‘ भूमि (बांटी जाने वाली भूमि) की भारी कमी हो गई. वास्तविक राजस्व संग्रह अनुमानित आय (जमा) से काफी कम हो गया, जिससे जागीरदारों की आय कम हुई. इस आर्थिक संकट ने कुलीन वर्ग के भीतर गुटबाजी, साज़िशों और आपसी संघर्ष को जन्म दिया (जैसे तुरानी, ईरानी, अफगान और स्वदेशी मुसलमानों के गुट).
कुलीनों ने अपनी वफादारी छोड़कर अधिक जागीरें और ऊँचे पद हासिल करने के लिए संघर्ष करना शुरू कर दिया, यहाँ तक कि ज़मींदारों और क्षेत्रीय शासकों के साथ गठबंधन कर लिया. कुलीनों का यह पतन, उनकी विलासिता और नैतिक-बौद्धिक गिरावट, सीधे तौर पर शाही प्रशासन की शक्ति को कमज़ोर करने वाला सिद्ध हुआ.
औरंगज़ेब की नीतियाँ और क्षेत्रीय शक्तियों का उदय
औरंगज़ेब की कुछ नीतियों ने भी मुग़ल साम्राज्य के पतन में एक मूलभूत भूमिका निभाई. उसकी धार्मिक नीतियाँ, विशेषकर जज़िया का पुन: लागू होना और गैर-मुस्लिमों पर प्रतिबंध, ने साम्राज्य के बड़े हिस्से (राजपूतों, जाटों, सिखों, मराठों) को अलग-थलग कर दिया और विद्रोह के लिए प्रेरित किया, जिससे साम्राज्य के संसाधन ख़त्म हुए.
इसके अलावा, उसकी दक्कन नीति पूरी तरह विफल रही. बीजापुर और गोलकुंडा के विरुद्ध लगातार संघर्ष और मराठों के साथ अंतहीन युद्धों ने मुग़ल सेना और खजाने को अपूरणीय क्षति पहुंचाई. मराठा शक्ति (शिवाजी और पेशवाओं के अधीन) मुग़लों के पतन का सबसे महत्वपूर्ण बाहरी कारक बनी, जिसने मुग़ल साम्राज्य के मुरझाते तने पर निर्णायक प्रहार किया.
सिखों और क्षेत्रीय नवाबों (जैसे बंगाल, अवध, हैदराबाद) ने भी मुग़ल सत्ता के कमजोर पड़ते ही अपनी स्वायत्तता स्थापित कर ली, जिससे साम्राज्य का विकेंद्रीकरण हुआ और यह विशाल क्षेत्र दिल्ली के केंद्रीय नियंत्रण से बाहर हो गया.
वित्तीय संकट और विदेशी आक्रमण
लंबे युद्धों (विशेषकर दक्कन में), शाहजहाँ के महत्वाकांक्षी निर्माण कार्यों (जैसे ताजमहल), और सम्राटों तथा कुलीनों की विलासितापूर्ण खर्चों ने राजकोष पर भारी बोझ डाला. कृषि उत्पादकता कम हुई, जबकि राजस्व की मांग बढ़ती गई, जिससे किसानों का शोषण बढ़ा और अंततः वे खेती छोड़ भागने लगे, जिसे इतिहासकार इरफान हबीब ने ‘कृषि संकट‘ का सिद्धांत दिया है.
यह वित्तीय गिरावट उत्तराधिकार के युद्धों और कमजोर प्रशासन के कारण और भी गंभीर हो गई, जिसके परिणामस्वरूप मुग़ल साम्राज्य दिवालियेपन के कगार पर पहुँच गया. इस आर्थिक कमज़ोरी का फायदा उठाते हुए नादिर शाह (1739 ई. में) और अहमद शाह अब्दाली जैसे विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत पर हमला किया. इन आक्रमणों ने मुग़ल साम्राज्य की सैन्य कमज़ोरी को उजागर किया, भारी मात्रा में संपत्ति (जैसे कोहिनूर हीरा और तख्ते-ताऊस) लूटकर राजकोष को खाली कर दिया, और साम्राज्य की प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया.
इन आक्रमणों ने यूरोपीय शक्तियों (विशेषकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी) के लिए भारत में अपनी राजनीतिक और आर्थिक घुसपैठ को बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त किया, जो अंततः मुग़ल साम्राज्य के पूर्ण विघटन का कारण बना.
इन सभी परस्पर जुड़े कारकों ने मिलकर मुग़ल साम्राज्य की नींव को खोखला कर दिया, जिससे 18वीं शताब्दी में एक शक्ति-शून्य (Power Vacuum) की स्थिति उत्पन्न हो गई जिसे अंततः क्षेत्रीय शक्तियों और ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने भरा.
मुगल प्रशासन (Mughal Administration)
मुगल प्रशासन सैन्य शक्ति पर आधारित एक केंद्रीकृत व्यवस्था थी. मुगलोँ ने एक ऐसे साम्राज्य की स्थापना की जिस पर खलीफा जैसी किसी विदेशी सत्ता का कोई अंकुश नहीँ था. मुगल कालीन राजत्व के सिद्धांत की स्पष्ट व्याख्या अबुल फजल ने आईन-ए-अकबरी मेँ की है. मुगल सम्राट सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति तथा सर्वोच्च नयायाधीश था. वास्तव मेँ साम्राज्य की सारी शक्तियाँ सम्राट मेँ निहित होती थी.
केंद्रीय प्रशासन के चार प्रमुख स्तंभोँ – वजीर, मीर बख्शी, खान-ए-सामा औरर रुद्र-उस-सुदूर थे. वजीर राजस्वविभाग तथा बादशाह का प्रधानमंत्री होता था. सम्राट की अनुपस्थिति मेँ वह शासन के साधारण कार्योँ को बादशाह की और से देखता था.
मीर बख्शी –सैन्य प्रशासन की देखभाल, मनसब दारों का प्रधान, सैनिकोँ की भर्ती, हथियारोँ तथा अनुशासन का प्रभारी होता था. खान-ए-सामा – राजमहल तथा कारखानो के अधिकारी होता था. रुद्र-उस-सुदूर –धार्मिक मामलोँ का अधिकारी था. दान विभाग भी उसी के अंतर्गत था. रुद्र-उस-सुदूर को ‘शेख-उस-इस्लाम’ कहा जाता था.
केंद्रीय प्रशासन के अन्य अधिकारी इस प्रकार थे:
- काजी-उल-कुजात – न्यायिक मामलोँ का अधिकारी था.
- मीर आतिश – यह शाही तोपखाने का प्रधान था.
- मुहतसिब – प्रजा के नैतिक चरित्र की देखभाल करने के लिए नियुक्त अधिकारी.
- दरोगा-ए डाक चौकी – राजकीय डाक तथा गुप्तचर विभाग का प्रधान था.
- मीर-बहर – नौसेना का प्रधान था.
- मीर अदल – यह न्याय विभाग का महत्वपूर्ण अधिकारी था.
- हरकारा – ये जासूस एवं संदेशवाहक दोनो होते थे.
प्रांतीय प्रशासन (Pronvincial Administration)
मुगल साम्राज्य को सूबों (प्रान्तों) मेँ सूबों को सरकारोँ (जिलो) मेँ, सरकारोँ को परगनोँ (महलोँ) मेँ तथा परगनोँ को गावों मेँ बाटा गया था. अकबर के समय सूबेदार होता था, जिसे सिपहसालार या नाजिम भी का कहा जाता था. दीवान सूबे प्रधान वित्त एवं राजस्व अधिकारी होता था. बख्शी का मुख्य कार्य सूबे की सेना की देखभाल करना था.
प्रांतीय रुद्र न्याय के साथ-साथ प्रजा की नैतिक चरित्र एवं इस्लाम धर्म के कानूनों की पालन की व्यवस्था करता था. कोतवाल सूबे की राजधानी तथा बड़े-बड़े नगरो मेँ कानून एवं व्यवस्था की देखभाल करता था.
सरकार या जिले का प्रशासन (Sarkar or District Administration)
मुगल साम्राज्य मेँ अथवा जिलों मेँ फौजदार, कोतवाल, आमिल, और काजी प्रमुख अधिकारी थे. मुगल काल मेँ सरकार या जिले का प्रधान फौजदार था. इसका मुख्य कार्य जिले मेँ कानून व्यवस्था बनाए रखना तथा प्रजा को सुरक्षा प्रदान करना था.
खजानदार जिले का मुख्य खजांची होता था. इसका मुख्य कार्य राजकीय खजाने को सुरक्षा प्रदान करना था. आमलगुजार या आमिल जिले का वित्त एवं राजस्व का प्रधान अधिकारी था. काजी-ए-सरकार न्याय से संबंधित कार्य देखता था.
परगने का प्रशासन (Administration of Parganas)
सरकार परगनों में बंटी होती थी. परगने के प्रमुख अधिकारियोँ मेँ शिकदार, आमिल, फोतदार, कानूनगो और कारकून शामिल थे. शिकदार परगने का प्रधान अधिकारी था. परगने की शांति व्यवस्था और राजस्व वसूलना इसके प्रमुख कार्यों मेँ शामिल था.
आमिल परगने का प्रधान अधिकारी था. किसानो से लगान वसूलना इसका प्रमुख कार्य था. फोतदार परगने का खंजाची था. कानूनगो परगने के पटवारियोँ का प्रधान था. यह लगान, भूमि और कृषि से संबंधित कागजातों को संभालता था. कारकून लिपिक का कार्य देखता था.
ग्राम-प्रशासन (Village Administration)
मुगल काल मेँ ग्राम प्रशासन एक स्वायत्त संस्था से संचालित होता था. प्रशासन का उत्तरदायित्व प्रत्यक्षतः मुगल अधिकारियोँ के अधीन नहीँ था. ग्राम प्रधान गांव का प्रमुख अधिकारी था, जिसे ‘खुत’ और ‘मुकद्दमा चौधरी’ कहा जाता था. गांव में वित्त राजस्व और लगान से संबंधित अधिकारियों को पटवारी कहा जाता था. इन्हें राजस्व का एक प्रतिशत दस्तूरी के रुप मेँ दिया जाता था.
मुगल कालीन अर्थव्यवस्था (Mughal Era Economy)
मुगल साम्राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भूराजस्व था. मुगल कालीन समस्त भूमि को तीन भागोँ मेँ विभक्त किया गया था – 1. खालसा भूमि 2. जागीर भूमि, तथा 3. मदद-ए-माशा. खालसा भूमि प्रत्यक्ष रुप से शासन के अधीन थी. इससे प्राप्त आय शाही कोष मेँ जमा होती थी.
साम्राज्य की अधिकांश भूमि जागीर भूमि थी क्योंकि यह राज्य के प्रमुख अधिकारियोँ को वेतन के बदले मेँ दी जाती थी. मदद-ए-माश को मिल्क भी कहा जाता था इस प्रकार की भूमि अनुदान मेँ दी जाती थी इस तरह की भूमि से आय प्राप्त नहीँ होती थी.
मुगल काल मेँ राजस्व का निर्धारण की चार प्रमुख प्रणालियां प्रचलित थीं – 1. जब्ती या दहसाला प्रणाली 2. बंटाई या गल्ला बक्शी 3. कनकूत 4. नस्क. दहसाला प्रणाली 1580 में राजा टोडरमल द्वारा शुरु की गई थी.
कनकूत प्रथा के अनुसार लगान का निर्धारण भूमि की उपज के अनुमान के आधार पर किया जाता था. कनकूत प्रणाली के अंतर्गत भू-राजस्व अनाज मेँ निर्धारित होता था जबकी भक्ति प्रणाली के तहत नकद रुप मेँ.
नस्क प्रणाली मेँ भूमि के माप के बिना लगान निर्धारित किया जाता था. खेती के विस्तार एवं बेहतरी के लिए राज्य की ओर से ‘तकावी’ नामक ऋण भी दिया जाता था. भू राजस्व के अलावा जजिया और जकात नामक कर भी लिए जाते थे.
मुगल काल मेँ गेहूँ, चावल, बाजरा, दाल आदि प्रमुख खाद्यान्न उपजाए जाते थे. नील की खेती भी की जाती थी, जिसका व्यापारिक महत्व था. उद्योग धंधोँ मेँ सूती वस्त्र उद्योग उन्नत अवस्था मेँ था. रेशम उद्योग के प्रमुख केंद्र आगरा, लाहौर, दिल्ली, ढाका और बंगाल थे. भारत मेँ निर्मित कपड़ों को ‘केलिफो’ कहा जाता था.
मुगल काल मेँ निर्मित मुख्य वस्तु नील, शोरा, अफीम एवं सूती वस्त्र थे, जबकि मुख्य आयात सोना, चांदी, घोड़ा. कच्चा रेशम आदि थे. समुद्री व्यापार मेँ लगे मुस्लिम व्यापारियों मेँ ‘खोजा’ और ‘बोहरा’ प्रमुख थे.
हीरा गोलकुंडा और छोटानागपुर की खानों से प्राप्त होता था. विश्वप्रसिद्ध कोहिनूर हीरा गोलकुंडा की खान से प्राप्त हुआ था. मुगल कालीन चमड़ा उद्योग भी उन्नत अवस्था मेँ था.
मनसबदारी व्यवस्था (Mansab System)
मुगल साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता मनसबदारी व्यवस्था थी. मनसबदारी व्यवस्था मुगल सैनिक व्यवस्था की आधार थी. यह व्यवस्था मंगोलोँ की दशमलव प्रणाली पर आधारित थी. मनसबदारी व्यवस्था का आरंभ 1577 ईस्वी मेँ अकबर ने किया था. इस व्यवस्था मेँ दशमलव प्रणाली के आधार पर अधिकारियो के पदों का विभाजन किया जाता था. ‘मनसब’ की पदवी या पद संज्ञा नहीँ थी, वरन् यह किसी अमीर की स्थिति का बोध कराती थी.
‘जात’ शब्द से व्यक्ति के वेतन तथा पद की स्थिति का बोध होता था, जबकि ‘सवार’ शब्द घुड़सवार दस्ते की संख्या का बोध कराता था. सैनिक तथा नागरिक दोनो को मनसब प्रदान किया जाता था. यह पैत्रिक नहीँ था.
मनसबदारों को नगर अथवा जागीर के रुप मेँ वेतन मिलता था. उन्हें भूमि पर नहीँ बल्कि सिर्फ उस क्षेत्र के राजस्व पर अधिकार मिलता था. 10 से 5000 तक के मनसब दिए जाते थे. 5000 के ऊपर के मनसब शहजादों तथा राजवंश के लोगोँ के लिए सुरक्षित होते थे.
औरंगजेब के समय मेँ मनसबदारो की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि उन्हें देने के लिए जागीर नहीँ बची. प्रारंभ मेँ मनसबदारोँ को दोस्त 240 रुपए वार्षिक प्रति सवार मिलता था. किंतु जहाँगीर के काल मेँ यह राशि घटाकर 200 रुपए वार्षिक कर दी गई.
अकबर के काल मेँ यह नियम था कि किसी भी मनसबदार का ‘सवार’ पद उसके ‘जात’ पद से अधिक नहीँ हो सकता है. जहाँगीर ने ऐसी प्रथा चलाई, जिसमे बिना ‘जात’ पद बढ़ाये मनसबदारों को अधिक सेना रखने को कहा जाता था. इस प्रथा को ‘दुह-आस्था’ अथवा ‘सिंह-आस्था’ कहा जाता था.
मुगल कालीन समाज (Mughal Era Society)
मुगल कालीन समाज दो वर्गो मेँ विभक्त था – धनी या अमीर वर्ग तथा जनसाधारण वर्ग, जिसमें किसान, दस्तकार और मजदूर शामिल थे. उच्च वर्ग के लोग अधिकतर मनसबदार, जागीरदार एवं जमींदार होते थे.
मुगलकाल मेँ कुलीन स्त्रियोँ की सम्मानजनक स्थिति थी. समाज मेँ विधवा विवाह, पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि का निषेध था. दहेज प्रथा, सती प्रथा आदि समाजिक कुरीतियाँ प्रचलित थीं.
भूमिहीन किसानोँ तथा श्रमिकोँ की सामाजिक स्थिति अत्यंत दयनीय थीं. समाज सामंतवादी संस्था के समान दिखता था जिसके शीर्ष पर बादशाह था.
विधवा विवाह महाराष्ट्र के गौड़ ब्राह्मणों तथा पंजाब एवं यमुना घाटी के जाटो मेँ प्रचलित था. बादशाहोँ तथा राज्य के बड़े-बड़े सरदारोँ के हरम मेँ हजारोँ स्त्रियाँ रखैलो और दासियोँ के रुप मेँ रहती थीं. मुगल बादशाहों मेँ एक ओरंगजेब ही था, जो अपनी पत्नी के प्रति समर्पित था.
मुगल कालीन कला एवँ संस्कृति (Mughal Era Arts and Culture)
कला एवँ संस्कृति के कारण मुगल काल इतिहास में प्रसिद्द है. मुगल काल की बहुमुखी सांस्कृतिक गतिविधियाँ के कारण इसे भारतीय इतिहास का ‘द्वितीय क्लासिक’ युग कहा जाता है. मुगल स्थापत्य कला का इतिहास बाबर से आरंभ होता है, लेकिन मुगल स्थापत्य शैली आरंभ स्पष्ट रूप से अकबर के काल मेँ परिलक्षित होता है. मुग़लकालीन स्थापत्य की मुख्य विशेषता ‘पित्रादुरा शैली’ का प्रयोग है, जिसमें संगमरमर पर हीरे एवं जवाहरातोँ की जड़ावत की जाती थी.
शाहजहाँ के काल मेँ स्थापत्य कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई. इस काल मेँ संगमरमर का सर्वाधिक प्रयोग हुआ. ताजमहल संगमरमर के प्रयोग का जीवन्त नमूना है.
अकबर के काल मेँ चित्रकला को प्रोत्साहन मिला. मीर सईद अली, बब्दुसमद, दसवंत और बसावन अकबर काल के प्रमुख चित्रकार थे. जहाँगीर के दरबार मेँ फारसी चित्रकार आगा रेजा, अब्दुल हसन और उस्ताद मंसूर थे.
मुग़ल चित्रकला की महत्पूर्ण कलाकृति ‘हमजान-मद’ या दास्तान-ए-अमीर-हमजा है. मंसूर की महत्वपूर्ण कृतियां साइबेरिया का बिल सारस तथा बंगाल का एक पुरुष है.
अकबर ने संगीत तथा संगीतकारोँ को काफी प्रश्रय दिया. अबुल फजल के अनुसार अकबर के दरबार मेँ 66 गायक थे. अकबर के दरबार मेँ तानसेन सबसे महत्वपूर्ण संगीतज्ञ था, जिसे अकबर ने ‘कंठामरण विलास’ की उपाधि प्रदान की थी. मुगल शासको ने साहित्य और साहित्यकारोँ को संरक्षण प्रदान किया था.
अकबर ने महाभारत का फ़ारसी मेँ अनुवाद करवाया, जिसे ‘रज्मनामा’ के नाम से जाना जाता है. अकबर के काल मेँ ही कुरान का पहली बार अनुवाद हुआ.
हुमायूँनामा की रचना हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम ने की थी. अकबरनामा की रचना अबुल फजल द्वारा की गई थी. तुजुक-ए-जहांगीरी (जहाँगीर की आत्मकथा) स्वयं जहाँगीर ने लिखी है. शाहजंहानामा दो हैं, जिनकी रचना मोहम्मद सलीह और इनायत खान ने की थी.
मुगल कालीन प्रमुख इमारतें | ||
इमारत | निर्माता | स्थान |
जामा मस्जिद | इल्तुतमिश | दिल्ली |
सुल्तानगढ़ी | इल्तुतमिश | दिल्ली |
अतारकिन का दरवाजा | इल्तुतमिश | दिल्ली |
लाल महल | बलबन | दिल्ली |
जमात खाना मस्जिद | अलाउद्दीन खिलजी | दिल्ली |
अलाई दरवाजा | अलाउद्दीन खिलजी | दिल्ली |
हजार सितून महल | अलाउद्दीन खिलजी | दिल्ली |
तुगलकाबाद | गयासुद्दीन तुगलक | दिल्ली |
जहांपना नगर | मुहम्मद तुगलक | दिल्ली |
मोठ की मस्जिद | मियां भुंवा | दिल्ली |
हुमायूं का मकबरा | हाजी महल | दिल्ली |
पंच महल | अकबर | आगरा |
लाहौरी दरवाजा | शाहजहाँ | दिल्ली |
अकबर का मकबरा | जहांगीर | सिकंदरा (आगरा) |
स्मरणीय तथ्य (Important Facts)
- भारत मेँ यूरोपीय व्यापारिक कंपनियोँ के आगमन का क्रम पुर्तगीज, डच, अंग्रेज, डेन व फ़्रांसीसी से हुआ.
- भारत मेँ आने वाला प्रथम यूरोपीय यात्री वास्कोडिगामा, द्वितीय यात्री पुर्तगाली पेड्रो अल्वारेज कैब्राल था.
- प्रथम पुर्तगीज गवर्नर फ्रांसिस्को अल्मेडा था, जबकि प्रथम अंग्रेज जॉन मिल्दें हाल था.
- बम्बई, कलकत्ता और मद्रास तथा दिल्ली का संस्थापक क्रमशः गेराल्ड औंगिया, जॉब चारनाक, फ्रान्सिस्डे तथा एडविन लुटियंस था.
- अंग्रेजो का विरोध करने वाला पहला विद्रोही जमींदार बर्दवान का जमींदार शोभा सिंह था.
मुगल साम्राज्य पर 5 अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. मुगल साम्राज्य की स्थापना किसने और कब की थी?
जवाब: मुगल साम्राज्य की स्थापना बाबर ने 1526 ईस्वी में की थी. उसने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली सल्तनत को समाप्त कर दिया था.
2. मुगल साम्राज्य का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था?
जवाब: मुगल साम्राज्य का सबसे प्रसिद्ध शासक अकबर (जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर) था. उसे अपनी धार्मिक सहिष्णुता की नीति, प्रशासनिक सुधारों (जैसे मनसबदारी प्रथा), और विशाल साम्राज्य विस्तार के लिए जाना जाता है.
3. मुगल साम्राज्य की वास्तुकला की सबसे उत्कृष्ट कृति कौन सी है?
जवाब: मुगल वास्तुकला की सबसे उत्कृष्ट कृति ताजमहल है. इसे सम्राट शाहजहाँ ने अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में आगरा में बनवाया था. अन्य महत्वपूर्ण कृतियों में दिल्ली का लाल किला और आगरा का किला शामिल हैं.
4. मुगल साम्राज्य का पतन कब और क्यों शुरू हुआ?
जवाब: मुगल साम्राज्य का पतन औरंगजेब की मृत्यु (1707 ईस्वी) के बाद शुरू हुआ. इसके मुख्य कारणों में औरंगजेब की दक्कन की लंबी और खर्चीली लड़ाइयाँ, उसकी धार्मिक असहिष्णुता की नीतियाँ, उत्तराधिकार के लिए संघर्ष, और बाद के शासकों की कमजोरी के कारण क्षेत्रीय शक्तियों (जैसे मराठे) का उदय शामिल थे.
5. मुगल साम्राज्य का अंतिम शासक कौन था?
जवाब: मुगल साम्राज्य का अंतिम शासक बहादुर शाह ज़फ़र (द्वितीय) था. 1857 के विद्रोह में उनकी भागीदारी के बाद, ब्रिटिशों ने उन्हें रंगून (वर्तमान यांगून, म्यांमार) निर्वासित कर दिया और 1858 में औपचारिक रूप से मुगल साम्राज्य को समाप्त कर दिया.